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Home » और तितली उड़ गई: नूतन डिमरी गैरोला » Page 4

और तितली उड़ गई: नूतन डिमरी गैरोला

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला पेशे से चिकित्सक हैं और कविताएं लिखती हैं, संग्रह प्रकाशित हो रखा है. कुछ महीनों पहले ‘महादेवी वर्मा स्मृति’ पेज पर उनकी इस कहानी का वाचन सुना था, उत्तराखंड की संस्कृति, जीवन और स्त्री की अपनी इच्छाओं के ताने-बानों से बुनी इस कहानी का प्रभाव गहरा था. उनसे यह कहानी मांग ली थी सो आज वह कहानी यहाँ प्रकाशित हो रही है. कल जब डॉ. गैरोला को प्रकाशन की सूचना के लिए फोन किया तो पता चला कि सख्त बीमार हैं और अस्पताल में भर्ती हैं. जल्दी स्वस्थ हों यही कामना है और कहानियाँ लिखें यह आग्रह भी है.

by arun dev
July 22, 2021
in कथा
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होनी को जो मंजूर होता है वह हो कर रहता है.

आज बिंदुली के घर में मातम था, सुदर्शन का देहावसान हो गया. पहाड़ चढ़ते हुए छाती में तेज दर्द हुआ था वरना वह बीमार नहीं था, शायद ऊंची चढ़ाई में सांस की कमी और कमजोर हृदय, उसे हृदय आघात हुआ था. बिंदुली के बीस साल का सुहाग से भरे जीवन का अंत हो गया था, बिंदुली की बहू जयंती ने घर संभाला ..

निर्मला शादी के बाद कलकत्ता रहती है, नीरू लखनऊ. दोनों बेटियां ससुराल से आ गयी. बेटा रोहित इंजीनियर है, पिता को बीमार सुन कर घर तुरंत पहुंच गया था पत्नी के साथ, पर पिता के प्राण पंख पखेरू उड़ गए थे, बिंदुली के मुंह में एक अजीब खामोशी फैल गयी थी, फिर भी दो चार दिनों में वह आने जाने वालों से मुखातिब होने लगी.

तेरहवीं से एक दिन पहले बच्चे शाम को एकांत पा कर बिंदुली के साथ बैठे गए थे. बातों-बातों में उन्होंने बिंदुली की साड़ियों वाले संदूक का जिक्र किया. तो बिंदुली बोली- हाँ वह मैंने संभाला हुआ है अपने कमरे में, बच्चे बोले जरा वह संदूक दिखाओ माँ, इसी बीच बिंदुली की जेठानी भी वहां पहुंच गई. बिंदुली तब तक वह संदूकची ले आई, बच्चों ने उसे खोला तो लाल, पीली, बैंगनी, नारंगी हरी और रंगबिरंगी फूलों और बूटों वाली चटख साड़ियाँ खिल उठीं, बच्चों ने संदूक से साड़ियां निकाली और एक दूसरे की ओर देख कर बोले- ये तो बहुत भड़कीली है और हल्की भी है. अच्छी नहीं है ये साड़ियां. फेरी वाले से लिया करती है माँ साड़ियां. अब तू इन साड़ियों को लोगों में बाँट दे या कहीं रख दे, ..

बिंदुली बोली- क्यों इन्होंने मेरा क्या बिगाड़ा है कि इन्हें कहीं रख दूँ, कुछ समय बाद इन्हें पहनूंगी ना ..

फिर थोड़ा गुस्से में बोली थी..

“एक-एक साड़ी मेरी पसंद की है.”

पर निर्मला बोली- नहीं माँ तुम समझो. अब तुम नहीं पहनो इन्हें ….

रोहित बोला..

“माँ इनका क्या लोभ कर रही हो वैसे भी ये फेरी वाले से खरीदी हल्की साड़ियां है. पूरी फुरफुरी सी साड़ियां. हम तुम्हारे लायक हल्के रंग की अच्छी साड़ियाँ  खरीद कर भेजेंगे. अब तेरा बेटा कमाता है माँ.”

