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समालोचन

Home » चुप्पियाँ और दरारें : रवि रंजन

चुप्पियाँ और दरारें : रवि रंजन

लेखक-आलोचक गरिमा श्रीवास्तव के स्त्री-आत्मकथाओं पर प्रकाशित आलेखों ने इधर ध्यान खींचा है. इनमें दलित, मुस्लिम स्त्रियाँ हैं. हिंदी, तमिल, कन्नड़, मलयालम, बांग्ला आदि भाषाओं में लिखी स्त्री-आत्मकथाएँ हैं. गहन अध्यवसाय और परिश्रम से लिखी स्त्री-आत्मकथाओं पर आधारित इन आलेखों के संग्रह का प्रकाशन राजकमल ने इसी वर्ष किया है. इसकी विस्तृत विवेचना कर रहे हैं आलोचक रवि रंजन. प्रस्तुत है.

by arun dev
April 22, 2025
in समीक्षा
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चुप्पियाँ और दरारें : रवि रंजन
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चुप्पियाँ और दरारें
‘स्त्री आत्मकथा: पाठ और सैद्धांतिकी’
पर एक बहस

रवि रंजन

‘चुप्पियाँ और दरारें’ सुपरिचित कथाकार-आलोचक गरिमा श्रीवास्तव द्वारा ‘स्त्री आत्मकथा: पाठ और सैद्धांतिकी’ विषय पर विनिबंध के रूप में लिखित नौ शोध-प्रपत्रों का संग्रह है. पहली नज़र में इस पुस्तक को उलटते-पलटते हुए प्रभा खेतान की ‘उपनिवेश में स्त्री’ की बेसाख्ता याद आती है. हालाँकि विषयवस्तु एवं समाजशास्त्रीय अधिगम की समानता के बावजूद दोनों पुस्तकों की अंतर्वस्तु अलग-अलग है.  विवेच्य पुस्तक में विभिन्न भारतीय भाषाओं में रचित स्त्री-आत्मकथाओं के साथ ही अश्वेत स्त्री-आत्मकथाओं का गहन विश्लेषण करते हुए स्त्री-विषयक जिन तमाम मुद्दों की उधेड़बुन की गयी है, उन पर ‘उपनिवेश में स्त्री’ में कोई ख़ास चर्चा नहीं मिलती. इसलिए कहा जा सकता है कि ‘चुप्पियाँ और दरारें’ एक अर्थ में ‘उपनिवेश में स्त्री’ से भिन्न और आगे की कृति है.

आत्मकथा को आत्म-रति या एक तर्कहीन कर्मकांड मान लेने वाली धारणा का प्रत्याख्यान और सिर्फ़ हिन्दी के बजाए विभिन्न भारतीय भाषाओं (तमिल, कन्नड़, मलयालम, बांग्ला आदि ) में रचित स्त्री-आत्मकथाओं के साथ ही सवर्ण, दलित और मुस्लिम अल्पसंख्यक तबकों से आनेवाली स्त्रियों की आत्मकथाओं का सम्यक मूल्यांकन करते हुए गरिमा श्रीवास्तव ने स्त्रीवादी चिन्तक जूलिया स्वीन्देल्स के हवाले से यह माना है कि आत्मकथाओं को अब ऐसी संभावनाशील विधा के रूप में देखा जा सकता है, जिसमें पीड़ित और सांस्कृतिक रूप से विस्थापित व्यक्ति की और व्यक्ति से परे उसकी अभिव्यक्ति के अधिकार को दृढ़ता से रखा जा सके. उनके शब्दों में “स्त्री-आत्मकथाओं के इस निजी स्वर को, जो अपने स्व से इतर की बात कहता है, आज सुनना जितना ज़रूरी है; सुनाना उतना ही चुनौतीपूर्ण है.” जाहिर है कि शोध और आलोचना के दायरे में इन कृतियों पर सार्थक बातचीत एक बेहद विचारोत्तेजक कर्म है.

विवेच्य पुस्तक के विभिन्न अध्यायों में स्त्री आत्मकथाओं पर विचार करने के दौरान गरिमा श्रीवास्तव ने जाति, वर्ग, जेंडर के साथ ही धर्म को भी निकष के रूप में इसलिए स्वीकार किया है, क्योंकि भारतीय समाज की संरचना के विभिन्न पदानुक्रमों में सत्ता और शक्ति के केन्द्रों पर किसी वर्ग, जाति, जेंडर के साथ ही विशेष धर्म-सम्प्रदाय के लोगों का भी आधिपत्य रहा है. इस सन्दर्भ में अस्सी के दशक को प्रस्थान बिंदु मानते हुए उनका कहना है कि इस दौर में जाति, जेंडर, और वर्ग के आधार पर उत्पीड़न, वर्चस्व और भेदभाव की राजनीति को नए सिरे से समझने के प्रयास शुरू हुए और विभिन्न शोध और अध्ययन केन्द्रों में आत्मकथा और आत्मकथात्मक लेखन को समाजवैज्ञानिक शोध के लिए आधार सामग्री के रूप में शामिल किया गया. उन्होंने लिखा है:

“पितृसत्ता का सांस्थानिक अनुभव सामान होने के बावजूद वर्ण, जाति, वर्ग और धर्म के अंतराल स्त्रियों के अनुभवों को अपेक्षाकृत ज्यादा जटिल, मारक, उत्पीड़क और एक दूसरे से पृथक बनाते हैं.”(पृ.7)

विदित है कि बीजिंग में स्त्रियों के मुद्दे पर सम्पन्न हुए चौथे विश्व सम्मेलन(1995) में स्त्री-अधिकारों को मानवाधिकार और जेंडर पर आधारित भेदभाव को नस्लीय भेदभाव की श्रेणी में परिगणित करने की मांग की गई थी. यह सम्मेलन लैंगिक समानता के वैश्विक एजेंडे के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ. 189 देशों द्वारा सर्वसम्मति से अपनाया गया बीजिंग घोषणापत्र स्त्री सशक्तिकरण और लैंगिक समानता के मुद्दे पर वैश्विक नीति का एक प्रमुख दस्तावेज़ माना जाता है. ‘संयुक्त राष्ट्र’ महिला-प्रभाग ने चार विश्व सम्मेलनों की अपनी समीक्षा में कहा कि  बीजिंग में जो बुनियादी बात हुई  वह जेंडर की अवधारणा पर ध्यान केंद्रित किए जाने की ज़रूरत की पहचान थी. वहाँ यह माना गया कि समाज की संपूर्ण संरचना और इसके भीतर पुरुषों और स्त्रियों के बीच सभी संबंधों का पुनर्मूल्यांकन किया जाना चाहिए.

समाज और उसके संस्थानों के बुनियादी पुनर्गठन द्वारा ही स्त्रियों को जीवन के सभी क्षेत्रों में पुरुषों के साथ समान भागीदार के रूप में अपना उचित स्थान लेने के लिए पूरी तरह से सशक्त बनाया जा सकता है. यह परिवर्तन इस बात की पुष्टि करता है कि स्त्रियों के अधिकार मानवाधिकार हैं और जेंडरगत समानता न केवल सार्वभौमिक चिंता का विषय है,बल्कि सबके हित में है.

भारत के सन्दर्भ में गरिमा जी का कहना है कि चूँकि रंगभेद और नस्लभेद के अनुभव यहाँ जाति का बाना ओढ़कर आते हैं इसलिए उन्होंने नस्ल और रंगभेदी समाज में स्त्री-आत्मकथा–लेखन के परिदृश्य पर विचार करने के लिए अश्वेत (ब्लैक) स्त्री आत्मकथ्यों की परम्परा और प्रकृति पर भी अलग से दृष्टिपात  किया है.

“अनसुनी आवाजें – प्रतिरोध की संस्कृति” शीर्षक प्रथम अध्याय में लेखिका ने सीमोन द बोउआर के एक लम्बे उद्धरण से अपनी बात शुरू की है. इसमें एक महत्त्वपूर्ण बिंदु को रेखांकित किया गया है कि दमनकर्ता से उदारता की कोई भी उम्मीद बेमानी होती है, लेकिन कभी-कभार समाज में सुविधा-प्राप्त वर्ग के अपने विकास की वजह से नयी परिस्थितियाँ जन्म लेती हैं जिनके तहत पैदा हुई ज़रूरतों को पूरा करने के क्रम में पुरुष स्वयं स्त्री को आंशिक मुक्ति देने के लिए बाध्य हो जाता है. दूसरी बात यह कि लेखिका ने भारत समेत दुनिया के कुछ देशों के हवाले से एक ख़ास हक़ीक़त बयान किया है कि बहुभाषिक एवं बहुसांस्कृतिक समाजों में साहित्य, कला और अन्य सांस्कृतिक क्षेत्रों में उत्पीड़ित वर्गों के स्वाभाविक उभार से उनकी अनोखी पहचान बनी है. इस पहचान को ज़्यादातर हम इन वर्गों द्वारा रचित आत्मकथ्यों के माध्यम से बनता हुआ देखते हैं.

भारत में संत तुकाराम की शिष्या बहिणाबाई द्वारा मराठी भाषा में रचित आत्मकथात्मक अभंगो के ऐतिहासिक महत्त्व को रेखांकित करते हुए इस अध्याय में ‘दुखीनि बाला सरला : एक विधवा की आत्मजीवनी’ शीर्षक पहली स्त्री-आत्मकथा से लेकर स्नेहमयी चौधरी रचित ‘ऊपर टंगी लाश का आत्मकथ्य’ समेत अनेकानेक स्त्री-आत्मकथाओं पर विचार करते हुए उन्नीसवीं सदी में  पंडिता रमाबाई के पत्रों में मौजूद आत्मकथांश और फिर 1907 में छपी उनकी कृति ‘ए टेस्टीमनी ऑफ़ पॉवर इनएक्ज़ास्टेबल ट्रेज़र’ में अनुस्यूत निजी एवं आत्मकथात्मक प्रसंगों की भी संक्षेप में चर्चा की गयी है. इस क्रम में भारतीय भाषाओं में रचित लगभग तमाम स्त्री-आत्मकथाओं का उल्लेख करते हुए गरिमा जी मानती हैं कि

“इन आत्मकथाओं को स्त्री के आक्रोश और प्रतिरोध की रचनात्मक अभिव्यक्ति के रूप में देखा जाना चाहिए.” (पृ.21)

विवेच्य पुस्तक की एक ख़ासियत यह भी है कि सैद्धांतिक विवेचन-विश्लेषण के दौरान यहाँ यूरोप-केंद्रित होने से सायास बचते हुए भारतीय लेखकों और आलोचकों को भी यथास्थान उद्धृत करने में संकोच नहीं किया गया है. उदाहरण के लिए ‘आत्मकथा’ में प्रेमचन्द द्वारा कल्पना के बजाए ‘जीवन-सत्य की अभिव्यक्ति’ पर बल देने की बात का ज़िक्र करते हुए उनका एक महत्त्वपूर्ण मंतव्य उद्धृत किया गया है जिसमें उन्होंने ‘आत्मकथा’ को “अपने ह्रदय-पट को, अपनी ठोकरों को, अपनी हारों को प्रकट करना” कहा है. आत्मकथा लेखन के औचित्य के बारे में प्रेमचन्द का मानना है कि “एक आदमी अपने जीवन के तत्त्व आपके सामने रखता है, अपनी आत्मा के संशय और संघर्ष लिखता है, आपसे अपनी बीती कहकर अपने चित्त को शांत करना चाहता है, आपसे अपील करके अपने उद्योगों के औचित्य पर राय लेना चाहता है.” गरिमा श्रीवास्तव ने उत्तर-आधुनिक युग में रचित स्त्री-आत्मकथाओं के रचनात्मक अभिप्राय एवं प्रभाव के मद्देनज़र प्रेमचन्द से अपनी विनम्र असहमति व्यक्त की है. उन्होंने यह भी सवाल खड़ा किया है कि भारतीय लेखकों में जीवन-सत्य की प्रामाणिक अभिव्यक्ति का साहस आख़िर क्यों विरल है.

इस ज्वलंत प्रश्न का आंशिक उत्तर उन्हें मैनेजर पाण्डेय के यहाँ  मिला, जिनकी मान्यता है कि “स्त्रियों की आत्मकथाएँ तो इसलिए बहुत नहीं हैं कि उन्हें हमारे सामाजिक ढाँचे में सच बोलने की स्वतंत्रता नहीं है, लेकिन पुरुषों की आत्मकथाएँ इसलिए बहुत नहीं हैं कि स्वतंत्रता तो है, पर आदत नहीं है.

