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Home » विष्णु खरे: एक दुर्जेय मेधा: ब्रजेश कृष्ण

विष्णु खरे: एक दुर्जेय मेधा: ब्रजेश कृष्ण

ब्रजेश कृष्ण प्राचीन इतिहास, संस्कृति और पुरातत्व के अध्येता, विद्वान हैं और हिंदी के कवि भी. अपने इस आलेख को उन्होंने प्रकाश मनु की किताब ‘एक दुर्जेय मेधा: विष्णु खरे’ पर केन्द्रित किया है. विष्णु खरे की ख़ासियत को उन्होंने यहाँ इतने सृजनात्मक और दिलचस्प ढंग से उद्घाटित किया है कि जहाँ इस किताब के प्रति उत्सुकता पैदा होती है वहीं विष्णु जी के प्रति आदर और लगाव भी.

by arun dev
August 23, 2021
in समीक्षा
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विष्णु खरे: एक दुर्जेय मेधा: ब्रजेश कृष्ण
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‘एक दुर्जेय मेधा: विष्णु खरे’
विष्णु खरे को जानने के लिए जरूरी किताब

ब्रजेश कृष्ण

विष्णु खरे को हमसे विदा हुए सितंबर की उन्नीस तारीख को पूरे तीन साल हो जाएँगे. अप्रतिम कवि, महत्वपूर्ण आलोचक, निर्भीक पत्रकार, कुशल अनुवादक और निपुण विश्व सिनेमा-समीक्षक के रूप में विष्णु जी बहुत लम्बे समय तक अविस्मरणीय बने रहेंगे. अपनी बेबाक टिप्पणियों के लिए उनके मित्र और शत्रु दोनों ही उन्हें कभी नहीं भूल पाएँगे. दरअसल, विष्णु जी का प्रियं ब्रूयात् पर क़तई यकीन नहीं था, लेकिन जो कोई भी उनसे मिलने गया, वह चाहे कितना भी छोटा हो, उसका वे भरपूर अपनत्व और प्रेम के साथ स्वागत करते थे. इसलिए जिस किसी की विष्णु जी से एक बार भी मुलाकात हुई है, वह भी उन्हें कभी नहीं भूल पाएगा.

विष्णु जी की तीसरी बरसी (पुण्यतिथि जैसा शब्द मैं जान-बूझकर इस्तेमाल नहीं कर रहा हूं, ऐसी शब्दावली वे स्वयं नापसंद करते थे) पर उनकी स्मृतियों को ताजा करने का सर्वोत्तम तरीका मुझे यह लगा कि मैं प्रकाश मनु की पुस्तक “एक दुर्जेय मेधा : विष्णु खरे (कुछ अंतरंग क्षण और मुलाकातें)” एक बार फिर पढ़ूं. मेरी जानकारी में यह अब तक अकेली पुस्तक है जो विष्णु जी जैसे व्यक्ति के अन्तर्जगत को बहुत निकट से समझने में हमारी मदद करती है. लगभग साढ़े तीन सौ पृष्ठों में फैली यह पुस्तक विष्णु जी जैसे विलक्षण व्यक्तित्व को देखने-जानने और समझने-परखने का एक ‘अति संवेदी आईना’ है.

इस किताब की पृष्ठभूमि में प्रकाश मनु की विष्णु जी बनी गहरी निकटता है. वे बार-बार विष्णु जी से मिलते, दिन-दिन भर उनसे बातें करते और एक अत्यंत संवेदनशील दृष्टि से उनके भीतर-बाहर की तमाम हलचलों को समझने की कोशिश करते. मनु बरसों तक भाग-भागकर विष्णु जी के पास जाते रहे. मनु की यह भागमभाग उनकी एक दुर्लभ प्यास के कारण थी. वे ‘जाने हुए विष्णु खरे के साथ-साथ, अब तक न जाने गए विष्णु खरे की खोज ’के लिए बहुत बेचैन थे!

