सामुदायिक अपवंचना का इतिहास, लोकस्मृति एवं दावेदारीसौरव कुमार राय |
हिंदी भाषा के जाने-माने कवि केदारनाथ सिंह की एक कविता है ‘माँझी का पुल’. जैसा कि विदित है, केदारनाथ सिंह ‘बिम्बों के कवि’ थे. उनकी कविताओं में रोजमर्रा की अलग-अलग छवियां लिपटी हुई होती हैं जो सदैव किसी गूढ़ बात की तरफ इशारा करती हैं. ‘माँझी का पुल’ कविता में एक जगह वे लिखते हैं:
‘एक गहरी बेचैनी के बाद
मैंने कई बार सोचा है माँझी के पुल में
कहाँ है माँझी?
कहाँ है उसकी नाव?
क्या तुम ठीक उसी जगह उँगली रख सकते हो
जहाँ हर पुल में छिपी रहती है एक नाव?’
माँझी दरअसल उतर प्रदेश और बिहार की सीमा पर स्थित एक गाँव है जहाँ घाघरा नदी पर रेलवे का पुराना पुल है. वहीं दूसरी तरफ ‘माँझी’ शब्द का प्रयोग ‘नाविक’ या ‘मल्लाह’ के लिए भी किया जाता है. केदारनाथ सिंह द्वारा रचित उपरोक्त पंक्तियां आधुनिक युग में पुलों के निर्माण और नाविक समुदाय के विस्थापन के बहुत ही सूक्ष्म बिम्ब का निर्माण करती हैं. रमाशंकर सिंह की समीक्षाधीन पुस्तक इस बिम्ब को एक विस्तृत ऐतिहासिक एवं समाजशास्त्रीय फलक प्रदान करती प्रतीत होती है. यह पुस्तक उत्तर भारत में हाशिये का जीवन जीने को अभिशप्त उन ‘नदी-पुत्रों’ अर्थात निषाद समुदाय पर केन्द्रित है जो भारतीय समाज एवं इतिहास के हमेशा से एक अभिन्न अंग रहे हैं.
यह गौरतलब है कि नदियाँ इतिहास विषयक अध्ययन के केन्द्र में रही हैं. स्कूल के दिनों में इतिहास के पाठ्यक्रम में शामिल जिन प्रसंगों ने संभवतः सबसे ज्यादा आकर्षित किया होगा उनमें से एक था नदी घाटी सभ्यताओं का अध्ययन. हममें से ज्यादातर लोगों ने स्कूल में कम से कम तीन नदी घाटी सभ्यताओं के बारे में अवश्य पढ़ा होगा: भारतीय उपमहाद्वीप की सिंधु नदी घाटी सभ्यता, मिश्र की नील नदी घाटी सभ्यता एवं मेसोपोटामिया की दजला व फ़रात नदी घाटी सभ्यता. दूसरे शब्दों में, जैसा कि रमाशंकर सिंह लिखते हैं
‘नदियाँ हमारी संस्कृतियों की प्राथमिक पाठ हैं’ (पृ. xii).
यह अलहदा बात है कि ज्यों-ज्यों हम इतिहास अध्ययन के क्रम में आगे बढ़ते हैं, हम नदी-केन्द्रित अध्ययन से दूर होते चले जाते हैं और हमारा सारा ध्यान कृषि एवं उद्योग आधारित मानव समाज तक सीमित होते चले जाता है. बहरहाल, उपरोक्त नदी घाटी सभ्यताओं को पढ़ते समय शायद ही किसी ने इन नदियों पर आश्रित समुदायों के बारे में सोचा होगा. कालान्तर में जंगल के साथ जुड़े जनजातियों का अध्ययन तो हुआ, परंतु नदियों से अन्योन्य रूप से जुड़े निषादों पर गंभीर ऐतिहासिक अध्ययन न के बराबर हुए. प्रस्तुत पुस्तक इस रिक्त स्थान को भरने की दिशा में एक सार्थक कदम है.
