नन्दकिशोर आचार्य से कालु लाल कुलमी की बातचीत |
परम्परा की व्याख्या आप किस तरह करते है.
परम्परा का अर्थ वह तत्व है जो मानव समूह को एक समाज बनाता हैं. हम एक समाज में हैं, कहने का तात्पर्य यह है कि हम एक परम्परा में हैं. इसका अर्थ अपनी अलग-अलग सामाजिक संरचना की व्यवस्था होती है. इसके मूल में कहीं कोई जीवन-दर्शन रहता है. यह आवश्यक नहीं कि वह सम्पूर्ण जीवन-दर्शन समाज में उतर आया हो. यह भी आवश्यक नहीं कि वह सारा का सारा जीवन-दर्शन हमेशा हर व्यक्ति के सामने मुखर हो या स्पष्ट रूप से मौजूद रहता हो लेकिन उस समाज में एक ख़ास तरह से समाज को आपस में बांधता है.
इसलिये परम्परा की जो बात है वह किसी भी समाज को एक बनाए रखने, उसे जोड़ने का काम करती है. जोड़ने वाले ये तत्व ही परम्परा कहलाते हैं. इस दृष्टि से आप पूर्वी और पश्चिमी परम्परा की बात कर सकते हैं. भारतीय परम्परा में दस तरह की परम्परा की बात कर सकते हैं. आप कह सकते हैं कि सिख परम्परा यह है, जैन परम्परा यह है, स्वयं हिन्दू समाज में कई तरह की परम्पराएं हैं. तो इस कारण से इसका कोई स्पष्ट स्वरूप सामने नहीं आता. और एक तरह का कन्फ्यूज़न पैदा होता है कि किसको हम परम्परा माने, इसके लिये प्रत्येक व्यक्ति को यह समझना पड़ेगा कि उसकी अपनी जीवन-दृष्टि क्या है और ये जीवन-दृष्टि जहाँ मिलती है, वह उसकी परम्परा है. इसमें किसी की अवज्ञा की बात नहीं है. न ही किसी को ऊँचा मानने की बात है और न किसी को नीचा मानने की बात. लेकिन अगर वह समाज में रहता है तो उस समाज के साथ में उसका एक विशेष रिश्ता होता हैं. मसलन, ये स्वीकार करना कि लाख विविधताओं के रहते भी भारत एक है.
अगर मैं परम्परा को छोड़कर यह कहूँ कि आप भारतीय समाज का हिस्सा कैसे हैं? तो आप कहेंगे कि मैं भारतीय संविधान को मानता हूं, संविधान में दिये गए मूल्यों को मानता हूं, भारतीय संविधान को जिसने बनाया उसको मानता हूं, अगर मेरी कोई असहमति है तो मैं उसको उसी के माध्यम से ठीक करना चाहता हूँ, यानी बाहर से कोई आक्रमण करके भारतीय संविधान को नहीं बदल सकता. इसलिए परम्परा को आप बाहर से नहीं समझ सकते. परम्परा हमेशा आपको अपने अन्दर से समझनी होगी. आप किसके साथ में क्या रिश्ता महसूस करते हैं ये आपको उस जीवन दृष्टि के साथ समझना होगा जो आपके समाज में रहती है. उदाहरण के लिए, एक उस समाज में, जिसका आप हिस्सा हैं, ऐसी भी परम्परा हो सकती है जो आपको स्वीकार न हो . तब आप कह सकते है कि परंपरा में रहकर भी आप इसमें शामिल नहीं हैं. तो परंपरा कोई रूढ़ धारणा नहीं है. कुल मिलाकर आपको ये तो मानना ही पड़ता है कि आप किसी एक परम्परा में नहीं है तो आप किसी भी समाज में नहीं हैं और किसी एक समाज में हुए बिना काम नहीं चल सकता . इसलिए आप किसी न किसी एक परम्परा में रहते हैं. ये आपपर निर्भर करता है कि किस सीमा तक आप उसे सुधारना चाहते हैं या उसे अधिक आलोचनात्मक दृष्टि से देखते हैं. उसमें कम या ज्यादा परिवर्तन करें, लेकिन आप निश्चित रूप से रहते एक परम्परा में ही हैं: जीवन शैली की परम्परा में.
आपकी चिंतन पद्धति पर गांधी की जीवन-दृष्टि का बहुत प्रभाव है. आप बार-बार गाँधी के पास जाते हैं, इसकी क्या वजह है.