मनु ने “एक दुर्जेय मेधा” का आरम्भ अपने एक अंतरंग संस्मरण से किया है, इसके बाद अलग-अलग समय पर लिए गए चार इंटरव्यूज हैं. अगले दो अध्यायों में विष्णु जी द्वारा किए गए विलक्षण अनुवादों में से गुंटर ग्रास के ‘जीभ दिखाना’  और  फिनलैंड के महाकाव्य ‘कालेवाला’ की विस्तृत चर्चा है. फिर विष्णु जी की कविताओं पर मनु का लेख और अंतिम अध्याय में ‘कथादेश’ में प्रकाशित विष्णु जी का आत्मकथ्य ‘मैं और मेरा समय’ दिया गया है. परिशिष्ट में विष्णु जी का संक्षिप्त जीवन-परिचय और उनकी रचनाओं की सूची है.

विष्णु जी के लिए लिखे गए संस्मरण में उनके प्रति मनु का प्रेम, आदर और आत्मीयता छलक-छलक पड़ती है. वे अपनी बात वहां से शुरू करते जहां उनका विष्णु जी की कविता से पहला परिचय हुआ. यह कुछ-कुछ ‘पहली ही नज़र में प्यार’ जैसा मामला था. दरअसल, इस प्रथम परिचय में, नगण्य ही सही, थोड़ा-सा मेरा भी योगदान है.

प्रकाश मनु

जब मैं कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के प्राचीन भारतीय इतिहास एवं पुरातत्व विभाग में नौकरी करने आया, तब विश्वविद्यालय के छात्रावास में प्रकाश मनु से मेरी मुलाकात हुई. वे यूजीसी की फेलोशिप पर हिंदी विभाग में शोधछात्र के रूप में आए थे. शीघ्र ही हम मित्र बन गए. हमने अपने-अपने अतीत के साहित्यिक किस्से सुनाए और एक-दूसरे को अपनी कविताएं सुनाई. मैंने उन्हें कुछ ही समय पहले प्रकाशित और अशोक वाजपेयी द्वारा सम्पादित ‘पहचान’ सीरीज की पुस्तिकाओं के साथ समकालीन कविता के दो-तीन संग्रह और कुछ पत्रिकाएं दीं. इसके अलावा मैंने उनके सामने विष्णु जी की एक कविता का वाचन भी किया. इस पर मनु की क्या प्रतिक्रिया हुई, यह उन्हीं के शब्दों मेः-

ब्रजेश भाई ने कुछ पत्रिकाएं और कविता संकलन मुझे थमा दिए थे. इन्हीं में पहचान सीरीज की कविता की किताबें भी थीं. सोलह-सोलह पेज की किताबें जिनमें विष्णु खरे, जितेंद्रकुमार, ज्ञानेंद्रपति वगैरह की कविताएं थीं. और सचमुच उन्हें पाकर मेरा यह हालत हुई, जैसे भूखे के आगे भोजन का थाल आ गया हो. यह तृप्ति और अतृप्ति की अजब-सी ईचकदानी थी. एक झिलमिलाता आकर्षण, जो हाथ पकड़कर मुझे अपने अंदर खींचे लिए जाता था.

पहचान सीरीज की कविता-पुस्तिकाएं सचमुच कमाल की थीं. वे इतनी बढ़िया और सुरुचिपूर्ण थीं कि एक सोलह पन्ने की किताब से मैंने विष्णु खरे को संपूर्ण पा लिया था…कुछ इस तरह से कि वे अब भी मेरे जेहन से नहीं उतरे. और यही नहीं, ब्रजेश भाई ने विष्णु खरे के उस लघु संकलन से अपनी एक पसंदीदा कविता ‘दोस्त’ पढ़कर सुनाई थी जो एक पुलिस इंस्पेक्टर को लेकर लिखी गई थी. हिंदी में अपने ढंग की एक बिल्कुल अलग कविता और ब्रजेश भाई कविता के इतने बढ़िया वाचक हैं कि वह कविता जैसे मेरे भीतर नक्श होती चली गई थी और अभी तक वैसे ही नक्श है.

