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Home » असहमति- 2 : कविताएँ

असहमति- 2 : कविताएँ

असमति के इस दूसरे अंक में विनोद दास, लीलाधर मंडलोई, नवल शुक्ल, सविता सिंह, पवन करण, प्रभात, केशव तिवारी, प्रभात मिलिंद, निधीश त्यागी, विनय सौरभ, बाबुषा, अपर्णा मनोज, अविनाश मिश्र, कविता कृष्णपल्लवी, अच्युतानंद मिश्र, शैलजा पाठक, अंचित, रूपम मिश्र, प्रमोद पाठक, नाज़िश अंसारी, नवीन रांगियाल, सुमीता ओझा, सपना भट्ट, विशाखा मुलमुले तथा अंकिता शाम्भवी की कविताएँ शामिल हैं. महात्मा गांधी ने असहमति को सविनय अवज्ञा में बदल दिया था. यह अंक उन्हें ही समर्पित है.

by arun dev
September 28, 2023
in विशेष
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असहमति- 2 : कविताएँ
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‘असहमति को अवसर दो
सहिष्णुता को आचरण दो’ 
(कुंवर नारायण)

अवसर रहे इसलिए असहमति को अवसर दो. उसकी नैतिकता समस्यामूलक नहीं है. घिर जाओ काली घटाओ में. दलदली जमीन निगल रही हो. देह की अंतिम बूंद तक पी गयी हो रेत. विवेक गहरी नींद में चला गया हो. अवसर दो कि बची रहे पगडंडी. बचा रहे खींचता हुआ हाथ. ख़लल का शोर रहे.

असहमति ज्ञान को बंजर होने से बचाती है कौशल को अद्यतन रखती है. व्यक्ति प्रतिकृति नहीं असहमति पत्र है. उसका स्वागत करो. उनके अंतर असहमतियों की सुप्तावस्था हैं.

असहमति संस्थाओं को जिंदा रखती है. उसे प्रासंगिक बनाती है. उसने संस्कृतियों तक की रक्षा की है, वे अपने नये में दूसरा जन्म पाते हैं. सातत्य को मूल्य समझना था. उससे संबल मिलता.

यह जो असहमतियों की संतान है, असहमति से पीठ फेर लेता है. शत्रुता रखता है. यह अपनी मृत्यु को कितने दिन स्थगित रखेगा. इसका लौह तत्व धूसर होकर झर जाएगा.

असहमति हाथ उठाती है. दिशा इंगित करती है. बिगड़ते हुए को बीच में ही रोक देती है. वह अपने को ही थोड़ी दूरी से देखने का विवेक है. यह दूसरे को समझने की ज़िम्मेदारी है. यह अन्यथा नहीं अलग है.

सहमति से भरे रिश्तों के अतिरिक्त जल को वह निकालती रहती है कि जड़ सड़े नहीं. पिता से असहमत पुत्र अपने व्यक्तित्व की राह पर चलता हुआ नया पिता बनता है. बेटियों में बहुत कुछ माँ जैसा है पर उनमें ढेर सारी असहमतियां भी हैं जिन्हें वह इकट्ठा करती रहीं हैं. स्त्री-पुरुष असहमतियों के संधि-पत्र के सिवाय हैं क्या? 

उसने नदियों पर राह बनाई. समुद्र को पार किया. जो उड़ रहा है आकाश में वह मनुष्य की असहमति है. उसे और बड़ा आकाश दो. जो ईश्वर से असहमत थे उन्होंने अमरता के दूसरे रास्ते तलाशे. उनकी बुझी हुई राख तक ने स्वीकार नहीं किया  कि हमारे सौर मंडल के केंद्र में पृथ्वी है. प्रतिनिधियों से असहमतियों के तो इतने कारवाँ हैं कि आज सबके अपने इमाम हैं. जिन्हें चाँद के उजाले पर संदेह था वे लम्बी यात्रा करके उसके अँधेरे पर उतरे. असहमति का आखिरी सिरा खुला रहता है वह खुद से पोषण पाती है.

सत्ताएँ सहमति के बहुमत में जब अंधी हो जाती हैं. उन्हें कुछ सुनाई नहीं पड़ता. सहमति जड़ बना देती है. असावधान व्यक्ति चूक करता है. वह गिरता तो है पर उसके साथ बहुत कुछ गिर जाता है. सहमति के क़ैद में वह एक शीर्षक है, एक पद है. राजाज्ञा है वह. वह जो करता है उसे वह नहीं करता. उसे असहमति रोकेगी. सहमति से धीरे-धीरे उगता रहता है ‘अ’. यह उसके आगे आ जाता है. असहमति की आवाज़ों को सुनो. उसके बिखरे दृश्यों का सामना करो.

असहमति-साहित्य का सौन्दर्य न्याय और समानता के उसके अनथक और असमाप्त नैतिकता से खिलता है. कई बार पाठ में वह सतह पर नहीं दिखता. उसे देखने के लिए खुद को प्रशिक्षित करना चाहिए. सावधानी से किया गया साहित्यिक विश्लेषण सत्ता और अर्थ के गठजोड़ की संरचनाओं को उजागर कर देता है. वह सोच और शैली में अंतर्निहित पदानुक्रम को तोडती है. अभूतपूर्व विचार, सार्थक सामाजिक बदलाव उसके उत्पाद हैं. असहमति से पैदा हुई असहमतियाँ उसका विस्तार हैं. ऐसा समझना कि असहमति की राजनीति का अंत नव-उदारवादी मूल्यों में हो गया है, असहमति को नहीं समझना है. प्रस्तुत कविताओं में राजनीति है भी तो वह सौन्दर्य की राजनीति है, जो सच के लिए साहस के साथ खड़ी हो गयी है. और यह कविता की केन्द्रीय विशेषताओं में से एक है.

असमति के इस दूसरे अंक में विनोद दास, लीलाधर मंडलोई, नवल शुक्ल, सविता सिंह, पवन करण, प्रभात, केशव तिवारी, प्रभात मिलिंद, निधीश त्यागी, विनय सौरभ, बाबुषा, अपर्णा मनोज, अविनाश मिश्र, कविता कृष्णपल्लवी, अच्युतानंद मिश्र, शैलजा पाठक, अंचित, रूपम मिश्र, प्रमोद पाठक, नाज़िश अंसारी, नवीन रांगियाल, सुमीता ओझा, सपना भट्ट, विशाखा मुलमुले तथा अंकिता शाम्भवी की कविताएँ शामिल हैं.

महात्मा गांधी ने असहमति को सविनय अवज्ञा में बदल दिया था. यह अंक उन्हें ही समर्पित है.


अरुण देव

 

अ स ह म ति – अंक दो 

1

यकीन कीजिए!
मैं आपसे सहमत होना चाहता हूँ
लेकिन जग का दुःख देखकर
मेरे भीतर इतना गुस्सा भर गया है
कि तुम्हारे कठोर दण्डों को जानते हुए भी
मैं तुमसे सहमत नहीं हो पा रहा हूँ

जिस तरह न्यायिक व्यवस्था को अँगूठा दिखाकर
फर्ज़ी मुठभेड़ में मारे जा रहे हैं पुलिस गोलियों से आरोपी
मैं उससे असहमत हूँ

मैं असहमत हूँ
कि एक अस्सी साल का बूढ़ा कवि
और एक अपंग प्रोफेसर बंद कर दिया जाये क़ैद में
फर्ज़ी मुकदमे में

आप बताइये
मैं कैसे सहमत हो सकता हूँ
कि कचहरी में गये बिना
किसी का घर बुलडोज़र से जमींदोज़ कर दिया जाये
कि वह आपके धर्म का नहीं है

घोटाले की स्थगित हो जाए जाँच
अगर अपराधी के कोट पर लग जाये सत्ता दल का बैज

अमीरों का माफ़ कर दिया जाए करोड़ों का कर्ज़
जबकि चन्द रुपयों के लिए गरीबों के घर की हो जाए कुर्की

यह कहना झूठ होगा
सहमति के नफ़ा-नुकसान से मैं परिचित नहीं हूँ
चाहे घर हो या पाठशाला
बाल्यकाल से सहमत होने के लिए ही
मुझे किया गया है दीक्षित

सहमत होने पर
मिलती थी मीठी-मीठी लेमनचूस
असहमत के दुस्साहस का पुरस्कार मिलता था
गाल पर जोरदार चांटा

असहमत होना मेरा न तो शौक है
और न ही किसी को प्रभावित करने का नुस्खा
यह मेरे होने की आवश्यकता है

मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं
कई बार आपसे ही नहीं
सार्थक बहस के बाद
ख़ुद अपने से भी हो जाता हूँ मैं असहमत

आपके लिए असहमति का अर्थ आक्रमण है
और मेरे लिए विकल्प की ऐसी संभावना
जिससे दुनिया बनायी जा सकती है
कुछ और बेहतर

कह देने में हर्ज़ नहीं
आप जो बोलते हैं शब्द
उनके अर्थ हमारे लिए होते हैं
आपसे कुछ अलग

मसलन आप कहते हैं जिसे लोकतंत्र
वह हमें अधिनायकवाद लगता है
आपके लिए जो है सुशासन
वह हमारे लिए अघोषित आपातकाल है

देखिये ! आप भले मुझे शत्रु समझे
आप मेरे शत्रु नहीं हैं
सिर्फ़ मिलते नहीं हमारे विचार

गोली-बारूद से जीती जाती है ज़मीन
मन जीतने के लिए चाहिए विचार

हमेशा सराहनेवाला
आपका दीर्घजीवी मित्र नहीं हो सकता
उसके बघनखे कमज़ोर मौकों पर निकलते हैं
और दिल को घायल कर देते हैं

आपकी हर बात से जो सहमत है
कृपया इनसे बचिये !
वह या तो महामूर्ख है
या समझता है आपको महामूर्ख

श्रेष्ठता ग्रन्थि डाल देता है आँखों पर काला परदा
कभी इसे ज़रा हटाकर अपने भीतर झांकिये

इससे बड़ा दुर्भाग्य आपके लिए क्या होगा
आपसे कोई नहीं कहता
कटी हुई जीभों के आप संग्राहक हैं
झुके हुए सिर आपके दरबार की शोभा हैं
आपके सिर पर महान असफलताओं का मुकुट है

दुदुंभी बजाते रहते हैं बिके पत्रकार
चारण कवियों की तरह

सत्ता का मोह असहमत को करीब आने नहीं देता
सत्ताधीश डरा रहता है चूहे की तरह

ये तो आप जानते ही हैं
कि उन शासकों की क्या हुई थी गति
जब वे जनता से दूर होकर
भयंकर रूप से असुरक्षित और एकाकी हो गये थे

पढ़िये !
ज़रा गौर से पढ़िये !
मेरे ही नहीं
करोड़ों चेहरों पर लिखी यह इबारत पढ़िये
पुकार-पुकार कर ये कह रही हैं
अन्यायी सत्ता से
हम असहमत हैं.

असहमत
विनोद दास 
1955
पहला कविता-संग्रह ‘ख़िलाफ़ हवा से गुज़रते हुए’ नई पीढ़ी के अन्तर्गत भारतीय ज्ञानपीठ से पुरस्कृत. ‘वर्णमाला से बाहर’ दूसरा कविता-संग्रह जिस पर ‘श्रीकांत वर्मा स्मृति सम्मान’ और ‘केदारनाथ अग्रवाल सम्मान’. भारतीय सिनेमा पर पुस्तक ‘भारतीय सिनेमा का अन्तःकरण’ को ‘शमशेर सम्मान’. इनकी कविताओं के अंग्रेज़ी अनुवाद का संकलन ‘द व्लर्ड ऑन ए हैंडकार्ट’. काव्य-आलोचना की पुस्तक ‘कविता का वैभव’. साक्षात्कारों की पुस्तक ‘बतरस’ के अलावा साक्षरता पर पुस्तक ‘साक्षरता और समाज’. साहित्यिक पत्रिका ‘अन्तर्दृष्टि’ और ‘वागर्थ’ का सम्पादन.

