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समालोचन

Home » और तितली उड़ गई: नूतन डिमरी गैरोला » Page 3

और तितली उड़ गई: नूतन डिमरी गैरोला

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला पेशे से चिकित्सक हैं और कविताएं लिखती हैं, संग्रह प्रकाशित हो रखा है. कुछ महीनों पहले ‘महादेवी वर्मा स्मृति’ पेज पर उनकी इस कहानी का वाचन सुना था, उत्तराखंड की संस्कृति, जीवन और स्त्री की अपनी इच्छाओं के ताने-बानों से बुनी इस कहानी का प्रभाव गहरा था. उनसे यह कहानी मांग ली थी सो आज वह कहानी यहाँ प्रकाशित हो रही है. कल जब डॉ. गैरोला को प्रकाशन की सूचना के लिए फोन किया तो पता चला कि सख्त बीमार हैं और अस्पताल में भर्ती हैं. जल्दी स्वस्थ हों यही कामना है और कहानियाँ लिखें यह आग्रह भी है.

by arun dev
July 22, 2021
in कथा
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खैर …गाँव में सभी बिंदुली के चटख रंग के पहनावे को ले कर आपस में फुसफुसाते, और पीठ पीछे हंसते पर उससे मुंह सामने कोई कुछ कहता नहीं था.

कहे भी कैसे वह गाँव में जब ब्याह के आई थी, तब मात्र तेरह साल की थी अपने से सत्ताईस साल बड़े आदमी की दूसरी ब्याहता ..जिसकी पहली पत्नी चौथे बच्चे के प्रसव के समय में चल बसी थी …. पीछे छोड़ गयी थी तीन बच्चे ..और दुनिया भर की खेती का काम,

यूं भी मायके में बिंदुली का तो कोई पूछने वाला ही नहीं था माँ बाप बचपन में गुजर गए थे. मामा की मजबूरी थी सो वह उसे किसी तरह अपने बच्चों के साथ पाल रहे थे. खेती पाती भी पर्याप्त न थी जो दो खेत काम के थे वे बरसात के रगड़े में स्खलित हो गए थे और बाकी के दो खेत की भूमि पथरीली थी.  जैसे तैसे वे अपना और चार बच्चों का गुजारा कर रहे थे. मामी अकसर मामा को टोकती कहती खुद फटेहाल हो पर बिंदुली को ला कर आपने अपने फटे में ही पांव दे मारा.

मामी अकसर मामा जी को चाभी भरती कि अपने बच्चों को खाना पीना पूरा नहीं कर पा रहे और ऊपर से बिंदुली, बच्चों को कुछ अच्छा भी कैसे ख़ाने को दें ? बिंदुली का मुंह तो ख़ाने के लिए खुला रहता है.

सो उससे सत्ताईस साल बड़े आदमी का रिश्ता उससे तय कर दिया. बिंदुली की छोटी उम्र भी उन लोगों ने नजरंदाज कर दी थी.

बस यही कहा गया- बिंदुली के भाग्य खुल गये. बड़ी खेती है इनकी और बाग बगीचे वाले हैं ये लोग. अपनी बुंदली कभी भूखी नहीं मरेगी.

फौरन बिना किसी गाजे-बाजे, ढोल शहनाई के और बिन बरात के बिंदुली का व्याह कुछ मंत्रोत्च्चारण के साथ चार छह लोगों के बीच हो गया था. बिंदुली के अपनी शादी को ले कर कोई अरमान थे क्या, किसी ने नहीं पूछा.

लड़के वालों की तरफ से बिंदुली की मामा मामी को बहुत बड़ा शुद्ध ऊन का दन्न/गलीचा जो वे अपने बड़े चौक में उत्सव और मौकों पर बिछा सकते थे और गांव में रुतबा जता सकते थे, दिया गया. मामी को मोटे मुडाईदार घुंघुरुवों से सुसज्जित पांच तोले के चांदी की मोटी-मोटी भारी पाजेब, एक सोने की चेन और एक अच्छी जरदोजी और गोटे के काम की साड़ी मिली व मामा को दुनियादारी जानने के लिए अच्छा मोबाइल और तीस हजार कैस  दिया था.

