उन्होंने जो कविताएँ सुनायीं उन्हें सुनकर सोमदत्त को तो चक्कर आ गया
(नरेश सक्सेना से संतोष अर्श की बातचीत)
लखनऊ शहर की रूमानियत और सहूलियत में डूबी हुई वह ताज़े चैत की एक शाम थी जब बुज़ुर्ग होने की हद तक एक वरिष्ठ कवि से कहनी-सुननी थी. बातचीत बवक़्त पहले से मुक़रर्र थी. नरेश जी से जब भी कोई मिलेगा तो उसे लगेगा कि उसका उनसे कोई आदिम परिचय है. हमारे समय का एक विशेष कवि, जिसकी कविता में बांसुरी और हार्मोनिका का संगीत और चंबल जैसी नदियों के वलय की लय है. हृदय को कुरेदने वाला वह अवनालिका अपरदन भी जिससे चंबल अपने बीहड़ बनाती है. कवि, जो कवि होने से अधिक अपने असाधारण, सरल व्यक्तित्व की आभा के चलते प्रसिद्ध है. बातचीत और कविता में किफ़ायतशारी की मिसाल नरेश सक्सेना से संतोष अर्श ने ख़ूब और दिलचस्प, निजी और लेखकीय जीवन से जुड़ी, सहज और असहज कर देने वाली बातें कीं, जिन्हें उनके पाठक अब समालोचन पर पढ़ेंगे. इस बातचीत को तैयार करवाने में शोध-छात्रा ‘पूजा’ ने मेरी सहायता की है. उनका आभार. लगभग एक साल की देरी के लिए संतोष अर्श कवि के प्रशंसकों और पाठकों से क्षमा प्रार्थी हैं. बातों का सिलसिला यहाँ से शुरू होता है. बातचीत प्रसिद्ध कवि विनोद कुमार शुक्ल के ज़िक्र से आरंभ हुई थी. वहीं से सिरा पकड़ा जाये. यह पहली क़िस्त है…
संतोष अर्श : उनसे (विनोद कुमार शुक्ल से) मिलने मैं रायपुर गया था. उन दिनों उनके घर में सीमेंट-मौरंग के मसाले की गंध थी. हम धूल भरे पुराने सोफ़े पर बैठे थे. सहज व्यक्तित्व हैं. मध्यवर्गीय प्रदर्शन-व्यवस्था-प्रियता से दूर. बनियान में ही मेरे साथ फ़ोटो खिंचवा ली थी. आप कुछ कहिए न उनके बारे में !!
नरेश सक्सेना : जब वो बीस-इक्कीस साल के ही थे और तब भी मैंने उनका कमरा वैसा ही देखा था. आज भी वह ऐसा ही है. मैंने उनके कमरे के कुछ शॉट्स लिये हैं. उनके कमरे में (विनोद जी के) जो मच्छरदानी लगी हुई है, उसको आप देखें (हँसी) कि प्रॉपर चार डंडों की बनी हुई मच्छरदानी नहीं है. एक सिरा कहीं किसी कील में बंधा हुआ है, एक कहीं और लगा हुआ है. व्यवस्था अभी भी नहीं है. घर को गौर से देखें तो कहीं-कहीं प्लास्टर लगा हुआ मिल जाएगा, उस पर सफ़ेदी-पुताई नहीं हुई है. वो ऐसे ही हैं. बहुत व्यवस्था-प्रिय तो नहीं हैं. कुछ चीज़ें लेकिन आश्चर्यजनक रूप से विनोद जी के यहाँ हैं. और वो ये कि लेखन में और कविता में ये अराजकता बहुत कम है. शिल्प का जैसा सुंदर, संतुलित प्रयोग… और बहुत प्रॉपर्ली स्ट्रक्चर्ड पोयम्स उनके यहाँ हैं. वैसा आपको दूसरों के यहाँ मिलना मुश्किल है. वो बात बड़े अभ्यास के बाद आती है. आपने ध्यान दिया होगा वो जो कविता है-
‘हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था, व्यक्ति को मैं नहीं जानता था, हताशा को जानता था, इसलिए मैं उस व्यक्ति के पास गया.’