मैं मूलतः अहिंसक दृष्टि को मानता हूं. गांधी के पास जाना या बार-बार उनका सन्दर्भ आ जाना इसलिए है क्योंकि हमारे समय में अहिंसा के सबसे बड़े प्रयोगधर्मा या प्रयोगकर्ता और एक हद तक लगभग सभी समस्याओं को अहिंसा के माध्यम से सुलझाने का सार्थक प्रयास करने वाले गाँधी ही थे . बिना अहिंसक दृष्टि के हम समाज में नहीं रह सकते. सामाजिक होने का मतलब ही अहिंसक होता है. अगर आप किसी भी कारण से हिंसा करते हैं सिवा आत्म रक्षा के, तो ये समाज को बदलना नहीं हैं. समाज तो स्वमेव अपनी प्रक्रियाओं से बदलता है. परिवर्तन उस पर आरोपित नहीं किये जा सकते. इसलिये मैं गांधी का जिक्र बार-बार करता हूँ. कारण यही है कि गांधी उस रास्ते को अपनाते हैं जो सहज है और स्वतः समाज में बदलाव लाने में सक्षम है. मैं उनकी कई बातों से असहमत भी हूं लेकिन अहिंसा की जो बात है उससे मैं लगातार प्रभावित हूं, इसलिए साहित्य और विचार को मैं अहिंसा की ही प्रक्रिया मानता हूँ. आप साहित्य और विचार के माध्यम से किसी की संवेदना में परिवर्तन की कोशिश करते हैं तो यह भी एक अहिंसक प्रक्रिया ही है. यहाँ आप किसी को डंडा मारकर अपने रास्ते पर नहीं ला रहे हैं, इसलिए जब आप विचार को एक साधन के रूप में स्वीकार करते हैं तो यह एक अहिंसक विचार है. ये सारी कि सारी प्रक्रिया अहिंसा ही है. इस दृष्टि से देखें तो यह प्रभाव गांधी की अहिंसा का ही है.
आपकी चिंतन-पद्धति पर जैन और बौद्ध धर्म का प्रभाव है इसका क्या कारण है? धर्म की आलोचना को लेकर क्या कहते हैं?
देखिये , एक बात जो बिलकुल स्पष्ट है, कि मैं कोई धार्मिक व्यक्ति नहीं हूं. मनुष्य का धर्म अहिंसा है. उन अर्थों में आप मुझे धार्मिक कह सकते हैं. जैसा आप ही ने कहा कि मेरी चिंतन-पद्धति पर जैन और बौद्ध धर्म का प्रभाव है तो इसका कारण है कि दोनों ही धर्म अहिंसा को केन्द्रीय सिद्धांत के रूप में स्वीकार करते हैं या जीवन-दृष्टि के रूप में स्वीकार करते हैं. यहाँ मैं गांधी की अहिंसा की बात भी करूँगा . आपके सवाल के उत्तर के रूप में मैं इन तीनों की बात करता हूँ क्योंकि इन तीनों में एक ही सादृश्य है,और वह है, अहिंसा का. दूसरी बात यह कि मैं धर्म को उन अर्थों में स्वीकार नहीं करता हूं जिन अर्थों में सामान्यतः: स्वीकार किया जाता है- उपासना, पूजा या फिर किसी एक उपासना पद्धति को अपनाना या किसी सम्प्रदाय के नियमों को अपनाना, उन अर्थों में मैं धर्म को स्वीकार नहीं करता यानी मैं किसी पूजा पद्धति में विश्वास नहीं करता. लेकिन अगर मैं यह कहूं कि अहिंसा एक धर्म है, प्रेम एक धर्म है, मैत्री एक धर्म है- तो मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचता हूँ कि मनुष्य और समाज को जोड़ने वाले जितने भी नियम हैं वे ही सच्चे धर्म की अवधारणा बनाते हैं. धर्म शब्द का अर्थ है: जो समाज को धारण करे. जो नियम समाज को चलाता है, वही धर्म है. तो समाज में रहने के लिये आपको किसी न किसी नियम को मानने की आवश्यकता होती है और इन अर्थों में मैं मानता हूं कि प्रत्येक समाज अगर उस धर्म का पालन करता है तो वह साम्प्रदायिक धर्मों से ऊपर उठ कर एक तरह के आध्यात्मिक धर्म में प्रवेश करता है. उसी तरह के अध्यात्म में जो जैन और बौद्ध धर्म में है: वहां कोई ईश्वर नहीं है. दोनों धर्मों में कुछ नियम हैं. उस वैयक्तिक ईश्वर की वहां कल्पना नहीं है जिसने यह सृष्टि बनायी और जो इसको चला रहा है.
मार्क्सवाद का जहां तक प्रश्न है यह बड़ा उलझा हुआ सवाल है. क्योंकि मार्क्सवाद तो किसी तरह का आध्यात्मिक भाव नहीं मानता वह तो आर्थिक प्रक्रियाओं के आधार पर बुनियादी परिवर्तन को स्वीकार करता है. वह तो भौतिकवाद है, आत्मा को तो मानने का सवाल ही नहीं उठता. वह भौतिक विकास को ही समाज का विकास मानता है. मैं मानता हूं कि यह एक हद तक सही है. क्योंकि आर्थिक प्रक्रियाएं मनुष्य के जीवन को प्रभावित करती हैं. लेकिन आर्थिक प्रक्रियाएं के रहते, विचार की प्रक्रियाएं उससे मुक्त भी होती हैं. ऐसा कई दफा होता है कि अपने विचारों के माध्यम से हम अपने समय, प्रकृति और परिवेश में रहते हुए भी उसका अतिक्रमण करते हैं. तब विचार की प्रक्रिया आर्थिक प्रक्रियाओं का अतिक्रमण करती है और विचार अपने आप में शक्ति बन जाता है. आप उस विचार के अनुसार ही सब करना चाहते हैं तब आर्थिक कारण नहीं रह जाता. बस आपको विचार सही लगता है. इसलिये मार्क्सवाद की असफलता यह रही कि उसने विचार की इस प्रक्रिया को भी आर्थिक प्रक्रिया के अन्दर मान लिया. उसने इससे इतर विचार का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं माना और यह स्वीकार किया कि आर्थिक प्रक्रियाओं के परिवर्तन के साथ ही कोई विचार भी तय होता है. यह मेरे ख़याल से सही बात नहीं है इसी कारण मैं इसको स्वीकार नहीं कर पाता.
