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Home » निर्मला जैन : मेरी टीचर : गरिमा श्रीवास्तव

निर्मला जैन : मेरी टीचर : गरिमा श्रीवास्तव

निर्मला जैन का समय हिंदी साहित्य के अध्यापन का एक युग ही है. आज़ादी के बाद हिंदी अध्येताओं और अध्यापकों की जो पीढ़ी उभरी उसमें वह अन्यतम थीं. कहना न होगा कि दिल्ली विश्वविद्यालय की जो केन्द्रीयता स्थापित हुई उसमें सत्ता-केंद्र की निकटता के साथ-साथ डॉ. नगेन्द्र के भारत भर से योग्यतम शिक्षकों की पहचान और उन्हें आग्रहपूर्वक दिल्ली आमंत्रित करने के उनके प्रयास भी सहायक थे. इस सबके बीच अपनी मेधा और अध्यवसाय से निर्मला जैन ने अपनी जगह बनाई. एक शिक्षक के रूप में उनकी क्या भूमिका थी. इसकी चर्चा इस आलेख में प्रो. गरिमा श्रीवास्तव ने की है. दुर्भाग्य से आज विश्वविद्यालयों के अधिकतर विभाग बुझ चले हैं. किसी अध्यक्ष के पास न इतनी शक्ति है न इतना साहस की वह अपने विभाग के लिए सुपात्र आमंत्रित कर सकें. डॉ. निर्मला जैन की स्मृति को नमन करते हुए यह आलेख प्रस्तुत है.

by arun dev
April 16, 2025
in आत्म
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निर्मला जैन : मेरी टीचर : गरिमा श्रीवास्तव
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निर्मला जैन : मेरी टीचर


गरिमा श्रीवास्तव

निर्मला जैन
28 अक्टूबर 1932- 15 अप्रैल, 2025
दिल्ली विश्वविद्यालय से बी.ए., एम.ए., पीएच.डी. और डी.लिट.

लेडी श्रीराम कॉलेज (1956-70) और फिर दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग (1970-1996) में अध्यापन किया. इस दौरान वे हिन्दी विभाग की अध्यक्ष (1981-84) और कई वर्षों तक दक्षिण-परिसर में विभाग की प्रभारी प्रोफ़ेसर रहीं.

प्रकाशन
प्रमुख रचनाएँ : ‘आधुनिक हिन्दी काव्य में रूप-विधाएँ’, ‘रस-सिद्धान्त और सौन्दर्यशास्त्र’, ‘आधुनिक साहित्य : मूल्य और मूल्यांकन’, ‘हिन्दी आलोचना का दूसरा पाठ’, ‘कथा-समय में तीन हमसफ़र’, ‘दिल्ली : शहर-दर-शहर’, -‘ज़माने में हम’, ‘पाश्चात्य साहित्य-चिन्तन’, ‘कविता का प्रति-संसार’ (आलोचना); ‘उदात्त के विषय में’, ‘बांग्ला साहित्य का इतिहास’, ‘समाजवादी साहित्य : विकास की समस्याएँ’, ‘भारत की खोज’, ‘एडविना और नेहरू’, ‘सच, प्यार और थोड़ी-सी शरारत’ (अनुवाद) ; ‘नई समीक्षा के प्रतिमान’, ‘साहित्य का समाजशास्त्रीय चिन्तन’, ‘महादेवी साहित्य’ (4 खंड), ‘जैनेन्द्र रचनावली’ (12 खंड).

पुरस्कार
‘सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार’, ‘रामचन्द्र शुक्ल पुरस्कार’, ‘हरजीमल डालमिया पुरस्कार’, ‘तुलसी पुरस्कार’, ‘केन्द्रीय हिन्दी संस्थान’ (आगरा) का ‘सुब्रह्मण्यम भारती सम्मान’, ‘हिन्दी अकादमी’ का ‘साहित्यकार सम्मान’, ‘साहित्य अकादेमी’ का ‘अनुवाद पुरस्कार’, ‘संतोष कोली स्‍मृति सम्‍मान’ आदि. 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