यानी जो बात है जानने के बारे में कि, किसी को क्या जानना. व्यक्ति को नहीं जानता था, हताशा को जानता था !! अरे वाह !… इसलिए मैं उसके पास गया, तो बात पूरी हो गयी ना ? कविता की देखिए पहली शर्त है- सूक्ष्मता. सूक्ष्म नहीं है तो फिर उपन्यास हो सकता है, कथा हो सकती है, रिपोर्ट हो सकती है, कुछ भी हो सकता है. कविता नहीं होगी. कविता तो सूक्ष्म ही होगी. दो लाइन में काम करेगी. जो काम एक शे’र करता है. गद्य में वो दो लाइनें काम करेंगी तो वो कविता है. अब उसके बाद वो कविता कितनी सुंदर है, उसकी पक्षधरता क्या है, सम्वेदना तक पहुँचती है कि नहीं, संवेदित करती है कि नहीं, यह देखा जाएगा. सौन्दर्य के स्तर पर ही वो रह जाती है, तो हो सकता है कि आपको कई तरह से सुंदर-मनोरंजक लगे, लेकिन आपके दिल को हिलाने वाली नहीं है तो कविता की यात्रा फिर अधूरी रह गयी जानिए. तो विनोद जी उसके बाद क्या करते हैं ? इसी कविता में आप देखें-
‘मैंने हाथ बढ़ाया, मेरा हाथ पकड़कर वह खड़ा हुआ, मुझे वह नहीं जानता था, मेरे हाथ बढ़ाने को जानता था, हम दोनों साथ चले, हम दोनों एक-दूसरे को नहीं जानते थे, साथ चलने को जानते थे.’
ये जो नहीं जानता था, जानता था, नहीं जानता था, जानता था, ये क्या हो रहा है ? ये तो लिरिक की क्वालिटी है. ये जो गुण है, ये गीत का गुण है और वो गीत लिखते नहीं, लय और छंद हो तो हो, नहीं तो वो उसकी चिंता करते नहीं. निरे गद्य में लिखने वाला आदमी… सारी कविताएँ ऐसी ही मिलेंगी, लेकिन ये जो प्रॉपर्ली स्ट्रक्चर्ड पोयम्स हैं, संरचना जिसको हम कहते हैं, और हमारे आलोचक जिस पद का बहुत इस्तेमाल करते हैं. (हँसी) वे बताते नहीं हैं कि, किस कविता में कहाँ संरचना है ? संरचना नहीं बताते हैं, संरचनावाद तो बताते हैं. वो जो भी वहाँ से, पश्चिम से आया है न ? संरचनावाद पर कुछ कह देंगे, लेकिन अब तो वो… ख़ैर ये जो बात है उनके (वि.कु.शु.) अंदर ग़ज़ब…! ग़ज़ब का काम करते हैं वो. लापरवाह जो हैं, वो इसीलिए हैं कि वो अपनी कविता में, अपनी रचना- प्रक्रिया में बहुत ही व्यवस्थित हैं. ये व्यवस्था हर जगह नहीं दिखती, लेकिन कहीं-कहीं है तो वो तो हर कवि के साथ है, कि उसकी जो बहुत अच्छी कविताएँ हैं, वो थोड़ी-सी ही मिलती हैं. ज्यादा नहीं मिलती हैं. और ये उनकी बहुत…मैं समझता हूँ कि ये कविता जो है इस पर मैंने एक टिप्पणी लिखी जो बच्चों की पत्रिका ‘चकमक’ में छपी. उसके सम्पादक के कहने पर ही मैंने लिखी थी. कि विनोद जी पर लिखिए किसी कविता पर, तो मैंने कहा इस पर लिखता हूँ मैं.
वो ‘चकमक’ से निकलकर आज आठवें दर्ज़े के केरल के कोर्स में चली गयी. केरल में पढ़ाई जाती है और इसके साथ-साथ मेरी जो टिप्पणी है, वो भी पढ़ाई जाती है. उन्होंने कहा कि इसकी व्याख्या भी मिल गयी. और मेरी कविता भी उसमें थी. ‘चकमक’ में ही. उनको लगा कि इसमें तो ऐसी कविताएँ ही आती हैं. तो मेरी एक कविता है ‘इस बारिश में.’
‘जिसके पास चली गयी मेरी ज़मीन, उसी के पास अब मेरी बारिश भी चली गयी.’
वो कविता भी वहीं केरल में आठवें दर्ज़े के कोर्स में लगी है. तो जब विनोद जी ने मुझसे कहा कि इस कविता पर आपकी ये टिप्पणी…? तो मैंने कहा कि वो तो पढ़ाई जा रही है, वहाँ केरल में. तो मैंने कहा ये देखिए कि कैसा काव्यात्मक संयोग है. हम दोनों कोर्स में लगाये गये हैं तो साथ-साथ. एक कविता आपकी है और एक कविता मेरी है.
