मुस्लिम स्त्रियों की आत्मकथाएँ
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हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले
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“जो औरतें बेहयाई का काम करें, तुम्हारी बीबियों में से, सो तुम लोग उन औरतों पर चार आदमी अपने से गवाह कर लो. अगर वो गवाही दे दें, तो तुम उनको घरों के अंदर क़ैद रखो. यहाँ तक कि मौत उनका खात्मा न कर दे या अल्लाह उनके लिए कोई और रास्ता निकाल दे.”
(सूरह अन निसा, आयत 15 )
“और जो औरतें जवानी की हद से उतार कर बैठ चुकी हों, अगर वे अपनी चादरें रख दें तो उन्हें कोई गुनाह नहीं. अलबत्ता उनका इरादा साज-सिंगार का नहीं होना चाहिए, लेकिन अगर फिर भी वे लज्जा-संकोच से चादरें डालती रहें, तो उनके हक़ में बेहतर है. अल्लाह तो सब कुछ सुनता और जानता है.”
(सूरह नूर, आयत 60)
“अपने घरों में शराफ़त से रहो, बनाव-सिंगार जो अज्ञानता के जमाने में लोगों को दिखने के लिए होता था, उसे छोड़ दो, नमाज़ को क़ायम रखो. ज़कात अदा करती रहो और अल्लाह और उसके रसूल का हुक़्म मानती रहो.”
(सूरह अहजाब, आयत 33)
१.
१५ वीं शताब्दी के आटोमन साम्राज्य की तुर्की कवयित्री मिहरी हातून की आत्माभिव्यन्जक कविताओं को प्रारम्भिक दौर की आत्माभिव्यंजना के प्रमाण के रूप में देखा जा सकता है. आधुनिक काल आते आते मुस्लिम स्त्रियों ने आत्माभिव्यक्ति के लिए आत्मकथा-विधा को अपनाया जिनमें पर्दा प्रथा का दबाव, परनिर्भर होने की पीड़ा, प्रेम की अभिव्यक्ति के खतरे और पितृसत्ता और धर्म-कानून की जकड़ से निकलने की छटपटाहट प्रमुख है. अधिकांश स्त्रियाँ आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ने की कवायद, शिक्षा प्राप्त करने के मार्ग में आनेवाली कठिनाईयां, बहुपत्नीत्व प्रथा, यौन-शिक्षा का अभाव, यौनिकता की अभिव्यक्ति जैसे विषयों को कथ्यों के केंद्र में रखती हैं.
परिवार के पुरुषों के विषय में बहुत खुल कर कुछ कहने से बचने को भी उनकी रचनात्मक रणनीति के तौर पर देखा जा सकता है. मुस्लिम स्त्रियाँ चाहे यूरोप में हों या एशिया में पर्दा-प्रथा पर ज़रूर बात करती हैं-हालाँकि यह बात उन सभी सामजिक समूहों पर लागू होती है जिनमें पर्दा प्रथा किसी न किसी रूप में प्रचलित रही है. यह भी देखने की बात है कि उन्नीसवीं शताब्दी और बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध की आत्मकथाओं में सेंसरशिप के विभिन्न रूप दिखाई देते हैं. कहीं तो अपने लिखे के न छप पाने का डर, कहीं लिखने की सुविधा छिन जाने का भय और कहीं पाठकों को अपने बारे में बताने का अवसर खो जाने का अंदेशा इतना गहरा रहा है कि मध्यवर्ग से सम्बंधित स्त्रियाँ अपना अन्तरंग खोलने का रिस्क नहीं ले पायीं.,जिन्होंने यह चुनौती उठाई उन्होंने भी यह स्वीकार किया कि उन्हें यह भय हमेशा से था कि हो सकता है कि पाठकों का एक बड़ा वर्ग उनके लिखे हुए को समाजविरोधी मानकर अस्वीकृत कर दे. भविष्य में भी उन्हें पाठक मिलते रहें और वे धर्मगुरुओं द्वारा निन्दित भी न हों इसके लिए ये ज़रूरी था कि वे जीवन के सामान्य कार्यव्यापारों चर्चा करें. निजी बातों और सामाजिक-पारिवारिक दायरों को तोड़कर, सामाजिक-रीतिरिवाजों के विरुद्ध जाने का साहस उठाना उनके लिए बहुत जोखिम भरा था इसलिए बहुत दूर तक वे आत्मकथाकार के रूप में अपनी भूमिका नहीं निभा पातीं.
दूसरी ओर इस्लाम और समाजसुधारकों द्वारा तय स्त्री की आदर्श छवि जिसे मौलाना थानवी जैसों ने ‘बहिश्ती जेवर’ जैसी किताबें लिखकर लोकप्रिय कर दिया था, उस छवि को बनाये रखना भी इन लेखिकाओं के सामने एक बड़ी चुनौती रही और जहां स्त्रियों को शारीरिक तौर पर पर्दे के बाहर निकलने की छूट भी मिली तब भी उन्होंने अपने अन्तरंग को छुपाने के रास्ते ढूंढही लिए,आत्मकथात्मक प्रदर्शन के लिए उन्होंने नाटकीय भंगिमाएं अख्तियार कर लीं और इससे उनकी आवाजें परदे के भीतर ही रह गयीं और साथ ही उनकी यौनिकता भी. मुस्लिम स्त्रियों के आत्मकथ्यों पर विचार करते हुए हमें दक्षिण एशिया विशेषकर भारत के साम्प्रदायिक संघर्षों की पृष्ठभूमि को भी देखने-समझने की दृष्टि मिलती है. चारू गुप्ता ने यह दर्ज किया है कि हिन्दूत्व के प्रचारकों ने ‘हिन्दू स्त्रियों को मुसलमान पुरुषों से अलग रखने आपसी दूरी बनाये रखने की मुहीम चलाई ताकि वे स्त्रियों की यौनिकता पर नियंत्रण कर सकें साथ ही अपनी सांप्रदायिक पहचान को भी पुख्ता कर सकें, उन्हें यह समझा दिया गया कि स्वस्थ, बलिष्ठ मुसलमान पुरुष उनके लिए खतरा हैं‘
(सेक्सुअलिटी, ओब्सेनिटी, कम्युनिटी: वीमेंन, मुस्लिम्स एंड थे हिन्दू पब्लिक इन कोलोनियल इंडिया,चारू गुप्ता,परमानेंट ब्लैक 2000:268)
दूसरी ओर राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान मुस्लिम समाजसुधारक भी अपने समुदाय की स्त्रियों को ‘सुरक्षित’रखने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे. मुस्लिम स्त्रियों की यौनिकता पर नियंत्रण करने के लिए परदे को और ज़रूरी बताया जाने लगा, धर्मग्रंथों और हदीस का हवाला देकर परदे को मर्यादा से जोड़ा गया और हिन्दू स्त्रियों को गैर-पर्देदारी से रहने वाला बताया गया. मुस्लिम स्त्रियाँ, जो थोडा बहुत भी पढ़-लिख गयी थीं उन्हें इस बात का अंदाज़ा था हो गया था कि परदे की हद से बाहर एक विशाल और खुली दुनिया है, लेकिन परदे को तोड़ने और यौनिकता के मुद्दे पर खुलकर बोलने का साहस बहुत कम स्त्रियों के पास था. अभिजात्य समुदाय की स्त्रियाँ जिनमें से कई भोपाल और रामपुर जैसी रियासतों से सम्बद्ध थीं, उन्हें सच बोलने के खतरे कम थे. सत्ता और धन के बल पर वे प्रखर निंदा का शिकार होने से बच जाया करती थीं, साथ ही आभिजात ने उन्हें रसोईघर, बच्चों के लालन-पालन की जिम्मेंदारियों से एक सीमा तक मुक्त रखा, इतना समय भी मुहय्या करवाया कि स्त्रियाँ आपस में खुलकर बोलें और लिखकर भी अपने आपको अभिव्यक्त कर सकें.
मुस्लिम रियासतें, मसलन भोपाल जहाँ स्त्रियों के शासन की परंपरा रही वहां उन्होंने पर्देदारी के साथ बाहर की दुनिया से संपर्क बनाये रखा.स्कूल,कालेजों, क्लबों में उनका आना-जाना रहा करता जहाँ स्त्री-यौनिकता के मसलों पर अपेक्षाकृत खुली चर्चा की संभावनाएं थीं. सेक्स सम्बन्धी शिक्षा का अभाव पूरे समाज में था. विशेष रूप से मुस्लिम समाज जहाँ खानदान के भीतर भी वैवाहिक सम्बन्ध होते थे वहां भी घर में प्रेम, सेक्स जैसे विषय वर्जित थे. ज़्यादातर बच्चियां अक्षर ज्ञान, कुरान पढ़ने तक ही सीमित थीं. माहवारी होते ही लड़कियों से स्कूल छुड़वा दिया जाता था. सेक्स या यौनिकता के मुद्दे टैबू की तरह थे, जिनका प्रभाव इन स्त्रियों के लेखन पर भी पड़ा. उनके लेखन में वास्तविक पाठक वर्ग की जगह एक काल्पनिक पाठक वर्ग हावी था. समाज सुधार आंदोलनों और आंदोलनों ने स्त्री-शिक्षा के पक्ष में माहौल तैयार किया जिसने आत्मकथा लेखन को गति प्रदान की. ये बात भी गौरतलब है कि आत्मकथा लेखन में प्रवृत्त होने के बावज़ूद इन स्त्रियों ने अपने अन्तरंग जीवन के बारे में बहुत कम या नहीं लिखा. फिर भी मुस्लिम स्त्रियों द्वारा लिखी अपनी कथाएं, स्मृतियाँ जो पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में पंजाब से बंगाल, रामपुर से हैदराबाद, पाकिस्तान, बांग्लादेश तक के लगभग डेढ़-दो सौ वर्षों के अंतराल में बिखरी हुई हैं, उनके वैविध्य और वैशिष्ट्य को रेखांकित किया जाना ज़रूरी है. ये देखना ज़रूरी है कि वे धर्म, परंपरा, परदेदारी और यौनिकता के मुद्दों पर क्या सोचती हैं साथ ही इसके लिए उनके विधागत चुनाव क्या हैं.
साथ ही कैसे औपनिवेशिक और उत्तर औपनिवेशिक सामाजिक इतिहास की धारा के भीतर स्वयं को कहाँ और कैसे ‘प्लेस ‘करती हैं॰ अपने आत्म को आवृत्त रख कर कल्पना के ताने-बाने बुन-चुन कर कविता कहानी, उपन्यास लिखना और बात है और आत्मकथ्य लिखकर पूरी दुनिया का सामना करने के लिए जो साहस चाहिए, वह इनमें है कि नहीं साथ ही सामाजिक इकाइयों से टकराने और सच को सच की तरह कहने का जज़्बा कितना है, उनकी चुप्पियों के क्या अर्थ हैं और उनका पाठ हम कैसे करते हैं. सेंसरशिप के दबाव और तनाव कैसे हैं और इन दबावों और तनावों का सामना करने के लिए मुस्लिम औरतें किन औजारों का इस्तेमाल करती हैं. कई ऐसी स्त्रियाँ हैं जो आत्मकथ्य में निजी सवालों से बचकर निकाल गईं हैं, जिससे पाठक को साफ समझ में आ जाता है कि वह निजी और पारिवारिक सेंसरशिप के दबाव में है, उनके आत्मकथ्य का सम्यक विश्लेषण व्यावहारिक जीवन, उसके मन के कोने-अंतरे, दरारें, चोट और पीड़ाएं, नस्ल और रंगभेद, यौन अस्मिता, शोषण के विविध आयामी पक्ष, उसकी मनोसामाजिक, लैंगिक भेद और स्त्री अस्मिता के साथ, स्वानुभूति की अभिव्यक्ति के लिए अपनाई गई भाषा-भंमिमाएं, विविध मुद्राएं, प्रतिरोध के औजार, समर्पण और विवशता के कारणों की पड़ताल करना हम ज़रूरी समझते हैं. इन आत्मकथाओं पर हम निम्नलिखित बिन्दुओं के अंतर्गत सोच सकते हैं –
(थ) वह सेंसरशिप से किस तरह टकराती है.
स्त्री वक्तव्यों के संदर्भ में यह माना जाता है कि सामाजिक अभ्यास अपनी पूरी तात्कालिकता और संपूर्णता के साथ एक उत्तेजक अनुभव में रूपांतरित हो जाते हैं, और स्त्री का अनुभव सिर्फ एक व्यक्ति का अनुभव नहीं रह जाता, वह सामाजिक संस्था के अनुभव में रूपांतरित होकर सार्वभौमिक हो जाता है. कही और अनकही स्त्री अनुभव कथाएं इसी प्रक्रिया में निजी से राजनीतिक हो जाती हैं, इसलिए स्त्री की अभिव्यक्ति को राजनीति से संबद्ध करके भी देखा जाता है.
स्त्रीवादी विमर्शकार अनुभव की अभिव्यक्ति पर बराबर बल देते हैं. गायत्री चक्रवती स्पीवॉक का कहना है- ‘Make visible the assignment of subject Positions’ वस्तुतः स्त्री के जीवन और अनुभव के विषय में लिखने के चार ढंग हैं:
‘पहला तो यह कि स्त्री स्वयं अपने बारे में कहे- इसके लिए वह ‘फिक्शन’ या चाहे तो आत्मकथा का सहारा ले सकती है.
दूसरा ढंग यह है कि पुरुष या स्त्री दूसरी के जीवन और अनुभवों के बारे में लिखे.
तीसरा तरीका यह है कि अब तक जिए जा चुके जीवन से प्राप्त अनुभव और आने वाले जीवन के बारे में पूर्वानुमान करके स्त्री लिखे. विदुषी और प्रतिभाशाली स्त्रियां अनजाने में ही अपनी भविष्य कथाएं लिख जाती हैं.
चौथा ढंग, जिस हाल के वर्षों में स्त्रियों ने अपनाया है, वह यह कि स्त्रियां अपने अतीत के बारे में ज्यादा ‘बोल्ड’ और ईमानदार तरीके से लिखकर, सत्ता और राजनीति की नियंत्रणकारी ताकतों से टकराएं, चूंकि शक्ति और सत्ता को हमेशा से स्त्रियों के लिए वर्जित माना गया या यों कहें कि इतिहास में कभी भी, स्त्रियों को समाज की नियंत्रक शक्ति के रूप में नहीं पहचान गया.
पितृसत्तात्मक शक्तियों ने स्त्री को हमेशा यही समझाया कि यह उसके लिए ‘वर्जित क्षेत्र’ है. साथ ही यह भी, कि वे स्वयं समाज-नियंत्रक नहीं बनना चाहतीं उन्हें हमेशा अभिव्यक्ति से रोका गया; टेक्स्ट’ कथानक, उदाहरण का अंग बनाने से बचा गया क्योंकि भय था कि इसके द्वारा कहीं वे सत्ता अधिग्रहण न कर लें, अपने जीवन के निर्णय स्वयं न लेने लगे.’ समकालीन स्त्री विमर्शकारों ने आलोचकों द्वारा स्त्रीवाद की उपेक्षा के प्रश्न को रेखांकित किया. उन्होंने बताया कि स्त्रियों के अनुभवों की अभिव्यक्ति ज्यादा बेहतर और पारदर्शी होती है.
स्त्री को बोलना अपने-आप में प्रतिरोध की संस्कृति का निर्माण करता है. डेनिस रिले का मानना है कि यद्यपि स्त्री अधिकारों की लड़काई उसे राजनीति की ओर ले जाती है, लेकिन ‘स्त्रीवाद’ कभी भी अनुभवों की अपरिहार्यता समाप्त नहीं कर सकता. समाज में, जो हमें दिखाई देता है, वही सच नहीं होता. मसलन हम विभिन्न सामाजिक अस्मिताओं के संदर्भ में स्त्री अस्मिता को देखें. स्त्री अभिव्यक्ति ‘अस्मिता’ को पाने की ही कोशिश है, यह अस्मिता विभिन्न अस्मिताओं के पारम्परिक संघनन की प्रक्रिया से गुजरती है, उनकी जटिल संरचना के भीतर से अन्य अस्मिताओं को पीछे कर अपनी संपूर्ण ताकत के साथ उभरती है, किसी-किसी समाज और दौर में दबा भी दी जाती है, कहीं-कहीं उपेक्षा और प्रतिरोध झेलती है.
इस प्रक्रिया में कोई अस्मिता अपना विशिष्ट स्वरूप ग्रहण करती है.इस नजरिये से देखने पर मुस्लिम आत्मकथाकारों में पर्याप्त वैविध्य दीखता है कहीं तो वे निजी जीवन को यौनिकता से ही जोड़कर देखती हैं और समूचा आत्मकथ्य उनकी यौनिकता के इर्द-गिर्द ही घूमता है, कुछ पति या प्रेमी के साथ संबंधों की पुनर्व्याख्या करने को प्रगतिशीलता से जोड़कर देखती हैं, जिसके उदाहरणस्वरूप तैयबजी वंश की स्त्रियों के आत्मकथ्य देखे जा सकते हैं. वहीं सुल्तान जहां बेगम जैसी भी लिखती रहीं जिन्होंने अन्तरंग संबंधों को परदे के भीतर ढके रहने में ही भलाई समझी, पर्दे और बुर्के के पक्ष में दलीलें दीं.
कुछ ऐसी भी रहीं जिन्होंने अपने सामाजिक और राजनीतिक अनुभवों को साझा करने के लिए आत्मकथा विधा अपनाई. कई औरतें ऐसी भी रहीं जिन्होंने बतौर स्त्री झेला तो बहुत कुछ, पर खुलकर कभी अभिव्यक्त नहीं कर पायीं, उनपर तरह -तरह की सेंसरशिप के दबाव रहे. कुछ ने उर्दू, बांग्ला, और क्षेत्रीय भाषाओं में लिखा तो कुछ ने भाषिक माध्यम के रूप में अंग्रेजी को अपनाया क्योंकि उन्हें लगा कि देशी भाषाओँ में अन्तरंग प्रसंग और यौनिकता के मुद्दों पर लिखना सरल नहीं होगा और साथ ही वे वैश्विक पाठक वर्ग से वंचित भी रह जाएँगी. उर्दू में पहली गद्य लेखिका के तौर पर बीबी अशरफ का ज़िक्र आता है, जिन्होने उनीसवीं सदी के मध्य में स्त्री शिक्षा के रास्ते में आने वाली कठिनाईयों का ज़िक्र ‘हयात–ए अशरफ’ में किया.
(बाद के शोध से यह साबित हो गया कि वास्तव में यह किताब बीबी अशरफ ने नहीं तहज़ीब–ए निस्वान’ में लगातार छपने वाली मुहम्मदी बेगम ने लिखी थी. यह रिसाला 1898से 1949 के बीच छपता था जिसके संपादक सैयद मुमताज़ अली थे.सी॰एम॰ नईम ने हयात ए अशरफ को 1900 -1910 के बीच प्रकाशित माना)
बीबी अशरफ के आत्मकथ्य ‘हयात–ए-अशरफ’ से स्पष्ट है कि लिखना–पढ़ना अभिजात्य स्त्रियों के लिए अपेक्षाकृत सहज था, नीचे तबकों और निर्धन स्त्रियों के लिए बहुत कठिन. बीबी अशरफ एक शरीफ़ घराने से सम्बद्ध थीं और विधवा होने के बाद आजीविका निर्वाह के लिए उन्होने शिक्षण को पेशा बनाया. शौहर के मरने के बाद इद्दत के दिनों में उसने जब अपने पढ़ने की इच्छा को उजागर किया तो वयस्क, अनुभवी स्त्रियों ने निंदा की लेकिन वह मानी नहीं-
‘मैंने रसोईघर से जली लकड़ियों के टुकड़े, घड़े के ढक्कन और झाड़ू की तीलियों की मदद से घर की छत पर जाकर, आराम के घंटों में लिखे हुए अक्षरों की नकल करना शुरू कर दिया. मेरी पढ़ने–लिखने की इच्छा ने मुझे अंधा कर दिया था. मैंने कागज़ पर कागज़ काले करना शुरू कर दिया,फिर भी मुझे समझ नहीं आता था कि मैं क्या लिख रही हूँ. मुझे इतनी समझ नहीं थी कि शिक्षक के अभाव में कोई पढ़ना-लिखना नहीं सीख सकता. मुझे लगता था कि जैसे अन्य कई गुण देखने और अनुकरण से सीख लिए जा सकते हैं ठीक वैसे ही पढ़ना भी आ जाता होगा. लेकिन इस तरह बहुत सारा समय गँवाने के बाद भी मुझे कुछ नहीं आया. मेरी पुकार अल्लाह ने सुनी और मुझे अध्यापक मिला.‘
(सी.एम. नईम,हाऊ बीबी अशरफ लर्ण्ट टु रीड एंड राइट :107-108 एनुयल ऑफ उर्दू स्टडीज़ 6(1987) :107-108)
बीबी अशरफ ने पढ़–लिख कर अपने परिवार की परवरिश की, शिक्षा ग्रहण करने में उन्होने चाहे जितनी कठिनाईयों का सामना किया हो ,इस्लाम के व्यावहारिक अनुशासन को उन्होने कभी छोड़ा नहीं. शिक्षिका होकर भी पर्दे और बुर्के का नियमानुसार पालन करने के लिए अपने छात्रों के बीच उनकी तारीफ भी होती थी.
२.
बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी
जैसी अब है तिरी महफ़िल कभी ऐसी तो न थी
भारत में, सन 1920 के आसपास अभिजात्य घरानों की मुसलमान स्त्रियाँ अँग्रेजी पढ़ने की ओर उन्मुख हुईं (आएशा जलाल, द कनवेनिएन्स ऑफ सब सर्विएंस: वुमेंन एंड द स्टेट ऑफ पाकिस्तान’- ‘वुमेंन, इस्लाम एंड स्टेट’ में संकलित ,पृष्ठ 77) शिक्षा के इस नए दौर ने पढ़ी–लिखी स्त्रियों का एक ऐसा वर्ग बनाया जिसमें मुहम्मदी बेगम, नज़र सज्जाद हैदर, अब्बासी बेगम जैसी स्त्रियों को देखा जा सकता है जिन्होने रिसालों में लिखना और छपना शुरू कर दिया था. इस्लाम में जीवनी और आत्मकथा लेखन की एक लम्बी परंपरा की परिधि पर जिस संस्मरण को देखा जा सकता है वह है आबिदा सुल्तान जो भोपाल की राजकुमारी थी.
दाम्पत्य और सेक्सुअल थीम पर इतनी सच्ची अभिव्यक्ति अपने आप में विरल है. जहाँ आत्मविश्लेषण और निज की अभिव्यक्ति आत्मकथाओं का अनिवार्य तत्व है वहां इस्लाम धर्म को मानने वाले विशेषकर स्त्रियाँ निज की अभिव्यक्ति के लिए जिन चुनौतियों को झेलती हैं वे मानीखेज़ हैं. आबिदा सुल्तान ने ‘मेंमोआयर्स ऑफ़ अ रिबेल प्रिंसेस’ में अपने दाम्पत्य जीवन के बारे खुलकर लिखा. उनका विवाह बचपन के मित्र करवयी के नवाब सरवर अली खान से हुआ था. विवाह की प्रथम रात के बारे में वे लिखती हैं –
“विवाह के तुरंत बाद मुझे दाम्पत्य जीवन का पहला आघात लगा. मुझे अंदाज़ा नहीं था कि प्रथम सहवास ही मुझे सन्न करने और डराने वाला होगा. इसकी तो मैंने कल्पना भी नहीं की थी. सच तो यह था कि मुझे उस व्यक्ति से आघात मिला था जिससे मुझे इसकी बिलकुल भी उम्मीद नहीं थी. हमारा पालन-पोषण धार्मिक और रुढ़िवादी पवित्र वातावरण में होने के कारण मेरे मन में वैवाहिक सम्बन्ध, विशेषकर सहवास के प्रति एक अपवित्रता का भाव था. लगता था यह कार्य अश्लील है. दाम्पत्य सेक्स के प्रति मेरी घृणास्पद प्रतिक्रिया पति को कुंठित कर देने वाली साबित हुई. वे जल्दी ही मेरे प्रति अपनी कड़वाहट और असंवेदनशीलता दिखाने लगे और वह सब करने लगे जो मुझे एक मनुष्य में सबसे ज्यादा नापसंद था. वे काहिल, आलसी और बदमिज़ाज हो गए, घरेलू नौकरों के साथ जुआ खेलकर अपना बेकार-खाली समय बिताने लगे. जल्द ही हमारे शयनकक्ष अलग-अलग हो गए. कुछ ही अरसे में हमारा विवाह मात्र काग़ज़ी और सामाजिक दिखावे के लिए रह गया.”
(मेंमोआयर्स ऑफ़ अ रिबेल प्रिंसेस, आबिदा सुल्तान, आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस,कराची,2004:98)
इन्हीं आबिदा सुल्तान की दादी भोपाल की बेगम सुल्तानजहां की आत्मकथा तीन भागों में उर्दू और अँग्रेजी में प्रकाशित हुई जो औपनिवेशिक सत्ता, राष्ट्रवादी विचारधारा के उदय और सामाजिक धार्मिक सुधार आंदोलनों के समानान्तर और परस्पर एक दूसरे को काटती हुई धाराओं से टकराती दीखती है. उनकी पोती आबिदा सुल्तान उन्हें ‘सरकार अम्मान’ कहकर संबोधित करती है
“वह पवित्र, तापसी प्रवृत्ति की और उदारमना, मितव्ययी थी, भोपाल के हिन्दू, मुसलमान, जमींदार और किसान उसे पसंद करते थे, सिर्फ इसलिए नहीं कि वह सत्ता में थी बल्कि इसलिए भी कि वह उनके लिए मातृस्वरूपा थी”
(भोपाल, आबिदा सुल्तान, मेंमोयर्स ऑफ ए रिबेल प्रिंसेस, कराची: आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रैस, 2004:9).
सुल्तान जहां बेगम 1901- 1926 के बीच भोपाल रियासत की सुल्तान रहीं, हाल के वर्षों में इस बात पर गौर किया गया कि सुल्तान जहां जैसी स्त्री राजनीतिज्ञों की पूरे इतिहास में उपेक्षा की गयी, जबकि वे लगातार स्त्री सुधार कार्यक्रमों से जुड़ी रहीं उनके पर्दा, इस्लाम, दांपत्य पर उनके विचार हमें जानने को मिलते हैं तो वो भी उनके शासन काल के खत्म होने के 75 वर्षों के बाद. भोपाल रियासत में आधुनिक विचारों का प्रचलन उनकी उपलब्धि रही, उन्होने स्थानीय शासन और औपनिवेशिक सरकार के बीच सेतु का काम किया, ’एन अकाउंट ऑफ माइ लाइफ‘(खंड 1,2,3) उर्दू में ये तीनों भाग 1910 में आये, जिनका अंग्रेजी तर्ज़ुमा 1920 में काफी लोकप्रिय हुआ और स्त्री सुधारों पर लिखी पुस्तक ‘अल हिजाब :आरव्हाय द पर्दा इज़ नेससेरी’ को साथ पढ़ा जाना चाहिए.
भोपाल में ब्रिटिश सरकार ने ट्रेन, स्कूल, संचार पर अच्छा धन खर्च किया था,सुल्तान जहां बेगम ने हुक्मरानों के साथ बहुत ही अच्छे संबंध रखे ,वे ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की तारीफ करती हैं वहीं उन्हे इस बात का भी एहसास है कि ब्रिटिश सरकार कभी भी हमारी नस्ल की धार्मिक और सामाजिक आवश्यकताओं को पूरी तरह समझ नहीं सकती. लेकिन वे कहीं भी दावा नहीं करतीं कि वे आम पाठकों के लिए पुस्तक लिख रही हैं (भोपाल नवाब सुल्तान जहां बेगम ,एन अकाउंट ऑफ माइ लाइफ ‘,खंड 1,अनुवाद सी॰एच॰पायने.लंदन :जे मूर्रे,1912)
लेकिन उन्होने जिस तरह से अपनी यात्राओं, इस्लामिक रीति-रिवाजों, शासन-नीतियों के बारे में लिखा है उससे पता चलता है कि उनके संभावित पाठक विदेशी और गैर-इस्लामिक थे. वे उसका अँग्रेजी अनुवाद भी करवा रही थीं और इस तरह अपने आपको’ एजेंसी’ के रूप में स्थापित भी कर रही थीं, आत्मकथा उनके लिए पश्चिम को भारत और इस्लाम के रीति रिवाजों की जानकारी देने का माध्यम थी. ब्रिटिश राज के प्रति उनकी वफ़ादारी का ज़िक्र बार-बार आत्मकथ्य में आया है, ऐसा इसलिए भी होगा कि स्त्री की नेतृत्वकारी भूमिका को ब्रिटिश राज ने स्वीकारा इस कृतज्ञता ज्ञापन के लिए वे आत्मकथ्य का सहारा लेती हैं. यह बात दूसरी है कि ब्रिटिश राज को सुल्तानजहां जैसे रियासतदार साम्राज्यवादी एजेंडे के अनुकूल लगते थे. वे आकाओं के साथ सीधे संपर्क स्थापित करती हैं और इस तरह स्त्री शासिका होने के नाते अपनी एजेंसी को सुदृढ़ भी. लगातार पश्चिम के आलोक में भारत को देखती है मसलन घरेलू जीवन के बारे में उनकी टिप्पणी है –
“दांपत्य जीवन का उद्देश्य है पति और पत्नी दोनों एक दूसरे को जीवन का आनंद दें, लेकिन पश्चिम में यह अपवाद स्वरूप ही पाया जाता है जबकि भारत में यह सहज-स्वाभाविक है” सुल्तान जहां जिस आदर्श दांपत्य की बात कर रही हैं, वह अपवाद ही है. परिवार की धुरी स्त्री को मानते हुए उनका स्वर आत्मकथ्य में उपदेशात्मक है, उनका मानना है कि जिस औरत ने पश्चिमी चाल-चलन सीखा उसका घरेलू जीवन नष्ट हो गया. वे जिस आधुनिकता की बात करती हैं उसमें स्त्री की यौनेच्छा का कहीं ज़िक्र नहीं है उसमें स्त्री की भौतिक स्वतन्त्रता की बात है मानसिक स्वतन्त्रता की नहीं. वे ब्रिटिश राज की प्रशंसक हैं और भौतिक उपलब्धियों के संदर्भ में पश्चिमी सभ्यता की तारीफ करती हैं.उ नकी पोती आबिदा सुल्तान ने भी सुल्तान जहां द्वारा ब्रिटिश राज के निरंतर समर्थन किए जाने की तसदीक की.”
‘अल हिजाब में उन्होने मुसलमान स्त्रियों को पर्दे और हिजाब में रहने की नसीहत दी और नवजागरण के अन्य समाजसुधारकों से अपने-आपको पर्दे के मसले पर अलगाने की कोशिश की, साथ ही पाश्चात्य सभ्यता की तुलना में वे इस्लामिक रीति-रिवाजों को प्रस्थापित किया.
