पंडित ठाकुरदत्त शर्मा
आयुर्वेद, विज्ञापन और ब्रांड का निर्माणशुभनीत कौशिक
अगर आज कोई बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में हिंदुस्तान के अखबारों या पत्रिकाओं के पन्ने पलटे तो उन पन्नों में छपे विज्ञापनों की संख्या को देखकर वह निश्चित ही अचरज से भर उठेगा. यह बात अंग्रेजी की पत्र-पत्रिकाओं के लिए उतनी ही सही है, जितनी कि हिंदी में छपने वाले अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं के लिए. ‘आज’, ‘माधुरी’ ‘सुधा’ ‘चांद’ जैसे पत्र-पत्रिकाओं के पन्ने-दर-पन्ने विज्ञापनों से भरे रहा करते थे. इन विज्ञापनों में एक बड़ा हिस्सा दवाइयों के विज्ञापन का भी था. अकारण नहीं कि उर्दू के प्रसिद्ध शाइर अकबर इलाहाबादी ने लिखा था:
मुझे भी दीजिए अखबार का वरक़ कोई
मगर वह जिसमें दवाओं का इश्तिहार ना हो
जहाँ तक दवाओं, टॉनिक आदि के विज्ञापन का सवाल था तो आरम्भ में यूरोपीय उत्पादों के विज्ञापनों का बोलबाला रहा. धीरे-धीरे डाबर, झंडु जैसे कुछ मशहूर भारतीय ब्रांड भी परिदृश्य में आए, जिनके विज्ञापन तब के अख़बारों और पत्रिकाओं में अक्सर दिखाई पड़ने लगे.[i] ऐसा ही एक ब्रांड जो बीसवीं सदी के हिंदी-अंग्रेज़ी के अखबारों में विज्ञापनों की शक्ल में छाया रहा करता था, वह था ‘अमृतधारा’ का. ‘अमृतधारा’ नाम से दिए जाने वाले ये विज्ञापन लाहौर की अमृतधारा फार्मेसी द्वारा दिए जाते थे. यद्यपि इस फार्मेसी के अन्य उत्पाद भी थे, जैसे साबुन, टैबलेट, टॉनिक आदि. लेकिन ‘अमृतधारा’ ही इस फार्मेसी का सबसे प्रसिद्ध उत्पाद था. ‘अमृतधारा’ की लोकप्रियता का आलम यह था कि उन दिनों डाक विभाग द्वारा अमृतधारा फ़ार्मेसी को अलग से एक डाकघर ही आवंटित किया गया था. अचरज की बात नहीं कि अमृतधारा फार्मेसी के पते में केवल दो शब्द होते थे – अमृतधारा, लाहौर.
आयुर्वेदिक उद्यमी का बनना : ठाकुरदत्त शर्मा का आरंभिक जीवन
अमृतधारा फार्मेसी के संस्थापक थे – पंडित ठाकुरदत्त शर्मा, जो ख़ुद एक प्रसिद्ध वैद्य थे. ठाकुरदत्त शर्मा आयुर्वेदिक पत्रिका ‘देशोपकारक’ के संस्थापक-संपादक भी थे. यही नहीं उन्होंने हिंदी और उर्दू में स्वास्थ्य, जीवनशैली, रोग एवं उनके निदान जैसे विषयों पर दर्जनों किताबें लिखी थीं. ठाकुरदत्त शर्मा का जन्म अमृतसर जिले के फतेहवाला गाँव में 1880 में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था.[ii] परिवार की आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण उनकी पढ़ाई नियमित न हो सकी. गाँव के नजदीक स्थित एक प्राइमरी स्कूल में उनका नाम लिखाया गया, जहाँ उन्होंने चौथी दर्जे तक पढ़ाई की. वह आगे अपनी पढ़ाई करना तो चाहते थे, लेकिन दुर्भाग्य से उनका परिवार इसके लिए तैयार नहीं था. आखिरकार एक दिन वे गाँव से निकलकर अमृतसर पहुँच गए, जहाँ उन्होंने खालसा स्कूल में अपना नाम लिखवाया. बाद में वे वहाँ से पटियाला गए और अपनी बहन के पास ठहरे. मगर कुछ ही समय बाद विवश होकर फिर से उन्हें अमृतसर वापस लौटना पड़ा. अबकी बार उन्होंने हिंदू सभा हाईस्कूल में अपना नाम लिखवाया, जहाँ से उन्होंने दसवीं की पढ़ाई अच्छी नंबरों से पास की. इसके चलते उन्हें एक सरकारी फैलोशिप भी मिली, जिसके अंतर्गत 10 रुपए माहवार मिला करते थे. इसके बाद उन्होंने लाहौर के एक कॉलेज में अपना नाम लिखवाया, लेकिन तब तक चिकित्सा के क्षेत्र में उनकी गहरी दिलचस्पी पैदा हो चुकी थी. लाहौर में वे एक हकीम के संपर्क में आए, जिससे उन्होंने यूनानी चिकित्सा के बारे में जाना. कुछ समय बाद उन्होंने कॉलेज की पढ़ाई छोड़ दी और जम्मू क्षेत्र से आने वाले दो वैद्यों – बाबा विष्णु दास और पंडित जगत राम – से उन्होंने आयुर्वेद की पढ़ाई की.
कुछ समय बाद विष्णु दत्त शर्मा ने अपने पिता से एक आयुर्वेदिक फार्मेसी लाहौर में खोलने के लिए आर्थिक मदद मांगी. लेकिन उनके पिता ने इसमें कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई क्योंकि वे चाहते थे कि ठाकुरदत्त शर्मा कोई सरकारी नौकरी करें या नहर विभाग में पटवारी बन जाएँ. आख़िरकार मजबूर होकर ठाकुरदत्त शर्मा लाहौर वापस लौटे और अपनी आजीविका चलाने के लिए उन्होंने रेलवे ऑफिस में 15 रुपए महीने की पगार पर नौकरी कर ली. इसी बीच उन्होंने एक मकान भी किराए पर लिया, जहाँ उन्होंने आयुर्वेदिक चिकित्सा शुरू कर दी. रेलवे ऑफिस में दिनभर काम करने के बाद जब शर्मा वापस लौटते तो अपने आयुर्वेदिक चिकित्सालय पर जमा रोगियों का इलाज करते थे. वर्ष 1904 में ही उन्होंने आयुर्वेदिक पत्रिका ‘देशोपकारक’ का प्रकाशन आरंभ किया, जो उर्दू में छपा करती थी. आगे चलकर लाहौर में उन्होंने देशोपकारक पुस्तकालय की भी स्थापना की, जिसके माध्यम से उनके द्वारा रचित साहित्य का वितरण किया जाता था.
