रसपिरिया पर बज्जर गिरेपंकज मित्र |
कखन हरब दुख मोर हे भोलानाथ!
रमपतिया आजकल रोज जोधन गुरु जी को बस नचारी गाते ही सुनती है- रसप्रिया, विद्यापति, बारहमासा, लगनी, चांचर सब जैसे बिसर गए थे जोधन. जोधन गुरु जी की मंडली का पूरे इलाके में कितना नाम था. शादी- ब्याह यज्ञ- उपनयन, मुंडन- छेदन आदि शुभ कार्यों में मंडली की बुलाहट होती थी. बहुत सारे लड़के आते रहते थे मंडली में शामिल होने- मूलगैन, मिरदंगिया बनने की चाह मन में लिए.
आया था ऐसे ही गुरुद्रोही, झूठा, पंचकौड़ी- सुंदर, सलोना और सुरीला- वैसा ही सरपट हाथ चलता था उसका मृदंग पर- धिरिनागि धिरिनागि धिरिनागि धिनता-
जोधन गुरु जी की मंडली में मूलगैन पहले से मौजूद था तो पंचकौड़ी को मिरदंगिया का दायित्व दे दिया. दूसरी- दूसरी मंडली में मूलगैन और मृदंगिया की अपनी- अपनी जगह होती है. पर एक दिन जब जोधन गुरु जी के मंडली के मूलगैन जीवछ का गला खराब हो गया, खराब हो गया क्या आवाज ही बैठ गई बिल्कुल. लोग तो कहते हैं कि दूसरी मंडली वालों ने धोखे से सिंदूर खिला दिया था.
“जनम अवधि हम रूप निहारल” गाते – गाते गला विकृत हो गया. जोधन गुरु जी परेशान. अभी तो नटुआ लड़का भांवरी देकर प्रवेश में उतरने की तैयारी ही कर रहा था. जीवछ की आंखों से झर-झर लोर
-गुरुजी!- चरण पकड़ लिया था उसने जोधन गुरु जी का. – फटी भाथी जैसी आवाज निकली थी.
कोई हंसी खेल थोड़े ही था. कमलपुर के नंदू बाबू के बेटे का मुंडन था. यही एक आध घर तो बचा था इलाके में जहां बिदापत मंडली वालों की पूछ होती थी. जोधन गुरु जी पसीने से तरबतर. याचक दृष्टि से पंचकौड़ी को देखा. उससे भी ज्यादा दयनीय दृष्टि से देखा था रमपतिया ने- मानो कह रही हो, आज ही मौका है गुरु ऋण चुकाने का. -जोधन गुरु जी की बेटी रमपतिया
जिस दिन पहले- पहल जोधन की मंडली में शामिल हुआ था वह, रमपतिया बारहवें में पांव रख रही थी- बाल विधवा रमपतिया पदों का अर्थ समझने लगी थी. काम करते-करते हुए गुनगुनाती- नव अनुरागिनी राधा/किछु नहीं मानय बाधा गुनगुनाते हुए लजाकर वह पंचकौड़ी को देखती जो थोड़े बेमन से मृदंग पर हाथ चला रहा होता- मूलगैनी सीखने आया था न वह.
जाने क्या था रमपतिया की उस निगाह में कि पंचकौड़ी ने सोचा कि आज तो वह कोसी मैया के चौड़े पाट को भी तैरकर पार कर जाता अगर रमपतिया कह देती. मृदंग गले में लटका कर जो उसने समारोह के साथ रसप्रिया की पदावली उठाई-
“नव वृंदावन नव नव तरुगन”- सब भौंचक! कब अभ्यास किया पंचकौड़ी ने! रमपतिया का मुंह जाने क्यों लाज से रक्तिम हो उठा था. जोधन गुरु जी की आंखों से टप – टप लोर चू रहा था-
“कखन हरब दुख मोर हे भोलानाथ!
आज भी आंखें पोंछ रहे हैं जोधन गुरु जी. उसी दिन सोच लिया था उन्होंने कि अब तो कई साल की तालीम पूरी हो गई पंचकौड़ी की. अब वह स्वजात पंचकौड़ी से रमपतिया के चुमौना की बात करेंगे. कमलपुर के बाबुओं के घर से पेट, जेब और हृदय सब भरकर लौटे थे जोधन. अजोधादास के माथे पर कई पोटलियाँ हो गई थी उस दिन- पीछे-पीछे मंडली थी और मंडली के भी पीछे पंचकौड़ी और रमपतिया- इतनी धीमी आवाज में बात करते हुए जैसे सुबह की मद्धम हवा धान के पौधों को दुलराती हुई आगे बढ़ती है-
-अजोधा!
-जी गुरु जी
-आज तो पाँचू ने लाज रख ली
-जी गुरु जी
-जल्दी जल्दी डेग बढ़ाओ. ऐसे चाल में तो भुरूकवा उग जायेगा. कल मिरदंग का गुन भी कसना है. समझे अजोधा! तुम्हारा हाथ एकदम सँड़सी जैसा है ना.