यह विष्णु खरे से- बजरिए ब्रजेश भाई पहली मुलाकात है और इसकी स्मृति कोई पच्चीस बरस पुरानी है. तब कभी सोचा भी न था कि मैं विष्णु खरे के इतने नजदीक आ जाऊँगा कि मेरे जैसे मामूली आदमी और मामूली लेखक को भी वे इतना प्यार देने लगेंगे.

अकेले मनु ही नहीं, मेरा और मेरे कुछ अन्य दोस्तों का भी विष्णु जी की कविता से पहला परिचय अशोक वाजपेयी की ‘पहचान’ सीरीज़ के माध्यम से ही हुआ था. कुरुक्षेत्र आने से पहले मैं सागर विश्वविद्यालय में विद्यार्थी था. उन्हीं दिनों वहां नवीन सागर, मुकेश वर्मा, वंशी माहेश्वरी और गोविन्द द्विवेदी थे. थोड़े ही दिनों में उदय प्रकाश भी आ गए. विश्वविद्यालय में खूब साहित्यिक गतिविधियां और नाटकों के मंचन होते थे. हम लोग गोष्ठियां करते, जो कुछ पढ़ते-लिखते उसे एक-दूसरे को सुनाते और चर्चा या बहसें करते. विश्वविद्यालय में प्रायः साहित्यकारों का आगमन होता रहता था. उनके सम्मान में भी अक्सर गोष्ठियां होती थीं. उन्हीं दिनों अशोक जी ने ‘पहचान’ सीरीज निकाली थी. विष्णु जी की कविता से यह हमारी पहली मुठभेड़ थी– मुठभेड़ इसलिए कि इन कविता में सर्वथा नई भाषा, नया कथ्य और नई संवेदना के साथ एक बिल्कुल नया सौंदर्य था. हम लोग चमत्कृत थे और अभिभूत भी. हमने बार-बार इन कविताओं का पाठ किया और इनकी आंतरिक शक्ति को पहचाना.

विष्णु जी से मेरी सिर्फ एक ही मुलाकात हो सकी, वह भी काफी बाद में. 2010 में जब मेरा कविता-संग्रह ‘जो राख होने से बचे हैं अभी तक’ प्रकाशित होने वाला था, तब मैं चाह रहा था कि प्रकाशन से पहले मैं अपनी पांडुलिपि अपने प्रिय कवि को दिखाऊं और अगर उन्हें पसंद तो वे ब्लर्ब भी लिख दें. तब तक मनु दिल्ली पहुंच चुके थे और विष्णु जी के सम्पर्क में आ चुके थे.

मनु ने मेरे लिए उनसे समय लिया और सुबह नौ बजे हम दोंनो उनके घर पहुंच गए. हम लोग सोचकर गए थे कि उनका ज्यादा समय न लेकर आधा-पौन घंटे में लौट आएँगे. लेकिन जितने प्रेम से उन्होंने हमें बिठाया और जिस अपनत्व से बातें कीं, वह हमें भीतर तक अभिभूत कर गया. खूब बातें हुईं. सागर विश्वविद्यालय और भोपाल का साहित्यिक वातावरण और वहां के लेखक, विश्वविद्यालयों के हिंदी विभाग, हिंदी-साहित्य और साहित्यकारों से लेकर घर-परिवार तक की बातें हुईं. उन्होंने मुझे हाल ही में आए अपने दो कविता संग्रह भी भेंट किए.

जब उन्हें पता लगा कि मैं प्राचीन इतिहास और पुरातत्व का प्राध्यापक रहा हूं, तब तो भारत और हरियाणा के पुरातत्व को लेकर वे लम्बी बातचीत करते रहे. विष्णु जी की पुरातत्व में बहुत गहरी दिलचस्पी थी. उन्होंने बताया कि अगर वे कवि न होते तो पुराविद् होना चाहते थे! मैंने उनसे वादा किया कि जब भी हरियाणा में कोई पुरातात्विक उत्खनन होगा, मैं आपको वहां ले चलूंगा. कोई पांच घंटे बाद उनके पास पांडुलिपि छोड़कर हम लोग वापस आए.