2

मैंने अपने को इस चारदीवारी में क़ैद कर लिया है
मेरे भीतर बहुत तेज़ी से घूम रहा एक नामुराद कीड़ा
मैं एक ख़ौफ़ के साये में खाँसता पड़ा हूँ
कोई शफ़ा कारगर होता नहीं दिखता
अपना मुँह छिपाये मैं मांगता रहता हूँ
एक गिलास गर्म पानी और तुलसी की चाय और काढ़ा
और गोलियों से मांगता हूँ सांसें
जो पड़ती जा रही हैं लगातार कम

मैं अस्पताल मांगता हूँ और एक अदद डाक्टर
मुझे नींद नहीं आती और मैं उसकी तमन्ना लिए
बदलते रहता हूँ करवट लेकिन बयान नहीं करता पीड़ा

मैं भूल चुका लोरी, न धुन याद कर पाता हूँ न शब्द
कोई नहीं आता मेरे पास
मैं घिघियाता हूँ उसके वास्ते जो छोड़ गया
जीवन के भरे बुखार में बड़बड़ाते

मैं पाँव के नाखूनों से ज़मीन खुरचता हूँ और
लाल बहते रंग में मनहूस शाम की कल्पना करता हूँ
जहाँ से शुरु होता है रात का भयानक तन्हा सफ़र
मैं याद करता बीतता जाता हूँ कि कोई नहीं है
अलगनी पर सूखी फटी कमीज़ सा टंगा मैं
जाने किस काली आंधी के इंतज़ार में हूँ
अब तो घर की दीवारें भी तमतमाने लगी हैं

शोरबा गले से उतरने में इतनी दिक्कत
न गंध है, न स्वाद, बस कड़वा-कसैला तन-मन
और बाहर साँस लेने की मनाही
मैं अपने हाल से बेहाल रोने की जगह
एकाएक हँसने लगता हूँ
अब न चार कांधें हैं
न श्मशान में कोई जगह
तो एक दांव जीने का एक बार और लगाते हैं
एक बार उन खो गये स्वादों के लौट आने का इंतज़ार करते हैं
एक और बार रूठे हुए नीले फूल की ख़ुशबू को दावत देते हैं
एक बार फिर जीने के तसव्वुर में उसी के शफ़ाख़ाने पर दस्तक देते हैं.

एक कीड़ा और चारदीवारी
लीलाधर मंडलोई
1953
कविता संग्रह– घर घर घूमा, रात बिरात, मगर एक आवाज़, काल बांका तिरछा, लिखे में दुक्ख, एक बहोत कोमल, तान, महज़ चेहरा नहीं पहन रखा था उसने, मनवा बेपरवाह, क्या बने बात. संचयन- देखा अदेखा,कवि ने कहा, प्रतिनिधि कविताएं, हत्यारे उतर चुके हैं क्षीरसागर में, मेरी प्रिय कविताएं. आलोचना-कविता का तिर्यक. डायरी– दाना पानी, दिनन दिनन के फेर, राग सतपुड़ा, ईश्वर कहीं नहीं. यात्रा वृत्तांत-काला पानी. निबंध-अर्थ जल, कवि का गद्य. अनुवाद -अनातोली पारपरा(रूसी), शकेब जलाली (उर्दू) सहित कई विश्व कवियों के अनुवाद, .संकलन- अंदमान निकोबार की लोक कथाएं, बुंदेली लोक गीतों का संग्रह -बुंदेली लोकरागिनी. आदि प्रकाशित.चित्रकला प्रदर्शनी-At Bharat Kala Bhawan,Banaras (BHU),Bharat Bhawan  Bhopaland Expressio Jabalpur arranged Solo Exhibitioan of Digital Oaintings in 2019 आदि

3

यह कहते ही कि गाँधी की हत्या हुई थी
वह रोकते हुए कहता है कि
गाँधी का वध जरूरी था.

आप इसे इस तरह समझिए कि
गाँधी के बारे में आप जो जानते हैं, वह सही नहीं है
और वध की ओर आपका ध्यान गया ही नहीं है

आप इसे इस तरह समझिए और लोगों को बताइये कि
गाँधी वध की जगह गाँधी की हत्या कहना
किन लोगों का षड्यंत्र था.

आप इसे फिर इस तरह समझिए कि
आप गाँधी को जैसा समझते हैं, सच वैसा नहीं है
इसलिए गाँधी वध जरूरी था

आप इसे इस तरह समझिए कि
ईश्वर अल्ला तेरो नाम कहना
और भजन को दूषित करना कितनी बड़ी हिंसा है.

आप इसे इस तरह समझिए कि
पीर पराई जानने से क्या मिलेगा
जबकि सब जानते हैं राष्ट्र सर्वप्रथम है

आप इसे इस तरह समझिए कि
जो इस तरह समझने को तैयार नहीं हैं.
उन्हें समझाना कितना जरूरी है

आप इसे इस तरह समझिए कि
आप अभी भी समझने के समय में हैं
और आप हताश हैं, अकेले हैं और चुप हैं

आप इसे इस तरह समझिए कि
भय आपके पास धीरे-धीरे आ रहा है
आप धीरे-धीरे मेरे पास आ रहे हैं

आप इसे इस तरह समझिए कि
यह पुण्य भूमि है
यहाँ निरुद्देश्य वध वर्जित है

मुझसे बात करते हुए शायद वह थक जाता है
सुनते-सुनते मैं भी थक जाता हूँ
मैं अपने पैरों के पास देखता हूँ
यह मेरी भूमि है, जहाँ मैं खड़ा हूँ
यहाँ मिट्टी रहती है.

गांधी की हत्या
नवल शुक्ल
 1958
दसों दिशाओं में, इस तरह एक अध्याय (कविता-संग्रह); नदी का पानी तुम्हारा है, बच्चा अभी दोस्त के साथ उड़ रहा है (बाल कविता-संग्रह); कविता में मध्यप्रदेश, राजा पेमल शाह (नाटक); मदारीपुर जंक्शन (नाट्य रूपांतरण); तिलोका वायकान (उपन्यास) मुरिया, दंडामी माडिया, मध्यप्रदेश के धातु शिल्प और बसदेवा गायकी (मोनोग्राफ्स) आदि प्रकाशित. सम्मान : पहले कविता-संग्रह के लिए रामविलास शर्मा सम्मान. जर्मनी और इंग्लैंड की सांस्कृतिक यात्राएँ.

4

उसे तो पता भी नहीं
असहमत कैसे हुआ जाता है
वह अक्सर हाँ करती हुई जीती रही
अपने बच्चे की गलती पर उसने लोगों के पांव पकड़ कर माफी माँगी
जबकि बेटा कहता रहा उसका कोई दोष नहीं
पहला घूसा तो दूसरे ने ही मारा था

वह हर तरह की मार से डरती थी
वह कल्पना में डर की नई शक्लें देखती थी
सदा दु:स्वप्नों से भरी रहती उसकी नींद
वह जब सुबह उठती आकाश की तरफ देखती और कहती , ‘आज का दिन शांति से कटे प्रभु’.

बचते बचाते पूरा जीवन जिया उसने
किसी ने कहा ‘तुम्हारा जीवन-संघर्ष भी घनघोर है
तुम्हारे डर की तरह ही
तुमने कभी असहमति नहीं जताई
ताकतवर के सामने सदा झुकी रही
किसी को मना नहीं किया
थूक कर चाटती रही जब कहा गया
तुमने कभी किसी सत्य के लिए आग्रह नहीं किया
झूठ ही तुम्हारा ओढ़ना बिछौना रहा
इस तरह एक गर्हित जीवन तुमने जिया’

लेकिन एक दिन उसने चौंकाया बहुतों को
जब असहमति के पक्ष में कुछ बातें कहीं कि अब जिया नहीं जाता बेहया यह जीवन
अब सहा नहीं जाता यह मार काट

सच की तरह मारक लगी असहायता में कही ये बातें सबको
लेकिन सबसे पहले इन बातों ने उसे ही मारा
सबने सोचा था एक दिन असत्य लील लेगा उसे
वह एक माँस का लोथड़ा भर ही रह जाएगी

अब वह मरकर अमर है
सब उसे एक मसीहा समझते हैं
उसके व्यभिचारों पर तो बात भी नहीं करते
उसे लोग सत्य का एक प्रयोग मानते हैं
सत्य अपने प्रयोग में ही सत्य साबित होता है
और क्यों नहीं
भारतवर्ष की अपनी यह थीसिस है
हम सब भारतवासी हैं
उसी देश के जिसमें गंगा बहती है
जो सारे कलुष धोती है
सारे घाव, पीब, रक्त, सारे पाप बहा ले जाती है
जाने कहाँ
हम सब भीतर से पाक साफ ही हैं
शिव की बड़ी कृपा है मनुष्यों और तमाम दूसरे जीवों पर
आखिर वही सुंदर है
जो असुंदर को खुद में मिला ले

असहमति और सहमति में कोई फर्क नहीं रखा
कोई कुछ भी हो सकता है
कभी भी
क्यों फर्क पड़े आखिर
यही सत्य है
सत्य और असत्य के लिए झगड़ा एक तरह की असभ्यता है
झूठ का भी अपना सच होता है
जैसे सच का अपना झूठ
और यही लोकतांत्रिक भी है

हम सब एक ही देश के वासी है
हम कुछ भी कर सकते है
किसी का गला काट सकते हैं
किसी की रोटी छीन सकते है
हमारा कुछ न बिगड़ेगा
भले सब कुछ बिगड़ जाए.

असहमति का सत्य
सविता सिंह
1962
पहला कविता संग्रह ‘अपने जैसा जीवन’ (2001) हिन्दी अकादमी, दिल्ली द्वारा पुरस्कृत, दूसरे कविता संग्रह ‘नींद थी और रात थी’ (2005) पर रज़ा सम्मान तथा स्वप्न समय.  द्विभाषिक काव्य-संग्रह ‘रोविंग टुगेदर’ (अंग्रेज़ी-हिन्दी) तथा ‘ज़ स्वी ला मेजों दे जेत्वाल (फ्रेंच-हिन्दी) 2008 में प्रकाशित. अंग्रेज़ी में कवयित्रियों के अन्तरराष्ट्रीय चयन ‘सेवेन लीव्स, वन ऑटम’ (2011) का सम्पादन जिसमें प्रतिनिधि कविताएँ शामिल, 2012 में प्रतिनिधि कविताओं का चयन ‘पचास कविताएँ: नयी सदी के लिए चयन’ शृंखला में प्रकाशित. ‘खोई चीज़ों का शोक’ (2021) कविता संग्रह राजकमल से प्रकाशित. ‘प्रतिरोध का स्त्री-स्वर: समकालीन हिंदी कविता’ का संपादन. महादेवी वर्मा काव्य सम्मान, हिंदी एकादेमी काव्य सम्मान आदि प्राप्त 

5

बंदूक चलाते वक्त तुम्हें
बस मेरा चेहरा दिखाई देता है
मगर गोली खाते समय मुझे तुम्हारे चेहरे में
दूसरा चेहरा नजर आता है

मुझे सबक सिखाने एक बार फिर से
उन्होंनें तुम्हें भेज दिया
तुमसे बचने मैंने एक बार फिर से
अपने हाथों में पत्थर उठा लिये

दूर से तुम पर फैके जाने वाले पत्थरों
और पास आकर मुझ पर
टूट पड़ने वाले डंडों में कोई अंतर नहीं

मेरे पत्थर और तुम्हारे डंडे
उन तक कभी नहीं पहुंचते
जो हमें हर बार एक—दूसरे के
सामने खड़ा कर देते हैं

जिसके चलते तुम मुझसे
कितनी घृणा करने लगे हो
और मैं तुमसे कितना डरने लगा हूँ

तुमसे लड़ते हुए मैं गद्दार कहलाता हूँ
मुझे मारते हुए तुम हत्यारे हो जाते हो

मरने के बाद कब्रिस्तान में
मैं दफ्न हो रहा होता हूँ
मुझे मारने के बाद तुम थाने में
सबूत दफ्न कर रहे होते हो.