सभी बच्चों और नजदीकी रिश्तेदारों को कपड़े मिले और काजू, अखरोट, बादाम का टोकरा भर-भर कर दिया गया.

और बिंदुली को क्या मिला? तेरह बरस की फ्रॉक पहनने की उम्र में दो साड़ी मिली और मंगलसूत्र मिला उसकी मांग को खूब सिन्दूर से भर दिया गया.

वह तो खेती का काम और घर की देखभाल के लिए ब्याह कर घर लायी गयी थी.

जब बिंदुली ससुराल आई तो उसने पाया उसकी पहली बेटी निर्मला तो उसके बराबर ही थी,पर बिंदुली ने इतने बरसो में परिस्थितियों से समझौता करना सीख लिया था. उसको समय जैसे-जैसे बहाता रहा वह बहती रही मौन.

इसलिए बिंदुली ने झट से अपनी बड़ी बेटी को अपनी सहेली बना लिया. उनके साथ खूब हँसती, काम करती, उसके बच्चे जो उसकी उम्र के ही लगभग थे, स्कूल जाते थे और अब बिंदुली उनकी माँ बन कर उनको खाना खिलाती. वह कभी-कभी उनको लिखते देखती तो कल्पना करती की वह खुद जब लिखेगी तो अक्षर कैसे घुमा-घुमा कर लिखेगी. उसे तो मामा जी के यहां भी पढ़ने नहीं भेजा गया. बस काम ही तो उसका जीवन बन कर रह गया था और मामी की डांट. भाई बहन सामने-सामने अच्छा खाते थे और बिंदुली को रूखा सूखा.

पर हां यहां बड़ी बेटी निर्मला स्कूल जाने से पहले माँ की मदद करती थी. लेकिन शुरू में ऐसा कुछ न था. पर एक घटना के बाद यह तबदीली आयी थी.

हुआ क्या था कि बच्चों को स्कूल जाना था. बिंदुली ने जल्दी-जल्दी नाश्ता बनाया और परोसा. सबने नाश्ता किया. फिर बिंदुली ने आराम से निश्चिंत हो सुबह की पहली चाय पीनी चाही. उसने केतली की चाय में थोड़ा दूध डाला और थोड़ी चाय पत्ती और चीनी डाली. चूल्हे की लकड़ी पर फूंक मार आग जलाई. चाय उबली तो ग्लास में चाय पलटी और एक चुस्की लगाई ही थी कि छोटी बेटी नीरू ने ऊपर की मंजिल से आवाज लगाई. उसकी चुटिया नहीं बन रही थी. स्कूल की देरी हो रही थी.

बिंदुली चाय का गिलास हाथ में ले कर दौड़ कर ऊपर पहुंची और नीरू की कंघी करने लगी. उसने उसी बीच चाय के कुछ घूंट भी लगाए तो चाय का ग्लास खाली हो ग़या था. निर्मला, स्कूल के लिए तैयार हो चुकी थी और तिवारी*(ऊपर की मंजिल) से नीचे जा रही थी. बिंदुली ने कहा नीचे जा रही है निर्मला तो मेरा खाली ग्लास भी नीचे ले जा और चौक के किनारे रख देना जहां बर्तन धोती हूँ मैं.

निर्मला तो खुशी-खुशी ले गयी थी ग्लास लेकिन नीचे सुदर्शन  ने देख लिया. पूछा यह किसका झूठा ग्लास ऊपर से ला रही निर्मला.

वह बोली छोटी मां ने च्या पी थी.

जाने सुदर्शन को इतना गुस्सा क्यों आया. (कभी-कभी गांव में चौपाल पर अपना रुतबा जमाता कहता था मोटी रकम दी है बिंदुली को लाने के लिए मैंने.)