जहाँ तक मार्क्सवाद और समाज का प्रश्न हैं वहाँ हमें यह समझने की आवश्यकता है कि आप किसी समाज में काम करना चाहते हैं, कुछ परिवर्तन करना चाहते हैं तो उस समाज का मखौल उड़ाकर वह नहीं कर सकते. ये बड़ी महत्वपूर्ण बात है. आज अगर मार्क्सवाद भारतीय समाज में प्रभावी नहीं हो पा रहा है तो उसका कारण यह है कि मार्क्सवाद की भारतीय समाज के प्रति दृष्टि सदैव आक्रामक रही है . मैंने यह भी कहा कि आप किसी भी समाज को उसके अंदर रह कर बदलते हैं, बाहरी कसौटी के आधार पर नहीं. बाहरी से मेरा मतलब कोई विदेशी नहीं. बाहरी से मतलब है, जो उस समाज की प्रक्रिया में शामिल नहीं. समाज के बदलाव के लिये ये जरूरी है कि कोई भी कम्युनिकेटर जो अपनी बात समझाना चाहता है वह काल, स्थिति और स्थान के अनुसार अपनी भाषा और मुहावरों में भी परिवर्तन करें. अगर मैं किसी को कुछ समझाना चाहता हूं तो मुझे उस भाषा का इस्तेमाल करना होगा जिसको वह समझता है. जैसा गांधी ने भारतीय समाज में किया. बहुत सी बातें बड़ी जरूरी हैं. और देखा गया है कि लोग पारम्परिक रूढ़िगत समाज में चैलेन्ज करते हैं पर उसी की भाषा में जिसे पारम्परिक रूढ़िगत समाज सुनता है और आत्मविवेचन या आत्मालोचन की तरफ भी जाता है. मार्क्सवादी ऐसा नहीं करते, हमारे यहां जितने भी मार्क्सवादी बौद्धिक रहे वे आक्रमण की भाषा में बोलते हैं तो वह बात प्रभावी कैसे होगी. वे सही भी कहते होंगे, तो भी वह बात नहीं स्वीकारी जाती. क्योंकि आप जिस व्यक्ति को बदलना चाहते हैं उसके प्रति आक्रामक हैं. आक्रामक रह कर आप किसी का मन नहीं बदल सकते उसको मजबूर जरूर कर सकते हैं, ताकत से अपने अनुसार चला सकते हैं पर उसकी मनोवृत्ति में परिवर्तन के लिये आपको आक्रामकता छोड़नी पडेगी. मार्क्सवाद ने दुर्भाग्य से यह आक्रामकता भारतवर्ष में अभी तक बनाये रखी है इसीलिये वह प्रभावी नहीं हो पाया है.
पिछले दिनों आप चीन की यात्रा पर गये थे और आपने लिखा भी था कि ‘ये कहां आ गये हम, ये रास्ता तो कहीं नहीं जाता‘. आज चीन अपने को सबसे बडा साम्यवादी देश कहता है और सोवियत विघटन के बाद वही बड़ा साम्यवादी देश है भी. वहां की वर्तमान व्यवस्था के बारे में क्या कहेंगे?
देखिये, चीन की आर्थिक व्यवस्था पूरी तरह से पूंजीवादी हो चुकी है, लेकिन वहां की राजनैतिक व्यवस्था एक दलीय है. तो पूंजीवाद और एक दलीय मिलकर एक तरह का फासीवाद बनाते हैं. यह निःसंदेह खतरनाक है. पूंजीवाद अपने आप में खतरनाक है पर डेमोक्रेसी होने पर उसका प्रभाव कम होता है. जहां लोकतंत्रात्मक पूंजीवाद है वहां फिर भी लोकतंत्र होने के कारण मनुष्य की स्वतंत्रता के बने रहने की संभावनाएं बनी रहती हैं. जहां एक तंत्र है और पूंजीवाद नहीं है वहां एक दूसरी तरह की संभावना बनी रहती है, कि आप सामान्य जन को इकट्ठा करके एक आन्दोलन चला सकते हैं. लेकिन चीन के अन्दर एक दलीय पूंजीवाद है जबकि बाकी सभी जगहों पर बहुदलीय पूंजीवाद है. एक दलीय पूंजीवाद जर्मनी में था, इटली में था, सारे तानाशाही देशों में था. उसके परिणाम आपके सामने आये, वही चीन में होने जा रहा है. चीन में शासन करने वाली पार्टी का नाम जरूर साम्यवादी है, लेकिन ये बात तय कि कोई अपनी पार्टी का नाम लाख साम्यवादी रखे, उससे साम्यवादी नहीं हो जाता.