पुलिस
पवन करण
1964
काशित काव्य-संग्रह : ‘इस तरह मैं’, ‘स्त्री मेरे भीतर’, ‘अस्पताल के बाहर टेलीफ़ोन’, ‘कहना नहीं आता’, ‘कोट के बाज़ू पर बटन’, ‘कल की थकान’ और ‘स्त्रीशतक’ खंड–एक एवं ‘स्त्रीशतक’ खंड–दो प्रकाशित. सम्मान : ‘रामविलास शर्मा पुरस्कार’, ‘रज़ा पुरस्कार’, ‘वागीश्वरी सम्मान’, ‘शीला सिद्धांतकर स्मृति सम्मान’, ‘परम्परा ऋतुराज सम्मान’, ‘केदार सम्मान’, ‘स्पंदन सम्मान आदि

6

तिरंगा हमारा राष्ट्रीय झण्डा है
राष्ट्रीय पक्षी है मोर
अशोक स्तम्भ है राष्ट्रीय चिह्न
जन गण मन है राष्ट्र गान
राष्ट्रीय पशु है बाघ
राष्ट्रीय फूल है गुलाब
मणिपुर में भीड़ द्वारा
दो स्त्रियों को नग्न घुमाने के बाद
अब राष्ट्रीय शर्म भी है हमारे पास

विध्वंस कहने पर क्या याद आता है
गुजरात कहने पर क्या याद आता है
जैसा कि राष्ट्रीय आंदोलन का था
राष्ट्रीय शर्म का भी है लम्बा इतिहास
अब तो शर्म की फेहरिश्त में ही
कुछ नया जोड़ने की कोशिश रहती है
अब तो उन्माद की बीमारी ही
विरासत बनती जा रही है

हम जो काम करते हैं खेतों बागानों में
हम जो चूल्हा जलाते हैं
पानी लाते हैं
खाना बनाते हैं
बच्चों को नहलाते हैं
मवेशियों को चारा नीरते हैं
बूढ़ों को रास्ता पार कराते हैं
एक ही दिन में कैसे भूल सकते हैं
युगों से बोली जा रही अपनी भाषा

ऐसा कहाँ चली गई हो तुम
जलते हुए घरों से उठते धुएं में चलते हुए
कितना दूर निकल गई हो तुम
लौट आओ ओ आशा.

राष्ट्रीय प्रतीक
प्रभात
1972
अपनों में नहीं रह पाने का गीत’ (साहित्य अकादेमी/कविता संग्रह) बच्चों के लिए- पानियों की गाडि़यों में, साइकिल पर था कव्वा, मेघ की छाया, घुमंतुओं का डेरा, (गीत-कविताएं ) ऊँट के अंडे, मिट्टी की दीवार, सात भेडिये, नाच, नाव में गाँव आदि कई’ चित्र कहानियां प्रकाशित युवा कविता समय सम्मान, 2012,  भारतेंदु हरिश्चंद्र पुरस्कार, 2010, सृजनात्मक साहित्य पुरस्कार, 2010

7

एक गहरी सहमति के बिना
असहमति का कोई अर्थ नहीं

एक स्वप्न एक विश्वास पर गहरा यक़ीन
कहने के पहले असहमत

अपनी सहमति को भी पड़तालना पड़ता है

कुछ अपने सपनों को झाड़ना पोंछना पड़ता है
कुछ पीछे लौटना कोना आतर झाँकना

बहुत झीना फर्क है हाँ और न में

तर्कों की तलवार से सब हल होना होता
तो कब का हो चुका होता

हम असहमत हैं कि हमें आपकी
रची और रची जा रही दुनिया

इसमें रहने वाले मज़लूमों
स्त्री बच्चों के
खिलाफ और खिलाफ होती
जा रही है

पूरी प्रकृति से आपके षड्यंत्रों को
देख रहे है

हम असहमत के लिए असहमत नहीं है
हम अपनी सहमतियों के पक्ष में
असहमत हैं आपसे

हम समझते बेहतर दुनिया के लिए
अपनी न के जिंदा रहने का अर्थ

असहमति
केशव तिवारी
1963
कविता संग्रह- इस मिटटी से बना, आसान नहीं विदा कहना, तो काहे का मैं प्रकाशित.
कविता के लिए अनहद सम्मान से सम्मानित.

8

जिस शहर के बारे में यह ख़ुशफ़हमी थी उनको
कि जहाँ हर किसी के लिए गुज़र-बसर है
कि जहाँ एक बार आया कोई, तो लौट कर फिर वापिस नहीं गया
कि जहाँ ज़िंदगी का दूसरा नाम बेफ़िक्री और आज़ादी है
कि जहाँ प्रेम करना दुनिया में सबसे निरापद है
कि जहाँ आधी रात को सड़कों पर बेख़ौफ़ भटकता है जीवन

कितनी हैरत की बात है,
उसी शहर से मार भगाया गया उनको एक रोज़
वह भी एकदम दिनदहाड़े !

वे कीड़े-मकोड़ों की तरह सर्वत्र उपस्थित थे
मुंबई से लेकर डिब्रूगढ़ तक
और दिल्ली से लेकर कोलकाता तक
इसके बावजूद वे कीड़े मकोड़ों की तरह
अनुपयोगी और संक्रामक नहीं थे

सिर्फ़ दो वक़्त की रोटी की ग़रज़ में
हज़ारों मील पीछे छोड़ आए थे वे अपनी ज़मीनें और स्मृतियाँ
वे तो माणूस भी नहीं थे, बस दो अदद हाथ भर थे
जो हमेशा से शहर और ज़िंदगी के हाशिए पर रहे
लेकिन उनकी ही बदौलत टिका रहा शहर अपनी धुरी पर
और उसमें दौड़ती रही ज़िंदगी बख़ूबी

खेतों की मिट्टी में उनके पसीने का नमकीन स्वाद था
कारख़ाने और इमारतों की नींव में उनके रक्त की आदिम गंध

दरअसल वे जन्मे ही थे इस्तेमाल होने के लिए
और इसीलिए मुंबई से लेकर डिब्रूगढ़ तक
और दिल्ली से लेकर कोलकाता तक सर्वत्र उपस्थित रहे
लेकिन वे कीड़े-मकोड़ों की तरह ही घृणित और अवांछित माने गए
और मारे भी गए कीड़े-मकोड़ों की ही तरह

लेकिन सनद रहे
कि वे इस दुनिया में नए वक़्त के सबसे पुराने ख़ानाबदोश हैं
उनके कंधों और माथे पर जो गठरियाँ और टीन के बक्से हैं
दरअसल वे ही उनका पूरा घर-संसार हैं
लिहाज़ा आप चाह कर भी उनको बेघर या शहर बदर नहीं कर सकते

आप उनको एक दिन पृथ्वी के कगार से धकेल कर
इतिहास के अंतहीन शून्य में गिरा देने की ज़िद बांधे बैठे हैं
लेकिन यह फ़क़त आपका ख़ब्त है
इससे पहले कि आप इस क़वायद से थक कर ज़रा सुस्ता सकें,
वे उसी इतिहास की सूक्ष्म जड़ों के सहारे
पृथ्वी के दूसरे छोर से अचानक दोबारा प्रकट हो जाएंगे

वे इस दुनिया में नए वक़्त के सबसे पुराने ख़ानाबदोश हैं !

यह उत्तर कथा का प्राक्कथन था
प्रभात मिलिंद
1968
अनुवाद की 8 पुस्तकें प्रकाशित
कहानी, कविताएँ, समीक्षा और अनुवाद आदि सभी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित.

9

सब सुखी है अजुध्या में
हंसते हंसते पागल हो रहे
अजुध्या वासी

ख़ुशी का ठिकाना नहीं सीता का
ख़ुशी के आंसू बंद ही नहीं हो रहे बहना
कौशल्या की आँखों से
आनंद में बसर चल रही दशरथ की
हर्ष की लहर दौड़ रही है कैकयी में
मुदित होकर कुबड़ी मंथरा गाये जा रही है कजरी
हंसी रुक नहीं पा रही सुमित्रा की
प्रसन्न हैं लक्ष्मण
गद्गद हैं उर्मिला
प्रफुल्लित हैं माण्डवी और
आह्लाद में श्रुतकीर्ति
किलकारियाँ रुक ही नहीं रहीं अजुध्या में

ठहाके लगा रहे हैं शत्रुघ्न
भरत से चुटकुले सुन कर
मुसकुराते हुए हनुमान की तरफ़ देखते हुए
जो क़तई ग़ुस्सा नहीं है
किसी भी कार पर लगे स्टिकर की तरह

ख़ुशी के सारे पर्यायवाची
अगर कहीं एक साथ
हरकत में हैं तो यहीं

दुःख आया होगा कई बार
पर निकल गया
अजुध्या की बग़ल से
कोई कोप भवन नहीं है
किसी ने आत्महत्या नहीं की
किसी ने नहीं ली अग्नि परीक्षा
ईर्ष्या का एक भी मामला नहीं
किसी ने नहीं काटे
किसी के नाक कान
कोई ग़ुस्सा नहीं है
कोई अपराध नहीं हुआ
कोई प्राथमिकी दर्ज नहीं
बदले की भावना की कोई जगह नहीं
एक भी मौक़ा ए वारदात नहीं
किसी भी इमारत को हाथ नहीं लगाया गया
प्रार्थना की जगह को तो बिलकुल भी नहीं
कुछ भी विषाक्त नहीं
अजुध्या के अमृतकाल में
एक भी शिकायत नहीं किसी को अजुध्या में
एक भी शिकायत नहीं किसी को अजुध्या से

ठहाके लग रहे हैं सब तरफ़
सब सुखी है अजुध्या में
कहकहे ख़त्म होने का नाम नहीं लेते

सब जा रहे हैं अजुध्या की तरफ़
सुखी होने
बिना ये पूछे कि
आख़िर इतनी खुश कैसे है
अजुध्या

एक सरयू है
हक्की-बक्की
बहे जा रही है
अजुध्या की तरफ़
आश्चर्य से देखती.

अजुध्या
निधीश त्यागी
1969
‘तमन्ना तुम अब कहाँ हो’ नाम  से एक किताब पेंग्विन से प्रकाशित.

10

अब याद करता हूँ तो वे आजमगढ़ जिले के थे
हमारे इस इलाक़े में गर्मियों में आते थे
सब उन्हें खान साहब कहते थे

वह बहरूपिया थे- तरह-तरह के भेष धरने वाले !
खेती किसानी के बाद जो समय मिलता था
उसमें उस पुश्तैनी पेशे को उन्होंने जिंदा रखा था

हमने उन्हें जटाधारी शिव, पुजारी, मजनूं, पोस्टमैन, रावण, इनकम टैक्स का अफ़सर, पागल खूनी, पटवारी
और भूत बनते देखा था बरसों !

उनके पीछे सैकड़ों बच्चे होते थे भागते, उछलते- कूदते!
मैं भी उनमें से एक था

सब जानते थे कि वह बहुरूपिया थे!
फिर भी जब वह पागल मजनू बनकर गलियों में भागते थे !
क्या आलम होता था !
महिलाएं छतों से, बरामदे से, दरवाजे की ओट से
उन्हें देखतीं, हंसती और अफ़सोस करतीं
छोटे बच्चे डर कर रोने लगते
तब वे रुक कर उन बच्चों के गाल थपथपाते
और हाय लैला- हाय लैला करते हुए
यह फ़िल्मी गीत गाते हुए
“तेरी बांकी अदा पर‌ मैं हूँ फिदा
तेरी चाहत का दिलबर बयां क्या करूँ ”
गलियों में भागते दिखते!

शाम होती तो साफ धुले हुए सफेद कुर्ते पाजामे में
और सिर पर सफेद गमछा लपेटे, आँखों में सुरमा डाले
मोहल्ले के बड़े बुजुर्गों के पास बैठे मिलते
वे उनसे अपने देस की खेती-बाड़ी के बारे में बातें करते
दूसरे शहरों-गाँवों के अपने अनुभव सुनाते
लोग उन्हें किस्सागो की तरह देखते और मुग्ध होते

उन्हें देखकर हम यकीन नहीं कर पाते कि
दोपहर में चिट्ठियां और मनीआर्डर के लिए आवाज़ देने वाला पोस्टमैन यही आदमी था!

