मार्क्स की मूँछ से बाल झड़ रहे हैंसंतोष अर्श |
हिन्दी कविता के इस समय का यह रुपहला पक्ष है कि इसे पर्याप्त स्त्री कवियों ने परवान चढ़ाया है. यद्यपि स्त्री कवियों को ईमानदारी से पढ़ने और उनके काव्य पर निष्ठा से बात करने में हिन्दी का मर्दवादी इदारा अभी संकुचनशीलता की जीर्ण चादर ओढ़े हुए है। ‘स्त्री-स्वर’, ‘हाशिए की आवाज़’, ‘आधी आबादी’ इत्यादि के वरक़ में लपेट कर उसे मूल्यांकन की समानान्तर पटरी से धकेला जाता रहा है. साथ ही ‘स्त्री-रचित’ होने की रियायत दे कर दोयम दर्ज़ा या अगंभीरता प्रदान करने का एक आसान रास्ता और तैयार किया गया है. इससे आगे बढ़ भी गए तो ‘आलोचना के अभाव’ का विलाप है. और आगे बढ़ेंगे तब पायेंगे कि स्त्री कविता पर मध्यकालीन शब्दावली के साथ पेश आती हुई मर्दवादी नई-समीक्षा की लाचारी है या दिल्लीनशीन फटाफट समीक्षकों के ‘किफ़ायती पैकेज’, जिनमें एक साथ कई स्त्री कवियों की समीक्षा के पैकेट हैं. कभी-कभी केवल नामोल्लेख करके ही उनकी कविता के साथ ‘न्याय’ कर दिया जाता है. इन परिस्थितियों में भी हमारे समय की स्त्री कवियों की एक पीढ़ी है, जिसकी रचनात्मकता हिंदी कविता को समृद्ध कर रही है.
“हिन्दी साहित्य-सर्जना का बहुलांश इस समय कुछ बेहद उथली विचार-खाइयों में लोटते हुए उनमें उतरा रहे कुछ मृत शब्द सहेज लेने तक सीमित रह गया है.” जबकि हिन्दी कविता इसी छिछलेपन और उथलेपन से खुद-खुद गहरी होती रही है. उनके अनुसार कविता में राजनीति और समाज के अतिरिक्त भी ‘बहुत कुछ’ होता है और “राजनीतिक होने का चुनाव अनिवार्यतः औद्धत्य की प्रसूति करता है. औद्धत्य के चलते संसार में बुराई का प्रवेश होता है और ख़राब कविता लिखी जाती है.”
ग़ज़ब है कि समाज,राजनीति और विमर्श का प्रभाव इतना प्रचण्ड है. रामभक्त कवियों के “रामराज” और कृष्ण भक्त कवियों की “युगल सरकार” में भी समाज और राजनीति है. और औद्धत्य वहाँ ढूँढना पड़ता है. अपने समय और संसार को सुंदर देखने की लिप्सा के साथ अपनी रचनात्मकता में राजनीति का चुनाव कवि की विवशता है. यह प्रत्येक युग के उदात्त भावभूमि वाले कवियों और उनकी रचनाओं में भव्यता के साथ प्रस्तुत है. चाहे वह समाज हो या राजनीति. सुविज्ञ और साहित्य के प्रति उदार मन को केवल वर्तमान की कविता से आहत नहीं होना चाहिए. सभ्य समाज में अराजनीतिक होने का चुनाव वस्तुतः नामुमकिन है. राजनीति से अप्रभावित रहना भी अंततः राजनीतिक प्रभाव ही है.
