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Home » चंद्र मोहन की कविताएँ

चंद्र मोहन की कविताएँ

असम राज्य के सुदूर कार्बी आंगलोंग जिले से हिंदी में कविता लिखने वाले चन्द्र मोहन का परिचय बस इतना ही है- ‘फिलहाल खेती बाड़ी, इधर उधर काम’. उनकी कविताएँ भी उनके अनुभवों से ही उपजी हैं. ‘हिंदी पट्टी’ में जिस तरह की कविताएँ लिखीं जा रहीं हैं उनसे ये अलग हैं, हो सकता है इनपर कुछ असमियां कविताओं का भी प्रभाव हो. चंद्र मोहन अगर लिखते रहे तो समकालीन हिंदी कविता में वह नया प्रक्षेत्र निर्मित करने वाले कवि साबित होंगे. उनकी पांच कविताएँ प्रस्तुत हैं.

by arun dev
April 11, 2022
in कविता
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चंद्र मोहन की कविताएँ
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चंद्र मोहन की कविताएँ

 

1.
ये गेहूँ कटने का मौसम है

यह गेहूँ कटने का मौसम है

इस मौसम में
देशी-परदेशी चिड़ियाँ
उदास होती हुईं
लौटेंगी
कपिली नदी के उस पार घने वन जंगलों में दूर कहीं

इस मौसम में
गेहूँ के खेतों में झड़े हुए गेहूँ के दानों को
पँडूक खूब चुगेंगे
और फुर्र-फुर्र उड़ जाएंगे बड़े ही अफसोस के साथ
जब हम गेहूँ को काट कर घर आँगन में ढोने लगेंगे
दाने के लिए

इस मौसम में
गेहूँ काटने के लिए
गाँव-जवार के सभी खेत मज़दूर-किसान
लोहारों के यहाँ
हँसिए को पिटवाएंगे
धार दिलवाएंगे

यह गेहूँ कटने का मौसम है
इस मौसम में
हँसी-खुशी मज़दूरी मिलेगी खेत मज़दूरों को

इस मौसम में
गेहूँ के खेतों में बनिहारिन स्त्रियाँ
कटनी की लहरदार गीत गाएंगी
तब झुरू-झुरू बहेगी
शीतल बयरिया भी
तब चिलकती धूप भी रूप को मुरझा देगी

ये गेहूँ के कटने का मौसम है दोस्तों!
इस मौसम में
चौआई हवाएँ भी खूब बहेंगी

यह बहुत डर भी है
कि धूप तो तेज होगी ही
धूप में हम श्रमिकों की समूची देह जलेगी ही

लेकिन हम पृथ्वी से प्रार्थना करते हैं
कि इस बार जले न गेहूँ किसी का
न फँसे खेत में बारिश के चलते
न जमे खेत में गेहूँ बारिश के चलते !!

 

२.
तब लौटते थे

सूरज आगे से डूब जाता था उस जंगल के पार
और चांद पीछे से निकल आता था
तब लौटते थे घर हम
बैलगाड़ी हांकते हुए

सब पंछी लौटते थे
और हमारी थकान
कहीं नहीं लौटती थी
जूते हुए खेतों में
मिट्टी में दबी दबी रहती थी

हमारी नरम गरम आकांक्षाओं की तरह.

3.
मज़दूरों की मौत

मैं देख रहा हूँ कि खेतों के माथे पर से खून रिस कर बह रहा है
और रवि के रथ का घोड़ा पृथ्वी पर रोशनी का रास्ता देने से पहले
कहीं आसमान में बल्ब की तरह फ्यूज़ हो गया है!

ढूंढ रहा है वह कोई ऐसा कवि
कोई ऐसा श्रम और मर्म ईजाद करने वाला मज़दूर
जो पहले खेतों के माथे पर से
खून के निशान पोंछ सके

बेचैन दिन का चांद एक शोकाकुल नदी के पार
पुकार रहा है जमीनी तारों को कि मुझे बचाओ
मुझे बचाओ इस संदेह भरे समय के यमदूत से

दिन में इतना अंधेरा क्यों दिख रहा है
मेरी मजूर माँ कह रही है
चारों तरफ कंगाली ही कंगाली
कंगाली बिहू कैसे मनेगा असम वासियों!