गुरुजी के स्वर में हुलास था और रमपतिया तथा पँचकौड़ी के चेहरों पर उजास. सिर्फ अजोधादास निर्विकार भाव से कदम बढ़ाता जा रहा था. जोधन की अनुभव पकी आंखें कैसे नहीं समझ पाई कि पांचू के गांव का नाम पूछते ही क्यों उसका सलोना चेहरा काला पड़ गया था. तब लगा था शायद गांव भर का दुख चेहरे पर जम गया होगा. सहरसा का वह इलाका तो हर बार कोसी मैया नमः – कोसी मैया के पेट में चला जाता था – कोशिकाय नमः
उसके बाद न उसने कभी गांव का नाम पूछा ना पांचू ने बताया. अजोधा ने बल्कि इशारे से कहा भी कि एक बार नाम गांव तो ठीक से जान लेना चाहिए. चुमौना की बात है. लेकिन गुरु जी तो गुण पर ही ऐसा… ऐसा शुद्ध रसप्रिया तो कोई गुणी परिवार का लड़का ही गा सकता है.
रमपतिया कोठरी में नाखून से मिट्टी खुरचती रही. दीवार पर टंगे पांचू के मृदंग को कलेजे से लगा कर सो गई.
कितनी जल्दी सीख गया था पांचू सब कुछ- ध्यान से देखता- सुनता जब जोधन किसी लड़के को देखते ही बता देते कि लाल-लाल होठों पर बीड़ी की कालिख – पेट में तिल्ली है जरूर… नमक सुलेमानी, चानमार पाचक और कुनैन की गोली से कब किस का कैसे इलाज करना है. लड़कों को हमेशा गर्म पानी के साथ हल्दी की बुकनी, पीपल, काली मिर्च, अदरक, घी में भूनकर शहद के साथ सुबह-शाम चटाना. हरदम गर्म पानी- ठीक जोधन की ही तरह कहता था पाँचू- कि मारेंगे स्स-साला एक एक चटाक बीड़ी को छुआ भी है तो… लड़कों को डाँटता-लेकिन…
“कखन हरब दुख मोर हे भोलानाथ “-गरम उसाँस भरते रहे जोधन. तबतक अजोधा की नाक बजने लगी-खर्र खोंय-खर्र खोंय-खर्र. फारबिसगंज के डॉक्टर ने साफ कह दिया कि किसी बात की चिंता घुस गई है. यह कोई हारी बीमारी नहीं है. तिल तिल कर गलाती जाती है चिंता. न खाया पिया लगता है तन को, ना चैन शांति है मन को.
यह चिंता तो उसी दिन घुस गई थी जब मंडली के लड़कों ने आकर सुबह-सुबह बताया था-गुरुजी! पाँचू गायब है!
-गायब है मतलब?
-मतलब नहीं है. उसका झोला भी नहीं है और मृदंग भी
कोठरी में धड़ाम से कुछ गिरने की आवाज आई थी – रमपतिया!
पानी का छींटा मारकर, पंखा झल कर होश में लाया गया. दाँती पर दाँती लग रही थी. जोधन गुरु जी अपनी छाती जोर-जोर से मल रहे थे.
-तुम लोग जानते हो, कौन गांव का था वह?
सभी लड़के एक दूसरे का मुंह देखने लगे- कभी बताया नहीं गुरु जी!
वह तो रमपतिया जब एक दिन आकाश की ओर हाथ उठाकर बोल रही थी- हे दिनकर! साच्छी रहना! मिरदंगिया ने फुसलाकर मेरा सर्वनाश किया है. मेरे मन में कभी चोर नहीं था. हे सुरूज भगवान! इस दसदुआरी कुत्ते का अंग अंग फूटकर…
कांप उठे थे जोधन गुरु जी. पूछ बैठे थे-
– तुमको बताया कभी नाम – गाम?
-हां चांदपुर तरफ कहीं…
-लेकिन उधर तो बहरदार…
-हाँ बहरदार ही तो था-
– क्या? पाँचू बहरदार था? गुरु द्रोही! इसीलिए भाग गया! हम तो समझ रहे थे कि स्वजाति… .
इसके बाद तो जोधन और भी पत्थर हो गए थे. खाना सामने आ जाता तो तुम टूंग टांगकर उठ जाते. खटिया पकड़ लिए कुछ ही दिनों में. रमपतिया इधर उधर से कुछ ले आती – कभी घास का गट्ठर, तो कभी किसी के घर कुटान पिसान, कभी पाट का साग खोंटकर कुछ मिल जाता. अजोधाने शरीर समांग कमजोर होते हुए भी बड़ा साथ दिया. बाबू लोगों के हरवाही – चरवाही करके कुछ ले आता. रमपतिया की चिंता में दिनरात जोधन बस!! –
“कखन हरब दुख मोर हे भोलानाथ!
-अजोधा!
-हां गुरुजी!
-रमपतिया को देखना…. अब तुम ही…
भोलानाथ ने जोधन का दुख हर लिया था हमेशा के लिए. सम्हलते – सम्हलते बीते कुछ दिन..
-जोधा!