लगभग एक हफ्ते बाद उनका फोन आया कि कविताएं उन्होंने पढ़ ली हैं और उन्हें बहुत अच्छी लगी हैं और वे ब्लर्ब की बजाय एक लम्बा समीक्षात्मक लेख लिखेंगे. मेरे लिए इससे अधिक खुशी की बात और क्या हो सकती थी! वह लेख मैंने संग्रह की भूमिका के रूप दिया.

एक बात का दुख मुझे आजीवन रहेगा कि विष्णु जी की व्यस्तता या उत्खनन की अनुपलब्धता के कारण यह संयोग नहीं बन सका कि मैं उन्हें उत्खनन दिखा सकूं!

मनु अपनी पी-एच.डी. करने और कुछ समय तक हरियाणा-पंजाब में प्राध्यापकी करने के बाद दिल्ली चले गए. वहां वे हिंदुस्तान टाइम्स की बाल पत्रिका ‘नन्दन’ के सम्पादकीय विभाग से जुड़ गए.

जैसा कि मनु ने अपने संस्मरण में उल्लेख किया है, उन दिनों विष्णु जी ‘नवभारत टाइम्स’ में राजेंद्र माथुर के वरिष्ठ सहयोगी के रूप में काम कर रहे थे. मनु विष्णु जी से मिलने को उत्सुक ही नहीं, एक तरह से बेताब थे. मई 1990 में यह अवसर आ भी गया.

इस बीच अपने समय के प्रख्यात लोकयात्री और अनूठे लेखक देवेंद्र सत्यार्थी से मनु का प्रगाढ़ सम्बंध बन चुका था. मनु को इस बात का मलाल भी था कि इतने महत्वपूर्ण लेखक और फकीर जैसा जीवन जीने वाले सत्यार्थी जी को लोगों ने लगभग विस्मृत कर दिया है. उनके जन्मदिन के अवसर पर मनु ने ‘नवभारत टाइम्स’ के लिए सत्यार्थी के कार्य और व्यक्तित्व पर एक लेख लिखा. चूंकि ‘नवभारत टाइम्स’ में साहित्य का पृष्ठ भी विष्णु जी ही सम्भालते थे, इसलिए उन्हें लेख देने मनु स्वयं गए.

यद्यपि यह पहली मुलाकात थी, किन्तु यह रही बहुत दिलचस्प और नितान्त अनौपचारिक. मनु ने कुरुक्षेत्र का वाकया सुनाया और बताया कि इतना लम्बा अरसा बीत जाने के बावज़ूद उन्हें विष्णु जी की दोस्त कविता याद है. विष्णु जी को ताज्जुब हुआ और शायद खुशी भी. फिर तो ढेर सारी बातें होनी ही थीं, और हुईं भी. उन दिनों ‘नवभारत टाइम्स’ में विष्णु जी के सम्पादकीय और आठवें कालम में लिखी टिप्पणियां काफी चर्चित और कभी-कभी विवादास्पद हुई थीं. इन टिप्पणियों और उस समय की साहित्यक गतिविधियों के बारे में बड़ी देर तक बातें होती रहीं. कुल मिलाकर पहली ही मुलाकात ऐसी रही जिसमें दोनों ने ही एक-दूसरे पसंद किया. इसके बाद तो जैसे मुलाकातों का सिलसिला चल पड़ा.’नवभारत टाइम्स’ के दफ्तर में ही मनु विष्णु जी से कई बार मिले. ये सभी दर्जनों मुलाकातें जिंदादिली से भरपूर और खासी दिलचस्प थीं.