एक साधारण आर्थिक पृष्ठभूमि वाले परिवार में जन्मे ठाकुरदत्त शर्मा ने जिस तरह अमृतधारा फ़ार्मेसी जैसा विराट उद्यम खड़ा किया, वह निश्चय ही उत्तर भारतीयों के लिए प्रेरणादायी प्रसंग रहा होगा. अकारण नहीं कि ‘माधुरी’ जैसी पत्रिकाओं ने ‘अमृतधारा’ के विज्ञापनों के साथ-साथ ठाकुरदत्त शर्मा की संक्षिप्त जीवनी को भी पत्रिका के पन्नों पर जगह दी.
आयुर्वेदिक संगठनकर्ता के रूप में ठाकुरदत्त शर्मा
ठाकुरदत्त शर्मा राष्ट्रवादी नेता और यूनानी पद्धति के मशहूर चिकित्सक हकीम अजमल खाँ (1868- 1927) के भी काफी करीबी थे. ग़ौरतलब है कि हकीम अजमल खाँ ने हिंदुस्तान के हकीमों और वैद्यों को संगठित करने के लिए वर्ष 1910 में ‘ऑल इंडिया आयुर्वेदिक एंड यूनानी तिब्बी कॉन्फ्रेंस’ बनाई थी. इस कांफ्रेंस ने ब्रिटिश भारत की सरकारी नीतियों के संदर्भ में आयुर्वेदिक और यूनानी पद्धति के चिकित्सकों की आवाज उठाने के लिए राष्ट्रीय प्लेटफार्म मुहैया कराया.[iii] ठाकुरदत्त शर्मा न केवल इस कांफ्रेंस से जुड़े हुए थे बल्कि इसके द्वारा आयोजित किए जाने वाले सालाना सम्मेलनों में भी वे बराबर शरीक होते थे. यही नहीं वर्ष 1913 में अमृतसर में हुए आयुर्वेदिक एंड यूनानी तिब्बी कॉन्फ्रेंस के सालाना सम्मेलन के आयोजन में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.[iv]
बीसवीं सदी के आरंभ में औपनिवेशिक भारत की सरकार के समक्ष आयुर्वेदिक और यूनानी पद्धति के चिकित्सकों की मांग रखने वाले कई प्रतिनिधि मंडलों में भी ठाकुरदत्त शर्मा शामिल रहे थे. देशज पद्धति के चिकित्सकों की ऐसी ही एक समिति मार्च 1917 में दिल्ली में सातवें ऑल इंडिया आयुर्वेदिक एंड यूनानी तिब्बी कॉन्फ्रेंस के मौक़े पर बनाई गई थी. यह समिति मद्रास के खान बहादुर मीर असद अली खान द्वारा इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल में दिसंबर 1916 में पारित एक प्रस्ताव के संदर्भ में बनी थी. असद अली खान का उक्त प्रस्ताव वैज्ञानिक पद्धति के आधार पर प्राचीन और देशज चिकित्सा पद्धतियों में बदलाव लाने से जुड़ा हुआ था.
उपर्युक्त प्रस्ताव को लेकर भारत सरकार ने प्रांतीय सरकारों और स्थानीय लोगों व विशेषज्ञों से उनकी प्रतिक्रियाएं मांगी थीं. लेकिन जहाँ तक आयुर्वेदिक और यूनानी पद्धति के चिकित्सकों का सवाल था तो प्रांतीय सरकारों द्वारा दी गई प्रतिक्रिया उनके हिसाब से न तो संतोषजनक थी और न ही पर्याप्त. इसलिए आयुर्वेदिक एंड यूनानी तिब्बी कांफ्रेंस ने एक उप-समिति नियुक्त की, जिसे भारत सरकार द्वारा माँगे गए सवालों का जवाब तलाशने और उसके द्वारा मांगी गई जानकारियों के सिलसिले में सटीक तथ्य इकट्ठा करने का काम सौंपा गया.[v]
उक्त समिति में कुल बारह सदस्य थे. जिनमें पंडित ठाकुरदत्त शर्मा के अलावा हकीम अजमल खाँ (दिल्ली), राय बहादुर लाला सुखबीर सिंह (मुजफ्फरनगर), हृदय नारायण, शिव नारायण शर्मा (दिल्ली), हामिद अली खाँ (लखनऊ), राय बहादुर लाला सुल्तान सिंह (दिल्ली), पंडित अमरचंद कविराज (बनारस), पंडित शिवराम वैद्य (इलाहाबाद) पंडित जद्दूजी त्रिकमजी आचार्य (बम्बई), कविराज गणनाथ सेन (कलकत्ता), पंडित गोपाल चारलू (मद्रास) शामिल थे. इस पूरी मुहिम में पश्चिमी चिकित्सा पद्धति के बरअक्स देशज चिकित्सा पद्धतियों के मानकीकरण, हकीमों और वैद्यों के संगठनों के निर्माण की ऐतिहासिक परिघटना भी शामिल थी.[vi]
अमृतधारा : ‘रामबाण दवा’ के विज्ञापन
ठाकुरदत्त शर्मा ने वर्ष 1901 में एक आयुर्वेदिक औषधि तैयार की, जिसे उन्होंने आरंभ में ‘अमृत की धारा’ नाम दिया. दो साल बाद वर्ष 1903 में उन्होंने इस औषधि का नाम बदलकर ‘अमृतधारा’ रख दिया. इसी क्रम में, वर्ष 1907 में उन्होंने 1877 के रजिस्ट्रेशन अधिनियम 3 के अंतर्गत अमृतधारा का रजिस्ट्रेशन करा लिया.