पचपन के उस बहरूपिये के चेहरे पर एक नूर था
वे सबको भले लगते
लोग उन्हें ससम्मान अपने दरवाज़े पर बैठने को
कुर्सी या मोढ़ा देते
बच्चे उन्हें कौतूहल से दूर से देखते
खान साहब उन्हें पास बुलाते उनके स्कूल और
उनकी कक्षाओं की जानकारी लेते, फिर कोई पहाड़ा सुनाने को कहते
‘खूब मन लगाकर पढ़ो बबुआ’ कहकर स्नेह से उनका माथा चूमते

वर्षों तक उनका ठिकाना मस्जिद के पास रहने वाले
बिलाल मियां का घर रहा
बिलाल मियां ने कभी उनसे रहने के पैसे नहीं लिए!

कई साल गुजर गए हैं 1986 के बाद वे फिर इधर नहीं आए
जब रामानंद सागर रामायण लेकर हमारे घरों के भीतर आए
उस साल के बाद इस बहुरूपिये की हमें कोई खबर नहीं मिली!

सोचता हूँ, अच्छा हुआ खान साहब आप 1992 के बाद नहीं दिखे !
वरना भगवान शिव के भेष में देख कर किसी सिरफिरे का
ज्ञान जाग सकता था
वह यह पूछ सकता था कि तुम जटाधारी कैसे बे ?
तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई जटाधारी शिव बनने की?

मनोरंजन की पारंपरिक दुनिया से
धीरे-धीरे विदा हो गए हैं अब बहुरूपिये भी!
अब उन्हें किसी शहर या गांव में नहीं देखा जाता
वे हमारी दुनिया से जा चुके हैं !

अगर खान साहब अभी होंगे तो यकीनन यह बहरूपिया
अपनी 92-93 की उम्र पूरी कर रहा होगा!

सोचता हूँ क्या उन्हें उन जगहों की याद आती होगी
जहाँ वे अपने जवानी‌ के दिनों में गये होंगे
जहाँ लोगों ने सामने से उन्हें खान साहब कहकर इज्जत बख्शी होगी
फिर वे ‘खान बहुरूपिया’ के‌ नाम से‌ मकबूल हो गये होंगे

खान साहब का नंबर भी मिल जाता तो पूछता कि
क्या आपको नोनीहाट की याद है?
खेती-बाड़ी कैसी चल रही है?
क्या आपके इलाके में भी बारिश कम हो गई है?

आप आखिरी बार बहुरूपिया कब बने थे खान साहब ?

खान बहुरूपिया
विनय सौरभ
1972
सूत्र सम्मान
, कवि कन्हैया स्मृति सम्मान, राष्ट्रभाषा परिषद, राजभाषा पुरस्कार आदि से सम्मानित 

11

मेरा जी किया
कि उस आदमी के सिर पर मोबाइल फेंक कर मार दूँ

ऐसा,
मगर मैंने नहीं किया
फिर मैं चुपचाप अपने भीतर की सीढ़ियाँ उतरने लगी
पहले तल पर करुणा के कुछ बीज ढूँढ़ना चाहती थी
नहीं मिले

कविता मिल गई

ज़रा से रक्त के नमूने से स्थूल रोगों की पहचान हो जाती है
मन की महीन बीमारियाँ पकड़ाई नहीं आतीं
यह दुनिया भयंकर महामारी की चपेट में है
बचाव के लिए अपनी गुफा में रहती हूँ

कुछ लोग चाहते हैं मैं उस भीड़ में सम्मिलित हो जाऊँ
जहाँ लोग नशे में धुत्त हो कर नारे लगा रहे हैं
इनके नशे की तस्करी के अड्डे
झंडों की आड़ के पीछे पाए जाते हैं

एक अडिग शिला हूँ मैं
अपनी पूरी ताक़त लगा कर भी ये लोग जब खींच नहीं पाते
हथौड़ों के वार से मुझे तोड़ने की जुगत लगाते हैं

बहुत दुर्बल लोग हैं ये
जब हिला नहीं पाते
मेरे वजूद पर लिख जाते हैं ग़द्दार और नास्तिक

मैं पानी की शिला हूँ
यह इन्हें कभी पता नहीं चल पाएगा
मुझ पर कुछ भी लिखो
सब बह जाएगा

मैं इनकी चिंता करती हूँ
इनका ईश्वर इतना असहाय कैसे है
कि उसे इतने दल-बल की ज़रूरत पड़ती है
ये लोग अपने ईश्वर की वकालत करते हुए कुढ़ जाते हैं
आपा खो बैठते हैं
मैं सीधे इनके ईश्वर से बात करना चाहती हूँ
और उसे बताना चाहती हूँ कि वह
अपने लिए बिल्कुल अच्छे वकील तैयार नहीं कर पाया है

आपा तो मैंने भी लगभग खो ही दिया था
मगर देखो ! आप से आप ठहर जाती हूँ
भीतर उतर आती हूँ

पेड़ को कितने ही पत्थर मारो
वह फल देना नहीं छोड़ता
पत्थर मारते-मारते थक जाओ तो
उससे ही टिक कर बैठ जाओ
उसकी छाँव पसीना पोंछ देती है

इस रोगग्रस्त दुनिया में कम-अज़-कम
एक ऐसे पेड़ को मैं जानती हूँ

थोड़ा और भीतर उतरती हूँ
मेरे अँधेरे में उस पेड़ की पत्तियाँ जगमगाती हैं
जो मुझसे हज़ार किमी (से कुछ ही कम) दूर खड़ा है
दूर-दूर तक अपनी छाँव फैलाता

पेड़ पूरे समय खड़ा रहता है सचेत और
कभी तन कर खड़ा नहीं होता
ऐसे ही किसी पेड़ के तने से बनी कुर्सी पर बैठा
वह मूर्छित आदमी कैसा तना हुआ रहता है

वह आदमी जिसे बस थोड़ी ही देर पहले
मोबाइल फेंक कर मार देना चाहती थी
जिसकी आँखों से लार टपकती है और चाल में
तानाशाहों वाली अदा है
जिसके लिये घर की औरत उस संपत्ति की तरह है
जिसे तिजोरी में बंद रखा जाना चाहिए
जो मुसलमान को मनुष्य नहीं समझता और फिर भी
ख़ुद को मनुष्य मानता है
जिसके भेजे में भूसा भरा है और दिल में नफ़रत
जिसकी अकड़ ने उसके पाँव अकड़ा दिये हैं
और वह ठीक से चल भी नहीं पाता

उस आदमी को मारने का इरादा मैंने स्थगित कर दिया
और अपने भीतर उतर आयी हूँ
जहाँ उस पेड़ की औषधियुक्त पत्तियाँ मेरे लहू को
शुद्ध कर रही हैं

एक कविता मुझे अपने सीने से लगाने के लिए तैयार खड़ी है

कविता तन कर नहीं खड़ी होती
न झुक कर
उसके खड़े होने ढंग निराला है
वह सीधी लेट जाती है एक पन्ने पर
पढ़े जाते समय वह खड़ी हो जाती है

कविता माँ है
वह मेरे भीतर उठे धूल के बवंडर का रुख़ मोड़ देती है
कितनी तरह की अदृश्य शक्तियाँ मेरे नितांत एकाकी समय में
चित्त पर लगे दाग़ छुटाने आती हैं

एक पेड़ की करुणा मुझे सतत मिल रही है
खिल रही है साँस की शाख़ पर
फूल बन कर

समय रहते रुक जाए हिंसा के लिए उठा स्थूल या सूक्ष्म क़दम
तो एक नहीं, दो लोग बचते हैं

मौसमी बादल की धमकियों से डर कर
सूरज पहाड़ के पीछे दुबका रहता
तो इस धरती पर कभी दिन न उगने पाता

एकाकी रहती हूँ, सब से लड़ती नहीं
तो ऐसा किसी अतिवादी ताक़त के ख़ौफ़ से नहीं
वरन इसलिए कि यही मेरा स्वभाव है
जैसे पेड़ का स्वभाव है देना
सूरज का स्वभाव है रोशन रहना, रोशन करना
ब्लैक होल का स्वभाव है सब लील लेना

एक समय किसी की भी कुंडली का शनि होने के
पर्याप्त लक्षण मुझमें मौजूद थे
बहुत सजगता से मैंने बृहस्पति होना चुना है
मेरे भीतर जो तूफ़ान उठते हैं
उनसे एक साधु का क्रोध बनता है

एक बीमार आदमी का सिर फटने से
अभी-अभी बच गया है और बच गई हूँ मैं भी
मुझे उससे भय नहीं लगता

लेकिन,
उसे मेरी चुप्पी से डरना चाहिये.

लेकिन
बाबुषा
1979
कविता संग्रह प्रेम गिलहरी दिल अखरोट, दसवें नवलेखन ज्ञानपीठ पुरस्कार तथा बावन चिट्ठियाँ, ‘वागीश्वरी पुरस्कार’ से सम्मानित.

12

देह चली गई
बच गई वाख

मिट्टी के काले मटके चाक पर धीमे -धीमे बजते हैं
कोई लंबे बालों वाली लल्लेश्वरी
चीड़ के पेड़ों को अपनी गोद उठाए
नाव में उतर रही है.
मल्लाह को देने के लिए जेब खाली है.
उस पार क्या मिलेगा?

बर्फ़ की छाती तट पर टूट कर गिर गई है.
किसी ने छड़ी से तोड़ दी है झील
चंद्रमा का रिझावन टुकड़ा
लोहे के तारों में लपेट कर रख दिया है अजायबघर में.
धूं धूं कर लल्लेश्वरी जल रही है.
कश्मीर को और क्या दूं अब?
वाख बच गई है.

मैं चमचमाते रास्ते से आई थी
लौटूंगी नहीं वहाँ से
तुम भी नहीं लौट सकोगे
जिस पहाड़ को तुमने तोड़ने की इच्छा की
वहाँ पर रास्तों के निशान मिट गए.
बची बस वाख.

जंगल बहुत आहिस्ता से ऊपर चढ़ते हैं
धीरे धीरे ही उतरते हैं मैदान में
उनके लिए क्या शुभ है
तुम मत तय करो.
उन्हें उनके रास्ते जाने दो. जहाँ वे बसना चाहें वहीं बसने दो. तुम क्या चाहते हो?
अभी मैंने देखी एक नदी
अब केवल रेत रह गई.
रेत की रस्सी से क्या बांधोगे मल्लाह अपनी नाव?

आज मैं तुमसे ही पूछ लेती हूँ अपना रिश्ता महादेव.
तुम्हें आलिंगन में भरकर मैं लल्लआरिफ़ा बनी.
क्या मैं कश्मीर नहीं हूँ
क्या तुम कश्मीर नहीं हो?

मैं बढ़ई बनकर ठुक ठुक करती रही
दरवाज़े और खिड़कियां किसके लिए
राजमिस्त्री किसके लिए महल बनाता है?
रोशनी
हवा
पानी और मिट्टी?
पेड़, नदी और घाटी? भवन बहुत छोटा है.
धनुष की प्रत्यंचा और तीखे तीर इच्छाओं के
नाक में बसी बारूद की विषैली गंध
क्या इसलिए मैंने तुम्हें जन्मा?

वाख
महादेव के अधरों पर धरो मेरी बांसुरी
महादेव को गडरिया बनकर घूमने दो उन्मुक्त
मल्लाह बनकर नाव चलाने दो मेरी.

मैं लल्लेश्वरी आरिफा हूँ
शेख नूरुउद्दीन बताओ दुनिया को
कि तुम कश्मीर हो
मैं कश्मीर हूँ.
कश्मीर कहाँ हैं?

वाख को तोड़ नहीं सकते.
जला नहीं सकते.

मैं देख रही हूँ
एक राजा रेशम के थान लपेटे
निर्वस्त्र के हाट में आया है.
पीछे पीछे आई है फ़ौज
बूटों की आवाज़.
एक औरत बच्चे को जन्म देने से डर रही है.
अब एक ही नशा मुझे आज़ाद करेगा डर से
वाख की शराब.
और प्यार के लिए मेरी तड़प.

