औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति
दिगम्बर
विश्व प्रसिद्ध उपन्यासकार, नाटककार और युगान्तरकारी विचारक न्गुगी वा थ्योंगो का 28 मई को जोर्जिया (अमेरिका) के बफोर्ड स्थित एक अस्पताल में 87 वर्ष की उम्र में देहांत हो गया. उन्होंने केवल केन्या के ब्रिटिश उपनिवेशवादी शासन के ही विरुद्ध नहीं, बल्कि उत्तर-औपनिवेशिक दौर में राष्ट्रपति जोमो केन्याता की तानाशाही के खिलाफ भी साहित्य की विविध विधाओं में दर्जनों पुस्तकों की रचना की. आर्थिक और राजनीतिक शोषण-उत्पीड़न का प्रतिकार करने के साथ-साथ न्गुगी ने उपनिवेशकालीन भाषा के वर्चस्व के विरुद्ध देशज अफ्रीकी भाषाओं, संस्कृति और विचार की सशक्त हिमायत की तथा औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति के लिए एक निर्भीक वैचारिक अभियान के अग्रदूत बने.
न्गुगी का जन्म 1938 में केन्या के लिमुरू स्थित कामिरिथु गाँव में हुआ. जब वे किशोरावस्था में थे, तभी केन्या में ‘माऊ माऊ विद्रोह’ आरंभ हुआ— जो ब्रिटिश उपनिवेशवादी शोषण और दमन के विरुद्ध एक जुझारू किसान आन्दोलन था.
इस विद्रोह के दौरान न्गुगी के दो भाई शहीद हुए और उनकी माँ को जेल में अमानवीय यातनाएँ झेलनी पड़ीं. ये हृदयविदारक घटनाएँ न्गुगी के लेखन और चिन्तन को गहराई से प्रभावित करती रहीं. अपनी अनेक कहानियों और उपन्यासों में उन्होंने माऊ माऊ विद्रोह का जीवंत चित्रण किया है, जिनमें ‘वीप नॉट, चाइल्ड’ उपन्यास विशेष रूप से उल्लेखनीय है.
इस उपन्यास ने अफ्रीकी साहित्य में न्गुगी की एक प्रभावशाली पहचान स्थापित की. उन्होंने युगांडा के मकेरेरे विश्वविद्यालय में स्नातक स्तर की शिक्षा प्राप्त की. छात्र जीवन में ही उनकी कुछ कहानियाँ प्रकाशित हुईं और 1962 में अफ्रीकी लेखक सम्मेलन में उनके नाटक ‘द ब्लैक हर्मिट’ का मंचन हुआ. उसी समय वे उपनिवेशवाद-विरोधी मार्क्सवादी विचारक फ्रांत्स फेनन के विचारों से गहराई से प्रभावित हुए.
इसके बाद ही उन्होंने अपना पश्चिमी नाम ‘जेम्स न्गुगी’, जो उन्हें बपतिस्मा के समय मिला था, त्याग दिया और अपना देशज नाम ‘न्गुगी वा थ्योंगो’ अपना लिया. उपनिवेशवादी मानसिकता से मुक्ति तथा औपनिवेशिक भाषा और संस्कृति के विरुद्ध प्रतिरोध की दिशा में यह एक निर्णायक कदम था, जो आगे चलकर और गहराता गया. इसी क्रम में उन्होंने अंग्रेज़ी में लिखने के स्थान पर गिकुयू और स्वाहिली जैसी देशज भाषाओं में लेखन का निर्णय लिया. उनके कुछ प्रारम्भिक उपन्यास— ‘वीप नॉट, चाइल्ड’, ‘द रीवर बिटवीन’ और ‘द ग्रेन ऑफ ह्वीट’—के पहले संस्करण उनके पुराने नाम ‘जेम्स न्गुगी’ के नाम से ही प्रकाशित हुए थे.
