पद्मा सचदेव से अर्पण कुमार की बातचीत |
वर्ष 2000 में उनसे साक्षात्कार लेने चितरंजन पार्क स्थित उनके घर पर गया था. यह आज से 21 वर्ष पूर्व की बात है, जब मैं 23 वर्ष का था. यह तब राष्ट्रीय सहारा में छपा था. मुझे याद है कि पद्मा जी के साथ वह मेरी पहली और आख़िरी भेंट, बड़ी प्यारी, आरामदायक और अनुकूल रही थी. उसके बाद कभी ऐसा संयोग नहीं बना कि उनसे दुबारा मिलना हो.
उस दिन भी खोजते-खोजते मैं तब चितरंजन पार्क स्थित पद्मा जी के घर पहुँच गया. उस समय की बहुत सारी चीज़ें अब स्मृति में नहीं हैं, मगर मुझे यह अच्छे से ध्यान है और इसकी सुखद अनुभूति है कि उन्होंने पूरी तसल्ली से मुझसे बातचीत की. उनके कुछ चित्र मैंने अपने रील वाले कैमरे से खींचे भी. उनकी डायनिंग टेबल पर कई किताबें रखी हुई थीं. कुछ देर इस विषय पर भी बात होती रही. वे ऐसे कुछ घरों (जिनमें कुछ नामचीन लेखकों का घर भी शामिल था) का ज़िक्र करती रहीं, जिनके यहाँ खाने की मेज़ पर किताबें देखी/पढ़ी जा सकती हैं. वे बड़ी हँसमुख और निर्द्वंद्व ठहाके लगानेवाली रचनाकार थीं.
चूँकि यह बातचीत काफ़ी पहले की गई थी, तो कृपया इसे पढ़ते हुए उस समय का ध्यान ज़रूर रखें. दूसरे, यह इंटरव्यू एक अख़बार के लिए लिया गया था, जिसमें साहित्य से संबंधित विस्तारपूर्वक पूछे जानेवालों प्रश्नों के लिए जगह नहीं होती थी.
पद्मश्री पद्मा जी पर इस इंटरव्यू को पढ़ने से पूर्व, उनके बारे में कुछ और बातें जान लेना आवश्यक है.
पद्मा जी का जन्म, 17 अप्रैल 1940 को पुरमण्डल (जम्मू) में हुआ. उनकी मृत्यु, 04 अगस्त 2021 को मुंबई में हुई. उन्हें सन् 1971 में साहित्य अकादेमी पुरस्कार प्राप्त हुआ. उसी वर्ष, हिंदी में यह पुरस्कार नामवर सिंह को उनकी आलोचना-पुस्तक ‘कविता के नये प्रतिमान’ के लिए प्राप्त हुआ था. अंग्रेजी में मुल्कराज आनंद को उनके उपन्यास ‘मॉर्निंग फ़ेस’ के लिए और उर्दू में रशीद अहमद सिद्दीक़ी को उनकी आलोचना-पुस्तक ‘ग़ालिब की शख़्सियत और शायरी’ के लिए यह पुरस्कार मिला था. पद्मा जी को यह पुरस्कार डोगरी भाषा में लिखित उनकी काव्य-कृति (‘मेरी कविता, मेरे गीत’ ) के लिए दिया गया था. इस पुस्तक की प्रस्तावना रामधारी सिंह दिनकर ने लिखी थी. विदित है कि डोगरी, उन 24 भाषाओं में से एक है, जिनमें लेखन के लिए साहित्य अकादेमी पुरस्कार दिए जाते हैं. इस भाषा में पहला पुरस्कार 1970 में नरेन्द्र खजूरिया को उनके कहानी- संग्रह ‘नीला अंबर काले बादल’ के लिए दिया गया था. इस भाषा में दूसरा पुरस्कार प्राप्त करनेवाली पद्मा सचदेव हैं. उन्हें सन् 2001 में पद्मश्री और सन् 2007-08 में मध्य प्रदेश सरकार द्वारा कबीर सम्मान प्रदान किया गया. उन्हें वर्ष 2015 के लिए सरस्वती सम्मान दिया गया. वर्ष 2019 में उन्हें साहित्य अकादेमी फेलोशिप मिली. उन्हें प्राप्त अन्य उल्लेखनीय सम्मानों में सोवियत लैण्ड नेहरू पुरस्कार, हिन्दी अकादमी पुरस्कार, उत्तर प्रदेश हिन्दी अकादमी सौहार्द पुरस्कार, राजा राममोहन राय पुरस्कार, जोशुआ पुरस्कार आदि हैं. उन्हें अनुवाद-कार्य के लिए भी पुरस्कृत किया गया.