अमृतधारा के विज्ञापन बीसवीं सदी के दूसरे दशक से ही ‘ट्रिब्यून’ और ‘बॉम्बे क्रॉनिकल’ जैसे अंग्रेज़ी के अख़बारों में छपने लगे थे. पत्र-पत्रिकाओं में छपने वाले अमृतधारा के विज्ञापनों में अक्सर यह दावा किया जाता था कि यह एक ऐसी औषधि है जो सभी रोगों को दूर कर सकती है. इन विज्ञापनों में इन्फ्लूएंजा, प्लेग, निमोनिया, हैजा जैसी गम्भीर और जानलेवा बीमारियों से लेकर ज्वर, खांसी, अजीर्ण, नजला, जुकाम जैसी रोज़मर्रा की बीमारियों तक में, वात, पित्त, कफ के रोगों में, सिर, नाक, दांत, पेट, जोड़ आदि की पीड़ाओं के इलाज के लिए और यहाँ तक कि साँप और बिच्छू आदि के डंक में भी अमृतधारा को कारगर बताया गया.
‘माधुरी’ पत्रिका में वर्ष 1934 में छपे अमृतधारा के एक ऐसे ही विज्ञापन में कहा गया :
हैज़ा अचानक आता है और आपको चिकित्सक या उत्तम औषधि ढूँढने का अवसर ही नहीं देता इसलिए – सर्वश्रेष्ठ तथा अचूक चिकित्सक अमृतधारा की 1 शीशी सदैव अपनी जेब में रक्खें, जो आपत्ति काल में आपकी तत्काल सहायता करेगी. अमृतधारा प्रायः प्रत्येक महामारी के लिए सर्वश्रेष्ठ प्रतिबंधक और रोगनाशक औषधि है. विशेषकर इस ऋतु में आमाशय के सम्पूर्ण रोगों तथा अन्य घरेलू कष्टों के लिए यह एकमात्र औषधि है.[vii]
अमृतधारा के अलावा फार्मेसी ने साबुन, लोशन, मीठी टिकिया, मरहम और बाम भी बनाए थे. साबुन के विज्ञापन में कहा गया था कि
‘यह अद्वितीय है क्योंकि यह साबुन रोज बरतने के वास्ते भी अति उत्तम है और साथ ही चर्म रोगों के लिए भी गुणकारी है. पित्ती, खुजली, दाद, फुंसी, एग्जीमा, मुखछाई, मुहाँसा आदि शीघ्र दूर करता है. मैल भी दूसरे सोपों से अधिक उतारता है.’
अमृतधारा लोशन के विज्ञापन में कहा गया कि
‘मुख और गले के सर्व नए और पुराने रोगों के लिए यह लोशन संसार भर में अद्वितीय है. कृमिनाशक, विशूचिका, प्लेग, इन्फ्लूएंजा, मलेरिया इत्यादि रोगों के दिनों में अमूल्य वस्तु है.’ अमृतधारा मरहम के बारे में कहा गया कि ‘यह चर्म रोगों की अद्वितीय औषधि है. इससे सब प्रकार के घाव, चोट, रगड़, फुंसी, एग्जीमा, खाज, छाले, हाथ पांव का फटना, उपदंश के घाव, अर्श, मस्से, मच्छर आदि के डंक, आग, उष्ण जल व तेज़ाब से जलना सब इससे दूर हो जाते हैं. बड़े-बड़े गहरे घाव इतनी जल्दी भरने शुरू हो जाते हैं कि बड़े-बड़े डॉक्टर चकित रहते हैं. इसको मलने से पट्टों का दर्द दूर हो जाता है.’
ऐसे ही अमृतधारा की मीठी टिकिया के बारे में कहा गया कि
‘कई मनुष्यों के लिए औषधि खाना कठिन होता है बालक को भी औषधि देना कठिन है. इसी वास्ते यह मीठी टिकिया तैयार की गई है जो कि मिठाई के तौर पर बालक तक भी बड़े आनंद से खाते हैं. बालकों को शूल, दस्त, हैज़ा, ज्वर, खांसी, पसली आदि सब रोगों में दे सकते हैं.’
और अमृतधारा बाम के विषय में कहा गया कि यह शरीर की ऊपरी पीड़ाओं के लिए है इसका मर्दन स्नायु तथा मांसपेशियों की पीड़ाओं के लिए बहुत ही लाभदायक है.
अमृतधारा के इन विज्ञापनों में विज्ञापक का पता कुछ यूँ दर्ज होता था:
मैनेजर, अमृतधारा औषधालय, अमृतधारा भवन, अमृतधारा सड़क, अमृतधारा पोस्ट ऑफिस, लाहौर.
पते की ये पंक्ति, उसमें फ़ार्मेसी के नाम और सड़क से लेकर डाकघर तक ‘अमृतधारा’ का दुहराव, लाहौर शहर के भौगोलिक मानचित्र पर अमृतधारा के ब्रांड को टाँकती हुई मालूम पड़ती हैं. पाठकों के ज़ेहन पर भी इन पंक्तियों के प्रभावकारी असर से इंकार नहीं किया जा सकता.
विज्ञापनों में अमृतधारा से लेकर किए जाने वाले दावे यहीं तक नहीं रुके. अमृतधारा के विज्ञापनों में इसे सिर्फ मनुष्यों की औषधि ही नहीं बल्कि पशुओं तक को स्वस्थ करने वाली औषधि के रूप में प्रचारित किया गया. ऐसी औषधि जो लाइलाज और असाध्य रोगों का भी इलाज कर सकती थी. आज के समय में आयुर्वेदिक औषधि बनाने वाली कम्पनियों द्वारा जो अतिरंजित दावे किए जाते हैं, उनकी शुरुआत हम ‘अमृतधारा’ के इन विज्ञापनों में देख सकते हैं.