-हां सिया सुकुमारी!
अजोधादास हमेशा रमपतिया को यही कह कर बुलाता था. ठीक ही है. सीता जी ने भी तो जीवन भर दुख ही भोगा था. – गुलाबबाग का मेला देखने का मन है.
अजोधादास तो समझ ही रहा था कि रमपतिया क्यों जाना चाहती है गुलाबबाग – विशालकाय मेला, नाच – नौटंकी, खेल – तमाशा, रंग-बिरंगे लोग, भीड़ भाड़… खोजते-पूछते पहुँच ही गए दोनों पँचकौड़ी मिरदंगिया मंडली के विदापत नाच के तंबू में. नाच शुरू होने में देर था. पँचकौड़ी एक कोने में बैठकर गांजे की चिलम सुलगा रहा था.
-पाँचू!!
चौंककर देखा .यहाँ उसे पाँचू पुकारने वाला कौन था?
-क्या कर रहे हो? गांजा भांग से गला खराब हो जाता है. फिर रसपिरिया कैसे गाओगे?
एकदम जोधन गुरु जी की तरह-
-सुने हैं, बड़ा मंडली बना लिए हो, जगह-जगह से बुलावा आता है. हम लोगों का याद नहीं आता कभी? हम तो अभी भी गाते हैं-चंदा जनि उग आजुक राति…
-क्या झूठ फरेब जोड़ने आई है. कमलपुर के नंदू बाबू के पास क्यों नहीं जाती? मुझे उल्लू बनाने आई है. नंदू बाबू का घोड़ा बारह बजे रात को…
-चुप! चुप रहो! –
बहुत जोर से चीख उठी थी रमपतिया. सभी मंडली वाले देखने लगे. आखिर पँचकौड़ी गुरु था उनका. हनहनाते हुए तंबू से बाहर निकल गई थी रमपतिया. अजोधादास थकमका गया फिर पीछे पीछे दौड़ पड़ा.
ठीक उसी रात – उसी रात रसप्रिया बजाते समय उसकी उंगली टेढ़ी हो गई. मृदंग पर जमनिका देकर वह प्रवेश का ताल बजाने लगा. नटुआ ने डेढ़ मात्रा बेताला होकर परवेश किया तो उसका माथा ठनका. प्रवेश के बाद उसने नटुआ को झिड़की दी-ऐ स्साला! थप्पड़ों से गाल लाल कर दूंगा…. और रसप्रिया की पहली कड़ी ही टूट गई. मिरदंगिया ने ताल को संभालने की बहुत चेष्टा की. मृदंग की सूखी चमड़ी जी उठी, दाहिने पूरे पर लावा – फरही फूटने लगे और ताल कटते – कटते उसकी उंगली टेढ़ी हो गई- झूठी टेढ़ी उंगली – हमेशा के लिए पँचकौड़ी की मंडली टूट गई. धीरे-धीरे इलाके से विदापत नाच ही उठ गया. गया. अब तो कोई विद्यापति की चर्चा भी नहीं करता. बेकारी के समय मृदंग ही सहारा बना- धतिंग – धतिंग – भीख मांगने के काम में आता है.
लेकिन इलाके में खबर फैल गई कि पँचकौड़ी मिरदंगिया की उंगली टेढ़ी हो गई. किसी का श्राप लग गया है.
-अजोधा! चलना है गुलाबबाग मेला में एक बार फिर.
-काहे बार-बार बेज्जती कराती हो सिया सुकुमारी.
-बस, आखिरी बार…
सचमुच टेढ़ी हो गई थी उंगली
-हो गया ना कलेजा ठंडा? – टेढ़ी उंगली को आंसू भरी नजरों से देख रहा था पाँचू – अब तो धतिंग धतिंग भी नहीं बजा पाएगा ठीक से.
आंखों में आंसू भरे रमपतिया ने पकड़ ली थी टेढ़ी उंगली पाँचू की.
-हे दिनकर! किस ने इतनी बड़ी दुश्मनी की! उसका कभी भला नहीं होगा. मेरी बात लौटा दो भगवान! गुस्से में कही हुई बात! नहीं पाँचू! मेरा विश्वास करो. मैंने कुछ नहीं कहा, कुछ नहीं किया. जरूर किसी डायन ने बान मार दिया है.
-किसी डायन ने नहीं तुमने मारा है श्राप का बान. जा चली जा यहां से! अब लीला पसारने आई है.
हीरामन भैया की गाड़ी में लौटते हुए रमपतिया ने कसम खा ली कि कभी नहीं गाएगी रसप्रिया और किसी के कहने पर तो एकदम ही नहीं. ठीक दूसरे दिन अजोधादास को साथ लेकर अपने मामा घर आ गई – कमलपुर. वहां कुछ ना कुछ ठौर हो ही जाएगा ऐसा विश्वास था उसको.