”इस सन्दर्भ में वस्तुस्थिति को और स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि “स्त्रियाँ बड़े पैमाने पर अपने जीवन की प्रामाणिक अभिव्यक्ति के लिए आत्मकथाओं के साथ साहित्य में नमूदार हुई हैं. जब कोई स्त्री अपनी कथा स्वयं कहती है तो उसमें प्रमाणिकता होती है और अनुभवों की प्रत्यक्ष अनुभूति से ही प्रामाणिकता आती है.” (पृ.22)

साहित्य के समाजशास्त्रीय अध्ययन की पद्धति का खुलासा करते हुए लूसिएँ गोल्डमान (1930-1970) ने लिखा है कि किसी रचना पर विचार करने के दौरान  यह पता लगाने की कोशिश की जानी चाहिए कि उसका रचनाकार मूलत: किस सामाजिक समूह से सम्बद्ध है. ध्यान देने की बात यह है कि मार्क्सवादी होने के बावजूद गोल्डमान ने रचनाकार के ‘सामाजिक वर्ग’ के बजाए ‘सामाजिक समूह’ को ढूँढने पर बल दिया है. वजह यह कि वर्ग-भिन्नता के बावजूद किसी ख़ास सामाजिक समूह से जुड़े लोगों का कमोबेश अपना एक सामूहिक अवचेतन अवश्य होता है, जिसकी जाने-अनजाने अभिव्यक्ति उस समूह से आने वाले रचनाकारों की कृतियों में होती है. स्त्री-आत्मकथाओं के सन्दर्भ में गरिमा जी का भी कहना है कि जहाँ एक ओर ‘आत्मकथा के माध्यम से स्त्री-रचनाकार स्वयं को ‘खोजती’ है वहीं दूसरी ओर ‘स्त्रियों की आत्मकथाएँ उनके समुदायों की कथा के रूप में भी सामने आती हैं.’ (पृ.22)

सवाल उठना लाजिमी है कि क्या पुरुषों की आत्मकथाएँ उनके समुदायों की कथा के रूप में सामने नहीं आती ? यह यक्ष प्रश्न है जिसका ‘हाँ’ या ‘ना’ में उत्तर देना मुश्किल है.अगर सिर्फ़ एक उदाहरण से बात स्पष्ट करनी हो तो कहा जा सकता है कि हरिवंश राय ‘बच्चन’ की चार खण्डों में प्रकाशित आत्मकथा उनके समुदाय या बिरादरी की कथा नहीं है पर लक्ष्मण गायकवाड की आत्मकथा ‘उठाईगीर’ उनके समुदाय की भी जीवंत कथा है.

इस अध्याय में मिशेल फ़ूको का एक कथन उद्धृत किया गया है : “स्त्री देह अनगिनत अनुशासनों और नियंत्रणों के निशाने पर है.” ऐसे में स्त्री-आत्मकथाओं के बारे में लेखिका का यह कहना मानीखेज़ है कि “स्त्री की आत्माभिव्यक्ति को उसकी वैचारिक और राजनीतिक लड़ाई के अस्त्र के रूप में देखा जाना ज़रूरी है. स्त्री लिखकर अपने अनुभव संसार का पुनर्सृजन करती है.” वाल्टर बेन्यामिन के हवाले से ‘आत्मकथा’ को स्मृति और विस्मृति के द्वंद्व की उपज मानते हुए गरिमा श्रीवास्तव का कहना है कि मनुष्य की स्मृति में कई बिम्ब सुरक्षित रहते हैं. ये स्मृतियाँ हर्ष, आवेग, सुख, आनंद के साथ-साथ संघर्ष और यातना से सम्बद्ध होती हैं जिनमें त्रासदी, पीड़ा और यातना के स्मृति-बिम्ब अपेक्षाकृत स्थायी होते हैं. यही स्मृतियाँ भविष्य की रणनीति तय करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं.

हाल के वर्षों में स्त्री-लेखन पर पुनर्विचार और शोध करने की ज़रूरत महसूस किए जाने को रेखांकित करते हुए इसे लेखिका ने भारतीय सांस्कृतिक इतिहास की दरारों को भरने के उद्देश्य से उसकी असंगतियों को दूर करने के लिए किया जाने वाला सारस्वत प्रयास माना है. उनके अनुसार साहित्येतिहास को समग्रता में सामने लाने के लिए स्त्रियों की आत्मकथा की परम्परा और उनकी वर्तमान अवस्था पर विचार किया जाना अनिवार्य है, क्योंकि इससे सामाजिक अवधारणाओं, विचारधाराओं और औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था तथा समाज-सुधार के कार्यक्रमों में पारस्परिक सम्बन्ध को व्याख्यायित-विश्लेषित करने के लिए स्त्री-रचनाशीलता की अब तक उपेक्षित कड़ियों को ढूँढ़ा जा सकता है.

स्त्री-आत्मकथाओं में यातना के अनुभवों के दुहराव के इल्ज़ाम पर नैन्सी के. मिलर के हवाले से रोशनी डालते हुए कहा गया है कि ‘स्त्रियों के आत्मकथ्य के पीछे आत्मानुमोदन की इच्छा ही प्रेरणा का काम करती है.’ चूँकि स्त्रियाँ लैंगिक विभेद का शिकार बनती हुई सामाजिक अपमान और उपेक्षा की  शिकार भी होती हैं, इसलिए उसमें तथाकथित दुहराव अस्वाभाविक नहीं है. मिलर ने स्त्रियों को स्मृतिजीवी कहा है, जिस वजह से वे पुरुषों की तरह आसानी से किसी घटना अथवा प्रसंग को विस्मृत नहीं कर पातीं. चूँकि तल्ख़ यादें ज़िन्दगी-भर  पीछा नहीं छोड़तीं, इसलिए वर्णन-चित्रण के दौरान पुनरावृत्ति से पूरी तरह बचना शायद संभव नहीं हो पाता. बहुत हद तक यही बात इतिहास-प्रवाह में अनेकानेक कारणों से पीछे छूट गए तमाम हाशिए के समुदायों द्वारा रचित आत्म-गल्प पर भी लागू होती है. इस प्रसंग में गरिमा श्रीवास्तव का एक कथन विचारणीय है कि

“स्त्री-पाठ मेटाक्रिटिसिज्म की मांग करता है. स्त्री-पाठ का मेटाक्रिटिसिज्म ही अर्थ और सत्य की उपलब्द्धि कराने में सक्षम हो सकता है. देरिदा की विसंरचनावादी आलोचना अंतर्पाठीयता को स्वीकारती है. यहाँ पाठ के साथ रचनाकार द्वारा निर्दिष्ट यथार्थ, आत्मकथात्मक घटनाओं, प्रामाणिक घटनाओं, दृश्यों-तथ्यों, और वास्तविक तत्त्वमीमांसीय इकाइयों का कोई सरोकार नहीं रहता….यह एक शिल्पगत कौशल है जो पाठ को कहीं-से-कहीं जोड़ देता है,सन्दर्भ को विपर्यस्त कर देता है.” (पृ.52)

स्त्री-आत्मकथाओं में मैत्रेयी पुष्पा रचित ‘गुड़िया भीतर गुड़िया’ सरीखी रचनाओं को लेखकीय निर्मिति और बेबी हालदार की ‘आलो-आँधारि’ सरीखी कृतियों को स्वत:स्फूर्त सृजन बताते हुए इस ग्रन्थ में स्वत:स्फूर्त रचना-कर्म के आत्यन्तिक महत्त्व को अनेक उदाहरणों एवं उद्धरणों से जिस बारीकी के साथ पुष्ट किया गया है, वह मूल पुस्तक में ही पठनीय है. प्रसंगवश हमारे समय में बड़ी संख्या में स्त्री एवं पुरुष रचनाकारों द्वारा लिखी जा रही अच्छी-बुरी आत्मकथाओं के मददेनज़र याद आ सकते हैं मार्क्स, जिन्होंने प्रकारांतर से केवल स्वत:स्फूर्त रचना-कर्म को ही महत्त्वपूर्ण माना है. मार्क्स ने लिखा है कि

“सच्चा कलाकार उसी प्रकार सृजन करता है जैसे रेशम का कीड़ा रेशम पैदा करता है. किन्तु, साहित्य के वे सर्वहारा जो बाज़ार को मद्देनज़र रखते हुए प्रकाशकों की मांग पर लिखते हैं, वे सृजन के बजाए किताबों का उत्पादन करते हैं.”

विवेच्य पुस्तक में ‘सुशीला राय की ‘एक अनपढ़ कहानी’ एवं बेबी हालदार की ‘आलो-आंधारि’ सरीखी हाशिए पर खड़ी स्त्रियों की आत्मकथाओं के तुलनात्मक विवेचन-विश्लेषण से गुज़रना और डोरिस वीर्सबैक नामक एक जर्मन घरेलू नौकरानी तथा वेरेना कान्जेंट नामक स्विस कारखाने की स्त्री-श्रमिक के आत्मकथ्यों के अनोखेपन पर की गयी संक्षिप्त आलोचकीय टिप्पणी से दो-चार होना किसी भी जागरुक पाठक के लिए नया अनुभव होगा.

भारत में आत्मकथा-लेखन की परम्परा में स्त्रियों के हस्तक्षेप से ‘आत्मकथा’ की वैधानिक एवं भाषिक संरचना में आए बदलाव के साथ ही इस विधा के माध्यम से अभिव्यक्त अब तक अवर्णित अनदेखे-अनजाने अनुभवों से साहित्य के समृद्ध होने को एक सांस्कृतिक उपलब्द्धि के रूप में रेखांकित करते हुए गरिमा जी ने अंग्रेज़ी में रचित अश्वेत स्त्री-आत्मकथाओं के साथ ही विभिन्न भारतीय भाषाओं की ऐसी अनेक स्त्री-आत्मकथाओं को आलोचना का विषय बनाया है, जिनकी चर्चा हिन्दी में अबतक नहीं हुई है. संभवत: इनमें से ज़्यादातर कृतियों के अबतक हिन्दी अनुवाद ही नहीं हुए हैं.

विजयदेव नारायण साही ने आलोचना को ‘साहित्य का दर्शनशास्त्र’ कहा है.पर दुखद है कि आलोचना के लिए कृतियों के चुनाव के सन्दर्भ में हिन्दी साहित्य के अधिकतर कथित ‘दर्शनशास्त्री’ कई प्रकार के पूर्वग्रहों से ग्रस्त रहे हैं. ‘आत्मकथा सैद्धांतिकी’ शीर्षक द्वितीय अध्याय में ‘आलोचना’ के क्षेत्र में काम करने वाले छोटे-बड़े आलोचकों द्वारा आत्मकथा और ख़ास तौर से स्त्री-आत्मकथाओं की लम्बे समय तक उपेक्षा और बाद में उन पर अनर्गल टिप्पणी को जिस तल्ख़ अंदाज़ में जगह-जगह प्रश्नांकित किया गया वह मीर तकी मीर के एक व्यंग्यात्मक शे’र की याद दिलाता है:

सारे आलम पर हूँ मैं छाया हुआ
मुस्तनद है  मेरा  फ़रमाया हुआ.

 इस क्रम में स्त्रीवादी विचारक डोम्ना सी. स्टेंसन को उद्धृत किया गया है, जिन्होंने आत्मकथा का सम्बन्ध शक्ति और ज्ञान से जोड़ा है. गरिमा जी लिखती हैं कि

“पुरुष की शक्ति केन्द्रिकता के मूल में स्त्री की शक्तिहीनता निहित है….आलोचना-सरणी में स्त्री-आत्मकथाओं को शामिल किया जाना पिछले पच्चीस-तीस वर्षों की ताज़ातरीन घटना है. स्त्रियों का अनुभव संसार सीमित होता है, अपना रोना-गाना थोड़ा बहुत लिखकर चुप हो जाएँगी – यह समझना आलोचकों के लिए सुविधाजनक था.” (पृ.57)

सबाल्टर्न अध्ययन हेतु स्त्री-आत्मकथाओं की सैद्धांतिकी और प्रतिमानों की खोज को अनिवार्य बताते हुए पश्चिम में इस विषय पर हुए शोध कार्यों विवरण देने के बाद इस अध्याय में जो बारह विचारणीय बिंदुओं की शिनाख्त की गयी है, वे हिन्दी के भावी शोधार्थियों के लिए बेहद उपयोगी हैं और इन्हें मूल पुस्तक में ही पढ़ा जाना चाहिए.

नैन्सी चोदोरोव और शीला रॉबाथम की मनोविश्लेषणात्मक और ऐतिहासिक विश्लेषणात्मक दृष्टि के तहत स्त्री को ‘निज’ के तौर पर खोजने और देखने पर बल देने को लेकर प्रतिपादित सिद्धांतो का हिन्दी आलोचना में अभाव को रेखांकित करते हुए इस अध्याय में इनके बारे में संक्षेप में कुछ बिन्दुओं को समझने-समझाने की जो पुरजोर कोशिश की गयी है, उसका सार प्रस्तुत करना यहाँ असंभव है. मुक्तिबोध के ‘रचना क्यों’ की तरह ‘कस्मै देवाय हविषा विधेम’ की मुद्रा में सवाल करते हुए गरिमा श्रीवास्तव ने लिखा है: “कोई स्त्री आत्मकथा की रचना में तत्पर क्यों होती है ? आत्मकथ्य वह किसके लिए लिखती है?” उनकी मान्यता है कि

“अपने जीवन को पन्नों पर उतार देना बहुत साहस की मांग करता है. साथ ही इसे परिवर्तनकामी शक्तियों के आगमन और स्वीकार से जोड़कर देखा जाना चाहिए… आत्मकथा-लेखन को अपने तनाव और चिंतन-मनन की रचनात्मक शेयरिंग से जोड़ा जा सकता है. हालाँकि एक स्त्री देशकाल की सांस्कृतिक सीमाओं से परे आत्माख्यान लिखते या कहते समय निरंतर इस तनाव से जूझती है कि वह जीवन-सत्य के किन पहलुओं को छोड़े और जोड़े. चारित्रिक दुर्बलता और फिसलन के प्रसंगों में से किन्हें लिखे और किन पर मौन रह जाए, सत्य और कल्पित प्रसंगों में से क्या रखे और क्या त्याग दे !”