अमृतधारा के अलावा अमृतधारा फार्मेसी ने कुछ अन्य पेटेंट ड्रग भी बेचे, जो हृदय से जुड़ी बीमारियों, पेट की बीमारी, बवासीर, गोनोरिया, सिफलिस सरीखे रोगों के लिए कारगर बताए गए. अमृतधारा फ़ार्मेसी की इन दवाइयों के विज्ञापन में उन्हें प्रायः वटी, अक्सीर, तिला या सिर्फ औषधि भी कहा जाता था. मसलन, बलपूर वटी (आतशक, सोजाक, अर्श, गठिया, दर्द कमर, निर्बलता, सिर दर्द, अर्धवात, अर्धँग आदि रोगों के लिए), दर्द शिकन (शरीर में किसी भी जगह होने वाले दर्द के लिए), बला दूर (अफ़ीम की लत छुड़ाने के लिए), गंधार रस (अतिसार, मरोड़, संग्रहणी के लिए), फलघृत (गर्भाशय के विकारों को दूर करने के लिए), पताली (ऋतुस्राव सम्बन्धी विकार के लिए). आंखों के लिए सुरमा और दाँत के लिए मंजन भी अमृतधारा फार्मेसी द्वारा बेचे जाते थे.
‘अमृतधारा’ के प्रसार और रोज़मर्रा जीवन में उसकी उपस्थिति का कुछ अंदाज़ा इस बात से भी लगता है कि रांगेय राघव सरीखे प्रसिद्ध उपन्यासकारों की ‘आग की प्यास’ जैसी साहित्यिक कृतियों में भी ‘अमृतधारा’ का उल्लेख आता है. हास्य-व्यंग्यकार बेढब बनारसी अपनी एक चर्चित व्यंग्य-कथा ‘चिकित्सा का चक्कर’ में लिखते हैं:
एकाएक तीन बजे रात को नींद खुली. नाभि के नीचे दाहिनी ओर पेट में मालूम पड़ता था, कोई बड़ी-बड़ी सुइयाँ लेकर कोंच रहा है. परंतु मुझे भय नहीं मालूम हुआ, क्योंकि ऐसे ही समय के लिए औषधियों का राजा, रोगों का रामबाण, अमृतधारा की एक शीशी सदा मेरे पास रहती है. मैंने तुरंत उसकी कुछ बूँदें पान कीं. दो बार दवा पी. तिबारा. पीत्वा पीत्वा पुनः पीत्वा की सार्थकता उसी समय मुझे मालूम हुई. प्रातः काल होते-होते शीशी समाप्त हो गई. दर्द में किसी प्रकार कमी न हुई. प्रातः काल एक डाक्टर के यहाँ आदमी भेजना पड़ा.
यह व्यंग्य इस अर्थ में दिलचस्प है कि जहाँ एक ओर यह अमृतधारा की लोकप्रियता और घरेलू परिवेश में उसकी सार्वभौम उपस्थिति को इंगित करता है, वहीं दूसरी ओर औषधि के रूप में अमृतधारा के दावों की हक़ीक़त भी बता देता है. इतिहासकार डगलस हेंस ने अपने एक लेख में ‘बॉम्बे क्रॉनिकल’ में बीसवीं सदी के दूसरे दशक से लेकर पाँचवें दशक तक छपे ‘अमृतधारा’ के विज्ञापनों की चर्चा की है. डगलस हेंस तीस के दशक में अमृतधारा के विज्ञापनों की डिज़ाइन में आते बदलावों और विज्ञापन में होने वाले बड़े पैमाने के निवेश की भी चर्चा करते हैं.[viii]
उल्लेखनीय है कि इस समय तक आते-आते विज्ञापन डिज़ाइन करने वाली एजेंसियाँ भी अस्तित्व में आ चुकी थीं. आश्चर्य नहीं कि कुछ इसी समय ‘जागरण’ में लिखे अपने एक सम्पादकीय में प्रेमचंद लखनऊ की एक ऐसी ही एडवर्टाइज़िंग एजेंसी की चर्चा इन शब्दों में करते हैं:
हमारे समाचार पत्रों में अधिकांश विज्ञापन बड़े भद्दे ढंग के, कुरुचिपूर्ण तथा नीरस होते हैं. यदि विज्ञापन की चीज नहीं बिकती, तो वह समाचार-पत्र को दोष देता है. अपना दोष उसे क्या मालूम? हर्ष है कि इन बातों की ओर हमारे देशवासियों का भी ध्यान आकृष्ट हो रहा है. लखनऊ में, लाटूश रोड पर एक उत्साही सज्जन ने ‘एफेक्टिव एडवरटाइजिंग एजेंसी’ नाम से एक कंपनी खोली है, जो केवल दूसरों का विज्ञापन ही बनाएगी. इस संस्था के बनाए कुछ विज्ञापन हमने समाचार-पत्रों में छपे देखे हैं, इसके संचालक मि. सेठ का एक लेख दैनिक ‘वर्तमान’ में भी पढ़ा था. इन बातों से बह सिद्ध होता है कि उन्हें अपनी कला का वास्तविक ज्ञान है. आशा है, यह संस्था उन्नति करेगी विज्ञापक लोग इस संस्था से लाभ उठावेंगे.[ix]
आख़िर वैद्यों और हकीमों को अख़बारों में विज्ञापन देने की ज़रूरत क्यों हुई, इस सवाल का जवाब देते हुए इतिहासकार माधुरी शर्मा ने लिखा है कि औपनिवेशिक काल में पहले से चली आ रही प्रश्रय (पैट्रनेज) की पूरी प्रणाली दरकने लगी थी. इसलिए वैद्यों और हकीमों ने विज्ञापनों की ओर रुख़ किया, इससे उनका प्रसार क्षेत्र पहले की तुलना में कहीं अधिक बड़ा हुआ.[x]
तीस और चालीस के दशक में अमृतधारा के अलावा और भी आयुर्वेदिक फ़र्में थीं, जिनके विज्ञापन हिंदी की पत्र-पत्रिकाओं में प्रायः छपा करते थे. मसलन, मथुरा की हरिदास एंड कम्पनी (असली नारायण तेल, कृष्णविजय तेल, वातगज केसरी अर्क़, महायोगराज गूगल, गोली गठिया, अर्क़ खून सफ़ा, अर्क़ रूसा, मूत्र रोगांतक चूर्ण, मस्तक शूल नाशक तेल, कामिनी रंजन तेल आदि), काठियावाड़ का आतंकनिग्रह औषधालय (आतंकनिग्रह गोलियाँ), अजमेर का सहस्रधारा डिपो (सहस्रधारा, बालबंधु), कलकत्ता का भारत-भैषज्य-भंडार (धातुपौष्टिक योग, गर्भदाता योग), जामनगर की मदनमंजरी फ़ार्मेसी और दरभंगा का साधु औषधालय आदि.