समय की अनावर्त गति और निषाद समुदाय
यदि बात की शुरुआत इस पुस्तक में शामिल विमर्श के कालखंड से की जाये तो यह पुस्तक निषाद समुदाय के एक सम्यक इतिहास को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करने की चेष्टा करती है. इस सन्दर्भ में लेखक वैदिक काल से लेकर इक्कीसवीं शताब्दी तक के एक विस्तृत कालखंड में निषादों की वीरता, अस्पृश्यता और वंचना का एक आख्यान प्रस्तुत करते हैं. अपवंचना और बेदखली के इस वृहद् आख्यान में सिंह यह दर्शाने में सफल हुए हैं कि किस प्रकार से ऐतिहासिक अध्ययन के पारम्परिक तरीके हमारे समाज के एक बड़े तबके को इतिहास की परिधि से बाहर या यूँ कहें इतिहास-बदर कर देते हैं. लेखक के अनुसार समाज का एक बड़ा हिस्सा ऐसा भी था जिनका विकास उस अनुक्रम में नहीं हुआ जैसा हम ऐतिहासिक रूप से विश्वास करते रहे हैं. अर्थात, उनका जीवन खेती या अनाज के उत्पादन एवं उसके विनिमय पर आधारित नहीं था. यहाँ पर सिंह मूलतः ‘स्थायी बस्तियों’ या ‘अनाज की प्रधानता’ को केन्द्र में रखकर हुए ऐतिहासिक अध्ययन के उपक्रमों को चुनौती देते हैं. सिंह के अनुसार निषाद समुदाय के ऐतिहासिक विकास को अग्नि का प्रयोग करने के तरीकों, खेती की शुरुआत और राज्य-निर्माण की प्रक्रिया से शायद ही समझा जा सके (पृ. 40). अतः, निषाद समाज की ऐतिहासिक निर्मिति को समझने के लिए यह आवश्यक है कि हम इतिहास अध्ययन के अपने पारम्परिक आधारों को बदलें.
हालाँकि, प्राचीन काल से लेकर उत्तर-आधुनिक काल तक फैले इतने बड़े कालखंड को एक पुस्तक में समेटने की लेखकीय महत्वाकांक्षा इस आख्यान में एकाधिक जगहों पर स्वाभाविक रूप से रिक्त स्थान की गुंजाइश पैदा करती है. इस किताब के साथ भी कुछ-कुछ ऐसा ही है. एक तरफ जहाँ प्राचीन भारत एवं औपनिवेशिक भारत में निषाद समुदायों की सामाजिक स्थिति एवं उनकी ऐतिहासिक नियति पर गहन दृष्टि डालने में यह किताब सफल हुई है, वहीं मध्यकालीन भारत का एक बड़ा कालखंड उपेक्षित रह गया है. कुछ ऐसा ही स्वातंत्र्योत्तर भारत वाले कालखंड के साथ हुआ है जहाँ लेखक औपनिवेशिक भारत में निषाद समुदायों की स्थिति पर अपने शानदार विश्लेषण के बाद एक लम्बी छलाँग लगाते हुए निषादों के समसामयिक संघर्षों व उसके इर्द-गिर्द की राजनीति पर चर्चा करने लगते हैं. यद्यपि मध्यकाल से तुलसीदास के ‘रामचरितमानस’ और ‘कवितावली’ में वर्णित निषाद समुदाय की गरीबी की एक संक्षिप्त चर्चा लेखक रमाशंकर सिंह ने अवश्य की है (पृ. 94-95). कुछ इसी प्रकार स्वातंत्र्योत्तर भारत के सन्दर्भ में लेखक ने भारत की संविधान सभा में मध्य प्रान्त और बरार से आये एच.जे. खाण्डेकर द्वारा ‘आपराधिक जनजातियों’ का मसला उठाये जाने को इंगित किया है (पृ. 123-24). परन्तु ये उद्धरण इन विस्तृत कालखंडों की निषाद समुदाय के विशिष्ट सन्दर्भ में राजनीतिक एवं सामाजिक गतिकी का जायजा लेने के लिए नाकाफ़ी प्रतीत होते हैं.
इन रिक्तियों के बावजूद एक बात जो रमाशंकर सिंह के आख्यान में स्पष्ट तौर पर उभर कर सामने आती है वह यह है कि समय के साथ निषाद समुदाय की सामाजिक और आर्थिक स्थिति में उत्तरोत्तर गिरावट दर्ज की गयी है. निषादों की सामाजिक व सांस्कृतिक छवियाँ भी निरंतर बदलते रहीं और औपनिवेशिक शासन आते-आते न सिर्फ उनके सामुदायिक अधिकारों की अवहेलना की गयी, वरन उन्हें राजस्व प्रदाता और धन का सृजन करने वाले समुदाय से इतर ‘जन्मना अपराधी’ (क्रिमिनल ट्राइब) वाले समुदाय में श्रेणीबद्ध कर दिया गया जिस पर हम आगे चर्चा करेंगे.