कहीं सूखे की कंगाली
कहीं ब्रह्मपुत्र में मौन हाहाकार!
कहीं पहाड़ टूटने पर हाय हाय!

सब ओर महामारी,
सब ओर नरसंहार
कीड़े मकोड़े की तरह मरते मनुष्य!
चारों तरफ चीखते हांफते मनुष्य!

और कहीं तानाशाही अवसर की नीचता
ऐसी तानाशाही अवसर की नीचता
कि घर भर
गांव घर
जिला बस्ती
हर नगर.

 

4.
निर्वासन

मैं जन्म से लेकर अबतक नदी के तीरे जाता रहा हूं और खेतों के बीच
मुझे बहुत ही कम चीजें
याद रही हैं

क्योंकि दिल के पुस्तकालय में
याद करने लायक यातनाएं नहीं रहतीं

हालांकि भूलने की कोशिश करता हूं अपने देश को
भूलने के काबिल नहीं हो पाता हूं
न दुनियादार लोगों के भरोसे का मानुष

पंछियों की अपार करुणा में
पुकारती हुई आवाज़ें सुनता हूं
चुप लगा जाता हूं
यह मेरी चुप्पी
मेरी आत्मा की अंतहीन यातना है.

मैंने यहां सभी की आंखों में देखी है करुणा
सभी की आंखों में रोते हैं गौतम बुध !

दुनिया की आधा आबादी से अधिक
निर्वासन झेल रहे लोगों में से
मैं भी एक हूं
मेरी कविता इस देश के लिए
और
कितने जून भुगत सकती है

कितनी कितनी स्त्रियों के
दूध पीकर जिए हुए बच्चों को
मैंने देखा है अकाल के आकाश में
निज आंखों से

और उन बच्चों को भी अब देख रहा हूं
सामान की तरह ट्रकों में लदते हुए
और किसी कुरकुरे की तरह रास्ते में गिर जाते हुए.

मेरी दादी की पुरानी पोटली
जिसमें कुछ
अनाज के दाने बचे हुए थे
जो कि इसी देश की भूमि से लाए गए थे

यदि उन्हें कहीं रोपूंगा
क्या मुझे किसी देश की नागरिकता मिलेगी?
उन सभी अनाजों को भी नहीं ?

क्या पृथ्वी की तरह
गोल गोल प्याजों को भी नागरिकता नहीं मिलेंगी?

अनाजों के नस्ल आज भी जिंदा हैं मेरी खेती में
पर वह खेत मेरे नहीं है
देश के मानचित्र में.

क्या है इस उग्रवादी मौसम में,
इस ऋतुराज बसंत में
कितनी हरियाली
और कैसी अ-रोमांटिक सुंदरता है
कलाओं की दुनिया की
कि कातिल मस्त है,बेपरवाह
हमारे लिए क़ब्र पर क़ब्र खोदता हुआ

कि आदमी, मार तमाम आदमी,
आदमी ही आदमी भागा जा रहा है
खेत बाड़ी
नलबाड़ी
पानबाड़ी
तामुलबाड़ी
और
जिंदगी की दुकानदारी
छोड़कर
सारा का सारा डॉक्युमेंट्स फाड़कर
आदमी कहां जा रहा है

आदमी कहां जा रहा है
आदमी कहां जाएगा
किसी गली
किस देश
कहां गुलामी खटने जाएगा

ज़रा पूछो उसे
रुको भाई !
यातना शिविर भी एक निर्मम बीहड़ देश का नाम है.

 

5.
मेरी मां मछली पकड़ती है

मेरी मां मछली पकड़ती है
मैं नदी के आसपास कुदाल चला रहा होता हूं.