ठाकुरदत्त शर्मा का लेखकीय व्यक्तित्व
उद्यमी होने के साथ-साथ बतौर लेखक ठाकुरदत्त शर्मा ने वैद्यक और आयुर्वेद से जुड़ी अनेक छोटी-बड़ी पुस्तकों की रचना की. किताबों में उनके नाम के साथ ‘कवि विनोद वैद्यभूषण’ जैसी उपाधियों का भी ज़िक्र होता था. उन्होंने चिकित्सा के क्षेत्र में विभिन्न बीमारियों जैसे चेचक, मलेरिया, प्लेग पर पुस्तक लिखी. जिसमें इन बीमारियों की रोकथाम, उनकी पहचान और उनसे जुड़ी सावधानियों के बारे में बताया गया. उनकी कुछ किताबें हैं : ऋतुचर्य्या, शिशुपालन, कोष्ठबद्धता, दोष ज्ञान और शीतला. उनकी इन पुस्तकों के कई संस्करण छपे और प्रायः हर संस्करण हज़ार प्रतियों का निकला करता था. यह सारी किताबें अमृत प्रेस द्वारा छापी गई थीं. जिनका स्वामित्व अमृतधारा फार्मेसी के पास ही था.
मसलन, वर्ष 1924 में प्रकाशित उनकी किताब ‘कोष्ठबद्धता’ को ही लें. क़ब्ज़ (कोष्ठबद्धता) के बारे में लिखी गई इस किताब के पहले संस्करण की एक हज़ार प्रतियाँ छपी थीं. जिसमें उन्होंने क़ब्ज़ के प्रकार और उसके कारण, निदान और चिकित्सा का पूरा ब्यौरा दिया था.[xi] इसी तरह उन्होंने ‘ऋतुचर्य्या’ नामक अपनी पुस्तक में ऋतु के अनुसार स्वास्थ्य सम्बन्धी नियम, सैर, व्यायाम, आहार, व्यवहार, स्नान, वस्त्र आदि का विवरण देने के साथ ही हर ऋतु में होने वाले रोगों और उनके इलाजों के बारे में विस्तार से बताया.[xii]
अपनी पुस्तक ‘शीतला’ में ठाकुरदत्त शर्मा चेचक के कारणों, निदान और चिकित्सा का ब्यौरा देते हैं. शीतला के टीके और शीतला के इलाज से जुड़े कुछ भ्रमों का निवारण भी इस किताब में वे करते हैं.[xiii] वर्ष 1931 में ठाकुरदत्त शर्मा की किताब ‘जीवन की आवश्यकताएँ’ अमृत प्रेस से प्रकाशित हुई. पहले संस्करण में किताब की एक हज़ार प्रतियाँ छपी थीं, जिनकी क़ीमत थी एक रुपए. किताब की प्रस्तावना में ठाकुरदत्त शर्मा ने लिखा कि
‘जीवन की आवश्यकताओं में वैद्यक, यूनानी और डाक्टरी तीनों विधियों से ही वर्णन किया गया है और हमें आशा है कि पाठक गण इसको अन्य पुस्तकों से जिनमे केवल डाक्टरी अथवा केवल हिंदुस्थानी मत के अनुसार ही लिखा जाता है बहुत अच्छा पायेंगे.’[xiv]
जाहिर है कि ऐसा लिखते हुए ठाकुरदत्त शर्मा आयुर्वेद, यूनानी और पश्चिमी चिकित्सा पद्धति में एक शक्ति-संतुलन स्थापित करने की भी कोशिश कर रहे थे.
पाठकों से आत्मीयता स्थापित करने का प्रयास भी उनकी किताबों में दिखाई पड़ता है. अकारण नहीं कि उनकी प्रायः सभी किताबों के आरम्भ में पाठकों के नाम एक पत्र ज़रूर होता था, जिसमें लिखा होता था :
आप जिस प्रेम से मेरी रचित पुस्तकों को खरीदते, पढ़ते, और उनका आदर करते हैं, उसके लिए जितना आप को धन्यवाद दूं थोड़ा है. जब पहिले पहिले मैंने इस कार्य को आरम्भ किया था, और प्रत्येक विषय पर छोटी छोटी परन्तु सम्पूर्ण आवश्यक बातों से पूर्ण पुस्तकों को लिखना आरम्भ किया था, तो मुझे सन्देह था, कि पबलिक मेरी सेवा स्वीकार करेगी या नहीं? परन्तु मैं प्रसन्न हूं, कि मेरी आशाओं से बढ़ कर आदर किया गया है.