विश्वास की रक्षा भी की थी कमलपुर के बाबुओं के परिवार ने. कामत पर रख लिया अजोधादास को भी -हरवाही रखवाली का काम- रमपतिया भी लग गई -बड़े घरों में पचास काम होते हैं – कुटान- पिसान – चौका – बरतन – गाय – गोरू-खिलने लगा रमपतिया का रूप – चिकनाने लगी देह – काम करते हुए गुनगुनाती सबसे छिपाकर-
“तरुणि बयस मोरी बीतल सजनी गे”
चौक पड़ा था कमलपुर के बाबू का घर- कौन गाता है इतना मधुर रसप्रिया!!
बाड़ी से कोठरी, कोठरी से भुसखार तक महमह महक गया सबकुछ… हवाओं में तैरती हुई यह महक कमलपुर के नंदू बाबू तक भी पहुंची. लेकिन अजोधादास जक्ख (यक्ष) की तरह कोठरी के बाहर दरवाजा पर बैठा रहता था अपने सँड़सी जैसे कड़ी पकड़ वाले हाथों के साथ –
-सिया सुकुमारी! आज प्रातकी गाओ ना. बहुत मधुर लगता है तुम्हारे आवाज में. गुरु जी के जाने के बाद कोई गाता ही नहीं है. न हो तो रसपिरिया ही सुनाओ. आज बाबू हमको परमानपुर वाले कामत पर भेज रहे हैं.
-लेकिन उधर तो कोसी मैया विकराल रूप में है. और रसप्रिया का नाम मत लो. तुम को मालूम है ना हमने कसम लिया है किसी के कहने पर तो कभी नहीं.
गनगना गया अजोधादास का मन. सिया सुकुमारी उसका कुशल क्षेम रखती है ध्यान में.
-कुछ नहीं होगा हमको. कोसी मैया के बेटा है. ऊंची कोठी का सब धान निकालकर नाव पर लेकर आ जाना है. बस…
लेकिन इसी बस पर बस कहां चलता है आदमी का. जो लौट कर आई वह अजोधादास की कहानियां थी. नंदू बाबू के लठैत जो साथ में गए थे उन लोगों ने बताई- अचानक इतना विकराल रूप हो गया कोसी मैया का! पूछिए मत! हहास! हहास! पानी ऐसा फन पटक रहा था जैसे अजगर हो – विशाल- बांस का बड़ा खूंटा पकड़कर बहुत देर तक टिका रहा अजोधादास – हम लोग बार-बार उस तक पहुंचने की कोशिश करते रहे, लेकिन आखिर छूट गया उसका – बिला गया अथाह अतल कोशिका मैया में -जय कोसका महारानी!
-काम का आदमी था! -उसाँस भर कर कहा था नंदू बाबू ने. रमपतिया को जाने क्यों विश्वास नहीं हो रहा था कि सँड़सी जैसी मजबूत पकड़ वाला हाथ अजोधादास का भला कैसे छूट सकता था और तैराक भी तो था वह- इलाके का नामी तैराक!
खैर नंदू बाबू ने कंटाहा पंडित को दान दक्षिणा देकर शांति पाठ करवा दिया. आखिर अपमृत्यु हुई थी अजोधादास की और रमपतिया के लिए स्नेह भी रखता था वह. आंखें रमपतिया की संभवतः कह रही थी कि अजोधादास को अभी कामत पर नहीं भेजना चाहिए था लेकिन खुलकर थोड़े ही कह सकती थी. और फिर शांति पाठ, ब्राह्मण भोजन करवाकर तो जैसे नंदू बाबू ने प्रायश्चित भी कर लिया था. ब्रह्म भोज की दही बुंदिया ने रमपतिया की आंखों का झाल कम कर दिया था. लोग जय जयकार कर रहे थे –
कौन करता है आपने बराहिल के लिए इतना-
“मानिनी आब उचित नहिं मान”
आजकल रमपतिया बार-बार इसी गीत की कड़ी उठाती है.
एखनुक रंग एहन सन लागय जागल पए पंचबान
ऐसा रंग लगा है जीवन में जैसे कामदेव अपने पंच वाणों के साथ जाग चुके हैं.
शोभा मिसिर शाम को अपने संगातियों के साथ दिशा मैदान के लिए जाते हुए बोले – आँय यौ! अजोधा को गए तो नौ महीना से बेसी भ गेल त फेर …
-भाइजी! उपजा त ओकरे होइय जेकर खेत के केवाला -संगाती हंसने लगे.
यही बात तो पँचकौड़ी के ध्यान में भी आई थी – मोहना जैसे लड़कीमुँहा लड़के छोटी जाति के लोगों के यहाँ हमेशा पैदा नहीं होते – वे तो अवतार लेते हैं- जदा जदा हि धर्मस्य-
रमपतिया मोहना का मुंह निहारकर निहाल हो जाती. जब तक वह काम करती मोहना नंदू बाबू के आंगन में धूल में लोटता रहता. – तभी अगर पँचकौड़ी ने देख लिया होता तो धूल में पड़ा हीरा ही समझता. लेकिन वह तो बहुत बाद में…
अभी तो नंदू बाबू निकलते हुए- अरे यह कौन बच्चा धूल में लोट रहा है. देखो जरा.. मुँह चुरा कर निकल जाते हैं. खुद रमपतिया ने देखा है अपनी आंखों से कि बड़ी खिड़की के उस पार से आंगन के खेलते हुए मोहना को नंदू बाबू देखते हैं और किसी की नजर पड़ते ही झट से हट जाते हैं.