इतिहास लेखन के स्रोत एवं निषाद
यहाँ थोड़ा रूक कर यदि लेखक द्वारा प्रयुक्त शोधविधि एवं स्रोतों की बात की जाये तो इस लिहाज से निस्संदेह यह पुस्तक इतिहास लेखन के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण हस्तक्षेप है. यह पुस्तक पाठ (टेक्स्ट), अभिलेखीय सामग्री (आर्काइव) एवं क्षेत्र कार्य (फील्ड वर्क) का एक मोहक समन्वय है. ऐसा सम्मिश्रण हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी में लिखी जाने वाली इतिहास की पुस्तकों में भी विरल ही है.
इतिहासलेखन के ये विविध स्रोत एवं शोधविधि प्रस्तुत पुस्तक के भिन्न-भिन्न अध्यायों में उभरकर सामने आये हैं. उदाहरण के तौर पर पूर्व-आधुनिक भारत में निषादों के उदय एवं उनकी सामाजिक-सांस्कृतिक छवियों की पड़ताल हेतु लेखक ने संस्कृत स्रोतों जैसे कि वेद, महाकाव्य, धर्मसूत्र, स्मृति, इत्यादि के साथ-साथ पालि ग्रंथों की भी गहन विवेचना की है (पृ. 83-111). इसी प्रकार आधुनिक भारत विशेष तौर से औपनिवेशिक काल में निषादों की अपवंचना और बेदखली को दर्ज करने हेतु औपनिवेशिक अभिलेखागारों की विभिन्न फाइलों को खंगाला गया है. यहाँ यह उल्लेखनीय है कि औपनिवेशिक कानूनों और ‘क्रिमिनल ट्राइब’ के तौर पर निषाद समुदाय के दारिद्रय व कलंकीकरण की जैसी व्याख्या इस पुस्तक में की गयी है, वैसी शायद ही कहीं और उपलब्ध हो. मूलतः उत्तर प्रदेश राजकीय अभिलेखागार में मौजूद फाइलों के आधार पर लिखा गया यह अध्याय कई मायनों में इस पुस्तक का सबसे महत्वपूर्ण या यूं कहें ‘हासिल-ए-महफिल’ अध्याय है (पृ. 112-55).
दरअसल, औपनिवेशिक संरचना में हर उस समुदाय को संदेह की नजरों से देखा गया जो चलायमान था, फिर चाहे वो चरवाहे हों, घुमन्तू समुदाय हों, पर्वतों तथा जंगलों के दुर्गम इलाकों में रहने वाले लोग हों, या फिर समुद्र तटों पर रहने वाले मछुआरे और नदियों के किनारे बसने वाले निषाद हों. इसका एक कारण यह था कि किसी सुनिश्चित चौहद्दी के वासी न होने के कारण इन समूहों पर क्षेत्र विशेष की राजस्व व कानून व्यवस्था के नियम लागू करना अत्यंत मुश्किल कार्य था. अतः इन समूहों पर लगातार पुलिसिया निगरानी बनाये रखने हेतु इन समूहों को एक-एक करके ‘क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट, 1871’ के अधीन ‘जन्मना अपराधी’ के तौर पर चिन्हित किया जाने लगा. बिना पुलिस की अनुमति व लाइसेंस के इन समुदायों के सदस्यों का एक-जगह से दूसरे जगह आना-जाना वर्जित कर दिया गया. जैसा कि इस पुस्तक में दिखाया गया है कालान्तर में निषाद समुदाय भी इस औपनिवेशिक कलंकीकरण से बच न सका. 1910 में संयुक्त प्रान्त (वर्तमान उत्तर प्रदेश) के मल्लाहों को सामान्य कानून व्यवस्था और रेलवे के लिए खतरनाक मानते हुए ‘क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट’ के अधीन ले आया गया (पृ. 122).