साम्यवाद की बात उसके मूल्यों से होगी. उन मूल्यों से होगी जिन्हें आप समाज में लागू कर रहे हैं. चीन का समाज अलोकतांत्रिक तरीके से परिवर्तन की प्रक्रिया से गुज़रा और अब वह पूंजीवादी तरीके से परिवर्तित हो रहा है. चीन की एक दलीय व्यवस्था अलोकतांत्रिक है .इसलिये यह रास्ता मुझे सिवाय विनाश के कहीं और जाता नहीं दीखता . इसमें मनुष्य की गरिमा, स्वतंत्रता , समानता जैसे मूल्यों के बचने की कोई संभावना नहीं है. वहां मैंने देखा कि जबरदस्त बेरोज़गारी है. राज्य की तरफ से गरीब लोगों के लिये कोई व्यवस्था नहीं है. यहाँ वही हो रहा है जैसा पूंजीवादी राज्यों में होता है. पूंजीवादी राज्यों में बहुदलीय व्यवस्था होने के कारण आप राज्य पर थोड़ा दबाव डाल सकते हैं. लेकिन जहाँ एकदलीय पूंजीवादी व्यवस्था है वहाँ आश्वस्ति नगण्य हो जाती है. जैसा कि अमर्त्य सेन ने एक बार अकाल के सन्दर्भ में कहा कि चीन में जब अकाल पड़ा तो लाखों लोग मारे गये पर आवाज तक नहीं हुई. मैं तो कहूँगा, उसे ज्यादा नुकसान हुआ है. हिन्दुस्तान में लोकतंत्र होने के कारण सरकार पर दबाव पड़ा और बहुत से राहत के काम यहां हुए. इस तरह चीन में जो हो रहा है उसका कारण वहाँ पर लोकतंत्र का न होना है. बाकी मैंने लेख में लिखा हैं.
आपने शिक्षा को लेकर बहुत कुछ लिखा है. वर्तमान शिक्षा, खासकर मूल्य, रोजगार और व्यापक समाज को प्रभावित करने के सन्दर्भ में.
देखिये मुख्य बात यह है जब आप शिक्षा की बात करते हैं तो सबसे पहले इस पर विचार किया जाना चाहिए कि शिक्षा का प्रयोजन किसके लिये है? यानी आप शिक्षा के माध्यम से क्या करना चाहते हैं. शिक्षा की जिम्मेदारी किसके प्रति हैं? शिक्षा की जिम्मेदारी उस शिक्षार्थी के प्रति है, जो शिक्षा ग्रहण करने आता है या उस समाज के प्रति जिसका वह सदस्य है या की शिक्षा की जिम्मेदारी राज्य और बाजार के प्रति है. हमारे यहां जो शिक्षा व्यवस्था विकसित हुई उसमें शिक्षा से यह उम्मीद की जाती है कि वह राज्य और बाजार के द्वारा जो प्रयोजन तय किये हैं उनको पूरा करने में मददगार साबित हो. थोड़े दिनों पहले आपने देखा होगा कि अम्बानी-बिड़ला आयोग शिक्षा पर विचार कर रहा था. इसका क्या अर्थ है? क्या अम्बानी और बिड़ला कोई शिक्षा शास्त्री हैं ? या अम्बानी और बिड़ला कोई दार्शनिक हैं ? वे शिक्षा के इन कार्यक्रमों के आधार पर क्या चलाना चाह रहे हैं ! सीधी-सी बात है अम्बानी और बिड़ला हमारे यहां बाजार के प्रतिनिधि हैं. और वे उसी आधार पर शिक्षा पर विचार कर रहे हैं. और राज्य उनसे रिपोर्ट मांग रहा हैं. इसका क्या अभिप्राय है! यानी कि राज्य क्या लागू करना चाहता है! तो राज्य हुआ या बाजार का एजेन्ट ? अभी हमारे यहां जो व्यवस्था है उसमें शिक्षा राज्य के मुताबिक चलती है और राज्य बाजार के मुताबिक, तात्पर्य यह है कि शिक्षा राज्य के मार्फ़त बाजार के मुताबिक चल रही है. यहां शिक्षा का उद्देश्य न तो शिक्षार्थी के व्यक्तित्व का विकास है न आन्तरिक गुणों का विकास.
यहां शिक्षा का उद्देश्य उसको बाज़ार के योग्य बनाना है, यानी वह बाजार की उत्पादन प्रणाली में सहायक हो. और बाजार का उपभोक्ता बन जाए. तो सारी शिक्षा प्रणाली उसके व्यक्तित्व को उपभोग परक बना रही हैं. अगर यह प्रक्रिया है तो मनुष्य के स्वतंत्र विकास का सवाल ही कहां है ? जब आप नैतिक विकास की बात करते हैं तो यह देखना होगा कि क्या बाज़ार की इस व्यवस्था में नैतिक विकास संभव है ! अगर वहां किसी तरह की नैतिकता होगी तो वह बाजार के ही काम की होगी वह मनुष्य के विकास के काम की नहीं होगी. वहां ईमानदारी की बात भी बाजार के प्रति होगी, मूल्यों के प्रति नहीं. हम यह बात अच्छे से जानते हैं कि बहुत से उद्योगपति जो ईमानदार कार्यकर्ता हैं, केवल टैक्स बचाने के लिए सहायता करते हैं. वे हैं ईमानदार पर किसके प्रति अपने मालिक के प्रति. उनको ईमानदार कह सकते हैं पर वह समाज के प्रति नहीं. वह ईमानदारी किसी सार्वभौम मूल्यों के प्रति नहीं हैं. बल्कि किसी भी काम को किसी भी तरह से कैसे करवा लिया जाए, मात्र इस प्रयोजन से है. मान लीजिए कोई अधिकारी अपने पी. ए. से कहे कि मुझे शाम को जाना है मेरा रिजर्वेशन करा दो. अगर वह रिजर्वेशन नहीं करा सकता तो अयोग्य है. आप मुझे बताइये अगर रिजर्वेशन नहीं है तो वह कहां से करा देगा. तो ज़ाहिर है वह कोई न कोई तरीका अपनाकर काम करेगा और वह योग्य माना जायेगा. इस प्रकार वह बेईमानी करके अपनी योग्यता का परिचय दे रहा है. वह ईमानदार भी है और बेईमान भी. और उसकी प्रवृत्ति को समाज भी कहीं न कहीं स्वीकार कर रहा है.