1963 में युगांडा विश्वविद्यालय से स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद वे मास्टर डिग्री के लिए इंग्लैंड के लीड्स विश्वविद्यालय गए. वहाँ से लौटकर उन्होंने नैरोबी विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य शुरू किया. विश्वविद्यालय में उन्होंने अफ्रीकी साहित्य, विशेष रूप से वाचिक परंपरा को प्रतिष्ठा दिलाने और विभिन्न अफ्रीकी भाषाओं को प्रोत्साहन देने के लिए एक सशक्त अभियान चलाया, जिसके परिणामस्वरूप विश्वविद्यालय ने अंग्रेज़ी साहित्य के कार्यक्रम को स्थगित कर दिया.
अपनी देशज भाषा के प्रति न्गुगी के गहरे जुड़ाव की जड़ें उनके बचपन की स्मृतियों में निहित हैं, जिनका उल्लेख उन्होंने अपने संस्मरणों में किया है. जब वे ‘जेम्स न्गुगी’ के नाम से एलायंस हाई स्कूल जैसे एक संभ्रांत बोर्डिंग स्कूल में पढ़ते थे, तो उन्हें औपनिवेशिक युग में अपने परिवार की कठिन ज़िन्दगी को लेकर भीतर ही भीतर एक तनाव महसूस होता था. उन्हें लगता था कि उन्हें इस आशा से वहाँ भेजा गया है कि वे अपने समाज और समुदाय के लिए उपयोगी बनें. परन्तु स्कूल में उन पर उपनिवेशवादियों की भाषा बोलने और उनकी संस्कृति अपनाने का दबाव था— उन्हें “लाट साहब” बनाने की प्रक्रिया चल रही थी.
न्गुगी का मानना था—
वास्तव में, भाषा की वजह से होता यह है कि समुदाय द्वारा अपने सन्देशवाहक को इस उद्देश्य से पढ़ाई करने भेजा जाता है कि जहाँ से भी मिल सके, उसे ग्रहण कर ले, लेकिन वहाँ जाकर वह एक कैदी बन जाता है. लाक्षणिक तौर पर कहें तो वह कभी वापस नहीं लौटता, क्योंकि वह अपने कैदखाने की भाषा के भीतर ठहर जाता है.
न्गुगी को गहरा एहसास था कि उपनिवेशवादी शासक अपने शासन को बनाए रखने के लिए हथियारों से कहीं अधिक भाषा का उपयोग करते हैं. उनका मानना था—
“अफ्रीका की एक बहुत बड़ी त्रासदी यह है कि यहाँ के श्रेष्ठ लोगों को उनकी भाषायी जड़ों से पूरी तरह काट दिया गया है. हमारा पालन-पोषण इस तरह हुआ कि हम अपनी देशज भाषाओं को तुच्छ समझने लगे, मानो वे कोई अभिशाप हों. उनकी जगह जो एकल भाषावाद (monolingualism) थोपा गया, वह दमघोंटू था— विनाशकारी. किसी भी सभ्यता के लिए भाषा का सम्पर्क ऑक्सीजन के समान होता है.”
न्गुगी स्पष्ट कहते हैं—
“अगर आप दुनिया की सारी भाषाएँ जानते हैं लेकिन अपनी मातृभाषा या संस्कृति की भाषा नहीं जानते, तो यह गुलामी है. इसके विपरीत, अगर आप अपनी मातृभाषा जानते हैं और उसमें दुनिया की सारी भाषाएँ जोड़ते जाते हैं, तो यह सशक्तिकरण है. मैं गुलाम होने की बजाय सशक्त होना पसंद करूँगा.”
न्गुगी के भाषा संबंधी विचारों की रोशनी में ही हम यह समझ सकते हैं कि उन्होंने अंग्रेज़ी की बजाय अपनी मूल देशज गिकुयू और स्वाहिली भाषाओं में लेखन का निर्णय क्यों लिया.
1977 में न्गुगी ने गिकुयू भाषा में एक नाटक लिखा—‘ न्गाहिका न्दींदा’ (I Will Marry When I Want). इसमें उन्होंने प्रचलित रंगकर्मियों की जगह स्थानीय किसानों और मज़दूरों को अभिनय के लिए चुना. नाटक में आज़ादी के बाद सत्ता में आए केन्याई पूंजीपति वर्ग की कारगुज़ारियों का इतना यथार्थ चित्रण था कि एक ओर जहाँ इसे जनता की ओर से भरपूर सराहना मिली, वहीं सरकार बौखला उठी. उसने नाटक पर प्रतिबंध लगा दिया और जिस थिएटर में इसका मंचन हो रहा था, उसे भी ध्वस्त कर दिया. अगर यही नाटक अंग्रेज़ी में प्रस्तुत होता, तो शायद सरकार को कोई आपत्ति नहीं होती.