मेरे साथ हुई उनकी इस बातचीत में जिन तथ्यों की उन्होंने चर्चा की है, उससे संबंधित कुछ और बातें यहाँ रख दूँ. पद्मा सचदेव को 31 वर्ष की उम्र में साहित्य अकादेमी पुरस्कार प्राप्त हुआ. अमृता प्रीतम को 1956 में जब साहित्य अकादेमी पुरस्कार प्राप्त हुआ, तब इस पुरस्कार से सम्मानित होनेवाली किसी भाषा की वे पहली महिला थीं. मगर, तब वे 37 वर्ष की थीं. हिंदी में जिस लेखिका को पहली बार साहित्य अकादेमी पुरस्कार प्राप्त हुआ, वे कृष्णा सोबती हैं. ‘ज़िंदगीनामा’ उपन्यास के लिए उन्हें 1980 में यह पुरस्कार प्राप्त हुआ. विदित है कि महादेवी वर्मा को साहित्य अकादेमी पुरस्कार तो प्राप्त नहीं हुआ, मगर,1971 में साहित्य अकादेमी की सदस्यता ग्रहण करने वाली वे पहली महिला थीं. हाँ, वर्ष 1982 में उन्हें भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से ज़रूर सम्मानित किया गया.
आइए, पद्मा सचदेव से हुई मेरी उस बातचीत को पढ़ते हैं.
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अर्पण कुमार :
पद्मा सचदेव जी, कृपया अपने जीवन के शुरुआती दिनों के बारे में कुछ बताएँ. साहित्य का आपके जीवन में किस तरह प्रवेश हुआ?
पद्मा सचदेव :
बचपन से ही लोकगीतों की लयात्मकता, शब्दों की खूबसूरती और संगीत के माधुर्य से मैं अभिभूत रहा करती थी. मेरा जन्म, जम्मू शहर से 10-12 मील दूर एक ऐतिहासिक गाँव पुरमंडल के राजपुरोहित परिवार में हुआ. मेरे पिता पंडित जयदेव शर्मा ने लाहौर से हिंदी और अंग्रेजी में एम.ए. किया था. उस वक़्त हमारी रियासत में शेख़ अब्दुल्ला और मेरे पिता समेत ऐसे दो चार लोग ही थे, जिन्होंने एम.ए. तक की पढ़ाई की थी. 1947 में विभाजन के दौरान मेरे पिता की अकाल मृत्यु हो गई. विभाजन के दौरान कई लोग मारे गए, जिनमें एक मेरे पिता भी थे. तब मैं सात वर्ष की ही थी. लेकिन बचपन में डाले गए मेरे पिता के उतने संस्कार भी काफ़ी प्रभावी और मूल्यवान साबित हुए, जिसकी ऊष्मा मुझे आज भी आलोड़ित कर जाती है. उनकी मृत्यु के बाद साल-दर-साल डेढ़ साल तक हमलोग अपने गाँव में रहे और फिर जम्मू आ गए. जब मैं नवीं क्लास में थी, उस वक़्त से ही मैंने हिंदी में प्रार्थना और कविता लिखना शुरू कर दिया था. चूंकि उस वक़्त कोई कविता लिखने वाला था नहीं, इसलिए मुझे प्रसिद्धि भी जल्दी मिलती चली गई. बाद में, मैं जम्मू के रेडियो-स्टेशन पर जाकर काव्य-पाठ करने लगी.
उस वक़्त, इसके लिए मुझे ₹20 मिला करते थे, जिसे मैं पूरी तरह खर्च भी नहीं कर पाती थी और माँ को उनमें से कभी ₹10 और कभी ₹15 दे दिया करती. एक दिन मेरी सहपाठिन-सहेली के भाई ने मुझे डोगरी में लिखने के लिए कुछ कहा. उस वक़्त, डोगरी पर जम्मू में एक बहुत बड़ा कार्यक्रम हुआ था, जिसमें हमारे प्रधानमंत्री बख़्शी ग़ुलाम मोहम्मद (तब जम्मू-कश्मीर में मुख्यमंत्री नहीं प्रधानमंत्री हुआ करते थे), डोगरी विद्वान विष्णु भारद्वाज जैसे कई वरिष्ठ लोग आए थे. उस कार्यक्रम में मैंने भी शिरकत की थी. वहीं से ‘राजा के महल’ शीर्षक मेरी कविता काफ़ी लोकप्रिय हुई और मुझे एक पहचान मिलती चली गई. आज जब मुझे डोगरी की पहली आधुनिक कवयित्री होने का गौरव प्राप्त है, मुझे वह वक़्त भी याद है, जब 1955 में एक स्थानीय समाचार पत्र में मुझे अपनी कविता अपने भाई के नाम से छपवानी पड़ी थी. हमारे समाज में तब लड़कियों के लिए खुले तौर पर ऐसे काम लगभग निषिद्ध ही थे. आज, जब मैं अपने पुराने समय के बारे में सोचती हूँ, लगता है मलंग हुए बग़ैर किसी स्त्री का लेखन चला ही नहीं. चाहे ब्रज की ‘मीरा’ हो, मराठी की ‘बहनाबाई’ हो, कश्मीरी की ‘ललेश्वरी’ हों, उर्दू की ‘हब्बा ख़ातून’ हों या एक हद तक डोगरी की ‘पद्मा सचदेव’- अलग-अलग समय में रहते हुए भी सबकी संघर्ष भरी कहानियों में कुछ ज़्यादा फ़र्क़ नहीं है.