आपने प्रेमचंद की कहानी नमक का दारोगा पढ़ी होगी. उसमें एक बेईमान आदमी जब एक ईमानदार अधिकारी को नहीं खरीद सकता तो उसको नौकरी से हटवा देता है, फिर उसको अपने यहां नौकरी का ऑफर करता है. बस वह भी मजबूरी में स्वीकार करलेता है. बाजार कैसे हावी है ! एक ईमानदार आदमी बेईमान के यहां काम करेगा तो उसकी ईमानदारी का लाभ तो उसी बेईमान को मिलेगा. क्योंकि वह तो वहीं हैं. कमोबेश यही स्थिति सारे समाज में है. जिसे आप ईमानदारी या नैतिकता कहते हैं, उसके विकास की संभावना इस व्यवस्था में नहीं है. इसलिये शिक्षा भी उस तरफ ध्यान नहीं देती. और अगर ध्यान देगी तो वहबाजार के काम कीशिक्षा नहीं रह जायेगी. आज जिस शिक्षा व्यवस्था को हम देख रहे हैं वह वास्तव में मेनेजमेंट की शिक्षा है : बस किसी भी काम को किसी भी तरह से कराना. ल्योतार ने कहा है कि जो काम आप कर रहे हैं वह वैध है या नहीं इसका कोई मतलब नहीं, मतलब इस बात का है कि उस काम को किसी भी तरह से कराने में आप कितने कुशल है.
स्कूली शिक्षा और विश्वविद्यालयी शिक्षा के विभेद को किस तरह देखा जाना चाहिए?
दोनों के बीच में पहली बात तो यह है कि हमने शिक्षा की पूरी व्यवस्था को जिस तरह बनाया है उसमें जो बच्चा पहली क्लास में पढ़ेगा वह एम.ए तक जायेगा ही जायेगा. यह सोपान क्रम ही गलत हैं. अलग-अलग परिवेश के लिये अलग-अलग तरह कीशिक्षा होनी चाहिए. तभी वास्तविक अर्थो में कम्युनिकेटिव शिक्षा हो सकती है. जो लोग आगे की पढ़ाई करना चाहते हैं उनके लिये अलग व्यवस्था होनी चाहिए. वर्ना आगे की शिक्षा का कोई मतलब नहीं है. क्या वह आपको किसी हुनर मेंपारंगत करती है. सिवाय क्लर्की सिखाने के वह क्या करती है. क्लर्की करने के लिये आपको कहाँ तक पढ़ा होना चाहिए, ये मापदंड तक तय हैं. बस वही बात जो मैं कह चुका हूं ऐसी शिक्षा आपको बाज़ार का उत्पादक और भोक्ता बनाती है . अगर आप बुद्धिजीवियों को लेकर शिकायत करते हैं तो आपको शिक्षा की बुनियादी दशा को देखना होगा. जब आपकी आरम्भिक शिक्षा में ही वह नहीं हैं तो फिर वह आगे कहाँ से आयेगा. जो कहते हैं कि हमारे पास योग्य लोग नहीं आ रहे हैं वे वही बाजार के लोग हैं. ये शिक्षा को बाजारू बनाकर फिर योग्यता की बात करते हैं. इन सबके लिए बाजार और राज्य के लोग ही जिम्मेदार हैं.
अभी कुछ दिनों पहले जो सौ दिनों की शिक्षा नीति बनायी गई है उसको लेकर क्या कहेंगे?
इससे क्या हो जायेगा. इस सब से शिक्षा के कंटेंट में क्या फर्क आयेगा. इससे क्या आदमी अधिक नैतिक हो जायेगा? तो मुख्य बात तो कंटेंट में परिवर्तन कीहै. उसकी प्रक्रियाओं में परिवर्तन की आवश्यकता है, जिससे कि उसमें नैतिक चेतना का विकास संभव हो सके. लेकिन वो शायद बाजार भी नहीं चाहता और राज्य भी नहीं चाहता. राज्य व्यक्ति को स्वतंत्र नहीं देखना चाहता और बाजार व्यक्ति को नैतिक नहीं देखना चाहता. इसलिये दोनों चीज़ें संभव ही नहीं हैं. ख़ास तौर से उस शिक्षा के लिए जो राज्य और बाज़ार के सहारे चल रही हो.
गांधीयन थॉट्स को सर्वाधिक नुकसान किसने पहुँचा. गांधीवादियों ने या राजनैतिक पार्टियों ने?