जूते पहन कर आकाश में विचरण करोगे?
लकड़ी की गाय को दूहोगे?
छोटी सी ललद्यद और क्या क्या पूछे?
देह चली गई
बची वाख

वाख
अपर्णा मनोज
1964
कविता, कहानी ,अनुवाद, आलेख आदि प्रकाशित.  

13

सोते हुए सिर
खोजते हैं कोई अवलंब
जहाँ वे टिक सकें
कोई उन्हें हटाए नहीं

उनकी तयशुदा जगहों और
तयशुदा जगहों से बाहर भी
निश्चिंत नींद नहीं

उनके बिस्तर पर उपस्थित है
संसद
समाज
न्यायालय
और पत्रकार

ख़्वाब ख़ून-ख़ून हुए जाते हैं
एक शदीद नंगई है सब तरफ़
आँखों से उतरकर
हाथों को विवश करती हुई

अब इस मुल्क में अफ़वाह कुछ नहीं
अफ़वाह ही सब कुछ है.

सोना
अविनाश मिश्र
1986
कविता-संग्रह ‘अज्ञातवास की कविताएँ’ (2017), वाणी प्रकाशन से प्रकाशित पहला उपन्यास ‘नये शेखर की जीवनी’ (2018), राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित दूसरा कविता-संग्रह ‘चौंसठ सूत्र सोलह अभिमान : कामसूत्र से प्रेरित’ (2019). हिन्द युग्म से तथा  ‘वर्षावास’ (2022) उपन्यास प्रकाशित है.

14

हमने बहुत सारी कविताएँ लिखीं.
कविताओं ने लिखा हमें फिर से.

जो क़रार तोड़े हमने
वो हमें किस्तों में तोड़ते रहे.

और जो युद्ध छोड़े हमने
वे प्रेतछायाओं की तरह
हमारा पीछा करते रहे.

कम्युनिज़्म के बारे में
शिद्दत और संजीदगी के साथ
सोचने-पढ़ने और कुछ करने की
हमने तब सोची जब विद्वान लोग
उसे निर्णायक तौर पर विफल बता रहे थे
लेकिन लोगों को रोटी और न्याय और बराबरी
और अधिकार और कविता और
प्यार के सुकून भरे लमहों की ज़रूरत
पहले से भी कहीं अधिक
महसूस हो रही थी.

अत्याचार जब सबसे नंगा और
जलता हुआ सत्य था
तो सत्य की सत्ता को ही
अस्वीकार रहे थे उत्तर-सत्यवादी.

संशय और नैराश्य सबसे अधिक
काव्यात्मक लग रहे थे तब
अमरत्व के सन्निकट खड़े कवियों को
जब हमने विश्वासपूर्वक कहा कि
पर्यावरण के विनाश से
मानव सभ्यता के नष्ट होने से पहले,
काफ़ी पहले,
यह दुनिया इंसानी कोशिशों से
न्यायपूर्ण और सुन्दर बना दी जायेगी!

तब शिखर पर बैठे कवियों और आलोचकों ने
क्षोभ और रोष के साथ कहा कि कविता में
इतनी सपाटबयानी और इतनी मुखर राजनीति
और इतनी निश्चयात्मकता और
इस किस्म का आशावाद
काव्य के निकषों और
सौन्दर्यशास्त्रीय प्रतिमानों के प्रतिकूल हैं !
कविता का सौन्दर्य वह है
जो सच को बुदबुदाता है और
दुनिया की तमाम बुराइयों पर
भुनभुनाता है.

परम्परा का पवित्र यज्ञोपवीत धारण किये,
काँख में भोजपत्र पर लिखे मंत्रों सरीखे
काव्यशास्त्रीय सिद्धान्तों और कर्मकाण्डों की
सिद्धगुटिका दबाये,
प्रतिमानों के पुरोहितों ने शापों और दुर्वचनों की
वर्षा करते हुए हमें शास्त्रीयता की यज्ञशाला से
बाहर खदेड़ दिया!

कविता को हमने ज़रूरी औज़ार की तरह बरता
शिल्पकारों की तरह,
यह सोचते हुए कि हालात को बदलने के दौरान
लोग ख़ुद को भी बदलते हैं
और हालात बदलने की कोशिशों में
साहस, उम्मीद और लगन से लगे हुए लोग
दुनिया का सबसे सुन्दर, काव्यात्मक और
मानवीय दृश्य रचते हैं!
उनके बारे में एक कविता लिखने के लिए
हम उनके बीच गये और फिर
उनके बीच उन्हीं की तरह जीने
और उनके कामों में लग जाने से
ख़ुद को रोक नहीं सके.

इसी बीच एक दिन अचानक,
तमाम व्यस्तताओं के बीच
यूँ ही टपक पड़े फुरसत के कुछ लमहों में
हमने प्यार के बारे में सोचा
और अपने कुछ निजी सपनों के बारे में!
और तब पाया कि प्यार चुपचाप
हमारे ठीक पीछे चल रहा था
और सपने आगे घोड़ों पर सवार
जिनकी सिर्फ़ पीठ नज़र आ रही थी
कोहरे की झीनी चादर के पार से!

कविता और प्यार और कम्युनिज्म आदि के बारे में
कविता कृष्णपल्लवी
नगर में बर्बर कविता संग्रह प्रकाशित.  दो दशक से मज़दूरों और महिलाओं के सवालों पर कार्यकर्ता के रूप में सक्रिय हैं. 2006 से कविताएँ लिख रही हैं.

15

यह महज़ एक स्थिति है
सिर्फ स्थिति
ठहरने और होने के बीच
अन्तराल में कहीं

वहाँ एक कोना है
नितांत खाली

जैसे धूल का होना
राख और रोशनी का होना
विफलताओं का होना
विफलताओं में डूबे हुए
आदमी का होना
यह महज़ एक स्थिति है

एक संसार है, इच्छाओं से रहित
मृत्यु से ठीक पहले न सुनी गयी पुकार है,
ऊंचाई है-
ढलान से फिसलती हुयी

भय और मृत्यु के पहले पुकार के लिए
खुले हुए कंठ से झड़ते हैं शब्द-
अर्थहीन

वहाँ एक अदद स्त्री है
समय की तरह निढाल
एक कोने में

किसी अतीत से टूटकर नहीं आ रही वह
किसी भविष्य के दरवाज़े पर नहीं दे रही दस्तक

धीरे-धीरे वह भूल रही है सबको
धीरे-धीरे हम भूल रहे हैं उसको
धीरे-धीरे वह उस कोने में सिमट रही है
धीरे-धीरे खाली जगह भर रह गयी है- वह
धीरे-धीरे उसका होना अतीत के शब्दों में ढल रहा है
धीरे-धीरे वहाँ एक-एक कर मर रहे हैं- शब्द

हज़ार वर्ष पहले की विस्मृत कोई गंध है
रुधें कंठ की करुण पुकार
अदृश्य आंसूं की बूंदों के निशान
स्मृति में दबी हुयी सांस
है- कहीं

होने और न होने के दरमियाँ
कुंए के पानी में झांकता है -कोई जीवन
कुएं के पानी में दिखाई देती है- कोई मृत्यु.

होने और न होने के दरमियाँ
अच्युतानंद मिश्र
1981
आंख में तिनका, चिड़िया की आँख भर रौशनी में. (कविता संग्रह) नक्सलबाड़ी आंदोलन और हिंदी कविता, कोलाहल में कविता की आवाज़ (आलोचना) देवता का बाण (चिनुआ अचेबे, ARROW OF GOD) (अनुवाद), प्रेमचंद :समाज संस्कृति और राजनीति (संपादन) आदि प्रकाशित. २०१७ के भारतभूषण अग्रवाल सम्मान तथा २०२१ के देवीशंकर अवस्थी सम्मान से सम्मानित.
 

16

उन लड़कियों की सपाट छातियों पर स्पंज की उभरी चोली है
लड़की जितनी छोटी हो उतनी देह में लचक होती है
लड़की जितनी कम जानकार हो उतने आसानी से भीड़ उसका देह टटोल सकती है

समय से पहले चोली लहंगा के नीचे छुपी देह भीड़ का आकर्षण है
भीड़ चाहती है लड़की के देह के सौ सौ टुकड़े भले हो जाएं
पर उनकी मुठ्ठियों में उसके देह की गर्मी निचोड़ी जा सके

भीड़ बेलगाम है
नाच की नहीं आग की दुकान है
लपटें आसमान है
जवान लड़कों की भड़कती सांस बेकाबू है
लड़की नहीं जादू है

बार बार उन नाचती लड़कियों की सपाट छातियाँ नोची जा रही
दस के नोट को उसकी देह के किस अनजाने रास्ते भीतर ठूस दिया जाये
इसकी होड़ लग रही

लड़की नाचती नाचती बेज़ान है
पर मंडली उसकी इस बात से अनजान है

उसे भीड़ के चीलों के ऊपर बोटी की तरह फेंका जा रहा
उसकी देह को किसी गेंद की तरह लोका जा रहा

कोई भी हाथ किसी भी हद को तोड़ हर जगह जाने को बेकाबू है
लड़की की देह का यही तो जादू है

बारह चौदह साल की बेटियों को कैसे बरतते हैं भीड़ भूल गई है
इस रात में नोच लेने का कितना चांस मिलें उसकी हंसी उतनी ही चौड़ी है

रुपए रुपए के लिए नाचती लड़कियों को अपनी गोद में बैठा कर कामुक होने वालों

घर की इतनी बड़ी बेटियों को एक खरोच भी आ जाए तो कैसे तड़प जाते हो
बाहर की लड़की से आखिर कितना मजा ले आते हो

कितनी लड़कियां देखी जो नाचती हुई किसी सदमे में रहती है
भीड़ से डरती हुई राख हुई रहती है
बार बार कपड़े को सलीके से ठीक करती हैं
बार बार नाखूनों की टीस को बर्दास्त करती हैं

नाचने को भले ही बजार में उतरी हैं लडकियाँ
पर कपड़े तुम क्यों उतार रहे
तुम्हें क्यों लगने लगा के उसके अंदर जान ही नहीं है
उसके दर्द का गुमान ही नहीं है
उनकी देहों में कितने भी रास्ते होते घुसने के तुम सबसे होकर निकल जाते
मुँह से छाती पर रगड़ते जब भी कोई भीड़ देखती हो
लगता है ये क्या शै बनाई है भगवान
लड़कियां नहीं मानी जा रही इंसान
हर दिन किसी छोटी लड़की को देख लगता है डर
क्या यही थी उस रात की रोशनी में भीड़ के ऊपर
क्या नाखूनों से घायल होगी
क्या हाथ लगाने पर चीखेगी
यही तो लग रही
भीड़ की हैवानियत पर कुचले जा रही किसी नाजुक फूल सी
यहीं लड़की है
यही होगी
ऐसी ही तो
जिसके छोटे से ब्लाउज में देर तक हैवान डालते रहे रुपए
किसी दिन हाथ अंदर डाल कर कलेजा भी निकाल लेंगे ये

रात अंगारों पर अंगारों सी नाचती लड़कियों अपनी नाखून के धार को बनाए रखना.

तेज़ धार पर नाच
शैलजा पाठक
दो कविता-संग्रह- मैं एक देह हूँ फिर देहरी और जहाँ चुप्पी टूटती है तथा पूरब की बेटियाँ शीर्षक से डायरी प्रकाशित.

17

मैं बहुत लम्बी लम्बी पंक्तियों में यह कविता लिख रहा हूँ
और नहीं जानता कि इतनी दूर आ गया हूँ यहाँ से कैसा दिख रहा हूँ.