निर्मला जैन. यह नाम ज़ेहन में आते ही कुर्सी से उठ कर खड़े हो जाने वाली पीढ़ी के बहुत से विद्यार्थियों में ही मैं अपना नाम शुमार कर पाती हूँ. उन्होंने मुझे पाश्चात्य काव्य शास्त्र पढ़ाया था. जिस ढंग से वे लोंजाइनस के उदात्तता  की व्याख्या करती थीं वह अपनी ओजस्वी गूंज के साथ कानों में अब भी टंकी हुई है. यह बिल्कुल याद नहीं कि उन्हें पहले-पहल कहाँ देखा था और कब. पिता दिल्ली विश्वविद्यालय में डॉ. नगेन्द्र द्वारा आमंत्रित युवा प्राध्यापक थे, वे मिसेज जैन का बहुत आदर किया करते. गुरुदेव नित्यानंद तिवारी के मुँह से  कभी भी उनके लिए मिसेज़ जैन के अलावा कोई संबोधन नहीं सुना, वे दोनों बेहद क़रीबी मित्र थे.

मैडम का क़द मध्यम था, बावजूद इसके दिल्ली विश्वविद्यालय के कला संकाय में उनके क़दमों की धमक सबसे प्रभावी थी. जबकि जेंडर सम्बन्धी चेतना के विस्तार पाने के बावजूद दबी ज़ुबान से ही सही बौद्धिक स्त्री के पुरुष सहयोगी आपत्तिजनक छींटाकशी से स्त्री को आज भी बख़्शा  नहीं करते, वैसे में आज से चालीस साल पहले का समय ! सच कहूँ तो निर्मला जैन का समय था.

एक स्त्री ने समय के प्रवाह को अपने लिए कैसे मोड़ा होगा? इसे जानना चाहिए. परिश्रम और पढ़ाई-लिखाई ने बनाया था उन्हें- बोल्ड, स्पष्टवादी, बौद्धिक जागरूक मनुष्य.

उनका व्यक्तित्व प्रखर स्वातंत्र्य चेतना और परंपरागत भारतीय संस्कारों से मिलकर बना था. वे तर्कशील भी थीं और संवेदनापूरित भी, उनके पास अनोखे अनुभव थे जो गहन परिश्रम की आँच में पककर उनके व्यक्तित्व को लोहे जैसी मज़बूती दे गए थे.

मुझे याद है यह सन 1991 का साल था जब वे हमें एम. ए. की कक्षा में पाश्चात्य-साहित्य चिंतन पढ़ाने आईं. मारुति 800 से उतर कर वे बागरू प्रिंट की सफेद भूरी साड़ी में, स्लीवलेस ब्लाउज़ और छोटे कटे बालों के साथ एक बिंदी लगाये हुए कक्षा में एक मध्यम कद की गेहुआयी-सी गोल मटोल उपस्थिति थीं. छात्रों से किसी परिचय की औपचारिकता में अविश्वास जताते हुए उन्होंने अपना व्याख्यान शुरू किया. आँखों में तेज़.  ज़बरदस्त याददाश्त और सुनहले फ्रेम के चश्मे से छनकर आती हुई एक वेधक दृष्टि मुझ जैसे कई विद्यार्थियों को  सहमाने के लिए काफ़ी थी. वह महिला हॉस्टल की प्रोवोस्ट भी थीं, जिनकी कार आते हुए दिख जाये तो हास्टल की लड़कियाँ अपने-अपने कमरों की और दौड़ लगा देती थीं. मालरोड पर उनका घर था. एक बार उनसे मिलने हास्टल के सिलसिले में मुझे वहाँ जाना याद है. तब समझ आया कि वे शिष्य वत्सल भी हैं. उनके दृढ़ व्यक्तित्व के भीतर सद्भाव का सोता था.

वह स्टाफ़ रूम में प्रो. नित्यानंद तिवारी और विश्वनाथ त्रिपाठी के बीच सूर्य-सी दैदीप्यमान रहतीं, जिसकी ताब इतनी अधिक थी कि हम अपने अध्यापक से मिलने के लिए घंटों खड़े रहते क्योंकि मैडम के सामने जाने की हिम्मत हमें नहीं होती. वे रेशमी या सूती साड़ी की क़द्रदान थीं. हमेशा वेजिटेबल डाई की साड़ी ही उनका वेश थी. फर्राटेदार हिंदी अंग्रेजी बोलतीं और सामने वाले को अपने पुष्ट तर्कों से परास्त कर दिया करतीं. वर्षों बाद वे मेरी सिलेक्शन कमिटी में हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय आई थीं. यह सन 2011 था. पहली बार मैंने उनसे एक सहयोगी की तरह बात की. तब तक वह बहुत बदल चुकी थीं. मुझे प्रोफ़ेसर बना कर उन्होंने बस यह कहा–

“तुमने मेरे निर्देशन में शोध नहीं किया, जबकि मुझे इसकी उम्मीद थी.”

