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Home » फटी हथेलियाँ : जितेन्द्र विसारिया

फटी हथेलियाँ : जितेन्द्र विसारिया

नेहा नरूका के कविता संग्रह, 'फटी हथेलियाँ' पर वरिष्ठ कवि-लेखक कुमार अम्बुज लिखते हैं कि " ये कविताएँ आँसुओं की नहीं सवालों की झड़ी लगाती हैं, एक सजग स्त्री, नागरिक की तरफ़ से आरोप-पत्र दाख़िल करती हैं. बाध्यकारी नैतिकताओं और पवित्रताओं को प्रश्नांकन के दायरे में लेती हैं, पहले ही कविता संग्रह में यह सब देखना सुखद है, स्वागतयोग्य है." इस संग्रह की चर्चा कर रहे हैं, जितेन्द्र विसारिया.

by arun dev
June 26, 2025
in समीक्षा
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फटी हथेलियाँ : जितेन्द्र विसारिया
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फटी हथेलियाँ
समय का ख़ुरदरा यथार्थ


जितेन्द्र विसारिया

अक़्सर स्त्री रचनाकारों पर आरोप लगते आये हैं कि उनकी रचनाओं में निज-जीवन की व्यथा अधिक और विस्तृत समाज के अनुभव कम ही उपलब्ध पाये जाते हैं. पितृसत्ता की दहलीज़ के भीतर बंद स्त्री समाज का एक त्रासद सच यह भी है, जिसे कम से कम पिछली सदी के पूर्वार्ध तक, अपवाद स्वरूप ही कुछ स्त्री रचनाकारों ने लाँघा था? किंतु नई सदी में जब से उदारीकरण ने अपने पैर पसारे हैं और मजबूरन ही सही, स्त्रियों को भी घर से बाहर निकलने के मौक़े मिले हैं, तबसे स्त्री रचनाकारों का अनुभव संसार भी विस्तृत हुआ है.

अब उनके रचना फ़लक पर घर की चहारदीवारी ही नहीं; शहर-गाँव, सड़क-दफ़्तर और देश-दुनिया में घटने वाली हर घटना-दुर्घटना, शोषण-उत्पीड़न, अपमान-प्रतिकार, सब पर ही उनकी नज़र टिकने लगी है. अब वे स्वतंत्र मस्तिष्क इस पर चिंतन ही नहीं कर रहीं, अपितु उसे अपनी प्रतिरोधी रचना प्रक्रिया का हिस्सा भी बना रही हैं. बल्कि कुछ इससे और ऊपर उठकर, वैश्विक मुद्दों पर भी अपने स्वतंत्र विचार रख रहीं हैं, जिन्हें अब तक पुरुष बिरादरी का ही एकमात्र आरक्षित क्षेत्र माना जाता था.

‘फटी हथेलियाँ’ हिन्दी में अपनी पहली कविता ‘पार्वती योनि’ से, अपनी प्रतिरोधी उपस्थिति दर्ज़ करा देने वाली कवियित्री ‘नेहा नरूका’ का, यह पहला काव्य संग्रह है. अपने इस पहले ही काव्य संग्रह में नेहा, विषय की इतनी विविधता को लेकर उपस्थित हुई हैं कि उनके इस विस्तृत अनुभव संसार को देखकर, एक साथ आप ख़ुशी और आश्चर्य दोनों से भर सकते हैं. एक ओर उनकी कविताओं में चम्बल के सुदूर बीहड़ गाँव-क़स्बे से लेकर, महानगर और देश-दुनिया के व्यक्तिगत और सार्वजनिक अनुभव, बेहद रचनात्मक संवेदना के साथ, घनीभूत होकर प्रकट हुए हैं. इस सबमें जो सबसे आश्वस्तकारी बात है, वो है नेहा का वैचारिक रूप से प्रगतिशील मूल्यों का आत्मसातीकरण. साथ ही उनका उसी तेवर के साथ, रचना प्रक्रिया में प्रकट होना, जो वर्तमान फासीवादी विचारों के तेज़ अंधड़ में भी अपनी जगह अडिग हैं.

