पाब्लो नेरूदा की कविताएँ अनुवाद अपर्णा मनोज |
प्रीत
ऐसी करता हूँ तुमसे प्रीत
जैसे गहरे चीड़ों के बीच सुलझाती है हवा खुद को
चाँद चमकता है रोशनाई की तरह आवारा पानी पर
दिन एक-से भागते हैं एक-दूजे का पीछा कर
बर्फ पसर जाती है नाचते चित्रों जैसे
पश्चिम से फिसल आते हैं समुद्री पंछी
कभी-कभी एक जहाज़. ऊँचे -ऊँचे तारे.
एक स्याही को पार करता जहाज़
आह ! अकेला.
अकसर मैं उठ जाता हूँ पौ फटते ही और मेरी आत्मा गीली होती है
दूर सागर ध्वनित-प्रतिध्वनित होता है
अपने बंदरगाह पर.
ऐसी करता हूँ तुमसे प्रीत
ऐसी करता हूँ प्रीत और क्षितिज छिपा लेता है तुम्हें शून्य में
इन सब सर्द चीज़ों में रहते करता हूँ तुमसे अब भी प्रेम
अकसर मेरे चुम्बन उन भारी पोतों पर लद जाते हैं
जो समुद्र को पार करने चल पड़े हैं, बिना आगमन की संभावना के
और मैं पुराने लंगर-सा विस्मृत पड़ा रहता हूँ
घाट हो जाते हैं उदास जब दोपहर बंध जाती है आकर
मेरा क्षुधातुर जीवन निरुद्देश्य क्लांत है
मैंने प्यार किया, जिसे कभी पाया नहीं. तुम बहुत दूर हो
मेरी जुगुप्सा लड़ती है मंथर संध्या से
और निशा आती है गाते हुए मेरे लिए
चाँद यंत्रवत अपना स्वप्न पलटता है
और तुम्हारी आँखों से सबसे बड़ा सितारा टकटकी लगाये देखता है मुझे
और क्योंकि मैं करता हूँ तुमसे प्रीत
हवाओं में चीड़ तुम्हारा नाम गुनगुनाते हैं
अपने पत्तों की तंत्री छेड़ते .
वह उदास कविता
आज रात लिख पाऊंगा सबसे उदास कविता अपनी
इतनी कि जैसे ये रात है सितारों भरी
और तारे नीले सिहरते हैं सुदूर
हवाएं रात की डोलती हैं आकाश में गाते हुए
आज रात लिख पाऊंगा सबसे उदास कविता अपनी
क्योंकि मैंने उसे चाहा, थोड़ा उसने मुझे
इस रात की तरह थामे रहा उसे बाँहों में
इस निस्सीम आकाश तले चुम्बन दिए उसे
क्योंकि उसने मुझे चाहा, थोड़ा मैंने उसे
उसकी बड़ी ठहरी आँखों से भला कौन न करेगा प्यार
आज रात लिख पाऊंगा सबसे उदास कविता अपनी
ये सोच कर कि अब वह मेरी नहीं. इस अहसास से कि मैंने उसे खो दिया
बेदर्द रातों को सुनकर, और-और पसरती रात उसके बिना .
छंद गिर जाएगा आत्मा में चारागाह पर गिरती ओस के मानिंद
क्या फर्क पड़ता है यदि मेरा प्रेम उसे संजो न सका
रात तारों भरी है और वह मेरे संग नहीं
बस ये सब है. दूर कोई गाता है बहुत दूर
उसे खोकर मेरी आत्मा व्याकुल है
निगाहें मेरी खोजती हैं उसे, जैसे खींच उसे लायेंगी करीब
दिल मेरा तलाशता है, पर वह मेरे साथ नहीं.
वही रात, वही पेड़, उजला करती थी जिन्हें
पर हम, समय से .. कहाँ रहे वैसे
ये तय है अब और नहीं करूँगा उससे प्यार, पर मैंने उससे कितना किया प्यार
मेरी आवाज़ आतुर ढूंढ़ती है हवाएं जो छू सकें उसकी आवाज़
होगी, होगी किसी और की जैसे वह मेरे चूमने के पहले थी
उसकी आवाज़, दूधिया देह और आँखें निस्सीम
ये तय है अब और नहीं करूँगा उससे प्यार, शायद करता रहूँ प्यार
प्रीत कितनी छोटी है और भूलने का अंतराल कितना लम्बा
ऐसी ही रात में मैं थामे था उसे अपनी बाँहों में
उसे खोकर मेरी आत्मा विकल है
ये आखिरी दर्द हो जो उसने दिया
और ये अंतिम कविता जो मैं लिखूंगा
उसके लिए .