यह गौर करने की बात है कि भोपाल रियासत की अधिकतर शासकों ने आत्मकथा लिखीं. आत्माभिव्यक्ति के लिए इन आभिजात्य स्त्रियों ने कई विधाएं अपनायीं. इनमें से शाहजहाँ बेगम (1838-1901) ने स्त्रियों को आचरण सिखाने के लिए ‘तहज़ीब-उन निस्वान वा तरबीयत उल इंसान (1889) लिखी जिसमें स्त्री यौनिकता को महत्त्व देते हुए सेक्स में स्त्री की इच्छा की संतुष्टि की पक्षधरता करने के क्रम में स्वयं की नजीर पेश की. शाहजहाँ बेगम ने लिखा कि उनके पहले पति मुहम्मद खान उम्र में काफी बड़े थे इसलिए शाहजहाँ बेगम को युवावस्था में दुःख और गम ही मिले उनके शब्दों में ‘रंज ओ गम’ मिले. पति की मृत्यु के बाद उनके निजी सचिव सिद्दीक हसन खान से उन्होंने 1871 में पुनर्विवाह किया तब उन्हें यौनतृप्ति और सुखी जीवन का अनुभव हुआ. इन प्रसंगों की चर्चा बेगम ने अपनी पुस्तक में विस्तार से की, जिसका ‘टेक्स्ट’ अपने आप में महत्वपूर्ण है क्योंकि वे स्त्रियों को सलाह देती हैं कि-‘संतानोत्पत्ति और गर्भ पर अपना नियंत्रण करके कैसे अपने जीवन पर नियंत्रण कर सकती हैं,यानि अपनी इच्छानुसार कैसे जीवन जी सकती हैं; इसके साथ ही वह इस्लाम को मानने की सलाह भी देती हैं’
(तहज़ीब-उन निस्वान वा तरबीयत उल इन्सान- शाहजहाँ बेगम, मतबा ई अंसारी,दिल्ली,1889)
शाहजहाँ बेगम के विचार अपने समय से बहुत आगे हैं साथ ही आश्चर्य में डालने वाले भी हैं क्योंकि उन्होंने अपनी इच्छा से दूसरे विवाह में उस व्यक्ति को पति के रूप में चुना था जो अल-ई-हदीस जैसे सुधारवादी मुस्लिम संगठन से सम्बद्ध था और कट्टर एवं उग्र विचारों के लिए जाना जाता था. शाहजहाँ बेगम की बेटी सुल्तानजहाँ बेगम (1868-1930) भोपाल रियासत की अंतिम शासक थी जिसने तीन भागों में आत्मकथा लिखी जिसका ज़िक्र ऊपर किया जा चुका है आत्मकथा में स्त्रियों द्वारा यौनेच्छा की प्रकट अभिव्यक्ति की कड़ी आलोचना करते हुए पश्चिमी आलोचकों का मुस्लिम स्त्रियों के निजी जीवन में दखल देना शर्मनाक बताया गया.
(‘अल हिज़ाब का पर्दा क्यों ज़रूरी है’सुल्तानजहाँ बेगम,कलकत्ता ,थैकर,स्पिंक ,1922:148)
कई साल पहले जहाँ मां ने स्त्री यौनिकता पर खुलकर बोलने के खतरे उठाये थे वहीं बेटी सुल्तानजहाँ बेगम ने अपने दाम्पत्य और स्त्री यौनिकता के बारे में कुछ लिखना उचित नहीं समझा. मां-बेटी के आत्मकथा लेखन में लगभग दो दशकों का अन्तराल है लेकिन बेटी यानि सुल्तान जहाँ बेगम अन्तरंग सम्बंधों को परदे की चीज़ मानती है और 1902 में पति अहमद अली खान की मृत्यु के समय करुण समर्पण लिखती है –
“मेरी कलम भले ही ‘दुःख’शब्द लिख ले और जुबान भी यह कह दे पर मेरी भावनाओं की गहराई की अभिव्यक्ति के लिए कोई शब्द पर्याप्त नहीं है-कोई शब्द ऐसा नहीं है, जो मेरा दुःख पूरी गहराई से अभिव्यक्त कर सके, आँख के तारे का चला जाना, जो मेरा सबसे गहरा मित्र था पिछले 27 वर्षों से जिसने मुझे स्नेह और उपदेश दिए, मुझे चिंताओं और मुश्किलों से उबरने में मदद की .उनकी सहानुभूति और प्रेम हमेशा मेरे लिए मददगार साबित हुए हैं- वास्तव में यह एक गहन और दृढ़ सम्बन्ध था. जीवन के इस मोड़ पर उसे खो देना वैसा ही है,जैसा मुसीबतों के समुद्र में अकेले डूबना-उतराना. जब मुझे उसके चतुर सुझावों की सबसे ज्यादा ज़रूरत थी-ऐसे में उसका चला जाना एक असहनीय आपदा है.”
(‘एन अकाउंट ऑफ़ माई लाइफ़’, नवाब सुल्तान जहाँ बेगम ,खंड 2,अनुवाद अब्दुस्समद खान ,बॉम्बे :द टाइम्स 1922:36-37)
कुरान में आदर्श विवाह और आदर्श दंपत्ति के बारे में जो कहा गया है उन आदर्शों का पूरी तरह पालन दीखता है.
३.
रोएँगे हम हज़ार बार कोई हमें सताए क्यूँ
क्या भोपाल-रियासत की सांस्कृतिक विरासत में ही ऐसा कुछ था जो इन स्त्रियों को अपने जीवन के बारे में बयान करने की प्रेरणा देता था. ये तो थी रियासत की स्त्रियाँ लेकिन सामान्य स्त्रियों का क्या,क्या वे भी आत्मभिव्यक्ति की इच्छा को परिणति तक पहुंचा पायीं. इसके बरक्स अतिया फैजी (1877-1967) और नाज़िल फैजी (1874-1938) के आत्मकथात्मक यात्रा संस्मरणों को देखा जा सकता है.1906 से 1908 के बीच उन्होंने यूरोप की यात्रायें कीं और संस्मरण लिखे.
अतिया फैजी कवि इक़बाल की मित्र थीं (द अदर साईड ऑफ़ इक़बाल, सईद नक़वी, फ्राइडे टाइम्स लाहौर,15 अप्रैल 1911) अतिया फैजी की डायरी के कुछ हिस्सों का प्रकाशन ‘तहज़ीब-उन -निस्वान’ में हुआ, जो बाद में पुस्तक रूप में भी सामने आई. हालाँकि 1907में अतिया इक़बाल से मिली थी मगर पूरी डायरी में इक़बाल का ज़िक्र सिर्फ दो बार आया है. दोनों बार अतिया ने उन्हें, विद्वान, दार्शनिक और कवि के रूप में याद किया है. उनके बीच कोई अन्तरंग संपर्क था इसकी तरफ कोई संकेत नहीं मिलता. जबकि सामान्य तौर पर कई अन्य ने उनको आत्मीय मित्रों के रूप में देखा.
अतिया ने बाद में ‘इक़बाल’(1947) शीर्षक से पत्रों का संग्रह भी छपवाया, लन्दन में उनकी निजी मुलाकातों के ब्यौरे इस पुस्तक में मिलते हैं. इन पत्रों में यह उल्लेख है कि इकबाल से अतिया फैजी की मुलाकातें सभाओं,रात्रिभोजों और पिकनिक के दौरान हुआ करती थी. अतिया ने इकबाल के दिवंगत हो जाने के बाद ही पत्रों का संकलन छपवाने का साहस किया, वैसे भी तब तक उनकी उम्र काफी हो चली थी. ’इक़बाल’ शीर्षक पुस्तक में वे इकबाल से साथ अपने संबंधों को गुरु-शिष्यवत बता कर संवेदनात्मक संतुलन का परिचय देती हैं.
(अतियाज़ जर्नी:अ मुस्लिम वूमन फ्रॉम कोलोनिअल बॉम्बे टू एडवर्डियन ब्रिटेन,Siobhan lambert-Hurley and Sunil sharma,ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस ,दिल्ली ,2010:2)
पुरुष के साथ मैत्री भाव को छुपाकर रखना उनके मानसिक अनुकूलन को बताता है कि जब वे पश्चिम में थीं तो उन्हें कवि इकबाल से आत्मीयता में कोई परहेज न था लेकिन देश-काल के बदलते ही स्त्री कैसे अपनी अभिव्यक्ति को सेंसर कर डालती है, अतिया का लेखन इसका दिलचस्प उदाहरण है. नाज़िल फैजी ने बहन के नक़्शे-कदम पर चलते हुए अपने संस्मरण शाया किए लेकिन वह अतिया की अपेक्षा अधिक खुलकर स्त्री यौनिकता के मुद्दे पर बोलती है उसने पति इब्राहीम खान के साथ गुज़रे पलों के बारे में लिखा.
दिलचस्प है कि नाज़िल फैजी का विवाह 12 वर्ष की उम्र में 1886 में हुआ लेकिन संतान उत्पन्न न हो पाने के कारण सन 1913 में तब तलाक़ हुआ जब उनकी उम्र 39 की थी, यानि तब जब कोई स्त्री यौन-आकर्षण की उम्र पार कर रही होती है, ठीक उसी समय नवाब ने दूसरी स्त्री के साथ रहना चुन लिया. नाज़िल फैजी ने यूरोप की यात्रा के बारे में ‘सैर ए यूरोप में’ लिखा. जो सतही तौर पर भले यात्रा संस्मरण हो पर उसमें संतानहीन स्त्री जो पति की उपेक्षा और तलाक का शिकार है उसकी पीड़ा के दस्तावेज़ छिपे हुए हैं
(नाज़िल राफ़िया सुलतान नवाब बेग़म साहिबा, सैर ए यूरोप, लाहौर, यूनियन स्ट्रीम 18 मई 1908)
‘सैर ए यूरोप’ पति और बहन अतिया के साथ जलमार्ग से ब्रिटेन और इस्ताम्बूल तक की गयी यात्रायें हैं. इस वृत्तान्त में नाजिल के अन्तरंग जीवन और निजी हताशा के संकेत हैं. ऐसा लगता है कि वह अपने निजी जीवन, परेशानियों,पति की बेरुखी के बारे में बोलना चाहकर भी बोल नहीं पा रही है. उसके लिखे हुए की दरारों को पढना पाठक का काम काम है. बाद में चलकर उसके बहनोई सैमुअल फैजी राहामिन के लिखे उपन्यास के केन्द्रीय चरित्र के रूप में किसी नवाब की पत्नी का चरित्र आया जिसका जीवन उपेक्षित और एकाकी है, जो संभवतः नाजिल के जीवन की ही झलक है
(गिल्डेड इंडिया सैमुअल फैजी राहामिन,,लन्दन ;हर्बर्ट जोसफ ,1938,रिव्यू टाइम्स लिटरेरी सप्लीमेंट ,26 मार्च 1938:222)
अतिया और नाजिल दोनों बहनों में समानता थी कि दोनों ने कथेतर विधाओं को रचनात्मकता के माध्यम के रूप में चुना लेकिन निजी प्रसंगों पर खुल कर बोलना दोनों ने गवारा नहीं किया, इसके पीछे सामाजिक और निजी स्तर की सेंसरशिप को देखा जा सकता है. इन दोनों ने जिनका उल्लेख किया उनसे अपने संबंधों की गहराई को छुपा ले जाने के पीछे पारिवारिक संबंधों के समीकरण गड़बड़ाने का भय ज़रूर था. मुहम्मद इकबाल से अतिया का पत्राचार लगभग सन 1911 तक चला, इतनी लम्बी अवधि में आत्मीय संपर्क का स्थापित न होना ही अस्वाभाविक होता. नाजिल और अतिया दोनों ने बोलचाल की साधारण उर्दू का प्रयोग किया. दोनों बहनों की पुस्तकों में उस समय चल रहे समाज-सुधार के एजेंडे का ज़िक्र मिलता है. अतिया ने अपनी पुस्तक में ‘तहज़ीबी बहनों’ (ज़माना की भूमिका)को संबोधित किया. नाजिल ने भी ‘हिन्दुस्तानी भाई-बहनों को सोचने पर मजबूर करने’ को ”सैर-ए-यूरोप’ पुस्तक का उद्देश्य बताया. दोनों पर बदरुद्दीन तैयबजी का ज़बरदस्त प्रभाव था और वे चाहती थीं कि यूरोप और अरब के अनुभव और नजीरें हिंदुस्तानियों के पिछड़ेपन को दूर भगाने के काम आ सकें.
मुस्लिम आभिजात्य वर्ग से सम्बद्ध ये दोनों बहनें भारत में जनता के सामने खुलकर बोलने वाली पहली स्त्रियाँ थीं. लेकिन इनका लेखन इस ओर इशारा करता है कि सामाजिक-सांस्कृतिक और समुदायगत संरचना कहीं न कहीं अभिव्यक्ति के लिए विधागत चुनाव को नियंत्रित करने वाला कारक है. अतिया और नाज़िल की पुस्तकों को आत्मकथा नहीं कहा जा सकता लेकिन इनके लेखन में पत्र, डायरी शैली और बौद्धिक गद्य का सम्मिश्रित रूप दिखाई पड़ता है. स्वानुभूत जीवन के बारे में संकेतों में बात करना कहीं न कहीं जीवन में परिवर्तनकामी शक्तियों का आह्ट का द्योतक है.
४.
फिर वहीं हैं कि जहाँ थे पहले
पाकिस्तान बनने के बाद जो स्त्रियाँ आत्मकथा लेखन के क्षेत्र में रचनारत रहीं उनपर कई दृष्टियों से विचार हो सकता है-एक तो कि देशविभाजन की घटना के बदले सांस्कृतिक संदर्भ और इतिहास के परिप्रेक्ष्य में इनका नजरिया क्या था साथ ही इस्लामीकरण के आग्रह की पृष्ठभूमि में जेंडर के मुद्दों पर इनके जुड़ाव के आयाम क्या थे. कुरर्तुल एन हैदर (कारे जहां दराज़ है) हमीदा अख्तर हुसैन रायपुरी (हमसफ़र),
निसार अज़ीज़ बट (गए दिनों की सरगाह) की कड़ी में बेगम शाइस्तासुहरावर्दी इकरमुल्लाह (1915-2000) की आत्मकथा ‘फ्राम पर्दा टू पार्लियामेंट’ (फ्राम पर्दा टू पार्लियामेंट, शाईस्ता सुहरावर्दी कराची, ऑक्सफ़ोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस 1998) को देखा जाना चाहिए जिसमें उन्होंने पाकिस्तान आन्दोलन के विस्तृत ब्यौरे दिए. जहाँ हिंदी क्षेत्र में स्त्रियों की राजनीतिक आत्मकथाओं की उपस्थिति विरल है वहीँ शाईस्ता बेगम ने पाकिस्तान की विधानसभा के सदस्य के रूप में अपने कार्यक्षेत्र के बारे में पाठकों को बताया. शाइस्ता बेगम ने आत्मकथ्य में सगे-सम्बन्धियों का ज़िक्र प्रसंगवश तो किया है लेकिन निजी जीवन के अन्तरंग क्षणों के परिचय से उनका पाठक वंचित रह जाता है.
यद्यपि दो अध्यायों में वे वैवाहिक और राजनीतिक जीवन में संतुलन बनाये रखने की कोशिशों का उल्लेख करती हैं, जिससे पाठक को यह अंदाज़ा हो जाता है कि आभिजात्य स्त्री के लिए भी राजनीति में कैरियर बनाना तब भी आसान नहीं रहा होगा. बेगम शाईस्ता आत्मकथा के छठे और सातवें अध्यायों में ससुराल पक्ष के रीति रिवाजों, भोजन-वस्त्र, सम्बन्धियों का ज़िक्र करती हैं पर कहीं भी अपने पति का नाम तक नहीं लेतीं. वैवाहिक जीवन की प्रथम रात्रि के बारे में उनकी टिप्पणी है –
“हमारे समाज में विवाह के बाद किसी लड़की के जीवन में सबसे बड़ा जो परिवर्तन आता है वह यह है कि उसे पूरी तरह अपने आप को नए परिवार के अनुरूप ढालना पड़ता है”.
(फ्राम पर्दा टू पार्लियामेंट, शाईस्ता सुहरावर्दी कराची, ऑक्सफ़ोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस 1998:61)
अन्य कई मुस्लिम स्त्रियों ने अंग्रेजी में अपने सार्वजनिक जीवन के विषय में टिप्पणियां कीं लेकिन अक्सर ये स्त्रियाँ अपने आत्मीय संबंधों के बारे में खुलकर बोलने का साहस नहीं जुटा पायीं. इस कड़ी में बड़ी बहादुरी के साथ बुर्का त्याग देने वाली जहाँआरा हबीबुल्लाह (1915-2001) की पुस्तक ‘रिमेंम्बरेंस ऑफ़ डेज़ पास्ट’ को देखा जा सकता है जो बेगम शाईस्ता के आत्मकथ्य की तर्ज़ पर ही लिखी गयी है.
रामपुर स्टेट के दिनों में जहाँ उनके वालिद मुख्यमंत्री थे और बहनोई स्टेट के नवाब- वहां के बारे में याद करते हुए भी आत्मीय प्रसंगों की चर्चा से बचीं सिवाय उस अध्याय के जिसमें उन्होंने पाकिस्तान तम्बाकू कंपनी के मैनेजिंग डायरेक्टर ईशत हबीबुल्लाह के साथ अपने वैवाहिक प्रसंग को लिखा, लेकिन वहां भी अधिकांश बातें उनकी संतानों के इर्दगिर्द ही घूमती हैं.
(रिमेंम्बरेंस ऑफ़ डेज़ पास्ट: ग्लिमप्स आफ ए प्रिंसली स्टेट ड्यूरिंग द राज, जहाँआरा हबीबुल्लाह, आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस,2001,मूल उर्दू में लिखित यह पुस्तक अंग्रेजी में पहले प्रकाशित हुई थी.उर्दू में ‘ज़िन्दगी की यादें :रियासत रामपुर नवाब का दौर’जो कराची से 2003में छपा).
हमीदा सैय्याद्दुज्ज़ाफ़र (1921-1988) जहाँआरा हबीबुल्लाह की चचेरी बहन थी, अलीगढ़ मुस्लिम विश्विद्यालय के नेत्र-चिकित्सा विभाग में चिकित्सक और निदेशक बनने के बारे में उसने आत्मकथ्य में लिखा. पूरी आत्मकथा में कहीं भी उसके अविवाहित रह जाने, एकाकी जीवन के कष्टों के बारे में ज़िक्र नहीं है. इसकी बजाय सर सैय्यद अहमद खां के समाज सुधार के एजेंडे और उनकी तारीफ में कई पन्ने लिखे गए हैं.(आत्मकथा, हमीदा सैय्याद्दुज्ज़ाफ़र, संपादन लोला चटर्जी,नई दिल्ली,तृंका, 1996)
ऊपर जिन आत्मकथाओं का ज़िक्र किया गया है उनकी रचनाकारों में से अधिकांश सन 1930 के पहले पैदा हुईं थीं. ये सभी अभिजात्य परिवारों से सम्बद्ध थीं और सर सैयद अहमद खान के आधुनिक राष्ट्र राज्य में स्त्री की बदली हुई भूमिका के आदर्श से परिचालित थीं. रशीद जहां (1905 -1952 ) सरीखी प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ी और प्रेरित स्त्रियों जब लेखन के क्षेत्र में आयीं तो उन्होंने आधुनिकता के पक्ष में एक विमर्श करना शुरू किया. समतावादी विचारधारा और रूढ़ियों के बहिष्कार की हवा चली, इसके परिणामस्वरूप ‘हलाक-ए अरबाब-ए ज़ौक़ (1939) जैसी संस्थाएं अस्तित्व में आयीं. इनसे जुड़ी स्त्रियों ने घर के बाहर कदम रखकर आधुनिक विचारों का प्रचार–प्रसार करना प्रारम्भ किया. जहां इससे पहले की पीढ़ी अपनी शिक्षा के लिए संघर्षरत रही थी वहीं प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ी स्त्रियों ने शिक्षा को जनसुलभ बनाने,पर्दे का विरोध करने, स्त्री–स्वाधीनता के व्यावहारिक पक्षों पर बल दिया.
रशीद जहां, इस्मत चुगताई, रज़िया सज्जाद ज़हीर और खदीजा मस्तूर ने इस क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किए, इन स्त्रियों ने यह समझा कि आधुनिकता, स्त्री और मध्यवर्गीय मुस्लिम स्त्री होने के क्या अर्थ हैं विशेषकर भारतीय मुस्लिम स्त्री होकर बौद्धिक कैसे हुआ जा सकता है, और यह बौद्धिकता किस तरह समाज परिवर्तन का माध्यम बन सकती है.
(प्रियम्वदा गोपाल, लिटेररी रेडिकलिस्म इन इंडिया:जेंडर, नेशन एंड द ट्रांसिशन टू इंडेपेंडेंस, लंदन, रौल्टज, 2005,पृष्ठ 5)
विभाजन की घटना ने स्त्री –पुरुष दोनों को प्रभावित किया, देश–विभाजन, पुनर्स्थापन, धर्म और सांप्रदायिकता के आधार पर नागरिकों के विभाजन के सबके अपने पाठ थे पाकिस्तान का बनना, भारत के विभाजन की घटना ने राजनैतिक परिदृश्य पर जो परिवर्तन उपस्थित किए उनका भारत में रह रही और पाकिस्तान जाकर बस गयी मुस्लिम स्त्रियों पर गहरा प्रभाव पड़ा, इस दौर में गद्य लेखन विशेषकर आत्मकथा लेखन में अप्रत्याशित तेज़ी देखी गयी. सबके पास अपनी–अपनी चुनौतियाँ और संघर्ष थे. पाकिस्तान को आधुनिक बनाने के लिए उन्नीसवीं सदी के समाजसुधार आंदोलनों के प्रभावों को मन में ग्रहण किए हुए ये स्त्रियाँ लेखन में प्रवृत्त हुईं. शायद सुधारवाद का दबाव उनके अवचेतन पर इतना रहा होगा कि वे अपने निजी प्रसंगों पर बहुत खुलकर नहीं बोलतीं. वस्तुतः इन स्त्रियों का आत्मकथा विधा में लेखन राष्ट्र-आख्यान से स्वयं को जोड़ने और इतिहास की धारा में स्वयं को जीवंत ऐतिहासिक चरित्रों के रूप में पहचनवाए जाने की कोशिश के रूप में देखा जाना चाहिए. इसके उदाहरण के तौर पर अदा जाफ़री की आत्मकथा “जो रही सो बेकरारी रही” को देखा जाना चाहिए. बदरुद्दीन तैय्यबजी के परिवार से सम्बद्ध रेहाना तैय्यबजी (1901-1975) ने आत्मकथा ‘द हार्ट ऑफ़ अ गोपी’ लिखी थी, जिसमें महात्मा गांधी के सत्याग्रह आन्दोलन का अनुकरण करने और अपने ऊपर गांधी के संश्लिष्ट प्रभाव का अंकन किया है.
आत्मकथा में वह स्वयं को ‘बापू’ के ब्रह्मचारी सिपाहियों में से एक बताती है. वह सीधे-सीधे न सही पर परोक्ष रूप से गांधी के प्रति अपने प्रेम को व्यक्त करती है. वह स्वयं को कृष्ण की गोपिका कहकर ब्रह्मचारी रहने के व्रत और दैहिक संसर्ग की इच्छा के बीच के अंतर्द्वंद्व और संघर्ष के बारे में लिखती है. गांधी को लिखे पत्रों में भी वह इस अंतर्द्वंद्व और संघर्ष के बारे में खुलकर बयान करती है. वह गोपी के रूप में स्वयं को तथा कृष्ण के रूप में संभवतः गांधी को रखकर देखती है और भौतिक वास्तविकताओं से परे आध्यात्मिक मिलन का रूपक रचती है .लेकिन यह तय है कि रेहाना आत्मकथा विधा की अपरिमित संभावनाओं को जान नहीं पाई वर्ना यह किताब एक बोल्ड आत्मकथा हो सकती थी.
५.
नवाब सिकंदर बेगम (1818-68) के यात्रा वृत्तान्त ‘ए पिल्ग्रिमेंज टू मक्का’ (1870) में कुछ आत्मकथात्मक प्रसंग मिलते हैं पर उनमें अंतरंगता का नितांत अभाव है जो लिखा तो उर्दू में गया पर प्रकाशित हुआ सिर्फ अंग्रेजी में, वह भी बेगम की मृत्यु के बाद. ये उन रचनाकारों में से थीं जिन्होंने खुलकर आत्माभिव्यक्ति का साहस नहीं दिखाया, बल्कि उपन्यास और कहानी के माध्यम से अपनी बात कही. उन्होंने प्रेम, विवाहपूर्व सेक्स, समलैंगिकता, स्त्री की यौनेच्छाओं जैसे मुद्दों पर बात की.
इनके अतिरिक्त जो स्त्रियाँ स्त्री लैंगिकता, यौनेच्छा जैसे मुद्दों पर खुलकर लिख पायीं उनमें सलमा अहमद, किश्वर नाहीद को ज़रूर देखा जाना चाहिए. ये स्त्रियाँ सिर्फ जेंडर की बात नहीं करतीं बल्कि धर्म- विशेषकर इस्लाम किस तरह स्त्री को ‘मानुष’ होने से रोकता है इसपर टिप्पणी करती हैं.इन रचनाकाओं में पर्दा-प्रथा का विरोध, बहुविवाह के साथ-साथ धर्म कि जड़ में आने वाले ऐसे बहुत सारे रिवाज जो स्त्री विरोधी हैं उनकी मुखर आलोचना मिलती है.
सलमा अहमद जो पाकिस्तान की जानी मानी व्यवसायी थीं उन्होंने अपनी दर्दनाक ज़िन्दगी के बारे में लिखा. (कटिंग फ्री:एन ऑटोबायोग्राफी, सलमा अहमद, समा, कराची, 2002) जिसकी विशेषता है वैवाहिक जीवन के विषय में खुलकर बात करना. वे अपने वैवाहिक जीवन की प्रथम रात्रि के बारे में लिखती हैं –
“सुहागकक्ष में मेरी प्रतीक्षा हो रही थी. अब दूसरा नाटक, दूसरा दू:स्वप्न शुरू होने को था- यह मैं नहीं थी जिसे वह छू रहा था, यह मैं नहीं थी जिसके वह कपड़े उतार रहा था, ये सब इतना अवास्तविक, इतना पीड़ादायक था, इतना झटका लगाने वाला था कि रजस्राव से चादर भीग गयी. तट के लग्ज़री होटल में ये एक डरावनी रात थी. रिवाज़ के अनुसार सुबह मेरे रिश्तेदार मुझे घर ले जाने के लिए आये. मैं क्षुब्ध थी और स्वयं को अपवित्र और चोटिल महसूस कर रही थी”
(कटिंग फ्री: एन ऑटोबायोग्राफी, सलमा अहमद, समा,कराची, 2002:26-27)
इसी सलमा अहमद की बहन नजमा भोपाल की बेगम आबिदा सुल्तान की बहू बनी. सलमा की आत्मकथा में नजमा और शहरयार के विवाह की तस्वीर भी है. इस तरह सलमा अहमद का सम्बन्ध भोपाल की रियासत से ठहरता है, जो भारत की एकमात्र ऐसी रियासत थी जहाँ 19 वीं और 20 वीं शती में स्त्री-शासक हुईं. यह गौर करने की बात है कि भोपाल रियासत की अधिकतर शासकों ने आत्मकथा लिखीं.
सईदा बानो अहम् की आत्मकथा ‘डगर से हटकर‘ (1990) में प्रकाशित हुई जीवन के उत्तरार्ध में सईदा ने यह आत्मकथा अपने पुत्रों की इच्छा के विरुद्ध छपवाई, जिसे बाद में उर्दू अकादमी, दिल्ली से पुरस्कार भी मिला (सकीना हसन-सईदा की भतीजी से उसका साक्षात्कार 13 फरवरी 2006 को) सईदा हसन आल इंडिया रेडियो की पहली स्त्री उद्घोषक थीं जो सन 47 में अपने छोटे बेटे को लेकर लखनऊ से दिल्ली नौकरी करने आ गयीं.
(इंटिमेंसी अगेंस्ट कन्वेंशन: मैरिज एंड रोमांस इन सईदा बानो’ज़ ‘डगर से हटकर ‘पेपर बाई आसिया आलम ,40एथ एनुअल कांफ्रेंस आफ़ साउथ एशिया, यूनिवर्सिटी ऑफ़ विस्कांसिन, मेंडिसन,21-23 अक्टूबर 2011.)
सईदा ने अपने दाम्पत्य जीवन के विवादों और विवाह के टूटने के चित्रण खुलकर किये, यही कारण था कि लम्बा अरसा बीत जाने के बाद भी उनके बेटों ने आत्मकथा के छपने का विरोध किया. सईदा की आत्मकथा की तुलना आबिदा सुल्तान से भी की जा सकती है, वे दोनों अच्छी मित्र थीं और दोनों की परवरिश भोपाल में ही हुई थी आश्चर्यजनक रूप से दोनों ने आत्मकथ्यों में बोल्डनेस दिखाई. आबिदा सुल्तान की आत्मकथा की चर्चा पहले की जा चुकी है, सईदा ने बताया कि उसने विवाह के तुरंत बाद हमबिस्तर होने से इसलिए इंकार कर दिया क्योंकि उसे लगा कि पति नितांत अपरिचित हैं. (डगर से हटकर:38) इस असुविधाजनक प्रसंग को लिखकर अपनी अल्पवयस और उस समय तक यौन-संबंधों के बारे में अनभिज्ञता प्रदर्शित की. सईदा बानो ने विवाहेतर सम्बन्ध की चर्चा बड़ी बहादुरी से की है. नुरुद्दीन नामक वकील जिसकी अंग्रेज़ पत्नी अपने बच्चों को लेकर भारत की आज़ादी के बाद इंग्लैण्ड चली गयी, उससे सईदा को प्रेम हुआ.
नुरुद्दीन के अकेलेपन को सईदा की दोस्ती ने भर दिया. इनदोनों का प्रेम लगभग 27 वर्ष चला, शुरूआती हिचक के बाद सईदा ने प्रेम के सामने पूर्ण समर्पण कर दिया, जिसने सईदा के शब्दों में ‘सईदा का दिल खुशियों से भर दिया था ‘सन 1955 में नुरुद्दीन की पत्नी दिल्ली लौट आई, उसे इस प्रेम सम्बन्ध पर आपत्ति थी (डगर से हटकर :186-190) इस सम्बन्ध को लेकर सईदा बहुत सम्वेदनशील थी क्योंकि इसने ख़ुशी दी थी, इसलिए एक दिन अचानक सब ख़त्म करना उसके लिए संभव नहीं था, दूसरी बात यह थी कि इस सम्बन्ध की जानकारी मित्रों, बच्चों और रिश्तेदारों को थी लेकिन सईदा के अनुसार ‘मेरी जीवनशैली की मर्यादा उन लोगों ने रखी, इस प्रेम सम्बन्ध के कारण मेरा अपमान कभी नहीं किया.’अतीत के प्रसंगों का ज़िक्र करते हुए सईदा लिखती है-
“आज जब पीछे मुड़कर देखती हूँ तो वह पूरा प्रसंग बचकाना लगता है ,लेकिन ऐसा वक्त भी था कि उसकी एक झलक, कुछ लम्हे के लिए मिलना ज़िन्दगी और मौत का सवाल …रात के राहियों की तरह बचपने का यह खेल हमने 60-65 और यहाँ तक कि 70 बरस की उम्र तक भी खेला. जिस काम की मनाही हो उसे करने में जोखिम का अद्भुत आनंद छिपा हुआ होता है”
(डगर से हटकर:226)
सईदा द्वारा अपने प्रेम सम्बन्ध की स्पष्ट स्वीकृति अपने आप में विशिष्ट है, जो उसकी आत्मकथा को प्रामाणिक बनाती है.