हिन्दी कविता के वर्तमान परिदृश्य में मोनिका कुमार की कविताएँ अपने प्रभाव, अर्थ और वैचारिक संवेदन में ज़ुदा इसलिए दिखायी देती हैं क्योंकि इनका अधिकतम भाग उत्तर-आधुनिक प्रपंचों से मुक्त है. और यह पोलिश कविता का प्रभाव है, जिसने अपनी इस प्रवृत्ति से स्वयं को विश्व-काव्य में अलगाया है. समकालीनता से निस्पृह और उदासीन रहने, शोर में चुप रहने और ख़राबे में शांतचित्तता का अर्जन दुष्कर है. और इसे भावाभिव्यक्ति में बचाये रखना, रचना तक न पहुँचने देना और भी कठिन है. पोलिश कवि ज़िबिग्निव हर्बर्ट ने अपनी भाषा की महान कविता के इस गुण पर कहा है,
‘फ्रेंच और जर्मन कविता वाकपटुताहीन और उपदेशपरक हो सकती है,अंग्रेज़ी कविता संकुचित और क्षेत्रीय, अमरीकी कविता आत्म-केन्द्रित और अनुभूतिहीन. पोलिश कवि उत्तर-आधुनिक झकमारी और सनक में नहीं फँसे, जिसके साथ हर जगह के समकालीन लेखक बह गये : उन्होंने साहित्य के उद्देश्य को बरकरार रखने के लिए संघर्ष किया.’
चेज़स्लो मिलोस्ज़ से लेकर तादेऊश रोज़ेविच और विस्लावा शिम्बोर्स्का तक पोलिश कविता ने अपनी शानदार बौद्धिकता, सुविज्ञता, दार्शनिक सत्यपरकता, तत्त्व-मीमांसक दृष्टिकोण और समय की गवाह रहने की अपनी प्रवृत्तियों से संसार भर की कविता में अपना उच्च स्थान बनाये रखा है.
प्रेम का वृत्तान्त कितनी सादगी से भरा है. प्रेम बहुत है, आडंबर नहीं. उपेक्षा की तमाम पीड़ा के बावजूद प्रेम के लिए उल्लास भरा तैयार हृदय है. उपेक्षा से संकुचित ही सही:
मैं अंदाज़न कह पाती हूँकितना प्यार है तुमसेहाथ भर,समुद्र के जल जितनाया ज़रा भी नहीं.मैंने झूठ कहा,कि अंदाज़न कह पाती हूँकितना प्यार है तुमसे.
प्रणय प्रस्ताव के प्रत्युत्तर मेंतुम्हें देने के लिएमेरे पास राई के दाने जितना दिल है,यह तुम देखोइतना छोटा दिल अगर ठीक होगाप्रेम के लिए.
राई का दाना कविता का प्रेम, प्रेम से विरक्ति है. किन्तु आगंतुक प्रेम के सम्मान में राई के दाने जैसा दिल भी प्रस्तुत है. और ज़ाहिर है कि छोटे दिल के साथ बड़ा प्रेम नहीं किया जा सकता. उपेक्षा के दु:ख और अरहर की दाल के स्वाद के मध्य एक संकुचित हृदय है जो उपेक्षा के आघातों से ही संकुचित हुआ है. राई के दाने जितना. जिससे तड़का लगाया जाता रहा है. वह उपेक्षाबोध जिसे चाचियों ने बहुत पहले सीख लिया था. यह सच्चे प्रेमी का प्रेम है जो प्रेम के भ्रम का निवारण कर दे. शिम्बोर्स्का की कविताओं में जिसे एडवर्ड हिर्श ने ‘भ्रमनिवारक प्रेमी की आँख’ (Eye of disabused Lover) के रूप में देखा है. उपेक्षा का यह आघात स्त्री की सार्वभौमिक उपेक्षा से स्त्री-हृदय तक पहुँचता है. बिना शिकायत के अपनी उपेक्षा की पीड़ा को प्रस्तुत करते हुए स्त्री जीवन को बहुत महत्त्व न देने वाले पुरुष-वर्चस्व पर व्यंग्य है.
यह तुम देखो
इतना छोटा दिल अगर ठीक होगा
प्रेम के लिए-
पंक्ति इस व्यंग्य की ठोस अर्थ-ध्वनि है. इसे हम थोड़े गुस्से के रूप में भी देख सकते हैं. कविता के अर्थ की अंतिम तहों में यह थोड़ा सा गुस्सा आहत स्त्री अहं (ego) के साथ देर तक ध्वनित होता है. यह कलात्मक भी है. राई के दाने जितना यह दिल कितना विशाल है.