निषाद समुदाय के वर्तमान अस्तित्व और उनके समक्ष उपस्थित आजीविका के प्रश्न और उससे जुड़े विचार, संघर्ष व राजनीति को समझने के लिए लेखक ने एक बड़े पैमाने पर एथ्नोग्राफिक अथवा नृशास्त्रीय क्षेत्र कार्य का सहारा लिया है. लेखक द्वारा ये एथ्नोग्राफिक क्षेत्र कार्य मुख्यतः इलाहाबाद (वर्तमान प्रयागराज), वाराणसी, चन्दौली और कानपुर जिलों में किया गया है. ये क्षेत्र कार्य लेखक द्वारा स्थापित शोध अवधारणाओं को न सिर्फ पुष्ट करते हैं, वरन उन्हें समकालीन, समाज-सापेक्ष एवं जनोपयोगी भी बनाते हैं. यही कारण है कि इस पुस्तक का पाठकीय दायरा घनघोर अकादमिक विमर्शों तक ही सीमित न रहकर जनसाधारण तक पहुँचने की संभावनाओं से परिपूर्ण है.
इसके साथ ही प्रस्तुत पुस्तक में द्वितीयक स्रोतों की भी एक बड़े पैमाने पर चर्चा की गयी है. इस कारणवश इसकी सन्दर्भ सूची वाकई में प्रभावित करने वाली है. एक पुस्तक जिसकी लेखक ने एकाधिक बार चर्चा की है वह है कुबेरनाथ राय द्वारा लिखी ‘निषाद बाँसुरी’ (1982) की. लेखक के अनुसार ललित निबन्धों की इस किताब में निषाद समुदाय के सांस्कृतिक अवदान, उनकी ऐतिहासिक स्मृतियों और जीविका के पक्ष पर बात की गयी है. स्वयं निषाद समुदाय अपने वर्तमान सामाजिक एवं राजनीतिक संघर्षों में राय द्वारा लिखी इस पुस्तक को उद्धृत करता रहा है. बहरहाल, प्रस्तुत समीक्षाधीन पुस्तक भविष्य में इस विषय पर काम करने वालों के लिए उपलब्ध प्राथमिक एवं द्वितीयक स्रोतों की विस्तृत जानकारी प्रदान करती है.
समकालीन राजनीति और वंचित समुदाय
निषादों का इतिहास चाहे जो भी रहा हो, एक बात तय है कि वे उत्तर भारत की वर्तमान राजनीति में एक ऐसी आवाज बनकर उभर रहे हैं जिसे अनसुना करना मुश्किल है. निषाद समुदाय की इस समकालीन राजनीतिक गोलबंदी, संघर्ष और सक्रियता को भी इस पुस्तक में बखूबी दर्ज किया गया है. फिर चाहे वो ‘भारतवर्ष के प्रथम इतिहास पुरुष’ के रूप में निषादराज गुह की राजनीतिक स्थापना हो, या फिर एकलव्य जैसे महाकाव्यात्मक युवक का निषाद समुदाय के अपवंचना के प्रतीक स्वरुप प्रतिपादन (पृ. 219-21). इसी क्रम में फूलन देवी के रूप में निषाद जनों को प्रतिरोध की संस्कृति के व्यापक मूल्य से परिचित कराना (पृ. 221-23) या फिर प्रभु श्रीराम एवं निषादराज के संबंधों का हवाला देती बहुसंख्यकवादी सोशल इंजीनियरिंग की भी चर्चा शामिल है (पृ. 226).
ये उद्धरण वर्तमान में ‘निषाद’ अस्मिता के निर्माण को समझने के लिए आवश्यक हैं. जैसा कि रमाशंकर सिंह बताते हैं गौरव और पीड़ा मिश्रित निषाद समुदाय के इन आख्यानों में इतिहास और मिथक आपस में घुल-मिल जाता है और इससे एक बहुत ही सक्रिय ‘राजनीतिक समाज’ का निर्माण होता है (पृ. 220). इससे वर्तमान उत्तर प्रदेश की राजनीति में निषाद समुदाय और उनके नेताओं की भागीदारी, स्पर्धा एवं सत्ता के साथ मोलभाव के पहलुओं को समझने में मदद मिलती है. यही नहीं क्षेत्र कार्य के माध्यम से लेखक ने प्रस्तुत पुस्तक में नदियों में बढ़ते प्रदूषण, अवैध बालू खनन, बांधों के निर्माण व इससे जुड़े विस्थापन, नौकरियों में सामुदायिक आरक्षण की मांग, मछली एवं निषाद समुदाय की खाद्य संस्कृति, नदी किनारे खेती, गोताखोरी, तीर्थ एवं स्नान, आदि पर भी निषाद समुदाय के नेताओं व आम सदस्यों के मन्तव्यों को बड़े ही संवेदनशीलता के साथ उकेरा है. एक ऐतिहासिक पाठ में ‘मानवीय अनुभवों’ को इस प्रकार न सिर्फ दर्ज बल्कि तारतम्य बिठाने का यह लेखकीय प्रयोग प्रशंसनीय है.