थॉट्स को तो क्या नुकसान पहुंच सकता है. लेकिन जिसे आप नुकसान पहुंचाना कहते हैं वह यह है कि राज्य और समाज ने इसको कभी स्वीकार ही नहीं किया. अभी हमारा समाजवाद राज्य से नियामक है. राज्य यहां इतना शक्तिशाली है कि वह समाज के हर पहलू को निर्देशित करता है. हम कहते हैं लोकतंत्र है और है भी, कुछ हद तक. लेकिन राज्य के पास इतनी शक्ति है कि वह जीवन के हर क्षेत्र को निर्देशित करता है. इसका मतलब है वह समाज के जीवन पर हावी है और दूसरा जो नियामक है वह बाजार है. राज्य और बाजार इन दोनों शक्तियों ने गांधी के विचार को कभी स्वीकार किया ही नहीं. तो स्वाभाविक सी बात है कि उसको नुकसान पहुंचाया. आप उसका नाम लेते रहे और उसकी अवहेलना करते रहे. इतना तो हम मानेंगे कि इसकी जिम्मेदारी इन दोनों शक्तियों के कंधे पर ही है. कांग्रेस ने जो अपने अनुकूल था वह लिया और अपना वोट बैंक बनाया और जन मानस में जो छवि गांधी की थी उसको भी वोट बैंक में लगाया. पर किसी ने गांधी के विचार को दृष्टि के रूप में कभी नहीं स्वीकारा. यह बात आजादी के साथ ही घटित होती है.
नेहरू और बाकी सभी पार्टियाँ यही करती हैं. केन्द्र और राज्य में आयी सभी पार्टियाँ यही काम करती हैं. क्योंकि जो भी पार्टी सत्ता में आती है उसका कहीं न कहीं बाजार के साथ गठजोड़ होता और बाजार की शक्ति कभी गांधी को स्वीकार नहीं करती. उसके लिये आपको बाजार से लड़ना होगा. गांधी बाजार को केन्द्रीय चीज नहीं मानते. वे उसको मनुष्य के नैतिक विकास में बाधक मानते हैं और उसको बदलना चाहते हैं.
यह हिन्द-स्वराज का शताब्दी वर्ष चल रहा है और आपने इसको लेकर जो बात कही कि एडम स्मिथ, कार्ल मार्क्स और गांधी की दृष्टि को मिलाकर एक भावी वैश्विक वैकल्पिक व्यवस्था का निर्माण संभव हो सकता हैं. वह कैसे?
मैंने उस लेख में यह कहा है कि एडम स्मिथ ने भी मनुष्य के स्वतंत्र होने की आकांक्षा व्यक्त की है. वे स्वतंत्रता के नैतिक आयाम के माध्यम से मनुष्य को स्वतंत्र देखना चाहते हैं. लेकिन एडम स्मिथ ने जो मुख्य भूल की वह यह कि उन्होंने उत्पादन को केन्द्र में रखा. उत्पादन की प्रक्रिया को केन्द्र में रखते हुए वे यह नहीं देख पाए कि इससे जो मनुष्य पैदा होगा वह उपभोग का ही पैदा होगा. और उत्पादन को बढ़ाने से सारी समस्याओं का समाधान हो जायेगा. वह एक बडे भ्रम का शिकार हुए. उत्पादन बढ़ने से तो समस्याओं का समाधान नहीं हुआ. बल्कि जो धारणा थी कि लाभ काहिस्सा नीचे तक पहुँच जायेगा वह बीच में ही खा लिया गया और नीचे तक नहीं पहुंचा. तो स्वतंत्रता की आकांक्षा के बावज़ूद भी एडम स्मिथ ‘स्वतंत्र मनुष्य‘ नहीं बना पाए. इसी तरह कार्ल मार्क्स भी एडम स्मिथ के बरकस दूसरी तरह के स्वतंत्र मनुष्य और समाज की कल्पना करते हैं. वह बहुत अच्छी कल्पना है और एडम स्मिथ से भी अच्छी कल्पना है. लेकिन वह भी केवल उत्पादन के साधनों पर सारी चीजों को केन्द्रित कर देते हैं.
अगर हम उत्पादन के साधनों पर सारी चीजों को केन्द्रित करते हैं तब मैंने एक सवाल उठाया कि जिन उत्पादन के साधनों के आधार पर पूंजीवाद का विकास हुआ उन्हीं साधनों केआधार पर साम्यवाद का विकास कैसे संभव है ? इस बात को स्वयं कार्ल मार्क्स और उनके अनुयायी भी स्वीकार कर पाए. मैंने यह कहा कि गांधी इसका समाधान देते हैं. क्योंकि एडम स्मिथ और कार्ल मार्क्स की किताबों की तरह गांधी की ‘हिन्द-स्वराज‘ को भी मैं पोलीटिकल इकोनोमी की किताब मानता हूं और इन दोनों किताबों ने जो समस्या पैदा की ये उनका एक समाधान भी प्रस्तुत करती है; और यह कहती कि उत्पादन के साधन स्वमेव ऐसे होने चाहिए जिससे कि मनुष्य नैतिक बन सके. जिससे कि मनुष्य स्वतंत्र हो सके. जिससे कि मनुष्य ऐसे समाज की रचना कर सके जिसमें मनुष्य के स्वतंत्र विकास की संभावनाएं निहित हो. वह मानवीय स्वराज हो. इसलिये मैंने तीनों के समन्वय की बात की और दोनों ने जो भूलें की उन भूलों का एक समाधान हमे ‘हिन्द-स्वराज‘ में मिलता हैं. यह मेरा मत है. इसलिये स्वदेशी की संकल्पना ही स्वतंत्र मनुष्य का आधार है.