नेहा की दृष्टि, इस मामले में अर्श से फ़र्श तक फैली हुई है. वे उपभोक्तावाद के दौर में व्यक्ति और बाज़ार से हटकर, वस्तु के उस वास्तविक उत्पादकर्ता को भी नहीं भूलतीं, जो व्यक्ति और बाज़ार की नज़र से ओझल, सुदूर गाँव में अब भी हाशिए पर पड़ा हुआ है .

अस्मितावादी विमर्श से प्रेरित रचनाकारों पर अक़्सर आरोप लगते आये हैं कि उनकी रचनाओं में, निज व्यथा से ऊपर उठकर जनसंख्या विस्फोट, भूख-बेरोज़गारी और पर्यावरण असंतुलन जैसे सार्वभौमिक मुद्दों पर, उन्होंने अपनी बहुत ही कम क़लम चलाई है. अपने संग्रह की कविताओं के माध्यम से नेहा नरूका, इस मिथ को भी मज़बूती से ख़ारिज करती चलती हैं. उनके यहाँ हाशिये पर स्थित स्त्री की चिंताओं के साथ-साथ, पर्यावरण और पारिस्थितिकी से जुड़ी समस्याएँ भी बहुत गहरी चिंता के साथ प्रकट हुई हैं.

इसी के साथ नेहा के चिंतन में एक अच्छी बात यह शामिल है कि उनके यहाँ, किसी भी विषय को लेकर पूर्वाग्रह नहीं हैं. फिर चाहें वह वर्ग या जाति हो; धर्म-संस्कृति अथवा गाँव या शहर हो. उनकी पैनी और यथार्थ परक दृष्टि से, कहीं कोई भी नहीं बच सका है. वे जब भी ऐसे किसी विषय पर अपनी क़लम उठाती हैं, तो उसकी तह तक चली जाती हैं. उस पर सबसे सुंदर बात यह कि वे उससे बिना प्रभावित हुए, उसका सारा सच-झूठ अपनी कविता में उकेर देती हैं. इस संग्रह में उनकी ऐसी कई कविताएँ हैं, जो देश-जाति, धर्म-समाज, गाँव-देहात और धर्म-संस्कृति पर वे, अपने कई बेहद खरे शब्द-चित्र प्रस्तुत करती हैं.

संग्रह की एक कविता है, ‘गाँव दस कविताएँ.’ यह कविताएँ कवियों के अहा! ग्राम्य जीवन के उलट, उसके रग-रेशों को ऐसे उधेड़ती चलती हैं कि आप नेहा के तलस्पर्शी सर्वेक्षण पर चकित रह जायें. यह सर्वेक्षण कहें या उनका आँखों देखा भुक्तभोगी जीवन, जो हमारी आँखों में उँगलियाँ डालकर बताता है कि रहे होंगे गाँव किसी के लिए स्वर्ग वाटिका, वंचितों और हाशिये पर पड़े समाजों के लिये तो यह, बिल्कुल नहीं. उस पर यदि आप स्त्री, दलित अथवा अल्पसंख्यक श्रेणी से आते हैं, तब तो कतईं नहीं.

नेहा की कविताओं में एक घनी आत्मीयता है, जो उनका अपना स्वभाव भी है. अपनी कविताओं के माध्यम से वे जब समाज की आलोचना करते, अपने बरअक़्स जो विपरीत ध्रुव हैं उनके प्रति उनमें गहरे आक्रोश से अधिक, दया और करुणा भाव है. कहीं-कहीं गहरा क्षोम और हताशा, किंतु अमर्ष से भरा उग्र-प्रतिकार कम ही है.

यह स्थिति नेहा ही नहीं, कई अन्य स्त्री रचनाकारों के यहाँ भी उपस्थित है. संभवतः इसका एक बड़ा कारण, स्त्रियों का शोषक और शोषित; गोरे और काले; अवर्ण और सवर्ण की भाँति, दो विरोधी विचार और मोर्चों पर खड़ा ना होना भी है. उनकी लड़ाई दो विरोधी दस्तों की लड़ाई ना होकर, मोर्चे के भीतर अपनों से अपने लिए लड़ने की गहरी मुहिम है. यह मुहिम ग़ैर बराबरी के विरुद्ध तो है, किंतु बैर और बदले के पक्ष में नहीं. संग्रह ही नहीं अपनी पूर्ववर्ती कविताओं में भी नेहा, बड़े से बड़े अपराध और अपराधी प्रवृत्ति के परिष्कार और उन्मूलन में, गहन मानवीय संवेदना का साथ नहीं छोड़तीं.