संतोष अर्श : उनकी भी एक बारिश को लेकर बहुत अच्छी कविता है, ‘अबकी साल बारिश नहीं हुई.’
नरेश सक्सेना: वो तो कमाल करते हैं. वो तो कहते हैं कि इस साल भी इस मैदान में कोई पहाड़ नहीं…जैसे क्या.
संतोष अर्श : …या ‘सूखी हुई नदी के नीचे सूखी हुई नदी की परतें हैं…’
नरेश सक्सेना : कितना बढ़िया…! बहुत कमाल की पंक्तियाँ लिखते हैं.
संतोष अर्श : आपकी शुरुआत कहाँ से हुई ? कविता की तरफ़ रुझान कैसे हुआ ?
नरेश सक्सेना : देखिये मैं लखनऊ का रहने वाला तो बाद में हुआ न !
संतोष अर्श : किस सन् में आये आप ?
नरेश सक्सेना : मैं 1964 में आ गया था. दिसम्बर में. और पास कर लिया था इन्जीनियरिंग में…मैंने इन्जीनियरिंग वहाँ से की और ग्वालियर में मेरा अप्वाइंटमेंट हो गया था.
संतोष अर्श : तो फिर इन्जीनियरिंग आपने कहाँ से पढ़ी ?
नरेश सक्सेना: जबलपुर से पढ़ी. जबलपुर इन्जीनियरिंग कॉलेज से मैंने किया और फिर मेरा अप्वाइंटमेंट वहाँ इरिगेशन डिपार्टमेंट में हो गया. ग्वालियर में. भिण्ड में मेरा ट्रांसफर कर दिया गया. वो इलाक़ा मेरा जाना-पहचाना है. लेकिन वहाँ शुरुआत जो थी, जूनियर इन्जीनियर बना के करते थे. और पब्लिक सर्विस कमीशन के इन्टरव्यू के बाद असिस्टेंट इन्जीनियर बनाते थे. उत्तर-प्रदेश में इतनी भारी उस समय माँग थी, इन्जीनियर्स की, कि यहाँ सीधा असिस्टेंट इन्जीनियर ही बनाते थे. मार्क्स लिस्ट देखते थे और सेलेक्ट कर लेते थे. तो हमारे साथी जो यहाँ आ गये थे उन्होंने कहा यार तुम वहाँ कहाँ जूनियर इन्जीनियर बन गये हो ? तुम यहाँ आ जाओ असिस्टेंट इन्जीनियर बन जाओगे. तो हम वहाँ से बिना कोई रेजिग्नेशन दिये हुए चले आये यहाँ. एक छोटी-सी अटैची और बिस्तर लेके. और यहाँ पी.डब्ल्यू.डी., इरिगेशन, जल निगम और पब्लिक इन्जीनियरिंग तीनों जगह अप्वाइंटमेंट हो गया. तो हमने देखा कि सबसे शान्त डिपार्टमेंट जो है, वो जल निगम है. हमारे पिता इरिगेशन डिपार्टमेंट में थे तो हम जानते थे. थोड़ा-बहुत आभास था. तो हमने कहा वहाँ पे हाय-हत्या बहुत होती है. नहर में पानी नहीं चला है. नहर साफ़ नहीं है. पानी काट लिया है. बाक़ी और तमाम सारे ताम-झाम होते थे. तो मुझे लगा ये कि वाटर सप्लाई और ओवर हेड टैंक बनाना होता है. हमने बहुत सीमित पढ़ाई की थी. हम दो सवाल तैयार करते थे. क्योंकि चालीस प्रतिशत लाना ज़रूरी होता था. हर पेपर में. तो बीस-बीस नम्बर के दो सवाल तैयार करते थे. उसमें हमने स्ट्रक्चर इन्जीनियरिंग में ओवर हेड टैंक का डिज़ाइन ही कर लिया था. तो हमने कहा ओवर हेड टैंक इन्जीनियरिंग में डिज़ाइन आता है और प्रेशर का प्रोफ़ाइल बनाना आता है, तो ये डिपार्टमेंट हमको ठीक रहेगा.