‘मेरा जीवन’ शीर्षक से डा.जाकिरा गौस (1911-2003) ने आत्मकथा लिखी. पढने की शौक़ीन ज़ाकिरा ने सत्तर वर्ष की अवस्था में मद्रास विश्वविद्यालय से उर्दू में पी एच डी की उपाधि प्राप्त की. बचपन से ही डाक्टर बनने का सपना देखने वाली जाकिरा को पारिवारिक परिस्थितियों ने गृहस्थिन बनाया. वे आत्मकथा में अपने बचपन के रचानात्मक दिनों को याद करती हैं. वे अपने एक बुज़ुर्ग द्वारा निकाली जाने वाली पत्रिका ‘बज़्म ए अदब’ से प्रेरणा लेकर खानदान के भीतर ही हस्तलिखित पत्रिका ‘मुशीर उन निस्वान’ निकालने लगीं. इस घरेलू पत्रिका के पाठक खानदान के भीतर के लोग ही थे पर इसमें भी अपने से बड़े-बुजुर्गों पर टिप्पणी करने से लोग बचते थे. सन 1956 तक यह हस्तलिखित पत्रिका नियमित रूप से निकलती रही. सेल्फ सेंसरशिप के सन्दर्भ में जाकिरा गौस ने इसे याद किया है, इसी के आधार पर ‘माई लाइफ’ शीर्षक से आत्मकथा अंग्रेजी में प्रकाशित हुई, जिसे खानदान के लोगों के लिए ही लिखा गया था, इसलिए बहुत से वर्णनों की ज़रूरत भी नहीं पड़ी. लेकिन वह यातनाप्रद बातों की चर्चा से बचीं और यदि कहीं किसी के बारे में प्रसंगवश नकारात्मक टिप्पणी कर भी देती हैं तो तुरंत वहीँ किसी सकारात्मक बात से संतुलन बना देती हैं.
इसी तरह पूरी आत्मकथा में सावधानी दिखाई पड़ती है, वे विवादास्पद मुद्दों पर अपना पक्ष नहीं रखतीं और यदि कोई ऐसा मुद्दा आता भी है तो उनका बयान होता है- आपमें से कुछ इससे असहमत भी हो सकते हैं -उनसे अग्रिम क्षमायाचना के साथ. आत्मकथा में वे दर्ज़ करती हैं-
“पत्रिका के पहले अंक में महरूम चचाजान ने खानदान की कुछ मृतक औरतों के बारे में लिखा था, वर्णक्रम से. पाठकों को उनके बारे में कुछ लिखने को कहा गया था. मैंने नहीं लिखा, लेकिन उसके बाद से ही मेरे दिमाग में यह विचार आया कि हालाँकि मेरा जीवन इतना महत्वपूर्ण नहीं है, कि उसे लोग जानें फिर भी मैं अपने बारे में ज़रूर कुछ लिखूं. आरंभ में तो किसी कागज़ पर मैं यूँ ही कुछ उलझी हुई बातें लिखा करती थी. मैं आपसे उसे पढ़ने के लिए नहीं कह सकती पर मैं इतना जानती हूँ कि आपमें से कुछ लोग तो उसे पढ़ने के लिए कहेंगे ही. यह मैं इसलिए कह रही हूँ कि मुझे मालूम है कि लोगों में दूसरे के निजी जीवन को जानने की इच्छा होती ही है…वैसे अपने निज के बारे में लिखना मेरा अपना चुनाव है,यह ऐसा विषय है जिसपर मेरी कलम बिना रुके दौड़ सकती है. मुझे मालूम है कि आत्मप्रशंसा करना एक कमी है फिर भी मुझे अनुमति दीजिये कि कहूँ कि जो कुछ मेरे जीवन में हुआ उसे लिखूं अपने बारे में कुछ ख़ास लिखना मुझे कभी पसंद नहीं आया.”
आत्मकथा में जाकिरा अतिशयोक्तियों का प्रयोग करती हैं, अपने पाठकों के पक्ष में वह अपनी आलोचना स्वयं करती चलती है. बार बार कहती है कि उसे ठीक से लिखना भी नहीं आता.अपने पाठकों से किसी वक्तव्य, जिसके बारे में उसे लगता है कि वह आत्मप्रशंसात्मक हो सकता है- को देने के बाद अतिशय विनम्रता दिखाती है, जिसे फारसी और उर्दू गद्य की परंपरा में भी देखा जा सकता है. यहाँ देखने की बात है आत्मकथ्य में आत्म के विलोपन का प्रयास, सिर्फ औपचारिकता मात्र नहीं है बल्कि इसके गहरे निहितार्थ हैं. वह चाहती है कि पारिवारिक सेंसरशिप उसपर हावी न हो उसकी साहित्यिक गतिविधियाँ अपनी गति से चलती रहें.इसलिए वह अपने आपको बहुत ही नाचीज़ दिखाती है, सगे-सम्बन्धियों पर कोई टीका टिप्पणी नहीं करती. पूरी आत्मकथा बहुत सावधानी से लिखी हुई है, हालाँकि इस कार्य में वह हर समय सफल नहीं हो पाती. जाकिरा अपने जन्म के प्रसंग में लिखती है –
“रबी उल अव्वाल 1340, यानी 18 नवम्बर 1921 को शुक्रवार के दिन हैदराबाद के हाजी मंजिल में मैं पैदा हुई, मुझसे पहले पैदा हुई दो बहनें मर चुकी थीं…मैं अब तक इस संसार में जी रही हूँ ,इतनी लम्बी ज़िन्दगी. कभी कभी सोचती हूँ मेरा जीवन कितना निरर्थक है ,अगर मैं भी अपनी बहनों की तरह पैदा होते ही मर जाती तो…क्या हुआ होता ?मेरे जैसे जीवन का क्या मूल्य है …व्यर्थ और निरुद्देश्य’ जाकिर गौस लिखती है कि उनके पिता बी. ए.पास न कर पाने के कारण पक्की नौकरी से वंचित रहे, खानदान के बाहर उन्होंने दूसरी शादी की ,दूसरा घर भी बसाया, सभी पत्नियों को मिलकर उन्हें कई बच्चे हुए जिनमें पांच लड़कियों और एक लड़के ने ही पूर्ण जीवन जिया. ज़ाकिरा की मां ने बहुत अभावों में अपने बच्चों को पाला, इसलिए अपने बच्चों को बहुत विनम्रता और खानदानी तहजीब सिखाई. उन्होंने सिखाया कि वे परनिर्भर हैं इसलिए उन्हें ऐसे रहना चाहिए जिससे परिवार के अन्य लोगों को कोई तकलीफ न हो. वह एक वाक़या याद करती है कि घर में कबाब बने थे- कुछ बच्चों ने जोश में आकर ज्यादा कबाब खा लिए, जिससे बाकी लोगों के लिए कम बचा. जैसे ही मेरी मां को यह पता चला उन्होंने बहुत कड़ाई के साथ ताक़ीद की, कि भविष्य में दूसरों के बारे में बिना सोचे कभी भोजन करने का साहस न करूँ. यह बात आज भी मेरे जेहन में बैठी हुई है कि मैं दूसरों के हिस्से के बारे में बिना सोचे हुए कभी भी खा नहीं पाती …और कभी असफल रहने पर मेरी आत्मा कचोटती है’
अपने पिता के बारे में वह लिखती है –
‘हमें उनसे हमेशा डर लगता था …हम उनसे कांपते थे और हमसे वे सीधे बात नहीं करते थे.’अपनी मां के व्यक्तित्व के बारे में वह लिखती है कि मां कभी अपना प्यार दिखाती नहीं थी, लेकिन मुझे मालूम था कि वो मुझे बहुत प्यार करती है.आर्थिक तंगी वाले संयुक्त परिवार में जाकिरा के परिवार का सम्मानजनक ढंग से जीना संभव नहीं हो पा रहा था.ऐसे हालातों में उसकी मां कुंठित हो रही थी.फिर भी अपनी बेटियों के भविष्य और व्यक्तित्व के विकास के लिए चिंतित रहा करती थी.वह अपनी बेटियों के लिए दिनचर्या लिखा करती, जिसका पालन करना कठिन होता था.माँ अपने वात्सल्य को कभी जताती नहीं थी जिसके कारणों पर जाकिरा गौस की टिप्पणी है –‘बावजूद तमाम भावनाओं के माँ के मुख से मेरे लिए प्यार शब्द निकलना संभव नहीं था, लेकिन यह बात मुझे बड़े होने पर ही समझ आई.”
अपनी मां के बहाने वह मुस्लिम परिवारों में प्रचलित बहुविवाह, अशिक्षा के कारणों, पर्दा-प्रथा और लैंगिक विभेद को परखती चलती है.
‘घर की औरतों का बाहर जाना बहुत कम ही होता था. खरीदारी का काम घर के पुरुष या नौकर ही करते थे.घर की बुज़ुर्ग औरतें युवा बहु-बेटियों को घर के भीतर रहने की सलाह देती थीं, वे खानदान की परंपरा के पालन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थीं. घर की औरतों को हैदराबाद और मद्रास आने-जाने का मौका सिर्फ शादियों में मिलता था. यह वह समय था जब खानदान की नयी पीढ़ी बाहर के समाज से जुड़ना चाह रही थी. औरतें मस्जिदों और तीर्थयात्रा के लिए भी जाती थीं लेकिन परदे में ही और किसी न किसी पुरुष की सरपरस्ती में. परदे का पूरा पालन किया जाता था.
घर से निकलते समय जनानखाने से दरवाज़े तक नौकरानी मोटे कपड़े का पर्दा पकड़ कर दोनों तरफ खड़ी हो जाती थीं. घर के आंगन से दरवाज़े पर खड़ी गाड़ी तक पर्दा कनात की तरह खड़ा किया जाता. रेल और जहाज़ में जनाना कम्पार्टमेंट होते. घर एक बंद संसार था,ज हाँ औरतों की उपस्थिति स्थायी थी और पुरुषों का आना-जाना लगा रहता. पुरुष-आधिपत्य के बावजूद घरेलू मामलों में स्त्रियों के अपने निर्णय, विचार होते थे, छोटी लड़कियों को घर के भीतर ही औरतें इमला सिखा देतीं. कई माओं ने पुरुषों के विरोध के बावजूद अपने बच्चों को स्कूल भेजने की पेशकश की. 1931 में अपनी माँ की वजह से जाकिरा की एक चचेरी बहन ने स्कूल में दाखिला ले लिया, जो खानदान की एक बड़ी घटना थी. जाकिरा गौस आत्मकथा में अपने आत्मनिर्भर बनने की यात्रा का बयान करती हैं कि किस तरह वे चांदनी रात में आँखें गड़ाकर किताबें पढ़ती थीं, किसी के आने की आहट सुनते ही किताब छुपा देती थीं.”
संयुक्त मुस्लिम परिवार में उन्होंने बहुविवाह और उससे प्रभावित बच्चों और स्त्रियों को नजदीकी से देखा. पहली पत्नी की उपेक्षा, सीमित आय में बहुत से परिवारों का पालन, विवाह के कारण नए बच्चों की आमद से परिवार में कलह, आर्थिक तंगी, जगह की कमी इत्यादि के बारे में वे लिखती हैं-
“बहुपत्नीत्व का रिवाज़ हमारे खानदान में कम ही था, इसे आम तौर पर पसंद भी नहीं किया जाता था. अक्सर पहला विवाह परिवार जनों द्वारा तय किया जाता था, जबकि दूसरा विवाह उस व्यक्ति की निजी पसंद का होता था. अक्सर दूसरा विवाह नीचे दर्जे की लड़की के साथ किया जाता था. इन औरतों से खानदान की औरतें सामाजिक तौर पर कोई खास सम्बन्ध नहीं रखती थीं.
ऐसी औरतों के अस्तित्व की ओर से खानदान बेखबर रहने में भलाई समझता था. दूसरे-तीसरे विवाह वाली औरतों के रहने का अलग इंतजाम होता था. ऐसा बहुत कम होता था कि इन संबंधों से पैदा हुई संतानों का विवाह खानदानी घरों में हो. जबतक पुरुष आर्थिक तौर पर दोनों परिवारों का बोझ उठाने में सक्षम होता था, स्थिति नियंत्रण में रहती थीं. लेकिन यदि कोई स्त्री या उसके बच्चे उपेक्षित महसूस करते थे तो खानदान का कोई भी उनकी मदद को आगे नहीं आता था.”
घर में एक ईसाई नर्स आती थी जो साफ़ सुथरे कपड़ों में स्मार्ट दिखती थी, परिवार के मर्द उसके औजारों/दवाई का बैग लेकर पीछे पीछे चलते यह देखकर जाकिरा के मन में डाक्टर बनने की इच्छा जगी. पिता ने बारह वर्ष की उम्र में उसे स्कूल जाने की इज़ाज़त दी और नामपल्ली स्कूल में दर्ज़ा दो में बैठना शुरू किया. शादी के बाद उर्दू में स्नातक की उपाधि प्राइवेट से पढ़ कर पास की, बाद में उन्होंने लड़कियों के कालेज में पढ़ाने की नौकरी मिली.
पूरी आत्मकथा में अपनी जवानी के दौर का ज़िक्र वे ज्वालामुखी के फटने की तरह करती हैं. यह ज़िक्र भी है कि कैसे पति ने एम.ए.करवाने से मना कर दिया, क्योंकि तब वह अपने पति से श्रेष्ठ हो जाती. जाकिरा ‘हमारा दौरे हयात’ में लिखती है-
“अब मैं यह महसूस करती हूँ कि मेरे जीवन में जो कुछ भी हुआ अच्छे के लिए ही हुआ. मेरे लिए आर्ट्स पढना बेहतर रहा. मैंने बहुत सा साहित्य पढ़ा और लिखने की आदत ने मेरी दूसरी मानसिक चिंताओं को ख़त्म कर दिया. पहले लिखना मेरे लिए आवरण था बाद में लक्ष्य बन गया …मैं आज जो कुछ भी हूँ लिखने के कारण ही हूँ. हमारे खानदानों में किसी स्त्री का अविवाहित रह जाना बहुत ही अलग घटना होती थी, जिनका विवाह नहीं हो पाता वे अपने पिता या भाई के ऊपर निर्भर रहती थीं. 1920 से 1950 के दौर तक ऐसा होता था कि तीस पार से ऊपर की लड़कियों में लगभग 15 प्रतिशत की शादी होती ही नहीं थी, सुशिक्षित लड़कियों को भी अविवाहित रह जाना पड़ता था.’”
ऊपर से साधारण दीखने वाली आत्मकथा मुस्लिम समाज के भीतर जेंडर के समीकरणों को गहरे तक रेखांकित करती है. अपने समकाल और भारत की बीसवीं सदी के पहले के सात दशकों का इतिहास इस पुस्तक में झलकता है. साथ ही परिवार और समाज द्वारा तयशुदा दायरे में कैसे एक स्त्री निज की पहचान को तलाशती है और बिना शोर-शराबे के अपनी पहचान स्थापित करती है, कोई जान भी नहीं पाता कि उसकी नामालूम सी कहानी कहाँ शुरू और कहाँ ख़त्म हुई.
आत्मकथा लेखन को अपने तनाव और चिंतन-मनन की रचनात्मक ‘शेयरिंग’ से जोड़ा जा सकता है. हालांकि एक स्त्री, देश-काल की सांस्कृतिक सीमाओं के परे, आत्मकथ्य लिखते या कहते समय निरंतर इस तनाव से जूझती है कि वह जीवन सत्य के किन पहलुओं को छोड़े और जोड़े. चारित्रिक दुर्बलता और फिसलन के प्रसंगों में से किन्हें लिखे और किन्हें छोड़े, सत्य और कल्पित प्रसंगों में से क्या रखे! स्त्री रचनाकार का वैश्विक नजरिया, जीवन मूल्य, संस्कार, भाषिक कौशल, राजनीतिक संदर्भ और उसके जीवन की नियंत्रक शक्तियां-इसको प्रभावित करती हैं, इसलिए रीता फेल्स्की को लगता है कि ‘स्त्रियों की आत्मकथाओं में इच्छा और सत्य का तनाव, दिखाई देता है. उनका ईमानदार आत्म निरंतर सत्य के पक्ष में बोलने के लिए पर्युत्सुक रहता है जबकि बाहरी दबाव इस अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाते हैं. आत्मकथाओं को कौन-सा पाठक पढ़ेगा, पाठकीय वर्ग और रुचि भी रचना को प्रभावित करती है. स्वान्तः सुखाय का दावा करने वाले रचनाकार के अवचेतन में भी ज्यादा से ज्यादा पाठकों तक स्वयं को प्रसारित करने की लालसा सुप्त रहती है.
६.
नवाब फैज़ुन्निसा बेगम (1834-1903) ने रूपजलाल (1876) नामक उपन्यास अपने असफल वैवाहिक जीवन की पीड़ा की अभिव्यक्ति के लिए लिखा था. किसी भी बंगाली मुस्लिम स्त्री द्वारा लिखे इस पहले उपन्यास की भूमिका आत्मकथात्मक है, जिसमें संक्षेप में मुस्लिम स्त्री पर समाज के दबावों और उसकी यौनिकता पर मर्दवादी पहरों की पहचान की गयी है .इसमें औपनिवेशिक बंगाली मुसलमान स्त्री के जीवन के यथार्थ चित्र हैं. रूपजलाल जैसी रचना मुसलमान समाज में प्रचलित और इस्लाम से मान्यता प्राप्त बहुपत्नीत्व के ख़िलाफ़ आलोचनात्मक तर्क विकसित करती है. उपन्यास की नायिका रूपबानो अपने पति के बहुविवाह के प्रति कड़ा प्रतिरोध दर्ज कराती है, लेकिन अंतत: उसे परम्परा के आगे समर्पण करना पड़ता है. रूपबानो भले ही ‘बहुपत्नीत्व‘ के सामने घुटने टेक देती है लेकिन नवाब फ़ैजुन्निसा ने निजी जीवन में पति के बहु-विवाह पर आपत्ति करते हुए अलग रहने का निर्णय लिया था.
उपन्यास की भूमिका में इसका उल्लेख करते हुए विफल वैवाहिक जीवन की यंत्रणा को रचना की प्रेरणा बताया गया है. रूपजलाल का कथ्य प्रेम, युद्ध, बहुपत्नीत्व के दायरे में ही घूमता है. फ़ैज़ुन्निसा लेखन में तथाकथित स्त्रीत्व का अतिक्रमण करते हुए स्त्री-यौनिकता के प्रश्नों पर विचार करती है. वह उस समाज का आंतरिक परिवेश चित्रित करती हैं जहाँ धर्म और पितृसत्ता का दबाव स्त्री को ‘आत्म‘ से संवाद करने की छूट नहीं देता.
फैज़ुन्निसा के लेखन को विद्रोह बल्कि अतिक्रमण के रूप में देखा जाना चाहिए. वह लेखन में स्त्रीत्व का अतिक्रमण करती हैं. अपने समय से कहीं आगे की इस रचना पर पाठकों और आलोचकों ने विशेष ध्यान नहीं दिया. फ़ैज़ुन्निसा बांग्ला में लिखती थी लेकिन उन्हें अरबी, फ़ारसी और संस्कृत का अच्छा ज्ञान था. उन्होंने फैज़ुन लाइब्रेरी बनाई थी और रवींद्रनाथ ठाकुर की बहन स्वर्णकुमारी देवी (बांग्ला की पहली स्त्री-उपन्यासकार (दीपनिर्वाण, 1868) के स्त्री-संगठन शक्ति समिति की प्रखर सदस्य थीं. उन्हें औपनिवेशिक बंगाल और अन्य प्रांतों में हो रही राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक हलचलों की पूरी जानकारी थी. अब्दुल कुदस ने आलोर दिशारी (अब्दुल कुदस (1979), द एनलाइटेंड गाइड, बंगला साहित्य अकादेमी, ढाका.) में लिखा है कि-
“फ़ैज़ुन्निसा प्रतिदिन कुछ घंटे लाइब्रेरी में बिताती थी और ‘इस्लाम प्रचारक‘ और ‘सुधारक‘ जैसी पत्रिकाएँ नियमित तौर पर ख़रीदती थी. ऐसे वक्त में, जब स्त्री से सिर्फ़ यह अपेक्षा की जाती थी कि वह घर को आरामदायक शरणस्थली बनाए, कुशल गृहिणी बने, ऐसे में एक मुसलमान स्त्री का उपन्यास लिखना परम्परागत मूल्यों को चुनौती था और साहसिक अभियान की शुरुआत भी. भूमिका में वे बहुपत्नीत्व की कड़ी आलोचना करते हुए अपने परिवार के बारे में बहुत बोल्ड ढंग से लिखती हैं. “
(फएजा एस. हसनत (2009), ‘नवाब फ़ैज़ुन्निसाज़ रूपजलाल‘, वुमॅन ऐंड जेण्डर : द मिडल ईस्ट ऐंड द इस्लामिक वर्ल्ड, खण्ड 07, प्रकाशक कोनिक्टलज़िकी ब्रिल, एन.वी.)
फैज़ुन्निसा दो घनिष्ठ प्रसंगों का ज़िक्र करती है पहला तो यह कि अभी वह छोटी ही थी कि उसके विवाह का प्रस्ताव घर पर आया, वह पिता का ही रिश्तेदार था, विवाह-सम्बन्ध की मनाही ने उस व्यक्ति को बुरी तरह तोड़ दिया और पूरा जीवन दुःख में बिताया (रूपजलाल -भूमिका:5-6)
फैज़ुन्निसा का कहना है कि इसके बाद उसका भाग्य दुर्भाग्य में बदल गया ,पिता की मृत्यु हो गयी और मां एक धनी व्यक्ति की दूसरी पत्नी बन गयी.अपने बारे में फैजुन लिखती है ‘शादी के कुछ वर्ष मैंने खुशी से गुज़ारे.पति अपने आप से ज्यादा मुझे प्यार करता, मुझे एक मिनट के लिए भी अकेला न छोड़ता.
इस बीच मैंने दो बेटियों को जन्म दिया.पति ने एक और शादी की थी पर पति मेरे प्रति आकर्षित रहता, जिसे देख कर सौतन ईर्ष्या से जल-भुन जाती.वह मुझसे पीछा छुड़ाने के उपाय ढूँढने लगी.जो व्यक्ति मुझे एक मिनट के लिए अकेला न छोड़ता वह अब हमेशा के लिए अकेला छोड़ देना चाहता था.इसी परिस्थिति में मैं अलग घर लेकर रहने लगी.”(रूपजलाल-भूमिका :7)
यह बात महत्वपूर्ण है कि फैजुन ने अपना पुस्तकालय बनाया, अख़बारों में लिखा और पति के आगे कभी हाथ नहीं पसारा और स्त्री -संगठनों की सदस्य रही. यद्यपि अपने उपन्यास में उसने रूप और जलाल की प्रेमकथा लिखी और प्रेम के आगे स्त्री का आत्मसमर्पण दिखाया लेकिन जीवन में उसने इस्लाम में प्रचलित बहुपत्नीत्व का विरोध किया.निजी तौर पर फ़ैजुन्निसा द्वारा बहुपत्नीत्व को चुनौती देना और पारिवारिक सुरक्षा के दायरे से बाहर निकल कर एक आत्मनिर्भर ऐजेंट के रूप में सामने आना नयी स्त्री की छवि का दिशा-निर्देश करता है.
अपनी स्वतंत्रता के लिए स्त्री का संघर्ष वस्तुत: राष्ट्रवादी क्रांति के लिए किये जाने वाले संघर्ष से बहुत भिन्न नहीं है. इस संघर्ष में उसे अनेक स्थापित सामाजिक संस्थाओं, वर्चस्वशील विचार-सरणियों से टकराना होता है क्योंकि पितृसत्तात्मक समाज की स्त्री-विरोधी परम्पराओं के आयाम अपने-आप में विशिष्ट होते हैं जो स्त्री को घर, पति, संतान की पूरी ज़िम्मेंदारियाँ सौंपते हैं. यहाँ तक कि स्त्री के लिखे को पाठक और प्रकाशक भी उपेक्षित करते हैं. फैजुन्निस्सा स्त्री यौनिकता, पर्दा,शिक्षा और बहुविवाह के प्रश्नों पर विचार करती दीखती हैं.
बे-दर घरों शक़्ल का साया कहाँ से आए
मुस्लिम स्त्रियों के लिखे हुए को प्रकाश में लाये बिना हम राष्ट्रीय आन्दोलन में स्त्रियों की स्थिति और योगदान को समझ नहीं सकते ‘द वर्ल्ड ऑफ़ मुस्लिम वीमेंन इन कोलोनियल बंगाल’ में सोनिया अमीन ने राष्ट्रीय आन्दोलन के दौर में मुस्लिम स्त्रियों के संघर्ष का विश्लेषण करते हुए कहा है कि मुसलमानों की पितृसत्ताक व्यवस्था भी स्त्रियों को परम्पराश्रित आधुनिक विचारधारा देने का प्रयास कर रही थी. जहाँ हिन्दू और ब्राह्मो समाज सुधारकों की विचारधारा सीता, सावित्री के पौराणिक, मिथकीय चरित्रों पर आधारित थी वहीँ मुस्लिम समाजसुधारक स्त्रियों के सामने हज़रत मुहम्मद की पत्नी आयशा, बेटी फातमा- जो धैर्य और सहनशीलता का उदाहरण समझी जाती है- को आदर्श चरित्रों के रूप में रख रहे थे. हिन्दुओं की तर्ज़ पर उनका भी मानना था कि समुदाय की संस्कृति की रक्षा का दायित्व स्त्रियों का ही होता है.
राष्ट्रीय आन्दोलन को जेंडर के दृष्टिकोण से यदि विश्लेषित किया जाए तो साहित्यिक और गैर-साहित्यिक साक्ष्यों के आधार पर पितृसत्ता यह मान रही थी कि स्त्रियों का कोई अधिकार उनकी देह पर नहीं है, मुस्लिम स्त्रियों के सन्दर्भ में यह बहुस्तरीय था.बहुत से आलोचकों ने उस दौर की मुस्लिम स्त्रियों के लिखे और कहे हुए पर विचार करने की ज़रूरत ही नहीं समझी, पितृसत्ता से अनुकूलित राष्ट्रवादियों ने उनकी उपेक्षा की, जबकि मुस्लिम पितृसत्तात्मक नियंत्रण इस समय में स्त्रियों को आधुनिक करने की दिशा में प्रयास करना प्रारंभ कर रहा था, आधुनिकतावादी विचारधारा स्त्री पर परिवार और पुरुष के नियंत्रण को वैधानिक बनाने की प्रक्रिया में थी.
इसकी प्रतिक्रियास्वरूप मुस्लिम स्त्रियों ने आधुनिकता का कृत्रिम जामा पहनने की अपेक्षा स्वयं को परदे में रखकर जीना और वहीँ मरना पसंद किया. रुकैय्या सखावत हुसैन ने ‘अबरोध बासिनी’ में ज़िक्र किया है कि एक बार एक घर में आग लग गयी घर की मालकिन ने अपने सारे गहने एक पोटली में बांधे और जल्दी में शयनकक्ष से निकली, बाहर निकलते ही उसने देखा कि आँगन में बहुत से लोगों की भीड़ जमा है- जो आग बुझाने की कोशिश कर रहे थे. वह अपने शयनकक्ष में वापस चली गयी और बिस्तर के नीचे छिप गयी.
वह जल मरी लेकिन बाहर नहीं निकली,पर्दा प्रथा जिंदाबाद !’रुकय्या सखावत हुसैन ने 1905 में सुल्ताना का सपना लिखा, जिसमें उन्होंने परदे के भीतर घुटती हुई स्त्री की यातना और स्वातंत्र्य -स्वप्न का चित्रण किया. ठीक इसी समय लेखकों का ध्यान इस बात पर ज्यादा था कि नयी लेखिकाएं स्त्री की शुचिता, पवित्रता, सतीत्व की कहानियां लिखें॰ उनपर दबाव डाला जाये कि लेखिकाओं को समाज के उच्चतर मूल्यों की स्थापना का प्रयास करना चाहिए.
मध्यवर्ग से सम्बंधित किसी लेखिका का साहस नहीं हुआ कि वे इन बने-बनाये नियमों के दायरे से बाहर जाए. इसलिए घर की परिधि में रोमांटिक अभिव्यक्तियों तक उनकी रचनात्मकता महदूद रही. मध्यवर्गीय परिवारों से सम्बद्ध लेखिकाओं ने तयशुदा दायरे में ही आत्माभिव्यक्तियाँ कीं और सीधे-सीधे अपनी बात कहने के खतरे, जो अभिजात्य या उच्च वर्ग से संबद्ध लेखिकाएं उठा सकती थीं, वो इन्होने नहीं उठाये और पुरुषों की दृष्टि के अनुरूप ही स्त्री-छवि चित्रित की.
हैदराबाद की बिल्कीस जहाँ खान (1930) और रामपुर की राजकुमारी मेंहरुन्निसा(1933) ने अपने अंतरंग जीवन के टुकड़े संस्मरणों में लिखे, इसके अलावा हमीदा हुसैन राजपुरी ने “हमसफ़र’(1992)शीर्षक से आत्मकथ्य लिखा, जिसका अनुवाद उर्दू से अंग्रेजी में ‘माय फेलो ट्रेवेलर’ (2006) शीर्षक से अनुवाद प्रकाशित हुआ. (हमसफ़र, हमीदा अख्तर हुसैन, दान्याल, कराची,1992) जोहरा सहगल(1912) की आत्मकथा ‘करीब से’ में जोहरा ने रंगमंच, इप्टा और फ़िल्मी जीवन से जुड़े अनुभवों पर खुलकर लिखा साथ ही कामेंश्वर सहगल से अंतर्जातीय विवाह और प्रेम प्रसंग पर लिखते हुए किसी सेंसरशिप की परवाह नहीं की.ऐसा इसलिए संभव हुआ क्योंकि जोहरा को विदेशों का अनुभव था और वह रामपुर के राजसी परिवार से जुडी हुई थी. इप्टा से ही सम्बद्ध शौक़त कैफ़ी (928) ने उर्दू में’ यादों की रहगुज़र’(स्टार पब्लिकेशन,दिल्ली 2004) लिखी.
इस पुस्तक में कैफ़ी आज़मी के साथ अपने प्रेम और विवाह-प्रसंग को अत्यंत दिलचस्प अंदाज़ में पत्रों में ज़ाहिर किया –
“कैफ़ी ! मैं तुम्हें बहुत चाहती हूँ, इतना जिसकी कोई सीमा नहीं है, संसार की कोई भी ताक़त मुझे तुम्हारे पास आने से नहीं रोक सकती, कोई पर्वत, पहाड़, समुद्र, नदी, मनुष्य, कोई आकाश, कोई ईश्वर, कोई देवदूत मुझे रोक नहीं सकता, और केवल खुदा ही जानता है इस बारे में.” उधर कैफ़ी भी अपने खून से लिखे प्रेम पत्रों में इसी भाव की व्यंजना करते दीखते हैं’
(कैफ़ी एंड आई -अ मेंमोआयर, शौकत कैफ़ी, अनुवाद नसरीन रहमान, जुबान, दिल्ली, 2010)
८.