उदाहरण स्वरूप उनकी कुछ कविताएँ, जिनमें बलात्कारी पिता और परिजन हैं (बलात्कारियों की सूची); घर से बाहर स्त्रीद्वेष की शिक्षा पाये, हिंसक पुत्र (पुत्रकथा); रसोई और घर में पत्नी और भाभियों के हत्यारे, पति और देवर (सिल-लोढ़ा); थोड़ा अपने बारे में अधिक सोचने वाली महत्वाकांक्षी प्रेमिकाओं को, पीठ पीछे वेश्या और व्यभिचारिणी कहने वाले प्रेमी (प्रेमिकाएँ, ‘सोलह ख़सम) हैं; नेहा उनका चित्रण करते हुए भी अपना, उचित संयम और मानवीय स्वभाव नहीं खोती है

विमर्श वर्गीय चेतना का आधार बनें और उनके बीच आपसी संवाद व विचारों का आदान-प्रदान हो; ‘फटी हथेलियाँ’ कविता संग्रह में नेहा ने यह बात, कई स्थानों पर और कई तरीक़े से कही है. इस हेतु वे कई जगह, कांता सम्मत उपदेशक की भूमिका में भी खड़ी दिखाई पड़ती हैं. जहाँ उनका स्पष्ट अभिमत है कि किसी भी जाति या वर्ग का प्रत्येक सदस्य अपराधी नहीं होता, ना सबको दण्ड देना उचित है. दण्ड का प्रतिसाद उन्हें ही मिले, जो सच में अपराध के भागी हैं .

संग्रह की कुछ कविताओं में-‘यहाँ चुंबन लेना जुर्म है’, ‘आख़िरी रोटी’, ‘एक बोसा ले लो’, ‘फटी हथेलियाँ’, ‘बिना बाप की लड़कियाँ’, ‘जवान लड़की की लाश’, ‘मैंने पिता से सीखा’, ‘विदाई’, ‘भ्रमर गीत’, ‘शाल भंजिका’, ‘ग़रीबों का डीएनए’ और ‘कपड़े : नौ कविताएँ’ बेहद मार्के की कविताएँ हैं, जो घर से लेकर बाहर तक पसरी पितृसत्ता की जकड़बंदी और सांप्रदायिक कट्टरता के बीच, स्त्री स्वन्त्रता और प्रेम का स्पेस कम हो जाने पर अपनी बेबाक़ बात कहने के साथ-साथ और भी कई बेहद संवेदनशील विषय और प्रसंगों पर अपना मज़बूत पक्ष रखती हैं.

नेहा द्वारा उठाये गये यह प्रसंग बताते हैं कि उनके सामाजिक सरोकार, बेहद मानवीय और हाशिये पर पड़ी स्त्री और अन्य समाजों की सच्ची आवाज़ हैं. संग्रह में इस श्रृंखला की कुछ कविताओं में, उनकी एक मानीखेज़ कविता ‘एक बोसा ले लो’ पढ़कर ही समझा जा सकता है कि वे समाज और साहित्य की किस पृष्ठभूमि पर खड़ी हैं और किसके साथ खड़ी हैं. उनका उस जगह पर खड़े रहना, कितने साहस और धैर्य का कार्य है :

 तुम मुझसे मिलना चाहते हो न
तो आओ, मिलो मुझसे और एक बोसा ले लो
मिलो उस क़स्बाई गन्दगी और ख़ुश्बू से
जिसने मिलकर मुझे जवान किया
जिसने खेतों से कटते प्लॉट देखे
मुहल्ले के उस पुराने जर्जर मकान से मिलो
जिसका सबसे पुराना व्यक्ति पिछले दिनों मर गया
घर के पिछवाड़े होते थे मासिक धर्म के कपड़ों के घूरे
उनके बीच जगह ढूँढ़कर शौच करतीं उन औरतों से मिलो
जिनके पिता या पति उम्र-भर शराबी रहे या बेरोज़गार.