निर्मला के हाथ में बिंदुली का झूठा ग्लास देख कर शायद उसके मन में यही आया हो कि मैंने तो इसे दाम दे कर खरीदा है और यह मेरे बच्चों से काम करा रही है, अपना झूठा बर्तन पकड़ा रही है.

उसका पारा सातवें आसमान पर था, पलक झपकते ही निर्मला के हाथ से ग्लास छीना और पूरी ताकत से तिवारी में ऊपर वापस दे फैंका. बिंदुली ऊपर मंजिल में बेटी की कंघी कर रही थी कि सन करता ग्लास कनपटी के बगल से गुजरता हुआ मिट्टी की दीवार पर टुन की तेज़ आवाज के साथ टकराया. बिंदुली और नीरू हक्केबक्के से जमीन पर टड़ड़ड़ड़ की आवाज के साथ लुढ़कते उस गिलास को देख रहे थे. बची चाय छितर गयी थी कमरे में.

यह क्या हुआ? बिंदुली ने दौड़ कर तिवारी से नीचे झांका तो सुदर्शन गुस्से से ऊपर देख रहा था. मानो उसी की इंतजार कर रहा हो, सीधे आंख तरेरते बोला, मेरे बच्चों से अपने झूठे बर्तन मत उठवाया कर.

बिंदुली के मुंह से अविश्वास से निकला .. मेरे बच्चे ???

अरे, फिर मेरा कौन. बिंदुली की पुतली फैलती गयी और वह अवाक सी जड़वत हो गयी और इस स्थिति में कुछ देर पथरा सी गयी जैसे उसका सारे शरीर में दौड़ता रक्त मय देह के बर्फ हो गया हो जैसे वह जम गयी हो.

निर्मला पिता के डर से नीचे से ही मां को देखती रही पर नीरू मां के पास आ कर उसकी बांह पकड़ कर जोर-जोर से हिलाने लगी कांडसी (छोटी) मां! कांडसी मां! पहले बिंदुली पर कोई फर्क न पड़ा पर फिर अचानक वह ऐसी हँसी, ऐसी हँसी जैसे आपा खो बैठी हो. वह आप ही आप हँसती रही उसमें निहित रुलाई की महीन जुगलबंदी में बस यही लगता यह हंस रही है. बच्चों को कहना पड़ा मां अब बस भी करो माँ, होश में आओ मां. स्कूल की देरी भी हो रही है, मां चुप करो.

नीचे निर्मला ने भी अपने पिता को देख कर मुंह मोड़ा और कहा था, कांडसी माँ के साथ तुम अच्छा नहीं कर रहे पिता जी. सुदर्शन को स्वयं बिंदुली की इस प्रतिक्रिया का अंदेशा न था. उसके इस व्यवहार पर सुदर्शन के दिल में भी जाने कितनी ग्लानि गड्डमड्ड करने लगी थी, उसे अपने आवेश और क्रोध पर क्षोभ हुआ और एक गुनाह सा सालने लगा था. फिर भी उसने माफी तो नहीं मांगी पर अगले दिन से निर्मला मां के काम में जितना हो पाता हाथ बंटाती. शायद बिंदुली से माफी मांगने का यह रास्ता निर्मला को  सूझा हो. बच्चों को भी पिता की ऐसी हरकत बुरी लगी थी. इसलिए बिंदुली को सब मदद करने को तैयार थे और उसके दर्द को अपनी-अपनी संवेदनाओं के साथ समझ रहे थे.

खैर जब बच्चे स्कूल जाते तब बिंदुली दरांती, जुड़ा यानी रस्सा उठा लेती, पीठ पर कंडा लगा कर खुशी-खुशी रास्ते में लोगों से बतियाती खेत जाती. पर कभी किसी ने बिंदुली को शोक में डूबा नहीं देखा, कभी एक बूँद आंसू किसी ने उसके बहते नहीं देखा जो कहे कि उसे अपनी जिंदगी से कोई शिकायत है. शायद जिंदगी ने उसके जीवन में चटख रंग की साड़ियों के साथ तितली जैसे रुपहले रंग भर दिए थे.