अर्पण कुमार
माफ़ कीजिएगा, आपसे एक नितांत व्यक्तिगत सवाल कर रहा हूँ. लेकिन जब यह ख़याल आ गया है तो सोचता हूँ कि मुझे पूछ लेना चाहिए. आपसे अनुमति लेते हुए अपना प्रश्न रखता हूँ. ऐसा मैंने सुना है कि आपकी दो बार शादी हुई है. कृपया इसके बारे में कुछ बताएँ.
पद्मा सचदेव
इसमें माफ़ी माँगने या संकोच करने की कोई बात नहीं है. आपने बिल्कुल ठीक सुना है. अपनी किशोरावस्था में प्रेम की रौ में बहकर मैंने विद्रोही कवि ‘वेदपाल दीप’ से शादी की. लेकिन वह एक ग़लत निर्णय था और उस शादी से मैंने खोया ही खोया. बाद में मुझे अंतड़ियों का टीबी हो गया और तीन साल तक मुझे श्रीनगर में इससे जूझना पड़ा. उन तीन वर्षों के कड़े अनुभवों के बावजूद मैंने ढेरों साहित्य पढ़ा और कश्मीरी भाषा को बोलने में स्थानीय लोगों की तरह महारत हासिल की. बीमारी से उबरने के बाद, मैं, जम्मू रेडियो पर समाचार पढ़ने लगी और बाद में ऑल इंडिया रेडियो, नई दिल्ली में डोगरी की समाचार वाचिका के रूप में नियुक्त हो गई. यहीं जनवरी, 1966 में शास्त्रीय संगीत गायन में प्रसिद्ध हो चुके सिंह- बंधुओं में से छोटे भाई सुरिंदर सिंह जी से मेरा पुनर्विवाह हुआ. उस वक़्त के हिसाब से एक सिक्ख से कश्मीरी पंडित की लड़की की शादी कुछ आसान नहीं थी. काफ़ी हद तक यह आश्चर्य का ही विषय था. शादी के साल-डेढ़ साल बाद हम लोग मुंबई आ गए.
अर्पण कुमार
आपको अपेक्षाकृत काफ़ी कम उम्र में साहित्य अकादेमी पुरस्कार प्राप्त हुआ. जब आपको यह पुरस्कार प्राप्त हुआ, तो कुछ विवाद भी हुए थे. कृपया उससे जुड़ी कुछ बातें बताएँ.