‘मुक्ता साल्वे’, ‘एलीना क़ुरैशी’, ‘कुलता बाई’ और ‘पुरखिनें’, संग्रह में कविता के रूप में कुछ व्यक्ति चित्र हैं. जिनके माध्यम से नेहा अतीत हुईं या वर्तमान में संघर्ष करती, कुछ स्त्रियों की व्यक्ति रेखा खींचती हैं. जहाँ कभी वे उनके साथ स्वयं प्रश्न बनकर खड़ी हो जाती हैं, तो कहीं वे ख़ुद उनसे प्रश्न कर रही होती हैं. नेहा के यह प्रश्न कोई बाल सुलभ मामूली जिज्ञासा से उत्पन्न सामान्य प्रश्न नहीं हैं, बल्कि वर्तमान सांप्रदायिक और विभाजनकारी सत्ता की कुनीतियों पर खड़े किए गए प्रश्न हैं. जिन्हें पढ़कर एक साथ क्षोम और संताप दोनों पैदा होते हैं :

 एलीना कुरैशी तुम्हें पता भी है कुछ
‘तुम्हें कट्टरपंथी घोषित किया गया है’
और यह वाक्य लिखते हुए मेरा ब्लड प्रेशर ‘लो’ हो रहा है.
राजनीति बहुत क्रूर हो गई है
उसकी क्रूरता से बचने के लिए मैं भी पीछे की तरफ़ चल रही हूँ
तुम भी चल रही हो पीछे की तरफ़ एलीना कुरैशी
राजनीति के बचाव-दबाव-जवाब में और
कितना पीछे की तरफ़ चलना है हम दोनों को
तुम्हें अरब जाकर रेत पर लेटना है और
क्या मुझे भगवा पहनकर हवन कुंड में बैठना है एलीना कुरैशी?

वहीं ‘मुक्ता साल्वे’ इस संग्रह की कुछ सदैव स्मरण रखने योग्य कविताओं में से एक है. जैसा कि हम जानते हैं कि १८४८ में फुले दंपत्ति ने भिड़ेवाड़ा पूना में जब लड़कियों का पहला स्कूल खोला, तो उस स्कूल में पढ़ने वाली लड़कियों में, एक अछूत छात्रा ‘मुक्ता साल्वे’ भी थीं. उन्होंने अपनी उस किशोरवय के मात्र चौदह वर्ष में एक निबंध लिखा था, ‘मांगमहारांच्या दुःखाविषयी.’ १ मार्च सन् १८५५ में अहमद नगर महाराष्ट्र के अमेरिकी-मराठी मिशन मुख्यालय से प्रकाशित पाक्षिक अख़बार ‘ज्ञानोदय’ में छपा यह निबंध, महाराष्ट्र की दो प्रमुख अछूत जातियाँ ‘महार-माँग’; जिनसे ‘मुक्ता’ स्वयं ताल्लुक़ रखती थीं, उनके साथ होने वाले भयंकर शोषण और उत्पीड़न को लेकर है. नेहा ने इस निबंध के बहाने, एक तरह से इस देश की उच्चवर्णीय श्रेष्ठताबोध पर आधारित सवर्ण सभ्यता की समीक्षा की है.

अपनी बुनावट में नेहा की यह कविता, एक ऐसे व्यक्ति द्वारा लिखी कविता प्रतीत होती है, जहाँ कवि अपने को अपने देश और समाज से उठकर, एक मुक्त चिंतक की भाँति निरपेक्ष होकर बात कर रहा होता है. बात, जो सौ प्रतिशत खरी और बेलाग-लपेट होती है.