देश और दुनिया में चल रहे हिंसक और अहिंसक आन्दोलनों के बारे में आप क्या राय रखते हैं.
देखिये, हिंसक आन्दोलन कभी सफल नहीं होते. आन्दोलन तभी सफल होते हैं जब वो मनुष्य की चेतना में परिवर्तन ला सकें, मनोवृत्तियों में परिवर्तन कर सकें और वह हिंसा के माध्यम से संभव नहीं है. हिंसा के माध्यम से कुछ समय के लिये आप व्यवस्था को बदल सकते हैं ,पर मनुष्य की मनोवृत्ति नहीं बदलती. ये हम फ्रांस, रूस और चीन की क्रांतियों के परिणामों में देख सकते हैं. तो ये हिंसक परिवर्तन समाज को नहीं सत्ता को बदल सकता है . समाज की मनोवृत्ति को बदले बगैर कोई वास्तविक परिवर्तन संभव नहीं है. अहिंसा कप्रवृत्ति मूलतः समाज के मन को बदलने की प्रवृत्ति है और वह अगर पूरी तरह सफल नहीं भी होती है, पर जिस भी हद तक सफल होती है, उस हद तक समाज का मन बदलता है. आज जो परिवर्तन हमारे सामने हैं वह अहिंसा के स्वरूप हुए परिणाम हैं. अगर हिंसा से परिवर्तन हुए होते तो हमने युद्धों को बहुत महत्त्व दिया होता.
और जो लोग हिंसा का रास्ता अपनाते हैं वे भी यही कहते हैं कि यह आत्म रक्षा में की जा रही है या फिर मजबूरी है. वे यह कहते कि अहिंसा कामयाब नहीं हो रही इसलिये हिंसा का रास्ता अपना रहे हैं. अगर आप तिब्बत के अहिंसक आन्दोलन की बात करते हैं तो उसके सफल न होने के कई कारण हैं. एक तो वे अपने आन्दोलन को दुनिया के सामने अधिक प्रभावी नहीं बना पाए. दूसरा यह कि उन्होंने जो आन्दोलन किया वह देश से बाहर आकर किया. मेरी नजर में यह दलाई लामा की एक बड़ी भूल है. उन्हें मृत्यु दण्ड भी स्वीकार करके आन्दोलन अपने ही देश में करना था. बाहर करने का क्या मतलब ! ज्यादा से ज्यादा अन्तरराष्ट्रीय दबाव पड़ सकता है. वहीं रह कर आन्दोलन करते तो उसका कुछ मतलब होता. फिर गांधी कहते हैं कि यह कभी असफल होता भी है तो कम से कम आपका नैतिक विकास तो करता ही है. कुछ लोगों के मन को तो बदलता ही है.
आधुनिक राष्ट्र-राज्य की अवधारणा आज खतरे में है. आपने अपने एक लेख में भारत के विखंडन की आशंका जतायी हैं क्योंकि आरोपित व्यवस्था के कारण कहीं न कहीं उसका मूल सोता सूखता जा रहा है.
यह मैंने नहीं जतायी. हटिंग्टन की एक किताब है, फिर एक अमरीकी विचारक ने भी यह कहा है. क्योंकि उसके पीछे एक दृष्टि है और वह गलत नहीं है. वह दृष्टि यह है कि- राष्ट्र-राज्य का मतलब क्या है ! पश्चिमी दृष्टि मेंराष्ट्र -राज्य का मतलब होता है: एक खास भाषा, एक खास रिवाज, एक खास परम्परा, एक धर्म, एक सम्प्रदाय, ये सब मिलाकर जब एक राजनैतिक संगठन बनाते हैं तो एक राष्ट्र कहलाता है.
तो राष्ट्र -राज्य का मतलब है सब को एक तरीके से चलाना. अगर आप सब को एकतरीक से चलाते हैं और बहुलतावाद को खत्म करते हैं तो वह असंभव है. अगर आप भारतवर्ष में एक कानून लगाते हैं तो क्या होगा ? हमारे बहुत से मित्र एक सिविल ला की बात करते हैं. अगर एक विशेष सिविल ला समाज को स्वीकार नहीं तो यह कैसे संभव होगा. अगर वह होगा तो कौन-सा सिविल ला होगा ?हिन्दू धर्म में भी कितने रिवाज हैं! आप जब एक कानून बनाते हैं तो बाकी का क्या होगा ?
क्या वह अपने को दबा हुआ महसूस नहीं करेंगे! तो बहुलतावादी राष्ट्र उन अर्थो में राष्ट्र -राज्य नहीं बन सकते जिन अर्थो में पश्चिम के देश- राष्ट्र हैं. फ्रांस बना, जर्मनी बना, इटली बना, ये राष्ट्र -राज्य बने. खुद इंग्लैण्ड पूरी तरह से राष्ट्र -राज्य नहीं बन पाया. वहां स्काटिश और आयरिश अलग रहते हैं. क्यों नहीं उसने अपने को राष्ट्र-राज्य बनाया! खुद अमेरिका राष्ट्र -राज्य नहीं बन पाया. क्यों वहां दो तरह की नागरिकता है ? क्यों स्टेट अपने कानून अलग बनाता है और केन्द्र अलग. बहुत से मसलों में संघ के कानून अलग होते हैं और राज्य के अलग. तो राष्ट्र-राज्य एक तरह की तानाशाही की तरफ ले जाता है . अगर आप एकायामी राष्ट्र हैं तो कोई बात नहीं पर जब आपके यहां इतनी भाषाएं हैं, इतने सम्प्रदाय हैं तब कैसे संभवहैं कि आप सब को एक ही तरह से चलायेंगे. आप कैसे तय करलेंगे कि किसी दूसरी भाषा का व्यवहार नहीं होगा. इसलिये यह अवधारणा मूलतः पश्चिमी है और पश्चिम के उस दौर की संकल्पना है, जहां अधिकांश राष्ट्र ईसाई हैं. कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट हैं. भारत की विविधता को देखते हुए क्या हम एक भाषा की बात कर सकते हैं ? आप सभी को एक साथ कैसे चला सकते है. इसलिये मैंने कहा कि अगर यह कोशिश की गई तो यह एक तरह से विघटन की तरफ ले जाने की प्रवृत्ति होगी.