बुलबुल को बागबाँ से न सैययाद से गिला
किस्मत में क़ैद लिखी थी फ़स्ल-ए –बहार में
‘जीबोन स्मृति’ शीर्षक से बंगाल की राजनीतिक कार्यकर्त्ता हमीदा रहमान (1920) ने आत्मकथा लिखी. आत्मकथा के केंद्र में पलाश नाम के व्यक्ति से प्रेम और विछोह है. पलाश ने हमीदा रहमान को पढने-लिखने और राष्ट्रीय आन्दोलन में शिरकत करने की राह दिखाई (जीबोन स्मृति, हमीदा रहमान, नौरोज़ किताबिस्तान 1990, ढाका, अध्याय 1) पलाश सन 1930 में हमीदा से मिला था, तबसे निरंतर वे आपस में मिलते रहे, राष्ट्रीय आन्दोलन के दौर में पलाश बेहद सक्रिय था और उसका भूमिगत हो जाना, बीच बीच में किशोरी हमीदा से मिलने ने उनके बीच के संकोच और झिझक को हटा दिया था. हमीदा लिखती है–
‘ईद की रात मैं हमेशा उसका इंतजार किया करती थी, वह मेरे जीवन का बहुत महत्वपूर्ण क्षण होता. मैं अपने घर के फाटक के आगे टहलती रहती, जबतक वह अपनी छोटी सी सायकिल से आ नहीं जाता. उसके आने पर मेरा दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगता. डर लगता कि कहीं ऐसा न हो वो ना आ पाए. पर वह हमेशा ईद को रात 9 बजे आता, मैं बहुत खुश होती’.
( जीबोन स्मृति,हमीदा रहमान ,नौरोज़ किताबिस्तान 1990,ढाका:97)
आगे वह बताती है कि कैसे उनके बीच पत्रों का आदान-प्रदान शुरू हुआ और रोमांस फलता-फूलता गया. पाठक उनके विवाह की सूचना का इंतजार करता है, लेकिन पलाश के भाई के विरोध के कारण यह सूचना पाठक को नहीं मिलती.हमीदा के पिता भारी -भरकम दहेज़ देने में असमर्थ थे. हमीदा पूरी तटस्थता से इस दुखद प्रसंग को यथार्थ रूप में चित्रित करती है, अपने भावों और अनुभूतियों का कोई विवरण नहीं देती और बताती है कि पिता ने और लड़के देखने शुरू कर दिए,1942 में उसका विवाह किसी और से हो गया.
लेकिन कहानी यहीं ख़त्म नहीं होती. शादी के एक दो साल बाद ही हमीदा कलकत्ता गयी और वहां उसे पलाश फिर मिला, सत्रह साल की हमीदा पलाश से मिलकर बहुत खुश हो जाती– ‘हम बाहर साथ-साथ जाते, एक साथ सामूहिक रसोईयों में काम करते करते और भी नज़दीक आ गए. उस समय मेरे पति कलकत्ता में नहीं थे, इसलिए हमारी नजदीकियां बढ़ती गयीं. जब कभी हम मिल नहीं पाते एक दूसरे के बगैर बहुत दुखी रहते.’
(जीबोन स्मृति,हमीदा रहमान,नौरोज़ किताबिस्तान 1990,ढाका:28)
पलाश प्रसंग के 50 वर्ष बाद लिखी आत्मकथा में हमीदा का कहना है तब उसका यह व्यवहार नादान उम्र के कारण था, हालाँकि यह बात पाठक को बहुत दूर तक ग्राह्य नहीं होती क्योंकि वह लिखती है –‘तब मुझे मालूम ही नहीं था किसी पर- पुरुष से मित्रता पाप है. ये मेरी समझ के बाहर था कि बचपन के अभिन्न मित्र के साथ सम्बन्ध, विवाह के बाद गलत कैसे हो सकते हैं. मैं वास्तव में तब अबोध थी.’
(जीबोन स्मृति,हमीदा रहमान ,नौरोज़ किताबिस्तान 1990,ढाका:28)
हमीदा और पलाश का संपर्क रिश्तेदारों की नज़र में आ गया और हमीदा को पलाश से मिलने की मनाही हो गयी.हमीदा को अध्यापिका नहीं बनने देने पर उसने आत्महत्या की असफल कोशिश की,1960 तक पलाश राज्य विधानसभा का सदस्य और चार बच्चों का पिता बन चुका था ,वह फिर से हमीदा से मिलने आया जिसके बारे में वह लिखती है –
“मुझे पसंद नहीं था कि अब वह मुझसे मिले, लेकिन मैं उसे आने से मना नहीं कर सकी. मैं इस बात से इंकार नहीं कर सकती कि पलाश को लेकर मुझमें एक कमज़ोरी थी.’ (जीबोन स्मृति,हमीदा रहमान ,नौरोज़ किताबिस्तान 1990,ढाका:128-129)
उसके मिलने आने से हमीदा को थोड़ी असुविधा हुई पर उसने वर्षों बाद बालपन के इस प्रेम-प्रसंग को लिखा. यह लिखना उसकी अन्तःप्रेरणा के कारण ही संभव हो पाया,क्योंकि ऐसे अन्तरंग प्रसंगों को बाहर लाने में बाहरी दबाव ज्यादा कारगर साबित नहीं होते.
राजनीतिक जीवन जीने वाली बेगम कुदसिया एजाज़ रसूल(1908) की आत्मकथा ‘फ्रॉम पर्दा टू पार्लियामेंट’ ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता के अनुभव उनकी किताब में दर्ज हैं.एक मुस्लिम लड़की जिसका लालन -पालन एक अभिजात्य और राजनीतिक रूप से सक्रिय परिवार में हुआ,उसने कैसे परदे से पाकिस्तान मूवमेंट का अंग बनकर अपनी अलग पहचान बनायीं. बेगम रसूल की शादी अवध के जागीरदार नवाब एजाज़ रसूल से हुई जो मुस्लिम लीग के सदस्य थे. कुदसिया ने 1937 से 1940 तक काउन्सिल के उपप्रधान के तौर पर काम किया. वह पहली भारतीय मुस्लिम स्त्री थीं जो इतने ऊंचे पद तक पहुँचने में कामयाब हुई. स्वतंत्रता के बाद वे इंडियन नेशनल कांग्रेस की सदस्य बनीं. ज़मींदारी प्रथा का पुरजोर विरोध करने और रैयत के पक्ष में आवाज़ उठाने के कार्यों ने उन्हें प्रसिद्धि दी और 1952 में राज्यसभा की सदस्य बन गयीं. आत्मकथा इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि पितृसत्तात्मक समाज में नेतृत्वकारी क्षमता वाली स्त्रियों के अनुभव और क्षमता का उपयोग का प्रतिशत बहुत कम है. आज भी पूरे विश्व की स्त्रियों का लगभग 2 प्रतिशत ही संसद तक पहुँचने में सक्षम हो पाया है.
राजनीतिक अर्थव्यवस्था,सत्ता के संश्लिष्ट समीकरणों में स्त्रियाँ नीति -निर्धारक पदों पर बहुत कम पहुँच पाती हैं. राष्ट्रीय आन्दोलन और देश विभाजन ने भी स्त्रियों के व्यक्तित्व विकास के नए अवसर दिए थे. विभाजन ने शिक्षा, प्रशिक्षण और रोज़गार के नए अवसर भी साथ लेकर आया था,साथ ही निजी और सार्वजनिक क्षेत्रों की सीमायें भी टूटीं, उनका पुनर्निर्धारण हुआ.कई ऐसी स्त्रियाँ जिन्होंने पाकिस्तान के बनने के पक्ष में आंदोलनों में भाग लिया, आन्दोलन के पहले और आन्दोलन के दौरान सार्वजनिक सभाओं में खुलकर शिरकत की,मसलन बेगम शहनवाज़, बेगम राणा लियाकत अली खान, बेगम इकरामुल्लाह जिन्हें सन 47 में पाकिस्तान के अस्तित्व में आते ही घर के भीतरी दायरे में ढकेल दिया गया उन्हें सार्वजनिक जीवन में भाग लेने की अब मनाही थी.
फरीदा शाहिद का मानना है कि- “इस्लाम के, अपने ढंग से लागू किया जाने के कारण पाकिस्तान में असमानता और अधीनस्थता की स्थिति को पोषण और बढ़ावा मिला.”(द कल्चरल आर्टिकुलेशन ऑफ़ पैट्रिआर्की,फरीदा शाहिद,1991:140) राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान जो स्त्रियाँ पुरुषों के समकक्ष सभाओं, बैठकों, आंदोलनों में भाग लेने लगी थीं, उनको तब रोकना गैर-प्रगतिशीलता में शुमार होता, इसलिए स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत बाद सांस्कृतिक परम्परा, आदर्श और परदे जैसे नियम लागू कर दिए गए जिससे स्त्री फिर से नियंत्रण में लायी जा सके. स्वतंत्रता के बाद की स्त्री आत्मकथाएं इसके साहित्यिक साक्ष्यों के रूप में देखी जा सकती हैं, जो यह बताती हैं कि समाज का स्त्रियों को और स्त्रियों का समाज को देखने का नजरिया कैसा है, साथ ही स्त्री के आसपास घटने वाले सामाजिक -राजनीतिक परिवर्तनों के प्रति स्त्रियाँ क्या सोचती हैं. पाकिस्तान की नागरिक बन गयी औरतों के आत्मकथ्यों से सामाजिक परिवर्तनों की भूमिका को दर्ज करने और स्वयं समाज -परिवर्तन में उनकी भूमिका समझी जा सकती है.
9.
आत्मकथात्मक टेक्स्ट तब बनते हैं, जब कथाकार के भीतर निरंतर संवाद से ही आत्मकथात्मक टेक्स्ट बनते हैं, एक समाज विमर्श के तौर पर यह संवाद लेखक ,टेक्स्ट और बाह्य-जगत के बीच बारीक और सघन अन्तः -सम्बन्ध है. जिस समय इस तरह के टेक्स्ट बनाये जा रहे होते हैं, उस समय ,उस काल खंड की विशेष भूमिका लेखक के चित्त पर पड़ती है,इसके साथ ही संभावित पाठक की भूमिका भी कम महत्वपूर्ण नहीं है ,क्योंकि पाठ को पढ़ने का तरीका सबका अपना –अपना ही होता है. पाठक, टेक्स्ट और लेखक के बीच का आपसी सम्बन्ध वह जटिल और बारीक तंतुओं से बुना हुआ होता है– जिसके निर्माण में इतिहास, समाज और संस्कृति की भूमिका होती है.
ये टेक्स्ट इसका पता बताते हैं कि निज का परिविस्तार कैसे और किस ढंग से होता है. लेखन और पठन जैसी क्रियाएं किसी समुदाय के भीतर वैचारिकता को, संस्कृति को स्थानीय और वैश्विक दोनों स्तरों पर कैसे प्रभावित करती हैं. दरअसल आत्मकथाओं को हमें इस रूप में लेना चाहिए कि वे हमारे अनुभवों के विश्लेषण और पुनर्विश्लेषण करने में कैसे सहयोगी होती हैं. एक लिखित टेक्स्ट में जिस तरह के संसार का निर्माण होता है उसमें स्व के निर्माण के साथ–संसार के निर्माण का भाव अपने भीतर से आता है या यों कहें कि यह प्रक्रिया आत्म से संवाद के अनंतर पूरी होती है .
स्त्रीवादी आलोचक नैन्सी के. मिलर का कहना है कि पढ़ी–लिखी या अकादमिक जगत से सम्बद्ध स्त्रियों द्वारा आत्मकथात्मक लेखन ज़रूरी है क्योंकि यह सर्व जन के इतिहास के लिए प्रामाणिक दस्तावेजों का काम करते हैं, दूसरे शब्दों में कहें तो व्यक्ति कथाएं जन–इतिहास को बेहतर ढंग से बताने का काम करती हैं.
अकादमिक जगत से जुड़ी आत्मकथाएं, जिनमें किसी ने अपने जीवन के ब्यौरे (आत्मानुभव)दे रखे होते हैं वस्तुतः वे अपने आप को ऐतिहासिक और समाजशास्त्रीय जांच के लिए प्रस्तुत कर रही/रहा होता है. स्त्री–इतिहास को देखने के लिए बीसवीं शताब्दी में स्त्री के लिखे हुए की ऐतिहासिक, समाजशास्त्रीय पड़ताल ज़रूरी होगी क्योंकि ये वे हैं जो स्त्री सम्बन्धी मुद्दों से गहरे तौर पर सम्बद्ध राही हैं और अपने बारे में दस्तावेज़ लिखकर वे बहुत बड़ा बौद्धिक रचनात्मक कदम उठाती हैं. इस तरह वे स्वयं ही टेक्स्ट का अंश बन जाती हैं और साथ ही उन मुद्दों की भी जिनकी वकालत वे करती हैं.’
(शेड्स आफ डीपर मीनिंग ‘ओन राइटिंग ऑटोबायोग्राफी,मैरी जेन डिकिन्सन:982)
एक तरफ तो इन स्त्रियों का लिखा हुआ स्वयं को मुक्त करने की दिशा में एक प्रयास है. दूसरी ओर इसे स्वयं को मुक्त करने की दिशा में एक प्रयास के रूप में भी देखा जाना चाहिए.इन आत्मानुभवों को पढ़ने से इन स्त्रियों की टकराहटों –चाहे वे समाज के साथ हों,परिवार के साथ हों या स्वयं के साथ हों ,के साथ –साथ व्यक्तित्व के अंतर्विरोधों की भी परतें खुलती हैं. वे कौन से कारण हैं कि कोई स्त्री आत्मकथा जैसी विधा का चुनाव करती है, जो भी उस आत्मकथ्य को पढ़ता है वह साहित्य-सजग मुद्रा (Metaliterary gesture) को सराहे बिना नहीं रह सकता. ऐसा टेक्स्ट जो निजी और सार्वजनिक के बीच मध्यस्थता कर सके और साथ ही स्वानुभवों को भी व्यक्त कर सके.उदाहरण के तौर पर उर्दू में लिखी हुई बेगम अनीस किदवई की आत्मकथा को देखा जा सकता है.
गुब्बार–ए–कारवां में अनीस किदवई ने एक ओर देश विभाजन के पहले और बाद के सामाजिक–राजनैतिक हालातों का जायज़ा लिया है तो दूसरी ओर मुस्लिम होने के नाते शिक्षा ग्रहण करने और जीवन की धारा का निर्णय करने के लिए परिवार पर निर्भरता और स्त्री होने के कारण स्वयं पर पड़ने वाले सामाजिक, पारिवारिक दबावों, जेंडर की राजनीति,सेंसरशिप का ज़िक्र किया गया है.
एक स्त्री की दृष्टि से आजादी के आसपास के वर्षों में भारत –पाकिस्तान को देखने का यह अपनी तरह का पहला उल्लेखनीय प्रयास है, जिसकी अगली कड़ी के तौर पर ‘आज़ादी की छाँव में ‘शीर्षक आत्मकथात्मक संस्मरण को देखा जा सकता है.जिसे भले ही आत्मकथा न कहा जाए क्योंकि उसमें व्यक्ति के आत्मख्यान से ज्यादा जगह सामाजिक –राजनीतिक प्रसंगों को मिली है जो दरअसल हिंदुस्तान की आजादी की छाँव में भी तपती रुखी धूप का ताप झेलने को विवश आम जन का आख्यान है जिसे आजादी के नाम पर विस्थापन,गरीबी ,शोषण ,अपमान का शिकार होना पड़ा.रोग –बीमारी,यौन और अन्य प्रकार की हिंसा के शिकार लोगों को जानवरों से भी बदतर दशा में खुले आसमान के नीचे गर्मी,लू ,शीत और वर्षा के साथ देशव्यापी भ्रष्टाचार और अफवाहों का शिकार होना पड़ा. अनीस किदवई ने स्वयं जाकर शरणार्थी शिविरों में सेवा की, साम्प्रदायिक उन्माद के शिकार हो चुके पति का शोक विस्मृत करने का यही तरीका था.
औरतों द्वारा लिखे ये आख्यान जो बिलकुल निजी अनुभवों से उद्भूत होते हैं वे चिंतन और विचार की बनी –बनायी सरणियों को तोड़ते हैं, इन आख्यानों की विशेषता यह है इनमें लेखक विषयी (subject) को छोड़ता चलता है. स्त्री आत्मकथाकार अपने निजी जीवन को बौद्धिक, सांस्थानिक और सांस्कृतिक सन्दर्भों में रखकर आवा-जाही करती हैं.परंपरा से जो आत्मकथा का रूप है वह स्त्री और विशेषकर मुस्लिम स्त्रियों के यहाँ आकर बदल जाता है ये जीवनाख्यान निजी और सार्वजनिक दोनों हो उठते हैं, क्योंकि इनमें समाज, धर्म, राजनीति उन समीकरणों से पाठक/आलोचक रूबरू होता है जो अपने रूपबंध में स्त्री और पुरुष पाठक/लोचक दोनों को यह चुनौती देता है कि वे आत्म के वास्तविक, काल्पनिक और प्रामाणिक विमर्श को प्रस्तुत करें.
मिखाइल बाख्तिन ने ‘साक्षी और न्यायाधीश’ होने को ही मनुष्य होना कहा है, जिसका अर्थ है हम देखते और तौलते हैं. देखना और स्थितियों को तौलना ही एक घटना को विभिन्न व्यक्तियों द्वारा देखे जाने और एक ही स्थिति या घटना की विभिन्न व्याख्याओं को जन्म देता है.1947 के भारत–विभाजन ने मानव –इतिहास का अबतक का सबसे बड़ा उदाहरण पेश किया. भारत–पाकिस्तान का लिखित इतिहास विस्थापित समूहों के संघर्षों, हत्याओं, यौन–हिंसा, लूटपाट, भ्रष्टाचार और असंतोष के तमाम साक्ष्यों का इतिहास है. लेकिन विभाजन ने भी अन्य किसी युद्ध की तरह ही स्त्रियों पर दूसरे ढंग का प्रभाव डाला. युद्ध के होने के कारणों में से किसे सही ठहराया जाये और किसे ग़लत, इस प्रश्न से भी पहले यह मुद्दा महत्वपूर्ण है कि जहाँ भी हिंसा ,झड़पें और युद्ध होते हैं वहां स्त्रियों और बच्चों पर पड़ने वाले प्रभाव भिन्न किस्म के होते हैं.
गुब्बार–ए–कारवां और आज़ादी की छाँव में इस दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं. इतिहास की पुस्तकों में भारत –विभाजन के विषय में जो भी तथ्य और आंकड़े उपलब्ध हैं उनमें समाज के हाशिये पर जी रहे लोगों की आवाज़ नदारद है..इनकी आवाज़ों को साधारण –अति साधारण समझ कर उच्चवर्गीय राजनीति के बोझ तले दबा दिया गया ऐसे में गद्य और केवल गद्य ही ऐसी विधा थी जिसमें शोषितों ,पीड़ितों ,हाशिये के लोगों की आवाज़ ,धार्मिक संवेदना के मुद्दों को इन दोनों देशों में अभिव्यक्त किया जा सकता था.इंतज़ार हुसैन ,भीष्म साहनी,मंटो ,अमृता प्रीतम समेंत कई रचनाकारों ने गद्य की विभिन्न विधाओं में देश –विभाजन ,यौन –हिंसा ,लूट –खसोट ,भ्रष्टाचार को स्वर दिया.लेकिन स्त्री –आत्मकथाकारों ने देश –विभाजन से रूबरू होकर जो अभिव्यक्ति की वह स्त्री दृष्टि से देखे-झेले देश-विभाजन का प्रामाणिक आख्यान है.
१०.
बेगम अनीस किदवई (1906-1982) ने गुब्बार- ए- कारवां लिखी, जो अधूरी ही मकतब -ए-जामिया, दिल्ली से 1983 में मूल उर्दू में छपी. उत्तर प्रदेश के बाराबंकी की रहने वाली अनीस ने ‘आजादी की छांव में (1949) शीर्षक संस्मरण भी लिखा जिसका प्रकाशन सन 1974 में हुआ. इनमें बेगम अनीस किदवई भारत-पाकिस्तान विभाजन के दौरान हुए दंगों और शरणार्थियों की समस्या का आँखों देखा ब्यौरा प्रस्तुत करती हैं॰ गुब्बार- ए- कारवां’ और ‘आज़ादी की छाँव में’ -स्त्री के बतौर अभिकर्ता स्थापित होने की यात्रा है. जिसमें जो तत्कालीन भारतीय राजनीति में सक्रिय स्त्रियों की जानकारी ही नहीं बल्कि भारतीय मुस्लिम परिवारों में औरतों की स्थिति पर भी पर्याप्त प्रकाश है. ’गुब्बार ए कारवां(उर्दू) का हिंदी अनुवाद उनकी पोती प्रोफ़ेसर आयेशा किदवई कर रही हैं.
अनीस किदवई की आत्मकथा और संस्मरण में भारतीय राजनीति में भारत विभाजन के दौर में आये कई परिवर्तनों का ज़िक्र है .इतिहास जहाँ विभाजन के दौर को मुस्लिम लीग, कांग्रेस और ब्रिटिश शासन के बीच के द्वंद्व पर केन्द्रित मानता है,अनीस किदवई एक स्त्री और वह भी मुसलमान स्त्री की आँखों से देखे राजनीतिक परिवर्तनों को पाठक के सामने लाती हैं.
1946 में हुए प्रांतीय चुनावों ने मुस्लिम लीग और कांग्रेस को दो अलग अलग ध्रुवों पर खड़ा कर दिया था स्वतंत्र पाकिस्तान की मांग ने भी यहीं से जोर पकड़ा था-लेकिन इस मांग के जन-पक्ष पर इतिहासकार चुप रहे हैं.देश विभाजन के राजनीतिक-कूटनीतिक पक्षों पर तो विचार हुआ लेकिन इसके मानवीय पक्ष की उपेक्षा की गयी.अनीस किदवई ने स्वयं दंगे झेले,पति को खोया,शरणार्थी शिविरों में लायी गयी उन सैकड़ों लड़कियों और बच्चों से रूबरू हुईं जो दंगों और हिंसा का शिकार हुए.
दंगों के दौरान हुई यौन हिंसा के दस्तावेज उनके संस्मरण में भरे पड़े हैं. इस नज़रिए से ये किताबें देश विभाजन और भारतीय राजनीति के संक्रमण के दौर के स्त्री-पक्ष की दृष्टि से महत्वपूर्ण है. वे उस दौर की कथा कहती हैं जब लड़कियों की शिक्षा पर ध्यान दिया जाना गैरज़रूरी था. अनीस खुद भी औपचारिक शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकीं, ’गुब्बार -ए-कारवां’ में वे बार-बार ज़िक्र करती हैं कि कैसे परिवार के लड़कों, चचेरे भाईयों को बोलते-सीखते सुनकर उन्होंने अंग्रेजी सीखी. तालीम के लिए वे जीवन भर बेचैन रहीं. विभाजन के दौरान हुई हिंसा का जेंडर पक्ष उभारने वाली वे पहली स्त्री रचनाकार हैं, जो इस बात का प्रमाण है कि वे कितनी चैतन्य थीं और अपने परिवेश, राजनीति, समाज और यौनिकता को समझने की उनकी अपनी दृष्टि थी. गांधी के आह्वान पर विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार पर लिखती है –
”औरतों ने अपने घूंघट, कड़े और छागल उतार कर गाँधी जी की सदा पर लब्बैक कहा. सबसे पहले जिन चंद ख्वातीन के नाम हमारे देहात तक पहुंचे उनमें बेगम हसरत मौहानी, बी अम्मा कस्तूरबा गाँधी और मिसिस सरोजिनी नायडू के थे. औरतों ने अपने जेवरात और छोटी मोटी पसंदाज़ की हुई रकमें मकामी कांग्रेस कमिटी को दान कर दी. बिदेशी कपड़ों से अपने बक्सा खाली कर के हर जिला के सदर ऑफिस में होली जलवा डाली. उन दिनों चीज़ें कम थीं मगर आला हुआ करती थीं इसलिए ज़रदोज़ी के इन कपड़ों से अक्सर मनूं चांदी कांग्रेस कमिटी को मिली. बाराबंकी में जब बैलगाड़ियों और रथों में भर कर बिदेसी कपड़े नज़र-ए-आतिश हुए तो बीसों पर्दादार ख्वातीन ने भी तांगा और इक्कों पर पर्दा बंधवा कर अपने अपने गांव मोहल्ले से बाराबंकी का सफर किया. इनमें सिर्फ़ वही ख्वातीन थीं जो तहरीक के लिए चन्दा जमा करतीं चरखा काड़ती और अपने खानदान के वीरों की आरती उतार कर जेल रुक्सत करती थीं. मुझे वो सीन याद है जब एक बड़े खेमें में इर्द गिर्द पड़ी हुईं चिकों से झांकती हुईं हिन्दू मुस्लिम ख्वातीन होली को जलाते हुए जवाहरलाल को देखने के लिए एक पर एक टूटी पड़ती थी. स्टेज पर जवाहरलाल जी चौधरी ख़लीक़ुज़ ज़मां और हरकिरन नाथ मिश्रा थे. मगर खूबसूरत नौजवान पंडित जी मोटे खद्दर की शेरवानी और चूड़ीदार पायजामें में सारे मजमें की तवज्जो का मरकज़ थे. अंदर औरतें हस्ब-ए-आदत बोल रही थी किसी ने कहा देखो तो कैसा मोटा खद्दर पहन कर आये हैं. शेह्ज़ादों की तरह पले हैं और अरे इनके कपड़े तक तो पैरिस में धुलते हैं.एक ने इंकशाफ किया अरे इन बाप बेटे ने तो अपने घर के बिदेसी कीमती बर्तन तक तोड़ डाले. किसी और तरफ से आवाज़ आयी, ये पूरा खानदान त्याग मूर्ती हैं.
मैं इन सबको नहीं जानती थी. सिर्फ़ ठाकुर रघुनाथ सिंह की फैमिली से वाकिफ़ थी जिनके बेटे के.डी.सिंह बाबू ने आगे चल कर मशहूर हॉकी चैंपियन की हैसियत से प्रेजिडेंट अवार्ड हासिल किया. लेकिन उससे क्या होता है उस वक़्त ये मुतफर्रक अनासिर एकता और प्रेम की डोरी में बंधे एक ही जस्बे और एक ही नशे से सरशार थे.मुझे अपनी तड़प और बेबसी भी याद है न सफर के काबिल थी ना तहरीक में शिरकत की इजाज़त न जेल जाने के लायक. दिल पर पत्थर रखे गांव में बैठी रही अल्बत्ताह औरतों में काम शुरू कर के कांग्रेस पार्टी का पहला जलसा मसौली में कर डाला. एक मोअम्मर खातून को सदर बना कर ज़िला के और देहात से भी ख्वातीन को मदऊ किया. ऊट पटांग धुआँधार तकरीरें हुईं अब वो अंदाज़-ए-बयां और बालहाना जोश याद करती हूँ तो बेइख्तियार हसी आ जाती है मगर उस वक़्त रह रह कर अपने आज़्ज़ा पर और खुद शफ्फी साहब पर गुस्सा आता था की मुझे क्यों नहीं जाने देते.”
(गुब्बार -ए -कारवाँ, अनीस किदवई, मकतब -ए-जामिया ,दिल्ली,1983 )
बेगम किदवई आजादी की लड़ाई के दौरान स्त्रियों की भूमिका पर विशेष चर्चा करती दीखती हैं. उनके वर्णन की विशिष्टता यह है कि वे स्त्रियों के आपसी वर्गीकरण,पुरुषों से उनके फर्क के साथ-साथ असहयोग आन्दोलन में इन पुरुषों के भागीदार हो पाने के पीछे छिपी स्त्री की भूमिका को रेखांकित करना नहीं भूलतीं. आत्मकथा के ब्यौरे दिलचस्प होने के साथ -साथ तटस्थ भी हैं. स्वतंत्रता आन्दोलन में भाग लेने वाले पुरुषों की अपेक्षा उनकी स्त्रियों की भूमिका अपेक्षाकृत महत्वपूर्ण थी इस पर गुब्बार-ए-कारवां में वह लिखती हैं–
“अब से पहले सिर्फ़ आला तबके की लेडीज व विमेंस कांफ्रेंस, विमेंस लीग, विमेंस क्लब वगैरह की मेंबर हुआ करती थीं. अंजुमन ख्वातीन या अंजुमन तहज़ीब निस्वां के नाम से भी मकामी अंजुमनें औरतों की तालीम जिसे उन दिनों तालीमी निस्वां कहते थे के लिए कोशिशे कर रही थी और बहुत ही मेंहतात किस्म का सोशल वर्क किआ करती थी. सियासत से बस उनका इतना ही ताल्लुक था के मोहतरम शख्सियत की मौत पर ताज़ियति रेज़ॉलूशन पास कर दें और तोहमत बचपन की शादी बुरी रीत रस्मों के खिलाफ अपने इज्तेमा में ये करारदाद मंज़ूर कर लें या औरतों के हकूक पर बहस कर लें. ज़्यादातर उनकी सरगर्मियां बड़े शहर में छोटे छोटे स्कूल क़ायम करने, ज़नाना क्लब क़ायम करने और डिनर पार्टियों तक महदूद थीं. इस सिलसिले में लखनऊ में बेगम इनाम हबीबुल्लाह और उनकी बहन बेगम शाहिद हुसैन जज़ल हबीबुल्लाह की वाल्दह चंद रानियां औरतों के हुकूक और तालीम-ए-निस्वां के ज़बरदस्त हामी थीं. मिंटो मार्ले इस्लाहाट के तहत कुछ ख्वातीन मकामी म्युनिसिपल्टी की मेंबर भी बन चुकी थीं इसलिए उन्हें ज़्यादा मवाकए मोअस्सर आ गए थे. बेगम हबीबुल्लाह ने म्युनिसिपल बोर्ड की मेंम्बरी के दौरान शहर के मुख्तलिफ हलकों में छोटे छोटे से बहुत से स्कूल खुलवाए. दिलकुशा क्लब में एक बड़े से बोर्ड पर रानियों और बेगमात के नाम उन्होंने क्लब के क़याम में मदद की. आज भी देखे जा सकते हैं इस क्लब में मुशायरे भी होते थे और पर्दादार बेगमात भी हफ्ते में एक बार तशरीफ़ लाती थीं. एहसान फरामोशी होगी गर हम इन फैशनएबल बहनों की दुरुस्त की हुई पगडण्डी को नज़रअंदाज़ कर दें या उसकी अहमियत कम करने की कोशिश करें. ये सरासर अंग्रेज़ी तहज़ीब-ओ-तमद्द्दुन की आशे ख्वातीन अंदर से हिन्दुस्तानी थीं और हिन्दुस्तानी औरतों के जमूद व बेहिसी को दूर करने के लिए कोशां. कुछ भी हो, उन्होंने जो आवाज़ उठायी वो बारात और रिसालों के ज़रिये देहात तक पहुँच गयी.
तहज़ीब अस्मद खातून वगैरह कई रसाएल की एडिटर भी ख्वातीन थीं. उन्होंने इस्लाहे रसूम पर किताबें लिखीं शेर-ओ-अदब का ज़ौक़ औरतों में पैदा किया और खयालात व आज़ाम की तहरीर शकल दी. अकबर अलहाबादी ने कहा था “लड़कियां पढ़ रहीं हैं अंग्रेज़ी ढूंढ ली कौम ने फलाह की राह” और “शौक तहरीर मज़ा में घुली जाती है बैठ कर परदे में बेपर्दा हुईं जाती है”
इन आज़ाद ख्वातीन की बेपर्दगी पर भी उन्होंने ऐतराज़ किया “हामिदा चमकी न थी इंग्लिश से जब बेगाना थीं अब चिराग-ए-अंजुमन हैं तब चिराग-ए-खाना थीं” उन्होंने मर्दों को तम्बिया कि “हरम सराह की हिफाज़त को तेग ही न रही तो काम देंगी ये चिलमन की कबतक” इन आला तबके की अंग्रेज़ियत से मुतास्सिर औरतों तक मिडिल क्लास और लोअर क्लास की औरतों की रसाई न थी ये तबका नसीहत आमेंज़ मज़मून निगारी कर के अपनी आना को तस्कीम दे देता था इनमें एक मैं भी थी मगर सत्याग्रह की शमूलात के लिए जो औरतें मैदान में आयीं वो ज़्यादातर मत्तूस्त और गरीब तबके की थी इस तहरीक के साथ ही सियासी और मज़हबी अनासिर ने मिल कर औरतों में दिलेरी, जोश, सियासी सूझ बूझ और ईसार का जज़्बा पैदा कर दिया. अतिया फ़ैज़ी, अनसूया सारा भाई और बहुत सी ख्वातीन के नामों से आशना थे.