उन दिनों ‘नवभारत टाइम्स’ के दफ्तर के माहौल के बारे में मनु की टिप्पणी ध्यान देने योग्य हैः

‘‘नवभारत टाइम्स’ के दफ्तर का माहौल उन दिनों आज जैसी मनहूसियत का शिकार न था. वहां खुली सोच के इंटेलेक्चुअल लेखक और पत्रकार उन दिनों थे और उनका यह खुलापन लुभाता था. ‘नवभारत टाइम्स’ उन दिनों पत्रकारिता का शीर्ष था और मालिकों का तानाशाही शिकंजा भी उन दिनों इतना कसा हुआ नहीं था.

दरअसल उन दिनों ‘नवभारत टाइम्स’ में कई दुर्धर्ष प्रतिभाएं थीं. इन सबके शीर्ष पर थे राजेंद्र माथुर जो इन प्रतिभाओं के सर्वश्रेष्ठ ले पाने में सफल रहे. माथुर जी और विष्णु खरे में खासी प्रगाढ़ता थी. दोनों की योग्यता और तालमेल ने ‘नवभारत टाइम्स’ को सबसे अधिक तेजस्वी अखबार बनाया.’

‘नवभारत टाइम्स’ के कार्यालय और दिल्ली के साहित्यिक आयोजनों में हुई मुलाकातों के अतिरिक्त मनु अनेकों बार विष्णु जी के घर गए और उनसे खूब बातें कीं.

पुस्तक में मनु ने जो चार औपचारिक इंटरव्यूज़ दिए हैं, वे विष्णु जी को समझने की चाबियां हैं! इनमें से पहला इंटरव्यू तो मुझे कई दृष्टियों से अत्यंत विलक्षण लगता है. यह सुबह नौ बजे से लेकर शाम साढ़े सात तक चलता रहा. इतने लम्बे समय तक चलने वाला इंटरव्यू मेरी जानकारी में और कोई नहीं है. मनु ने स्वयं कहा है किः

“साढ़े सात बजे जब मैं इस इंटरव्यू का आखिरी सवाल पूछ रहा था, तो सिर्फ मेरी ही नहीं बल्कि विष्णु जी की हालत भी कुछ अजीब हो गई थी. हम दो लिबरेटिड आत्माओं की तरह थे जो शरीर के बंधन से बहुत कुछ मुक्त हो चुके थे और विचारों की दुनिया में भटक रहे थे. हालांकि ये विचार कोई अमूर्त या आध्यात्मिक विचार नहीं थे. ये वे विचार थे जिनमें हमारे समय का यथार्थ खुद को सबसे ज्यादा तीखे, विद्रोही और कठोरतम रूप में प्रकट करता है.”

सभी इंटरव्यूज बिना किसी टेप, कागज-पेन या पहले से तैयार सवाल या नोट्स के लिए गए. पूरी तरह निष्कवच, यह मनु का अपना तरीका है. दरअसल उनकी स्मरण शक्ति बहुत ही विलक्षण है, एकदम फोटोग्राफिक. सारे दिन की इतनी लम्बी-लम्बी बातचीतों को उन्होंने घर जाकर अगले दिन लगभग ज्यों का त्यों लिख लिया. किताब में पहला इंटरव्यू पूरे पचास पृष्ठों में आया है.

सम्पादक ध्रुव शुक्ल ने पहले तो बहुत ललक और आग्रह से इस इंटरव्यू कोसाक्षात्कार में प्रकाशित करने के लिए मांगा. लेकिन वे इसे छापने की हिम्मत न कर सके, क्योंकि उनके अनुसार इसमें हिंदी के कुछ माननीयों के खिलाफ़ ऐसी टिप्पणियां थीं, जिन्हें वे अपनी पत्रिका में नहीं छाप सकते और मनु इसमें से एक भी शब्द हटाने या बदलने के लिए तैयार नहीं थे. यह उनके लिए विष्णु जी के शब्दों के सम्मान की बात थी! बहरहाल, ज्ञानरंजन ने पहल में इसे बहुत आदर से छापा. जेएनयू  के विद्यार्थियों ने इसकी जेरोक्स प्रतियां वितरित कीं और बाद में इसका मराठी अनुवाद भी प्रकाशित हुआ.