अपने पर शर्मिंदा, अपनी कविता से नाराज़, अपनी भाषा के अभिजात्यपने में फँसा हुआ, कि कमीने को कमीना नहीं कहता, भेड़िए को भेड़िया, गीदड़ को गीदड़ और आदमी को आदमी नहीं, मैं इतिहास का पहला नहीं, इतिहास का आख़िरी नहीं, इकलौता भी नहीं, उसी भीड़ में से कोई एक जिसने खादी का कुर्ता पहना है, जिसके घर में माँ के जोड़ों में दर्द है, जिसके पिता मोहल्ले के पंसारी से उधार का राशन लाए हैं, जिसके बिस्तरे के नीचे किसी का ख़त पड़ा है, वही जिसके न होने से लोग दुखी होंगे लेकिन जी जाएँगे, क्या इतने साधारण-वाक्यांशों से बना हुआ, उद्दातताहीन, अपनी उज्जड़ता में आपसे यह सवाल पूछ सकता हूँ कि आपको दिखता नहीं क्या-

बैंगनी गहरा बैगनीं, कुहरे की तरह नहीं सड़ते गंधाते पानी वाली बाढ़ की तरह हमारे घरों में घुस आया है, और हमारे आत्म पर सांपों का विष चढ़ने लगा है, हम बैंगनी हो रहे हमें नहीं दिखता हमारे सीने दरक रहे हमें नहीं दिखता हमारी जीभ पर हमने अपना वॉटर्मार्क लगीं फूलों की बेलें लगा लीं हमें नहीं दिखता, हम सुंदरता देखने लगे हैं अपने मुँह में अपना माथा घुसाए हम कला देखने लगे हैं प्रचारों में अख़बारों में सरकारों में हमारा संगीत हमारा ब्रांड बन गया है सुनते कम जताते ज़्यादा हैं और हमारा बचपन हमारे नाम की मुनादियाँ करता, चौराहे का चमनचुतिया.

ऐसे में भले हाथियों का हमारा यह समाज- हम कवि लोगों का समाज, मुस्कराहटें बाँटने प्रेम बाँटने और सादर नमन का कॉपी पेस्ट पेलने में लगा हुआ है- एक अकवि का बिम्ब है मेरे पास, बताइए- कितना अच्छा बहुत अच्छा होता है? कितना बुरा बहुत बुरा? मैं नारों में कविता लिखना चाहता हूँ, बैठे हुए लोगों को उठाना, चलाना, दौड़ाना- अभिधा में कह रहा हूँ, अभिधा में सुनिए. वीरू सोनकर के कहे में थोड़ा अपना मिला कर कहता हूँ , रीझने रिझाने का खेल बन गयी है कविता आधी निजी आधी सरकारी भारतीय रेल बन गयी है कविता. रेलवे स्टेशनों पर छात्र हैं, छात्रावासों में लाठियाँ हैं और माई डियर पोयट इंडिया इंटर्नैशनल सेंटर जाने वाले हवाई जहाज़ में – साल दर साल जमा निराशा एक जगह आकर कहती है- अर्जे तमन्ना कविता नहीं है सम्पादन है, जाने किसका उत्पादन है, निष्पादन है या सिर्फ पाद…

शुचिता और शुद्धतावाद में फ़र्क़ होता है
विचार और विचारधारा में फ़र्क़ होता है
ट्रोल और आलोचक में फ़र्क़ होता है
आलोचक और भांड में फ़र्क़ होता है

संस्कृति की पूँजी भी पूँजी है
ज्ञानियों की सत्ता भी सत्ता
जिसकी अभिजात्यता और जिसका नशा
रोज़ अपनी ओर खींचता है.

क्या यह बहुत ज़्यादा चाहना है
कि मेरा तेली दोस्त अपनी ब्राह्मण प्रेमिका से शादी कर पाए
कि मेरा सनम मेरी बाँहों में बाहें डाले सड़क पर चल सके
कि मैं कविता लिखूँ तो मुझे नौकरी जाने का डर ना लगे
कि बुद्धिजीवियों के पास कुंठा नहीं, संवेदना हो
कि युवा कवि कहाने का रोमैंटिसिज़म पालने वाले पहले सत्ताओं से लड़ना सीखें?
कि अंचित आचार्यित छोड़ कविता छोड़ किसी की उँगलियों में फँसी सिगरेट बन सके?

मेरी इन चाहों के पीछे बजबजाती हुई आती है पूँजी-रहस्य से भरी हुई और अपने सारे क्षद्म लपेटे हुए, फिर भी इतनी लापरवाह कि अपने होने पर शर्म आती है, सीज़र जैसे चल रहा था रोम की सड़कों पर, आती है पूँजी और यज़ीद की तरह डेरा जमाती है. मंगलेश डबराल की शर्मिंदगी से अपनी शर्मिंदगी मिलाता हूँ. सड़क पर चलते कोई हाथ उठा देगा जैसे देवीप्रसाद मिश्र पर उठा दिया गया था . रूश्दी की तरह अज्ञातवास, रित्सोस की तरह जेल, कालिदास की तरह किसी गणिका का आँगन और निराला पर समकालीन उत्तरआधुनिकता का थोपा हुआ पागलपन.

मैं बहुत लम्बी लम्बी पंक्तियों में यह कविता लिख रहा हूँ – यह कोई शपथपत्र नहीं जैसा पिछले साल था, यह कोई उम्मीद का शिलालेख नहीं जो समय की दीवार पर टांगा जा रहा. एक तलहीन कूएँ में गिर रही आदमी की रीढ़ का आख्यान है. इसे जितनी जल्दी हो सके ख़ारिज कर दिया जाए.

ठेके का हिसाब
अंचित
1990
दो कविता संग्रह प्रकाशित– साथ-असाथ और शहर पढ़ते हुए प्रकाशित.

18

नहीं कोई अर्थ होता उम्र या देह का
आत्मा जब अन्याय पर उज्र करना सीख लेती है
तभी हम जवान होते हैं

उँगलियों में कलम हो या अब वे की बोर्ड पर थिरकती हों
ये उन्हीं आत्माओं की परीक्षा का सबसे कठिन दौर है

गलत-सलत जानते हुए अमिताभ, लता या सचिन हो जाना तो ठीक है
पर सौदेबाजी में न्याय से एकदम आँखें मूँदने की छलछंदी कला इनाम तो दिलाएगी
पर रोती-सिसकती आत्माओं की आह मखमली गद्दों पर क्या नींद के लिए नहीं तरसायेगी

राजा की पालकी ढोने से कंधे पर सोना तो मढ़ दिया जायेगा
पर आत्मा का गलीजपन एक जीवन से आगे भी ढोना होगा

जनि जनिहाँ मजूर गाते हुए जब विद्रोही मुक्तिबोध के दिये से दिया बारते हैं
तो वहीं से सुविधाओं की खिसियाहट अंधेरे की हिंसा के सहारे आदमियत कुचलती है

मैंने जो कविता लिखी मजलूमों के लिए संयोग से वे मुसलमान थे
तो एक रसूखदार लेखिकाओं की गोद में खेलती
सनसनी लिखती लड़की ने कहा तुम्हारी माँ ने तुम्हें मुसलमान के पास सोकर पैदा किया है

मैंने सोचकर कहा वैसे इसमें मुझे कोई दिक्कत नहीं
माँ ने मुझे किसी की हत्या करके तो नहीं पैदा किया

अपनी संस्कृति को परमाणु की बरततीं
दम्भ से अंधी होकर प्रलाप करतीं
वे उनकी “पालतू शेरनियाँ,
वे एकबार मनुष्य बनतीं तो देखतीं
आज जहाँ बैठकर जहर उगल रहीं हैं
वहाँ तक पहुँचने के लिए क्रांति के गीत गाने वाली स्त्रियों ने लम्बी लड़ाई लड़ी है

नहीं तो पलटकर देख लो वह इतिहास
जहाँ सती मठों पर दुधमुंही बच्चियों की हथेलियों की छाप है.

साथी यही समय है जो हमारे माद्दे की परख हाथ में लेकर चल रहा है
और मुसकुराते हुए पूछ रहा है कि देखूँ तुम्हारी कॉपी
क्या लिख रहे हो तुम?

अन्याय का उज्र
रूपम मिश्र
1983
‘एक जीवन अलग से’ कविता-संग्रह प्रकाशित है. मनीषा त्रिपाठी स्मृति अनहद कोलकाता सम्मान’ (2022) से सम्मानित हैं.

19

मैं बे बात पत्थर खाए गली के कुत्‍ते सा कराह रहा हूँ
मेरे भीतर एक रुदन है
उसकी कराहती आवाज नहीं पहुँचती किन्हीं कानों तक
मेरा भरोसा मनुष्यों पर नहीं चींटियों पर बचा है
वे एक गुबरैले को अंतिम विदाई दे रही हैं
हजारों की उन्मत्त भीड़ से इतर वे कितनी शांति से अपने काम में जुटी हैं
मुझे उन तितलियों पर भरोसा है
जिनका जीवन कुछ ही दिनों का बचा है और वे फूलों से पराग चुन रही हैं
हम एक तितली का मसला हुआ पंख नहीं लौटा सकते
फिर भी हमें चीजों को नष्ट करने का हुनर हासिल है
चिड़ियों को नहीं पता अगले बरस यह पेड़ उनके पास रहेगा या नहीं जिस पर उन्होंने अपने अंडे दिए हैं
नहीं पता कब कहाँ विकास उग आएगा पेड़ों को उखाड़ फेंकता हुआ
पहाड़ सबसे निरीह हैं अपने अविचल होने को लेकर
उन्हें चूहों से नहीं मनुष्य की बनाई बुल्‍डोजरों से खतरा है
वे पहले उसका हृदय चीरती हैं
फिर उसकी स्मृतियों में बचे रह गए पत्‍थरों से बने घरों को उजाड़ती हैं
नदियाँ अपने सूख जाने से पहले मछलियों से गले मिल रही हैं
उनके पानी के छौने कहीं बिछुड़ गए हैं फ्लाई ओवरों, होटलों और शहरों से अटे जंगलों में

यह उदासी का सबब है और कछुए ग़मज़दा हैं अपनी लंबी उम्र को लेकर
मेरा नाम अगर कोई देश है
तो मेरे बुर्ज गिर रहे हैं भुजाओं की तरह
मैं लहूलुहान गिर रहा हूँ इस मैदान में
यहाँ हजारों की भीड़ उमड़ी थी एक नेता का भाषण सुनने
वे अपने रास्ते में सब कुछ रौंदते हुए उन्मत्त लौट रहे हैं

उदासी का सबब
प्रमोद पाठक
1974
शिक्षा की महत्वपूर्ण पत्रिका ‘शिक्षा विमर्श’ के संपादक. कविताएँ प्रकाशित.

 

20

तुम छुओ गले की रग कहो रग ए जाँ
कब, कैसे, किसके सामने
तुम तय करो गालों पर हँसी के निशां

इक ज़रा सब्ज़ियों के भाव पूछते हुए सरक जाए जो आँचल
महरम ना-महरम के फ़र्क़ पर दो लंबा भाषण
वही जो तुमसे पहले तमाम मौलाना चीख़ चीख़ कर बताते रहे कि
मेरा संवरना होना चाहिए तुम्हीं से वाबस्ता
जरूरत की पुकार पर
जँचगी के दर्द में भी
आना है तुम्हारे पहलू मुझे आहिस्ता

इंकार.. वुजूहात.. दलीलें और मर्ज़ियां
ख़ुदा को नहीं पसंद मजाज़ ए ख़ुदा को भी नहीं
पैरवी करने आएंगी फु़फ्फि़याँ, चाचियाँ, दादियाँ

तुम भोले बालम
बहक सकते हो किसी नाज़नीं के सुर्ख़ रुख़सारों
किसी दोशीज़ाँ के गेसु ए आबशारों से
सो यह ज़िम्मेदारी मेरी ठहरी
तुम्हारी अटकन भटकन दही चट्टकन
नफ़्सी ज़ुरूरियात का एहतिमाम करूँ
दिलजोई का सामान बनूँ

मैं इशरत अज़मत सत्तर हूरों की मलिका!
बन्द भी करो ये मक्कारी ये ढकोसला
जिन घरों में सिलेंडर नहीं फटे
गु़सलख़ाने में लग गए सिरेमिक टाइल्स
उनके हिस्से आया तुम्हारी बेरुखी़ में सड़ना,
सुनना
जाने क्या कमी है इनको
जाने क्या सोचा करती हैं

अब तुम सुनो मेरे तीसरे सज़दे के ख़ुदा
हर काम तुम्हारा मज़हब
गाली मुहज़्ज़ब
चे मीं गोईयां भी अदा
हमारे हर फे़ल पे मज़म्मत
हर बात नाज़ेबा
बहुत हुआ ये जीते जी मरना
मरते हुए जीना

हिफा़ज़त के नाम पर अपनी निगहबानी से तुम्हें आज़ाद करती हूँ
तुम्हारे बदन की लग्जि़श
ज़बान की लज़्ज़त बनने से मैं इंकार करती हूँ

इंकार
नाज़िश अंसारी
1989
कविताएँ. कहानियाँ प्रकाशित.