पीएच.डी. पाने के चौदह वर्षों बाद यह सुन कर मुझे आपादमस्तक आश्चर्य ने जकड़ लिया.  वह मेरे फ्लैट में रहीं तीन दिन. लेकिन तब जबकि चयन समिति का निर्णय सार्वजनिक हो चुका था. उनसे सीखा मैंने गोपनीय कार्य की गोपनीयता को बनाए रखना. उनसे सीखा मैंने खूब पढ़ना और तथ्य आधारित बहस करना. उन्हें मेरा साफ़-शफ़्फ़ाफ़ फ्लैट बहुत भाया और बोलीं–

“यहीं रहना. पढ़ना-लिखना है तो दिल्ली मत जाना. वहाँ राजनीति बहुत है, पढ़ाई कम”.

उनकी बात का मान रखना संभव नहीं हो पाया. जे.एन.यू आने पर मिली तो पाया  कि वे धीमे-धीमे याददाश्त खो रही हैं. वे प्रो. रामेश्वर राय को बहुत मानती और उन्हीं की आवाज़ अच्छी तरह पहचानती भी थीं. इधर कुछ वर्षों से उनकी स्मरण शक्ति धोखा दे रही थी. कुछ ऊँचा भी सुना करतीं. मेरे कानों में गूँजती है उनकी वही आवाज़ जिससे सहमति-असहमति हो सकती है-

“ये स्त्रीवादी आंदोलन क्या है? स्त्रियों का काम पुरुषों के बगैर चलता कहाँ है, क्योंकि जहाँ मूल समस्याएँ हैं वहाँ ये आंदोलन तो होते ही नहीं. कुछ सीमित समस्याओं को लेकर लिखने को मैं स्त्री-विमर्श नहीं मानती. विमर्शों के नाम पर ये बस अपनी पहचान बनाने की कोशिश है. जिनको कलम चलाने की तमीज नहीं है वे आज स्त्री विमर्श के पैरोकार  बन बैठे हैं. स्त्रियों की समस्याएँ अलग-अलग हैं. जो संपन्न परिवार से आती हैं उनकी अलग समस्याएँ हैं. हर घर की अपनी-अपनी समस्याएँ हैं. असलियत से कोसों दूर रहकर और रचनाओं में अन्याय-अत्याचार के विरूद्ध लिख देने से स्त्री विमर्श नहीं होता. असली विमर्श वहाँ होता है जब कोई नीचे तबके के लोगों की समस्याओं को समझता है. छोटी-छोटी लड़कियों के साथ हो रहे हिंसक व्यवहार संबंधी समस्याएँ बहुत गहरी  हैं. इन समस्याओं को ऐसे नहीं समझा जा सकता.”

कई बार मैं उनसे बातचीत में स्त्री अस्मिता मूलक आंदोलन की ज़रूरत का पक्ष लिया करती जिसे वे एक सिरे से ख़ारिज करतीं उनकी नज़र में ये आंदोलन खाई-पी अघायी स्त्रियों के पक्ष में हैं. श्री विभूति नारायण राय ने जब आजमगढ़ में पुस्तकालय बनाया था, वहाँ से लौट कर मुझसे कहा था-

“ऐसी जगह जहाँ स्त्रियों को आज भी शौचालय की सुविधा नहीं, जिन्हें भोर में चार बजे उठकर जंगल जाना पड़ता है, उनके बारे में तुम्हारा स्त्री विमर्श क्या कहता है?”.

मैं  निरुत्तर थी. सच ही तो कहा उस स्त्री ने, जिसने अकेले न जाने कितने और कितनी तरह के मामले-मुक़द्दमे झेले. पुरुष प्रधान हिंदी विभाग में अपनी दृढ़ता और सच्चाई के बल पर अपनी जगह सुनिश्चित की. बड़े परिवार के सुख-दुख झेले. संसार सागर में एक कुशल तैराक-सी तैरती रहीं. अपनी कमज़ोरियों को कभी चर्चा का विषय नहीं बनाया. कहती थीं ईर्ष्या या दया- इनमें से किसी एक का पात्र ही आप बन सकते हैं- चुनाव आपका अपना है. मैंने सीखा उनसे स्वावलंबन, स्वाभिमान और सीखने-पढ़ने का नैरंतर्य. जिन अध्यापकों ने पीढ़ियों का जीवन बदल दिया होगा, जिनके पढ़ाये पाठ हम ताजिंदगी भूल न पाएंगे उनमें प्रोफ़ेसर निर्मला  जैन का नाम शीर्ष पर है.