इस द्वंद्व को गहराई से समझने के लिए स्त्रीवादी विचारक रीता फेल्स्की को उद्धृत किया गया है जो मानती हैं कि

“स्त्रियों की आत्मकथाओं में इच्छा और सत्य का तनाव दिखाई देता है. उनका ईमानदार आत्म निरंतर सत्य के पक्ष में बोलने के लिए पर्युत्सुक रहता है जबकि बाहरी दबाव इस अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाते हैं.” (पृ.77)

द्वितीय अध्याय में ही नैंसी चोदोरोव की एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तिकी को डिकोड करते हुए विस्तार से समझाया गया है कि कैसे लैंगिक भिन्नता की वजह से स्त्री और पुरुष की मानसिक संरचना और समाजीकरण में परस्पर अंतराल दिखाई देता है और स्त्रियों के अवचेतन में मौजूद अंतराल के इस एहसास से किस प्रकार स्त्री-पाठ एक हद तक अवश्य प्रभावित होता है. बावजूद इसके, नैंसी चोदोरोव की एक मान्यता से गरिमा श्रीवास्तव की शत-प्रतिशत सहमति बहसतलब है कि

“माता और पुत्री का सम्बन्ध स्त्री-व्यक्तित्व निर्माण की केन्द्रीय भूमिका निभाता है…लेस्बियन स्त्रियों का पारस्परिक आकर्षण वस्तुत: अपनी माता के प्रति अव्यक्त प्रेम का ही परिविस्तार है. माँ और बेटी– दोनों एक-दूसरे में विलय होने का अनुभव बहुत गहराई से करती हैं और समलैंगिक स्त्रियाँ माँ-बेटी की भावनाओं को पुन: जीने और सम्बन्ध के पुनर्निर्माण का प्रयास करती हैं.” (पृ.75)

समलैंगिक महिलाओं के संबंध में माँ-बेटी के रिश्ते पर हालाँकि कोई एकल, निश्चित मनोवैज्ञानिक राय नहीं है, पर कुछ सिद्धांत और शोध बताते हैं कि माँ-बेटी का बंधन महत्वपूर्ण है और समलैंगिक पहचान को कभी-कभी माँ के लिंग के मूल्यांकन में कथित असंतुलन  या पारंपरिक लैंगिक भूमिकाओं की अस्वीकृति की प्रतिक्रिया के रूप में देखा जा सकता है. पर यह हर स्थिति में लागू होता हो, यह ज़रूरी नहीं है.

‘अ वेरी ईजी डेथ’ शीर्षक संस्मरण में सिमोन द बोउआर ने अपनी माँ फ़्रांकोइस के साथ जिस जटिल सम्बन्ध का चित्रण किया है, उससे भी इस मुद्दे पर कुछ रोशनी पड़ सकती है.उन्होंने अपनी माँ को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में चित्रित किया है जो अपनी बेटियों और ख़ास तौर पर सिमोन और हेलेन के ज़रिए अपना जीवन जीती थी. सिमोन के अनुसार माँ-बेटी के बीच सम्बन्ध की इस गतिकी की विशेषता शक्ति असंतुलन की भावना में निहित है, जिसके तहत माँ की अपनी इच्छाएँ और आकांक्षाएँ बेटियों के ज़रिए प्रकट होती थीं.

‘अथ सवर्ण स्त्री प्रति-आख्यान’ शीर्षक तृतीय अध्याय में बांग्ला और तेलुगु की पहली स्त्री-आत्मकथाओं पर विचार करने के क्रम में क्रमश: राससुन्दरी देवी और ए.सत्यवती रचित ‘आमार जीबन’ (1868) और ‘आत्मचरितमु’ (1934) का पाठ-विश्लेषण करते हुए यह रेखांकित किया गया है कि भारतीय पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था के औपनिवेशिक दौर में मुश्किल से लिखना-पढ़ना सीख पाने वाली दोनों स्त्रियाँ सवर्ण हैं, लेकिन स्त्री होने के कारण वे भयानक दमन की शिकार हैं. लेखिका ने राससुन्दरी देवी के ‘आमार जीबन’ पर विस्तार से विवेचन-विश्लेषण प्रस्तुत करते हुए उसे औपनिवेशिक भारत में सवर्ण स्त्री के बयान के रूप में देखे-पढ़े जाने पर बल दिया है, जहाँ लड़कियों के विवाह की आयु दस-बारह वर्ष थी. इस कृति में तत्कालीन वैश्विक परिदृश्य, अंग्रेज़ी राज या उस जमाने की राजनीति पर किसी टिप्पणी के अभाव के कारणों की पड़ताल करते हुए कहा गया है कि

“या तो रचनाकार समसामयिक विषयों पर टिप्पणी करके कोई ख़तरा मोल नहीं लेना चाहती अथवा वह अखबारों की दुनिया से नावाकिफ़ गृहस्थी की व्यस्त दिनचर्या से समय निकालकर किसी तरह लेखन में रत है.” (पृ.92)

एक लम्बे समय तक विस्मृति के गर्भ में दबी रही ए.सत्यवती रचित तेलुगु की पहली स्त्री-आत्मकथा ‘आत्मचरितमु’ की अंतर्वस्तु पर इस पुस्तक में विस्तार से रोशनी डालते हुए औपनिवेशिक शासन के अनन्तर स्त्री-लेखन के तेलुगु-परिदृश्य को जानने-समझने के लिए इसे अत्यंत महत्त्वपूर्ण कृति के रूप में मान्यता दी गयी है. इस रचना में बाल-विधवा आत्मकथाकार सत्यवती द्वारा ख़ुद को पतिव्रता कहने के बावजूद कथित ‘पातिव्रत्य धर्म’ की पोषक व्यवस्था के प्रति  आलोचनात्मक रुख के चलते जिस तनाव की सृष्टि होती है वह वस्तुत: एक पतिव्रता की इच्छा और मुक्ति चाहनेवाली स्त्री के बीच का तनाव है.

‘आत्मचरितमु’ के पुनर्पाठ की महती आवश्यकता पर बल देते हुए गरिमा जी ने ए.सत्यवती द्वारा बार-बार पतिव्रताओं की परम्परा को पुनर्जीवित करने के साथ ही पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री के दमन को लेकर व्यक्त की गयी चिंता से उपजे अंतर्विरोध को गहराई के साथ डिकोड किया है. अंत:साक्ष्य के आधार पर ‘आमार जीबन’ में पति की केवल एक बार चर्चा करने वाली राससुन्दरी देवी के बरअक्स ‘आत्मचरितमु’ में पति के साथ रोमांस का साहित्यिक शैली में निर्द्वंद्व भाव से वर्णन करनेवाली सत्यवती को ‘नई स्त्री’ घोषित करते हुए इस अध्याय में दोनों आत्मकथाओं के सांगोपांग अध्ययन-क्रम में तत्कालीन स्त्री-मनोविज्ञान के जो विलक्षण सूत्र खोजे गए हैं उनका सारांश प्रस्तुत करने की कोई भी कोशिश हास्यास्पद हो जाने के लिए अभिशप्त होगी. इसलिए उसे मूल पुस्तक में ही पढ़ा जाना चाहिए.

बांग्ला स्त्री-आत्मकथाओं पर केन्द्रित चतुर्थ अध्याय में औपनिवेशिक भारत और ख़ास तौर पर तत्कालीन बंगाल की ऐतिहासिक-राजनीतिक एवं सांस्कृतिक परिस्थितियों के मद्देनज़र बंगाली समाज के विभिन्न तबके में स्त्री की हालत पर रोशनी डालने के दौरान प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित सामग्री का मुफ़ीद इस्तेमाल करते हुए लेखिका ने बांग्ला के स्त्री-आत्मकथ्यों का कालक्रमानुसार छह चरणों में वर्गीकरण किया है. इस क्रम में प्रथम चरण के अंतर्गत उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में जन्मी स्वर्णकुमारी देवी, प्रसन्नमयी देवी, गिरीन्द्रमोहिनी दासी, कृष्णाभामिनी दास जैसी अनेक स्त्रियों के आत्मकथात्मक लेखन से लेकर आज़ादी के बाद पैदा हुईं स्त्री-आत्मकथाकारों की कृतियों और अंतत: छठे चरण के अंतर्गत बांग्लादेश की नूरजहाँ बोस, सुनंदा सिकदार और तसलीमा नसरीन के साथ ही ‘आत्मकथा’ के बजाए आत्मकथात्मक गद्य और पद्य की रचयिता नवाब फैज़ुन्निसा समेत अनेक मुसलमान लेखिकाओं के कृतित्व पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है.

इस प्रसंग में आत्मकथात्मक-लेखन के दरम्यान पति की चर्चा से सायास बचनेवाली स्त्री, पति से हर मुद्दे पर सहमत स्त्री, पति से अनेक मुद्दे पर असहमत स्त्री, विद्रोहिणी स्त्री आदि के लेखन की पीछे की मनोसामाजिकी को उजागर करने वाले अनेक बिंदु उभरकर सामने आए हैं, जिनसे  भविष्य में शोध को दिशा मिल सकती है. उदाहरण के लिए  ‘जनैको गृह्बधूर डायरी’ में अपनी शिक्षा-दीक्षा के लिए आर्थिक दृष्टि से सबल पृष्ठभूमि वाले पति के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने वाली कैलासबासिनी मित्र द्वारा अस्वच्छ प्रसूति गृह एवं असुरक्षित प्रसव-प्रक्रिया का चित्रण दिल दहला देने वाला है.पुत्री के जन्म से प्रसन्न पति को पत्रोत्तर न लिख पाने की मजबूरी बयान करती हुई कैलासबासिनी मित्र लिखती हैं:

“पर मैं उन्हें कैसे पत्र लिखूँ ? मैं यहाँ प्रसूति गृह में सीलन भरी फर्श पर गीली दीवारों के बीच हूँ. मैं भले ही कितने बड़े आदमी की पत्नी हूँ या बड़े आदमी की बेटी हूँ पर सौर गृह में मुझे मात्र एक गद्दा, एक तकिया और एक कम्बल मिला है. इसी से मुझे ये दिन काटने हैं….मेरे पति को इन सबके बारे में कुछ मालूम नहीं है. वे तो हर पत्र में शिकायत ही करते हैं कि मैं उन्हें पत्र नहीं लिखती और उनसे दूर रहकर उन्हें सता रही हूँ. वे लिखते हैं कि मेरे पत्र के उत्तर में तुम सिर्फ़ एक पंक्ति लिख दिया करो, पर तुम नहीं लिखती हो. अब मैं तुम्हें फिर कभी पत्र नहीं लिखूंगा. मैं डर गयी थी, क्योंकि उनका एक-दो दिन कोई पत्र नहीं आया. फिर सूतिका पूजन के लिए रखी कलम और स्याही लेकर मैं उन्हें पत्र लिखने बैठी.” (पृ.119 पर उद्धृत)

अपनी मृत्यु के तीन साल पहले परम्परा-पोषित ‘काशीवास’ के दिनों में लगभग दृष्टिबाधित हो चुकी निस्तारिणी देवी नामक एक अनपढ़ ख़ानदानी बेवा द्वारा अपने भतीजे को बोलकर लिखवाई गयी ‘सेकेले कथा’ शीर्षक आत्मकथ्य पर गरिमा जी ने बहुत ही मनोयोग से लिखा है. उन्होंने सूचना दी है कि इस आत्मकथ्य के चार भाग निस्तारिणी देवी के जीवन काल में ही ‘भारतवर्ष’ पत्रिका में छपे थे और उनके निधन के उपरान्त बाकी तीन भाग प्रकाशित हुए.

आत्मकथ्य के सातों भाग बहुत बाद में पुस्तकाकार प्रकाश में आ पाए. ‘सेकेले कथा’ में कुलीन विधवा का जीवन, एकाकी वैधव्य, आर्थिक अभाव के साथ ही तत्कालीन बंगाली अभिजनों में प्रचलित बहु-विवाह प्रथा का हैरत में डाल देने वाला तफ़्सील मौजूद है. गौरतलब है कि निस्तारिणी देवी के नाना की छप्पन पत्नियाँ थीं और ख़ुद उनका विवाह जिस कुलीन वर से हुआ था उसकी तीस पत्नियाँ थीं. उस ज़माने में तथाकथित ऊँचे ख़ानदानों की रीति-नीति के अनुसार निस्तारिणी कभी पतिगृह नहीं गईं और विवाह के बाद मायके में ही रहती हुई कुछ समय बाद विधवा हो गईं. उनका अधिकांश जीवन भाई-भतीजों के घर नौकरानी की तरह उच्छिष्ट भोजन पाते हुए बीता.उस वक़्त के समाजी अक़ायद के तहत बतौर बेवा वे परिवार में बदनुमा मानी जाती थीं और एक सूनी उदास कोठरी में पड़ी रहती थीं.