कौमी तहरीक की इब्तिदा में तो औरतें बंधन तोड़ने की जां तोड़ तश्शूश करती रहीं. ज़्यादातर बुज़ुर्गों की मुख़ालेफ़त ने उनके कदम रोक दिए. कम ही खुल कर सामने आयीं और जेल गयीं. इनमें नेहरू खानदान की ख्वातीन भी थी. इसमें शक नहीं उनमें से चंद ही सियासी करवटों का साथ दे सकीं मगर दरपरदह अपने बेटों और भाइयों की हिम्मत बढ़ाने में उन्होंने काबिल-ए-तारीफ रोल अदा किया.
वो एक ऐसा दौर था के हिन्दुस्तान उसके लिए बिलकुल तैयार था के अमली जद्दो जहद औरतों की इज़्ज़त-ओ-नालूस को दानों पर लगा दें. ये बड़ी तरक्की पसंद भी औरतों को नाकिस-अल-अक्ल और नाज़ुक फूल समझा करते थे. खुद मत्तूसत तबका की औरतों में भी इसकी सलाहियत ही थी कि वो सियासी ज़िन्दगी में कोई मकाम हासिल कर सकें. दुसरे में अपने बच्चे भी संभालने थे. मर्द जेल चले जाते और घर बच्चों का सारा बोझ औरत के कन्धों पर पद जाता.
उन दिनों उन्होंने मर्दानावार बच्चों की परवरिश लड़कियों की नादाइयाँ तालीम और चारके की कटाई बिदेसी माल के बायकाट वगैरह को अपने सर ले कर बेमिसाल कुर्बानी का मज़हरा किया. माली मुश्किलात ने कमर तोड़ दी लेकिन उन्होंने हिम्मत से सबका मुकाबला किया. कुरकियाँ, घरों की नीलाम, पुलिस की योरिश, आज़ा की इख़्तेलाफ़ सबका मुकाबला किया और ये बात मर्दों से मनवा ली के कौमी जद्दो जेहद में उनका हिस्सा रहा है. अगर वो इन ज़िम्मेंदारियों को अपने सर ना लेती तो मर्दों की हिम्मत पस्त हो जाती. औरतों को ये एहसास भी हुआ की सिर्फ़ सियासत उनका पेशा नहीं है. सियासी मशागल के साथ सोशल और इख़्तेसादि तब्दीलियां लाना भी ज़रूरी है. इन सब कामों में उन्हें ज़िला लेवल पर मकामी ऑफिसरों से भी उलझना पड़ा जिनमें बेश्तर का रवैय्या हरगिज़ हमदर्दाना नहीं होता था. उनके खोले हुए इदारे सख्त तरीन इन्क्वायरी और तशद्दुद का निशाना बनते.”
(गुब्बार -ए -कारवाँ,अनीस किदवई,मकतब -ए-जामिया ,दिल्ली)
अनीस ने स्त्रियों की सीमाओं और गाँधी की राजनीतिक-सामाजिक भूमिका पर बड़ी बेबाक टिप्पणियां की हैं जो इतिहास को स्त्री दृष्टि से देखने की वकालत करता है. निचले तबकों, हरिजन जातियों के साथ मध्यवर्गीय हिन्दू-मुस्लिम समाज कभी गाँधी के विचार से सहमत नहीं हो पाया.किदवई ने इसे रेखांकित किया है कि सभा-सोसायटियों, सुधार-कार्यक्रमों के बावजूद मध्यवर्गीय लोगों ने हरिजनों को सहानुभूति तो दी परन्तु उन्हें वैसे अपना नहीं सके जैसी परिकल्पना गांधी जी की थी- “… वो जब हरिजनों के लिए कुछ करते तो हमदर्दी व खुदा तरसी के जज़्बे के साथ न की उनको बराबरी सतह पर लाने के लिए.”
११.
अनीस के संस्मरण ‘आज़ादी की छाँव में’ को उनकी आत्मकथा की अगली कड़ी के रूप में देखा जाना चाहिए.’ आज़ादी की छाँव में’ कुल 23 अध्यायों में विभक्त है जिसमें सन 1947से 1948 के दौर के भारत, विशेषकर विभाजन के बाद के भारत के राजनीतिक-सामाजिक परिदृश्य पर प्रामाणिक और बेबाक टिप्पणियां हैं. पुस्तक का पहला अध्याय ही ‘करता हूँ जम्अ फिर जिगर-ए-लख्त-लख्त को’ शीर्षक से है. जिसमें अनीस की गहरी राजनीतिक विश्लेषक दृष्टि की झलक मिलने लगती है –
“जून में दिल्ली की भंगी बस्ती में एक दिन बापू की प्रार्थना सभा में मेरी बहन बिल्कीस ने जो अपनी जोशीली तबियत की वजह से बोलते वक़्त बहुत बेचैन हो जाया करती हैं, यह तय कर लिया कि आज बापू को पकड़कर पूछूंगी ज़रूर कि यह आपने क्या किया ? हिंदुस्तान हम सबका है, हमको तो यहीं जीना और मरना है, यह आबादी का तबादला और बंटवारा क्या ?एक टुकड़े से उन दिनों को क्या तस्कीन मिल सकती है जो एक ऐसे हिंदुस्तान का ख्वाब देखते रहे हैं जो एक हो, महान हो और जिसे कोई जीत न सके.”
(आज़ादी की छाँव में’,बेगम अनीस किदवई,अनुवाद नूर नबी अब्बासी ,नेशनल बुक ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया ,2000:3)
बेगम किदवई स्वयं भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़ी रहीं लेकिन स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद गवर्नमेंट हॉउस में जश्ने आज़ादी का आँखों देखा हाल बयान करती हुई लिखती हैं –
“मेरा दिल डूबा जा रहा था. ऐसा लगता था कोई ख़ुशी का गला घोंट रहा है अरमानों पर ओस पड़ी जा रही है. आज तिरंगे झंडों की बहार में भी दिलकशी न थी !’इन्किलाब जिंदाबाद’ के नारे और जय जयकार आज आत्मा से नहीं टकरा रहे थे. रगों में आज गरम खून नहीं दौड़ रहा था. हिंदी में लिखे हुए साईन बोर्ड, नारे और पोस्टर सब ऐसा लगता था जैसे हमारा मुंह चिढ़ा रहे हैं, मज़ाक उड़ा रहे हैं…चौकियों पर दाहिने-बाएं बौद्ध भिक्षु, ब्राह्मण, निरंकारी पता नहीं कौन-कौन विराजमान थे. बहुत सी भाषाओँ में बहुत कुछ हुआ. अंग्रेजी, संस्कृत, अरबी, कठिन हिंदी हरेक में. लेकिन कुछ न हुआ तो अपनी बोली में,वाही प्यारी बोली :जिसकी हर बात में सो फूल महक उठते थे
इतना कुछ हुआ मगर हमारे पल्ले कुछ न पड़ा. मेरी तरह और बहुत-सी औरतें भी रुंधे गलों और हैरान आँखों से सारा सीन देखकर जो घर पलटी तो ऐसा लगा जैसे कमर टूट गयी हो.खुद पहली आज़ाद हिंदुस्तान की गवर्नर सरोजिनी नायडू, बावजूद कोशिश के, शपथ पत्र सही न पढ़ सकीं. क्या इसी भविष्य के लिए हमने सालहा साल इंतजार किया था ? हममें से कौन यह जानता था कि गड़े मुर्दे उखाड़े जाएँ ? और लोकतंत्र की जगह धर्म और मजहब की ठेकेदारी हुकूमत ले ले?”(पृष्ठ 5)
आजादी तो मिली लेकिन किस कीमत पर? शरणार्थी कैम्पों के भीतर की अव्यवस्था,निर्धनता और अनाथ बच्चों की स्थिति के बारे में वे लिखती हैं –‘….छोटी -छोटी लड़कियां सूखे के मारे बच्चों को कन्धों से लटकाए, चेहरों पर हसरत, बेबसी और फाके की दास्तानें लिए कतार-दर -कतार दो छटांक दूध के इंतज़ार में सुबह से दोपहर तक खड़ी रहतीं. हर मां यह चाहती कि उसके बच्चे को दूध ज्यादा मिल जाए ताकि उसकी सूखी छातियों को थोड़ा-सा आराम नसीब हो.हर लड़की या लड़का इसरार करता कि ज़रा सा और दे दीजिये ,ताकि उसकी भूखी अंतड़ियाँ भी शरीक हो सकें. लेकिन मुस्तैद, किफ़ायती वालंटियर उन्हें धक्के देकर निकाल देते.अगर वे ऐसा न करते तो सुबह की चाय कैसे बनती और वे सूखी रोटी किस चीज़ से भिगोकर अपने गले के नीचे उतारते.
इंसानों का यह जंगल जानवरों की सी ज़िन्दगी बसर कर रहा था. लोग हाथों में ले-लेकर या कागजों और ठीकरों में खाना खाते और ठीकरों पर मिट्टी मिले हुए आटे की सियाह रोटियां पकाते. तवा, देगची और गिलास सबका काम पत्तों और मटकी के टुकड़ों से लेते थे. दो ईंट रखकर ज़रूरत से निपटते और कभी कभी इन्हीं दो ईंटों से बावर्चीखाना भी बना लिया जाता’(पृष्ठ33) आज़ादी की छाँव में-राष्ट्रवाद के स्त्री पक्ष को बताने वाली पहली किताब है जो देश विभाजन के दौरान और बाद के एक साल में भारत और पाकिस्तान की अवाम में पसरी अव्यवस्था, भ्रष्टाचार और धीरे धीरे इस्लामी राष्ट्र में बदलते जा रहे पाकिस्तान और अफवाहों से घिरे हिंदुस्तान के शरणार्थी शिविरों का लेखा-जोखा और विभाजन के व्यावहारिक पक्ष का यथार्थ चित्र उपस्थित करती है.
१२.
जो गुज़ारी न जा सकी हम से
हम ने वो ज़िंदगी गुज़ारी है
शास्त्रीय गायन और ग़ज़ल से जुड़ी कलाकार, भारत और पाकिस्तान में अपनी गायकी से शोहरत हासिल करने वाली मल्लिका पुखराज (1912-2004) ने उर्दू में आत्मकथा लिखी, जिसका अंग्रेजी अनुवाद सलीम किदवई ने ‘सांग संग ट्रू’ (गीत, जो सच्चा गाया गया) शीर्षक से किया. आत्मकथा 50 उपशीर्षकों में व्यवस्थित है जिसे पति सय्यद शब्बीर हुसैन शाह और महाराजा हरिसिंह को समर्पित किया गया है. प्रवाहमयी उर्दू के साथ अंग्रेजी, पंजाबी और फ्रेंच के शब्दों का प्रयोग मल्लिका पुखराज के गहरे जीवनानुभवों और यात्राओं की ओर संकेत करता है. हालाँकि सलीम किदवई को इसकी पाण्डुलिपि व्यवस्थित हस्तलिपि में नहीं मिली थी लेकिन मल्लिका ने 80 वर्ष की उम्र में आत्मकथा लिखी और जन्म-कथा से लेकर बचपन,युवावस्था, जम्मू और पटियाला के राज दरबारों के मीठे-खट्टे अनुभवों, स्मृतियों को आत्मकथ्य में बहुत ही रोचक ढंग से लिखा.
9 वर्ष की उम्र में ही जम्मू के महाराजा हरिसिंह के दरबार में गायिका के तौर पर स्थापित होना, ननिहाल और माता द्वारा मल्लिका को मिलने वाले वेतन का उपयोग, मल्लिका की कमाई पर पूरे कुनबे का पलना, युवावस्था के कुछ अधूरे प्रेम इन सबका बयान बड़ी ही बेबाकी से मल्लिका करती है. मल्लिका की मां अपनी तीन वर्षीया बेटी को लेकर बहुत महत्वाकांक्षी थी. उनकी इच्छा थी कि मल्लिका सभी कलाओं का उत्कृष्ट ज्ञान हासिल करे वह मल्लिका को लेकर बचपन में ही जम्मू चली आयीं और मल्लिका के पिता जो कुख्यात जुआरी थे वे अपनी दूसरी पत्नी और बच्चों के साथ गाँव में ही रहे. मां ने मल्लिका को बड़े गुलाम अली खां के पिता अली बक्श के सुपुर्द कर दिया, और मल्लिका की संगीत शिक्षा आरंभ हुई. मल्लिका अपने जीवन के छोटे बड़े किस्सों का बयां करती है,उसे यह अहसास है कि वह बहुत सुन्दर नहीं है लेकिन संगीत में वह श्रेष्ठ है -इसका ज़िक्र वह लगातार आत्मकथ्य में करती है-
“मैंने फ्रेंच ब्रोकेड की साड़ी पहनी हुई थी, उन दिनों अच्छी साड़ियाँ पेरिस, बम्बई और पूना में बनती थीं. मेरे पास महंगी साड़ियाँ बहुत सी थीं. हर साड़ी दूसरी से सुन्दर. महाराजा हरिसिंह ने मेरे लिए इन्हें विशेष आर्डर देकर मंगवाया था. मैं सुन्दर नहीं थी न ही मैं स्वयं को आकर्षक समझती थी, लेकिन मेरे केश विशिष्ट थे, मोटे घने काले बालों की चोटी जो एड़ी तक पहुँचती थी, शायद मुझे सुन्दर बनाती थी ..मैं प्रसाधन का प्रयोग नहीं करती, दरअसल मुझे मालूम ही नहीं था कि सजा-संवरा कैसे जाये ..मुझे कांच की चूड़ियों का बड़ा शौक था, कलाई से कोहनी तक मैं रंगीन कांच की चूड़ियाँ पहना करती…वह व्यक्ति जो हमारा मेंजबान था वह बहुत सुदर्शन था और अच्छे कपड़े पहने हुआ था. मिल मालिक था और बाहर निर्यात करता था. अल्लाह ने उसे सुन्दरता के साथ-साथ मीठी ज़बान भी दी थी. पहली बार उससे मिलने पर ही मेरे भीतर तूफ़ान मचलने लगा. उसने मेरी आँखों में गहरे झाँका और एक छोटा सा रुमाल मेरे हाथ में देकर कहा – “इसे पर्स में रख लीजिये. शायद जब आप इसे देखें तो मेरे बारे में सोचें.”
(सांग संग ट्रू–मल्लिका पुखराज,अनुवाद सलीम किदवई ,जुबान,काली फॉर वीमेंन,2003:237)
आगे मल्लिका लिखती हैं –
“मैंने वह रुमाल ले लिया और उसके बारे में सबकुछ याद करती रही, यह पहली बार हुआ कि किसीने पहली मुलाकात में ही मेरे दिलो-दिमाग पर कब्ज़ा जमा लिया हो. मैं बहुत लम्बे समय तक उसके बारे में सोचती रही. मैं हमेशा अपने दिल पर दिमाग को तरजीह देती थी. मुझे अच्छी तरह मालूम था कि प्रशंसा और चापलूसी का दौर तुरंत ख़त्म भी हो जाया करता है, उसके बाद औरत अपने आपको गुमनामी के कुएं में हमेशा के लिए पायेगी. औरत पर अधिकार पाते ही मर्द उसे सम्मान देना बंद कर देता है. फिर वह अपने पुरुष स्वामी की दासी बनकर रह जाती है. मैंने आत्मसम्मान बनाये रखा और इसलिए स्वयं पर गर्व करती हूँ. मुझे शुरू से ही यह मालूम था कि ऐसे आवेगों पर कैसे काबू रखा जाये. दो दिनों के बाद वह अपने दोस्तों के साथ मेरा गाना सुनने आया, उस दिन भी उसने बहुत बढ़िया कपडे पहने हुए थे. सच तो यह है कि मैं उसे पहले से भी ज्यादा पसंद करने लगी थी. कुछ घंटे बाद जब वह जाने लगा तो उसने धीरे से मुझसे पूछा-
“क्या तुमने रुमाल देखा?
मैंने झूठ बोला –“हाँ एक दो बार “
“क्या तुमने मेरे बारे में सोचा ?”
“हाँ” मैंने सच्चाई से जवाब दिया.
मल्लिका आगे कहती है ‘
”मेरा आकर्षण मां ने पढ़ लिया था और उससे अलग से मिलने से मन कर दिया.इस बात से वह बहुत खिन्न था, वह चाहता था कि मैं रोज़ उससे मिलूँ. लेकिन मां के कारण मैं उससे मिल नहीं पाती थी. अकेले में हर वक्त मेरे परिवार का कोई न कोई सदस्य आसपास रहता था. मेरे ऊपर पूरा नियंत्रण मां का था. मुझे लगता है मैं कब और किसे अपने लिए पसंद करूँ यह मेरा निजी मसला होना चाहिए था, क्या मेरे परिवार को मेरे बारे में हर निर्णय करने का अधिकार था ? क्या हमेशा मुझे वही करना होगा जो मेरा परिवार मुझसे चाहता था..मैं परिवार की कैद में थी और परिवार के लोग उसका घर आना या हमारा आपस में मिलना बिलकुल भी पसंद नहीं करते थे.(पृष्ठ 239) इसी चिढ़ में मैंने सबसे मिलना बंद कर दिया.”
मल्लिका कुछ और लोगों से संपर्कों का ज़िक्र करती हैं जिनमें उनकी गायकी और व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उनकी आत्मीयता चाहने वालों की फेहरिस्त है, जिनमें एक व्यापारी जो 11 बच्चों का पिता है आत्मकथा में मल्लिका बार –बार व्यंग्य और हास्य का पुट बिखेरती चलती हैं, जिससे पाठक को ऊब नहीं होती. ऐसा ही एक प्रसंग है इसी कद्रदान का जो मल्लिका के लिए रेवड़ियाँ लाया करता था और बहुत अच्छे कपड़े पहनता था, उसके ग्यारह बच्चे थे और मल्लिका यह जान गयी कि उसकी आर्थिक स्थिति बहुत ख़राब थी, फिर भी वह मल्लिका के लिए उपहार लाया करते. एक दिन उसने अपना प्रेम मल्लिका के ऊपर ज़ाहिर कर ही दिया. मल्लिका लिखती हैं –
“पता नहीं कैसे इतनी आर्थिक तंगी के बावजूद वह इतने अच्छे कपड़े पहन लेता था. एक दिन कहने लगा ‘मैं तुमसे एक लम्बे समय से मुहब्बत करता हूँ और रोज़ रात को 3 बजे तुम मेरे सपनों में आती हो’. सुनते ही मैं ठठाकर हँस पड़ी. वह सुबक–सुबक कर रोने लगा. उसका बेतरह रोना देखकर मुझे बहुत हंसी आई कि ये मर्द भी क्या हैं. उस स्थिति के लिए मुझे ज़िम्मेंदार ठहराते हैं, जिसका कारण वे स्वयं हैं.”
(मल्लिका पुखराज,सांग संग ट्रू,ज़ुबान बुक्स,संपादन और अनुवाद –सलीम किदवई ,तीसरा संस्करण दिल्ली,2004:243)
तलाकशुदा स्त्रियों के बारे में मल्लिका लिखती हैं –
“हमारे समय में तलाकशुदा स्त्री का जीवन नरकतुल्य था. तलाकशुदा स्त्री की बड़ी बेईज्ज़ती होती थी. आज की तरह तलाक का मसला छोटा-मोटा नहीं माना जाता था. उन दिनों तलाकशुदा स्त्री को बिलकुल अलग-थलग कर दिया जाता था. जिस तरह लोग परिजनों की मृत्यु का शोक जताने जाते हैं वैसे ही तलाकशुदा औरत के भाई, माता-पिता के घर रिश्तेदार और मित्र पहुँचते थे तलाक पर अफ़सोस जताने.” (270)
मल्लिका अपने ऊपर लादी हुई पारिवारिक और भावात्मक सेंसरशिप को बहुत कायदे से विश्लेषित करती हैं,संगीत में पारंगत होने के साथ साथ कई जगहों पर रहने के कारण उनमें वह अंतर दृष्टि और व्यावहारिकता है कि वह माँ के भावुक स्टेट्समेंट्स की पड़ताल करती चलती हैं,आगे चलकर ने अपने ऊपर काबिज़ सेंसरशिप के विरोध में घर पर आने वाले सभी लोगों से मिलना बंद कर दिया.परतंत्रता की बेड़ी में छटपटाती हुई मल्लिका ने विद्रोह का स्वर बुलंद किया और रात के अँधेरे में भागकर अपने पुराने विश्वासी मित्र शब्बीर से विवाह कर लिया.माँ के विरोध,मानसिक प्रताड़ना का सामना भी मल्लिका को करना पड़ा, यहाँ तक कि उन्होंने महफ़िलों में गाना भी बंद कर दिया,बहुत वर्षों बाद उन्होंने रेडियो के लिए ग़ज़लें गायीं.पुस्तक में मल्लिका ने अपने प्रेम और विवाह के विस्तृत ब्यौरे दिए हैं .उनकी माँ का उनके खिलाफ होना,घर से आधी रात को निकल कर शब्बीर के साथ निकाह की दास्तान बहुत विस्तार से कही गयी है.
एक गायिका का अभिनेत्री बनने के अधूरे सपने का यथार्थ से साक्षात् होना फिर गायन की तरफ लौट आना, आल इंडिया रेडियो में गायकी करना इन सब प्रसंगों को जगह मिली है.’सांग संग ट्रू’ की सबसे अच्छी बात यह है कि इसमें प्रामाणिकता का ध्यान रखा गया है इसके बावजूद इसमें तत्कालीन राजनीतिक सन्दर्भों,घटनाओं की चर्चा से भरसक बचा गया है. ग़ुरबत,,तत्कालीन समाज -सुधार के आन्दोलन इन सबके तापमान का पता यह किताब नहीं देती और साधारण आत्मकथा बनकर रह जाती है. हालाँकि पुस्तक में कई करुण प्रसंग भी हैं जो पाठक को प्रभावित करते हैं.जम्मू के महाराजा हरिसिंह जिनके दरबार में मल्लिका ने बचपन से ही गाना शुरू कर दिया था. आत्मकथा में उनके और रियासतों के महाराजाओं के जीवन पर पर्याप्त जानकारी मिलती है. मल्लिका ने लिखा है कि- ‘दरबार साजिशों से भरा था, मैं महाराजा के साथ कश्मीर की तरफ और शिकार पर भी जाया करती थी. जम्मू में हिन्दू-मुस्लिम दंगों के बाद स्थिति बदल गयी. मुझपर महाराजा को विष देने का संदेह किया गया..उसके बाद मैंने जम्मू छोड़ने का निर्णय कर लिया”
वे याद करती हैं कि
“ऐसा भी समय था कि मैं हँसना चाहकर भी हँस नहीं सकती थी. हिन्दू-मुस्लिम दंगों से मेरा कोई लेना देना नहीं था. नही ये बातें मेरी समझ में आती थीं, तब भी हिन्दू मेरे शत्रु बन गए. जम्मू के बाहर वालों की बात छोड़ भी दें तो रियासत के भीतर के लोग भी इस बात पर भरोसा करने लग गए कि मैं महाराजा की जान लेना चाहती हूँ.”
ऐसे माहौल में मल्लिका ने अपनी मां के साथ लाहौर की तरफ जाना तय किया, दरबार में अंतिम गीत गाकर. मल्लिका लिखती हैं –
“महाराजा के दरबार में अंतिम गीत गाते हुए मेरी आवाज़ दर्द से भीगी हुई थी, मेरा दिल भीतर ही भीतर रो रहा था मेरे गले से करुण बांसुरी की धुन जैसी आवाज़ निकल रही थी. गीत ख़त्म होते ही महाराजा हरिसिंह दरबार छोड़कर भीतर चले गए, मुझे मौका भी नहीं मिल सका कि उनसे विदा ले सकूँ.”
मल्लिका ने माँ द्वारा उसके आर्थिक शोषण का भी चित्रण किया है. मां और नाना का परिवार मल्लिका के गायन पर निर्भर था, उनलोगों ने बहुत रुपये उड़ाए भी और डुबाये भी. मल्लिका ने एक समय पर गाना बंद कर दिया. शब्बीर के साथ विवाह ने उन्हें सुख और पूर्णता दी, लेकिन छह बच्चों के बावजूद शब्बीर के असामयिक निधन ने मल्लिका को एकाकी कर दिया. बागबानी, कढ़ाई-सिलाई में उन्होंने अपने जीवन के बाकी दिन गुज़ारे. उनके बेटे ने भी जायदाद सम्बन्धी मामलों में उनसे छल किया. उन्होंने नानक देव का चित्र कैनवास पर काढ़ा जो टोरंटो के गुरूद्वारे की शोभा बना. प्रसिद्ध लोक गायिका रेशमा जब उनसे मिलने आई तो उससे कई बार एक ही गीत सुना- हाय ओ रब्बा नईयों लगदा दिल मेरा. अस्सी के उम्र में उन्होंने आत्मकथा लिखी और 93 वर्ष की उम्र में उनकी मृत्यु हो गयी. मल्लिका पुखराज की आत्मकथा स्वतन्त्रता पूर्व भारत से होती हुई सदी के अंत तक फैली हुई है ..मूल रूप से उर्दू में लिखी इस आत्मकथा को ‘सॉंग संग ट्रू’ शीर्षक से सलीम किदवई ने अंग्रेजी में प्रकाशित करवाया, अंग्रेज़ी अनुवाद की भूमिका में सलीम किदवई ने बताया कि लाहौरी उर्दू में लिखे लम्बे–लम्बे वाक्यों को अनूदित करने में उन्हें खासी दिक्कत का सामना करना पड़ा लेकिन शीघ्र ही उन्हें एक पन्ने के लम्बे वाक्यों को पढ़ने का अभ्यास हो गया.
रेडियो ग्रामोफ़ोन कंपनियों की पसंदीदा आवाज़ मल्लिका पुखराज को भारत और पाकिस्तान दोनों देशों में समान यश मिला. आत्मकथा में उन्होंने अपने बचपन से लेकर जीवन के अंतिम पड़ाव तक की यात्रा के बारे में विस्तार से लिखा है. आत्मकथा में उन्होंने पाठक को वैसे ही बांधे रखा है जिस तरह वे अपनी आवाज़ के जादू से श्रोताओं को बांधे रखती थीं.महाराजा हरिसिंह ने मल्लिका को अपने दरबार में आश्रय दिया था, जीवन के लगभग आठ दशकों का संगीतमय सफ़र मल्लिका ने पुस्तक में लिपिबद्ध किया है.
यह आत्मकथा इसलिए महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इसमें एक स्त्री कलाकार के संघर्ष,राज्याश्रय की कठिनाईयों,दरबार की आतंरिक राजनीति, स्त्री के बहुपक्षीय शोषण के साथ साथ मनुष्य होने के नाते उसके अंतर्विरोधों को भी पाठक जान पाता है. अपनी महत्वाकांक्षा के कारण पुखराज को मां तीन वर्ष की उम्र में ही जम्मू लेकर चली गयी, मल्लिका की कहानी पराधीन और स्वाधीन भारत के संधिस्थल पर संगीत, कला और नृत्य से रोज़ी–रोटी और सम्मान अर्जित करने वाले कलाकारों की कहानी है. ब्रिटिश भारत की नीतियों ने किस तरह कलाकारों को तवायफ़ों और तवायफों को देह–श्रमिकों में रिडयूस कर दिया. खानदानी गवैये और गायिकाएं जहाँ पहले संस्कृति के वाहक के तौर पर राज्याश्रय और सम्मान पाते थे, वहीँ अब बदले समय में उन्हें पुलिस से डरकर रहने पर विवश होना पड़ता था.
धीरे-धीरे संपत्तिशाली और सत्ता की सरपरस्ती वाले कलाकारों को छोड़कर दूसरे पेशों को अपनाने के लिए इनमें से बहुत से मजबूर हुए. देखते–देखते उनकी सामाजिक हैसियत में भी गिरावट आई, इनमें से कई ने रेडियो और ग्रामोफ़ोन कंपनियों के लिए गाना–बजाना शुरू कर दिया. यद्यपि मल्लिका की आर्थिक और सामाजिक स्थिति बहुत अच्छी थी, उनकी मां और कला के कद्रदानों ने कभी उन्हें अकेला नहीं छोड़ा. आत्मकथा में मल्लिका अपनी मां का ज़िक्र बार–बार करती हैं कि वे बेहद अनुशासनप्रिय थीं लेकिन मल्लिका का दम उनकी सरपरस्ती में घुटता था क्योंकि वे मल्लिका अपनी इच्छा और रूचि से अपने मित्रों का चुनाव करने के लिए भी स्वतंत्र नहीं थी. उसकी कमाई से ही घर का सारा खर्च चलता था. बचपन में ही किन्हीं बाबा रोटीराम ने कह दिया था कि वह मल्लिका–ए-मुअज्ज़मा (महान साम्राज्ञी) बनेगी.
मल्लिका की मां ने उसे बचपन में ही बड़े ग़ुलामअली खां के पिता अली बक्श के सुपुर्द कर दिया था ताकि मल्लिका संगीत में पारंगत हो सके. मल्लिका की आत्मकथा की भाषा प्रवाहमयी उर्दू है और बीच बीच में फ्रेंच और जर्मन के शब्द भी प्रयुक्त हैं. नौ वर्ष की उम्र में ही महाराजा हरिसिंह के दरबार में बतौर गायिका शामिल होने वाली मल्लिका को हिन्दुस्तानी ज़बान और तहजीब की संरक्षक के तौर पर देखा जाना चाहिए॰
मल्लिका पुस्तक में न सिर्फ स्त्री के अंतर्द्वंद्व बल्कि पुरुष की दृष्टि में स्त्री की भूमिकाओं की व्याख्या करती चलती हैं.बतौर कलाकार वे उन षड्यंत्रों और साजिशों की चर्चा भी करती हैं जिन्होंने उनके ऊपर गहरा नकारात्मक प्रभाव डाला.मसलन वे हरिसिंह के दरबार के प्रसंग में लिखती हैं कि महाराजा ने उन्हें बतौर कलाकार 9वर्ष की उम्र में ही संरक्षण दिया,धन,दौलत,मान-सम्मान किसी की कमी नहीं होने दी,परन्तु देश के बंटवारे और हिन्दू–मुसलमान में भेदभाव और अफवाहों ने महाराज को भी नहीं बक्शा और दरबारी षड्यंत्रकारी हरिसिंह को यह समझाने में सफल हो गए कि मल्लिका पुखराज उन्हें विष देकर मारना चाहती है. मल्लिका को यह अपमान भीतर तक चुभ गया और उन्होंने हरिसिंह का दरबार अपना गीत गाकर छोड़ दिया- “इस कहानी के सबके अपने पाठ थे, मेरे ऊपर किसीको विश्वास नहीं था, मेरे लिए यह सब झेलना बहुत मुश्किल था”
(मल्लिका पुखराज,सांग संग ट्रू,ज़ुबान बुक्स,संपादन और अनुवाद –सलीम किदवई ,तीसरा संस्करण दिल्ली,2004:213)
१३.