हमारे यहां जो गणराज्य की अवधारणा रही है वह क्या थी ? गणराज्य की व्यवस्था ग्राम-स्वराज्य की तरह स्वायत्त व्यवस्था थी. मगध तोबड़ा गणराज्य था उसने तो गणराज्यों को तोड़ने का काम किया. जिसे आप गणराज्य कहते हैं वे छोटे या बडे सभी स्वायत्त राज्य थे और उनमें स्थानीय स्तर पर भी स्वायत्तता थी. इस स्वायत्तता की बात गांधी भी करते हैं. अभी जो संविधान हैं वह गांधी के पैटर्न पर नहीं हैं. एम. एन. राय भी यह कल्पना करते हैं, जो गाँधी ने की थी . एक ऐसा देश बनना चाहिए जिसमें नीचे के स्तर की सभी संस्थाएं स्वायत हो. वहीं पर बहुलतावाद की रक्षा हो सकती है. जितना केन्द्रीयकरण होता हैं उतना ही बहुलतावाद खत्म होता है. एक बहुलतावादी देश में बहुलतावादी राजनैतिक व्यवस्था कामयाबहो सकती है . अगर वह रास्ता बहुलतावादी नहीं है तो या तो बहुलतावाद को नष्ट करेगा या फिर असंतोष फैलेगा. या फिर वह व्यवस्था ही फेल हो जायेगी. हमारे यहां किसी भी समस्या का हल इसलिये नहीं निकल पाता है क्योंकि हम तय नहीं कर पाते कि हम बहुलतावादी देश हैं या राष्ट्र-राज्य हैं. हम अपने को दोनों में रखते हैं जबकि दोनों में कोई तालमेल नहीं हैं.
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नन्दकिशोर आचार्य ३१ अगस्त, १९४५ को बीकानेर में जन्मे नन्दकिशोर आचार्य विविध विधाओं में अपनी सृजनात्मकता के लिए मीरा पुरस्कार, बिहारी पुरस्कार, राज. संगीत नाटक अकादेमी पुरस्कार, भुवनेश्वर पुरस्कार, नरेश मेहता स्मृति सम्मान, सुब्रह्मण्यम् भारती पुरस्कार, केन्द्रीय संगीत-नाटक अकादेमी पुरस्कार, महाराणा कुम्भा पुरस्कार तथा भुवालका जनकल्याण ट्रस्ट द्वारा सम्मानित हुए हैं. महात्मा गाँधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी वि.वि. वर्धा तथा प्राकृत भारती अकादेमी में अतिथि लेखक रहने के अलावा आईआईआईटी, हैदराबाद में प्रोफेसर आव एमिनेंस के रूप में भी कार्य किया है. अज्ञेय द्वारा सम्पादित ‘चौथा सप्तक’ के कवि नन्दकिशोर आचार्य के अब तक बारह कविता-संग्रह, आठ नाटक, सात साहित्यिक आलोचना की पुस्तकें एवं संस्कृति, शिक्षा, राजनीतिक-आर्थिक चिन्तन, मानवाधिकार एवं गाँधी दर्शन पर केन्द्रित बारह पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं. अज्ञेय, निर्मल वर्मा, उर्दू कवियों एवं अन्य कई लेखकों की संचयिताओं-चयनिकाओं के सम्पादन के अतिरिक्त उन्होंने ‘अहिंसा विश्वकोश’ का सम्पादन भी किया है जिसे अहिंसा-दर्शन के क्षेत्र में एक अप्रतिम योगदान माना गया है. कई राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय साहित्यिक आयोजनों में रचना-पाठ एवं व्याख्यान के लिए आमन्त्रित आचार्य इंग्लैण्ड, चीन, इण्डोनेशिया, बेल्जियम, दक्षिण अफ्रीका तथा नेपाल की साहित्यिक-शैक्षणिक यात्राएँ कर चुके हैं. उन्होंने रियोकान, जोसेफ ब्रादस्की, लोर्का, अर्नाल्ड वेस्कर तथा एम.एन. राय के लेखन के अतिरिक्त कई आधुनिक अरबी तथा यूरोपीय लेखकों की रचनाओं का अनुवाद भी किया है.
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कालुलाल कुलमी अनेक पत्र – पत्रिकाओं में लेख आदि प्रकाशित |
नंदकिशोर जी हिंदी साहित्य में “अहिंसावाद” के मौलिक और मूर्धन्य विचारक हैं। अहिंसा को धर्म मानना अपने आप में धर्म निरपेक्ष होना है।