बाक़ी जगह पता नहीं क्या काम करना पड़े ? कर पायें कि ना कर पायें ? तो हमने जल निगम ज्वाइन कर लिया यहाँ. अब शुरुआत की जो बात पूछ रहे हैं, ग्वालियर में मैं था. मैं ग्वालियर का हूँ और भिण्ड-मुरैना इलाक़े में रहा बहुत बचपन में. वो चम्बल नदी का इलाक़ा है. चम्बल है और उसकी सहायक नदियाँ. क्योंकि मेरे पिता सिंचाई विभाग में ही थे. तो वहीं बन्धों पे, नहरों पर, नदियों पर भी उनकी पोस्टिंग रहती थी. बचपन में वही देखा करता था. जंगलों में भी रहा मैं. यानी दस वर्ष की उम्र तक स्कूल जाना नहीं हुआ. वो पगारा डाक बंगला सिंचाई विभाग का था. यानी मुरैना से सत्रह मील, लगभग पच्चीस किलोमीटर दूर जौरा और जौरा से भी दस किलोमीटर दूर पगारा. वहीं पहाड़ी पर एक डाक बंगला था, नीचे नदी बहती थी. आसन नदी. वर्षों रहा वहाँ मैं. क़रीब डेढ़-सौ डाकुओं की बंदूकों का आत्मसमर्पण जयप्रकाश नारायण ने वहीं पर कराया था. उसी डाक बंगले में.
संतोष अर्श : किस सन् की बात है ?
नरेश सक्सेना : ये बात होगी मेरे ख़याल से…(सोंचते हुए) जयप्रकाश नारायण का आन्दोलन तो सन् 1970 के आस-पास हुआ. उससे पहले की बात है ये. यानी वो जो बड़े डकैत थे न…! डाकू मानसिंह और लाखन सिंह और सारे… बीहड़ के डेढ़ सौ डकैतों का आत्मसमर्पण हुआ था. क्योंकि डाकुओं ने कहा हम वहीं करेंगे और पुलिस नहीं होनी चाहिए. तो वहाँ मैं रहा. वहाँ आस-पास कई-कई किलोमीटर तक कोई घर ही नहीं था. कोई बस्ती ही नहीं थी. मेरे साथ कोई बच्चा नहीं खेलने वाला. उस सुनसान में मैं रहता था. स्कूल जाने का कोई सवाल ही नहीं. पिता जी थोड़ा-बहुत मुझे गणित और अंग्रेज़ी पढ़ाते थे. हिंदी मैं खुद पढ़ लेता था. पढ़ने को कुछ मिलता नहीं था तो हालत ये थी कि क़िताबें कहीं मिल जायें तो मैं चुरा लाता था.
हमारी बहन जो थीं…बड़ी बहन. उन्होंने उन दिनों विशारद साहित्य-रत्न भी पढ़ी. जो लड़कियाँ रेगुलर स्कूल नहीं जा पाती थीं वो विशारद साहित्य-रत्न कर लेती थीं. उनकी विशारद की तमाम क़िताबें जो थीं वो मैं चुरा लाया और स्कूल गये बिना मुझे जयशंकर प्रसाद, मैथिलीशरण गुप्त और दिनकर जैसे अनेक कवियों की कविताएँ याद हो गयीं. बार-बार पढ़ता था. मज़ा भी आता था. फिर मेरी भर्ती जब मुरैना वापिस लौटे हम लोग, तो सीधे पाँचवें दर्ज़े में हुई. हेडमास्टर ने पूछा कितने साल के हैं ये ? तो उन्होंने कहा दस बरस के ! तो बोले इनको पाँचवें में होना चाहिए. तो उन्होंने मुझसे साधारण-सा कुछ टेस्ट लिया वो सब मैंने पास कर लिया तो तुरंत उन्होंने भर्ती कर लिया मुझे. और ग्वालियर शहर जो है…मैं आठवें दर्ज़े तक तो मुरैना में ही रहा. उसके बाद मुरैना में कुछ दिन… और भिण्ड…था, उस इलाक़े में रहा. उसके बाद मैं नाइंथ क्लास में ग्वालियर आया. अब ग्वालियर जो है, वह गीतकारों का शहर है. हिंदी के जो पुराने बड़े मशहूर जैसे वीरेन्द्र मिश्र, मुकुट बिहारी सरोज. मतलब उस समय ये पूरे भारत के कवि सम्मेलनों में छाये हुए लोग हैं.
संतोष अर्श : उर्दू के शायर भी अच्छे थे.
नरेश सक्सेना: उर्दू के भी थे.