इसके बरक्स रंगमंच और फ़िल्म से जुड़ी 1912 में ही जन्मी जोहरा सहगल की आत्मकथा ‘क़रीब से’ (2013 ) जिसका हिंदी अनुवाद दीपा पाठक ने किया. जोहरा सहगल की यह पुस्तक रंगमंच और फ़िल्मी परदे पर लगभग सौ वर्षों की उनकी जीवन-यात्रा का ब्यौरा है. आत्मकथा में ज़ोहरा सहगल अपने बचपन से लेकर अब तक के जीवन, करियर ,विदेश यात्राओं और थियेटर से अपने जुड़ाव की तस्वीर बहुत ही दिलचस्प अंदाज़ में प्रस्तुत करती दीखती हैं.आत्मकथा की शुरुआत में ही वे लिखती है –
“मैं कभी सोचती हूँ ज़िन्दगी एक बहुत बड़ा मजाक है. एक मैं हूँ जिसने रोज़ अपने दांत ब्रश किये, रोज़ नहाया, बिलकुल धर्म की तरह बालों में तेल डालने, कंघी करने और उन्हें धोने का धर्म निभाया, साँसों की और बदन की कसरत पूरे नियम से की ,सच को जैसा देखा वैसा ही बोला …खुद से भी ..लेकिन फिर भी, क्या है ज़िन्दगी ? दिन-ब-दिन कमजोर होता शरीर, पैरों की लड़खड़ाहट की वजह से मैं लगभग रुक सी गयी हूँ, दांत एक-एक करके साथ छोड़ रहे हैं, आँखों की रौशनी इतनी धीमी पड़ती जा रही है कि अक्सर लिखते वक़्त मैं पंक्तियाँ और शब्द देख नहीं पाती…अगर मैं धार्मिक होती तो यही समय था जब मैं ईश्वर पर विश्वास करना शुरू करती, लेकिन मैं नहीं हूँ और इस बारे में बेईमान नहीं हो सकती. मैं मानती हूँ कि कहीं कोई ऊर्जा है, कोई कानून है, कोई एक ऐसा न बदलने वाला नियम जिसमें लाल और पीले रंग को मिलाने पर नारंगी रंग बनता है…कुल मिलाकर देखा जाये तो मैंने एक जोशीली और मज़ेदार ज़िन्दगी जी है. मैंने बहुत-सी यात्रायें की हैं…मैं अपनी पीढ़ी के बहुत से मशहूर लोगों से मिली हूँ, मैंने दो विश्वयुद्धों का अनुभव किया है और इंग्लैण्ड में दो बार राजतिलक देखा जिसमें रेडियो पर प्रिंस एडवर्ड का इस्तीफे के वक़्त दिया भाषण सुनना भी शामिल है. मैंने कई मशहूर कलाकारों के साथ काम किया, चाहे वह पूर्व हो या पश्चिम. भला इससे ज्यादा कोई और क्या चाहेगा?”
(‘करीब से’-तीसरी घंटी (भूमिका) जोहरा सहगल, राजकमल प्रकाशन,प्रथम संस्करण 2013:7-9)
जोहरा सहगल की आत्मकथा में जर्मनी के नृत्य स्कूल में प्रशिक्षण से लेकर पृथ्वी थियेटर से जुड़े अपने रंगमंचीय अनुभवों का विस्तृत ब्यौरा है. आत्मकथा का प्रारंभ’ परिवार का इतिहास “शीर्षक अध्याय से होता है और फिर सिलसिलेवार ढंग से बचपन और लाहौर (1919-1929), यूरोप और डांस स्कूल, पहली वापसी समेंत 12 शीर्षकों के अंतर्गत जोहरा की ज़िन्दगी के उतार-चढ़ाव, प्रेम, विवाह, करियर, पृथ्वी थियेटर और पृथ्वीराज कपूर से गहरे संवेदनात्मक वर्षो के साथ, इप्टा का निर्माण, उसका प्रसिद्धि के चरम पर पहुंचना और फिर उसका निष्क्रिय हो जाना जोहरा की जीवन-यात्रा का प्रामाणिक और मय दिनांक ब्यौरा दिया गया है, एक अभिनेत्री, रंगकर्मी,एक माँ और सबसे ऊपर एक स्वतन्त्रचेता स्त्री जो तमाम विपरीत स्थितियों में भी हार नहीं स्वीकारती, अपने से कम वयस के पुरुष से अंतरजातीय विवाह करने का जोखिम उठाती है, अपने भीतर के कलाकार की हर आवाज़ को सुनती हैं, बहुआयामी व्यक्तित्व के रूप में अपना विकास करती है. पति द्वारा आत्महत्या के प्रसंग पर आत्मालोचन करती हुई लिखती हैं-
“मैं अक्सर सोचती हूँ कि अगर कामेश्वर ने मुझसे शादी नहीं की होती तो क्या उनकी ज़िन्दगी किसी और तरीके से ख़त्म हुई होती. वे बहुत संवेदनशील इन्सान थे जो कभी भी इस बात को मान नहीं पाए कि उनकी बीबी अपने काम में लगातार कामयाबी और इज्ज़त हासिल करती जा रही है जबकि उनकी खुद की कामयाबी जो कि हालाँकि कहीं ज्यादा ऊंचे दर्जे की थी, रुक-रुककर उन्हें मिली.”(पृष्ठ123)
जोहरा सहगल की आत्मकथा का वैशिष्ट्य है- आत्मप्रशंसा और श्लाघा से बचते हुए बहुत ही तटस्थ भाव से अपने साथ घटी घटनाओं के ब्यौरे देना,साथ ही साथ अपने भीतर के जन्मजात अभिजात्य भाव को स्वयं चुनौती देना. आत्मकथ्य के प्रारंभ में ही उन्होंने अपने वंश वृक्ष का लेखा -जोखा दिया है.
नजीबाबाद के रियासती हुक्मरान नवाब जलालुद्दीन खान के खानदान से ताल्लुक रखने वाली जोहरा अपने माँ-बाप की सात संतानों में तीसरी थीं जिसका बचपन शान–ओ-शौकत से गुज़रा.1930 में उन्होंने ज़र्मनी के डांस-स्कूल में नृत्य सीखा 1933 में वे वापस आयीं और 1935में उदयशंकर के अल्मोड़ा स्थित प्रसिद्ध नाट्य दल से जुड़ीं. कामेंश्वर सहगल से प्रेम और फिर विवाह इसी दौरान हुआ. आत्मकथ्य लिखने के बारे में वे प्रारंभ में ही कहती है –
“कोई अपने बारे में किताब क्यों लिखता है? सबसे बड़ी वजह तो यह कि इन्सान मरने के बाद जीवन से अपनी पकड़ छूटने की कल्पना से डरता है. ऐसे में आत्मकथा उसे मरने के बाद भी अपने होने के भ्रम को बनाये रखने का जरिया लगता है. मुझे लगता है कि यह एक तरह की आत्ममुग्धता है, भला किसे परवाह है तुम्हारी भावनाओं की, तुम्हारे संघर्ष की, तुम्हारे सुख या दुःख की? हाँ, शायद तुम्हारे बच्चों के लिए उनकी कुछ अहमियत हो. हालाँकि वो भी दिल से तुम्हें प्यार करने और तुम्हारी देख-भाल करने के बावजूद कभी-कभी ऐसा अहसास दिलाते हैं जैसे तुम उनकी ज़िन्दगी से जुड़ा एक फालतू हिस्सा हो और तुम्हारे हटने से उन्हें राहत मिलेगी ..पता नहीं पर मुझे ऐसा लगता है.”(23)
जोहरा सहगल का आत्मकथ्य उदयशंकर के नाट्य-दल के बनने और फिर बिखर जाने की कहानी है साथ ही यह पृथ्वीराज कपूर की लगन और मेंहनत के अंत:साक्ष्य देने वाली आत्मकथा है जिसमें बतौर निर्देशक और अभिनेता पृथ्वीराज कपूर द्वारा पृथ्वी थियेटर के उतार-चढ़ाव की घटनाएँ बयान करने वाले ढेरों पत्र संकलित हैं. जोहरा सहगल का यह आत्मकथ्य स्व से ऊपर उठकर भारत में ‘इप्टा’ के बनने-बिगड़ने और फिर खड़े होने की दास्तान है. आत्मकथ्य में हालाँकि जोहरा राजनैतिक चर्चाओं और ब्यौरों से बची हैं फिर भी कथ्य के प्रवाह में तत्कालीन भारत की राजनीति अपनी झलक के साथ उपस्थित है, मसलन अपनी रजिस्ट्री-शादी के दिन का ज़िक्र करती हुई लिखती हैं- नेशनल थियेटर का यह विचार इतना प्रभावशाली था कि जल्दी ही देश के दूसरे बड़े शहरों में इसकी शाखाएं खुल गयीं..उस समय भारत अपनी आजादी की लड़ाई के आखिरी दौर से गुज़र रहा था तो जाहिरा तौर पर इप्टा के गानों और नाटकों के विषय काफी इंकलाबी और वामपंथी हुआ करते थे जो हम सबको मिल-जुल कर काम करने को प्रेरित करते थे …मेरी शादी का दिन था 14 अगस्त 1942..यह दूसरे विश्वयुद्ध का समय था, भारत में अँगरेज़ सरकार के खिलाफ़ असहयोग आन्दोलन चल रहा था और चारों ओर अफरा-तफ़री का माहौल था. (82) या
“1947 के दौरान इप्टा के कुछ लोगों को सरकार की ओर से परेशान किये जाने के वाक़ये हुए, कुछ खास नाटकों पर रोक लगा दी गयी, कलाकारों को गिरफ्तार कर लिया गया. उस समय देश में अंतरिम सरकार थी और जवाहरलाल नेहरु उसके उपाध्यक्ष बनाये गए थे…” (93)
जोहरा सहगल ने अपने नृत्य एवं रंगमंचीय करियर के लिए जी- तोड़ मेंहनत की, साथ ही वे अपने बच्चों को भी ऊंची शिक्षा देने में सफल रहीं. आत्मकथ्य में, वे अपने बेटे पवन के साथ मेंल न मिलने पर दुखी और बेटी किरण को नृत्य में मिली सफलता से बहुत उत्साहित दीखती हैं साथ ही दिल्ली में एक अदद बसेरा बसाने की कोशिश और सरकारी सहायता के न मिल पाने का खेद भी उनके जीवन के अंतिम दिनों में भी कचोटता है. परन्तु अंततः वे अपने बीते जीवन से संतुष्ट हैं तभी तो लिखती है –
“अपनी सोच और अपने तजुर्बों के हिसाब से सिखाने और निर्देशित करने की पूरी ज़िम्मेंदारी लेने के लिहाज़ से मैं बहुत आलसी थी. पहले मैं उदयशंकर और उसके बाद पृथ्वीराज कपूर जैसे कलाकारों के साथ जुड़ी और उनकी मशहूरी की रौशनी का ही लुत्फ़ लेती रही क्योंकि उनके साथ काम करते हुए सारे नाटक, सारे दौरों की तैयारियां कोई और मेरे लिए करता था, मुझे उसके लिए न कोई परेशानी उठानी पड़ती थी और न कोई ज़िम्मेंदारी मुझपर थी. यह सच है कि मैंने शारीरिक और मानसिक तौर पर बहुत कड़ी मेंहनत की, लेकिन मैं अपने लिए और भी बड़ा नाम कमा सकती थी अगर मैंने अपना कोई थियेटर ग्रुप या स्कूल शुरू किया होता. मुझे लगता है, यह करने के लिए मैं बहुत आलसी थी.हालाँकि मुझे लगता है कि मुझे कुछ कम मिला ,लेकिन मैंने अपने लिए थोड़ी सी पहचान बनाई,बहुत सारा तजुर्बा कमाया और कड़ी मेंहनत के बावजूद अपने काम से बेपनाह खुशियाँ पायीं.और क्या चाहिए, मैं इसे ऐसा ही चाहती थी.”
(क़रीब से, जोहरा सहगल, अनुवाद दीपा पाठक,राजकमल प्रकाशन 2013:241)
१४.
बेगम खुर्शीद मिर्ज़ा, (1918-1989) जो फिल्मों में रेणुका देवी के नाम से मशहूर हुई ‘अ वुमन ऑफ़ सब्सटांस’ में उसने अपने संस्मरणों में अन्तरंग जीवन के पहलुओं को लिखा. जिन्हें पढ़ कर मुस्लिम परिवारों के आतंरिक तापमान का अंदाजा हो जाता है. यह रशीदजहाँ की छोटी बहन रंगमंच और सिने- अभिनेत्री की आत्मकथा है, जिसे उनकी बेटी लुबना काज़िम ने सम्पादित किया. यह आत्मकथा स्वर्गीय रजिया भट्टी की प्रेरणा से मासिक पत्रिका हेराल्ड के अगस्त 1982 से अप्रैल 1983 में नौ भागों में धारावाहिक रूप से छपी. आत्मकथा में सन 1857 से 1983 तक की घटनाओं का ज़िक्र है जिनमें भारतीय मुस्लिम समाज, निजी पारिवारिक स्थितियां, नवजागरण और समाज-सुधार के मुद्दे, हिंदुस्तान–पाकिस्तान का विभाजन. सिनेमा में बेगम खुर्शीद मिर्ज़ा का जाना, उनकी लोकप्रियता, सामाजिक सेंसरशिप के दबाव जैसी चर्चाएँ प्रमुख हैं. खुर्शीद मिर्ज़ा ने देश–विभाजन के बाद पाकिस्तान जाने का निर्णय किया, लेकिन आत्मकथा में वे स्वयं को पीछे छूट गए भारतीय सदस्य के रूप में देखती हैं. वह जब भी छुट्टियों में अलीगढ़ आती कराची की भीडभाड़ को भूल जाती. आत्मकथा में उन्होंने अपने पिता शेख अब्दुल्लाह के स्त्री–शिक्षा सम्बन्धी प्रयासों का ज़िक्र भी विस्तार से किया है.
दरअसल यह आत्मकथा एक तरह का सामाजिक–ऐतिहासिक दस्तावेज़ है. एक साथ तीन पीढ़ियों और बदलते हिंदुस्तान और पाकिस्तान की कहानी है. परदे को लेकर जो विमर्श इस आत्मकथा में मिलता है, वह अन्यत्र दुर्लभ है. सन 1904 में शेख अब्दुल्लाह ने जो रिसाला खातून शीर्षक पत्रिका निकाली उसमें मुस्लिम स्त्रियों द्वारा किये गए पर्दा-विमर्श का ज़िक्र विस्तार से खुर्शीद मिर्ज़ा करती हैं. वे बताती हैं कि जब मुस्लिम लड़कियों की शिक्षा के पक्ष में उनके पिता ने कई ठोस प्रयास करने शुरू किये तो कई औरतों ने रिसाले को परदे को सामाजिक सुरक्षा से जोड़ते हुए परदे के पक्ष में पत्र लिखे.
कई अभिजात्य स्त्रियाँ अपनी बेटियों को लड़कियों के स्कूल में भेजने को इसलिए तैयार नहीं थीं क्योंकि वहां नीचे तबके से भी लड़कियां आएँगी और फिर उनकी आभिजात्यता का क्या होगा. एक लम्बे समय तक स्त्री शिक्षा का मुद्दा बहस का विषय रहा, फिर लोगों की रूढ़ धारणाओं में परिवर्तन आने लगे और 1927 तक आते आते लड़कियों का स्कूल इंटरमीडिएट कालेज के स्तर पर पहुँच गया. इसमें इस्मत चुगताई जैसी हस्तियों ने शिक्षा ली थी. खुर्शीद मिर्ज़ा इस बात पर बल देती हैं कि लड़कियां शेक्सपीयर के ‘ए मिडसमर नाईट’ को पढ़ने के साथ-साथ बास्केटबाल और बेसबाल भी खेलती थीं. खुर्शीद मिर्ज़ा का फिल्मों को अपना करियर बनाना इस बात को दर्शाता है कि मुस्लिम समाज में आधुनिक चेतना का आगाज़ हो रहा था. मुसलमान औरतों की ज़िन्दगी कैसे भारत में बदलाव की और बढ़ रही थी, यह पुस्तक उसका मुकम्मल बयान करती है. कैसे आज़ादी की लड़ाई उन्हें सामाजिक समारोहों में शामिल होने और स्वयं को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दे रही थी, लेकिन यह प्रक्रिया बहुत धीमी थी. हालाँकि शेख अब्दुल्लाह ने अपनी बेटियों को ऊँची शिक्षा के लिए विदेश भेजा. खुर्शीद ने दर्ज किया है कि मंझली आपा खातून जहाँ इंग्लैण्ड की लीड यूनिवर्सिटी में पढ़ने के लिए गयीं और बड़ी आपा रशीदजहाँ लेडी हार्डिंग कॉलेज, दिल्ली में पढ़ीं और छोटी मुमताज़ आपा ने इज़ाबेला थाबर्न कॉलेज, लखनऊ से पढ़ाई की बावजूद इसके इन स्त्रियों को पुरुषों के साथ घूमने-फिरने या एक साथ संगीत सुनने की स्वतंत्रता नहीं थी.
खुर्शीद मिर्ज़ा अपने भाई के मित्र जाबिर अली के साथ दोस्ती, प्रेम और विवाह की यात्रा को दिलचस्प ढंग से लिखती है –
“मैंने अपने प्रिय भाई हाटू की तर्ज़ पर यह सोचना शुरू कर दिया कि जाबिर की तुलना अन्य किसी से हो ही नहीं सकती. वह राजा भी था और नेता भी. मैंने कभी किसी दूसरे पर ध्यान ही नहीं दिया. हाटू की मित्र-मंडली में हमारे रिश्ते सभी से दोस्ताना थे, लेकिन जाबिर वह था जो विशिष्ट था. धीरे-धीरे मेरे हाटू भाई मुझसे दूसरी बातों के बारे में भी चर्चा करने लगे, खेल के अलावा, अब जाबिर भी अकेला आने लगा. हाटू भाई ने मुझे बताया कि जाबिर मुझे पसंद करता है. मैं अन्दर ही अन्दर रोमांचित हो उठती मगर डर लगता था कि अगर किसी को पता चल गया तो ? इसलिए दूसरों की उपस्थिति में मैं उससे परायेपन का व्यवहार करती, उससे लड़ती और उसके घुंघराले बाल खींचती, चिकोटी काटती, उसके चेहरे या नाक पर साबुन मल देती और ऐसा ही बहुत कुछ. वह गर्मियों में हमारे साथ माथेरान आया था. हम पूरे दिन साथ रहते एक दूसरे को चिढ़ाते रहते, मुझे जाबिर के हाव-भाव से यह अहसास होने लगा कि वह मेरे बारे में क्या सोचता है.”
(अ वीमेंन ऑफ़ सबस्टांस-मेंमोआयर्स ऑफ़ बेग़म खुर्शीद मिर्ज़ा,संपादन लुबना काजिम,जुबान ,दिल्ली ,2005:105-106)
संस्मरण में खुर्शीद जहाँ ने अपनी बड़ी बहन रशीदजहाँ जो पीडब्लूए से जुड़ी थी उसके बारे में विस्तार से हमीदा सैय्यादुज्ज़ाफ़र के हवाले से लिखा है- शुरू से ही उसमें विद्रोही चेतना बहुत थी. बहुत कम उम्र में ही उसमें सामाजिक अन्याय और गैरबराबरी के प्रति अवहेलना का भाव था. पिता और मां के समाज-सुधार कार्यक्रमों से सम्बद्ध होने के कारण भी उसमें सामान्य जन से खुद को जोड़कर देखने का भाव था. 1931-32 में मह्मूदुज्ज़ाफ़र, सज्ज़ाद ज़हीर, अहमद अली और रशीदजहाँ की मुलाक़ात लखनऊ में हुई, इन सबमें सामाजिक अन्याय और गैर-बराबरी के प्रति विद्रोही चेतना थी और समाजवादी विचारधारा के प्रति विश्वास था. रशीदजहाँ ने वहीँ पर मह्मूदुज्ज़ाफ़र से प्रेमविवाह किया, उनदोनों का घर मजलूमों और ज़रुरतमंदों के लिए हमेशा खुला रहता था. हमीदा सैय्याद्दुज्ज़ाफ़र ने भी दर्ज़ किया कि –
“मेरी शादी के वक़्त तक रशीदजहाँ ने अपने आपको सभी भौतिक वस्तुओं से काट लिया था, पैसा, संपत्ति, निजी लाभ सबकुछ से. वह बिना किसी लगाव के अपनी कोई भी चीज़ दूसरों को देने के लिए तैयार रहती. उसका घर एक कम्यून बन गया था, जहाँ जाति, धर्म, वर्ग किसी भी तरह का कोई भेदभाव नहीं था. उसके घर में जाति से चर्मकार लड़के के काम करने पर कुछ हिन्दू मित्रों को आपत्ति थी जिसके जवाब में रशीदजहाँ ने कहा–“वह लड़का बहुत से ऊँची जात वाले हिन्दुओं की अपेक्षा साफ़-सुथरा है, तुम्हें अगर वह पसंद नहीं है तो तुम मेरे घर में भोजन मत करो.”
रशीदजहाँ को उनके प्रगतिशील विचारों और व्यवहार के लिए खुर्शीद मिर्ज़ा स्मरण करती हैं कि गर्भाशय के कैंसर से मरते वक्त रशीद का कहना था कि उसके शरीर को दफनाने से अच्छा है कि उसे मेंडिकल कालेज में प्रयोग के लिए दे दिया जाये. रशीदा के पति ने पत्नी की मृत्यु के बाद ‘क्वेस्ट फॉर लाइफ़’ शीर्षक संस्मरणात्मक किताब में रशीदा की बीमारी और इलाज के लिए मास्को जाने के दिनों का सविस्तार वर्णन किया.
(हमीदा सैयद्दुज्जाफर 1921-28,संपादन लोला चटर्जी,नईदिल्ली ;त्रियाँका,1996)
संस्मरण इस दौर के ब्यौरों के लिए पठनीय है. बेगम खुर्शीदमिर्जा ने इस किताब में यह बताया है कि कैसे भोपाल की बेगम के सहयोग से पिता ने अलीगढ़ में लड़कियों के लिए स्कूल बनाया और सर सैय्यद अहमद खां की नाराज़गी के बावजूद स्त्री शिक्षा के ये आरंभिक प्रयास कैसे बढ़ते गए. सन 1857 से 1983 के लम्बे समय को समेंटती यह किताब खुर्शीद्मिर्ज़ा की आपबीती भी है, जिसमें भारतीय मुस्लिम स्त्रियों की शिक्षा, पर्दा प्रथा के साथ बतौर अभिनेत्री खुर्शीद (जो चित्रपट पर रेणुका देवी के नाम से मशहूर हुई) के जीवनानुभवों का ब्यौरा पाठक को मिलता है.
खुर्शीद ने अपने घर में एक छोटे स्कूल की शुरुआत से स्त्री -शिक्षा के आगाज़ का ज़िक्र किया है जिसमें घर की बड़ी लड़की रशीदजहाँ समेंत कई लड़कियों ने पर्देदारी में ही सही, पढने के लिए जाना शुरू किया, शेख अब्दुल्ला और उनकी बेगम के प्रयास से धीरे-धीरे छात्राओं की संख्या में इज़ाफा होने लगा. शेख अब्दुल्ला जो भी देशी-विदेशी पत्र-पत्रिकाएं मंगवाते, रशीदजहाँ उन्हें बहुत दिलचस्पी से पढ़ती. इन छोटी लड़कियों को शेक्सपीयर पढ़ना भी बहुत पसंद था. हेड मिस्ट्रेस मिस हाजरा ने भी इन्हें खूब प्रभावित किया. उन्हीं के माध्यम से स्वदेशी, होमरूल आन्दोलन, 1905 के बंग-भंग के खिलाफ़ विद्रोह के साथ टैगोर, बंकिम आदि के लेखन से नई पीढ़ी की लड़कियां परिचित हुईं. राष्ट्रवादी नेताओं मौलाना मुहम्मद अली और शौकत अली की माँ बी अम्मा के अलीगढ़ आने पर, रशीदजहाँ जो उस समय मात्र 14वर्ष की थी उनसे मिलने के लिए बेचैन हो गयी, अंत में बी अम्मा से मिलने की अनुमति रशीदजहाँ को एक अध्यापिका के साथ मिली.
मुलाकात हुई और रशीदजहाँ खूब उत्साह के साथ घर लौटी पर बदले मन से -गाँधी के प्रति श्रद्धा ने उसमें सिर्फ खादी पहनने का उत्साह पैदा किया. तबसे उसने सिर्फ खादी पहनी. परिवार में भी उसके इस फैसले पर किसी ने कोई आपत्ति नहीं की. आपा बी ने बहुत पहले मेंडिसिन की पढ़ाई के लिए घर छोड़ दिया. वह स्त्रीरोग विशेषज्ञ बनी कथा साहित्य के क्षेत्र में भी उसने खूब नाम कमाया. 1927 में जब मैंने आपा बी को देखा तो वह खूब फर्राटेदार अंग्रेजी बोलती थी -उसे देखना एक आश्चर्य था…शायद यह उसी साल की बात है, आपा बी छुट्टियों में घर आई थीं. मां ने हमारे घने बालों से, जिनमें जुएँ भरी रहती थीं हार मान ली थी. आपा बी (रशीदजहाँ) हर बार की तरह त्वरित समाधान के साथ मौजूद थीं. उन्होंने हमारे बालों में किरोसीन तेल लगा दिया और लम्बे बालों को काट दिया. उनके अपने बाल पहले से ही कटे हुए थे मुझे बहुत पसंद थे और अब हमने भी लम्बी, घनी कसी हुई चोटियों को अलविदा कहा. अंततः ये भी तो एक मुक्ति ही थी.”
(माई सिस्टर रशीदजहाँ (1905-1952)द मेंमोआयर्स ऑफ़ बेगम खुर्शीद् मिर्ज़ा,अध्याय 6,2005 ,जुबान बुक्स ,काली फार विमेंन,हौजखास एन्क्लेव, दिल्ली:90 )
बदलते भारत में मुस्लिम औरतों की आज़ादी के मुद्दे पर खुर्शीद मिर्ज़ा बेबाक टिप्पणी करती हैं उनका मानना है कि राजनैतिक और सामाजिक स्तर पर चैतन्य भारत में उन्हें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सामाजिक मेंल-मिलाप के मौके तो मिल रहे थे लेकिन यह प्रक्रिया बहुत धीमी थी. बौद्धिक रूप से सचेतन परिवारों की संख्या कम थी जो शेख अब्दुल्ला की तरह अपनी बेटियों को विदेश में तालीम हासिल करने भेजते. रशीदजहाँ लेडी हार्डिंग कालेज, दिल्ली, मंझली बहन ख़ातूनजहाँ इंग्लैण्ड की लीड यूनिवर्सिटी में उच्च शिक्षा के लिए गयी,छो टी आपा ने इज़ाबेला थाबर्न कॉलेज लखनऊ से अंग्रेजी में एम्. ए.किया. इस तरह के विवरण देते हुए खुर्शीदमिर्ज़ा की टिप्पणी है कि- “फिर भी इन औरतों को पुरुषों के साथ घूमने-फिरने या एक साथ संगीत सुनने की स्वतंत्रता नहीं थी.”
१५.
डॉटर ऑफ़ द ईस्ट ‘पाकिस्तान की प्रधानमंत्री रह चुकी बेनजीर भुट्टो की आत्मकथा है जो ‘मेरी आपबीती’ शीर्षक से हिंदी में अनूदित हुई. यह एक ऐतिहासिक दस्तावेज है. आत्मकथा अपने खानदान, पिता जुल्फिकार अली भुट्टो को 1979 में तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल जिया उल हक़ द्वारा फांसी दिए जाने की घटना के इर्द-गिर्द, अपना राजनैतिक जीवन और पाकिस्तान में लोकतान्त्रिक चुनाव प्रक्रिया के हनन और उसके विरोध में फिर-फिर उठ खड़े होने की चुनौतियाँ झेलती बेनजीर के जीवन के बहुत से अनछुए पहलू सामने लाती है जो पाठक की राजनीतिक समझ को साफ़ करते हैं और साथ ही दक्षिण एशिया के देश में धर्म, राजनीति, सत्ताऔर फौजी शासन के समीकरण से टकराते लोकतंत्र की दशा और दिशा की जानकारी भी देते हैं. पिता की मृत्यु के बाद पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की कमान बेनजीर भुट्टो ने संभाल ली. वे सन1981 के दौरान पाकिस्तान में तीन महीने नज़रबंद रहीं इसके बाद वे इंग्लैण्ड में निर्वासन में रहीं. अपने छोटे भाई शाहनवाज़ को दफ़नाने के लिए वे पाकिस्तान लौटीं.
लाखों की संख्या में जनता ने उनका स्वागत किया, जनता जियाउलहक से तंग आ चुकी थी और बेनजीर भुट्टो में पिता जुल्फिकार अली भुट्टो की छवि देखती थी. बेनजीर को फिर से जेल में बंद कर दिया गया. आत्मकथा में बेनजीर अपने जीवन के उन वर्षों को याद करती हैं जब उनपर कड़े पहरे थे, पहरेदारिन के बारे में वे लिखती हैं – “चाहे मैं आ रही होऊं, या बाहर जा रही होऊं. वह बेहद कठोर थी, कोई सहानुभूति नहीं. मुझे लगता था कि हुकूमत ने जानबूझकर उसे मुझपर तैनात कर रखा था. वह बहुत नीच लगती थी, वैसी ही जैसी घड़ी और अंगूठी उतरवाकर वापस न करने वाली. उसकी नज़र से बचने के लिए कुछ भी बहुत छोटी चीज़ नहीं थी ..”.. मैं तलाशी नहीं दूंगी, मैं तलाशी दूंगी ही नहीं,” मैं चीखी, और कार से दूर जाने लगी…मैं जब जेल में अपने पिता से मिलने गयी तब भी तलाशी हुई, वहां से बाहर निकलते समय मेरी तलाशी ली गयी, जब मैं अपनी मां के पास दूसरी जेल में गयी, तब भी मेरी तलाशी ली गयी, आते समय फि.. मेरी बहुत बार तलाशी हो चुकी है, अब बस ..बहुत हुआ’
(मेरी आपबीती -बेनजीर भुट्टो ,राजपाल एंड संस,दिल्ली;2000:144)
बेनजीर की आत्मकथा की विशेषता है कि वह एक राजनीतिक स्त्री की आत्मकथा होते हुए भी अपने-आप में में किसी आम स्त्री की आत्मकथा मालूम देती है, मसलन आत्मकथा में उन्होंने अपने बच्चों को लेकर, अपने स्वास्थ्य को लेकर जो चिंताएं व्यक्त की हैं वे देश की चिंता के समानांतर चलती रहती हैं, एक साधारण-सी पितृविहीन लड़की, एक चिंतित माँ, एकाकी राजनीतिज्ञ की अनेकानेक छवियाँ पाठक के सामने कौंध जाती हैं, लेकिन सब पर हावी रहती है व्यावहारिकता-लोकतंत्र की चिंता- देश के साथ उनका जुड़ाव. पुस्तक की भूमिका में वे लिखती हैं –
“मैंने यह ज़िन्दगी खुद नहीं चुनी, ज़िन्दगी ने मुझे चुना.पाकिस्तान में जन्मी, मेरी ज़िन्दगी बहुत उतार-चढ़ाव से भरी रही, उसमें दुःख-विपत्तियाँ हैं तो कामयाबी के झंडे भी फहराए हैं…पाकिस्तान कोई मामूली देश नहीं है, न ही मेरी ज़िन्दगी कोई सीधी-सपाट ज़िन्दगी है. मेरे पिता और दो भाई मार दिए गए. मेरी माँ, मेरे पति और मुझे खुद भी जेल में बंद कर दिया गया. मैंने कई कई बरस का देश-निकाला झेला. इन तमाम दुःख-मुसीबतों के बावजूद, मैं खुद को खुशनसीब मानती हूँ. मैं खुशनसीब इसलिए हूँ क्योंकि मैं परम्पराओं को तोड़ते हुए किसी मुस्लिम देश में, लोकतान्त्रिक चुनाव के ज़रिये पहली प्रधानमंत्री बन सकी. यह चुनाव उस बेहद गर्म बहस और विवाद के बीच हुआ था, जो इस्लाम के मुताबिक औरतों की भूमिका नहीं तय कर पा रहा था. इस चुनाव ने यह साबित कर दिया था कि एक मुसलमान औरत, देश की प्रधानमंत्री बनकर देश की अगुवाई कर सकती है और उसे देश के सारे मर्द और औरतें अपनी रजामंदी दे सकते हैं …इस दुनिया में बहुत कम लोगों को यह मौका मिल पाता है कि वे इस समाज में कुछ बदलाव ला सकें, देश में आधुनिकता की राह बना सकें और मामूली भर सुविधाओं के होते हुए भी औरतों के बारे में घिसे-पिटे ढर्रे को तोड़ सकें और उन तमाम लोगो को यह उम्मीद दिला सकें कि बदलाव का सपना उनके लिए भी सच हो सकता है.”