पद्मा सचदेव
मेरे मुबई-प्रवास के दौरान, मुझे, ‘मेरी कविता, मेरे गीत’ कविता-संग्रह के लिए 1971 का साहित्य अकादेमी पुरस्कार प्राप्त हुआ. आपने ठीक ही इंगित किया, किसी भी भाषा में साहित्य अकादेमी पुरस्कार लेने वाली मैं अब तक की सबसे कम उम्र की लेखिका हूँ. आपको बताऊँ, मुझे तो यक़ीन ही नहीं हो रहा था कि यह सम्मान मुझे मुल्कराज आनंद, नामवर सिंह और रशीद अहमद सिद्दीक़ी जैसों के साथ मिल रहा है. और यह भाव आना सहज था, क्योंकि मुल्कराज आनंद की एक कहानी तो मेरे पाठ्यक्रम में लगी हुई थी. जैसा कि अपने यहाँ का रिवाज़ है, उस वक़्त भी, मुझे यह पुरस्कार मिलने पर काफ़ी आरोप लगे थे. लेकिन किसी आलोचना या आपत्ति की परवाह किए बग़ैर हर पुरस्कार को मैंने अपनी ज़िम्मेदारी-शृंखला की एक नई कड़ी माना है. अगर एक आदमी तैर रहा है तो उसे काई, जली हुई लकड़ी, पत्ते आदि को हटाते हुए आगे बढ़ना ही पड़ता है. वह पीछे मुड़कर नहीं देखता. किसी शायर ने क्या ख़ूब कहा है,
‘टूट जाते हैं कभी मेरे किनारे मुझमें
डूब जाता है कभी मुझमें समंदर मेरा’
मैंने कभी किसी वाह्य आदर्श में विश्वास नहीं किया. मेरे भाव, अनुभव, सुख-दुख, आशा निराशा, प्यार-नफ़रत सभी के साथ मैंने अपने अंतर्जगत को अंतर्भूत किया है. प्रकृति, लोकगीत जैसे सहज उपादानों को अपनी रचना का उत्स और प्रेरणा-स्रोत बनाया है. मैंने अपनी रचनाओं में अन्याय सहती आई भारतीय स्त्री और अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए किए जानेवाले उसके संघर्ष को एक गहरे विश्वासपूर्ण गरिमा के साथ अभिव्यक्त किया है. मेरे लिए कविता, किसी व्यक्ति का सत्व है और वह उसकी मातृभाषा में ही घट सकती है. सर्जनात्मक स्तर पर मेरी लगातार यह कोशिश रही है कि डोगरी को एक व्यापकता प्रदान की जाए और उसका रचना-संसार विकसित किया जाए.
अर्पण कुमार
आपने फ़िल्मों में कुछ गीत लिखे हैं. मुंबई की उस दुनिया और उससे जुड़े अपने अनुभवों के बारे में भी कुछ बताएँ.
पद्मा सचदेव
जब मैं मुंबई में थी और लता जी से क्रमशः मेरी प्रगाढ़ता हुई, तब मैंने डोगरी का पहला रिकॉर्ड तैयार करवाया जिसमें दो गीत मेरे स्वयं के थे. पहली बार में ही इसके लगभग 35000 कैसेट बिके. जब वेदराही जी ने ‘प्रेम-पर्वत’ फ़िल्म बनाई, उसके कुछ गीत मैंने लिखे. यह फ़िल्म 1973 में आई थी. मेरे लिखे एक गीत के बोल इस प्रकार थे-
ये नीर कहाँ से बरसे है,
ये बदरी कहाँ से आई है
गहरे-गहरे नाले, गहरा-गहरा पानी रे
गहरे मन की चाह अनजानी रे
जग की भूल-भुलैया में
कूँज कोई बौरायी है
ये बदरी कहाँ से आई है
चीड़ों के संग आहें भर लीं
आग, चनार की माँग में धर ली
बुझ न पाए रे राख दिल की
जो ऐसी अगन लगायी है
ये बदरी कहाँ से आई है
पंछी पगले कहाँ घर तेरा रे
भूल न जइयो अपना बसेरा रे
कोयल भूल गई जो घर
वो लौट के फिर कब आई है
ये बदरी कहाँ से आई है
ये नीर कहाँ से बरसे है,
ये बदरी कहाँ से आई है
इस गीत को स्वर दिया था लता दीदी (लता मंगेशकर) ने. प्रसंगवश बता दूँ, लता दीदी पर मैंने एक किताब-‘ऐसा कहाँ से लाऊँ’ भी लिखी. इसमें उनके जीवन से जुड़े कई प्रसंगों को मैंने समाहित किया है. मिर्ज़ा ग़ालिब का एक शे’र है-
आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे
ऐसा कहाँ से लाऊँ कि तुझ सा कहें जिसे
उस शे’र से ही मैंने अपनी पुस्तक का यह शीर्षक रखा है. मेरे साथ, इस फ़िल्म के दूसरे गीतकार जाँ निसार अख़्तर थे. इस फ़िल्म का संगीत जयदेव ने दिया था. बाद में, फ़िल्म ‘आँखन देखी’ के लिए भी मैंने गीत-रचना की. मेरा लिखा ‘सोना रे, तुझे कैसे मिलूँ’ शीर्षक गीत भी ख़ूब चला. इन बातों का पता जब दिनकर जी को चला तो उन्होंने बड़े अधिकार-बोध से मुझे डाँटा, ‘अच्छी-भली कवयित्री हो. जूता गाँठने का काम क्यों कर रही हो?’ तब से वह सिलसिला वहीं थम गया.
अर्पण कुमार
आपके गद्य-लेखन की शुरुआत किस प्रकार हुई? आपने अनुवाद-कार्य भी किया है. इसके बारे में कुछ बताएँ.