ठाकुरदत्त शर्मा ने यूरोप की यात्रा भी की थी, जिसका विवरण उनके यात्रा-वृत्तांत ‘यूरोप यात्रा’ में मिलता है. इस किताब में इंग्लैंड, फ़्रांस, जर्मनी, बेल्जियम, स्विटजरलैंड, इटली, ऑस्ट्रिया जैसे देशों के विवरण मिलते हैं. उनकी यह पुस्तक पहले उर्दू में छपी और बाद में हिंदी में भी प्रकाशित हुई. अमृतधारा प्रेस से हिंदी और उर्दू में छपी कुछ और पुस्तकें हैं : प्लेग प्रतिबंधक, प्रसूतकाल, विष-चिकित्सा (दो खंडों में), रस-हृदय-तंत्र, गुप्तप्रकाश, हिस्ट्रिया आदि.[xv]
आज़ादी और विभाजन के बाद जब अमृतधारा फार्मेसी का कार्यालय लाहौर से देहरादून आया, तो वहाँ भी पुस्तकों के प्रकाशन का काम जारी रहा. देहरादून में ‘पंडित ठाकुरदत्त शर्मा ट्रस्ट’ बना, जिसने स्वामी ब्रह्ममुनि परिव्राजक लिखित ‘आर्ष-योग-प्रदीपिका’ जैसे ग्रंथों का प्रकाशन किया. साफ़ है कि अमृतधारा जैसी औषधियों के अलावा दर्जनों की संख्या में पुस्तकों के प्रकाशन और उनकी बिक्री से भी ठाकुरदत्त शर्मा को अच्छा-ख़ासा मुनाफ़ा हासिल हुआ होगा. मगर मुनाफ़े की यह कहानी विवादरहित नहीं थी.
अमृतधारा से जुड़े कानूनी विवाद
1947 में हिंदुस्तान के बंटवारे के बाद अमृतधारा फार्मेसी का कार्यालय लाहौर से देहरादून आ गया. इससे पहले तीस के दशक में अमृतधारा फ़ार्मेसी की औषधियों के स्थानीय वितरण की शाखाएँ लखनऊ के एबट रोड और बम्बई में प्रिंसेस स्ट्रीट पर भी खुल चुकी थी.[xvi] आजादी के बाद अमृतधारा के इर्द-गिर्द विवादों का सिलसिला शुरू हुआ. यह विवाद ‘अमृतधारा’ को ट्रेडमार्क के रूप में बरतने और ‘अमृतधारा’ शब्द पर अमृतधारा फार्मेसी के विशेषाधिकार से जुड़ा हुआ था. ट्रेडमार्क से जुड़ा यह मामला इलाहाबाद उच्च न्यायालय में दायर हुआ और इस पर अंतिम निर्णय 14 दिसंबर 1956 को जस्टिस देसाई द्वारा सुनाया गया. यह मामला राम रखपाल द्वारा दायर किया गया था, जो मुरादाबाद स्थित दर्दनाशक दवाखाना के स्वामी थे. रोचक बात यह है कि यह दवाखाना ‘अमृत सुखजीवन धारा’ नामक एक औषधि बना रहा था और इसका नाम ही इस पूरे विवाद की जड़ थी. अमृतधारा फार्मेसी और ठाकुरदत्त शर्मा इस पर अपना कड़ा विरोध जता रहे थे.[xvii]
ग़ौरतलब है कि आज़ादी से पाँच बरस पहले, अगस्त 1942 में, ठाकुरदत्त शर्मा ने बम्बई के ट्रेडमार्क्स रजिस्ट्रार के समक्ष ‘अमृतधारा’ ट्रेडमार्क के पंजीकरण के लिए आवेदन किया था. रजिस्ट्रार ने इसे ट्रेडमार्क्स जर्नल में विधिवत प्रचारित करने के बाद 1946 में पंजीकृत कर दिया. आज़ादी के दो साल बाद रजिस्ट्रार द्वारा अमृतधारा ट्रेडमार्क का पुनः पंद्रह सालों के लिए नवीनीकृत कर दिया गया था. ट्रेडमार्क की रजिस्ट्री से जुड़े इन सबूतों को मद्देनज़र रखते हुए जस्टिस देसाई ने इस मुक़दमे में अमृतधारा फार्मेसी के पक्ष में फ़ैसला सुनाया.
अमृतधारा फार्मेसी से संबंधित एक अन्य मुक़दमा इलाहाबाद उच्च न्यायालय में दो न्यायाधीशों की पीठ — जस्टिस डी. रॉय और बी. दयाल — के समक्ष सुना गया. इस मामले में अपील सत्यदेव गुप्ता द्वारा की गई थी, जो रूपविलास कंपनी के स्वामी थे. जुलाई 1950 में सत्यदेव गुप्ता ने ‘लक्ष्मण धारा’ नामक एक औषधि के पंजीकरण हेतु आवेदन किया, जिसका अमृतधारा फार्मेसी ने विरोध किया. मार्च 1958 में जस्टिस बी. दयाल ने फैसला सत्यदेव गुप्ता के पक्ष में सुनाया और ‘लक्ष्मण धारा’ के पंजीकरण की अनुमति दी तथा अमृतधारा फार्मेसी की अपील को खारिज कर दिया.[xviii]
ग़ौरतलब है कि वैद्य सत्यदेव गुप्ता द्वारा संचालित रूपविलास कंपनी के विज्ञापन भी तीस के दशक में हिंदी की पत्र-पत्रिकाओं में प्रायः छपा करते थे. रूपविलास कंपनी की कुछ प्रमुख औषधियाँ थीं : रूपविलास (चेहरे से चेचक के काले दाग, मुँहासे, झाँई, फुंसी, खुश्की, बदरौनकी, झुर्रियाँ हटाने के लिए), नारी-संजीवन (प्रदर रोग के लिए), लक्ष्मण धारा (अजीर्ण, पेट फूलना, दर्द करना, शूल, ऐंठन, अपच, पेचिस, मरोड़, दस्त, जी मिचलाना, उल्टी के लिए) आदि.[xix] इसी लक्ष्मणधारा औषधि के नाम को लेकर यह क़ानूनी विवाद हुआ था.
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के इस फ़ैसले के विरुद्ध अमृतधारा फार्मेसी ने सर्वोच्च न्यायालय में एक अपील दायर की. अप्रैल 1962 में भारत के सर्वोच्च न्यायालय की तीन न्यायाधीशों की पीठ, जिसमें जस्टिस एस.के. दास, एम. हिदायतुल्ला और जे.सी. शाह शामिल थे, ने अमृतधारा फार्मेसी के पक्ष में फ़ैसला दिया और इलाहाबाद उच्च न्यायालय के पूर्व में दिए निर्णय को ख़ारिज कर दिया. इस प्रकार, अमृतधारा फार्मेसी ने ‘अमृतधारा’ ट्रेडमार्क पर अपना विशेषाधिकार पुनः सुरक्षित कर लिया.[xx] ट्रेडमार्क का यह मुक़दमा तो अमृतधारा फ़ार्मेसी ने जीत लिया, लेकिन भारत के विभाजन और उसके नतीजे में अमृतधारा फ़ार्मेसी के लाहौर से देहरादून स्थानांतरण के सिलसिले ने कम्पनी के व्यापार को बुरी तरह प्रभावित किया.