(मेरी आपबीती -बेनजीर भुट्टो ,राजपाल एंड संस,दिल्ली;2000:9)
बेनजीर भुट्टो की यह आत्मकथा अपनी सीमाओं में बहुत ही सुरक्षित जीवन जीने वाली लड़की की जीवन-यात्रा की कथा है जिसने रेडक्लिफ और आक्सफोर्ड में शिक्षा ग्रहण की.राजनीतिक परिवार के संस्कारों ने उन्हें साहस और सूझ-बूझ दी. वे एक इस्लामिक देश की चुनी हुई प्रधानमंत्री बनीं .पाकिस्तान में तख्तापलट के बाद उनके पिता को फांसी दे दी गयी थी और दो भाइयों को मार दिया गया.नज़रबंदी, अपने ही बच्चों से अलग रहने की विवशता,पाकिस्तानी सेना का अधिनायकत्व,कारावास की भीषण यातनाएं, जनरल मुशर्रफ के शासन काल तक तक उन्होंने राजनैतिक रूप से चैतन्य जीवन जिया,उन्होंने लिखा –
“2007 में पाकिस्तान में एक अनिश्चित भविष्य की तरफ लौटते वक्त न सिर्फ अपने और अपने देश के बल्कि सारी दुनिया के लिए मौजूद खतरों से अच्छी तरह वाकिफ़ हूँ.हो सकता है कि जब मैं हवाई अड्डे पर उतरूं तो गोलियों की शिकार हो जाऊं. पहले भी अल-क़ायदा मुझे मारने की कोशिश कर चुका है. हम यह क्यों सोचें कि वह ऐसा नहीं करेगा? क्योंकि मैं अपने वतन में लोकतान्त्रिक चुनावों के लिए लड़ने को लौट रही हूँ और अल-क़ायदा को लोकतान्त्रिक चुनावों से नफ़रत है लेकिन मैं तो वही करुँगी जो मुझे करना है और मैं पाकिस्तान की जनता की लोकतान्त्रिक आकाँक्षाओं में साथ देने का अपना वादा पूरा करने का पक्का इरादा रखती हूँ”..
इस पत्र के कुछ ही महीने बाद 27 दिसंबर 2007 में बेनज़ीर भुट्टो को रावलपिंडी में मार दिया गया.उनकी आत्मकथा के बारे में सन्डे टाईम्स ने लिखा-
“यह एक बहुत बहादुर औरत की आपबीती है जिसने अनेक चुनौतियाँ स्वीकार कीं, जिसके परिवार के अनेक लोग शहीद हुए, जिसने पाकिस्तान की आजादी की मशाल जलाये रखी,बावज़ूद तानाशाही के विरोध के.”
(मेरी आपबीती -बेनजीर भुट्टो ,राजपाल एंड संस,दिल्ली;2000:ब्लर्ब )
‘कागज़ी है पैरहन’ इस्मत चुगताई की आत्मकथा है जिसका देवनागरी में लिप्यंतरण इफ्तिखार अंजुम ने किया. बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक में परदेदार कुलीन घराने की मुस्लिम स्त्री के जीवन का प्रामाणिक दस्तावेज होने के कारण इस्मत चुगताई को मरणोपरांत इस पुस्तक ने बहुत लोकप्रियता दिलवाई. हालाँकि इसे सीधे-सीधे आत्मकथा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इसमें जन्म से आगे की घटनाएँ उस ढंग से सिलसिलेवार नहीं हैं,यह खण्डों में बिना तरतीब के है.14 अध्यायों में बंटी इस आत्मकथा का धारावाहिक रूप में ‘आजकल’ उर्दू पत्रिका में (मार्च 1969 से मार्च 1970 )प्रकाशन हुआ.
इस्मत चुगताई की मृत्यु सन 1991 में हुई और उसके तीन वर्ष बाद उर्दू पत्रिका में छपे उन टुकड़ों को एकत्र करके पुस्तकाकार छापने का निर्णय लिया गया. कागज़ी है पैरहन- परंपरागत अर्थों में आत्मकथा न होते हुए भी टुकड़े-टुकड़ों में इस्मत की जीवन स्मृतियों को सामने लाती है जिसका अंग्रेजी तर्जुमा करने वाले एम.असाउद्दीन का कहना है कि इस्मत समाज में व्याप्त लैंगिक विभेद और समाज की सामंती-पितृसत्ताक संरचना से भली-भांति परिचित थीं, जिस समाज में वे रहती थीं उसके दोहरे चरित्र का पर्दाफाश और विरोध करने के लिए वे जो कर सकती थीं किया.
’कागज़ी है पैरहन’ कुल 14 अध्यायों में विभक्त है जिसे उर्दू पत्रिका ‘आजकल’ में 1970 के दौरान धारावाहिक रूप में पाठकों के सामने आने का मौका मिला. ’आजकल’ ही वह पत्रिका थी जिसमें अनीस किदवई का आत्मकथ्य ‘गुब्बार ए-कारवां’ छपा था.
इस पत्रिका ने कई लेखकों के आत्मकथ्य प्रकाशित किये. ’कागज़ी है पैरहन’ उन आत्मकथ्यों में से है जो ये बताते हैं कि रचना का आत्म बहुस्तरीय होता है और स्मृतियाँ ठीक उस ढंग से नहीं आतीं जैसा जीवन का सिलसिला होता है. बतौर रचनाकार, बतौर स्त्री और बतौर मुस्लिम होने के नाते आत्मकथा लेखन के अनंतर जो चुनौतियाँ इस्मत के सामने आती हैं, उनके बारे में वे बताती हैं. लेखकीय इयत्ता और आत्म के पुनर्प्रस्तुतिकरण के उत्कृष्ट उदाहरण के नज़रिए से इस आत्मकथा को देखा जाना चाहिए. इस्मत चुगताई के लेखन को उर्दू गद्य की आधुनिक लयकारी की दृष्टि से भी सराहा गया. इस्मत ने पढ़ने-लिखने और जीवन में अपना मुकाम हासिल करने के लिए किस तरह मुस्लिम परम्परावादी समाज का सामना किया, उनकी जिद्द ही थी जिसने उनके भीतर लैंगिक विभेद के प्रति विद्रोह पैदा किया, और ऐसे मुद्दों पर लिखवाया जिसमें समाज के रसूखदार लोगों का जीवन प्रतिबिंबित होता था.
लेखन प्रक्रिया के बारे में उनका कहना है –
“लिखते हुए मुझे ऐसा लगता है जैसे पढ़नेवाले मेरे सामने बैठे हैं, उनसे बातें कर रही हूँ और वो सुन रहे हैं. मेरे कुछ हमखयाल हैं, कुछ मोतरिज़ हैं, कुछ मुस्कुरा रहे हैं, कुछ गुस्सा हो रहे हैं. कुछ का वाकई जी जल रहा है. अब भी मैं लिखती हूँ तो यही अहसास छाया रहता है कि बातें कर रही हूँ.”
(कागज़ी है पैरहन-इस्मत चुगताई,लिप्यान्तरण इफ्तिखार अंजुम ,राजकमल प्रकाशन ,प्रथम संस्करण 1998:ब्लर्ब)
इस पुस्तक में स्मृतियाँ श्रृंखलाबद्ध रूप में नहीं आई हैं,बचपन के बारे में इस्मत लिखती हैं-
“मेरी अम्मा को मेरी हरकतें एक आँख न भाती थीं. मेरे अंजाम की उन्हें सख्त फ़िक्र थी. ये मर्दमार बातें औरतों को जेब नहीं देतीं. वह इतनी गहराई से न इन बातों को समझती थीं और न समझा सकती थीं, मगर मुझे मालूम हुआ कि मेरी अम्मा क्यों डरती थीं. यह मर्द की दुनिया है, मर्द ने बनाई और बिगाड़ी है. औरत एक टुकड़ा है उसकी दुनिया का जिसे उसने अपनी मुहब्बत और नफरत के इज़हार का जरिया बना रखा है. वह उसे मूड के मुताबिक पूजता भी है और ठुकराता भी है. औरत को दुनिया में अपना मुकाम पैदा करने के लिए निस्वानी हर्बों से काम लेना पड़ता है. सब्र होशियारी, दानिशमंदी, सलीका जो मर्द को उसका मुहताज बना दे. शुरू ही से लड़के को मुहताज बनाना कि वह अपना बटन टांकते शरमाये. रोटी ठोकते डूब मरे. आसान-आसान छोटे छोटे काम जो नौकर कर सकते हैं, अपने हाथ से करना. उसकी ज्यादतियों को सर झुकाकर सहना कि वह शर्मिंदा होकर क़दमों पर गिर पड़े.”
(कागज़ी है पैरहन-इस्मत चुगताई,लिप्यान्तरण इफ्तिखार अंजुम ,राजकमल प्रकाशन ,प्रथम संस्करण 1998:14)
इस्मत स्त्री की इस गुलाम मानसिकता से अपने ढंग से टकराती हैं. बहुत कम उम्र में लैंगिक विभेद को परख लेती हैं. वह रशीदजहाँ के बारे में लिखती है–
“रशीदजहाँ ने मुझे कमसिनी में ही बहुत मुतास्सिर किया था. मैंने उनसे साफ़गोई और खुद्दारी सीखने की कोशिश की.”
(कागज़ी है पैरहन-इस्मत चुगताई,लिप्यान्तरण इफ्तिखार अंजुम ,राजकमल प्रकाशन ,प्रथम संस्करण 1998:15)
इस्मत की आत्मकथा की विशेषता है साफ़गोई और बिना लाग-लपेट के अपनी बात को कहने की कोशिश ,वे अपने बचपन के दिनों से लेकर भाइयों के साथ पढ़ाई-लिखाई के अनुभवों के साथ यौनिकता के मुद्दों पर बड़े ही बेबाक अंदाज़ में बात करती हैं. वे धर्म, राजनीति,परदे के मुद्दों पर पिता, भाइयों,पुरुष रिश्तेदारों से बात करती हैं ताकि जान सकें कि आधी आबादी ,जो बाहर की दुनिया से अच्छी तरह वाकिफ़ है वह अंतरमहल की समस्याओं पर क्या सोच रखती है.
”लड़कों के लिए यह आम रवैया मुनासिब समझा जाता है, मैं लड़की थी. अम्मा, खालायें, फूफियाँ, चचियाँ हैबतज़दा थीं. औरतज़ात को ये मुंहज़ोरियां जेब नहीं देतीं. ससुराल में कैसे गुज़र होगी ? समाज ने औरत का एक ठिकाना मुक़र्रर कर दिया है, उससे बाहर क़दम रखा तो पैर छांट दिए जायेंगे .ज्यादा तालीम भी बलाए जान होती है. हमारे यहाँ कौलो-फ़ेल पर पाबन्दी नहीं थी. मगर यह शर्त सिर्फ़ मर्दों तक थी. मुझे इन हरकतों पर डांट खानी पड़ती थी”
(कागज़ी है पैरहन-इस्मत चुगताई,लिप्यान्तरण इफ्तिखार अंजुम ,राजकमल प्रकाशन ,प्रथम संस्करण 1998:17)
लैंगिक विभेद युक्त समाज ,स्त्री के लिए सीमायें तय करता समाज इस पुस्तक में सब कहीं है. मुस्लिम समाज और औरतों की इच्छाओं, कामनाओं को अनुशासन में रखती चली आती व्यवस्थाओं का पर्दाफाश, बड़े ही सहज ढंग से यह पुस्तक करती चलती है. परदे और मुस्लिम स्त्री होने के कारण लादी गयी पाबंदियों की फेहरिस्त लम्बी है, इसलिए उनसे टक्कर लेकर अपनी इच्छा से अपने जीवन को जीने की छूट लेने की चुनौतियाँ और संघर्ष भी बड़े रहे होंगे, यह आत्मकथा औरतों की चुप्पी और उनके कथन की दरारों को चौड़ा करके दिखाती है, जिनमें विभिन्न तबकों से आई हुई औरतें हैं, जिनकी आवाज़ दबते-दबते गूंगी हो गयी है. पति की कृपा पर उनकी यौनेच्छायें निर्भर हैं, अभिकर्ता के रूप में वे अपनी इस स्थिति को अस्वीकार करती हैं. वे हर तबके में दबी-कुचली और शोषित हैं लेकिन दिशाहारा.
१६.
उजाला दे चराग़-ए-रहगुज़र आसाँ नहीं होता
हमेशा हो सितारा हम-सफ़र आसाँ नहीं होता
(अदा ज़ाफरी )
इस्मत चुगताई की आत्मकथा के बरक्स अदा ज़ाफरी की आत्मकथा को रखकर देखना दिलचस्प है. देश विभाजन के बाद पाकिस्तान जाकर बसने वाली अदा ज़ाफरी ने गजलकार के तौर पर नाम कमाया लेकिन विवाह के पहले जब वे बदायूं में रहती थीं उन्हें लोगों की आलोचना का शिकार होना पड़ा क्योंकि मुस्लिम खानदान स्त्री को पर्दे से बाहर आने नहीं देना चाहता था “जो रही वो बेखबरी रही” (1995) शीर्षक आत्मकथ्य में 1924 में उत्तर प्रदेश के बदायूं में पैदा हुई अदा ज़ाफरी जेंडर और स्त्री यौनिकता के प्रश्न पर अपनी समकालीनों से भिन्न हैं. इनसे पहले अधिकतर मुस्लिम स्त्रियाँ जिन्होंने आत्मकथाएं लिखीं वे शिक्षित, अभिजात्य अथवा राजनीतिक सक्रियता रखने वाले परिवारों से सम्बद्ध थीं. उनका लिखना उन्नीसवीं सदी के स्त्री सुधारों और स्त्री शिक्षा के कार्यक्रमों का ही एक विस्तार था, या यों कहें कि आत्मकथा लेखन के माध्यम से वे राष्ट्रीय आख्यान का अंग बन रही थीं और मुस्लिम आधुनिकता का प्रतिनिधित्व करते हुए अपनी विशिष्ट ऐतिहासिक भूमिका अदा करने का प्रयास कर रही थीं, इसलिए उनके आत्माख्यानों में विषय वैविध्य के साथ साथ एक विशिष्टता बोध भी दिखाई देता है, इनमें से कुछ यौनिकता के प्रश्नों पर अतिरिक्त मुखर हैं मसलन इस्मत चुगताई. तो कुछ के लिए प्रेम,पति,प्रेमी और यौनेच्छा पर एक पंक्ति भी लिख पाना मुमकिन नहीं हो पाया. कुछ पर खुद की सेंसरशिप हावी है कुछ पर इस्लाम की और कुछ के साथ परिवार,समाज,पाठक का भय चलता है जिसे उनके टेक्स्ट की दरारों से ही समझा जा सकता है.
इसके लिए अदा ज़ाफरी के आत्मकथ्य को देखा जाना चाहिए जो एक साधारण परिवार से सम्बद्ध थी जिनका बचपन से एक ही सपना था कि वे अपनी खुली आँखों से दुनिया देखें. पर्दा और लैंगिक विभेदवादी परिवार और समाज में उन्हें ऐसी कोई छूट मिलनी संभव नहीं थी, वे अपनी कथा में लिखती हैं कि स्वतंत्र होने के लिए उन्होने एक उच्च पदस्थ अधिकारी से विवाह किया, विवाह के बाद ही संभव हो पाया कि वे पति के साथ देश-दुनिया घूमें और नए नए लोगों से मिलें-जुलें. लेकिन बतौर कवयित्री एक लंबा कैरियर गुजरने के बाद उम्र के इकहत्तरवें साल में ही वे आत्मकथा लिखने का साहस जुटा पाईं.
(https://books.google.com/books?id=1lTnv6o-d_oC&pg=PA352)
इस्मत चुगताई की समकालीन होने के बावजूद पाकिस्तान के माहौल और बचपन के अनुकूलन ने उनपर सेंसरशिप इस कदर तारी रखी कि वे परिवार के किसी पुरुष सदस्य पर टिप्पणी से बचती हैं यही नहीं वे जिन भी पुरुषों का ज़िक्र करती हैं उन्हे ‘भाई ‘कहकर संबोधित करती हैं मानों पाठक की कल्पना पर लगाम लगा देना चाहती हों कि कहीं उन्हें ऐसी स्त्री न समझ लिया जाये जिसके मित्र पुरुष थे. उनकी कविता से प्रभावित होकर ही उनके पति ने विवाह -प्रस्ताव रखा था, लेकिन वे कहती हैं कि विवाह के बाद मिली स्वतन्त्रता, माहौल ने भी बचपन के दिनों की परतंत्रता का मलाल उनके मन से दूर नहीं किया.
पूरे आत्मकथ्य में उनका स्वर क्षमा-याचना का है, जैसे लिखना उनका अधिकार न हो, यह अवसर दिये जाने पर वे परिवार, समाज की शुक्रगुजार हों. समकालीन पाकिस्तानी राजनीतिज्ञों की प्रशंसा उनके आत्मकथ्य में रेखांकित करने योग्य है जिसमें ग़ुलाम इश्हाक खान, बेनज़ीर भुट्टो, नवाज़ शरीफ शामिल हैं जिन्होने लोकतन्त्र के पक्ष में आवाज़ बुलंद की. आत्मकथ्य के अंतिम अध्याय में अदा ज़ाफरी ने स्वीकार किया है कि उन्होने उनलोगों का ज़िक्र ही छोड़ दिया है जो जीवन में कभी भी उनके लिए तकलीफ का सबब बने हैं. वे लिखती हैं-
“ऐसा नहीं है कि मुझे किसीसे चोट नहीं पहुंची. जीवन में ऐसे बहुत से लोग आते ही हैं जिनसे टकराव होता ही है, इनकी गिनती दोस्तों से ज़्यादा होती है. तकलीफदेह बातों को याद करने का क्या फायदा. ज़िंदगी बहुत छोटी है और माफ़ करना मेरे अल्लाह की फितरत.”
अदा जाफरी के आत्मकथ्य में स्त्री यौनिकता के मुद्दे पर बात करने से हर संभव बचा गया है, उनकी कोशिश रही है कि पाठक समझे कि उनका पूरा जीवन बहुत ही नैतिक दृष्टि, सामाजिक मान-मर्यादा के निर्वाह के साथ जिया गया है, ऐसा नहीं कि उनके कुछ सपने नहीं होंगे, सपने नहीं होते तो वे अपनी कविता में इतने विविधमुखी रंगों का प्रयोग कैसे कर पातीं. यद्यपि वे घरेलू परिधि में बंधी हुई हैं लेकिन स्त्री स्वाधीनता के वैश्विक परिदृश्य से नितांत अपरिचित नहीं हैं, वे पूरा अध्याय सिल्विया प्लाथ पर लिख डालती हैं और पितृसत्तात्मक जकदबंदी से निकलने का प्रयास करने वालियों की तारीफ़ भी करती हैं. जहां तक उनके निज का प्रश्न है वे सत्रह साल तक इसलिए कविता लिखना छोड़ देती हैं क्योंकि उनपर गृहस्थी के दायित्व थे. घर के दायरे से बाहर निकल कर वे कविता में अपनी मुक्तिकामना अभिव्यक्त करती हैं. अदा ज़ाफरी को उनके द्वारा अपनाई गयी विधाओं और काव्यात्मक प्रयोगों के लिए जाना जाता है, इसी वजह से अपने समकालीनों में वे ईर्ष्या और आलोचना का पात्र भी बनीं लेकिन स्त्रीवादी लेखन और बोल्डनेस की दृष्टि से उनकी आत्मकथा बहुत नरम है, उनका स्वर स्त्रीवाद की अन्य पक्षधरों की तरह बुलंद नहीं है, फिर भी वे पितृसत्ता के विपक्ष में खड़ी दीखती हैं. उनके बारे में यशस्वी कहानीकार इंतज़ार हुसैन का कहना है कि बदायूं जैसी छोटी जगह पर रह कर उन्होने गज़ल के क्षेत्र में जो नाम कमाया वह अविस्मरणीय ही है.
उनका लिखना ही अपने–आप में पुरुष–सत्ता को चुनौती थी, क्योंकि अदा ज़ाफरी ने सिर्फ गजलें ही नहीं कहीं बल्कि कविता के कई प्रयोग भी किए. इसके बावजूद उनकी आवाज़ में उस दौर की स्त्रीवादियों की तरह सीधे कह देने के साहस का अभाव हम पाते हैं, जबकि जिस समय वे लिख रही थीं इस्मत चुगताई की कहानी ‘लिहाफ़’ चर्चा का विषय बन चुकी थी. अदा भी खुल कर अकेले घूमने की आज़ादी, नयी-नयी जगहें देखने की तमन्ना से लबरेज दीखती हैं.
अदा ज़ाफरी को पति की सरपरस्ती में बहुत से देश यूरोप और अमेंरिका घूमने का मौका मिला. बदायूं की वह लड़की जो पर्दे के भीतर ग़ज़ल कहती थी अब अपनी बात खुलकर सभा-सोसायटियों में करने लगी. उनका आत्मकथ्य को एक सोद्देश्य पाठ की दृष्टि से देखा जाना चाहिए जो बतौर कवयित्री उनके करियर पर उन दबावों की पड़ताल करता है, जिनके कारण वे बीच के सत्रह वर्ष कुछ लिख ही नहीं सकीं पाकिस्तान के प्रधानमंत्री गुलाम इशाकखान, बेनज़ीर भुट्टो, नवाज़ शरीफ़ के लोकतान्त्रिक रवैयों की तारीफ करती नहीं अघातीं. पति की तारीफ, उनके अपने जीवन में योगदान को नहीं भूलतीं.
पूरे आत्मकथ्य में उनका सुर बहुत मृदु और नपातुला है. फिर भी जीवन के प्रति, उनका असंतोष पाठक की पकड़ में आ ही जाता है. उन्हे अफसोस है कि जीवन के प्रारम्भिक दिनों में उन्हे खुलकर बोलने, घूमने-फ़िरने की आज़ादी नहीं थी, वे गज़लें कहतीं थीं तो पुरुष प्रधान समाज में उन्हे अपमान का सामना करना पड़ा. विवाह-पूर्व के इन अनुभवों को वे कभी भुला नहीं पातीं. वे कहीं भी स्त्री-यौनिकता, अपनी इच्छा कामना के बारे में नहीं लिखतीं. इसका स्पष्ट अर्थ है कि वे स्त्री के साथ परंपरागत ढंग से जुड़े टैबू, सतीत्व के मानदंडों को चुनौती देना तो दूर उनपर एक वाक्य लिखने का जोखिम तक नहीं उठाती. हालांकि ऐसा नहीं है कि वे प्रगतिशील लेखक संघ में शामिल स्त्रियों की भूमिका या वैश्विक परिदृश्य से अपरिचित हैं, वे बोल्ड रूप में सामने आ रही स्त्रियों की प्रशंसा भी करती हैं अपनी मंद्र आवाज को लेकर क्षमा-याचना की मुद्रा में भी हैं.
पाठक महसूस कर लेता है कि इस्मत चुगताई की समकालीन होने के बावजूद स्त्री यौनिकता, स्त्री मुक्ति के प्रश्नों पर वे मौन हैं. वे सामाजिक, पारिवारिक और व्यक्तिगत सेंसरशिप का पालन करती हैं, पति, बच्चे, रिश्तेदार किसी को रुसवा करने का खतरा नहीं उठाना चाहतीं. इस चुप्पी को आत्मकथ्य की दरारों से होकर समझा जाना चाहिए, वे स्त्रीत्व के सभी कोमल गुणों से भरी हैं, वे स्वयं को सहनशील, परिवार और गृहस्थी, बच्चों के लिए अपनी इच्छाओं का त्याग करने वाली स्त्री के रूप में देखती हैं.
वे वह त्यागमयी स्त्री हैं जो पाकिस्तान का प्रतीक है– जिसके बच्चे उसे छोड़कर कई दिशाओं में चले गए हैं. उनका आत्मकथ्य ‘निज’ की आधुनिक परिभाषा से दूर दीखता है, वे देश विभाजन की पीड़ा, बच्चों के दूर जाकर बसने की तकलीफ, अतीत की स्मृतियों का बयान करती चलती हैं. जेंडर के मुद्दे पर वे सिर्फ अपने पत्नीत्व और मातृत्व की चर्चा करती हैं जिसमें स्त्री यौनिकता पर किसी टिप्पणी का नितांत अभाव है.
१७.
अदा ज़ाफरी के नियंत्रित आत्मकथ्य से ठीक उलट है आईने के सामने अतिया दाऊद का आत्मकथ्य, जिसका देवनागरी लिप्यंतरण इजलाल मजीद ने किया. पाकिस्तान के जिले नौशेरा में जन्मी अतिया-दाऊद सिंधी की प्रमुख कवयित्री हैं जिसमें एक बहुत ही साधारण परिवार के अतीत का प्रत्याख्यान है जो बहुत कम उम्र में अपने माँ–बाप को खो देती है, परंपरागत और रूढ़ियों में डूबते–उतराते समाज के कई अक्स अतिया के आत्मकथ्य में देखे जा सकते हैं, जिसकी भूमिका में अतिया ने अतीत को फिर से मुड़ कर देखने और दोहराने पर मानी खेज़ टिप्पणी करते हुए लिखा-
”सच बात तो यह है कि अगर मैं यह पहले से जानती होती कि ज़िंदगी गुजारने से भी जियादह तकलीफदेह गुज़री हुई ज़िंदगी को दोहराना है तो मैं कभी नहीं लिखती. इस बात का मशवरा मेरे दोस्त आसिफ फर्रूखी ने दिया. गोया यह कि मुझे यह मशवरा देकर जलते हुए शोलों की तरफ धकेल दिया ….मसला यह था कि वो सब लिखते ही उसके बारे में सोचने में खुद अपने जिस्म से निकलकर माज़ी के उस मंज़र में जाकर ठहर जाती थी. जब मेरे बाप की मौत होती तो उस दिन फिर हो जाती जिस दिन मैं लिख रही हूँ. हर अजियतनाक इसी तरह से मुझ पर बीता फिर से ..और मैं फूट–फूटकर रोयी हूँ, तड़पी हूँ, जुदाई की आग में जली हूँ. जब छोटी-सी बच्ची को उसकी भाभी डंडे से मारती है तो मेरा जिस्म उस अज़ाब को फिर से झेलता रहा, सुलगता रहा. जब वो बच्ची लाल शर्बत की खुशबू सूँघती है, उसको भाभी के डर से पी नहीं सकती तो मेरे अंदर इस कदर प्यास भड़क उठी कि कितना भी पानी पिया मगर हलक में कांटे चुभते ही रहे. इस आपबीती को लिखते हुए मुझमें तब्दीलियाँ भी आयीं. जिन किरदारों से नफ़रत थी, अंदर से राख़ की तरह दबी हुई, वो बहुत खुलकर अब महसूस होने लगी. और जो मोहब्बत की दबी–दबी चिंगारियाँ थीं वो शोलों की तरह भड़क उठीं.”
(आईने के सामने –अतिया दाऊद ,लिप्यंतरण इजलाल मजीद ,राजकमल प्रकाशन 2004:13 )
अतिया की जीवन यात्रा गरीबी और मुफ़लिसी से गुजरते हुए स्वयं अपने निर्णय लेकर जीवन में मर्जी से विवाह और बतौर एक्टिविस्ट और कवयित्री अपनी पहचान निर्मित करने की कहानी है. आत्मकथ्य का वैशिष्ट्य है अन्य कथाकारों से अलग हटकर स्पष्ट ढंग से अपनी इच्छा–अनिच्छा, यौन–शोषण के बारे में बिना किसी लाग-लपेट के लिख डालना. निश्चय ही इसके लिए जिस साहस और पारिवारिक समर्थन की ज़रूरत होती होगी वह अतिया के पास है तभी तो वह बचपन में हुए यौन–शोषण को इन शब्दों में अभिव्यक्त करती हैं-
“उसने लकड़ियों का ढेर जमा कर लिया. मुझे हैरत नहीं हो रही थी क्योंकि यह आम बात थी. और बच्चों के मुक़ाबले में मुझे लोग ज़्यादा तवज्जो देते थे. मैं भी और दूसरे बच्चे भी इस बात के आदी थे, जब लकड़ियाँ जमा कर चुके तो वह मेरे क़रीब आया और कहने लगा, अब तो तुम खुश हो ? मैंने कहा – “हाँ “उसने मेरी शर्ट ऊपर कर दी और मेरी छातियों को हाथ से मसलने लगा. मेरी उम्र नौ साल रही होगी और मैं एक कमज़ोर-सी बच्ची थी. कुछ था भी नहीं, मुझे शर्म भी नहीं आई. मगर उसकी आँखों से मुझे खौफ़ आने लगा. उसकी शक्ल बिलकुल बदली हुई सी लग रही थी. खौफ़ के मारे मेरी आवाज़ घुटकर रह गयी. दूसरे बच्चे आ गए …..उसके बाद से मुझे अजनबी मर्दों से डर लगता था.”
(आईने के सामने–अतिया दाऊद ,लिप्यंतरण इजलाल मजीद ,पहला संस्करण, राजकमल प्रकाशन 2004:46)
गाँव में रहते हुए अतिया अपने बचपन के दिनों का ज़िक्र इतने खुलेपन से करती है कि लगता नहीं वे किसी धार्मिक, सामाजिक सेंसरशिप से डरती हैं. स्त्री पर पर्दे की पहरेदारी के सख्त कायदे कानून पिछड़े हुए गांवों में कैसे हैं इसपर वे लिखती हैं-
“मेरी हमउम्र एक बच्ची जो जिस्मानी तौर पर मुझसे मोटी थी और उसकी छोटी-छोटी सी छातियाँ निकलने लगी थीं, इसलिए वह अपने गिर्द एक दुपट्टा लपेट लेती थी. एक दफा उसने मुझे राज़दारी से बताया कि उसके घर में एक दाई खाला आती है. वह उसको कमरे के अंदर ले जाकर दरवाजा बंद करके एक खास बर्तन जो कि मिट्टी से बना हुआ होता है और उससे जुआर या बाजरे या मकई की रोटी बनाई जाती है, सिंध में जिसको ‘थुपनी ‘कहते थे, बहुत बेदर्दी के साथ उसकी छातियों को मसलती है. उसे बहुत दर्द होता है. उसने बताया कि अम्मा ने कहा है कि अगर उस वक़्त तुम चीख़ोगी या रोओगी तो बहुत मार पड़ेगी. इसलिए डर के मारे मैं रोती भी नहीं हूँ, फ़क़त आँसू बहते हैं और मैं इस तरह तड़पती हूँ. उसने जमीन पर लोटते हुए मुझे दिखाया.”