दिसंबर 1977 में केन्या की पुलिस ने न्गुगी को ‘सरकार और उसकी संस्थाओं के लिए खतरनाक गतिविधियों में संलिप्त’ होने के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया. जेल में, बंदी पुनरीक्षण ट्रिब्यूनल के अध्यक्ष के नाम अपने पत्र में न्गुगी ने लिखा—
“मैं यहाँ इसलिए हूँ क्योंकि मैंने खास तौर पर गिकुयू भाषा में ‘न्गाहिका न्दींदा’ नामक एक नाटक लिखा, जिसमें साम्राज्यवाद के खिलाफ केन्याई जनता के संघर्ष के इतिहास पर गर्व व्यक्त किया गया है; जिसमें उन लोगों की निंदा की गई है जिन्होंने जनता के साथ ग़द्दारी की है; जिसमें आज के केन्या की सामाजिक स्थिति का यथार्थ चित्रण है; और जिसमें ‘सुविधाभोगी’ डकैत अल्पमत और खून-पसीना बहाने वाले बहुमत की जीवनशैली का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है.
नैरोबी टाइम्स को दिए एक इंटरव्यू में, वहाँ के कमिश्नर कियाम्बू— जिन्होंने नाटक का सार्वजनिक मंचन रुकवाया था— ने कहा कि इस नाटक में केन्या में वर्ग संघर्ष छेड़ने का आह्वान किया गया है… क्या इससे भी ज़्यादा हास्यास्पद बात हो सकती है? कोई नाटक किसी ऐसी चीज़ के लिए कैसे आह्वान कर सकता है जो पहले से ही वहाँ मौजूद है? इस नाटक ने केन्या में वर्गों का आविष्कार नहीं किया है. पिछले 87 वर्षों से केन्या के इतिहास के केंद्र में वर्ग और वर्ग संघर्ष मौजूद हैं.”

न्गुगी बिना किसी आरोप-पत्र या मुक़दमे के एक वर्ष तक अमानवीय परिस्थितियों में जेल में रहे. वहीं, उन्होंने गिकुयू भाषा में टॉयलेट पेपर पर उपन्यास ‘कैतानी मुलाराबै-इनी’ (Devil on the Cross) लिखना शुरू किया और तय कर लिया कि अब वे केवल अपनी देशज भाषा में ही लिखेंगे.
1978 में जेल से रिहा होने के बाद उनकी विश्वविद्यालय की नौकरी चली गई और सरकार द्वारा उनके परिवार को लगातार प्रताड़ित किया गया. इन परिस्थितियों में उन्हें केन्या छोड़कर यूरोप और अमेरिका में शरण लेनी पड़ी.
वास्तव में, 1977 में ही प्रकाशित उनके उपन्यास ‘पेटल्स ऑफ ब्लड’ (जिसका हिंदी अनुवाद ‘खून की पंखुड़ियाँ’ आनंद स्वरूप वर्मा ने किया है) के प्रकाशन के बाद से ही जोमो केन्याता की सरकार उनके विरुद्ध सतर्क हो गई थी.
यह महाकाव्यात्मक उपन्यास केन्याई जनता के संघर्षों के इतिहास का सशक्त दस्तावेज़ है. यह उन सभी देशों की कहानी है जहाँ औपनिवेशिक गुलामी से मुक्ति के बाद भी जनता को वास्तविक स्वतंत्रता नहीं मिल पाई. जनविरोधी सरकारों द्वारा किए गए शोषण और उत्पीड़न तथा उनके खिलाफ जनता के साहसिक संघर्ष और दमन इस उपन्यास का केंद्रीय विषय है.