इस सन्दर्भ में ढाका स्थित बँगला अकादमी से प्रकाशित गुलाम मुर्शिद की ‘रिलक्टेंट डेब्यूटेंट : रिस्पोंसेस ऑफ़ बंगाली वूमन टू मॉडर्नाइजेशन’ पुस्तक के हवाले से गरिमा जी ने लिखा है कि

“इन विधवाओं को अक्सर ख़तरनाक समझा जाता था. इनकी तुलना डायन से की जाती थी. युवा विधवाओं को विवाह जैसे पवित्र आयोजन के लिए अशुभ समझा जाता था. उन्हें बहुत कम मात्रा में शाकाहारी भोजन दिया जाता था, ताकि उनकी यौनिकता पर नियंत्रण रखा जा सके. कई बार विधवाएँ गर्भवती हो जाती थी. ऐसे में गर्भपात आम बात थी. इसके अलावा उनमें से कई लोक-लज्जा से आत्महत्या भी कर लेती थीं, जिसे सामाजिक स्वीकृति प्राप्त थी. (एक अनुमान के अनुसार 1853 में अकेले कोलकाता में 12,4019 देह-श्रमिक थीं.1867 तक इनकी संख्या बढ़कर 30,000 हो गयी. ‘अमृतबाजार पत्रिका’ के अनुसार इनमें 90 प्रतिशत स्त्रियाँ विधवाएँ थी.)” (पृ.205) 

मलयालम स्त्री-आत्मकथाओं पर केन्द्रित पाँचवें अध्याय में केरल के बारे में आम तौर पर फैले वहम का पर्दाफ़ाश करते हुए सुगता कुमारी की आत्मकथा के हवाले से बताया गया है कि कैसे मलयाली स्त्री-आत्मकथाकार ख़ुद को ‘सेंसर’ करती हैं, ताकि वे अपने सगे-सम्बन्धियों को आहत करने और उनकी खरी-खोटी सुनने से बची रहें. ‘सुगता कुमारी मानती हैं कि ईश्वर ने उन्हें तीन अभिशाप दिए हैं – पहला लेखिका होना, दूसरा सामाजिक कार्यकर्ता होना और तीसरा स्त्री होना.’ इस अध्याय में बी.कल्याणी अम्मा, बालमणि अम्मा, मेरी जौन थोट्टम, ललिताम्बिका अंतर्जनम आदि आरंभिक मलयाली स्त्री-आत्मकथाकारों से लेकर भारतीय उच्चन्यायालय में प्रथम स्त्री-न्यायधीश पद को सुशोभित करने वाली अन्ना चांडी की 1971 में ‘मलयालम मनोरमा’ में धारावाहिक रूप से प्रकाशित आत्मकथा के साथ ही हलवाथ बीवी एवं के. मीनाक्षी सरीखी अनेक कम्युनिस्ट नेताओं के आत्मकथ्यों, माधवी कुट्टी उर्फ़ कमलादास की ‘एंटे कथा’(1976), सरसू की ‘दिस इज माई स्टोरी एंड सांग्स’, सी.के.जानू की ‘मदर फौरेस्ट: द अनफिनिशड स्टोरी ऑफ़ सी.के.जानू’ (2003), नलिनी जमीला की ‘सेक्स वर्कर की आत्मकथा’(2005), सिस्टर जेस्मी की आत्मकथा ‘आमीन’(2009) आदि कई  महत्त्वपूर्ण स्त्री-आत्मकथाओं का गहराई और विस्तार के साथ अध्ययन प्रस्तुत किया गया है.

इनमें सरसू, जानू, नलिनी जमीला और जेस्मी की आत्मकथाएँ हाशिए की स्त्रियों की रचनाएँ हैं, जिनमें उनके और उनके समुदाय की स्त्रियों द्वारा अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए किया जाने वाला संघर्ष व्यक्त हुआ है. उदाहरण के लिए सरसू की आत्मकथा विकलांग जनों की व्यथा-कथा भी है. वे विकलांगों की सहायता के लिए निर्मित ‘चेशौयर होम’ में विकलांगों के साथ होने वाले भेदभाव और स्त्रियों की परस्पर मित्रता पर पुरुषों द्वारा इल्ज़ाम-तराशी  की चर्चा करती हैं. हिन्दी में सुमित्रा महरोल की आत्मकथा में भी विकलांगों के साथ दुर्व्यवहार का उल्लेख मिलता है. विवेच्य पुस्तक में कहा गया है कि आत्मकथा-लेखन द्वारा प्रतिरोध की संस्कृति का निर्माण करने वाली

“ये हाशिए की स्त्रियाँ हैं जो समाज से बहिष्कृत हैं. कभी विकलांगता के कारण, कभी अल्पसंख्यक होने और कभी नैतिक बहिष्कृति तथा धार्मिक भ्रष्टाचार के खिलाफ़ आवाज़ उठाने के कारण, लेकिन ये सभी बहिष्कृत स्त्रियाँ प्रतिरोध दर्ज़ करती हैं, उपेक्षित तबके की आवाज़ बनती हैं, अपनी कथा कहकर ‘अधीनस्थ’ की भूमिका से ऊपर उठकर नई पहचान बनाती हैं. उनके लिखे टेक्स्ट का पुनर्पाठ समाज के अवचेतन में बैठे उपेक्षा के भाव को तोड़ने और ‘स्त्री’ को समझने में मददगार साबित हो सकता है.” (पृ.247)

छठे अध्याय में ‘कन्नड़ स्त्री-आत्मकथा’ पर विचार करते हुए इसे ‘आरोहण से अनावरण की यात्रा’ के रूप में चिह्नित किया गया है. आरंभ में कदाचित आत्मकथा-लेखन के औचित्य प्रतिपादन के लिए विश्वविख्यात स्त्री-कवि और विचारक माया एंजेलो की ‘आई नो व्हाई द केज्ड बर्ड सिंग्स’ पुस्तक से एक मार्मिक कथन उद्धृत किया गया है :

“अपने अंदर छिपी हुई अनकही कहानी को सहन करने से बड़ी कोई पीड़ा नहीं होती.” (“There is no greater agony than bearing an untold story inside you”)

इस अध्याय के आरंभ में न्यायमूर्ति हेमा समिति की रिपोर्ट के बाद दक्षिण भारत के फ़िल्म जगत में उठे तूफ़ान और मलयालम,तमिल एवं कन्नड़ फिल्मों से जुड़ी अनेक स्त्री-कलाकारों के यौन-शोषण के मुद्दे पर अभिनेत्रियों के हैरान कर देने वाले बयानों के साथ ही कुछ राजनीतिज्ञों द्वारा इस मामले की लीपापोती की कोशिश को उजागर किया गया है. उदाहरण के लिए केरल के संस्कृति मंत्री द्वारा फ़िल्म उद्योग में स्त्री-शोषण के मुद्दे को शक्ति-संरचना से जोड़ते हुए यह कहा गया था कि ‘यह तो समाज में होता ही है.’

विषयांतर का ख़तरा उठाते हुए प्रसंगवश भारत की पहली दलित फ़िल्म-अभिनेत्री पी.के.रोज़ी का ज़िक्र ज़रूरी है, जिनका असली नाम राजम्मा था और जिन्होंने मलयालम सिनेमा के जनक माने जाने वाले जे.सी.डैनियल द्वारा निर्देशित फिल्म ‘विगतकुमारन’ (‘खोया हुआ बच्चा’) में पहली और आख़िरी बार काम किया था. बी.बी.सी. की मलयालम सेवा से प्राप्त सूचना के अनुसार इस फिल्म का प्रीमियर 1930 में हुआ था जिसे देखने रोज़ी के परिवार के लोग भी गए थे, पर दलित होने की वजह से उन्हें सिनेमा हॉल में प्रवेश नहीं करने दिया गया. कहा जाता है कि उस फ़िल्म में एक दलित स्त्री को सवर्ण स्त्री के रूप में अभिनय का अवसर देने के कारण डैनियल पर जानलेवा हमला हुआ. भीड़ ने हमला रोज़ी के घर पर भी किया, पर  वे अपने पड़ोसी केशवन पिल्लई की मदद से एक ट्रक पर सवार होकर तमिलनाडु के नागरकोइल शहर भागने में सफल हुईं. बाद में केशवन से उनका विवाह भी हुआ. अब उस फ़िल्म कोई प्रति उपलब्ध नहीं है. इन्टरनेट पर पी.के.रोज़ी की याद में रचित एक मलयालम कविता और उनकी एकमात्र तस्वीर को छोड़कर कोई जानकारी नहीं मिलती:

मैं जो खून बहाती हूँ उसका रंग क्या है ?
तुम जो खून बहाते हो उसका रंग क्या है ?
लाल ! लाल ! लाल ! लाल !
तो फिर मैं पुलाया (दलित) क्यों हूँ
और तुम ब्राह्मण क्यों हो
मैं अशुद्ध क्यों हूँ और तुम शुद्ध कैसे हो
जो खाना मैं खाती हूँ, जो पानी मैं छूती हूँ
जिस ज़मीन पर मैं क़दम रखती हूँ, जिस हवा में मैं साँस लेती हूँ,
जो आँसू मैं बहाती हूँ
वह अशुद्ध क्यों है ?
(मलयालम से बी.बी.सी.द्वारा अनूदित)

बी.बी.सी. संवाददाता से बातचीत करते हुए पी.के.रोज़ी के भतीजे विजू गोविन्दन ने कहा कि मलयालम सिनेमा एक दलित स्त्री से पैदा हुआ जिसे तब सामाजिक कारणों से अपनी पहचान छिपानी पड़ी थी, पर आज भी मलयालम फ़िल्म उद्योग में बिरादरी को लेकर नज़रिए में कोई ख़ास बदलाव नहीं आया है.

कन्नड़ स्त्री-आत्मकथाओं पर विवेच्य पुस्तक में शोध या खोज, अस्तित्व की पहचान, अस्मिता-बोध और स्वायत्तता जैसे चार बिन्दुओं के अंतर्गत विचार किया गया है. इस क्रम में विस्तार के साथ बतलाया गया है कि कैसे शुरूआती दौर में कन्नड़ स्त्रियों ने अपनी अस्मिता के बारे में कुछ भी कहने से परहेज करते हुए पितृसत्ता की आलोचना के बजाय पत्नीत्व की महिमा का बखान किया. वे अपने पिता, पति, भाई आदि की तारीफ़ के पुल बाँधने का कोई अवसर नहीं चूकतीं. गरिमा श्रीवास्तव अपनी आलोचकीय अंतर्दृष्टि के तहत यह शिनाख्त करती हैं कि

“प्रशंसा के भीतर छिपा असंतोष ही वह प्रेरणा बिंदु है,जो उनसे अपनी जीवन-कथा लिखवाता है. वे केवल पारिवारिक सामाजिक संरचना का पालन करने का दिखावा करती हैं, लेकिन उनके संवादों की दरारें उनकी आंतरिक भावना और स्वायत्त होने की इच्छा को अभिव्यक्त करती हैं.” (पृ.258)

सुप्रसिद्ध फ़िल्म अभिनेता गुरुदत्त की माँ वासन्ती पादुकोण के आत्मकथात्मक लेखन के हवाले से इस पुस्तक में चर्चा की गयी है कि कैसे एक स्त्री सुरचित ‘आत्मकथा’ न लिख पाने के बावजूद अपने ऊबड़-खाबड़ लेखन में निहित आत्मकथ्य के माध्यम से स्त्री-पुरुष के सामाजिक अंतराल और पितृसत्ता पर की गयी कड़ी टिप्पणी में सब कुछ कह देती है.

भार्गवी नारायण की आत्मकथा में व्यक्त रंगमच और फ़िल्म में काम करने वाली एक स्त्री के जीवन-संघर्ष का विस्तार से विवेचन-विश्लेषण करने के दरम्यान उद्धृत एक मार्मिक कथन का ज़िक्र लाज़िमी है जिसमें एक हद तक सफल पारिवारिक जीवन व्यतीत करने वाली भार्गवी कहती हैं कि

“माँ के जीवन से मैंने यह सीखा कि वैवाहिक जीवन में दरअसल सुख की कल्पना व्यर्थ है. माँ सिर्फ़ जिम्मेदारियाँ निभाती रही. यह देखकर अविवाहित रहने का मन बना लिया. लेकिन बाद में मित्रों ने कहा कि जीवन जीने के लिए विवाह और अपना परिवार तो ज़रूरी है. उनके समझाने से मैंने रंगमंच से ही जुड़े व्यक्ति ….से विवाह किया. पति बहुत समझदार थे…जो लोग थियेटर में काम नहीं करते उनके सवालों का जवाब देने में ही किसी का जीवन नष्ट हो जाता है, क्योंकि कलाकारों के आपसी किस्से, निर्देशक के साथ सम्बन्ध, देर रात तक काम करना, बाहरी लोगों से मिलना-जुलना, आदि अनेक बातें हैं जो बाहरी व्यक्ति को समझ में नहीं आ सकतीं.” (पृ.261)

इस अध्याय में मिखाइल बख्तिन के हवाले से आत्मकथा के पाठक वर्ग का महत्त्व और समाज-निर्माण में स्त्री-आत्मकथाओं की भूमिका को रेखांकित करते हुए कहा गया है कि

“भारत में राजनीति से जुड़ी स्त्रियों की आत्मकथाएँ परिमाण में बहुत कम हैं.लेकिन निज की कथाओं, सुख-दुःख से ऊपर उठकर समाज और समाज में व्याप्त अंधविश्वास, जाति प्रथा, लिंग भेद के समीकरणों को पाठक के सामने रखनेवाली कुछ आत्मकथाकार हैं, जिन्होंने जाति-भेद को चुनौती दी, लैंगिक समीकरणों को अच्छी तरह समझा, विपरीत परिस्थितियों में यानी धारा के विरुद्ध तैरकर अपने उद्देश्य की पूर्णता की ओर बढीं और इसके साथ ही भविष्य का मार्ग भी प्रशस्त किया. इन्हें पढ़कर पाठक जान जाता है कि आत्मकथा विधा सिर्फ़ निज के प्रेम, विवाह और कष्टों की महागाथा नहीं होती. उससे आगे बढ़कर समाज-निर्माण में इनकी रचनात्मक भूमिका होती है.” (पृ.279)

इसके आलावा लाकां, लेवीस्त्रास, वर्जीनिया वुल्फ़ और देरिदा द्वारा जेंडर के कारण रचनाकार की भाषा में बदलाव विषयक विमर्श का सार-संक्षेप प्रस्तुत करने के बाद स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि “वस्तुत: कोई भी स्त्री जब लिखती है तो यह ज़रूरी नहीं कि वह ‘स्त्री-भाषा’ में ही लिखे. पुरुष भाषा लैंगिक विभेद की भाषा है और जिस समाज में रहकर स्त्री रचना करती है वह स्त्री को ‘पुरुष भाषा’ ही प्रदान करता है. यदि स्त्री-रचनाकार ‘स्त्री-भाषा’ और ‘पुरुष भाषा’ का अंतर नहीं पहचानती या ‘स्त्री भाषा’ के प्रति सचेत नहीं है, तो वह अनजाने में ही पुरुष भाषा में सृजनरत रहती है. यह सचेतनता तभी संभव है जबकि वह पितृसत्तात्मक औजारों और कूटनीतियों से भली-भांति वाकिफ़ हो.” (पृ.280).