पद्मा सचदेव
दिनकर जी ने ही ‘धर्मयुग’ में मुझपर एक बड़ा लेख लिखा था. एक दिन मैं भी ‘डोगरी’ के महत्व व उसकी साहित्यिक दुनिया के बारे में बातचीत करने के लिए धर्मवीर भारती से मिलने गई और काफ़ी देर तक इस विषय पर उनसे बातचीत होती रही. तब तक मैं गद्य लगभग न के बराबर लिखती थी. भारती जी ने मुझे यह सब लिखकर देने को कहा. मैंने आशंका जतायी तो उन्होंने कहा कि जैसा आपने बोला है, वैसा ही लिख दीजिए. मैंने वे सारी सारी बातें लिख दीं और मेरा वह आलेख ‘धर्मयुग’ में छप गया. तब से, हिंदी में गद्य लेखन का सिलसिला जो चला, वह अब तक प्रवहमान है. उपन्यास, कहानी, साक्षात्कार, आत्मकथा – कई विधाओं में मैंने लिखा. बस दुःख है तो इसका ही कि इनका प्रेरणा-स्रोत ही अब हमारे बीच नहीं रहा. ‘धर्मयुग’ से जुड़ा हर लेखक आज अपने को अनाथ महसूस कर रहा है.
मेरा एक काव्य संग्रह है – ‘शब्द मिलावा’. इसमें अपनी हर कविता के साथ मैंने एक ‘प्रोज-पीस’ भी दिया है, जिसमें उस कविता की रचना प्रक्रिया का संकेत है. इस मायने में यह काव्य संग्रह अपने में अनूठा और प्रयोगधर्मी है. यह हिंदी से पंजाबी में अनुवाद है, जिसे पंजाबी अकादमी ने 1988 में छापा था. इसके अतिरिक्त, मैंने डोगरी से हिंदी, हिंदी से डोगरी, अंग्रेजी से हिंदी और अंग्रेजी से डोगरी में काफ़ी अनुवाद कार्य किया है. डोगरी की दुनिया में आज भी काफ़ी कुछ अच्छा लिखा जा रहा है लेकिन कविता का स्तर, मुझे लगता है, पहले ज़्यादा श्रेष्ठ था.
अर्पण कुमार
वर्तमान में, डोगरी की क्या स्थिति है? इन दिनों, क्या पढ़ रही हैं?
पद्मा सचदेव
मातृभाषा ‘डोगरी’ के लिए लिखी गईं इन पंक्तियों को सुनिए. पहले डोगरी में और फिर हिंदी में.
दिन निकेलया जां समाधि जोगिऐ ने खोली ऐ
संझ घिरदी आई जां लंघी, गैई कोई डोली ऐ
कोल कोई कूकी ऐ जांकर व्याणा हस्सेया
बोल्दा लंघी गेया कोई डोगरे दी बोली ऐ.
यह हिंदी में इस तरह है-
दिन निकला या समाधि योगी ने खोली है
शाम घिरती आई या कोई डोली गली में से निकली
कोई कोयल कुँहकी या कोई बच्चा हँसा
या कोई गली में से डोगरी बोलता हुआ चला गया.
हमारे जैसे लेखकों-भावकों के लिए यह सुखद है कि आज स्थानीय अंग्रेजी अख़बारों में भी डोगरी के लिए कहीं एक तो कहीं दो पन्ने सुरक्षित हैं. कुछ अकादमियों और डोगरी-संस्थाओं की ओर से पत्रिकाओं का सुचारु रूप से प्रकाशन किया जा रहा है. एक साथ कई पीढ़ियाँ इस भाषा में सृजनरत हैं. यह देखकर संतोष होता है. जिस भाषा के लिए हमने इतनी मेहनत की, उसकी तरक्की देखकर मैं ख़ुश होती हूँ.
पुस्तकें पढ़ने का शौक़ तो मुझे शुरू से ही है. वह शौक ब-दस्तूर आज भी ज़ारी है. मेरे घर पुस्तकें आती रहती हैं. इन दिनों, दिनेश नंदिनी डालमिया का ‘मुझे माफ़ कर दो’ और कुसुम अंसल का ‘एक और पंचवटी’ मुझे विशेष रूप से पसंद आया.
अंत में, मैं अपनी बात इन पंक्तियों के साथ समाप्त करना चाहूँगी : –
‘मैं हूँ उत्तरवाहिनी, मेरा साथ न कोई
यहाँ पे शह-ही-शह है साथी, मात नहीं कोई’.
अर्पण कुमार
ई-मेल : arpankumarr@gmail.com
Padma Sachdev ji per Kahi goshti ho rahi hai kahin Smriti sabha lekin samalochan ne jis shandar tarah se unhen yad Kiya hai vah bejod hai apne mein