संग्रह की स्वनामधन्य कविता ‘पार्वती योनि’ का यहाँ ज़िक्र ना करूँ, तो मुझे लगता इससे संग्रह की समीक्षा अधूरी ही रह जाएगी. यह कविता भारत की महान शैव परम्परा, जिसका विस्तार बौद्ध धर्म के बाद सर्वाधिक और समन्वयवादी है, उसके एक विशेष संस्कार ‘शिव लिंग’ पूजन पर प्रश्न खड़ा करती है. इस कविता ने एक ओर नेहा को कवि रूप में बड़ी ख्याति उपलब्ध कराई, तो दूसरी ओर तमाम धार्मिक मतानुयायियों ने उनकी ख़ूब भर्त्सना की और श्राप तक दे डाले थे. लेकिन नेहा के द्वारा इस कविता में खड़े किये गये प्रश्न, यक्ष प्रश्न हैं. उनका जवाब, शायद ही किसी धार्मिक व्यक्ति के पास अब भी हो :

ऐसा क्या किया था शिव तुमने?
रची थी कौन-सी लीला?
जो इतना विख्यात हो गया तुम्हारा लिंग
यदि लिंग का अर्थ
स्त्रीलिंग या पुल्लिंग दोनों है
तो इसका नाम पार्वती-लिंग क्यों नहीं?
और यदि लिंग केवल पुरुषांग है
तो फिर इसे पार्वती-योनि भी
क्यों न कहा जाए?

नेहा को शायद पहले से पता था कि धर्म और सत्ता मिलकर; किस तरह स्त्री का शोषण कर रहे हैं, उस रूप में वे शायद ही कभी इस प्रश्न का जवाब, उन्हें अथवा स्त्री समाज को देंगे. वे इसीलिए अपनी तार्किक और प्रगतिशील दृष्टि के तहत, उपरोक्त कविता में खड़े किए गये प्रश्न का संभावित जवाब, स्वयं ही स्थापित करती हैं. यह समन्वय और साम्यवादी हल ही इस कविता का संपूर्ण उत्स है.

यह “हो सकते थे…?” ही मुझे लगता है हर दमित और हाशिये पर पड़े समाज का विमर्श है, जिसमें दमनकारी व्यवस्था से अपने ऊपर हो रहे अन्याय की गुहार के साथ-साथ, उस अन्याय के परिष्कार की भी उचित माँग है. माँग जायज़ है. यह माँग संग्रह की अधिकांश कविताओं में प्रतिबिंबित हुई है और एक प्रगतिशील कवि चिंतक के रूप में इसका उभार, नेहा के संपूर्ण व्यक्तित्व में भी झलकता है. कहीं विनम्र आग्रह के साथ, तो कहीं तल्ख़ टिप्पणी के रूप में. प्रश्न के बाद आँख में आँख गढ़ाकर अधिकारों की उग्र माँग का विवरण, नेहा के व्यक्तित्व और कविता संसार में अति अल्प है.

कविता संस्मरण नहीं, ना कुछ संचित स्मृतियों का उल्लेख मात्र, जिन्हें भावुकता या मोहवश पन्ने पर उतार देने से, वो कविता का वास्तविक मर्म हासिल कर लेती है. कविता असंगत विचारों और बिंबों का मकड़जाल भी नहीं, जो अपनी कहन में विचार से ज़्यादा, चमत्कार पैदा करती हो. संग्रह की कुछ कविताओं में यह दोष, एकाधिक स्थान पर ग़ैर ज़रूरी रूप में उपस्थित हुआ है, किंतु इससे संपूर्ण कविता संग्रह की गरिमा पर आँच नहीं आती. कविता की मात्रा वृद्धि के मोह में, संभव है नेहा ने उन कविताओं को भी अपने संग्रह का हिस्सा बनाया है, जिनसे उन्हें साफ़-साफ़ बचना चाहिए था. किंतु किसी कवि के पहले कविता संग्रह से, यह उम्मीद एकदम बेमानी है. उम्मीद है इसका परिमार्जन और सुधार, वे अपने आगामी कविता संग्रह में अवश्य करेंगी.

यह पुस्तक यहाँ से प्राप्त करें


जितेन्द्र विसारिया

कुछ कहानियाँ और समीक्षाएँ प्रकाशित
 jitendra.visariya@gmail.com

Tags: जितेन्द्र विसारियानेहा नरूका
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