जीवन की अत्यंत निजी अनुभूतियों के साथ रची गयी मोनिका की कविताओं में एक गहरी उदासी,अनिच्छा और उदासीनता व्याप्त है. बेनियाज़ी (निस्पृहता) का एक लहजा,जिसमें उम्मीद की कोई सतही लहर नहीं है. परंतु निरीह निराशा भी ऐसा क्या कर देगी जो आशा नहीं कर सकती ? विरक्ति और विराग की घनीभूत अवस्थाओं को ठीक-ठीक अभिव्यक्त करने के प्रयास में जाना पड़ता है पत्तियों, फूलों और पेड़ों के पास. रसोई के दैनंदिन जीवन-व्यापार में दर्शन तलाशने. या अनानास के फल के बहाने कोई गहरी चुभती बात कहने. ‘चम्पा का पेड़’ कविता में जीवन पर तारी निस्पृहता देखते ही बनती है:
चम्पा के पेड़ पर कुछ भी उलझा हुआ नहीं है,पत्तियाँ मुश्किल से एक-दूसरे को स्पर्श करतींफूल खिले हुए टहनियों पर विरक्त,ऐसी निस्पृहता !जीवन है तो ऐसी निस्पृहता क्यों मेरे पेड़ !सर्वत्र तो दिखते हो,मन में किसके बसते हो.उत्तर मिला धीरे-से,निस्पृहता मेरा ढब है.
ज़्यादातर विद्यार्थी सोचते हैं जीवन बस जीवन है,कोई कला नहीं,जब तक मैं नहीं बताऊँ कविता क्या कर सकती है,उन्हें नहीं लगता कविता कुछ कर सकती है…कविता के सारांश पर बात करते हुए,मेरी आवाज़ धीमी हो जाती है,और अंततः मैं किताब बंद कर देती हूँ.
“Nothing can happen twice.In consequence, the sorry fact is that we arrive here improvised and leave without the chance to practice.”
इक ज़िंदगी अमल के लिए भी नसीब होये ज़िंदगी तो नेक इरादों में कट गयी.
रोज़मर्रा के क्रिया-व्यापारों से दर्शन उत्पन्न करने की भाषिक कुशलता काव्य-कला का एक परम्परागत अंग है. कबीर के ताने-बाने और उनके सेमल के फूल से लेकर ‘काचे कुम्भ’ से प्रतिपादित व्यावहारिक दर्शन का कौन क़ायल नहीं है. चेतना की निर्मिति में प्राकृतिक पदार्थों की भूमिका ही ऐतिहासिक पदार्थवादी दर्शन बन गयी. भारतीय स्त्री के घरेलू काम-काज (Household chores) से उत्पादित दर्शन और काव्यार्थ मोनिका की कविताओं में बेहद नया और मुतास्सिर करने वाला पक्ष है. अनुभूति से अर्जित पदार्थवादी ज्ञान और उससे उत्पादित दर्शन को स्पष्ट करने का सफल प्रयास मोनिका की कई कविताओं में दिखायी देता है. ‘ज़ंग लगना’ कविता इस प्रसंग में विशिष्ट है:
ज़ंग लगना लोहे से लोहे की विरक्ति है.जैसे रेशम का शॉल पड़े-पड़े घिस जाना,सभी कुछ जो नाज़ुक या कड़क हैटूटना चाहता है.फिर भी ज़ंग लगना टूटने का सुंदर ढंग हैपीस डालो ख़ुद कोबीच से रंग उतर आये,धैर्य इतना कि दिल में छेद हो जायेलोहे को सिर्फ़ लोहा नहीं काटताउसका अपना लोहा भी काटता है.