बिंदुली अवाक सी रह गयी उसके अपने रंगों से अधिकार छिनता जा रहा था. उसका चेहरा ज़र्द पड़ता जा रहा था. .. दिमाग सुन्न सा होने लगा.

बच्चे बोले जा रहे थे-

“माँ परेशान मत हो, हम महंगी से महँगी स्टेंडर्ड की साड़ियां शहर से भिजवा देंगे तेरे लिए.. “

जेठानी कह रही थी-

“समझ न अब देवर जी नहीं रहे. इन साड़ियों को पहनोगी तो गांव वाले नाम रखेंगे तेरा.”

निर्मला बोल रही थी :

“फिर कभी हमारे साथ शहर भी जाएगी तो ये साड़ियां तो नहीं पहनेगी. तेरहवीं के बाद हम फिलहाल आपके लिए यही नीचे बगडकोट के बाजार जा कर कुछ नई साड़ियाँ खरीद लेंगे “

बिंदुली चुप थी

उसकी जेठानी कहने लगी: बच्चे सही कह रहे बिंदुली. इन्हें हमारे हल्या की घरवाली को दे दो. बेचारे गरीब है इन्हें देख कर वे खुश हो जाएंगे और हल लगाने के लिए भी जल्दी से आनाकानी नहीं करेंगे. एक दो अच्छी साड़ी बेटियों को दे दो.  बांट दो. इन्हें बांट दो.

बिंदुली कुछ ना बोल पायी इतना दबाव और कोई उसके मन को समझने वाला नहीं. उस पर आज शायद सुदर्शन होता तो सबको भगा देता कि बिंदुली की उम्र देखो तुम. वह अपने पति और अपने बारे में क्या कहे. वह तो उसे थोड़े-थोड़े पैसे साड़ी चूड़ी के लिए हमेशा देता था. उसकी आवाज रुंध गई और उसके आंसू धार-धार बह निकले ..आज जितना दुःख उसने अपने पूरे जीवन में महसूस न किया ..

वह व्यथित हो तड़प उठी, इतना लंबा जीवन कैसे बीतेगा बिना रंग के ..रंगों से भरा उसका संसार उस से छिनने लगा. उसको लगा उसके जीवन को खुशियों से भरने वाली रंगबिरंगी तितली के भरी जवानी में पंख नोच लिए गए और वह तितली बेसहारा तड़प-तड़प कर मर रही है .. उसका दम घुटने लगा और साँसे रुकने लगी …उसको अपना पूरा जीवन बेरंग काला सफ़ेद नजर आने लगा.

बिंदुली भूरी सलेटी साड़ी पहने हुए अपने गांव के पीछे वाले पहाड़ की सबसे ऊंची खतरनाक चट्टान के ऊपर चढ़ कर चट्टानों की दरारों से उग आई लंबी हरी मुलायम घास सरासर काट रही थी. बाकी जगह जानवर या तो घास चर लेते हैं या सरलता पूर्वक जहां घास मिल जाये वहां सभी घसियारी जाती हैं फिर ऐसी जगहों में सूखी और कतरी छोटी-छोटी घास मिलती है. इसलिए बिंदुली ऐसी खतरनाक जगह चढ़ जाती है जहां कोई आसानी से नहीं जाता. सूना माथा और सूनी कलाइयां जैसे वह जीवन की खुशियां कहीं भेंट कर आई. घास काटते हुए चूड़ी की छुड़ मुड़ तो नहीं हां, दरांती के पीछे लगी लोहे की छल्लों की छन छन आवाज आ रही है. वह जल्दी जल्दी घास काट रही थी आज पति के गुजरे लगभग सात महीने हो गए. उसकी स्मृतियां बिंदुली के साथ तो है पर जीवन का गुजारा सिर्फ स्मृतियों से नहीं होता. काम के लिए खड़े होना पड़ता है घर थामना पड़ता है पति के जाने के बाद उसकी जिम्मेदारियों को भी समझना होता है और इनमें ही अपनी खुशी को महसूस करना होता है.