आईने के सामने –अतिया दाऊद ,लिप्यंतरण इजलाल मजीद ,राजकमल प्रकाशन 2004:50)
अतिया दाऊद का आत्मकथ्य बहुत कुछ इस्मत चुगताई की आत्मकथा का विस्तार लगता है, अतिया बचपने के खेल के बारे में जब लिखती हैं तो अनायास ही पितृसत्ता के छिपे हुए तेवरों को सामने लाने लगती हैं –
“जिस दिन हम घर–घर खेलते उस दिन मेरा ज़रूर लफड़ा हो जाता था. बच्चे इस खेल को ऐसे ही खेलना चाहते थे जिस तरह हक़ीक़त में हमारी ज़िंदगी में होता था और मैं उसमें तबदीली लाने की कोशिश करती थी. उस खेल के मुताबिक घर का एक बड़ा अब्बा होता था, वो सबको डांटता था. घर के मर्द बाहर से जाकर सौदा,सब्जी वगैरह ले आते थे. मगर यहाँ आकर मैं तकरार करती थी कि बाज़ार से सौदा लेने मैं जाऊँगी. बच्चे कहते थे ये नामुमकिन है. तुम अदी बनकर घर में खाना पकाओगी, झाड़ू दोगी और ये सारे काम करोगी…”
(आईने के सामने–अतिया दाऊद ,लिप्यंतरण इजलाल मजीद ,राजकमल प्रकाशन 2004:53 )
इक्कीसवी सदी में लिखी और प्रकाशित होने वाली महत्वपूर्ण आत्मकथाओं में ‘आईने के सामने’ की गिनती होती है.
१८.
न रौब खाएं न जान बेचें ,न सर झुकाएँ, न हाथ जोड़ें
‘बुरी औरत की कथा’ शीर्षक से उर्दू की क्रांतिकारी लेखिका किश्वर नाहीद ने आत्मकथ्य लिखा, जिसका अँग्रेजी तर्जुमा दुर्दाना सुमरू ने ‘बैड वुमेंन्स‘ स्टोरी’ शीर्षक से सन 2010 में किया. किश्वर नाहीद उत्तरप्रदेश के बुलंदशहर में पैदा हुईं और सन 47 के बाद पाकिस्तान चलीं गईं थीं. देश विभाजन और राजनीतिक हलचलों के बीच उन्होने समाज की प्रारम्भिक छवियाँ ग्रहण कीं. नब्बे के दशक में नाहीद की आत्मकथा ने पाकिस्तान की लेखक–बिरादरी में बहुत से विवादों को जन्म दिया जिसे अदा ज़ाफरी की आत्मकथा के सामने रखकर बेहतर ढंग से समझा जा सकता है. किश्वर नाहीद एक रूढ़िवादी मुस्लिम परिवार से सम्बद्ध थीं बचपन से ही पर्दे और बुर्के की बाध्यता में वे कसमसाती रहती थीं. बहुत जद्दोजहद के बाद उन्हें कॉलेज जाने का मौका मिला और तब उन्होने बगैर पर्दे के कक्षाएं करना शुरू किया, लड़कों के साथ मुशायरों, डिबेट इत्यादि में भाग लेने लगीं, कॉलेज की ज़िंदगी ने उन्हें बाहरी संसार से परिचित होने का मौका दिया और उन्होने कोई मौका हाथ से जाने नहीं दिया यहाँ तक कि घरवालों की रजामंदी के बगैर प्रेम विवाह भी कर डाला, कुछ ही दिनों में दांपत्य-कलह शुरू हो गए, जिसका अंत नहीं था क्योंकि शौहर का जी किश्वर से भर चुका था, वे आत्मकथा में लिखती हैं कि उन्होने अपने शौहर का जी अपनी तरफ पलटने की बहुत कोशिश की, दो बच्चे भी हुए जो अपने पिता के पक्ष में ही थे. सन 1984 में जबतक पति की मृत्यु नहीं हुई तबतक पारिवारिक कलह चलते रहे.
‘बुरी औरत की कथा‘ में वे समाज की पितृसत्ता की आलोचना ही सिर्फ नहीं करतीं बल्कि स्त्री के विकास में अवरोधक उस मानसिक अनुकूलन पर बारीक नज़र रखती हैं, जिसका प्रतिनिधित्व अक्सर घरेलू औरतें करती हैं, उन्हें पता ही नहीं चलता कि कब वे अपनी आंतरिक संरचना में पितृसत्ता की पोषक एजेंसी के रूप में कार्य करने लगती हैं. वे कामकाजी स्त्री की अपेक्षा कम काम करती हैं और घरेलू राजनीति में कामकाजी औरतों के लिए आलोचक बन जाया करती हैं.
अदा जाफरी से बिलकुल उलट किश्वर नाहीद उन समस्याओं का चित्रण बेबाकी से करती हैं जिनका सामना किसी स्त्री को अपनी यौनिकता के कारण करना पड़ता है. इसके लिए वे स्वानुभवों का सहारा लेती हैं, कार्यस्थल पर उन्हें देख कर सेक्सुअल फ़ेवर मांगना, द्वि-अर्थी बातें करना, पत्नी की अनुपस्थिति में धोखे से अपने घर निमंत्रित करना इनसबका वे बिना किसी लाग–लपेट के ज़िक्र करती हैं. वे बताती हैं कि बचपन में एक मौलवी द्वारा दैहिक शोषण से वे कैसे बच निकलती हैं, लेकिन बड़ी होने पर कविता, गजल लिखने वाली लड़की को साहित्यकार सहयोगी भी नहीं बक्शते, स्त्री वहाँ भी उनके लिए सिर्फ एक देह है.
पुरुष हर स्थिति में स्त्री के चरित्र को मलिन करता है, वह उसके आमंत्रण को स्वीकार कर ले तो भी, और अस्वीकार कर दे तो भी. वह स्त्री की नकार सहन नहीं कर पाता. किश्वर के चरित्र की धज्जियां उड़ाने वाले लोग वे ही थे जिनके साथ किश्वर ने ऐसे–वैसे संपर्क से इंकार कर दिया था. स्त्री की समूची आकांक्षा–इच्छा, यौनिकता कैसे हिंसा, संदेह और अपशब्दों में तब्दील हो जाती है इसे देखने के लिए इस आत्मकथ्य को पढ़ना चाहिए. एक जगह वे अपने शौहर के बारे में लिख ही डालती हैं – ‘ऐसा भी होने लगा कि मैं उसकी जेब और वह मेरे बटुए की तलाशी लिया करता …वह एक के बाद दूसरी बदलता रहता पर रात को वापस घर लौट आता …मैं रोया करती लेकिन सीता की पंक्तियों को कभी मैंने दिल से बाहर नहीं किया’ किश्वर नाहीद ने अपनी मर्ज़ी से इसलिए विवाह किया कि वे एक स्वतंत्र जीवन जी सकें, जैसा चाहें वैसा कर सकें जो कि परंपरागत विवाह में संभव नहीं हो पाता लेकिन इस क्रांतिकारी कदम ने उनका आगे का जीवन शंका, कलह और अपमान से भर दिया. शौहर नित नयी औरतों से जुड़ने लगा और किश्वर अपने आपको पहले से अधिक विवश और लाचार पाने लगी यहाँ तक कि उनके बेटे भी पिता के पक्ष में ही खड़े रहे.
किश्वर अपनी समसामयिक राजनीति पर भी पैनी नज़र रखती हैं, इस दृष्टि से उनकी आत्मकथा एक दस्तावेज़ भी है, वे लिखती हैं –
”पाकिस्तान ने अपने वजूद को औरत के वजूद की तरह तक़सीम होते देखा. खुद को औरत की तरह दौलत की गुलामी में जकड़ा हुआ महसूस किया. आकाओं ने दो सौ साल पुराना खेल फिर दोहराया. अब यह खेल वे खुद नहीं खेल रहे थे बल्कि उसके ज़रखरीद सियासतदाँ और नौकरशाही खेल रही थी. 1965 में ‘छेड़छाड़’ आउट ताक़तों को आज़माने का खेल खेला गया. अब शिकार फिर औरतें ही थीं. पाकिस्तान लालकिले पर झण्डा लहराने के लालच में ‘थैंक यू अमेरिका’ से दो–चार हो रहा था.”
किश्वर का बतौर स्त्री यूं सब कुछ खुल कर अभिव्यक्त कर देना अपने भीतर के भय पर विजय पाने की प्रक्रिया है. इस्लामिक देश में रूढ़ियों और राजनीति पर बोलना अपने-आप में चुनौती भरा है. निजी जीवन में किश्वर परंपरा का विरोध करती हैं, सार्वजनिक जीवन में अकेलेपन के खतरे उठाती है, सत्ता हमेशा उसपर कुपित दृष्टि रखती है, उधर दूसरी ओर रूढ़ि–भंजन और विद्रोह का रोमांच तब खत्म-सा हो जाता है जब वह हड़बड़ाहट में छीनी हुई आज़ादी के फलस्वरूप एक ऐसे पुरुष को प्रेमी फिर पति के रूप में चुन लेती है, जिसके लिए स्त्री सिर्फ एक देह है. स्त्री अपना दांपत्य बचाने के लिए खुद को ‘देह’ के रूप में रिडयूस कर भी देती है पर वह भीतर से इसे स्वीकार नहीं कर पाती, उसका आत्म-देह, दमन और विद्रोह से बना है. इसी आत्म की अभिव्यक्ति वह विभिन्न तरीकों से करती है. उसकी देह पर बचपन से पहरा है. किश्वर लिखती हैं-
“जब माँ ने मसाला पीसने को कहा, तो मैंने गली में निकलकर अपने हमउम्रों से पूछा “क्या यह मेरी सगी माँ हैं ? मुझे मिर्चें पीसने को दे देती हैं और मेरी उँगलियों में मिर्चें लग जाती हैं.” आगे बढ़ूँ तो सात साल की उम्र …अब मुझे बुर्का पहना दिया गया है. मैं गिर–गिर पड़ती थी, मगर मुसलमान घरानों का रिवाज़ था. 13 साल की उम्र कि जब सारे रिश्ते के भाइयों से मिलना बंद. दुपट्टा सीने पर ढकने का हुक्म. एहतेजाज़ सदा व सहरा. 15 साल की उम्र कालेज में दाखिले के लिए भूख–हड़ताल. 19 साल की उम्र यूनिवर्सिटी में दाखिले के लिए बावेला. 20 साल की उम्र, शादी खुद करने पर असरार. 20 साल की उम्र क्या आई, शादी क्या हुई, सोच मेरा पहरेदार हो गया .”
आत्मकथ्य की विशेषता है धर्म और परम्पराओं को दमनकारी शक्तियों के रूप में पहचानना जो स्त्री को मानुषी के रूप में गरिमा देने को तैयार ही नहीं. जो धर्म एक स्त्री से उसका बचपन, उसकी युवावस्था छीन लेता है, सात साल की बच्ची को बुर्का ओढ़ने पर मजबूर कर देता है. पढ़ने के लिए, बाहरी दुनिया देखने के लिए उस स्त्री को विद्रोही भूमिका अख़्तियार करनी पड़ती है, उसके लिए कुछ भी सहज नहीं है, यहाँ तक कि मित्रताएं भी नहीं. किश्वर नाहीद लिखती हैं कि बचपन में ही उनके कान ज़बरन छिदवा दिये गए, बड़े होने पर उन्होने कानों में कुछ न पहनकर छेद बंद हो जाने दिये को विद्रोह के बीज के तौर पर चित्रित किया है, कि इस तरह एक स्त्री की ऊर्जा बचपन से ही रूढ़ि के विरोध में चली जाती है.
किश्वर नाहीद का आत्मकथ्य प्रतिरोध के साथ साथ अतीत के प्रति व्यामोह को तोड़ने के औज़ार के रूप में देखा जाना चाहिए नाहीद लिखती है –
“कविता ने मुझे बहुत दुख दिये हैं. यदि मैं कविता लिखना छोड़ देती तो हो सकता है मुझे पवित्र और कर्तव्यशील पत्नी के तौर पर स्वीकार कर लिया जाता, अपने भाई–बहनों के नजदीक होती, दुनिया के बारे में कुछ कम समझ होती, अधिकतर बातें बोलने के लिए बोलती जिसमें ईमानदारी का होना ज़रूरी नहीं, कुछ कम शत्रु बनते मेरे और यह भी महसूस करती हूँ कि अकेले रहने के कारण मेरी खुशियाँ कम कर दीं. लेकिन कविता ने मुझे संतुष्टि भी दी. मुझे समूचा संसार और मेरा पूरा देश अपनी ननिहाल जैसा लगने लगा॰ ढेर सारे दोस्तों और शुभचिंतकों के स्नेह की गर्माहट ने मुझे अनथक काम करने की प्रेरणा दी.”
(किश्वर नाहीद ,बुरी औरत की कथा :98-99)
किश्वर नाहीद का आत्मकथ्य एक ऐसी पहचान को निर्मित करने का प्रयास है जिसकी जड़ें अंतर्विरोधों में गहरी धँसी हुई हैं. ऊपर से देखने पर यह आत्मकथ्य कई विधाओं के मिश्रण और दो देशों के बीच की आवाजाही को समेंटता है पर भीतर ही भीतर पाकिस्तान की औरतों के हक़ में परचम लेकर खड़ी औरत की मुकम्मल कहानी बयान करता है. इसमें इस्लामिक देश के बनने की कथा चलती है, जिसमें लोकतन्त्र का सपना लिए देश के सामंतशाही और कट्टर बनने की प्रक्रिया पैबस्त है. इस पुस्तक के शुरुआती अध्यायों के शीर्षक मुजरा करने वाली,रानी, रखैल, अप्राप्य प्रेमी, सम्पूर्ण नारीवादिनी, शर्मनाक परंपरावादी और ईव हैं, साथ ही राष्ट्रीय राजनीति के बदलते हुए भाग्य का सैद्धान्तिक विश्लेषण भी है.
भूमिका में किश्वर ने 1940 के बाद बदलती दुनिया और स्त्रियों के स्वयम के प्रति बदलते नज़रिये का पता दिया है. मिस्र के अपने मित्र के हवाले से वे कहती हैं –
(किश्वर नाहीद ,बुरी औरत की कथा :9)
1973 में घटित हुए संवाद को वे 1993 में पुनर्स्मरण करती है और स्त्रियों के पहनावों में आए बदलावों को स्त्री स्वतन्त्रता और विभिन्न समाजों के आंतरिक तापमान की तुलना करने के लिए इस्तेमाल करती हुई कहती हैं कि उनकी बहुएँ स्पेन और अमेंरिका में शॉर्ट्स और स्कर्ट पहनती हैं. किश्वर की भतीजियाँ अमेंरिका में डाक्टरी की पढ़ाई करती हैं जबकि उनकी माँ पाकिस्तान में डोली का इस्तेमाल करती थीं.
पूरे उपमहाद्वीप में पिछले 40-45 सालों में आ रहे बदलावों का जायज़ा लेते हुए वे इस निष्कर्ष पर पहुँचती हैं कि इन सालों में वैयक्तिक स्पेस की मांग बढ़ी है और पुरुष और स्त्री दोनों को पहले से ज़्यादा आज़ादी मिली है. वे घरेलू स्पेस को राष्ट्र की आजादी के परिविस्तार के तौर पर देखती हैं, अपने ऊपर अंतर्राष्ट्रीय हस्तियों मसलन मिलान कुंडेरा, विन्सेंट गौग,मारग्रेट अटवूड, माया एंजेलो के प्रभाव को स्वीकार करती हैं.
पुस्तक के अंतिम भाग में निजी जीवन की छवियाँ, पारिवारिक तस्वीरें, देश और विदेश के दूसरे लेखकों और अकादमिक दुनिया से जुड़े लोगों के साथ के कुछ चित्र शामिल हैं. इन तस्वीरों के साथ–साथ अखबारों की कटिंग, कई निजी पत्र, जिनमें किश्वर की शादी का सर्टिफिकेट भी है, इसके साथ अमेरीकन संगीतकार डोना जीन हेगन द्वारा किश्वर को समर्पित एक संगीत –निर्मिति भी शामिल है. बहुत ही गर्व से किश्वर अपने बारे में भारतीय अखबार में छपे लेख को भी इसी में स्थान देती हैं जिसमें एक कार्टून पत्र का हवाला देते हुए 22 फरवरी 1973 को पाकिस्तान के नेशनल काउंसिल ऑफ आर्ट के रेसिडेंट निदेशक के पद से हटाये जाने की अपील है. पुस्तक के अंतिम हिस्से में अपनी बात के सत्यापन के लिए उन्होने तसवीरों और अखबार की कतरनों का सहारा लिया है. इससे ज़ाहिर होता है कि वे अपने निजी दस्तावेज़ों का पाठ करने के लिए आख्यानात्मकता की जगह जन-सत्यापन की मदद लेने के पक्ष में हैं. साथ ही उन्हें अपने समकालीनों की उपेक्षा का डर भी है और निज जीवन की घटनाओं या निजी इतिहास को राष्ट्र के वैकल्पिक इतिहास के तौर पर पढ़वा ले जाने की चिंता भी. इन दोनों छोरकी चिंताओं के बीच के तनाव को कथ्य की दरारों में देखा जाना चाहिए. आत्मकथ्य का एजेंडा है– पाकिस्तान के सामंती समाज द्वारा घोषित ‘बुरी’ औरत का प्रतिनिधित्व करना, शब्दों, तस्वीरों, निजी और सामाजिक संवाद द्वारा आत्माभिव्यक्ति के लिए आत्मकथा की विधा को अपनाना.
कहना न होगा कि वे अपने इस उद्देश्य में पूरी तरह सफल भी हुई हैं. उनकी कथा पाकिस्तानी समाज की आंतरिक तहों को उजागर करने में सफल है और इसीलिए ‘बुरी औरत की कथा है ‘जो सच्ची है तथा ईमानदारी से बात करने का खतरा उठा रही है.
मल्लिका अमरशेख की आत्मकथा ‘मला उद्ध्वस्त व्यायंचय’ (मुझे उद्ध्वस्त होना है- अंग्रेज़ी अनुवाद I want to destroy Myself-translated from Marathi by Jerry Pinto, Speaking Tiger Publishing House,2016) ने प्रकाशित होते ही तहलका मचा दिया. मराठी के कवि और दलित पैंथर के अग्रणी नेता नामदेव ढसाल की प्रेमिका और बाद में पत्नी बनी मल्लिका ने आत्मानुभवों को सबके सामने लाकर न सिर्फ निजी जीवन को सबके सामने व्यक्त करने का साहस किया बल्कि दलित राजनीति, उसके अंतर्विरोधों और उसके नेतृत्व से जुड़े व्यक्तित्व के दोहरे-तिहरे चरित्र के बारे में बेबाकी से लिखा.
मल्लिका अमरशेख की बेबाकी ने दलित आंदोलन से जुड़े लोगों को उनका शत्रु भी बना दिया. मल्लिका के पिता शाहिर अमरशेख कम्युनिस्ट कार्यकर्ता, ट्रेड यूनियन और लोक गायकी से सम्बद्ध थे वे 1960 के दशक में महाराष्ट्र की राजनीति में सक्रिय भी थे.
पिता की राजनैतिक सक्रियता ने मल्लिका को राजनीतिक दृष्टि से सचेतन बनाया साथ ही उम्र के सत्रहवें वर्ष में ही नामदेव ढसाल की कविताई और जुझारू व्यक्तित्व के सम्मोहन में ढसाल से विवाह का निर्णय ले लिया, लेकिन जीवन का यथार्थ कविता से नहीं चलता. यह जानना दिलचस्प हो सकता है कि प्रारम्भिक रोमानी आकर्षण के बाद मल्लिका ने जिसे नए सिरे से पहचाना वह नामदेव ढसाल अपने निजी जीवन में, सार्वजनिक चेहरे से बिलकुल अलग है- उसमें सभी कमज़ोरियाँ हैं. दलित नेतृत्व की ज़िम्मेंदारी उठाते उठाते नामदेव कब अपनी पत्नी के प्रति इतने क्रूर बन गए कि वह उसी घर के दूसरे हिस्से में अलग रहने लगी, एक संतान के बाद दूसरी संतान को जन्म देने को तैयार नहीं. मल्लिका पति के सार्वजनिक जीवन में आए व्यतिक्रम के बारे में लिखती है –
“कम्युनिस्ट के रूप में उसी के समाज द्वारा गतिरोध पैदा हुआ. जल्दी मिली सफलता की आँधी और असफलता के कारण अपने को फ़्रस्ट्रेशन से बचा पाना नामदेव के लिए संभव नहीं हुआ, इन स्थितियों ने उसे बिलकुल बदल डाला”…
आगे दलित कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए वह लिखती है-
(गैर-दलित ,शरणकुमार लिंबाले,पृष्ठ 187)
मल्लिका को अपनी कल्पना के राजकुमार की छवि कभी नामदेव में दिखाई पड़ी थी. वे ढसाल की कविता, उनकी राजनीतिक छवि और साहसिकता की तारीफ भी करती हैं, उन्हें समान वैचारिक स्तर पर बात करने वाला, कविहृदय, कलापारखी प्रेमी-पति मिला है जिसका कहना था मेरी कविता ही राजनीति है. शुरुआत के दिनों के बाद ढसाल अपने सामाजिक-राजनीतिक कार्यों में उलझ जाते हैं. मल्लिका कवयित्री है लेकिन वे मात्र ‘पत्नी‘ होकर जीना नहीं चाहतीं. उन्हें अपनी पहचान भी चाहिए लेकिन घर में पैसों की तंगी है, और मल्लिका के भीतर सुखी समृद्ध जीवन जीने की लालसा हमेशा की बीमारी के कारण, कमजोरी के कारण, लालन-पालन और विपुल वाचन के कारण मैं एकाकीपन और मनस्वीपन के भावुक आवरण में उलझ गयी, आज तक अपने आप को उससे अलग नहीं कर पायी.
(‘मला उद्ध्वस्त व्यायंचय’,पृष्ठ 3)
अपनी कैशोर्य कल्पना के विषय में वह लिखती हैं– “मैंने अपने मन में राजकुमार का चित्र उकेरा था. मनमौजी ..कवि, दीखने में स्मार्ट …सांवला …उसकी चेष्टाओं में पौरुष हो…मर्दानगी हो” (‘मला उद्ध्वस्त व्यायंचय’पृष्ठ 26)
युवा कल्पना के अनुसार मल्लिका की कल्पना का घर यों होता– ‘सौंदर्य-प्रसाधन, साड़ियाँ, बंगला, पियानो किस तरफ हो, काँच के दरवाजे, विशाल, विपुल रोशनी-खुली प्रसन्न हवा, लाइब्रेरी …सामने छोटा-सा तालाब …मछलियाँ …लाल-पीली दौड़ती हुई …खिड़की से दीखनेवाला मौलसिरी का पेड़ …गुलमोहर, रजनीगंधा के पौधे …पीछे घना जंगल, लाल पगडंडी’ (‘मला उद्ध्वस्त व्यायंचय’पृष्ठ 27)
मल्लिका का मिज़ाज रोमेंटिक है वह जीवन को उसके पूरेपन में जीना चाहती है उसका सपना है– ‘उबलती गरम चाय …ठंडी बरसाती हवा …बरसात का झोंका …और हाथों में कौमिक्स … ओ हो फिर क्या ? मानों ब्रहमस्वरूप के साक्षात्कार के आनंद में खो जाती. मेरी वह चरम आनंद के सुख की कल्पना होती है.'(‘मला उद्ध्वस्त व्यायंचय’पृष्ठ 06) ऐसा कवि मन लेकर मल्लिका प्रेम और गृहस्थी में प्रवृत्त हुई है.
जल्दी ही पता चल जाता है कि नामदेव और मल्लिका दोनों विपरीत ध्रुवान्तों पर स्थित हैं जो आपस में टकराते हैं, जूझते हैं और फिर अलग हो जाते हैं. उधर नामदेव ढसाल का सार्वजनिक, राजनैतिक जीवन बिखरता है और मल्लिका के स्वप्न यथार्थ से टकराते हैं. मल्लिका आत्मानुभवों को लिखती है, ये अनुभव पढ़े जाने ज़रूरी हैं क्योंकि सार्वजनिक जीवन के चेहरों का वैयक्तिक स्वरूप कैसे अलग होता है या हो सकता है साथ ही किसी भी आंदोलनकर्ता के अपने अंतरविरोध हो सकते हैं जिससे व्यक्तिगत जीवन अस्त-व्यस्त हो सकता है, इसका लेखा-जोखा पाठक को मिलता है. मल्लिका बार-बार जीवन को मुड़ कर देखती है.
स्त्री के लिखते ही ‘निज ‘राजनैतिक ‘कैसे हो सकता है यह देखने के लिए इस आत्मकथा को पढ़ा जाना ज़रूरी है. जो स्त्री कभी कविता, प्रेम और पुरुष को एक करके देखती थी वही नामदेव के पीने-पिलाने की आदत से आजिज़ आ चुकी है, अस्मिता और सांस्कृतिक एकता की राजनीति करने वाला व्यक्ति जब अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने में असफल हो जाता है तो घर के भीतर के स्पेस में वह स्त्री के लिए पीड़क साबित हो जाता है, फिर सबकुछ चाहे बच जाए प्रेम नहीं रहता. वह लिखती है कि कैसे बहुत सारा साम्यवादी साहित्य, सोवियतलैंड मैगजीन के गट्ठर के गट्ठर वह बेच दिया करती थी कि घर का खर्च चल सके.
“शुरुआत के दिनों में हम निर्धन इसलिए थे कि जो भी धन था उसे हम दलित कार्यकर्ताओं पर खर्च कर दिया करते थे नामदेव की महंगी आदतों पर भी, पर बाद के वर्षों में उसकी बीमारी और इलाज़ पर सारा पैसा खर्च होने लगा”
मल्लिका ने नामदेव के इलाज़ का खर्च साधने के लिए अपनी माँ का घर भी बेच दिया, आत्मकथा के अंग्रेज़ी अनुवाद से जो धन मिला वह भी नामदेव के इलाज़ में चला गया, लेकिन नामदेव को बचाया नहीं जा सका. मुस्लिम पिता, ब्राह्मण माता की बेटी मल्लिका की जीवन यात्रा में अंतत: उसके हाथ कुछ नहीं लगता. स्त्री की स्पष्टवादिता और उस स्पष्टवादिता के खतरे, स्व की सीमा का अतिक्रमण करके ‘निज, का ‘पर’ में परिविस्तार और फिर समाज, इतिहास, वर्ग के संघातों से गुजरती हुई स्त्री जो एक ‘स्त्री’ मात्र नहीं रह जाती बल्कि लाखों-करोड़ों की आवाज बन जाती है. भिन्न समाज और भिन्न संस्कृति की रचनाकार देखे-अनदेखे सभ्य-असभ्य सामाजिकों की चेतना को अपने अनुभव के दायरे में कितनी सहजता घेर लेती हैं.
१९.
इन मुस्लिम स्त्रियों की आत्मकथाओं का विस्तार निज से लेकर समाज तक, परिवार से लेकर राजनीति तक फैला हुआ है, कहीं वे अभिव्यक्ति की नयी विधाओं की तलाश में सिर्फ आत्मकथा को मुकम्मल पाती हैं, जबकि कुछ जो कविता, ग़ज़ल में अपनी बात ठीक उस तरह से नहीं कह सकीं, जिस ढंग से कहना चाहती थीं, वे आत्मकथा विधा को अपनाती हैं.
औपनिवेशिक अतीत और उत्तर औपनिवेशिक वर्तमान के इतिहास–लेखन के लिए ये आत्मकथाएं दस्तावेज़ बन सकती हैं. जहां प्रारम्भ में ये स्त्रियाँ अभिव्यक्ति के लिए व्याकुल दीखती हैं, साक्षर बनने के लिए, छपने की जद्दोजहद करती दिखाई देती हैं वहीं नब्बे के दशक के बाद उनमें बदलाव को रेखांकित किया जा सकता है, अब वे शिक्षा प्राप्त कर चुकी हैं, देश–विभाजन, विस्थापन ने उन्हें अनुभव–परिपक्व बना दिया है इसलिए अब वे अपने गद्य में पात्रों को रचती हैं इन स्त्रियों का आत्मकथा विधा में लेखन राष्ट्र-आख्यान से स्वयं को जोड़ने और इतिहास की धारा में स्वयं को जीवंत ऐतिहासिक चरित्रों के रूप में पहचनवाए जाने की कोशिश के रूप में देखा जाना चाहिए. कहीं जीवन को, कहीं स्वयं को पात्र बनाती हैं, उनकी कथाओं में पहले की अपेक्षा तटस्थता, रूपबंध संबंधी प्रयोग, कथानक के बेहतर रचाव के प्रयासों को रेखांकित किया जा सकता है. कहीं-कहीं कथा और आत्मकथा का अंतराल परस्पर संघनित होता दीखता है, पहले से कहीं ज़्यादा बोल्डनेस के साथ निज को खोलकर रख देने की कोशिश होती है, स्वयं को कटघरे में रखना, आत्म पर व्यंग्य करना उसी रणनीति का हिस्सा है जिससे पारिवारिक और सामाजिक सेंसरशिप की बेड़ियाँ टूटती हैं.
इसके साथ ही वैश्विक संदर्भ और घटनाएँ उसकी नज़र में हैं, मसलन अदा ज़ाफरी भले ही निज को खोलकर अभिव्यक्त करने में हिचक जाती हों पर पश्चिम के स्त्रीवादी आंदोलनों पर पैनी नज़र रखती हैं, यहीं नहीं पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान में युद्ध के मसले को गंभीरता से उठाती हैं, जिसके परिणामस्वरूप बांग्लादेश बना.
इसी तरह किश्वर नाहीद अपनी कथा कहते हुए भी तीसरी दुनिया को परखती चलती हैं, जिसके आलोक में स्वयं को, लैंगिक असमानता पर आधारित विकासशील समाज का प्रतिनिधि मानती हैं. यहीं पर वे स्थानीयता का अतिक्रमण करके वैश्विक नागरिकता की दिशा में कदम बढ़ाती हैं.
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गरिमा श्रीवास्तव
प्रोफ़ेसर भारतीय भाषा केंद्र
जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय
दिल्ली -११००६७ drsgarima@gmail.com |
इस लेख में पहला संदर्भ पवित्र क़ुरान के अध्याय सूरह अन निसा की पन्द्रहवीं आयत से लिया गया है।हिन्दी अनुवाद मौलाना वहीदुद्दीन ने किया है प्रकाशक गुड थ्रेड बुक्स,दिल्ली २०१४:७२-७३। संभवतः लेख में यह संदर्भ छूट गया है -“जो औरतें बेहयाई का काम करें…..”