लोहे का अपना लोहा भी लोहा ही है. चेतना से ही देह मनुष्य है. चेतना के लुप्त होते ही देह भी पदार्थ में बदल जाती है. पदार्थ में चेतना नहीं होती. चेतना से पदार्थ को सिरजा जा सकता है. उसमें चैतन्य या मनुष्य की उपस्थिति दर्ज़ की जा सकती है. मोनिका की कविता ज़ंग लगने को लोहे से लोहे की विरक्ति कह रही है, जबकि नरेश सक्सेना की एक कविता ‘लोहे की रेलिंग’ ने बताया की ज़ंग लगना लोहे की ‘घर लौटने की एक मासूम इच्छा है.’ उसकी धरती की ओर वापसी, जहाँ से वह चला था. वहाँ शुद्ध पदार्थवाद है. यहाँ पदार्थ के आईने में अपनी चेतना का बिम्ब देखने की कोशिश है. विरक्ति मनुष्य का फ़लसफ़ाई मस’ला है पदार्थ का नहीं ! तो क्या मोनिका की कविताओं में हमें बौद्ध आध्यात्मिक पदार्थवाद (spiritual materialism) को देखना चाहिए ? ज़ंग लगना टूटने का बहुत सुंदर ढंग है. यह टूटने का ढंग भारतीय दर्शन में नश्वरता के गहन सिद्धांत से उद्दीप्त है. ज़ंग लगना यदि टूटने का सुंदर ढंग है,वाष्पित होना सूखने का. धुआँना, अंगार होना और राख हो जाना जलने का. अपने व्यामोह, आग्रहों, ज्ञान के अहं और शरीर के भार को शनै: शनै: त्यागते हुए मरने का भी एक सुंदर ढंग है. यह सुंदर कविता और आगे यही कहती है:
रेशम के कीड़े शॉल में छुपे रह करधैर्य से टूटते रहते हैं.गेहूँ के अंदर ही है घुनमटर की आज्ञा है सुंडियाँ उसे खा जायेंगुड़ चाहता है उड़ती हुई मक्खियाँ रातोंरात उसे छक जायें…मार्क्स की मूँछ से बाल झड़ रहे हैंजहाँ बाल गिरता है,श्रमिक पौधा लगा देता है.
साधारण बातों से गहन-गंभीर दर्शन की ओर देखने या इंगित करने का सलीक़ा काव्य-पंक्तियों में निरंतर विन्यस्त है. रेशम के कीड़े और शॉल, गेहूं और घुन, मटर और सुंडियाँ, गुड़ और मक्खियाँ पहुंचाती हैं मार्क्स के मूँछ के बालों तक. यह भी एक विरक्ति है. मोहभंग है. एक निष्ठा जो मार्क्स की मूँछ के बालों के साथ झर रही है. उत्तर-आधुनिक पूँजीवाद ने सबसे तगड़ा हमला मनुष्य की निष्ठा पर किया है. परंतु ऐसा भी नहीं है कि मार्क्सवाद से यह मोहभंग कोई बहुत नई बात है. सार्त्र को अब से बहुत पहले ‘तीसरे विकल्प’ की तलाश थी. और पोलिश भाषा ? जो नाज़ी होलोकास्ट, स्तालिनवादी अधिनायकत्त्व और मार्शल लॉ की चश्मदीद गवाह है, उसकी कवि शिम्बोर्स्का समाजवाद से मोहभंग पर क्या कहती हैं :
‘जब मैं युवती थी तब कुछ समय ऐसा था कि मैं समाजवादी विचारधारा में निष्ठा रखती थी. मैं कम्युनिज़्म से ही संसार को बचाना चाहती थी. अतिशीघ्र मैं समझ गयी कि इससे काम नहीं चलने वाला. किन्तु मैंने ऐसा ढोंग भी नहीं किया कि ऐसा नहीं हुआ है. अपनी रचनात्मकता की बहुत शुरुआत में ही मैंने इंसानियत से प्यार किया. मैं इसीलिए मानवता के लिए कुछ करना चाहती थी. जल्दी ही मैं यह भी समझ गई कि यह संभव नहीं कि मानवता को बचाया जा सके. लेकिन लोगों को पसंद करने की ज़रूरत है. प्रेम करने की नहीं, केवल पसंद करने की. अपने यौवन के मुश्किल अनुभवों से मैंने ये सबक़ सीखे.’
मोनिका की कविता में भी यह विरक्ति अनुभवों से प्रेरित होगी. लेकिन कविता का उम्मीदबर हिस्सा यह भी है कि ज़रूर मार्क्स की मूँछ से बाल झड़ रहे हैं. लेकिन जहाँ बाल गिरता है, वहाँ श्रमिक पौधा भी लगा रहा है. सभी पौधे पेड़ नहीं बनेंगे. कुछ बनेंगे भी.