मुझे याद है कि वह किसी नीरस से विषय को सरस बनाने का प्रयास कभी नहीं करती थीं. न ही सस्ती लोकप्रियता की चाह रखती थीं. उनकी तीक्ष्ण मेधा जैसे सबकी औक़ात जानती थी. उन्होंने आर्थिक तंगी भी देखी थी, विदेश की सुविधाएं भी. उन्होंने मायका और ससुराल दोनों को सम्हाला जिसमें उनकी निडरता ने मदद की.

वे अपनी बौद्धिकता से अक्सर आक्रांत कर देती थीं कि बहुत अच्छे वक्ता भी उनके व्यंग्य की काट ढूँढ नहीं पाते थे. सेवानिवृत्ति के बाद ही वे हम जैसे छात्रों से सहज हो पायी थीं. वरना कक्षा में तो उनसे संवाद की हिम्मत हमने अर्जित ही कहाँ की थी? वे पढ़ाई-लिखाई के बारे में पूछतीं. इंटरनेट की दुनिया की आलोचना करतीं, साथ ही उनके पास विभिन्न विश्वविद्यालयों के अनेक विभागों के ढेर किस्से होते जिसे वे खड़ी बोली के स्पष्ट उच्चारण के साथ सुनाया करतीं.

बाद के दिनों में उन्होंने बाहर जाना लगभग छोड़ दिया. फ़ोन पर कृष्णा सोबती के देहावसान से दुखी होकर बोलीं–

“मेरे भीतर का एक हिस्सा मर गया गरिमा, कृष्णा जी चली गईं”.

देखती हूँ कि यह सदी विदा की सदी  है- कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी और अब निर्मला जैन. सब अपनी राह चली गईं. इन-सा होना सपना ही रहेगा. जानती हूँ. इतनी मेधा, प्रखरता, फटकार कर सच कह सकने का साहस.  सम्बन्ध निभाने, आतिथ्य करने की तमीज़ इन्होंने सिखाई. सिखाया कि सफलता  का कोई शार्ट-कट नहीं होता.

निर्मला मैडम हमेशा कहा करतीं-

“जानती हो कृष्णा जी रात भर पढ़ती हैं. सच ही तो जब पूरी दुनिया नींद के आगोश में हुआ करती कृष्णा जी अपनी किताबों के ड्राफ्ट लिखा करतीं. मैं अकसर उनसे दोपहर दो बजे के तयशुदा समय में ही मिली. ढीली ढाली सफेद या काली पोशाक में कभी ‘मित्रो’ मिली तो कभी ‘चन्ना’.”

आज मिसेज़ जैन के जाने के बाद जैसे मेरे भीतर एक गहरा खालीपन है. आँखों के आगे स्मृतियाँ हैं जिनमें निर्मला जैन के साथ कृष्णा  सोबती के अंतिम दिनों की खरखराती आवाज़ और अल्जाइमर से जूझती मन्नू भंडारी की भोली साँवली आँखे सब गड्डमगड्ड हो गई हैं. ये कौन औरतें थीं जिनका होना मेरे होने के लिए ज़रूरी था. जिनकी बनाई नींव पर पाँव धर कर मैं अपने आप को अर्श तक पहुँचा समझती रही. ये कौन हैं  जिन्होंने अपनी शर्तों पर जीवन जीने की राह दिखायी.

आज मेरी आँखों में आँसू नहीं हैं वरन एक गहरा विषाद कलेजे को मथे दे रहा है, ज्यों बीच राह में मेरी उँगली छोड़ कर ये अन्तर्धान हो गई हैं. मुझे दिशाहारा कर. एक सुदीर्घ इतिहास के साक्ष्य को अपने सीने में समेटे अपने किस्से कहानियों, हँसी-ठहाकों के साथ जो चली गई हैं. उन्हें किसी विध वापस बुलाऊँ और  अगली पीढ़ी से मिलवाऊँ और दिखाऊँ अपने छात्रों को- देखो ये हैं हमारी टीचर निर्मला जैन.