इसी पुस्तक में एक महत्वपूर्ण अध्याय गंगा नदी एवं शास्त्रों, लोकगीतों और सामुदायिक जीवन में उसकी उपस्थिति पर केंद्रित है (पृ. 180-208). इस अध्याय में गंगा के बहाने लेखक ने एक नदी के सांस्कृतिक इतिहास को रेखांकित करने की कोशिश की है. वे दिखाते हैं कि किस प्रकार एक सांस्कृतिक कल्पना के रूप में गंगा नदी उन क्षेत्रों में भी आदर पाती है, जहाँ वह नहीं बहती है. इसी क्रम में रमाशंकर सिंह निषाद समुदाय को नदियों एवं शेष समाज के बीच पुल बनाने वाले एक समुदाय (‘ब्रिज कम्युनिटी’) के तौर पर देखते हैं.
हालाँकि, कुछ जगहों पर प्रूफ संबंधी त्रुटियाँ जाने-अनजाने में रह गयी हैं. अध्यायों को विधिवत अध्याय क्रमांक न देना भी खलता है. उम्मीद है लेखक एवं प्रकाशक मिलकर इन त्रुटियों को भावी संस्करणों में दुरुस्त कर लेंगे. यह दोनों की सामूहिक जिम्मेदारी है.
और अन्त में…..
पाठ का अन्त केदारनाथ सिंह की ही एक अन्य कविता से करते हैं. उनकी एक कविता है ‘अगर इस बस्ती से गुजरो’ जहाँ वे कहते हैं: ‘अगर इस बस्ती से गुजरो, तो जो बैठे हों चुप, उन्हें सुनने की कोशिश करना, उन्हें घटना याद है, पर वे बोलना भूल गये हैं.’ यद्यपि वर्तमान उत्तर भारतीय राजनीति में निषाद समुदाय कदाचित बेज़ुबान समुदाय नहीं रह गया है, फिर भी अकादमिक जगत में वे उसी सबआलटर्न भीड़ का हिस्सा हैं जिनकी आवाज अकादमिक विमर्शों से नदारद है. यह आशा की जा सकती है कि प्रस्तुत पुस्तक उन्हें अकादमिक जगत में एक ठोस आवाज़ प्रदान करेगी और उनके संघर्षों की साथी बनेगी. जैसा कि रमाशंकर सिंह इस पुस्तक में एक जगह कहते हैं: ‘केवल सम्मानसूचक शब्द इस्तेमाल कर देने भर से समुदायों की ज़िन्दगी नहीं बदल जाया करती है बल्कि उन्हें शासन और निर्णय लेने में भागीदारी भी चाहिए’ (पृ. 236).
वस्तुतः, यह पुस्तक एक मॉडल प्रस्तुत करती है सदियों से अवमानना, बहिष्करण और संस्थागत हिंसा झेल रहे उन तमाम समुदायों के बारे में संवेदनशीलता से लिखने के लिए जिन्हें हम ‘डि-नोटिफाइड’ अथवा ‘विमुक्त’ समुदाय कहते हैं. अन्यथा वैसी किताबें आती रहेंगी जिनमें नदी तो होगी लेकिन मनुष्य नहीं, तीर्थ यात्री तो होंगे लेकिन निषाद नहीं, बंदर और भालू तो होंगे लेकिन मदारी नहीं, हिन्दू देवी-देवताओं की खूबसूरत मूर्तियां तो होंगी लेकिन पाथरकट नहीं. कुल मिलाकर यह एक उम्दा किताब है जिसे न सिर्फ शोधकर्ताओं और अकादमिकों बल्कि बहुजन राजनीति से जुड़े तमाम कार्यकर्ताओं और बौद्धिकों को भी अवश्य पढ़नी चाहिए.
रमाशंकर सिंह, नदी पुत्र: उत्तर भारत में निषाद और नदी, भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला एवं सेतु प्रकाशन, दिल्ली, 2022, पृष्ठ xvi+264, पेपरबैक, 295 रुपये.