इस उपन्यास की रचना प्रक्रिया के बारे में न्गुगी ने लिखा है—
“इस उपन्यास को लिखते समय मैं यह देखकर हतप्रभ रह गया कि केन्या की ग़रीबी की कोई आंतरिक वजह नहीं है— वह इसलिए ग़रीब है क्योंकि यहाँ की सारी संपदा पश्चिमी दुनिया के विकास में इस्तेमाल की जा रही है. बात एकदम साफ है—पश्चिम जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन, जापान और अमेरिका जैसे देश यहाँ एक यूनिट पूँजीनिवेश करते हैं और बदले में दस यूनिट संपदा अपने देशों को ले जाते हैं.
मैंने महसूस किया कि साम्राज्यवाद कभी भी किसी देश या जनता का विकास नहीं कर सकता… ‘पेटल्स ऑफ ब्लड’ में मैं यही दिखाना चाहता था कि साम्राज्यवाद केन्याई जनता या हमारे देश के लिए कोई विकास नहीं ला सकता. इसे लिखते समय मैंने भरसक कोशिश की कि मैं केन्या के मज़दूरों और किसानों की उस अनुभूति के प्रति ईमानदार रहूँ, जिसे वे 1895 से ही अपने संघर्षों के ज़रिए प्रकट करते आ रहे हैं.”
न्गुगी का एक और बहुचर्चित उपन्यास ‘मातीगारी’ 1986 में गिकुयू भाषा में प्रकाशित हुआ, जिसका बाद में अंग्रेज़ी अनुवाद भी हुआ. इस उपन्यास के साथ भी वही हुआ जो उनके नाटक I Will Marry When I Want के साथ हुआ था. इसका नायक मातीगारी, एक माऊ माऊ विद्रोही है— जिसका अर्थ होता है ‘गोलियों का सामना करने वाला देशभक्त’. वह उपनिवेशवादियों और उनके देशी सहयोगियों से लड़कर गाँव लौटता है. यह सोचकर कि देश को अब आज़ादी मिल चुकी है, वह अपने हथियार त्याग देता है और शांति से जीवन बिताने का संकल्प करता है.
लेकिन जब वह देखता है कि गोरे शासकों की जगह काले शासक आ गए हैं और आम लोगों की ज़िंदगी में कोई परिवर्तन नहीं आया है, तो वह अर्ध-विक्षिप्त अवस्था में भटकने लगता है. इस उपन्यास ने पाठकों पर ऐसा प्रभाव डाला कि वे आपस में मातीगारी को लेकर चर्चा करने लगे मानो वह कोई जीवित व्यक्ति हो. राष्ट्रपति डैनियल अराप मोई ने उसके नाम से गिरफ्तारी का वारंट तक जारी कर दिया. लेकिन जब पुलिस को ज्ञात हुआ कि मातीगारी कोई व्यक्ति नहीं बल्कि एक काल्पनिक पात्र है, तो सरकार और अधिक बौखला गई. ‘मातीगारी’ की प्रतियाँ न केवल दुकानों और गोदामों से, बल्कि पाठकों के घरों से भी छापेमारी करके जब्त की गईं.
न्गुगी की प्रमुख पुस्तकों में शामिल हैं— Weep Not, Child (1964), The River Between (1965), A Grain of Wheat (1967), Petals of Blood (1977), Devil on the Cross (1980), Decolonising the Mind (1986), Matigari ma Njiruungi (1986), Wizard of the Crow (2006), और The Language of Languages (2023). इनमें से Petals of Blood को गार्गी प्रकाशन ने ‘खून की पंखुड़ियाँ’ और Decolonising the Mind को ‘औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति’ शीर्षक से प्रकाशित किया है, जिनका अनुवाद वरिष्ठ पत्रकार और अनुवादक आनंद स्वरूप वर्मा ने किया है. इसी प्रकाशन द्वारा Matigari का भी हिंदी अनुवाद राकेश वत्स द्वारा प्रकाशित किया गया है.