मेरी बहन नदी की तरह जीती है
मैं बहन की आंखों में आज़ादी की नाव
बहना देखना चाहता हूं

मेरी मां मछली पकड़ती है
उस मछली का नाम बयकरी है
और खुश होती है

मेरे पिता वहीं कहीं होते हैं
कुभड़ा की खेती की तैयारी में
मैं बांस झाड़ियों पर गिलहरियों की उछल-कूद देखता हूं
और पंछियों की कुर्बानियां

मैं मां को देखता हूं
मां नहाने जाती है नदी में
या नदी नहाती है माँ में
मैं नहीं जानता
लेकिन इतना जानता हूं
मेरी मां मछली पकड़ती है
और मैं कुदाल चलाता हूं

मेरी बहन मछली को देखती है पानी में
मेरी मां उस मछली को पकड़ लेती है
आती है उबड़ खाबड़ खाईंयां चढ़ते हुए
हांफते हुए
हमसे कहती है यह देखो मछली
नदी की जिंदा मछली

माँ बोरी में मछली पकड़े हुए
लाती है
मुझे दिखाती है
जहां सूरज हर रोज विदा होता है
जहां खेतिहर मज़दूर कच्चू बोता है.

चन्द्र मोहन
फिलहाल खेती बाड़ी, इधर उधर काम

पता -खेरोनी कछारी गांव
कार्बी आंगलोंग (असम)
मोब. 9365909065

Tags: 20222022 कविताएँचंद्र मोहन
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Comments 21

  1. कृष्ण कल्पित says:
    1 month ago

    हिंदी कविता में किसी कवि ने मछली पकड़ने, गेहूं की फ़सलों, बारिश, कुदाल इत्यादि बिम्बों का यथार्थ का अंकन करने के लिए बहुत संवेदनशीलता के साथ प्रयोग किया है । अलग भाव – भूमि की सार्थक कविताएँ । कवि और समालोचन का आभार ।

    Reply
  2. श्रीविलास singh says:
    1 month ago

    बेहतरीन कविताएँ। एक बड़ी दुनिया के जीवन और सुख दुःख से जुड़ी हुई। बहुत दिनों बाद किसी ने गाँव -किसान के जीवन को बेहतर तरीक़े से उकेरा है। कवि को शुभकामनाएँ और आपका बाहर।

    Reply
  3. पंकज चौधरी says:
    1 month ago

    समालोचन ने बड़ा काम किया है। चन्द्रा बहुत सुंदर कविताएं लिख रहे हैं। कृषक संस्कृति के कवि हैं वे। चन्द्रा और समालोचन को बधाइयां।

    Reply
  4. M P Haridev says:
    1 month ago

    1. इस कविता में गेहूँ की फसल पक जाने और काटकर सुरक्षित जगह पर रखे जाने की चिंता जतायी गयी है । किसान को भूमिहीन मज़दूर की चिंता है । फसल काटते हुए, काटकर दाने निकालने तक बारिश न आने की कामना की गयी है । ताकि मज़दूर को मज़दूरी दी जा सके । लुहार को इन दिनों हँसिये की धार लगाने पर आमदनी की उम्मीद होती है । चिड़ियों को दाना मिल जाता है । मैं कल रात टेलिविज़न पर जापान की यात्रा पर गये एक व्यक्ति को देख रहा था । वहाँ भी फसल काटने का मौसम त्योहार के रूप में मनाया जाता है । देवताओं से प्रार्थना की जाती है कि फसल सुरक्षित जगह पर पहुँचायी जा सके ।

    Reply
  5. ज्ञानचंद बागड़ी says:
    1 month ago

    बहुत बधाई। अरुण जी में आपकी इस खोजी प्रवृत्ति का कायल हूं। जहां पत्रिकाओं के संपादकों को केवल स्थापित नामों से सरोकार है आप दूर दराज से अनाम लोगों को ढूंढकर स्थान देते है। मैं ये कभी नहीं भूल सकता कि मुझे भी आपने ही खोजा है। धन्यवाद।