इस क्रम में देरिदा और हेलेन सिक्सू के बीच भाषा के मौखिक एवं लिखित रूपों के महत्त्व-निर्धारण को लेकर गहरे मतभेद के विवरण से गुज़रना दिलचस्प है, जिसे मूल पुस्तक में ही पढ़ा जाना चाहिए.

कन्नड़ में रचित लगभग तमाम स्त्री-आत्मकथाओं के विश्लेषण को इस अध्याय में समेटते हुए अनुपमा निरंजना, समता बी.देशमाने , मंजम्मा जोगती, के.सुमित्राबाई, कमला हम्पन्ना, सारा अबूबकर, अक्कई पद्मशाली, विजयाम्मा, उषा पी.रई, कन्नड़ सिनेमा की प्रथम स्त्री-निर्देशक प्रेमा कारन्त, प्रतिभा नंदकुमार आदि की आत्मकथाओं पर विस्तार से विचार करते हुए इस अध्याय में कुछ ऐसे प्रसंगों का उल्लेख किया गया है जो सीधे-सीधे पाठक के ह्रदय का स्पर्श करने में समर्थ हैं.उदाहरण के लिए ‘खट्टी मीठी यादें’ की लेखिका अनुपमा निरंजना के आत्मकथ्य का एक अंश देखा जा सकता है जिन्हें लोकनायक जयप्रकाश नारायण द्वारा बंगलुरु में दिए भाषण से जीवन-दृष्टि प्राप्त हुई और उन्होंने ब्राह्मण परिवार में जन्म लेने तथा पेशे से डॉक्टर होने के बावजूद दलितोत्थान के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया:

“मेरे घर के बगल में दलित बस्ती थी जहाँ के बाशिंदे मृत जानवर उठाने का काम किया करते थे. वे झगड़ते , हल्ला करते और शराब पीते. मुझे लगा इनका जीवन सुधारने के लिए मुझे कुछ करना चाहिए. उन्हीं दिनों मैंने सामाजिक कार्य करना शुरू किया था और निरंजन नामक एक पत्रकार से मेरी मुलाक़ात हुई. वे ‘उषा’ मासिक पत्रिका में काम करते थे.हम दोनों में प्रेम हुआ. निरंजन वामपंथ से जुड़े हुए थे. पिता मेरे प्रेम और वामपंथ से जुड़ने से परेशान थे. अत: मैंने उनसे झूठ बोला कि मैं निरंजन से नहीं मिलती. तिरुपति जाकर हम दोनों ने अंतरजातीय विवाह कर लिया. उस जमाने में एक सुंदर डॉक्टर का अदना पत्रकार से अंतरजातीय प्रेम-विवाह करना एक घटना थी. परिवार के सदस्य हमसे नाराज थे….यह मेरे जीवन का सबसे वाजिब निर्णय था. बाद में निरंजन ने दल के आतंरिक कलह के कारण पार्टी छोड़ दी….उनसे मुझे बहुत आदर और प्रेम मिला….रोगी मेरे पास आकर मुझसे अपने रोग से ज़्यादा मेरी जाति के बारे में घुमा-फिराकर पूछते. वे जानना चाहते थे कि मैंने अंतरजातीय विवाह क्यों किया. पहले मैं आस्तिक थी, लेकिन परिस्थितियों ने मुझे नास्तिक बना दिया. निरंजन ने मुझे वैज्ञानिक सोच और प्रश्नाकुलता का संस्कार दिया.” (पृ.282 पर उद्धृत)

इससे कहीं ज़्यादा कड़वे और दिल दहला देने वाले अनुभव हमें दलित-मादिगा समुदाय से आनेवाली प्रोफ़ेसर समता बी.देशमाने की आत्मकथा ‘देवी मातंगी की मशाल’ में मिलते हैं :

“हम बेहद निर्धन थे. माँ-बाप कुली थे और हम छह बहनें झोपड़पट्टी में रहती थीं जहाँ गंदगी और दुर्गन्ध के मारे मनुष्य का रहना कठिन था….हम गुलबर्गा में पानी लेने बीस-बीस किलोमीटर दूर जाने को मजबूर थे. वहाँ पानी की बड़ी क़िल्लत थी. हमारी जाति के लोगों को गाँव के कुएँ से पानी भरने की इजाज़त नहीं थी. मेरी माँ अनपढ़ थी और हम बेहद ग़रीब…मैंने जीवन में बहुत क्रांतिकारी काम किए. शिक्षा से लेकर अंतरजातीय विवाह का सफ़र एक दलित स्त्री के लिए आसान नहीं होता. मेरे पति डॉ.चन्दाराम बी.ग्रोवर हैं जिन्होंने मुझे जाति से ऊपर उठकर मेरी प्रतिभा के कारण सम्मान और प्रेम दिया. जीवन में पुरुषों ने मेरी बहुत मदद की….मैं जानती हूँ कि आपलोग मुझे स्लम प्रोफ़ेसर कहकर बुलाते हैं. लेकिन मैं आपको बता देना चाहती हूँ कि मैं जितना विश्वास अध्यापन और शोध पर करती हूँ उतना ही एक्टिविज्म पर भी करती हूँ. जिस समाज की मैं सदस्य हूँ उस समाज को बदलना मेरा कर्तव्य है.” (पृ.284)

तेलुगु स्मार्त ब्राह्मण परिवार में पैदा हुई कन्नड़ की प्रथम स्त्री-फ़िल्म पत्रकार और आत्मकथाकार डी.विजयाम्मा की कृति ‘कुदियेसरू’ (माँड़) के आरंभ में बेंगलुरु की गलियों में पति द्वारा लात-घूँसे से पिटती विजया को देख-पढ़कर पाठक स्तबद्ध रह जाता है : “विवाह के तुरंत बाद ही पति ने पशुवत व्यवहार करना शुरू कर दिया था. वह नोचता, खासोटता, मारता – पर मैंने मायके में किसी को नहीं बताया. पति ने मेरी योनि में हाथ डालकर गर्भस्थ बच्चे को चोट पहुंचाई. गर्भपात का दर्द मैंने झेला. गर्भाशय में संक्रमण हो गया….” (पृ.263 पर उद्धृत)

मुसलमान स्त्री-आत्मकथाओं पर केन्द्रित सातवें अध्याय के आरंभ में विषय की संवेदनशीलता के मद्देनज़र सबसे पहले मौलाना वहीउद्दीन खान द्वारा हिन्दी में अनूदित ‘पवित्र क़ुरानशरीफ़’ की अनेक आयतें उद्धृत की गयी हैं जिनसे इस्लाम धर्म में स्त्री की हैसियत का एक हद तक अंदाज़ा ज़रूर लगता है.  इस अध्याय के आरंभ में ही मौलाना थानवी रचित ‘बहिश्ती जेवर’ की संक्षेप में चर्चा करते हुए मुस्लिम समाज सुधारकों द्वारा तय कर दी गयी ‘आदर्श मुसलमान स्त्री’ की छवि की सीमाओं की ओर भी इंगित किया गया है. आगे सम्पूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप में डेढ़-दो सौ सालों के अंतराल में विभिन्न तबके की मुसलमान स्त्रियों दवारा रचित आत्मकथाओं पर रोशनी डाली गयी है. इस क्रम में ख़ास तौर पर यह उजागर करने का प्रयास किया गया है कि मुसलमान स्त्रियाँ धर्म, परम्परा, परदेदारी, यौनिकता और अनकहे सामुदायिक सेंसरशिप के मुद्दे पर क्या महसूस करती रही हैं. जहाँ वे अनेक मुद्दे पर चुप्पी साध लेती हैं, तो उनकी चुप्पियों का अंतर्पाठ किया जाना क्यों ज़रूरी है. इस प्रसंग में गरिमा जी लिखती हैं :

“कई ऐसी स्त्रियाँ हैं जो आत्मकथ्य में निजी सवालों से बचकर निकल गयी हैं, जिससे पाठक को साफ़ समझ में आ जाता है कि वे निजी और पारिवारिक सेंसरशिप के दबाव में हैं. उनके आत्मकथ्य का सम्यक विश्लेषण व्यावहारिक जीवन, उनके मन के कोने-अंतरे, दरारें, चोट और पीड़ाएँ, नस्ल और रंगभेद, यौन-अस्मिता, शोषण के विविध आयामी पक्ष, उसकी मनोसामाजिक, लैंगिक भेद और स्त्री-अस्मिता के साथ स्वानुभूति की अभिव्यक्ति के लिए अपनाई गयी भाषा-भंगिमाएँ, विविध मुद्राएँ, प्रतिरोध के औजार, समर्पण और विवशता के कारणों की पड़ताल करना ज़रूरी है.”(पृ.308)

विवेच्य पुस्तक में मुहम्मदी बेगम की आत्मकथा ‘हयात-ए-अशरफ़’ से लेकर सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी कवि नामदेव ढसाल की पत्नी मल्लिका अमरशेख़ रचित ‘मला उद्ध्वस्त व्यायंचय’ (‘मुझे उद्ध्वस्त होना है’) तक में उपर्युक्त बिदुओं की पड़ताल जिन ग्यारह ज्वलंत प्रश्नों को निकष बनाकर की गयी है, उसका समाहार प्रस्तुत करना विस्तार-भय से यहाँ संभव नहीं है. बावजूद इसके, नमूने के तौर पर एकाध उदाहरण देखे जा सकते हैं. मसलन भोपाल रियासत की राजकुमारी आबिदा सुल्तान की आत्मकथा ‘मेमोआयर्स ऑफ़ अ रिबेल प्रिंसेस’ में बचपन के दोस्त नवाब सरवर अली खान से विवाह के बाद आबिदा द्वारा सुहागरात के भयावह चित्रण से गुज़रना ह्रदय विदारक है:

“मुझे अंदाज़ा नहीं था कि प्रथम सहवास ही मुझे सन्न करने और डराने वाला होगा. इसकी तो मैंने कल्पना तक नहीं की थी. सच तो यह था कि मुझे उस व्यक्ति से आघात मिला था जिससे मुझे इसकी बिलकुल भी उम्मीद नहीं थी.”  (पृ.311 पर उधृत)

इसी प्रकार मल्लिका अमरशेख़ की आत्मकथा में दलित कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए बड़े क्रांतिकारी कवि एवं कार्यकर्ता के रूप में सुविख्यात अपने पति नामदेव ढसाल को लेकर निजी अनुभव से प्राप्त जो बातें कहीं गयी हैं, वे दिल दहला देने वाली हैं:

“कम्युनिस्ट के रूप में उसी के समाज द्वारा गतिरोध पैदा हुआ. ज़ल्दी मिली सफलता की आंधी और असफलता के कारण अपने को फ्रस्टेशन से बचा पाना नामदेव के लिए संभव नहीं हुआ. इन स्थितियों ने उसे बिलकुल बदल डाला….देखो ! तुम्हारा नेता शराबी है, रंडीबाज है, वह व्यवहार नहीं जानता लेकिन क्रान्ति करने निकला है. ऐसे कार्यकर्ता से तुम प्रेम करते हो जो गुंडा है, गुप्तरोग का शिकार है, उसके मित्र भी उसके जैसे हैं. वे काहे के पैंथर.” (पृ.362 पर उद्धृत).

इस अध्याय में जिन आत्मकथाकारों की कृतियों पर विस्तार से विचार किया गया है उनमें जहाँआरा हबीबुल्लाह, हमीदा सैयाद्दुज्जाफ़र, सलमा अहमद, हमीदा अख्तर हुसैन, शौकत कैफ़ी, हमीदा रहमान, बेगम अनीस किदवई, मल्लिका पुखराज, जोहरा सहगल, अतिया दाउद, किश्वर नाहीद आदि प्रमुख हैं.

आठवें अध्याय में ‘दलित स्त्री-आत्मकथा’ पर विचार करने के दौरान इसे ‘अकिंचन स्वरों की महाप्राण पुकार’ के रूप में रेखांकित करते हुए इन आत्मकथाओं को लातिन अमेरिकी भयावह आख्यानों की तर्ज़ पर साक्ष्य या ‘टेस्टीमोनी’ कहे जाने की वकालत की गयी है:

“जब हम दलित स्त्री-आत्मकथाकारों को देखते हैं तो इनमें समानता और असमानता के कुछ बिंदु परिलक्षित होते हैं.पहली बात तो यह कि इनमें से प्रत्येक आत्मकथाकार मातृभाषा में लिखती है.अधिकांश  आत्मकथाएँ अंग्रेज़ी और हिन्दी अनुवाद के माध्यम से बृहत्तर पाठक-वर्ग तक पहुँचती हैं. इसलिए इन रचनाकारों को दोहरा पाठक वर्ग मिलता है.” (पृ.370).

इस क्रम में विख्यात ‘फुले-अम्बेडकरवादी स्त्रीवाद’ की प्रणेता शर्मिला रेगे (1964-2013) के हवाले से उजागर गया है कि कैसे दलित स्त्री-पुरुष आत्मकथाकारों के लेखन ने दलित-लेखन को मुख्यधारा से अलग रखने की रणनीति में सेंध लगाने का काम किया. उल्लेखनीय है कि अपनी अंतिम प्रकाशित कृति, ‘अगेंस्ट द मैडनेस ऑफ मनु : बी.आर.आंबेडकर्स राईटिंग़स ऑफ़ ब्रह्मिनिकल पैट्रियार्की’ में प्रोफ़ेसर शर्मिला रेगे ने ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के खिलाफ अपनी वैचारिक लड़ाई में स्त्री-आंदोलन में डॉ.अंबेडकर की भूमिका की शिनाख्त की है और विस्तार से बतलाया है कि कैसे जाति व्यवस्था महिलाओं के खिलाफ क्रमिक हिंसा को जन्म देती है.