नीचे गांव में आज फेरी वाला आया है, चूड़ी बिंदी साड़ी की आवाज पूरे जोर लगा कर गांव में फेरी लगा रहा. पिछले डेढ़ घंटे से औरतें उससे खरीद भी रही है. पर अब कोई सहेली उसे साड़ी चूड़ी खरीदने को नहीं कहती. हां उस फेरी वाले की आवाज हवा के झोंको के साथ उसके पास बार-बार आ रही है. जरूर फेरी वाले ने उसके बारे में पूछा होगा पर किसी को भी तो पता नहीं वह कहां घास काट रही है. फेरी वाले की आवाज से घबराई वह अपनी उंगली कान में डालती, नहीं सुननी यह आवाज. फिर भी वह बार-बार घास काटना रोक कर चट्टान पर खड़ी हो जाती है और काफी नीचे बसे अपने गांव की ओर देखती है और फेरी वाले को भी बीच-बीच में गांव के मकानों के बीच पगडंडियों से आताजाता देखती है.

हुह मन की भी कैसी कैसी इच्छा? पर अपने मन को वह मजबूती से समझाती है, चल बिंदुली घास काट तेरे लिए दुनियाँ में रंग नहीं. बच्चों ने भेजी है तेरे लिए साड़ी और वह फिर सरासर घास काटने लगती है.

अपना मन लगाने के लिए वह चूड़ियों वाला प्यार से भरा लोकगीत जोर-जोर की गाते हुए घास काटने लगती है.

चूड़ी माँ चूड़ी, जंगाल चूड़ी
चुड़ी मां चुड़ी जंगाल चुड़ी
गोरी हाथ्यों की जंगाल चुड़ी
गोरी हाथ्यों की जंगाल चुड़ी
छाला कांचे की जंगाल चुड़ी
त्वे केन दीनी जंगाल चुड़ी

उसके हाथ तेज चलने लगे घास पर, पर मन फेरी वाले पर ही टिका है. अब फेरी वाला भी जाता होगा. भूले भटके आता है गांव में दो महीने में, क्या करूं… जाऊं क्या.. न न चुपचाप घास काट. उसके जाने के बाद पहुंचना गांव..

फेरी वाले की आवाज अब गांव के कोने से आ रही थी.

बिंदुली ने अपना ध्यान घास काटने की ओर लगाया. पांव फिर पत्थरों के बीच ठीक से टिकाए. अगर कहीं रपट गयी तो पहाड़ी से अगली खाई में जा गिरेगी. शरीर के टुकड़े भी न मिलेंगे. धार पर खड़ी है तो हवा सरसराहट के साथ गुजर रही है और ठंडे झोंको उसे छू-छू जा रहे थे पर गुनगुनी धूप भी उस पर पड़ रही थी. ऐसे में एक बड़ी सी तितली उसके पास से उड़ती हुई ऊपर के घास की फुनगी पर जा बैठी, सुनहरे रंग की जिसपर हरे गुलाबी आसमानी रंग बिरंगे चमकीले छापे पड़े थे. तितली को उसने हल्के से छूने की कोशिश की पर तितली ने उसको हाथ नहीं लगाने दिया उसने दुबारा छूने की कोशिश की तो तितली आकाश की ओर अपने पंख फड़फड़ा कर उड़ गयी. वह एकबारगी तितली के रंग और उसके न छूने और खुले आकाश में उड़ जाने पर सोचती रही.

उधर फेरी वाले की आवाज अब क्षीण सी आ रही थी. जाने क्या-क्या सोचते उसने धीरे से अपनी दरांती नीचे रखी और चट्टान से उतरने लगी. बीच में गांव की ओर नीचे झाँकती. फेरी वाला गांव के बाहर की पगडंडी में जाता दिखाई दिया. यहां से वह पहाड़ के दूसरी तरफ ओझल हो जाएगा अब. ऐसा सोचते ही बिंदुली ने अपने साड़ी की एक तरफ खोंची हुई पोटली को अपने हाथों से महसूस किया, पोटली बदस्तूर वहीं है जिसमें उसने अबकी बार राजमा की दाल और अखरोट बेच कर जो पैसा कमाया है रखा है. वह दूध भी बेचती है और अच्छी खासी रकम कमाने लगी है महीने के दो हजार तो दूध से मिलते हैं.