चुप रहने तक
अब हम करेंगे गिनती बारह तक
और निःशब्द खड़े रहेंगे
एक बार धरती के फलक पर
नहीं बोलेंगे कोई भाषा
एक घड़ी के लिए हो जायेंगे मौन
बिना हिलाए अपनी बाहें
बड़ी मोहक होंगी वे घड़ियाँ
न उतावली, न कलों का शोर
और एक आकस्मिक अनभिज्ञता में
होंगे सब साथ
सर्द सागर में मछुआरे
नहीं आहत करेंगे व्हेलों को
और नमक इकट्ठा करते लोग
देखेंगे हाथों की चोट
वे जो तत्पर हैं युद्धों के लिए
ज़हरीली गैसों की, लड़ाईयां उगलती आग की
और एक विजय जिसमें शेष नहीं रहता जीवन
वे भी पहन कर आयेंगे कपड़े उजले
और टहलेंगे साथियों के साथ
चिंतारहित छाँव में
ये मत समझ बैठना कि मेरा चाहना कोई पूरी निष्क्रियता है
मैं तो जीवन की कहता हूँ
जीवन जिसमें मौत की सौदागरी नहीं
अगर हम एकनिष्ठ न हुए
अपने दौड़ते जीवन को लेकर
अगर एक बार भी नहीं थमे बिना कुछ किये
तो सम्भावना है कि एक बहुत बड़ी निस्तब्धता
भंग कर देगी हमारी उदासियाँ
और हम दे रहे होंगे मौत की चेतावनियाँ
परस्पर बिना एक-दूजे को समझे
शायद ये धरा हमें समझाए
कि जब सब मृतप्राय होगा
तब जीवन सिद्ध कर रहा होगा अपना होना
अब मैं गिनती करूँगा बारह तक
खड़े रहना तुम चुप तब तक
जब तक मेरा जाना न हो .
तुम्हारे लिए मैं पसंद करूँगा ख़ामोशी
तुम्हारे लिए मैं पसंद करूँगा ख़ामोशी
तब जबकि तुम अनुपस्थित हो
और सुन सकती हो मुझे कहीं दूर से
जबकि मेरी आवाज़ स्पर्श नहीं कर सकती तुम्हारा
प्रतीत होता है जैसे तुम्हारी आँखें कहीं उड़ गयी थीं
और एक चुम्बन ने मोहर जड़ दी थी तुम्हारे ओठों पर
जैसे मेरी आत्मा के साथ ये सब भरा है
और इनमें से उभरना होता है तुम्हारा
तुम मेरी आत्मा सरीखी हो
एक तितली स्वप्न की
और तुम हो उस शब्द जैसी : गहन उदासी
तुम्हारे लिए मैं पसंद करूँगा ख़ामोशी
लगता है बहुत दूर हो तुम
ये आवाज़ करती है ऐसे जैसे तुम रो रही हो
एक तितली कपोत सम कूं उठी हो
और तुम दूर से सुन रही होती हो मुझे
जबकि मेरी आवाज़ पहुँच नहीं सकती तुम तक
मुझे आ जाने दो अपनी चुप्पी में चुप रहने के लिए
और बतियाने दो मुझे तुम्हारे मौन से
ये चमकीला है कंदील जैसा
साधारण है एक छल्ले जैसा
तुम एक रात की तरह हो
जो होती है अपने सन्नाटे और नक्षत्रों के साथ
तुम्हारी ख़ामोशी उस सितारे की तरह है
जो सुदूर है पर साफ़
तुम्हारे लिए मैं पसंद करूँगा ख़ामोशी
तब जबकि तुम नहीं हो
बहुत दूर और भरपूर गम से
और मर चुकी हो
फिर भी एक शब्द, एक मुसकान पर्याप्त है
और मैं खुश हूँ ;
खुश जो सच नहीं .
अपर्णा मनोज
कविता, अनुवाद, कहनियाँ