भारतीय दलित स्त्री-आत्मकथाकारों के लेखन के विश्लेषण के लिए इस अध्याय में जिन दस निकषों का उल्लेख किया गया है उसके विस्तार में जाने का यहाँ अवकाश नहीं है.उसे मूल पुस्तक पढ़े बिना समझा-समझाया नहीं जा सकता. किन्तु, ‘परया’ समुदाय से आनेवाली दलित-स्त्री वीरम्मा दवारा तमिल में बोलकर लिखवाई गयी आत्मकथा (अंग्रेज़ी में ‘लाइफ ऑफ़ एन अनटचेबल’ नाम से प्रकाशित) से लेकर बेबीताई कांबले की ‘जीवन हमारा’, रजनी तिलक की ‘अपनी ज़मीं, अपना आसमां’, अनिता भारती की ‘छूटे पन्नों की उड़ान’, कावेरी रचित ‘टुकड़ा टुकड़ा जीवन’, सुमित्रा महरोल की ‘टूटे पंखों से परवाज़ तक’ और कौशल पँवार की ‘बवंडरों के बीच’ समेत हिन्दी एवं विभिन्न भारतीय भाषाओं में रचित अनेक दलित स्त्री-आत्मकथाओं को तमाम विश्वप्रसिद्ध समाजवैज्ञानिकों एवं स्त्रीवादी विचारकों द्वारा निर्मित कसौटियों पर कसकर जो अर्थमीमांसा की गयी है और मूल्यांकन प्रस्तुत किया गया है, वह किसी भी प्रबुद्ध पाठक और ख़ासकर गंभीर शोधार्थियों को इस दिशा में सोचने-समझने के लिए अग्रसर करने में समर्थ है. इन रचनाओं को लेकर एक महत्त्वपूर्ण बात यह कही गयी है कि

“इनमें से कोई भी आत्मकथाकार अपनी रचना को ‘साहित्यिक कृति’ कहने का दावा नहीं करती…वे अपने कथ्य के अनुरूप नैसर्गिक शैली का चुनाव कर लेती हैं.” (पृ.450)

बेबीताई काम्बले की आत्मकथा पर गरिमा श्रीवास्तव ने मनोयोग से लिखा है. इस कृति पर बेबाक राय व्यक्त करते हुए कहा गया है कि यह

“महार समुदाय के उन दिनों की कथा है जब बाबासाहेब अम्बेडकर का आगमन नहीं हुआ था. डॉ.अम्बेडकर के आने और उनके द्वारा दलित-चेतना के प्रसार के पहले और बाद की स्थिति और इन दोनों के संक्रमण काल पर यह आत्मकथा बहुत बेहतर ढंग से टिप्पणी करती है. इसकी विशेषता यह है कि इसमें महार जाति की दुर्दशा के कारणों की पड़ताल करते हुए सिर्फ़ सवर्णों को उत्तरदायी नहीं ठहराया गया है, बल्कि समुदाय के भीतर प्रचलित पितृसत्तात्मक अभ्यासों और अपने घर-परिवार की स्त्रियों का उत्पीड़न और शोषण करनेवाले महार पुरुष-वर्ग के बारे में भी कड़ी टिप्पणी की गयी है.” (पृ.406)

विवेच्य पुस्तक का नौवां और अंतिम अध्याय ‘अश्वेत स्त्री-आत्मकथा’ पर केन्द्रित है. उल्लेखनीय है कि शुरू में इन आत्मकथात्मक आख्यानों को पैवंदकारी, गैर-दानिश्वर और जज़्बाती बताकर नज़रंदाज़ करते हुए इल्ज़ाम-तराशी की गयी थी कि अश्वेत स्त्रियाँ वस्तुत: अश्वेत पुरुष दास-आख्यानों की तर्ज़ पर रचना कर रही हैं. किन्तु, कालान्तर में अमेरिकी एवं ब्रिटिश उच्चशिक्षा संस्थानों में अंत:अनुशासनिक अध्ययन के अंतर्गत स्त्री-अध्ययन एवं नृवैज्ञानिक अध्ययन पर बल दिया जाने लगा और विद्वानों ने यह स्वीकार किया कि अश्वेत स्त्रियों की आत्मकथाएँ आख्यान की सीमा का अतिक्रमण करती हुई सामाजिक विमर्श रचने में समर्थ हैं.

इस प्रसंग में कुछ चिट्ठियों, यात्रा-वृतांतों, कविताओं, कहानियों आदि के रूप में बिखरे अश्वेत स्त्री-आत्मकथ्यों के साथ ही बेलिंडा नामक नाइज़ीरियन मूल की स्त्री-दास की कृति ‘द क्रुएल्टी ऑफ़ मैन हूज फेसेज वर लाइक द मून’ (1787) की गरिमा जी ने विस्तार से चर्चा की है, जो न्यूयार्क की विधानसभा में बतौर अपील पेश की गयी थी, क्योंकि बेलिंडा ने अपने मालिक के निधन के पश्चात क्षतिपूर्ति का दावा किया था. चर्चा के दौरान बतलाया गया है कि बातचीत के आधार पर बेलिंडा की कहानी दूसरे लोगों ने लिखी थी, जिसमें दासी बनने के पहले की पारिवारिक पृष्ठभूमि के ज़िक्र के साथ ही उसे ‘जबरन दासी बनाया जाना, शारीरिक शोषण, मानसिक तनाव, नई भाषा सीखने की चुनौती, मालिक के परिवार में संतुलन बनाने का प्रयास और शोषण की दास्तान’ आदि के हैरान कर देने वाले वर्णन हैं.

बेलिंडा की तरह ही याम्बा ने भी दासी के रूप में जीवन बिताया, जिसकी कहानी को गीतात्मक अभिव्यक्ति प्रदान करते हुए ब्रिटिश स्त्रीवादी चिन्तक हन्ना मोरे ने लिखा है :

कँटीली झाड़ियों
दुर्दमनीय काली लहरों के बीच से
हर कहीं से
चारों ओर से मनुष्य चुराने वाले लोग चले आए
बेड़ियों में बाँधा कोमल मासूम बच्चों को मेरे क्षत-विक्षत
विदीर्ण यांबा को भी दासी बना ले चले.  (पृ.460 पर उद्धृत)

इस अध्याय में हैरिएट ए.जैकोब्स, एलिजाबेथ केकली, अन्ना जूलिया कूपर, मैरी जैक्शन, इजाबेला बोम्फ्री, रेजिना ब्लैकबर्न, इलेन ब्राउन, एंजेला डेविस हैरिसन जैक्शन मैरी ब्रुकर, रोजा बटलर ब्राउन, माया एंजेलो सरीखी अनेकानेक ब्लैक स्त्री-आत्मकथाकारों की कृतियों का विश्लेषण करते हुए कहा गया है कि

“इन आत्मकथाओं के पाठक को यह विचार करना चाहिए कि रचनाकार अपने पाठक से निजी विवरण साझा कर रही है ….अश्वेत समुदाय के भीतर और बाहर उसकी क्या स्थिति है, स्त्री होने के कारण अपने ही समुदाय में उसे कैसी स्थिति का सामना करना पड़ता है, उसके नैतिक मूल्य, विश्वास और आस्थाएँ क्या हैं ? शब्दों में अभिव्यक्त आत्मकथ्यों तक पहुँचने में अश्वेत स्त्री ने एक लम्बी यात्रा तय की है. लिंगाधृत असमानता और पितृसत्तात्मक वर्चस्व ने उसे हमेशा हाशिए पर रखा. इसलिए इन आत्मकथाओं को पुरुष वर्चस्व को चुनौती देने, स्त्री के लिए तयशुदा दायरों से निकलने और अपना ‘स्पेस’ बनाने के प्रयास के रूप में पढ़ा जाना चाहिए.” (पृ.493)

विवेच्य पुस्तक में कृष्णा हठी सिंह की आत्मकथा ‘विद नो रिग्रेट्स’ में अपनी भतीजियों को दी गयी सलाह को हमारे समय की तमाम स्त्रियों के लिए उपयोगी बताते हुए उसमें एमिली डिकेंस दवारा स्त्रियों को दी गयी नसीहत की अनुगूँज की शिनाख्त गरिमा जी की अध्ययनशीलता एवं अंतर्दृष्टि का साक्ष्य है. एमिली डिकेंस ने स्त्रियों को सलाह दी है कि “सच बोलो लेकिन थोड़ा तिरछा करके. सीधे-सीधे सच बोलना भारी पड़ सकता है.” जबकि कृष्णा हठी सिंह की सलाह है कि “तुम नि:सहाय दिखाई पड़ो, लेकिन सक्षम रहो. तब प्रत्येक व्यक्ति तुम्हारी सहायता के लिए आगे बढ़ेगा और यदि कभी कोई तुम्हारी सहायता के लिए आगे नहीं भी आता, तो भी तुम अपनी देखभाल स्वयं कर सकती हो.”

नामवर सिंह कहा करते थे कि काव्यालोचन से सम्बंधित किसी ग्रन्थ की उत्कृष्टता की एक कसौटी यह भी है कि उसमें आलोचक अपनी स्थापनाओं को पुष्ट करने के क्रम में उदाहरण के तौर पर कैसी कविताओं का चयन करता है. इस दृष्टि से वे आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ को मध्यकाल से लेकर शुक्ल जी के समय तक रचित हिन्दी कविता की ‘गोल्डन ट्रेज़री’ कहा करते थे. अथक अकादमिक परिश्रम से लिखी गरिमा श्रीवास्तव की  इस विद्वत्तापूर्ण पुस्तक को भी ‘स्त्री-आत्मकथाओं की गोल्डन ट्रेज़री’ कहा जाना चाहिए, क्योंकि इसमें गहन शोध और अंतर्दृष्टिपूर्ण आलोचना के बीच उदाहरण के रूप में जगह-जगह उद्धृत देशी-विदेशी अनेक महान स्त्री-आत्मकथाकरों द्वारा रचित सैकड़ों उत्कृष्ट एवं मार्मिक अंश मौजूद हैं. यह कड़ी धूप में लम्बी यात्रा पर निकले किसी बटोही को जगह-जगह सुस्ताने के लिए मिलने वाले पेड़ की छाँव की तरह है. दूसरे शब्दों में, विवेच्य पुस्तक एक ऐसी स्मृति-मंजूषा है, जिसमें हर नयी स्थापना पुरानी स्थापनाओं को याद करती हुई अपने चिह्न भी छोड़ती चलती है। अभिनवगुप्त के शब्दों में कहें तो यह स्थिति मधुमास में हरे-भरे वृक्ष की तरह है, जहाँ कृति में पहले देखे हुए अर्थ-संदर्भ एवं मान्यताएँ भी नयी प्रतीत होती हैं:

दृष्टपूर्वा अपि ह्यर्थाः काव्ये रसपरिग्रहात् ।
सर्वे  नवा  इवाभान्ति मधुमास इव द्रुमाः।।

‘चुप्पियाँ और दरारें’ से गुज़रते हुए इसमें निहित आलोचनात्मक दृष्टिकोण के साथ-साथ अनेक कालखंडों में विभिन्न भाषाओं की स्त्री-आत्मकथाओं के चुनिंदा हिस्से प्रबुद्ध पाठक में बौद्धिक कौंध के साथ ही रचनाओं में निहित मर्म का नायाब एहसास पैदा करते हैं, जो कुछेक अपवादों को छोड़कर आजकल लिखी जानेवाली आलोचना में दुर्लभ है. सच तो यह है कि मूलत: विनिबंधों के रूप में लिखित इस ग्रन्थ में संगृहीत शोध-प्रपत्रों को पढ़ते हुए बीच-बीच में पाठक जब भिन्न-भिन्न तबके की स्त्रियों द्वारा रचित गहन मानवीय संवेदना से ओतप्रोत आत्मकथात्मक अंशों से गुज़रता है, तो इससे उसकी अनुभूति में व्यापकता और गहराई आती है और वह पहले से कुछ और अनुभूति-प्रवण बेहतर इंसान बन पाने की दिशा में अग्रसर होता है.

अंतत: गरिमा श्रीवास्तव की इस नायाब किताब की एक और ख़ूबी का ज़िक्र ज़रूरी है. इसमें शोध प्रविधि के लिए विख्यात ‘शिकागो मैनुय्ल्स’  के 2024 में प्रकाशित अठारहवें संस्करण में उल्लिखित पद्धति के तहत यथास्थान सारे सन्दर्भ दिए गए हैं. बदकिस्मती से हिन्दी के अधिकतर छोटे-बड़े आलोचक अपने निबन्धों और पुस्तकों में शोध-प्राविधि को नज़रअंदाज़ करके सन्दर्भ देने का कष्ट बहुत कम उठाते हैं. बगैर किसी सन्दर्भ के वे दुस्साहस के साथ अपनी बात ऐसे कहते हैं मानों सारा ज्ञान उन्हें विलक्षण स्मृति और अंत:प्रज्ञा या इल्हाम से प्राप्त हुआ हो :

शे’र ‘ग़ालिब’ का नहीं वही ये तस्लीम मगर
बा-ख़ुदा तुम ही बता दो नहीं लगता इल्हाम

कहना न होगा कि ज्ञान की दुनिया में यह एक गैर-जिम्मेदाराना अकादमिक व्यवहार है जिससे तत्काल किसी आलोचक के ज्ञान का डंका चाहे जितनी जोर से बज जाए, भावी पीढ़ी के गंभीर अध्येताओं एवं शोधार्थियों को कोई ख़ास फ़ायदा नहीं होता. उन्हें पानी पीने के लिए फिर से ख़ुद कुआँ खोदना पड़ता है. अस्तु.