21

उठो और जागो
अनंत की नींद में सोए हुए अज्ञात ईश्वर

और गौर से सुनो हमारी प्रार्थनाएँ
हम अपनी तकलीफों की फेहरिस्त लेकर आए हैं

जाग जाओ कि हर संध्या
अपनी नाक रगड़कर तुम्हारे देवालयों के फर्श घिस देंगे हम

प्रत्येक भोर
तुम्हारे माथे पर लटकते ये घण्टे बजाएंगे
धूनी लगाएंगे

तुम्हारी अनंत नींद को उड़ा देंगे हमेशा के लिए

तुम्हारी नाक में फूंक देंगे दुनिया की सारी खुशबुएँ
और तुम्हारी आँखों में झोंक देंगे तमाम दुनिया का धुआं

इस योग निद्रा में इतने विघ्न डाल देंगे
कि तुम्हें अपने लिए भी एक ईश्वर खोजना पड़ जाएगा

उठो की बकरों और भैंसों को काट-काट कर
तुम्हारे आंगन में रक्तपात मचा देंगे

हम अपनी भक्ति में बर्बाद हो चुके लोग हैं

उठो, और इस दुनिया को दुरुस्त करो ईश्वर

तुम्हारे जयकारों से कुत्ते और कबूतर भी हैरान हैं
नींदें खराब हैं

हमारी आस्था तुम्हें अपने एकांत और अमूर्तता में जीने नहीं देगी

अपनी आवाज़ों में
हम तुम्हारी इतनी आरती गाएंगे
कि तुम्हारी स्तुति में बदल जाएंगे हमारे सारे दुःख

अपनी तकलीफों को तुम्हारे भजनों में बदल देंगे
सारे संतापों के गीत बना लेंगे

हम सब राख फूंकने से हुए पैदा
गंडों और ताबीजों की पैदाइश हैं

उठो,
गूंगे और बहरे ईश्वर
हम कुछ नहीं कर सकते

हम पत्ता हैं
तुम्हारे बगैर हिल नहीं सकते.

ईश्वर
नवीन रांगियाल
1977
इंतज़ार में ‘आ’ की मात्रा प्रकाशित. लम्बे समय से पत्रकारिता.

22

हमारी चिकनी दिखती त्वचा के नीचे, ठीक नीचे
जाने किसने रख छोड़ा है ज़रा-सा एक तत्व
संवेदना का कोई रेडियोएक्टिव
जो बाँधे रखती है हमें मनुष्यता की
पिछली और अगली सभी पीढ़ियों की
अकथ वेदनाओं के संजाल से

शृंखला प्रतिक्रिया की किसी कड़ी में पैबस्त
हममें सतत प्रवाहित है स्मृतियों का रसप्रवाह
आड़ा, तिरछा, लहरिया
जहाँ रुधिर की तप्त धार
हृदय देश पर फफोलों की खेती करती
हर नए मौसम में उगाती है प्राचीनतम राग-विरागों के नवान्न
जीवन पर हाहाकारी अमङ्गल के प्रतिरोध की आदिम भंगिमा लिए
मुट्ठी बाँधे ही जन्मता है हर नवजात
उसका रुदन, उसकी चीख
विस्मृति के विरुद्ध उद्घोष है
कोशिका-कोशिका में जज़्ब है जिसका नाद
तभी तो ऐसा होता है हर बार कि
दुःख का कोई अनजाना राग सुनते हुए
हमारी आत्मा कोरस में गुनगुनाने लगती है वही धुन
तभी तो सुन पड़ता है शताब्दियों के गहन अंधकार फलांगता
विलुप्त सभ्यताओं
प्रजातियों के नवउठान का गान
तभी तो सद्भावना के कल्पवृक्ष को आग के हवाले कर
जब कहकहे लगा रहे होते हैं आतातायी
ठीक उसी कल्प में इस वृक्ष के लाखों सूक्ष्म बीज लिए
दिग्-दिगन्तर उड़ चले जाते हैं इसके रहवासी पक्षी
तभी तो सुच्ची आँखों के प्रेमिल
आह्लादक दूधिया वितान में
नफ़रती विषरंग घोल, नष्ट मान
मौज लेने वाली दमनक प्रजाति
कभी समझ नहीं पाती कि
किस कीमियागर के षड्यंत्रों से
बचा रह जाता है जीवन का हर रंग,
अग्निवर्षक बमबारी से जल उठी धरती
किस तरह छुपा लेती है अपना अन्नकोष
श्रमशील दस्तकारी की खुरदुरी हथेलियों के पोरों में
बिवाइयों की दरारों में,
किस तरह स्त्रियाँ जिलाए रखती हैं
नेह की आँच और बारिशों के रंग,
किस जतन कविताएँ धारती हैं
सम्यक विचारों के स्फुलिंग,
तभी तो मैं भी
बचा रखना चाहती हूँ सद्भावों के अक्षर-बीज
जो हरे दूब सा पसर जाए
जली धरती की छाती पर
तब भी जब बर्बर क्रूरताओं से आक्रान्त
डूब रहा हो मेरे प्राणों का नादस्वर…

भोगे गए दुःख
सच्चाई-सा निवास करते हैं हमारे रोमकूपों में
चुप्पियाँ कटावदार घाटियाँ उकेर रखती हैं नसों में
गले में घुटा दी गई सिसकियाँ सिंझाती हैं
ज्वालामुखियों के ज्वलन्त पहाड़
चलती यह चक्की रुकती नहीं कभी
जबकि सत्ता की तमतमाई तानाशाही
हरसम्भव तरीक़े से मिटा डालना चाहती है अपनी
क्रूरताओं की कहानियाँ
अत्याचारों के उत्कीलित सभी अभिलेख
पोंछ देना चाहती है स्मृति की स्लेट से
और स्मृति है कि
अन्तःसलिला अमृत सरस्वती-सी
बसी ही रहती है
रेत के बियाबान में
हिलोरों की नित नयी थाप सजाए रखती हैं
सदाकांक्षाओं के उफान

प्रतिरोध की यह मुखरता
क्रूर तानाशाही के प्रतिपक्ष में रचा सबसे माकूल
सबसे धारदार औजार है
कि साइबेरियन पंछी युद्ध की वजह से नहीं
प्रेम की ऊष्मा के वशीभूत फिर से प्रवास पर हैं
कि क़ायम है भरोसा
बर्बरता के समानान्तर दूर तलक चलती चली जाती है करुणा.

बर्बरता के समानान्तर
सुमीता ओझा
गणित और हिन्दुस्तानी संगीत के अन्तर्सम्बन्ध’ पर शोध. कविताएँ आदि प्रकाशित 

23

प्रार्थना सभाओं,
सामाजिक सभागारों और
न्याय पीठिकाओ में अलग अलग ईश्वर तैनात थे

हम सबके सम्मुख बारी बारी
आँख मूँद कर दोहराती थीं एक ही प्रार्थना
“इतनी शक्ति हमें देना दाता”
और प्रार्थना खत्म होते ही अशक्त होकर ढह जाती थीं

हम हल्की फब्तियों और
सस्ते जुमलों के बीच निबाह करना सीख रही थी

हम असह्य पीड़ा में थीं.
सो कविताओं की डायरी में भी
दर्द निवारक दवाओं,मलहमों और घरेलू नुस्खों की तरकीबें लिख रही थीं

हम साड़ी और दुपट्टे संभालते दौड़ती थीं
घर से दफ्तर, दफ़्तर से घर
घड़ी हमारे हाथ पर नहीं धमनियों में धड़कती थी

कभी गर्भ में भ्रूण तो कभी
भरी छातियों में दुधमूहों की भूख सहेजे
हम बसों ट्रेनों और पैदल यात्राओं में देह की टूटन के वृतांत सहेजती थीं

हम काम पर वक़्त से पहले पहुंचती थीं
घर के अवैतनिक काम के लिए
ज़रा देर से छूटती थीं

“हमारा काम पर जाना ज़रूरत नहीं
शौक़ हैं”
जैसी झूठी उक्तियाँ हमारा पीछा नहीं छोड़ती थीं

भीतर बाहर की जिम्मेदारियों के
अलग अलग खांचे थे
हमारी भूमिका में हमारी प्राथमिकताएँ
फिल्म के सेन्सर्ड और
मिसफिट हिस्से की तरह काट दी जाती थी

हमारे दमन का प्राचीन और अमोघ अस्त्र
हमारी ही माएँ और सासें जानती थीं

हमारे अन्तस् को बेधने का अर्वाचीन उपाय
हमारी प्रजाति ही अगली पीढ़ी के वर्चस्व को सौंपती थीं

हम ही समाज को अपनी पराजय के मंत्र देती थीं

हम अपनी ही झूठी अस्मिता
और मर्यादा की परछाई में बंदिनी स्त्रियां थीं

हमारा प्रतिरोध हमारे हृदय में धडकता था
हम आज़ादी के लिए छटपटाती हुई अपनी ही बेड़ियाँ बजाती थीं
थक कर गिर जाती थीं

हमारी मुक्ति की चाभी
दूर खड़ी उस पौरुषयुक्त शक्ति के पास थी
जिसने हमारी परछाई को अपने खोखले पुंसत्व और
ग़ैरबराबरी के दोमुंहे खंडित संस्कारों से बांध रखा था।

हम क्या करतीं
इस समाज में हमारी नहीं मर्दों की सत्ता थी

हमारा सर्वस्व दंशित था
हम इस पृथ्वी पर मर्दवादी ज़हर से नीली पड़ी औरतें थीं

बंदिनी
सपना भट्ट
1980
चुप्पियों में आलाप कविता संग्रह प्रकाशित. कई भाषाओं में कविताओ के अनुवाद हुए हैं.

24

एकांत में जब ओछती हूँ केश
सहसा, विपुलकेशा याज्ञसेना का हो आता स्मरण
केशों की गांठ में उलझ आती उसकी चीत्कार
सिसकने लगता है अन्तःकरण

भरी सभा में याज्ञसेना
दहकती रही क्रोध में
जलती रही अपमान में

जो नेत्रहीन थे उनके विषय में कहना ही क्या
जिनके नेत्र थे वे भी बने रहे नेत्रहीन

कुरुक्षेत्र में छल, छद्म सब स्वीकार रहा
तो कुरुसभा क्यों बंधी रही नियमों तले
सुदर्शन आकाश में स्थिर रहा
बढ़ाता रहा द्रौपदी का चीर
पर क्यों न चला दुःशासन पर

आर्यावर्त में तब से अब तक
स्त्री को लाज ढांपने को मिलता है चीर
पर तत्क्षण नहीं मिलता न्याय

क्या स्त्री अपमान का घूँट पीती रहे
और करती रहे युद्ध की प्रतीक्षा
कि पुरुष दिखा सके पौरुष
और स्त्री बनी रहे पीड़िता

इस सब के उपरांत भी
देव !
देर से मिला न्याय भी अन्याय है न !

प्रश्न
विशाखा मुलमुले
1979
पानी का पुल’ और ‘अनकहा कहा’  कविता संग्रह प्रकाशित.

 

25

छोड़ दी गई मैं
जैसे रात भर
दीप जलने के बाद
फेंक दी जाती है
जली हुई बाती की राख !

जैसे फल-पुष्प तोड़ लेने के बाद
भूल जाते हैं हम उस पेड़ को
जिसे फल पाने की लालसा में
हमने रोज़ सींचा था !