क्या ये पैसे की पोटली इच्छा की हत्या करने के लिए बांधी है मैंने. यह किस काम की जब अपनी एक इच्छा पर भी अंकुश लगाना है. अरे मुझे फेरी वाला फिर दिखेगा भी नहीं.

जाने बिंदुली के अंदर इतनी ताकत कहां से आ गयी. वह चिल्लाने लगी और चिल्ला-चिल्ला कर फेरी वाले को आवाज देने लगी

फेरी वाले…………. फेरी वाले……..

ओ फेरी वाले……………

फेरी वाला पीठ में बंधी अपनी पोटली लिए अपनी धुन में चले जा रहा था… शायद  रात कहीं पहाड़ी रास्तों में न ढल जाये, आज देर हो गयी, ये बिंदुली आयी भी नहीं. वह जल्द-जल्द कदम उठा रहा था.

फेरी वाले तक बिंदुली की आवाज नहीं गयी.

अबकी वह पूरी ताकत से चिल्लाई

फेरी ….वाले…..

फेरी……….. वाले……… उसके गले की नसें तन गयीं

इसबार फेरी वाले ने कुछ सुन लिया. उसने पहाड़ की तरफ सिर उठा कर देखा. बिंदुली के चेहरे पर खुशी की मुस्कान बरबस आ गयी थी. पर इतना बड़ा पहाड़ जंगल और बिंदुली उसमें कहीं समाई हुई. फेरी वाले को कुछ दिखाई नहीं दिया.

वह फिर चल पड़ा.  पर बिंदुली ने हार न मानी झट से अपने सर का साफा उतार कर हवा में लहरा-लहरा कर चिल्लाने लगी.

फेरी…… वाले……. ओ फेरी वाले…. रुक

अबकी फेरी वाले की नजर उस पर पड़ गयी.

बिंदुली चिल्लाई- “जाना मत मैं आ रही हूं”

जाना मत ….

फेरी वाले ने देख लिया.. आवाज से भी उसे अंदाज लग गया वह पहचान गया.

‘बिंदुली’ वह भी चिल्लाया. “अरे बिंदुली तुम इतने समय से कहाँ खो गयी थी. देख तुम्हारे लिए शहर की लड़कियों के जैसे कड़े लाया था. तुम मिली नहीं. मैंने सम्हाल कर रखे है. पर जल्दी आओ देर हो गयी है मुझे. रास्ते में अंधेरा हो जाएगा.

वह फिर चिल्लाई: जाना मत बस मैं यूं पहुंची.

फेरी वाले ने भी पुकारा, रुका हूँ. जल्दी आओ. तुम्हारे लिए गुलाबी नीले सिल्क की साड़ी भी है.

बिंदुली जल्दी-जल्दी काटे हुए घास को कंडी में भरने लगी. हड़बड़ी में उसके घास के तीन पूल चट्टान से नीचे छप-छप-छप की आवाज के साथ अनंत तलहटी में जा गिरे पर उसने झांकने की कोशिश भी नहीं की और आड़ी तिरछी जितनी भी घास कंडे में भर पाई भरा, जमीन पर गिरी बारीक घास को उसने आज उठाया भी नहीं, वह उस कंडे को हाथ में उठा कर भागी और दौड़ते-दौड़ते ही पीठ पर कंडा लगाने की चेष्टा करती रही. पर हड़बड़ी में आज कंडा पीठ पर नहीं लगा पाई तो उसने कंडे को भी पगडंडी में ही पटक दिया और पहाड़ से नीचे तेजी से दौड़ती फांदती, फांदती दौड़ती और तेज़ी से उतरने लगी. जैसे कोई पहाड़ी अल्हड़ नदी दूर कही अनजाने समुद्र की ओर बेतहाशा पूरे वेग से उतर कर मिलने जा रही हो रही हो.