    Reply
  6. M P Haridev says:
    1 month ago

    कवि चंद्र मोहन भावनाओं का पुंज हैं । ये बातें 1965 से 1967 के बीच की रही होंगी । अपनी माँ (हमारी बोली में भाभी) के साथ मेरी छोटी बहन और मैं अपने ननिहाल लोहारी राघो (हमारे ज़िले का एक गाँव) हाँसी से 12 मील दूर है । गाँव के निवासियों का मुख्य कार्य खेती करना था । वह ज़माना बैलगाड़ी का था । सूर्य छिप रहा होता और किसान अपनी अपनी बैलगाड़ी से घर लौट रहे होते थे । गाँव की गलियाँ कच्ची थीं । सचमुच गोधूली । ढलते सूरज के वक़्त बैलों और किसानों को अपने घरों की राह नहीं भूलती । शुक्ल पक्ष में चंद्रोदय हो जाता । एक कवि ने लिखा था-सूर्यास्त के बाद भी रोशनी रहती है थोड़ी देर के लिये । ताकि जो पक्षी सूरज को डूबता देख उड़ चले हैं अपने अपने घोंसलों के लिये, रास्ते में पेड़ों से न टकरा जायें । कविता की पंक्तियों में ग़लती हो सकती है । परंतु मेरी भावना समझा पाया होऊँगा । किसान जानते हैं कि अगली सुबह फिर खेत में जाना होगा । चंद्र मोहन ने सुंदर शब्दों में लिखा है-थकान….मिट्टी में दबी दबी रहती थी’ । सुबह किसान उसी मिट्टी को आग़ोश में ले लेता होगा । रात भर खेत उदास सोया होगा ।

    Reply
  7. Anonymous says:
    1 month ago

    अपनी जमीं से गहरे जुड़े हुए कवि हैं चंद्र , इसलिए उनकी अनुभूतियां इतनी पारदर्शी हैं,उनकी रचनात्मकता बिना बोझिल हुए सहजता से अपने लोगों के जीवन को शब्दों में उकेरती है,उनकी संवेदनाएं सामाजिक सरोकारों के प्रति जागरूक हैं तभी वो आज के बिषम परिदृश्य को भी बेहिचक कविता में चिन्हित करते चलते हैं , बहुत शुभकामनाएं कवि को इतनी उम्दा कविताओं के लिए

    Reply
  8. M P Haridev says:
    1 month ago

    3. अभी मैंने ‘मज़दूरों की मौत’ टाइटिल पढ़ा है । मेरा दिल बैठा जा रहा है । मेहदी हसन की गायी हुई एक ग़ज़ल का शे’र जिसे आरज़ू लखनवी ने लिखा था । ठीक तरह से याद नहीं आ रहा ।
    मुग्घम बात पहेली जैसी, जो कोई बूझे तो पछताये
    और न बूझे तो पछताये
    मज़दूरों के दर्द को मज़लूम आदमी समझ सकते हैं । मुझे इस श्रेणी में गिन लीजिये । इस तरह की कविताएँ या क़िस्से मेरे दर्द को बाँट लेते हैं । खेतों के माथे से ख़ून बहता है । निश्चित रूप से बहता है । भारत के सीमांत किसानों की खेती बारिश, धूल-धक्कड़ और बवंडर के बीच उपजती है । पृथ्वी की प्रकृति अपनी धुरी पर घूमना तथा सूरज के चारों तरफ़ चक्कर लगाना है । यह नहीं थकती और इसकी कील भी नहीं घिसती । यह ख़ुद परेशान है । न घूमे तो रबी और ख़रीफ़ की फसलों को कैसे बोया जा सकेगा । चंद्र जी और अरुण जी आप जैसे कार्यरत एसोसिएट प्रोफ़ेसर और मुझ जैसा थोड़ी मात्रा का पेंशन भोगी कर्मी रोटी खा रहा है । डॉ मनमोहन सिंह जी के छठे वेतन आयोग ने अध्यापकों और प्राध्यापकों के वेतनमान कई गुना बढ़ा दिये । बैंकों में प्रावधान नहीं हैं । सिर्फ़ महँगाई भत्ता बढ़ता है । हमारा बल्ब पूँजीवादी व्यवस्था ने फ्यूज़ कर दिया है । एक शे’र है: वक़्त हमारा साथ न देगा
    ख़ुद ठहरेगा चलते चलते
    मैं कवि नहीं हूँ । मज़लूम के प्रति सहानुभूति रखता हूँ । फ़ेसबुक पर मेरी एक दोस्त हैं रश्मि मूँदड़ा महेश्वरी । उन्होंने फ़ेसबुक पर सूचना दी कि एक व्यक्ति की कार दुर्घटनाग्रस्त हो गयी । उनकी छह वर्ष की पुत्री बुरी तरह ज़ख़्मी हो गयी है । उन्होंने मदद की अपील की । मैंने NEFT से दो हज़ार रुपये भेज दिये । किसी पाठक को कम रक़म महसूस होगी । हम दोनों व्यक्ति बीमार रहते हैं और पेंशन पैंतीस हज़ार रुपये । सात हज़ार रुपये महीना दवाइयों का ख़र्च है । कोई नयी बीमारी आ जाये तो ख़र्च बढ़ जाता है । बिजली, रसोईघर में सामान का ख़र्च और दूध का बिल ।
    माँ कंगाली (ग़रीबी से अधिक प्रभावी शब्द) में बिहू का त्योहार मनाना चाहती है । रक़म कहाँ से आये ।