संतोष अर्श : एक कोई ग्वालियरी थे सफ़ा या जफ़ा करके.
नरेश सक्सेना : दोनों थे, दोनों थे.
संतोष अर्श : सफ़ा या जफ़ा में से किसी का एक शे’र है-
“इन बे-उसूलियों से रवां है मेरी हयात”
(इन बे-उसूलियों से रवां है मेरी हयात, नरेश जी संतोष अर्श के साथ दोहराते हैं)
“इन बे-उसूलियों से रवां है मेरी हयात,सोया हूँ सारा दिन कभी जागा हूँ सारी रात.”
नरेश सक्सेना: अरे वाह… सोया हूँ सारा दिन कभी जागा हूँ सारी रात. देखिए इतनी सरल कहन जो है ये वहाँ हमेशा से थी और निदा फ़ाज़ली वहीं के हैं.
संतोष अर्श : हाँ-हाँ निदा फ़ाज़ली ने ही किसी का संस्मरण लिखा है. उसी में ये शे’र पढ़ा था. तब से याद रह गया.
नरेश सक्सेना: निदा जो थे…मुझे लगता है सबा और सफ़ा नाम से तो उनके भाई लोग ही थे. हाँ… एक उनके बड़े भाई थे. उनके पिता खुद शायर थे. तो निदा को कोई पूछता ही नहीं था. उनका जो शे’र है न-
“घास पर खेलता है एक बच्चा माँ पास बैठी मुस्कराती है
मैं हैरत में हूँ सारी दुनिया किसलिए काबा और सोमनाथ जाती है.”
ये शे’र उन्होंने तभी लिख लिया था, ग्वालियर में. अब जो बात आप कह रहे हैं…देखिये मुकुट बिहारी सरोज-
“मरहम से क्या होगा ये फोड़ा नासूरी है,
अब तो इसकी चीर-फाड़ मज़बूरी है
तुम कहते हो हिंसा होगी, लेकिन बहुत ज़रूरी है.”
संतोष अर्श : क्या बात है !!
नरेश सक्सेना:
मरहम से क्या होगा, ये फोड़ा नासूरी है…
इसमें रोने-धोने की क्या बात है,
अरे हार-जीत तो दुनिया भर के साथ है
और छुई-मुई के पातों पर भी पतझड़ का आघात है…
संतोष अर्श : वाह !
नरेश सक्सेना : इसमें रोने-धोने की क्या बात है.
संतोष अर्श : क्या बात है !!
नरेश सक्सेना: अब ये मुकुट बिहारी सरोज हैं और हम सब लोग जो हैं…निदा फ़ाज़ली भी हमारे घर के पड़ोस में तो ही रहते थे. रोज शाम को हम लोग क़िताबों की दुकान पर मिलते थे. तो निदा, मैं और एक ओमप्रकाश थे, गीत लिखते थे. बाद में उनका नाम ‘नवगीत’ में शामिल हुआ. मेरा भी शामिल था. (हँसी फूट पड़ी) हालांकि मैं नवगीत का था नहीं. ग्वालियर का था इसलिए गीत का प्रभाव मेरे ऊपर बहुत बड़ा था. और वहाँ पर तो ख़ैर और लोग भी थे. बाद में तो वहाँ साहनी भी आये और विनोद कुमार शुक्ल भी कुछ समय के लिए आये. क़िताबों की दुकान पर हम सब लोग जुटते थे. और वो मार्क्सवादी कम्युनिस्ट साहित्य की दुकान थी. हाँ तो वो बैकग्राउण्ड भी वैसा था. वो ज़माना एक बहुत… ये समझिए छह पैसे की चाय, पंडित चाय वाले बना के देते थे. उधारी चलती थी. (तजुर्बेदारी से भरी हँसी झरने की तरह फूटी) बहुत दिनों बाद दो आने की चाय हुई. दो आने में तो पाव भर दूध मिलता था, चाय की क्या बात है.
संतोष अर्श: तो शुरुआती कविताई वहीं से है ?
नरेश सक्सेना : तो शुरुआत में मैंने…कवि-सम्मेलन बहुत होते थे, मैं सुनता था.
संतोष अर्श : आप मंचों पे भी जाते रहे हैं ?