गृहिणी की टोकरी में उचक रही हैंमुट्ठी भर हरी मिर्च और धनिये की चार टहनियाँजो शायद सब्ज़ी वाले की करुणा है…
दूसरे दृश्य में प्रेमी विच्छेद के समय प्रेमिका को चूम रहा है. यह उसकी प्रेम की असफलता को सहने की युक्ति है. सब्ज़ी वाले की करुणा निश्चय ही उसकी सफल व्यापार की युक्ति है. लेकिन प्रेम में कोई सफलता या असफलता नहीं होनी चाहिए. संभवतः होती भी नहीं है. प्रेम करके कोई सफल या असफल नहीं होता, वह केवल प्रेम करता है. यह इन दोनों से ऊपर की बात है. जहाँ तक करुणा के प्रति तिरस्कारपूर्ण (Sardonic) भाव की बात है तो वह अन्य कविताओं में भी है :
छिपकलियाँ एकांत के पार्षद की तरह घर में रहतींऔर मैं व्याकुलता की बंदी की तरह.निश्चित ही आसान नहीं थाछिपकलियों से प्रार्थना करनाइनके वरदान पर भरोसा करनापर इससे कहीं अधिक मुश्किल काम मैं कर चुकी थी,जैसे मनुष्य से करुणा की उम्मीद करना.
मोनिका की कविताओं का स्त्रीवाद उतना मुखर नहीं है जितना कि हम उत्तर-आधुनिक परिप्रेक्ष्य में देखते-सुनते हैं. यह कविताओं में विपर्यस्त है. बराबर चलती हुई चुप्पी के साथ. स्त्री की उपेक्षा की ट्रेजडी सार्वभौमिक है. एक ऊर्ध्व अक्ष पर आते ही स्त्रीवाद की तमाम बातें एक जैसी लगने लगती हैं. यह डिस्कोर्स का कमज़ोर पक्ष है. मोनिका बहुत स्थिर हो कर स्त्री की बात कहती हैं, इसलिए वह अपने पूरे सौंदर्य के साथ प्रभाव डालती है:
मैंने कभी नहीं देखा वह लड़की कौन हैजिसे माँ ने इतना प्रेम कियाकुछ विद्यार्थी लड़कियाँ होती हैंजो स्मृति में तो रहती हैंलेकिन दसवीं के बाद आँखों से ओझल हो जाती हैं.
स्त्री को लेकर मुखरता के स्थान पर जो विनम्रता हमें मिलती है वह व्यंजित होने लगती है. यदि स्त्री के लिए हमारे हृदय में करुणा और समानता का भाव है, उसके ऐतिहासिक दलन के प्रति किसी तरह की प्रतिरोधी चेतना है तो यह विनम्रता हमें व्यंग्य जैसी महसूस होगी. आग पानी कविता की अतिशय विनम्र स्त्री व्यंग्य करती हुई जान पड़ती है. विनम्रता की वटी पद का प्रयोग प्रत्यक्ष व्यंग्य है. इस तरह हम एक स्लो बर्न जो कि एक विज़ुअल कलात्मक ढंग का गुस्सा या नाराज़गी है,स्त्री संदर्भों में काव्यात्मक युक्तियों के साथ देख सकते हैं. स्त्री के सार्वभौमिक दु:ख कविता में पहुँच कर समान भी हो जाते हैं. नींद की बात कुछ ऐसी ही है. शहरज़ाद उनींदी पड़ी है कविता में नींद की चाह सारी दुनिया की औरतों की नींद की चाह बन कर अभिव्यक्त हुई है:
ख़ुद को ज़िंदा रखने के लिएइतने रतजगों के बाद,उसे प्रेम से अधिक नींद की ज़रूरत है.
“आचरण की विनम्रता, सहिष्णुता एवं वेदना इस प्रकार के सौम्य देवोपम गुण हैं कि उदात्त काव्यात्मक कृतियों में देव इनसे आभूषित होते हैं और कदाचित्, उनकी साधुता का कोई चित्र मनुष्य को इतनी प्रबलता के साथ आकर्षित नहीं करता जितना कि वह जिनमें वह दयालुता व क्षमाशीलता को बहुलता से प्रदर्शित करती हैं.”
‘मैं बोलती हूँ शब्द मौन और इसे नष्ट कर देती हूँ’
‘सभी अनुमान मेरी भाषा की नाकामी हैं’
(चित्र द्वारा अशोक मौर्य)
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