विष्णु जी ने इसमें अपने अन्तःकरण का पुरजा-पुरजा खोलकर मनु के आगे रख दिया. उन्होंने बहुत खुलकर अपने जीवन, जीवन-संघर्ष, घर-परिवार, बचपन, मित्र, कविता, कविता की रचना-प्रक्रिया, साहित्य, साहित्य-जगत की हलचल, पूर्व और समकालीन कवियों का अवदान, पत्रकारिता जगत की मुश्किलें,  मीडिया, हमारा समय, समाज, राजनीति जैसे हर सम्भव विषय पर अपनी बात कही है. विष्णु जी ने इसमें न केवल अपने जीवन में हुईं भूलों बल्कि अपने अपराध-बोधों और कुंठाओं की भी स्वीकारोक्ति की है. यहां साहित्य अकादेमी और ‘नवभारत टाइम्स’ से हुई उनकी लड़ाइयों के ब्योरों का उल्लेख भी है और हिंदी-जगत के दिग्गजों पर बेबाक टिप्पणियां भी.

इंटरव्यू में आप विष्णु जी की गहन भावात्मकता, बेबाक ईमानदारी और सघन बौद्धिकता हर जगह महसूस कर सकते हैं. इनमें से मैं विष्णु जी के जीवन, और कविता की रचना-प्रक्रिया की कुछ बातों को उन्हीं के शब्दों में उद्धृत करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूं–

 

अपने बारे में

  • जो जीवन मैंने जिया या जी रहा हूं, वह पूरी तरह मेरे द्वारा चुना गया जीवन है—और यह तो मैंने बहुत पहले, लगभग किशोरावस्था में ही तय कर लिया था कि मुझे किन रास्तों पर जाना है और किन पर नहीं… आप कह सकते हैं, पंद्रह साल की उम्र में बूढ़ा हो चुका था! 

  • बचपन हमारा अभावों में गुजरा. मां गुजर गई थीं, तब मैं छह साल का था. छोटा भाई चार और बड़े भाई आठ या नौ के रहे होंगे. हम घर के सारे काम करते थे और पढ़ते थे. पढ़ने की एक अजीब धुन थी. हमें कभी कोई डांटता नहीं था, पर यह बात हमारे भीतर आ गई थी कि कक्षा में हमें अव्वल आना है. 

  • मेरे पिता आत्मलीन किस्म के व्यक्ति थे. पूरे जीवन में उन्होंने मुझसे अधिकतम बीस वाक्य कहे होंगे! इसका हम पर अजीब प्रभाव पड़ा. शायद इसी ने हमें इतनी जल्दी आत्मनिर्भर बनाया. उनकी संगीत और अध्ययन में गहरी रुचि थी. वे घर में उस जमाने की सहित्यिक पत्रिकाएं लाकर रख देते थे. उन्होंने कभी हमसे कहा नहीं कि इन्हें पढ़ो. मतलब पढ़ना हो पढ़ो, नहीं तो मत पढ़ो. 

  • पंद्रह वर्ष की उम्र में मैंने कामचलाऊ कविता लिखना शुरू कर दिया था. पहली कविता ‘मौत और उसके बाद’ सत्रह वर्ष की आयु में नागपुर से प्रकाशित साप्ताहिक ‘सारथी’ में प्रकाशित हुई. सम्भवतः उस समय उसमें मुक्तिबोध अनाम ढंग से साहित्य-संपादक थे. 

  • लिखे बगैर मैं कुछ हूं ही नहीं, लिखना, पढ़ना,सोचना मेरे लिए इस कदर लाजमी है कि मैं रह ही नहीं सकता इनके बगैर…इसलिए मैं लेखक बनूं या न बनूं, यह सवाल मेरे सामने कभी आया ही नहीं. 

  • जिंदगी भर नौकरियां पकड़ने-छोड़ने का एक सिलसिला चला. विदेशों में भी लेखक अपने सोच के लिए नौकरियां छोड़ रहे हैं—लेखक विद्रोह नहीं करेगा तो करेगा कौन! 