 ___________

गरिमा श्रीवास्तव: चुप्पियाँ और दरारें
‘स्त्री आत्मकथा: पाठ और सैद्धांतिकी’
(2025), राजकमल पेपरबैक्स
मूल्य: ₹599, कुल पृष्ठ 510

प्रोफ़ेसर रवि रंजन
मुजफ्फरपुर.

प्रकाशित कृतियाँ :   ‘नवगीत का विकास और राजेंद्र प्रसाद सिंह’, ‘प्रगतिवादी कविता में वस्तु और रूप’,.’सृजन और समीक्षा:विविध आयाम’, ‘भक्तिकाव्य का समाजशास्त्र पदमावत’, ‘अनमिल आखर’ , ‘आलोचना का आत्मसंघर्ष’ (सं) वाणी प्रकाशन,दिल्ली (2011),  ‘साहित्य का समाजशास्त्र और सौंदर्यशास्त्र: व्यावहारिक परिदृश्य’ (2012), ‘वारसा डायरी’(2022), ‘लोकप्रिय हिन्दी कविता का समाजशास्त्र’  

प्रतिनियुक्ति : 2005 से 2008 तक सेंटर फॉर इंडिया स्टडीज़, पेकिंग विश्वविद्यालय,बीजिंग एवं नवम्बर 2015 से सितम्बर 2018 तक वारसा विश्वविद्यालय,पोलैंड में भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद् द्वारा विज़िटिंग प्रोफ़ेसर के रूप में प्रतिनियुक्त.

सम्प्रति: प्रोफ़ेसर एवं पूर्व-अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, मानविकी संकाय, हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय, हैदराबाद – 500 046
ई.मेल. :  raviranjan@uohyd.ac.in मो.9000606742

Tags: 20252025 समीक्षागरिमा श्रीवास्तवचुप्पियाँ और दरारें: ‘स्त्री आत्मकथा: पाठ और सैद्धांतिकी’ पर एक बहसदलित स्त्री आत्मकथाएंरवि रंजनस्त्री आत्मकथाएंस्त्री विमर्श
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Comments 16

  1. राकेश बिहारी says:
    1 month ago

    बहुत धैर्य और मनोयोग से लिखी यह समीक्षा पाठकों को पुस्तक के मर्म तक ले जाती है।

    Reply
  2. सन्तोष दीक्षित says:
    1 month ago

    बहुत ही महत्वपूर्ण किताब और उतनी ही विशद और तार्किक समीक्षा।गरिमा जी के अंदर का स्त्री विषयक दृष्टिकोण बहुत मार्मिक और बेधक है। उनका पिछला उपन्यास भी इस दृष्टिकोण की पुष्टि करता है।

    Reply
  3. Rubel says:
    1 month ago

    यह लेख इस किताब को करीब करीब सामने रख देता है।

    इस किताब की आउटलाइन और इसमें किया गया वर्गीकरण इसके माध्यम से समझ में आ जाता है।

    यह किताब आत्मकथाओं और उनके सैद्धांतिक विकास को समझने में जरूरी भागीदारी निभाती दिख भी रही है।

    जिस तरह अलग अलग भाषाओं और क्षेत्र की आत्मकथाओं को लेखक ने एक सूत्र में पिरोया है ,वह इस लेख में बेहतर से उभर कर आ रहा है।

    लेकिन उसी के साथ क्या सही में अलग अलग क्षेत्रों और भाषाओं को एक साथ रख देने से आत्म के कथ्य को समझने की दृष्टि बन सकती है?

    स्त्रियों और पुरुषों के आत्म का निर्माण कभी भी एकांतिक रूप से नहीं ही होता है ।

    आत्म का बनना और उसे कलमबद्ध करना स्वयं में एक स्थिति ऊपर जाने वाली घटना है.

    अब इस आत्म को सामूहिकता के साथ पिरो देना (और वो भी उस सामूहिकता के साथ जो सामाजिक बुनावट में सबसे हाशिए पर विखंडित है) ,किस तरह उनके आत्म के साथ संबंध बनाता है , यहां एक महत्वपूर्ण प्रश्न हो सकता है।

    साथ ही आत्म का प्रतिनिधित्व किस तरह पूरे समाज को सम रूप से देखने व समझने की दृष्टि देता है उसे भी देखने की आवश्यकता है।

    गरिमा जी इस तरह के प्रश्नों को साथ में कैसे जोड़ पाती हैं और कैसे इनके सूत्र भारतीय संदर्भों में खोजती हैं,इसके लिए इस किताब को पढ़ा जाना चाहिए।
    शुक्रिया ।

    Reply
  4. Dr Om Nishchal says:
    1 month ago

    स्त्री आत्म कथाओं को लेकर प्रोफेसर गरिमा श्रीवास्तव का यह अनुशीलन आलोचना और विमर्श के व्यास को तोड़ता हुआ बेबाक तरीके से स्त्रियों के हालात को युगीन स्थितियों में रखकर देखता है। इसे गंभीरता से पढ़ते और उसके पाठ से रूबरू होते हुए प्रोफेसर रवि रंजन ने बहुत विस्तार से इसके एक-एक महत्वपूर्ण संदर्भ को सुचारु ढंग से विवेचित किया है जिसे पढ़कर बहुत अच्छा लगा। पुस्तक मेरे पास भी है और इसे पढ़ते हुए मैं भी ऐसा ही महसूस करता हूं। प्रोफेसर गरिमा श्रीवास्तव को उनकी इस कृति के लिए और प्रोफेसर रवि रंजन को इस विशिष्ट समीक्षात्मक आलेख के लिए बहुत-बहुत बधाई।

    Reply
  5. रोहिणी अग्रवाल says:
    1 month ago

    गरिमा जी स्त्री आलोचना के विविध आयामों पर जितना गंभीर व श्रमसाध्य काम कर रही हैं, वह सराहनीय है और वक्त की जरूरत भी। चूँकि रवि रंजन जी स्वयं समर्थ आलोचक हैं, और आलोचना कर्म की बारीकियों एवं दायित्वशीलता को भलीभांति जानते हैं, इसलिए पुस्तक की भीतरी परतों में जाकर न केवल लेखिका के विजन और अभिव्यक्ति-कौशल की पहचान कर सके हैं बल्कि पुस्तक की आलोचनात्मक पड़ताल भी करते हैं। दोनों को बहुत बधाई ।

    Reply
  6. Prof Garima Srivastava says:
    1 month ago

    आप सभी आलोचकों का बहुत आभार.

    Reply
  7. रमण सिन्हा says:
    1 month ago

    सटीक विश्लेषण

    Reply
  8. रमा नवले, नांदेड says:
    4 weeks ago

    भारतीय स्त्री मानस को समझने के लिए यह किताब काफी उपयोगी रहेगी। लेखिका और आलोचक रविरंजन जी का अभिनंदन!

    Reply
  9. Anamika says:
    4 weeks ago

    गरिमा श्रीवास्तव का यह साधना ग्रंथ जिस मनोयोग से स्त्री – देह पर उत्कीर्ण स्त्री- समुदाय की यातनाओं का सजग विश्लेषण संभव करता है,निगमनात्मक आलोचना की किंचित महत्त्वपूर्ण पद्धतियों के सूक्ष्म विनियोग से सिद्ध आलोचक रविरंजनजी इस पुस्तक का पूरा परिप्रेक्ष्य सामने रखते है । गहरा संतोष हुआ पढ़कर।

    Reply
    • Prof Garima Srivastava says:
      4 weeks ago

      इसमें स्त्री देह पर उत्कीर्ण यातनाओं का आख्यान नहीं है बल्कि स्त्रियाँ किस तरह लिखकर प्रतिरोध की संस्कृति का निर्माण करती हैं और वे किन मुद्दों पर बात करती हैं,किन मुद्दों पर चुप रहती हैं,उनकी चुप्पी के भी मायने भी हैं और मितकथन के भी।इसमें स्त्री आत्मकथा लेखन की सैद्धांतिकी के निर्माण की दिशा में प्रयास किया गया है।जिन मित्रों ने पुस्तक नहीं पढ़ी है उनकी सुविधा के लिए कह दूँ कि स्त्री आत्मकथ्यों पर विचार करने के लिए मोटे तौर पर चार निकष ग्रहण किये जा सकते हैं जिनमें जाति ,वर्ग,वर्ण,जेंडर के साथ संप्रदाय या धर्म को भी देखा जाना चाहिए .ये सभी निकष आपस में गुंथे यानी प्रतिच्छेदी अवस्था में अपना अस्तित्व रखते हैं . यदि भारतीय समाज की सँरचना देखें तो यहाँ के विभिन्न पदानुक्रमों में सत्ता और शक्ति के केन्द्रों पर किसी वर्ग ,जाति ,जेंडर या सम्प्रदाय का आधिपत्य है.सामाजिक संरचनाओं के भीतर बहुस्तरीयता होती है जिसका आधार किसी वर्ग ,जाति,जेंडर या नस्ल का उत्पीड़न होता है .जिसमें किसी एक वर्ग या जाति के प्रभुत्व की स्थापना के लिए अन्य को दमित –उत्पीड़ित किया जाता है .समाजैतिहास में अन्तर्विभाजक पदानुक्रमिकता का निर्माण होता है .विभिन्न अस्मिताएं,जो केंद्र के आसपास मंडराती रहती हैं उनमें जाति और जेंडर को प्रवेश बिन्दुओं के तौर पर देखा जा सकता है .विभिन्न अस्मिताएं अपने दैनंदिन प्रतिरोध के तरीकों और रणनीतियों के साथ संघर्षरत रहती हैं, वहीँ दूसरी ओर सामाजिक पदानुक्रमिकता को बनाये भी रखना चाहती हैं. एक ओर जाति व्यवस्था को तोड़ने का प्रयास भी करती हैं दूसरी ओर अपनी ही जाति के भीतर पदसोपानिकता को प्रश्रय भी देती हैं.भारत में अस्सी के दशक में हम विभिन्न सामाजिक वर्गों की आपसी आवाजाही के बीच अन्तर्विरोध को एक विश्लेषणात्मक ढाँचे के रूप में उभरता हुआ देखते हैं .यह वही दौर है जब जाति ,जेंडर और कई तरह के वर्गों के आधार पर उत्पीड़न ,वर्चस्व और भेदभाव की राजनीति को नए ढंग से समझने के प्रयास शुरू हुए .विभिन्न शोध एवं अध्ययन केन्द्रों में आत्मकथा और आत्मकथात्मक लेखन को समाजवैज्ञानिक शोध के लिए आधार स्रोतों के रूप में शामिल किया जाने लगा.अपने बारे में लिखकर या कहकर अपने साथ –साथ समुदाय और वर्ग के बारे में प्रामाणिक सूचनाएं देने का काम आख्यानकर्ता करता है.अपने जीवन की विभिन्न स्मृतियों को मौखिक या लिखित रूप में आख्यान का आधार बनाकर वह अगली पीढ़ी में अपने अनुभवों को अंतरित करता है.अक्सर वैयक्तिक अनुभवों की अपेक्षा सामुदायिक अनुभवों को तरजीह दी जाती है और ज्यादा प्रामाणिक भी माना जाता है ,क्योंकि लोग उसी को दुहराते हैं ,बारम्बार सुनते हैं और फिर उसी को दुहराने लगते हैं .लेकिन सत्य वही नहीं है जो समाज या समुदाय की वर्चस्वशाली शक्तियों द्वारा दुहराया और दर्ज किया जाता है.जिसकी तेज़ आवाज़ के शोर में हाशिये की आवाजें कमज़ोर साबित होती हैं.इन कमजोर आवाजों को आत्मकथन के माध्यम से अपनी बात कहने,‘टेस्टीमोनियो’ (सामुदायिक साक्ष्य)प्रस्तुत करने का अवसर मिलता है.दरअसल ‘आत्म’ का निर्माण जाति ,लिंग, वर्ग और वर्ण के साथ यौनिकता को सुदृढ़ करने वाले परस्पर प्रतिच्छेदी (इन्टरसेक्शनल) वाहकों के द्वारा होता है..‘चुप्पियाँ और दरारें’के अंतर्गत स्त्री आत्मकथा सैद्धांतिकी और भारत में हिंदी –अंग्रेजी में स्त्री आत्मकथा लेखन की परंपरा के अतिरिक्त दलित स्त्री आत्मकथाएं ,सवर्ण स्त्री प्रति-आख्यान ,मलयालम स्त्री आत्मकथ्य,कन्नड़ स्त्री आत्मकथ्य ,बांग्ला स्त्री आत्मकथ्य ,मुसलमान स्त्रियों के आत्मकथ्यों के साथ अश्वेत (ब्लैक) स्त्री आत्मकथ्यों पर शोधपरक आलेख हैं .ये लेख स्त्री रचनात्मकता की अविच्छिन्न परंपरा से परिचित करवाने के साथ साथ विभिन्न समुदायों और समाजों में स्त्री के आत्म के साथ संवाद के साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं.सम्भव है इस पुस्तक के दायरे में आने से बहुत- सी आत्मकथाएं छूट गयी हों,इसे शोध और विश्लेषण की सीमा के तौर पर ग्रहण करना उचित होगा.अध्यायों का क्रम इस प्रकार है –
      1.अनसुनी आवाज़ें 1.प्रतिरोध की संस्कृति : स्त्री आत्मकथाएं
      2. आत्मकथा सैद्धांतिकी : स्त्री आत्मकथाएं
      3. अथ सवर्ण स्त्री प्रति- आख्यान : बांग्ला और तेलुगु की पहली स्त्री आत्मकथा
      4. आगुनेर पारसमणि : बांग्ला स्त्री आत्मकथाएं
      5. आकांक्षाओं का अनुनाद : मलयालम स्त्री आत्मकथाएं
      6. आरोहण से अनावरण तक : कन्नड़ स्त्री आत्मकथाएं
      7. अक्स –ए खुशबू : हम गुनहगार औरतें – मुसलमान स्त्री आत्मकथाएं
      8. अकिंचन स्वरों की महाप्राण पुकार : दलित स्त्री आत्मकथाएं
      9. अश्वेत दास आख्यान : अश्वेत स्त्री – आत्मकथाएं

      Reply
  10. Anonymous says:
    4 weeks ago

    यह समीक्षा हिंदी में लिखी जाने वाली पुस्तक समीक्षाओं से भिन्न बेहद परिश्रम से लिखित सुचिंतित आलोचना हैं. पर इसमें गरिमा जी की स्त्री -आत्मकथाओं पर केंद्रित पुस्तक की किसी कमी का उल्लेख नहीं हैं.
    मेरी समझ से इस पुस्तक में उड़िया, असमी, पंजाबी आदि भाषाओं में लिखित स्त्री -आत्मकथाओं पर स्वतंत्र निबंध भी शामिल होने चाहिए.
    आशा है कि पुस्तक के अगले संस्करण में इन भाषाओं पर भी सामग्री जोड़ दी जाएगी.
    शुभेच्छा.