अभी तो रमपतिया – जनम अवधि हम रूप निहारल- गाते गाते मोहना का रूप देख- देख कर निहाल हुई जा रही है. ऐसा नहीं है कि उसके कानों में बातें नहीं पड़ती है लेकिन-
-आँख देखे हो मोहना का? एकदम नंदू बाबू पर पड़ा है न?
-काहे? – गेंहुअन की तरह फुफकार उठी थी रमपतिया -मेरे आंख पर नहीं पड़ सकता है मेरा बेटा?
घसियारिनें चुप हो गई – कौन बखेड़ा करे. ऐसे ही किसी ने एक दिन पँचकौड़ी मिरदंगिया का नाम ले लिया य
-गवैया तो अच्छा है पँचकौड़ी –
-तो गवैया – नचवैया होने से क्या झूठा परेम जोड़ने और मन तोड़ने का अधिकार मिल जाता है? उस दसदुआरी जाचक का तो अंग अंग गलकर… धतिंग धतिंग बजाकर भीख मांगने के अलावा उसको आता क्या है..
जानती है रमपतिया भी कि पँचकौड़ी गुनी आदमी है. नाच – गाना सिखाने में कभी कठिनाई नहीं हुई उसे. मृदंग के इतने स्पष्ट बोल कि लड़कों के पांव खुद ही थिरकने लगते. बिदापत नाच में नाचने वाले नटुआ का अनुसंधान खेल नहीं है. हर मंडली का मूलगैन नटुआ की तलाश में गांव-गांव भटकता फिरता – पँचकौड़ी भी – इतनी पारखी थी नजर उसकी जौहरी की तरह – सजा धजाकर लड़के को नाच में उतारते ही दर्शकों में फुसफुसाहट फैल जाती-
-ठीक ब्राह्मणी की तरह लगता है न?
-मधुकांत ठाकुर की बेटी की तरह –
-ना ना, छोटी चंपा जैसी सूरत है
लेकिन लड़कों के जिद्दी मां-बाप से निपटना मुश्किल व्यापार था . विशुद्ध मैथिली में और शहद लपेट कर वह फुसलाता था – – किशन कन्हैया भी नाचय छलथिन. नाच तो गुण है. अरे चाहे जाचक कहो या दसदुआरी, चोरी डकैती और आवारागर्दी से तो अच्छा है ना अपना गुन दिखाकर, लोगों को रिझा कर गुजारा करना
गुनी था तभी तो इतनी बड़ी मंडली बना पाया. इलाके में नाम कर पाया. नंदू बाबू के यहां का यज्ञ प्रयोजन तो जैसे पँचकौड़ी मिरदंगिया के विदापत नाच मंडली के बिना पूरा ही नहीं होता था.
-चल न रमपतिया! पँचकौड़ी की मंडली आई है. दलान पर रसपिरिया गायेगा .
दाँत पर दाँत बिठाकर आंखों में आंसू भरे बोली- हमको नहीं सुनना है रसपिरिया – उरिया
लेकिन आवाज को कानों में पड़ने से कौन रोक सकता है. छुप-छुपकर कितनी बार तो देखती रही है लेकिन इधर कुछ बरस से आया नहीं था. अच्छा ही हुआ… देवी मां जो करती है, अच्छा ही करती है-
-जय जय भैरवी असुर भयावनि
मोहना का प्रातकी गाना सुनकर वह खुद बहुत आश्चर्य में पड़ जाती है. शुरू शुरू में टोकती भी थी, लेकिन कब उसने सुन सुनकर सीख लिया, पता नहीं. छोटा था तभी से तोतली आवाज में –
नव वृंदावन नव नव तरूगन…
नंदू बाबू के घर की महिलाएं लोटपोट हो जाती थी सुनकर.
-ऐ रमपतिया! तू तो जोधन की बेटी है. काहे नहीं सिखाती है इसको रसप्रिया? इतना सुंदर गाता है.
-कोई जरूरत नहीं है मालकिन. अब समय कहां रहा वैसा और सीख कर करेगा क्या – वही दसदुआरी जाचक!
सोचकर ही सिहर जाती है रमपतिया कि मोहना भी क्या पँचकौड़ी की तरह गले में मृदंग लटकाए – धिरिनागि धिरिनागि धिनता – पर थोड़ा अच्छा भी लगा था.
कई बरस पहले देखा था. कैसा तो अधपगला जैसा दिखने लगा था पँचकौड़ी. सब कहते हैं गांजा भांग के अत्यधिक सेवन से गले से फूटी भाथी की तरह आवाज निकलने लगी है – सोंय! सोंय!