 

प्रोफ़ेसर गरिमा श्रीवास्तव
भारतीय भाषा केंद्र
जे एन यू, नई दिल्ली.  
drsgarima@gmail. com
Tags: गरिमा श्रीवास्तव
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Comments 14

  1. विजया सती says:
    2 months ago

    यह बहुत मर्मस्पर्शी और तर्कपूर्ण भी है।
    कितने ही लोगों ने उन्हें इस रूप में जाना, देखा किंतु शब्द न दे सके।
    तुमने शब्द दिए और बहुत खूब दिए …इससे अधिक और क्या

    Reply
  2. Sudha Ranipandey says:
    2 months ago

    निर्मला जैन के साहित्य की मै भी अध्येता या कहें फैन रही हूं ।80के दशक में कानपुर के एक कालेज में सौंदर्य शास्त्र पर एक संगोष्ठी आयोजित की थी,। विषय था “सौंदर्य शास्त्र और ललित कलाएं “मैंने उन्हें भी आमंत्रित किया वे सहर्ष आईं और खुश भी हुई कि कानपुर जैसी जगह एक कालेज में यह संगोष्ठी आयोजित की गई है । इतना ही नहीं उस संगोष्ठी में डॉ रमेश कुंतल मेघ,चिन्मय मेहता, डॉ जगदीश गुप्त, संगीत विश्वविद्यालय की कुलपति प्रेम लता शर्मा , गिरिराज किशोर सहित कई विद्वान आए ।यह प्रसंग भी नहीं भूली हूं उस समय हवाई यात्रा का प्रचलन आज की तरह नहीं था वे जिस ट्रेन से आईं वह रात्रि साढ़े ग्यारह बजे आती थी, उन्होंने मुझे लिखा कि मुझे रिसीव करने किसी महिला को ही भेजिएगा । मैंने अपनी एक वरिष्ठ शिक्षिका की ड्यूटी लगाई वह अपने अधिकारी पति के साथ गई और हमारे पारिवारिक मित्र के सुरक्षित होटल में उन्हें आवासीय सुविधा उपलब्ध की । मैं बहुत छोटी थी,न‌ई न‌ई प्रिंसिपल ऐसी महान लेखिका का आना ही हम सबका गौरव था । सभी विद्वान अतिथि आए और इस संगोष्ठी को सफल बनाया क्योंकि शिक्षकों, छात्रों और साहित्य अध्येताओं के लिए एक छत के नीचे ज्ञान का वैभव एकत्रित था ।
    ऐसी विद्वान लेखिका जिनकी पुस्तकों की एक एक पंक्ति को रटने में सुख मिलता था,उनका प्रयाण भारतीय साहित्य जगत की क्षति है । उनकी कृतियों का अमर संसार और उनका स्मरण सदैव पाथेय रहेगा ।
    विनम्र श्रद्धांजलि

    Reply
  3. अशोक अग्रवाल says:
    2 months ago

    दिवंगत आदरणीय निर्मला जैन को सादर नमन।
    गरिमा श्रीवास्तव ने उन्हें बहुत आत्मीयता और आदर के साथ स्मरण किया है।

    Reply
  4. Pallavi vinod says:
    2 months ago

    मैंने जिन स्त्रियों को देखा नहीं बस जाना है ये पढ़कर मेरी आँखों में आँसू थे। बहुत अच्छा लिखा गरिमा आपने

    Reply
  5. Oma Sharma says:
    2 months ago

    आलेख अच्छा है मगर कुछ और विस्तार की माँग करता है। फ़ौरी सामयिकता के दबाव में ऐसा हुआ लगता है ।

    Reply
  6. राजेश पासवान says:
    2 months ago

    मर्मस्पर्शी स्मरण!