    Reply
  11. Anonymous says:
    4 weeks ago

    स्त्री आत्मकथाओं को केंद्र में रख कर गरिमा जी ने जिस तरह से स्त्री के प्रत्येक दुख, वांछना, वेदना और उसके संघर्ष की गहरी और गहन विवेचना से दृष्टिपात किया है यह इस समीक्षा को पढ़कर समझा जा सकता है।
    इस काम के लिए गरिमा जी के प्रति जितना भी आधार व्यक्त करूंगी वह कम ही होगा।
    यह पुस्तक मेरे पास हो यह शिद्दत से चाह रही हूं। मंगाऊंगी । रवि रंजन जी का आभार

    Reply
  12. NISHA NAG PUROHIT says:
    4 weeks ago

    मैंने ‘चुप्पियाँ और दरारें ‘पुस्तक पढ़ी और रविरंजन जी की आलोचना भी।यह संतोष का विषय हो सकता है कि आज भी ऐसे पाठक और आलोचक हिंदी में हैं जो किसी किताब को पढ़कर उसकी विस्तृत समीक्षा लिखते हैं और तटस्थ होकर लिखते हैं,जिनका उद्देश्य किसी को उखाड़ना -पछाड़ना नहीं होता बल्कि पाठक को पुस्तक विशेष के बारे में मूल जानकारी दे देते हैं कि वह अपने स्व विवेक से पुस्तक पढ़ने -न पढ़ने का निर्णय कर सके।मुझे अच्छा लगा यह जानकर कि लगभग डेढ़ दशकों की निरंतर मेहनत के बाद या किताब सामने आई है,जिसे पेश करने में लेखक -प्रकाशक को कोई हड़बड़ी रही हो ऐसा नहीं लगता।पुस्तक पेपरबैक में छपी है और शोध के मानदंड के रूप में देखे जाने की वकालत करती दिखती है।पुस्तक में आपको पैनी आलोचनात्मक दृष्टि मिलती है,जैसे कि दलित स्त्री आत्मकथाओं के बारे में लिखा गया है -“दलित स्त्री आत्मकथाएं स्त्रीवादी दृष्टि से पढ़ने और विश्लेषण किये जाने की मांग करती हैं और इस तरह वे एक तरह की सम्भावना की तलाश करती हैं कि क्या यह संभव है कि पुरुष केन्द्रित चेतना की जगह स्त्रीवादी राजनीति के तहत स्त्रियों की छवियों में ज्यादा बेहतर और आत्मीय ढंग से बदलाव किये जाएँ.इस प्रक्रिया में स्त्रियों की आत्मकथाएं एक तरह के वैकल्पिक इतिहास का अंग बन सकती हैं .जब हम दलित स्त्री आत्मकथाकारों को देखते हैं तो इनमें समानता और असमानता के कुछ बिंदु परिलक्षित होते हैं पहली बात तो यह है कि इनमें से प्रत्येक आत्मकथाकार ‘मातृभाषा’ में लिखती है.अधिकांश आत्मकथाएं अंग्रेजी और हिंदी अनुवाद के माध्यम से बृहत्तर पाठक वर्ग तक पहुँचती हैं इसलिए इन रचनाकारों को दोहरा पाठकवर्ग मिलता है .इन आत्मकथाओं से एक्टिविस्ट और आलोचकों (साहित्यकारों)में एक विशेष प्रकार का संवाद कायम हुआ है .इनके आत्मकथ्यों को ‘साक्ष्य ’या ‘टेस्टीमोनी’ कहने की सिफारिश कई विद्वानों ने की है ।”

    इसी तरह किताब में कन्नड़ आत्मकथाओं के संदर्भ में उनके वर्गीकरण की कोशिश की गई है -“कन्नड़ में स्त्री आत्मकथाओं के अध्ययन की सुविधा के लिए इन्हें चार चरणों के अन्तर्गत रखा जा सकता है, इस विभाजन का आधार कालाधृत न होकर वस्तुगत है. विश्लेषण की सुविधा के लिए प्रवृत्तियों के आधार पर इन्हें निम्नलिखित बिन्दुओं के अंतर्गत वर्गीकृत किया जा सकता है-

    1.शोध या खोज

    2.अस्तित्व की पहचान

    3.अस्मिता या पहचान का बोध

    4.स्वायत्तता”

    ….प्रारंभिक दौर की ये आत्मकथाएँ अक्सर अस्मिता मूलक प्रश्नों पर विचार करती नहीं दिखतीं. उनके लिए विवाह अनिवार्य है -वे यह समझ नहीं पातीं कि “विवाह समाज द्वारा स्त्रियों को दी जाने वाली पारंपरिक नियति है. यह अभी भी सच है कि अधिकांश स्त्रियाँ विवाहित हैं, विवाहित हो चुकी हैं, विवाहित होने की योजना बना रही हैं, या विवाहित न होने के कारण कष्ट झेल रही हैं. इसलिए अविवाहित को विवाह के बारे में, उसके कारण और परिणामों के बारे में अच्छी तरह समझा दिया जाना चाहिए, चाहे वह उस संस्था के संबंध में निराश, विद्रोही या उदासीन ही क्यों न हो जाए.”[1] इस चरण की आत्मकथाकार अपने पति, पिता, भाई को नायक के रूप में चित्रित करती दिखती हैं और प्रशंसा करने के प्रसंग ढूँढ निकालती हैं. दुर्जेयता और उनके जीवित रहने की सरल तकनीकों के प्रति जागरूकता और प्रशंसा के भीतर छिपा असंतोष ही वह प्रेरणा बिंदु है, जो उनसे अपनी जीवन -कथा लिखवाता है. वे केवल सामाजिक-पारिवारिक संरचना का पालन करने का दिखावा करती हैं, लेकिन उनके संवादों की दरारें उनकी आंतरिक भावना और स्वायत्त होने की इच्छा को अभिव्यक्त करती हैं .बतौर उदाहरण फ़िल्म अभिनेता गुरुदत्त की माँ वासंती पादुकोण के आत्मकथात्मक लेखन को देखा जा सकता है, जिसमें वे स्त्री -पुरुष के सामाजिक अंतराल और पितृसत्ता पर कड़ी टिप्पणी करती हैं. वे आत्मकथा न लिखकर, कुछ न कहकर भी सब कुछ कह देती हैं. वे अपने आप को यथार्थ जीवन की तुलना में कभी भी ‘सुपर वुमन’ नहीं दिखातीं और अपने संघर्षों,दुविधाओं और संवेदना को अभिव्यक्त करती हैं. कहीं वे अंधविश्वास, घोर भौतिकवाद और पक्षपाती पुरुष संस्थानों की शिकार हैं, तो, कहीं तयशुदा व्यवस्था का विरोध न कर पाने के कारण असंतुष्ट और उदास. उनकी उदासी और अवसाद के कारण अनेक हैं. कहीं वे स्वयं को एक ऐसा जीवन जीते हुए देखती हैं जो शक्तिहीन, असहाय और असुरक्षित है; एक ऐसी स्थिति जिसका कारण जैविक नहीं बल्कि सामाजिक ‘कंडीशनिंग’ है. अपने भीतर उपस्थित ‘आत्म’ के बारे में जानने के बावजूद वे आत्म से संवाद करने की स्थिति में हैं नहीं और स्वयं को नियति के हवाले करने के अतिरिक्त और कोई मार्ग देख नहीं पातीं.यही कारण है कि वे कविता, कहानी जैसी विधा को अपनाती हैं और आत्मकथा विधा को जब ये अपनाती भी हैं, तो, वे बहुत सिलसिलेवार ढंग से अपनी बात कह नहीं पातीं.फिर भी बरसों -सदियों की चुप्पी को वे शब्द देना चाहती हैं. इसलिए उनके लिखे में गड्ढे -झोल दिखने स्वाभाविक हैं.”

    इन जैसे अनेक उद्धरण स्त्री आत्मकथा लेखन के प्रसंग और परिवेश को समझने का बौद्धिक-तार्किक नज़रिया प्रदान करते हैं.पुस्तक की अपनी सीमाएँ हैं कि पंजाबी समेत कई भाषाओं के आत्मकथ्यों के नाम गिना कर छोड़ दिए गए हैं.मैं समझती हूँ कि अन्य भारतीय भाषाओं पर भी काम होना चाहिए,इस नजरिये से यह किताब स्त्री आलोचना को एक नई दिशा देती है और लेखक से हम यह उम्मीद करते हैं कि वह इस काम को आगे बढ़ायें.प्रूफ़ संबंधी दो -तीन भूलें मुझे दिखायी दी हैं,कवर ठीक ही है…निशा नाग,प्राध्यापक,मिरांडा हाउस,दिल्ली विश्विद्यालय.

    [1] सिमोन द बोउवा, ‘द सेकंड सेक्स’के अध्याय ‘द मैरिड वूमन’, विंटेज प्रकाशन, 2011: 415

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  13. Vijay Kumar says:
    4 weeks ago

    गरिमा श्रीवास्तव जी स्त्री आत्मकथाओं पर लिखी पुस्तक” चुप्पियां और दरारें ” अभी हाथ में आई है। थोड़ा सा पढ़कर ही यह कह सकता हूं कि यह इधर आई एक अत्यंत महत्वपूर्ण पुस्तक है। इस गंभीर और श्रम साध्य अध्ययन में उन्होंने एक ऐसे विस्तृत फलक को लिया है जो इससे पहले शायद ही अध्ययन के दायरे में आया था। अस्मिताओं के विमर्श में शक्ति संरचनाओं के विभिन्न ऐतिहासिक , सामाजिक ,सांस्कृतिक , मनोवैज्ञानिक पहलुओं के अंतर्संबंध, उनकी स्थानिकताएं और उनकी सूक्ष्मताएं यहां बड़े कौशल के साथ उद्घाटित हुई हैं । स्त्री आत्मकथाओं के सब्जेक्टिव अनुभवों के भीतर आत्म से परे के वे सारे संदर्भ यहां उद्घाटित हो रहे हैं जो एक पदानुक्रम आधारित व्यवस्था का ताना- बाना रचते हैं। इस तरह हमें चीजों को देखने की एक नई दृष्टि मिल रही है । भूमिका में उन्होंने लिखा भी है की स्त्री आत्मकथाओं में निजी स्वर जो अपने स्वर से इतर की बात कहता है उसे सुनना जितना जरूरी है, उतना ही चुनौती पूर्ण भी है। अनसुनी आवाजों के भीतर जिस तरह से मार्मिक स्थलों की शिनाख्त यहां की गई है उनसे गुजरना एक अनुभव है। हर अध्याय इस बात का प्रमाण दे रहा है कि उन्होंने इस परियोजना पर कार्य करते हुए कितना अधिक परिश्रम किया है ।एक गहन अंतर्दृष्टि के साथ यह कार्य किया गया है। ऐसे श्रम साध्य और सघन शोध प्रोजेक्ट पर अधिक से अधिक चर्चा होनी ज़रूरी है। गरिमा श्रीवास्तव जी को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं।

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  14. M P Haridev says:
    4 weeks ago

    श्री रवि रंजन जी ने प्रेरणा दी कि यह विवेचना पढ़ी जाए । हिन्दी के दुर्लभ शब्दों का चयन करने में संकोच नहीं किया । समालोचन के पाठकों के यहाँ शब्दों का भंडार है ।
    प्रोफेसर गरिमा श्रीवास्तव ने गहन अध्ययन और शोध के आधार पर पुस्तक लिखी । ख़रीदकर पढ़ूँगा । विवेचना में लिखे गए स्त्रियों के नाम याद नहीं रहते । आत्मकथा को अलग तरह के शब्द दिए गए हैं । प्रसूति गृह में सीलन भरी दीवारों के बीच लगे बिस्तर पर सद्य प्रसूता का विलाप चीर देता है ।

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  15. मिथिलेश सिंह says:
    2 weeks ago

    श्रमसाध्य और पूर्ण मनोयोग से रचित पुस्तक पर रविरंजन जी ने बेहतरीन समीक्षा लिखते हुए उसके अंतः सूत्रों और लय को भी प्रस्तुत कर दिया है। समीक्षा पढ़कर ये लगा कि पुस्तक अत्यंत उपयोगी है और मौजूदा दौर के अध्यापकों, शोधार्थियों एवं विद्यार्थियों के लिए जरूरी भी। गरिमा जी को उनकी महत्त्वपूर्ण पुस्तक के लिए और रविरंजन को पुस्तक की सुलझी हुई समीक्षा के लिए बधाई।

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