जैसे पानी में
कागज़ की नाव छोड़,
डूब जाने तक
उसे चुपचाप देखते रहते हैं हम !

जैसे बुख़ार ठीक होने के बाद
अपनी देह के प्रति
कुछ और बेफ़िक्र और निश्चिंत
हो जाते हैं !

जैसे, किसी की भेजी हुई
चिट्ठी पढ़कर
उसे वापिस लिखना
महीनों तक
टाल दिया करते हैं हम !

ज्यों दुःख हमारा निजी न हो,
तो बिल्कुल निर्मोही बने रहते हैं !

जैसे जाड़े के दिनों में
बरामदे में खिली
धूप तो भली लगती है,
पर जेठ की
चिलचिलाती धूप को
ज़रा भी
बर्दाश्त नहीं पाते हैं हम…

उस जली हुई बाती की राख में,
छूटे हुए पेड़ की छालों पर,
कागज़ की नाव के डूब जाने में,
बुख़ार के बाद की इत्मीनान बेफ़िक्री में,
महीनों तक बिसरा दिए गए
चिट्ठी के उत्तर में,
दूसरों के अव्यक्त दुःखों की हल्की छाया में,
चिलचिलाती धूप की सघन शुष्कता में…
चिह्नित होता रहा मेरे हृदय का सूनापन

तब धूप, फूलों और बादलों से बाँट लेती थी
अपनी उदासियों के चंद टुकड़े
निर्वात में कहीं टँगा रह गया था
मेरे जीवन का एकाकीपन !

शामिल नहीं हो पाई थी कहीं
अपने भी घर-परिवार में,

भुला दी गयी थी !

कभी दोस्तों के
गूँजते ठहाकों के दरमियान
दबी रह गयी थी मेरी मायूसी

किन्हीं सामूहिक चर्चाओं के अंत में भी,
मैं नहीं दे सकी थी अपनी राय !

एक भरे-पूरे समूह में
होकर भी
कहीं छूटी रह गयी थी मैं.

बिसारना
अंकिता शाम्भवी
यत्र तत्र कविताएँ प्रकाशित. अनुवाद में सक्रिय.
निर्गुण संतों और बाउलों के साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन’ विषय पर शोध कार्य

असहमति का पहला अंक यहाँ पढ़ें.  

Tags: 20232023 कविताdissentअंकिता शाम्भवीअंचितअच्युतानंद मिश्रअपर्णा मनोजअरुण देवअविनाश मिश्रअसहमति की कविताएँकविता कृष्णपल्लवीकेशव तिवारीनवल शुक्लनवीन रांगियालनाज़िश अंसारीनिधीश त्यागीपवन करणप्रभातप्रभात मिलिंदप्रमोद पाठकबाबुषारूपम मिश्रलीलाधर मंडलोईविनय सौरभविनोद दासविशाखा मुलमुलेशैलजा पाठकसपना भट्टसविता सिंहसुमीता ओझा
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Comments 12

  1. पंकज चौधरी says:
    2 years ago

    इतनी सुंदर काव्यात्मक टिप्पणी।
    आप असहमति का Manifesto लिख रहे हैं।

    Reply
  2. हरीश चंद पांडेय says:
    2 years ago

    विरल असहमतियों के दौर में समालोचन का यह उपक्रम स्तुत्य है।

    Reply
  3. Girdhar Rathi says:
    2 years ago

    असहमति अवसर मांगती नहीं है, अवसर खोजती भी नहीं, जब अवसर आता है प्रकट होने लगती है। पारिभाषिक शब्दावली में, प्रायोजित असहमति असहमति होते होते चूक जाती है। असहमति का सीधा नाता आचरण से है। वह वह होती है, यह नहीं कि वह यहां वह हो मगर वहां वह हो ही नहीं।

    Reply
  4. नवल शुक्ल says:
    2 years ago

    इस समय असहमति को केंद्र में रखकर सुविचारित अंक निकालना श्रेष्ठ रचनात्मक काम है।
    ऐसे अनेक स्तरीय काम आप लगातार करते भी रहे हैं।ऐसे एकाग्र रचनात्मक हस्तक्षेप आपको और समालोचन को एक ऊंचाई देते रहे हैं।आपके प्रयास रचनात्मकता को देखने की दृष्टि का विस्तार भी करते रहे हैं।

    Reply
  5. सविता सिंह says:
    2 years ago

    अरुण देव की असहमति की यह श्रृंखला अपने समय को ही तो संबोधित है। जो कवि, लेखक, कलाकर, फिल्मकार और संगीतकार अपने समय को नहीं जीते वह समय की किसी खाई में चले जाते हैं। हालाकि कुछ भी दरअसल नही मरता । जो जन्म लेता है, आकार पाता है, वह प्रकृति के स्पंदन में एक स्वर सा जा मिलता है। इसे मिट्टी में मिलना भी कहा जाता है। लेकिन यहीं अस्तित्व का अंत नहीं होता। मृत्यु ही दरअसल बड़ी माया है। और यदि जीना इस बृहद अर्थ में अर्थवान है, तो जीने के तरीके के बारे में भी वैसे ही सोचना होता है। असहमति के साथ जीना मनुष्य की चेतना का एक चमकता पक्ष है। इससे चीजें हरकत में आती हैं। पदार्थ अपनी लचीली प्रकृति को पहचानता है। जो गुलाम होते हैं उन्हें ही इस समझ के साथ जीवन जीने से मना किया जाता है। जो आलोचनात्मक ढंग से जीते है उन्हे जीवन भी अलंकृत करता है। कविताएं, चित्रकला, अच्छा संगीत, ऐसे ही मन में नहीं उपजते । जो व्यक्ति समझौता करने को जीवन की कला मानता है उसके पास सच्ची कला बिरले ही आती है। ऐसे लोग सोचते रहते हैं-अच्छी कविता कैसे लिखें, प्रेम कैसे करें।
    कुछ ऐसी ही बातें सोच रही थी अरुण के आज के इस अंक को पढ़ते हुए। इस अंक को समय अपनी पुतलियों में बचा कर रखेगा, सिर्फ हृदय में नहीं। अपनी हाल की एक कविता में मैने कहा है, यह दारुण समय है, यह घृणा का समय, परंतु यह डुगडुगिय मछली का समय भी है।

    बहुत बधाई उन तमाम कवियों को जिन्होंने अपनी कविताएं इस अंक में शामिल होने लिए भेजीं या भेजे। शानदार टिप्पणी तभी तो संपादक लिख सका है। रचना पर तो यह संसार टिका है, संपादक क्यों न इसे जाहिर करे? अच्छी, असमति के अमृत में डूबी रचनाएं लिखी जाएं, और लिखी जाएं, इसी कामना के साथ अरुण को बधाई देती हूं।

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  6. कृष्ण कल्पित says:
    2 years ago

    फ़ारसी के महाकवि हाफ़िज़ कहना था कि रेगिस्तान पर कविता लिखो तो उसमें ऊंट नहीं आना चाहिए । इसी तरह असहमति पर लिखते हुए असहमति शब्द नहीं आना चाहिए । बहरहाल इस तरह के आयोजन इक्का दुक्का कविताओं से अधिक प्रभाव परक होते हैं । समालोचन ने बुलडोजर संस्कृति पर यादगार अंक प्रकाशित किए उसी तरह असहमति के ये दो विशेषांक भी प्रभावशाली हैं । कुछ कविताएं बहुत मार्मिक और सार्थक हैं । प्रभात ने राष्ट्रीय शर्म की बात जिस अंदाज़ से कही है, राष्ट्रीय प्रतीकों से जोड़कर, वह सचमुच असरकारक है । इस तरह के विशेषांकों से हिन्दी रचनाकारों के मानसिक स्थापत्य का भी पता चलता है । ऐसे महत्वपूर्ण विशेषांक किताब के रूप में भी आने चाहिए जैसे सविता सिंह ने प्रतिरोध की स्त्री कविता पर एक किताब का संपादन किया । समालोचन अब हिन्दी भाषा का एक ज़रूरी मंच है । संपादक अरुण देव और समालोचन का आभार ।

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  7. गुंजन उपाध्याय पाठक says:
    2 years ago

    पढ़ा और रोक नही सकी पूरा पढ़ कर ही रुकी
    क्या कमाल की कविताएं हैं
    गुलदस्ता सजाया है असहमती के अगल अलग शब्दों से
    इस दौर में जहां हम सब ताली पीटने को कतार बद्ध है यह ज़रूरी है इस समय की नब्ज टटोलती हुई कविता

    अपने प्रिय कवियो को एक साथ देखकर सुकून भी हुआ

    Reply
  8. M P Haridev says:
    2 years ago

    ध्यान से और धीरे-धीरे पढ़ा । हृदयंगम करने के लिये और वक़्त चाहिये । एक कविता में है-उसके बिस्तर के पास खड़ा है शायद लिखा है समाज, न्यायालय, लोकतंत्र और पत्रकार ।
    बाबुषा कोहली ने पेड़ के तने को काटकर बनी हुई कुर्सी पर शासक तन कर बैठा है । बुलडोज़र पर लिखा गया ।बच्चियों के साथ बलात्कार पर लिखा ।
    समय दुखदायी है ।

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  9. अपर्णा मनोज says:
    2 years ago

    समालोचन को असहमति अंकों के लिए बहुत बधाई। इस अंक की भूमिका बहुत प्रभावशाली है। सविता जी ने भूमिका को विस्तार दे दिया है अपनी टिप्पणी में।
    अंक के सभी कवियों को बधाई।

    Reply
  10. कुमार अम्बुज says:
    2 years ago

    एक बार फिर संपादकीय टिप्पणी प्रभावी, प्रासंगिक, विचारोत्तेजक है।

    प्रायः सभी कविताएँ अपने समय की तकलीफ़ और आपत्ति उल्लेखनीय ढंग से दर्ज कर रही हैं। कुछ जगह वह आकांक्षा की तरह भी है। सुपरिचित, वरिष्ठ कवियों, जैसे विनोद दास, नवल शुक्ल, सविता सिंह, लीलाधर मंडलोई, पवन करण के अलावा, उत्तर-पीढ़ी के कवियों की कविताओं ने भी ध्यानाकर्षण किया, जैसे प्रभात, विनय सौरभ, बाबुषा, अपर्णा मनोज, कृष्णपल्लवी, अंचित, रूपम मिश्र। कविता की एक अनिवार्य, अपेक्षित भंगिमा असहमति है। उसके नाना प्रकार रूप यहाँ तीनों शब्द-शक्तियों में दिख रहे हैं। यक़ीन है कविता का यह हौसला बना रहेगा, वैचारिकता के साथ अग्रसर होता रहेगा। यह उपक्रम प्रेरक है।
    शुभकामनाएँ।

    Reply
  11. प्रकाश मनु says:
    2 years ago

    ‘समालोचन’ का अद्भुत, अविस्मरणीय आयोजन, जो पूरी तरह समालोचन के रंग, तेवर और समालोचन की शैली में है। समकालीन कविता में एक और प्रस्थान बिंदु सरीखा। यह निस्संदेह एक बड़ा और फिर-फिर पढ़ने लायक उद्यम है। यों कुछ कविताएं ज्यादा लाउड और भीतर से खोखली भी लगीं। नवल शुक्ल, सविता सिंह और‌ निधीश त्यागी की कविताएं साथ रह गईं, जिनकी गूंज ये पंक्तियां लिखते समय भी मन में ताजी है।

    इतनी प्रभावी और दमदार प्रस्तुति के लिए भाई अरुण जी, आपको और ‘समालोचन’ को बार-बार साधुवाद!

    मेरा स्नेह,
    प्रकाश मनु

    Reply
  12. अरुण कमल says:
    2 years ago

    असहमति पर आपकी टिप्पणी बहुत महत्वपूर्ण है।जीवन के अनेक क्षेत्रों को समाविष्ट करते हुए साहस और निडरता से सत्ता को चुनौती देती है।किसी भी आंदोलन की शुरुआत असहमति से होती है।साथ की कविताएँ भी महत्वपूर्ण हैं।अनेक शिल्पों में रची गईं ये कविताएँ एक नये उठान का संकेत भी हैं।शुभ

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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