पिछले दो दशकों से वे साहित्य के सर्वोच्च सम्मान, नोबेल पुरस्कार— के संभावित दावेदारों में रहे, पर हर बार उनके नाम की घोषणा नहीं हुई. एक साक्षात्कार में, प्रख्यात अमेरिकी पत्रकार स्कॉट सिमोन को उन्होंने हल्के-फुल्के अंदाज़ में बताया—
“एक रात कुछ पत्रकार मेरे घर पर इकट्ठा हुए और भोर के तीन बजे तक स्वीडन से फ़ोन आने का इंतज़ार करते रहे. जब सूचना मिली कि इस बार भी नाम नहीं आया, तो मेरी पत्नी उन पत्रकारों को सांत्वना देने लगी, क्योंकि वे हमसे कहीं ज़्यादा निराश थे. पत्नी ने उनके लिए कॉफी बनाई और उन्हें देर तक समझाया. कितनी मज़ेदार बात है, है न?”
न्गुगी ने एक बार कहा था—
“सचमुच मैं जिसे ‘हृदय का नोबेल’ कहता हूँ, उसे ही सबसे अधिक पसंद करता हूँ. जब कोई व्यक्ति हमारी किताब पढ़कर हमारे पास आता है और कहता है कि आपकी रचना ने मुझे गहराई से प्रभावित किया, तो वही मेरे लिए सबसे बड़ा पुरस्कार होता है. इस ‘हृदय के नोबेल’ की सबसे बड़ी सुंदरता उसकी लोकतांत्रिकता में है— यह हर लेखक को उपलब्ध हो सकता है.”
नाइजीरियाई लेखक बेन ओकरी ने न्गुगी को याद करते हुए बताया कि एक बार संगीत और साहित्य पर बातचीत के दौरान उन्होंने कहा-
“मैं पियानो बजाना सीख रहा हूँ.”
मैं हैरान रह गया क्योंकि उस समय उनकी उम्र लगभग 75 वर्ष थी. उन्होंने कहा कि शुरुआत में एक सुर बजाना भी मुश्किल लगता था, लेकिन कुछ महीनों में मैं मोजार्ट, शोपैन और बाख की धुनें बजाने लगा.
यह बताते हुए उस बुज़ुर्ग क्रांतिकारी के चेहरे पर युवाओं जैसी ताज़गी और चमक थी.
फरवरी 2018 में जब न्गुगी वा थ्योंगो भारत आए थे, तो हमें उनसे मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. उसी वर्ष जनवरी में दिल्ली विश्व पुस्तक मेले में गार्गी प्रकाशन द्वारा ‘अफ्रीकी साहित्य श्रृंखला’ की शुरुआत की गई थी. इसकी परिकल्पना वरिष्ठ पत्रकार, अनुवादक और तीसरी दुनिया पत्रिका के संपादक आनंद स्वरूप वर्मा ने की थी, जो इस श्रृंखला के संपादक भी हैं. उन्होंने Petals of Blood का हिंदी अनुवाद ‘खून की पंखुड़ियाँ’ शीर्षक से किया है.
जब न्गुगी के भारत आने की सूचना मिली, तो मंगलेश डबराल जी के प्रयास से हम लोगों को उनसे भेंट का अवसर मिला. हमारे साथ समयांतर के संपादक कज बिष्ट, पंकज श्रीवास्तव, अभिषेक श्रीवास्तव, पारिजात, अमरपाल, दीप्ति, रियाज़ुल हक और अन्य कई साथी उपस्थित थे.
बातचीत के दौरान आनंद स्वरूप वर्मा ने अपनी अफ्रीका यात्रा की यादें साझा कीं और न्गुगी को वह पुस्तक दिखाई— A Grain of Wheat—जिस पर लेखक का पुराना नाम जेम्स न्गुगी छपा था. यह देखकर और उस पर अपना हस्ताक्षर पाकर न्गुगी बहुत भावविभोर हो उठे. लगभग दो घंटे तक चली बातचीत में समकालीन विश्व की राजनीति, अफ्रीकी देशों की स्थितियाँ, वैश्विक पूँजीवाद, उनकी लेखन-प्रक्रिया और भविष्य की योजनाओं को लेकर गहरी और रोचक चर्चा हुई.
जब वर्मा जी ने उन्हें ‘खून की पंखुड़ियाँ’ की एक प्रति भेंट की, तो वे अत्यंत प्रसन्न हुए और उपस्थित सभी साथियों के नाम पूछकर हर प्रति पर अपने हस्ताक्षर के साथ एक व्यक्तिगत संदेश लिखा.