मंडली टूट गई है. विदापत नाच का चलन ही उठ गया है पूरे इलाके से- अब रेडियो सनीमा के आगे कौन देखता है- विदापत नाच-नवतुरिया लड़के तो विद्यापति का नाम भी शायद ही जानते हैं. एक मोहना है, मानता ही नहीं है. गाय गोरू के पीछे जाते हुए- गाछ बिरिछ के नीचे बैठकर रसप्रिया की कड़ी गाने लगता है. उसी की गलती है. बचपन से सुना सुना कर पाला है. कहीं उसके मन में चाहत तो नहीं थी कि पँचकौड़ी से भी बड़ा… नहीं… बिल्कुल नहीं
चरवाहे चिल्लाए थे- रे मोहना! तेरे बैल करमू के खेत में घुस गए रे!
-अरे बाप रे! इतना मारा था करमू ने . लेकिन बैल हैं कि मानते ही नहीं. हरे हरे पाट की महक खींच लाती है उनको.
बैल हाँक कर लौटा तो पँचकौड़ी मिरदंगिया उसका इंतजार कर रहा था. कई बरस बाद लौटा था इस इलाके में पँचकौड़ी – सुंदर सलोने मोहना को देखते ही – गुणवान मर रहा है धीरे-धीरे. लेकिन यह कौन है? किसने बताई उसको यह रसपिरिया वाली बात -जब पूछा था मोहना ने-
-तुम्हारी उंगली रसप्रिया बजाते टेढ़ी हो गई है न?
-तुमने कहा सुना बे..
बेटा कहते कहते रुक गया था. एक बार एक बच्चे को बेटा कहते ही गांव के नव युवकों ने घेर लिया था उसे –
-बहरदार होकर ब्राह्मण को बेटा कहता है. मारो साले को! मृदंग फोड़ दो…
जबर्दस्ती हंसकर बोलना पड़ा था- इस बार माफ कर दो सरकार! अब से सबको बाप ही कहूंगा.
ढाई साल के नंगे बालक को ठुड्डी पकड़कर कहा भी था- क्यों बाप जी ठीक है ना?
सब हंस पड़े थे.
-गरम पानी पीते हो ना? तिल्ली बढ़ी हुई है तुम्हारी.
-कैसे जान गए? फारबिसगंज के डागडर बाबू भी कहे थे, तिल्ली बढ़ गई है. मां कहती है हल्दी की बुकनी के साथ रोज गर्म पानी
मिरदंगिया मुस्काया – बड़ी सयानी है तुम्हारी मां.
सयानी तो थी ही रमपतिया. सारे नुस्खे जिन्हें बताकर पँचकौड़ी बड़ा वैद बना फिरता था जोधन गुरु जी से ही तो सीखा था. वही तो रोज पानी गर्म करके हल्दी की बुकनी मिला कर देती थी लड़कों को. मोहना के लाल होठों पर काले दाग उसे तुरंत बता देते थे कि चरवाहों के साथ बीड़ी पीने लगा है. कभी-कभी मारने को उठती है तो कैसा भोले बछड़े सा मुँह बना लेता है- नटकिया.
लाख मना करोफिर भी रसपिरिया गायेगा ही और जब गाता है तो- वाह!
“कान्ह हेरल छल मन बड़ साध
कान्ह हेरइत भेलएत परमाद “
साक्षात राधा आकर जैसे गले में बैठ जाती है. मुग्ध कर देता है एकदम, लेकिन ऐसे ही मुग्धता की अवस्था में सर्वांग क्रोध की ज्वाला भी उठती है –
-भिखारी – जाचक – दसदुआरी – जब से चरवाहे बालकों ने सुनाया है तो क्रोध और बढ़ गया है –
केले के सूखे पतले पर मूढ़ी और आम रखकर प्यार से कह रहा था पँचकौड़ी मोहना से – आओ एक मुट्ठी खा लो
-नहीं, मुझे भूख नहीं है. सच्ची.
किंतु मोहना की आंखों से रह रह कर कोई झाँकता था. मूढ़ी और आम को एक साथ निगल जाना चाहता था – भूखा, बीमार भगवान.
मां के सिवा किसी ने इस तरह प्यार से परोसे भोजन पर नहीं बुलाया था. लेकिन मां को पता चला तो- भीख का अन्न – माँ मार ही डालेगी.
-किसने कहा तुमसे कि मैं भीख मांगता हूं. मिरदंग बजाकर, पदावली गाकर, लोगों को रिझा कर पेट पालता हूं. – ठीक ही कहते हो – भीख का अन्न – छोड़ो! तुम को नहीं दूंगा. रसप्रिया तो सुनोगे ना?
गाना शुरू करने के प्रयास में मिरदंगिया का चेहरा विकृत हो रहा था. मोहना डर कर भाग गया और एक बीघा दूर जाकर चिल्लाया, –
-डायन ने बान मारकर तुम्हारी उंगली टेढ़ी कर दी है. सब मालूम है हमको.
कैसे- कैसे मालूम है मोहना को. यह तो रमपतिया कहती थी कि डायन ने बान मार दिया है.
आंखों से आंसू झरने लगे. शोभा मिसिर के लड़के ने ठीक कहा था – क्या जी, तुम जी रहे हो कि थेथरई कर रहे हो जी?