हाँ बिंदुली शुरू-शुरू में जब खूब हँसती बोलती तो सुदर्शन थोड़ा परेशान हो जाता, कहता: अभी उम्र की कच्ची है अच्छा बुरा नहीं जानती.

वो बिंदुली को आवाज लगाता. अरे ओ बिंदुली! यहां आना. बिंदुली उछलती कूदती आती तो सुदर्शन उसे टोकते हुए कहता कि वो तुम्हारे ससुर लगते हैं रिश्ते में थोड़ा अदब करना सीखो. सिर पर पल्ला रखा करो. तो कभी बताता वो तुम्हारा बेटा होता है. ज्यादा मजाक हँसी ठीक नहीं लगती. पर भला बिंदुली को कोई रोक सकता था.

धीरे-धीरे सुदर्शन समझ गया था यह छोटी लड़की निश्छल और खुशदिल है जिसने उसका घर थामा है, नहीं तो यह सब कुछ बिखर जाता.

वह रोज मन ही मन बिंदुली का कृतज्ञ होता और अब उसके भीतर बस रहे बचपन को उमड़ने से रोकता नहीं  था और उसकी केवल इज्जत ही नहीं करता, बल्कि पूरा ख्याल भी रखता था. व घर में कोई बहस हो जाये तो वह बिंदुली की बात का समर्थन करता ही दिखता था, और कहता था अपनी माँ का कहना मानो, उसकी इज्जत करो.

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Comments 8

  1. ज्ञानचंद बागड़ी says:
    4 years ago

    नूतन जी जल्द स्वस्थ होने की कामना है। बहुत सुन्दर कहानी के लिए नूतन जी और समालोचन को बधाई।

    Reply
  2. शिरीष मौर्य says:
    4 years ago

    शीघ्र स्‍वस्‍थ हों। वे लेखक होने के साथ संवेदनशील मित्र भी हैं। यह अच्छी कहानी है। उन्हें ख़ूब शुभकामनाएँ।

    Reply
  3. vandana gupta says:
    4 years ago

    नूतन जी जल्द स्वस्थ हों – पुरानी मित्र हैं – एक संवेदनशील कहानी के लिए हार्दिक बधाई

    Reply
  4. दयाशंकर शरण says:
    4 years ago

    यह कहानी मर्म को छूती है। बहुत बारीकी से एक स्त्री के जीवन की व्यथा और उसके शोषण को तह-दर-तह उघाड़ती है। दुःख की भट्टी में तपकर ही जीवन और निखरता है। कथा नायिका एक यादगार चरित्र है। एक नदी की तरह उसके उन्मुक्त जीवन को भी बाँधना मुमकिन नहीं। इस कहानी में स्त्रीवादी अस्मिता एक अंतर्धारा की तरह मौजूद है। नूतन जी एवं समालोचन को बधाई !

    Reply
  5. मनोज कुमार वर्मा says:
    4 years ago

    बहुत मर्मस्पर्शी कहानी।पूरी कहानी में पहाड़ो का जीवन अपनी गीतात्मक तरलता के साथ उपस्थित है।

    Reply
  6. Naveen Joshi says:
    4 years ago

    बढ़िया कहानी।

    Reply
  7. Uma bhatt says:
    4 years ago

    Nice dear Nutan ,
    पहाड़ी महिलाओं की हंसी,खुशी, दर्द को उकेरती एक अच्छी कहानी लिखी तुमने 👌👌👌❤️

    Reply
  8. Professor Manjula Rana says:
    4 years ago

    नूतन जी, बहुत मार्मिक कहानी,सारे आंचलिक संदर्भों के साथ पर्वतीय जीवन को उद्घाटित करता हुआ कथानक आकृष्ट करता है।आपकी लेखनी को सादर नमन 🙏🎉🎉

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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