  • मैंने अपने जीवन में किसी को साहित्यिक गुरु नहीं बनाया. मैं किसी का झोला उठाकर नहीं चला. आज तक किसी के पैर नहीं छुए. हालांकि सम्माननीय महिलाओं के पैर छूने में मुझे जरा भी हिचक नहीं होती.

 

रचना-प्रक्रिया

  • मैं बहुत आत्मसजग कवि हूं… मैं जब लिखता हूं तो पूरे होशहवास में लिखता हूं और एक-एक शब्द अपनी इच्छा से चुनता हूं, उसके पूरे अर्थ, खतरे और निहितार्थों के बारे में थाशक्ति जानते हुए.

  • कविता मैं खाली हाथ नहीं लिखता. कविता मैं सिर्फ बुद्धि से नहीं, अपने मेटाबालिज्म से लिखना चाहता हूं, पैरों से, कानों से, मुंह से, आंखों से, कविता मैं पूरी त्वचा से लिखना चाहता हूं! 

  • कविता लिखने के लिए मुझे एकान्त जरूर चाहिए. कविताएं मैं अक्सर रात को ही लिख पाता हूं—जब बिल्कुल सन्नाटा हो. 

  • कविताएं मैं बहुत ज्यादा नहीं लिख पाता, लिखना चाहता भी नहीं हूं. 

  • मैं टुकड़ों-टुकड़ों में कविता के बारे में सोच ही नहीं सकता. कविता मेरे लिए बड़ी कठिन चीज है. वह मुझ पर बड़ी मुश्किल से उतरती है और कभी-कभी तो उसे लिखने में सालों लग जाते हैं. उदाहरण के लिए “चौथा भाई” कविता—उसे मैं न जाने कब से लिखना चाहता रहा हूं. 

  • अक्सर मैं लम्बी और जटिल कविताएं लिखता हूं जिनमें कई अनुभव और प्रभाव एक साथ आते हैं. इकहरे अनुभव और हल्के प्रभाव वाली कविताएं मैंने नहीं लिखीं.

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Tags: प्रकाश मनुविष्णु खरे
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Comments 3

  1. चन्द्रकला त्रिपाठी says:
    4 years ago

    पढ़ लिया। प्रकाश मनु संबंधों में आत्मीयता का सुवास भरते हैं। देवेंद्र सत्यार्थी जी पर उनका लिखा पढ़ा है। रचनाकार के आत्मसंघर्ष में अभावों का संदर्भ उसकी मानवीय नैतिक मजबूतियों का सन्दर्भ हो कर आता है। विष्णु खरे कबीर के राग और संघर्ष के कवि हैं। बहुत बीहड़ होने के बावजूद उनकी कविताएं मन में अटकती हैं। अच्छा आलेख।

    Reply
  2. गिरधर राठी says:
    4 years ago

    ब्रजेश कृष्ण जी ने विष्णु खरे और प्रकाश मनु , दोनों को अनेक पाठकों का आत्मीय सहचर बना दिया है।

    Reply
  3. Sanjeev buxy says:
    4 years ago

    विष्णु खरे जी से मेरे बहुत ही आत्मीय संबंध रहे ।खासकर मेरा उपन्यास भूलन कांदा आया तो उसे पढ़ने के बाद उन्होंने मुझे फोन किया और इस विषय पर चर्चा करने के लिए मुंबई बुलाया। मैं और रमेश अनुपम दोनों उनसे मिलने मुंबई गए और इसी समय 2 दिनों तक उनसे काफी बातें हुई ।उन्होंने ब्लर्ब लिखने के लिए भी अपनी सहमति दें दी और बहुत अच्छा लिखा भी ।विष्णु खरे जी को लेकर प्रकाश मनु जी से भी मेरी बातें होती रही तथा उनकी यह किताब मैंने खरीदी और पढ़ी।वे बड़े आत्मीय हैं।

    Reply

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