हां, थेथरई ही तो कर रहा था वह. हर बार ताल कट जाने पर भी मृदंग बजाना कहां छोड़ रहा था – धिरिनागि धिरिनागि धिनता
नहीं छोड़ता था कमलपुर के बाबुओं के घर की तरफ आना. इतने बरस बाद फिर से तो आ ही गया… इधर… किसका मोह पुकारता है बार-बार…
अ… कि… हे.. आ… आ…
झरबेरी के जंगल के पास सुरीली आवाज… इतने समारोह के साथ रसप्रिया की पदावली… कौन गा रहा है?…
“नव वृंदावन नव नव तरूगन “
मृदंग की तरह कांपने लगा मिरदंगिया का शरीर. उंगलियाँ पूरे पर थिरकने लगी. खेतों में काम करने वालों ने कहा –
-लगता है आ गया पगला मिरदंगिया. कहीं भी शुरू हो जाता है.
-हम तो सोचे थे कि मर खप गया होगा. बहुत बरस बाद इधर आया.
झरबेरी की झाड़ी में छिपकर देखा मोहना बेसुध होकर गा रहा है. मृदंग के बोल पर झूम झूमकर गा रहा था. अधपगला मिरदंगिया की उंगलियां फिरकी की तरह नाचने को व्याकुल हो रही थी.
धिगिनागि तिन धिगिनागि तिन
भावावेश में नाचने लगा. रह रहकर विकृत आवाज में पदों की कड़ी धरता-फोंय – फोंय – फोंय –
मोहना गाना रोक कर मुस्कुराया -टेढ़ी उंगली पर भी इतनी तेजी!
-कमाल! कमाल! किससे सीखे? कौन है तुम्हारा गुरु? बताओ,
मोहन फिर हँस दिया – सीखूंगा कहां? माँ तो रोज गाती है. बस उसी से सीख लिया
– यह लो आम खाओ! बेझिझक मोहना आम चूसने लगा. मिरदंगिया के उत्साहवर्धन ने मां का डर कम कर दिया था शायद. – – अच्छा, तुम्हारे मां बाप…
-बाप नहीं है. मां है. बाबू लोगों के यहाँ कुटाई पिसाई करती है…
-और तुम काम करते हो?
-हां कमल पुर के नंदू बाबू के यहां. हम लोग का घर सहरसा में था. तीसरे साल सारा गांव कोसी मैया के पेट में… बाप भी कोसी मैया के पेट में. यहां मां का ममहर है.
जमीन आसमान की कड़ियाँ जोड़ने लगा पँचकौड़ी मिरदंगिया – काँपती आवाज में पूछा-
– बाप का नाम?
-अजोधादास- मोहना ने आम चूस कर गुठली फेंक दी थी.
-अजोधा दास? बूढा अजोधा दास, जिसके मुंह में न बोल और न आँख में लोर.. गठरी मोटरी ढोनेवाला..
– बड़ी सयानी है तुम्हारी माँ – लंबी सांस लेकर मिरदंगिया ने झोली से एक बटुआ निकाला. उसमें कुछ मुड़े – टुड़े नोट निकाले-मोहना की आंखें चमक उठी – क्या है लोट?
फिर फौरन भय की छाया नाच गई,- लेकिन मां मारेगी. हम नहीं लेंगे नोट.
-रखलो, रखलो, फारबिसगंज के डागडर बाबू से बढ़िया दवा लिखा लेना. गर्म पानी पीते रहना. तुम्हारी मां तो सब जानती है. –
-हां तो.. पीपल, काली मिर्च, अदरक को घी में पकाकर, शहद के साथ चटाती भी है. कहती है इससे गला अच्छा रहता है.
मिरदंगिया ने शायद तीसरी बार कहा – बड़ी सयानी है तुम्हारी मां!
-चलो न. यहीं बगल की खेत में घास काट रही है – आग्रह किया मोहना ने.
मिरदंगिया चलते चलते रूक गया- फिर बोला- नहीं मोहना! तुम्हारे जैसा गुणवान बेटा पाकर तुम्हारी मां महारानी है. मैं महाभिखारी, दसदुआरी, जाचक, फकीर… पैसे रख लो. यह भीख के पैसे नहीं हैं. मेरी कमाई के हैं.
गौर से देखा उसने मोहना की आंखों में – मोहना की बड़ी-बड़ी आंखें कमलपुर के नंदू बाबू की आंखों जैसी थी.
-रे मोहना! कहां चला जाता है और कहीं छुप कर लड़कों के साथ बीड़ी तो नहीं पी रहा. रमपतिया चिंतित थी. अकेली औरत के लिए कितना मुश्किल है बच्चे को पालना.
-तुम्हारी मां पुकार रही हैं..
-तो तुम कैसे जान गए?