    Reply
  7. Anand Bharti says:
    2 months ago

    आदरणीय निर्मला जैन को तो पढ़ा है, बहुत कुछ सुना भी है। लेकिन उनके व्यक्तित्व के बारे ज्यादा नहीं जानता। आपने उनसे परिचय कराया, उनकी विराटता के दर्शन भी कराए। आभार…

    Reply
  8. विजय कुमार says:
    2 months ago

    बहुत सुंदर संस्मरण ।उनसे कभी मिलने का संयोग हुआ नहीं पर यह पढ़कर लग रहा है कि कितना प्रखर व्यक्तित्व रहा होगा उनका।

    Reply
  9. M P Haridev says:
    2 months ago

    निर्मला जी जैन की मौत की ख़बर पढ़ी थी । उनका जीवन इस लेख में पढ़ा । इनकी लिखी कोई किताब भी नहीं पढ़ी ।
    जनसत्ता अख़बार के रविवारी में कविताओं को पढ़ता था । एक कविता डायरी में लिखी थी । हो सकता है कि और भी लिखी हो ।
    जनसत्ता अख़बार हाँसी में नहीं आता । १९ ये घटकर हम २ पाठक बचे थे । श्री ओम थानवी के संपादक पद से सेवानिवृत्त होने के बाद अख़बार की नीतियों में बदलाव हो गया । एक महीने तक पढ़ता था । इस दौरान दूसरे पाठक की कैंसर से मृत्यु हो गई । पहले से न पढ़ने का मन बना लिया था । दूसरा ज़िंदा रहता तो कहता कि पढ़ना छोड़ देते हैं ।
    जनसत्ता अख़बार को आरंभ होने के दिन से पढ़ता रहा था ।
    ई पेपर में रविवारी जनसत्ता के पेज नहीं खोल सका । मेरी तकनीकी समझ न के बराबर है । सारा दिन थोक में नोटिस आते । ऐप डिलीट कर दिया । सुना था कि मुकेश भारद्वाज ने कुछ समय बाह अज़दक नाम से लिखने वाले प्रोफेसर पचौरी जी का लेख छपने लगा है ।
    कहानियों और कविताओं को पढ़ने से महरूम हो गया । फ़ेसबुक पर ज्योति शोभा जी की या समालोचन में कुछ कवियों की रचनाओं का प्रिंट निकलाकर डायरी में लिखता हूँ ।

    Reply
  10. विक्की मद्धेशिया says:
    2 months ago

    ‘निर्मला जैन’ के क़द का अंदाज़ा आपको एक टीचर के रूप में पाकर समझा जा सकता है। एक स्टूडेंट अपने टीचर से किन भावनाओं के साथ जुड़ा होता है ये व्यक्त करना थोड़ा जटिल है लेकिन आपका एक छात्र होने के नाते ये कह सकता हूँ कि मैंने निर्मला मैम को तो नहीं देखा है पर आपको देखा है , और आपसे पढ़कर गौरवान्वित महसूस करता हूँ, सादर प्रणाम🌸🙏

    Reply
  11. जया आनंद says:
    2 months ago

    वरिष्ठ आलोचक आदरणीय निर्मला जैन के अनेक पक्षों को बड़े मन से ,आत्मीयता से गरिमा जी द्वारा लिखा गया संस्मरण मन को छू गया।
    मेरा सादर नमन

    Reply
  12. PRAKASH CHAND BHATT says:
    2 months ago

    टीचर के आगे स्टूडेंट एकदम बच्चा हो जाता है अबोध | दुख के क्षण भी अबोध बनाते हैं | बहुत अच्छा लिखा है प्रो गरिमा श्रीवास्तव जी ने |

    Reply
  13. संध्या नवोदिता says:
    1 month ago

    निर्मला जैन के व्यक्तित्व को गरिमा और स्नेह से उद्घाटित करता आलेख. यह वह समय है जब बाहरी जगत में स्त्रियां अपनी जगह बना रही हैं. आज भी आसान नहीं है तो निर्मल जी के समय में तो और भी कठिन रहा होगा. खासकर तब और ज्यादा जब निर्मला जी प्रखर स्वभाव की रही थीं.
    गरिमा जी ने अपनी टीचर को बहुत आत्मीयता से याद किया है.

    Reply
  14. आनंदकृष्ण says:
    2 weeks ago

    निर्मला जी की एक छोटी सी पुस्तिकानुमा रचना अनुवाद के बारे में मैंने पढ़ी । उप पूरी कितबिया का एक एक वाक्य सूत्र वाक्य है जो अनुवाद कला के द्वार खोलता है । उसके बाद उनसे मिलने की उत्कंठा बढ़ी पर संभव न हो पाया । आपका लेख बहुत मार्मिक और जीवंत है । निर्मला जी को विनम्र श्रद्धांजलि ।

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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