nutan.dimri@gmail.com


बाजूबंद ( लोकगीतों की एक विशिष्ट शैली)
माठु- माठु (मधुरता के साथ हौले हौले)
ठुमा ठुमा (नजाकत के साथ ठुमकते हुए)
डांड्यू – पहाड़ी ,
बे – माँ,
हैंसु – हंसी,
बुक्की भरना (लाड में दिया जाने वाला विशेष तरह का चुम्बन जिसमे सामने वाले के गाल या ठोड़ी को छू कर फिर अपनी उन उंगलियों को जिनसे छुवा है को इक्कठा करके चूम लेना ..वात्सल्यमयी चुम्बन)
तीस – प्यास,
छां – मट्ठा,
पर्या – दही बिलोने का लकड़ी का बर्तन,
रगड़ा – ( भू स्खलन ),
यकुलकार* (नितांत अकेला),
धाण – काम,
यत्ति – इतनी,

एड़ी आछड़ी: लोक मान्यता है कि पहाड़ के जंगलों और बुग्यालों में एड़ी आछड़ी नाम की दो रूप परिवर्तन करने वाली दो शक्तियां रहती है जो सुंदर/ परी और राक्षस/राक्षसी के रूप में उस व्यक्ति को हर कर किसी अन्य लोक में ले जा लेती है जिन पर वे रीझ जाती/जाते हैं. जंगल में हल्ला मचाना गाना, चटख रंग के कपड़े पहनने वाले उन्हें खास रिझाते है. जंगल में हल्ला मचाना गाना, चटख रंग के कपड़े पहनने वाले उन्हें खास रिझाते है.

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Comments 8

  1. ज्ञानचंद बागड़ी says:
    4 years ago

    नूतन जी जल्द स्वस्थ होने की कामना है। बहुत सुन्दर कहानी के लिए नूतन जी और समालोचन को बधाई।

    Reply
  2. शिरीष मौर्य says:
    4 years ago

    शीघ्र स्‍वस्‍थ हों। वे लेखक होने के साथ संवेदनशील मित्र भी हैं। यह अच्छी कहानी है। उन्हें ख़ूब शुभकामनाएँ।

    Reply
  3. vandana gupta says:
    4 years ago

    नूतन जी जल्द स्वस्थ हों – पुरानी मित्र हैं – एक संवेदनशील कहानी के लिए हार्दिक बधाई

    Reply
  4. दयाशंकर शरण says:
    4 years ago

    यह कहानी मर्म को छूती है। बहुत बारीकी से एक स्त्री के जीवन की व्यथा और उसके शोषण को तह-दर-तह उघाड़ती है। दुःख की भट्टी में तपकर ही जीवन और निखरता है। कथा नायिका एक यादगार चरित्र है। एक नदी की तरह उसके उन्मुक्त जीवन को भी बाँधना मुमकिन नहीं। इस कहानी में स्त्रीवादी अस्मिता एक अंतर्धारा की तरह मौजूद है। नूतन जी एवं समालोचन को बधाई !

    Reply
  5. मनोज कुमार वर्मा says:
    4 years ago

    बहुत मर्मस्पर्शी कहानी।पूरी कहानी में पहाड़ो का जीवन अपनी गीतात्मक तरलता के साथ उपस्थित है।

    Reply
  6. Naveen Joshi says:
    4 years ago

    बढ़िया कहानी।

    Reply
  7. Uma bhatt says:
    4 years ago

    Nice dear Nutan ,
    पहाड़ी महिलाओं की हंसी,खुशी, दर्द को उकेरती एक अच्छी कहानी लिखी तुमने 👌👌👌❤️

    Reply
  8. Professor Manjula Rana says:
    4 years ago

    नूतन जी, बहुत मार्मिक कहानी,सारे आंचलिक संदर्भों के साथ पर्वतीय जीवन को उद्घाटित करता हुआ कथानक आकृष्ट करता है।आपकी लेखनी को सादर नमन 🙏🎉🎉

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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