ठाकुरदत्त शर्मा और ‘अमृतधारा’ की कहानी औपनिवेशिक परिवेश में एक भारतीय उद्यमी के बनने और आयुर्वेदिक औषधियों के एक पूरे उद्योग के खड़े होने की कहानी तो है ही. इसमें आधुनिक भारत में आयुर्वेद के आधुनिकीकरण और उसके प्रसार की अंतर्कथा भी समाहित है. आयुर्वेद सम्बन्धी ज्ञान के प्रचार-प्रसार के लिए और विविध चिकित्सा-पद्धतियों की मौजूदगी में आयुर्वेद के प्राधिकार को जताने के लिए आयुर्वेद के विशेषज्ञों द्वारा मुद्रण की संस्कृति और छापेखाने का इस्तेमाल किस खूबी के साथ किया गया, इसका उदाहरण भी हमें ठाकुरदत्त शर्मा और उनके अमृत प्रेस के रूप में देखने को मिलता है. औपनिवेशिक सरकार के समक्ष अपना पक्ष रखने के लिए वैद्यों और हकीमों के संगठित होने में भी ठाकुरदत्त शर्मा जैसे संगठनकर्ताओं की अहम भूमिका को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता. इसके साथ ही विभाजन ने कुछ उद्यमियों और कम्पनियों के व्यापार को किस तरह प्रभावित किया, इसका भी उदाहरण हमें अमृतधारा फ़ार्मेसी के रूप में देखने को मिलता है. इतना ही नहीं वर्तमान में आयुर्वेदिक औषधियों को लेकर किए जाने वाले अतिरंजित और आधारहीन दावों की पूर्वपीठिका भी हम आज़ादी से बरसों पहले छपे अमृतधारा के इन विज्ञापनों में देख सकते हैं.
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सन्दर्भ
[i]औपनिवेशिक भारत में दवाओं के विज्ञापन के विश्लेषण के लिए देखें, माधुरी शर्मा, ‘क्रिएटिंग ए कंज्यूमर : एक्सप्लोरिंग मेडिकल एडवर्टाइज़मेंट्स इन कॉलोनियल इंडिया’, बिश्वमय पति व मार्क हैरिसन (सम्पा.), द सोशल हिस्ट्री ऑफ़ मेडिसिन ऐंड हेल्थ इन कॉलोनियल इंडिया (लंदन : रूटलेज, 2009).
[ii] ठाकुरदत्त शर्मा के जीवन से जुड़े विवरण ‘माधुरी’ पत्रिका में छपी टिप्पणी पर आधारित हैं, देखें, ‘कविविनोद पं. ठाकुरदत्त शर्मा वैद्यभूषण’, माधुरी, वर्ष 5, खंड 2, सं. 2.
[iii] हकीम अजमल खाँ और आयुर्वेदिक एंड यूनानी तिब्बी कॉन्फ्रेंस के सम्बन्ध में विस्तृत विवरण के लिए देखें, क्लाडिया लाईबेसकाइंड, “आर्ग्युइंग साइंस : यूनानी तिब्ब, हकीम्स एंड बायोमेडिसिन इन इंडिया, 1900-50”, वालट्राद अर्न्स्ट (सम्पा.), प्लुरल मेडिसिन, ट्रेडिशन एंड मॉडर्निटी 1800-2000 (लंदन : रूटलेज, 2002), पृ. 58-75.
[iv] औपनिवेशिक पंजाब में देशज चिकित्सा की स्थिति, वैद्यों के संगठन (आयुर्वेद सम्मेलन) और आयुर्वेद के आधुनिक रूपांतरण की परिघटना के विश्लेषण के लिए देखें, कविता शिवरामकृष्णन, ओल्ड पोशंस, न्यू बॉटल्स : रिकास्टिंग इंडीजिनस मेडिसिन इन कॉलोनियल पंजाब (हैदराबाद : ओरियंट लाँगमैन, 2006).
[v] होम डिपार्टमेंट, मेडिकल-ए, गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया, प्रोसिडिंग्स, जुलाई 1919, सं. 26-51 [राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली]
[vi] वैद्य सम्मेलनों की गतिविधियों और आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति के मानकीकरण के प्रयासों के ऐतिहासिक विश्लेषण हेतु देखें, सौरव कुमार राय, “इन सर्च ऑफ़ इंडीजिनस मेडिसिन : मेडिकल प्लुरलिज़्म एंड द आयुर्वेदिक मूवमेंट इन कॉलोनियल इंडिया”, ऑकेजनल पेपर्स नेहरू मेमोरियल म्यूज़ियम एंड लाइब्रेरी, हिस्ट्री एंड सोसाइटी न्यू सीरिज़ (2020).
[vii] माधुरी, आषाढ़, 1991 विक्रम (1934), वर्ष 12, खंड 2.
[viii] डगलस हेंस, “वर्नाक्यूलर कैपिटलिज़्म, एडवर्टाइज़िंग, एंड द बाज़ार इन अर्ली ट्वेंटीएथ-सेंचुरी वेस्टर्न इंडिया”, अजय गांधी व अन्य (सम्पा.), रीथिंकिंग मार्केट्स इन मॉडर्न इंडिया : एम्बेडेड एक्सचेंज एंड कांटेस्टेड जुरिसडिक्शन (कैम्ब्रिज : कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस, 2020), पृ. 116-146.
[ix] प्रेमचंद, ‘विज्ञापन-कला’, जागरण, 15 मई, 1933.
[x] माधुरी शर्मा, ‘क्रिएटिंग ए कंज्यूमर’, पृ. 225.