सौरव कुमार राय वरिष्ठ शोध सहायक नेहरू स्मारक संग्रहालय एवं पुस्तकालय नयी दिल्लीईमेल: skrai.india@gmail.com/मोबाइल: 9717659097 |
रमाशंकर सिंह गंभीर अध्येता हैं । ‘नदी पुत्र’ निश्चय ही अच्छी किताब होगी । सौरव कुमार राय की समीक्षा किताब पढ़ने की प्रेरणा देती है । समीक्षा की सफलता इसी में है ।
लेखक समीक्षक दोनों को बधाई और धन्यवाद ।
महत्त्वपूर्ण काम ! बधाई !
निषादों की उपेक्षाओं का लेख पढ़ा । इन्हें पिछड़ा वर्ग में गिनें या जनजाति में; सरोकार उनके आर्थिक विकास के लिये काम करने की ज़रूरत है । उत्तर भारत की राज्य सरकारें जातिगत आधार पर काम करते हैं । इसके पीछे वोट बैंक की राजनीति है । वर्तमान समय में केंद्र सरकार सांप्रदायिक राजनीति कर रही है । इस निज़ाम से पिछड़ी जातियों और जनजातियों की उपेक्षा की है । लेखक या समीक्षक बता पायेंगे कि क्या झीमर भी निषादों की श्रेणी में आते हैं । हमारे घर से क़रीब 40 क़दम की दूरी पर क़िले वाली गली है । यह रास्ता पृथ्वीराज चौहान के भग्न क़िले की ओर जाता है । इस गली में झीमर रहते हैं जो मेरे बचपने में उत्तर प्रदेश से आकर बस गये थे । 1962 के बाद हाँसी में वाटर वर्क्स का निर्माण किया गया था । इससे पहले नगर पालिका वाटर टैंकर भेजती थी । झीमर जाति (कदाचित धीवर और झीमर एक ही जाति के लोग हों) के पुरुष टैंकर से पानी भरकर परिवारों में पहुँचाते थे । पालिका उनकी आर्थिक मदद करती थी ।
अभी मैंने प्रिय रमाशंकर सिंह की यह पुस्तक ‘नदी पुत्र: उत्तर भारत में निषाद और नदी’ नहीं पढ़ा है लेकिन सौरव कुमार राय जी की इस टिप्पणी ने इस पुस्तक के प्रति गहरी उत्सुकता जगा दी है। रमाशंकर सिंह ने इतिहास,समाज और राजनीति की बस्तियों से गुजरते हुए चुप बैठे हुए लोगों को सुनने की कोशिश की है। दर असल वे चुप बैठे हुए लोग नहीं हैं बल्कि चुप बैठा दिये गये लोग हैं। जिन्होंने हमारी संस्कृति और समाज के निर्माण में महत भूमिका निभायी, उन्हें ही हाशिये पर डाल दिया गया। निषाद समुदाय को लम्बे समय तक बोलने नहीं दिया गया। ऐसा नहीं कि उन्हें उनका इतिहास भूल गया था लेकिन उन्हें उस क्षमता से वंचित रखा गया, जो सामने आकर बोलने की ताकत देती है। रमाशंकर जी ने इतिहास, मिथ और साहित्य के स्रोतों से निषाद समुदाय के सामाजिक जीवन और उनके योगदान का प्रामाणिक विवरण हासिल करने और उस पर बात करने की कोशिश की है, यह बहुत महत्वपूर्ण काम है। सौरव राय जी ने यह सही कहा है कि धारा के विपरीत जाकर रमाशंकर सिंह ने साहित्य को भी इतिहास के स्रोत के रूप में इस्तेमाल करने की कोशिश की है। यह एक नयी बात है। सौरव जी स्वयं सामाजिक विज्ञान, मनोविज्ञान और साहित्य के गंभीर अध्येता हैं, इसीलिए वे यह बात ठीक से समझा सके हैं। एक अच्छी टिप्पणी के लिए सौरव राय जी को बधाई। रमाशंकर सिंह को एक बेहतरीन पुस्तक के लिए।
Will read.
बहुत ही अच्छी शिक्षा निशद् की मिली निषाद की अन्य प्राचीन जाति- केवट, मुड़हा, बिंद, बथम, रायक्वार, धीमार्, आदि जातियो का उल्लेख नहीं मिलता है क्या समुदाय के लोग डर से पलायन कर गए थे या कोई दास्ता से डरे सहमें हुए छिप गए थे। शासन द्वारा परिभाषित मछुआ मे कई जातियाँ आज है जिनका इतिहास कही नही मिलता है। क्या इनके इतिहास को जला दिया गया है या चुहिया खा गयी है या शासन व्यबस्था ने लुप्त कर दिया है। माझी, केवट, मुड़हा