नरेश सक्सेना: मंचों पे तो कभी नहीं गया. कोई गीत पढ़ने मैं कभी नहीं गया. और मुझे बुलाया भी नहीं जाता था. मैं तो ख़ैर छोटा ही था. मैं हाईस्कूल में आया था वहाँ और इंटरमीडिएट मैंने…थोड़े दिन के लिए बनारस चला गया था. सन् 1955 में फिर लौट के आ गया. ग्वालियर से इंटरमीडिएट किया साइंस में मैंने. तो मुझे लगा यार ये क्या बात है मंच पर पढ़ते हैं और वाह-वाह, वाह-वाह होती है ? तो…चार मुक्तक मैंने देखे छपे हुए ज्ञानोदय में. बहुत छोटे-छोटे और बहुत सुंदर छपे हुए थे. एक पेड़ का रेखाचित्र बना था. नीचे लिखा था रमा सिंह. तो उस पेज को मैंने देखा लाइब्रेरी में जाकर के. ग्वालियर में. हम सेण्ट्रल लाइब्रेरी थी… तो वहाँ जाते थे तो मैंने देखा कि इतना सरल-
‘एक पल में उठ रहीं लहरें कई,
एक पल में दिख रहीं खण्डित हुई,
एक ऐसी भी लहर इनमें ऐसी उठी,
रेत पर तस्वीर बनकर रह गयी.’
मैंने कहा, ऐसी लाइनें तो हम भी लिख सकते हैं. (देर तक मासूम हँसी बहती रही) और इतनी सरल लाइनें हैं और ज्ञानोदय के पृष्ठ पर छपी हुई हैं. इतना सुंदर रेखाचित्र और नीचे लिखा है रमा सिंह. यहाँ मेरा नाम लिखा होता, तो कैसा सुंदर होता. और शाम को मैं आया और मैंने पाँच-छह दिन में तमाम सारे मुक्तक लिख डाले. ग्यारह मुक्तक मैंने ज्ञानोदय को भेज दिये ये लिखकर के, कि इसमें से कोई भी चार आप चुन सकते हैं. और चुन लिये उन्होंने. (हँसी) तो ख़ैर मेरी पहली रचना के तौर पर…तो वो ज्ञानोदय में एक-एक पेज पर एक-एक मुक्तक मेरा छपा है 1958 में. हाँ…और 1957 में वो भेजे गये थे जगदीश सम्पादक थे. बाद में शरद देवड़ा आये तो उन्होंने मुझे चिट्ठी लिखी कि आपके मुक्तक हैं, थोड़ा समय लगेगा. ख़ैर वो छपे. लेकिन जबलपुर में पहुँचते ही तो कायापलट हो गया. वहाँ हरिशंकर परसाई के सम्पर्क में आये. हरिशंकर परसाई के यहाँ मुक्तिबोध का आना होता था. उनके सम्पर्क में आये. डॉ. नामवर सिंह का आना होता था. हरिशंकर परसाई ने ही पूछा, कि विनोद से मुलाकात हुई ? मैंने कहा, नहीं तो उन्होंने कहा अरे वो राजनांदगाँव से है और यहाँ एग्रीकल्चर साइंस में पढ़ रहा है. तो कभी मिलना उससे. फिर यही बात उन्होंने विनोद जी से भी कह दी कि, भाई नरेश से मुलाकात हुई? तो उन्होंने कहा नहीं, तो कभी मिल लेना. तो वो काहे को मिलते ?
तो ख़ैर वहाँ एक सोमदत्त भी थे. तो मैंने और सोमदत्त ने तय किया कि यार चल के मिलना चाहिए. एग्रीकल्चर कॉलेज गये तो मुलाकात हुई विनोद जी से तो वही हालत थी उनकी. और वो चूँकि मुक्तिबोध के जैसे…मैं गीतकारों के सम्पर्क से आया था और जो पूरी क्लासिकल परंपरा थी सुमित्रानन्दन पन्त और जयशंकर प्रसाद… उन सब को उनकी सबकी कविताएँ याद थीं. मुझे आज भी याद हैं.
तो उनको मुक्तिबोध की कविताएँ…सबसे पहली बार उनका सम्पर्क मुक्तिबोध से ही हुआ था कवि के रूप में. विनोद जी का. तो उनकी कविताएँ अजीब बीहड़ थीं. उनसे जब हमने कहा कि विनोद जी कुछ कविताएँ सुनाइए. तो उन्होंने जो कविताएँ सुनायीं, उनको सुनकर सोमदत्त को तो चक्कर आ गया.
क्रमश: …
poetarshbbk@gmail.com