विषण्ण हंसी हंसकर बोला, मिरदंगिया – मां बुला रही है. जाओ. अब मैं पदावली नहीं, रसप्रिया भी नहीं गाऊंगा. खाली निर्गुण. तभी मेरी उंगली सीधी हो पाएगी. शुद्ध रसप्रिया कौन गाता है…
निर्गुण गाता हुआ मिरदंगिया झारबेरी की झाड़ियों के पार चला गया था. दूसरी तरफ से घास का बोझ सिर पर लेकर मां आ गई. लड़कों ने बता दिया था कि पँचकौड़ी मोहना से जाने क्या बात कर रहा है बहुत देर से. बीच-बीच में गाना भी गा रहा है. – – मोहना! क्या कर रहा है अकेले? मृदंग कौन बजा रहा था?
-पँचकौड़ी मिरदंगिया!
-ऐं क्या? आया था क्या? – रमपतिया के हाथ काँपने लगे. उसको ही मिल गया. क्या हुआ था, हम पति आगे हाथ कांपने. घास का बोझा जमीन पर पटका. धम्म से बैठ गई. गला सूखने लगा. क्यों, क्यों आया था, मोहना से क्यों मिला था,
-क्यों आया था वह?
-हां, मैंने तो उसके ताल पर रसप्रिया भी गाया था. शुद्ध रसप्रिया कौन गा सकता है आजकल?
रमपतिया ने मोहना को आह्लाद से छाती से सटा लिया. मां का भी अजब है- कभी टोकरी भर शिकायत, बेइमान है, झूठा है, गुरु द्रोही है और कभी…
-झूठा कहीं का! खबरदार! जो हेलमेल बढ़ाया दसदुआरी जाचक से. अपना ही नुकसान होता है.
मोहना ने मां की छाती से सटे सटे कहा- जो भी हो, गुनी आदमी के साथ रसप्रिया…
-चोप्प! खबरदार जो रसपिरिया का नाम लिया.
धतिंग – धतिंग – दूर से मृदंग की आवाज और दूर होती जा रही थी…
-और कुछ कहता था मिरदंगिया?
-कहता था तुम्हारे जैसा गुणवान, बेटा…
-झूठा! बेईमान! ऐसे लोगों की संगत कभी मत करना और रसप्रिया तो कभी मत गाना इन लोगों के साथ… बज्जर गिरे रसपिरिया पर
मोहना टुकुर टुकुर मां का मुंह देख रहा था. मां के बाल सूखी घास की तरह दिख रहे थे लेकिन आंखों में बहुत गीलापन था. तभी रोल उठा. चरवाहे लड़के भागते हुए आए –
मोहना रे! मिरदंगिया गिर पड़ा है सीमान पर…
-कैसे? – रमपतिया बदहवास होकर दौड़ी…
धौंकनी की तरह चल रही थी पँचकौड़ी की साँसें.. धरती पर बेसुध पड़ा था – चरवाहे लड़के पत्तों के दोने से पानी छिड़क रहे थे मुँह पर, कोई गमछे से हवा कर रहा था…
धीरे से आंखें खोली मिरदंगिये ने.. तभी… आ गई रमपतिया? हमको मालूम था तुम आओगी… एक बार बस रसप्रिया सुना दो… आखरी बार… हाँफ रहा था.
-पाँचू! – काँप गई आवाज उसकी. साँस तेज चल रही थी.
कँपकँपाती आवाज में रसप्रिया की कड़ी गाने लगी…
न व अ नु रा गि नी रा धा
कि छु न य मा न य बा धा
कसम तोड़ दी थी रमपतिया ने. मोहना तो छोटा था भला क्या समझता.. मिरदंगिया की साँसों का ताल कट गया था… हमेशा के लिए…
पंकज मित्र 15 जनवरी, 1965 (राँची). प्रकाशन : ‘क्विज़मास्टर’, ‘हुड़ुकलुल्लु’, ‘जिद्दी रेडियो’ बाशिंदा @ तीसरी दुनिया, अच्छा आदमी (कहानी-संग्रह) सम्मान : ‘इंडिया टुडे’ का ‘युवा लेखन पुरस्कार’, भारतीय भाषा परिषद् का ‘युवा सम्मान’, ‘इसराइल सम्मान’, ‘मीरा स्मृति पुरस्कार’, ‘राधाकृष्ण पुरस्कार’, ‘वनमाली कथा सम्मान’, ‘रैवान्त मुक्तिबोध सम्मान’ आदि। सम्प्रति : आकाशवाणी, राँची में कार्यक्रम अधिशासी। |
पंकज मित्र विलक्षण कथाकार और सूक्ष्म चिंतक हैं।उनका यह कहानी अविस्मरणीय है ।
बिल्कुल जैसे रेणु ने ही लिखी हो। बहुत बधाई पंकज जी।
रोहिणी अग्रवाल
रचना के पुनर्पाठ, कथ्य के पुनरावलोकन एवं गल्प के पुनर्सृजन से आगे की चीज़ है यह. साधुवाद समालोचन को कि ऐसा नायाब काम दस्तयाब करा देता है.
कहानी पढ़ता हूं, मूल को भी ध्यान में रखकर.
यह तो गजब है। देर से ही सही, पुनः पढ़ कर शुभकामनाएं दे रहा हूं।वैसे भी पंकज मित्र की कहानियां मुझे पसंद हैं।