[xi] ठाकुरदत्त शर्मा वैद्य, कोष्ठबद्धता (लाहौर : अमृत प्रेस, 1924).
[xii] ठाकुरदत्त शर्मा वैद्य, ऋतु चर्य्या (लाहौर : अमृत प्रेस).
[xiii] ठाकुरदत्त शर्मा वैद्य, शीतला (लाहौर : अमृत प्रेस).
[xiv] ठाकुरदत्त शर्मा वैद्य, जीवन की आवश्यकताएँ (लाहौर : अमृत प्रेस, 1931).
[xv] उन्नीसवीं-बीसवीं सदी में बांग्ला भाषा में लिखी गई चिकित्सा सम्बन्धी ऐसी ही पुस्तकों और विज्ञापनों के विचारोत्तेजक विश्लेषण हेतु देखें, प्रोजित बिहारी मुखर्जी, नैशनलाइज़िंग द बॉडी : द मेडिकल मार्केट, प्रिंट एंड डाक्टरी मेडिसिन (लंदन : एंथम प्रेस, 2009).
[xvi] माधुरी, जुलाई 1937.
[xvii] राम रखपाल बनाम अमृतधारा फार्मेसी एवं अन्य, AIR 1957 All 683
[xviii] सत्यदेव गुप्ता बनाम अमृतधारा फार्मेसी, AIR 1957 All 823
[xix] माधुरी, अगस्त 1937.
[xx] अमृतधारा फार्मेसी बनाम सत्यदेव गुप्ता, AIR 1963 SC 449
युवा इतिहासकारों में उल्लेखनीय शुभनीत कौशिक बलिया के सतीश चंद्र कॉलेज में इतिहास के शिक्षक हैं. जवाहरलाल नेहरू और उनके अवदान पर केंद्रित पुस्तक ‘नेहरू का भारत: राज्य, संस्कृति और राष्ट्र-निर्माण’ (संवाद प्रकाशन, 2024) का सह-सम्पादन किया है. पत्र पत्रिकाओं में हिंदी-अंग्रेजी में लेख आदि प्रकाशित हैं. ईमेल : kaushikshubhneet@gmail.com |
बहुत ही बढ़िया आलेख है। मुझे इसलिए भी रुचिकर लगा कि मेरे पास हमेशा अमृतधारा की एक छोटी शीशी होती है।
बेढब बनारसी जी का व्यंग मजेदार है, जो अमृतधारा पर नहीं वास्तव में हर बात में अमृतधारा लेने की उस वृत्ति पर है, जो हमारे जैसे परिवार में तीन पीढ़ियों (मैं चौथी पीढ़ी) से चली आ रही है। यह अपेंडिक्स का इलाज नहीं कर सकती, यह बात पिछली पीढ़ी के गले नहीं उतरती थी। जबकि शायद अमृतधारा उसका दावा भी नहीं करती थी।
इतनी दीवानगी रही है कि अगर यह बाजार में न मिले तो पंसारी से सामग्री लाकर घर बना ली जाती थी और बोतल से उड़ न जाए कि चिंता से हलकान हुआ जाता।
पेट और श्वास संबन्धित रोगों में यह कुछ समय के लिए राहत तो देती रही है। मगर चिकित्सकीय सदा सलाह जरूरी है।
आलेख असाधारण है । बीसवीं शताब्दी में पंडित ठाकुर दत्त शर्मा के आरंभिक जीवन से आश्चर्य-लोक में ले जाता है ।
अधूरा या पूरा, दुनिया कि सारी दुनिया जैसे बेमानी शब्दों से परे लेख पढ़ा । भागीरथी प्रयास किया ।
बच्चा था तब हमारे घर के क़रीब ६० क़दम दूर हाँसी फार्मेसी बनी हुई थी । वह परिसर देखा । वहाँ ग़रीबी महिलाएँ सिर दर्द, बुख़ार और खाँसी के चूर्ण की पुड़िया बाँधती थीं । कक्षा छह से ग्यारह तक एक जमाती चंद्र प्रकाश चुघ का घर चंद क़दम दूर था । इसके पिता जी गणेश दास साइकिलों की ट्यूब पर पंचर लगाते । बाक़ी मरम्मत भी । औपचारिक दुकान नहीं थी । उमरा [एक गाँव का नाम] दरवाज़े के बाहर बाईं तरफ़ मैदान के आख़िरी किनारे पर पीपल के पेड़ के नीचे बैठकर काम करते । माँ फार्मेसी से चूर्ण और छपे हुए काग़ज़ लाकर पुड़ियाँ बनाती ।
तब आठवीं, दसवीं और ग्यारहवीं की परीक्षा पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ लेता था । वहीं से पर्चे बनकर आते ।
चंद्र प्रकाश कुशाग्र बुद्धि था । तीन घंटे का पर्चा डेढ़ घंटे से पहले पूरा कर लेता । परीक्षक अंग्रेज़ी में कहते-हाफ़ द टाइम इज़ ओवर । चुघ पर्चा देकर रास्ते में आदर्श पुस्तक भंडार से आठ आने प्रतिदिन के हिसाब से किराए पर उपन्यास ले आता । एक घंटे में पढ़कर वापस । शहर में गिनती की साइकिलें होतीं ।
अगले दिन इम्तिहान न होने पर पुड़िया बँधवाता ।
बाद में फरीदाबाद में १८०० महीना नौकरी करने गया । नौकरी के साथ बी॰ कॉम॰ एलएलबी किया । नौकरी छोड़कर टैक्स की वकालत की । एम॰ कॉम किया । बहन की शादी की । गया था । इसकी माँ की मौत पर गया । अपनी शादी की । बाद में मिलने गया । छोटे भाई गुलशन की शादी में नहीं गया । तब तक चिट्ठियों और लैंडलाइन पर बातें करते । अब संपर्क में नहीं ।
एक मित्र और आयुर्वेदाचार्य के पुत्र आशुतोष ने भी बीएएमएस कर लिया । अब हिसार में अस्पताल है । सिर्फ़ आयुर्वेदिक दवाइयों से इलाज करता है । उसे यह लेख भेजूँगा ।