दिल्ली में न्गुगी से हमारी मुलाकात एक गर्मजोशी, खुशमिजाजी और दोस्ताना व्यवहार से भरपूर—एक जीवंत और आत्मीय इनसान से हुई थी. उस समय वे अस्सी वर्ष के थे. पहनावा उनका ठेठ अफ्रीकी था—रंगीन कुर्तेनुमा कमीज़ और ढीली-ढाली पैंट.
हममें से किसी को यह अहसास नहीं हुआ कि हम विश्व साहित्य के उस महान लेखक और युगान्तरकारी विचारक से मिल रहे हैं, जिन्हें कई बार नोबेल पुरस्कार के लिए नामित किया जा चुका है और जिनकी रचनाएँ लगभग छह दशकों से वैश्विक साहित्य को गहराई से प्रभावित करती रही हैं.
न्गुगी का उपन्यास मातीगारी यहाँ से प्राप्त कर सकते हैं.
बिहार के एक कस्बे दाउदनगर (औरंगाबाद) में जन्म. शुरूआती पढ़ाई वहीं पर. मगध विश्वविद्यालय से स्नातक विज्ञान और गोरखपुर विश्वविद्यालय से हिंदी में स्नातकोत्तर. कई साहित्यिक और राजनीतिक किताबों का अंगरेजी से हिंदी अनुवाद. इंगलैंड में मजदूर वर्ग की दशा– फ्रेडरिक एंगेल्स, आधुनिक मानव का अलगाव- फ्रित्ज पापेनहाइम, अफ़्रीकी साहित्य सृंखला में तीन उपन्यास, फिरदौस– नवल अल सदावी, एक बहुत लम्बा ख़त- मरियामा बा और रात में चहलकदमी– अलेक्स लागुमा तथा एक कविता संग्रह गाँव की आवाज़ – नीयी ओसुन्दरे का अनुवाद. इसके अलावा लू शुन की गद्य कवितायें- जंगली घास, नाजिम हिकमत की तीन लम्बी कविताएँ- शेख बदरेद्दीन का फतहनामा, मास्को सिम्फनी और मोनालिषा और उसका चीनी महबूब का अनुवाद. मंथली रिव्यू प्रेस की चर्चित किताबें- अन्तहीन संकट, वित्तीय महासंकट, पारिस्थितिकी: पूँजीवाद के ख़िलाफ़, क्या मजदूर वर्ग दुनिया को बदल सकता है?, हाड़तोड़ मेहनत इत्यादि का अनुवाद. देश-विदेश पत्रिका का संपादन और गार्गी प्रकाशन का संचालन. सांस्कृतिक-राजनीतिक कार्यकर्ता. |
यह अच्छा, पठनीय, परिचयात्मक नोट है।
एक बड़े एक्टिविस्ट, शानदार लेखक
की ज़रूरी याद।
दिगंबर जी को साधुवाद.
आपने आम पाठकों के लिए इस संक्षिप्त आलेख रूपी गागर में सागर भर दिया है.
इसे पढ़ने के बाद जिज्ञासु जन इस महान रचनाकार की कृतियों का अध्ययन करने के लिए प्रेरित होंगे.
न्गूगी पर दिगम्बर का लेख महत्वपूर्ण है।
न्गूगी के साथ की तस्वीरें संग्रहणीय हैं।
वे उन लेखकों में हैं जिनके लिए मातृभाषा में सोचना और लिखना दिमागी ग़ुलामी से आज़ादी के लिए ज़रूरी है।नमन
आनंदस्वरूप वर्मा का नाम अफ़्रीकी साहित्य के विशेषज्ञ का पर्याय बन चुका है। नेल्सन मंडेला ने अपने शपथग्रहण समारोह में आनंद स्वरूप वर्मा को विशेष रूप से आमंत्रित किया था। अफ़्रीकी साहित्य के अलावा उनके द्वारा किए गए चीनी उपन्यासों के अनुवादों लिए भी उन्हें सदैव याद रखा जाएगा।