    Reply
  9. Swapnil Srivastava says:
    1 month ago

    चंद्रमोहन की कविताएं प्रकाशित कर आपने बहुत अच्छा काम किया , वे पूर्वी उ प्र के मूल के हैं । असम के छोटे से गांव में रहते हुए किसानी करते है ,उनका जीवन संघर्ष बहुत कठिन है । पिछले कई सालों से वे मेरे सम्पर्क में है , वे फोन पर कपिली नदी और हाथियों के झुंड के बारे में बातें करते हैं । जिन कविताओं को हम यहां पढ़ रहे हैं उसके पीछे अनुभव का ताप है , ये सामान्य स्थिति में लिखी गयी कविताएं नही है । इतनी अच्छी कविताओं के लिए मैं चंद्रा और समालोचक को बधाई देता हूँ । अच्छी कविताएं अपनी जगह खोज लेती है , उसके लिए किसी महामहिम की जरूरत नही होती ।

    Reply
  10. Anonymous says:
    1 month ago

    ऐसे अलहदा विषयों (जिन पर लोगों की नजर बमुश्किल ही पड़ पाती है)पर पड़ने वाली आपके कलम की निगाह को सलाम… बहुत ही खूबसूरत रचनाएं सर… ❤

    Reply
  11. कैलाश मनहर says:
    1 month ago

    खेती-किसानी,मछली पकड़ना,कपिली नदी का वर्णन चन्द्रा की कविताओं की अतिरिक्त विशेषता है | अपने मौलिक भावबोध के चलते वे इधर की कविता में अपना अलग स्थान बनाते हैं | चन्द्रा की कवितायें प्रकाशित करने हेतु समालोचन को बहुत बहुत साधुवाद |

    Reply
  12. M P Haridev says:
    1 month ago

    4. निर्वासन
    निर्वासन तब तक यातना शिविर के बीहड़ देश का नाम रहेगा जब तक भारतीयों को दो जून की रोटी नहीं मिल पाती । हिमांशु जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं । उनका आर्टिकल आज के इंडियन एक्सप्रेस में छपा है । उनका कहना है कि कोरोनावायरस महामारी के कारण वर्ष 2011-12 के मुक़ाबले 2020-21 में 26% व्यक्ति ग़रीबी रेखा से नीचे हैं । लेकिन चंद्र मोहन की कविता के आख्यान तथा मेरी तथ्यात्मक रिपोर्ट कविता से मेल खाती है । हिमांशु जी की रिपोर्ट का आधार अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष तथा विश्व बैंक हैं । साथ ही नेशनल सेम्पल सर्वे ऑर्गनाइज़ेशन हैं । हाँसी में मेरे एक दोस्त रहते हैं । वे डिप्टी जनरल कमिश्नर ऑफ़ लेबर ऑर्गनाइज़ेशन पद से सेवानिवृत्त हुए हैं । लक्ष्मी की अपार कृपा है । यहाँ लक्ष्मी मुफ़्त में बदनाम है । हाँसी में ही एक प्राइवेट लिमिटेड उद्योगपति को जानता हूँ । उनके कारख़ाने में 40 मज़दूर काम करते थे । NSSO का अधिकारी रजिस्टर में दर्ज दस मज़दूरों की संख्या पर हस्ताक्षर करके और रक़म ऐंठ कर चल देता था । हम लोगों ने ग़रीबी नहीं देखी । तमिलनाडु के एक ज़िले की पहाड़ियों में ग़रीबों की हालत बयान करता है । एक परिवार में यदि दो युवतियाँ या महिलाएँ हैं तो एक झीनी साड़ी है । एक महिला घर में नग्न बैठती है तो दूसरी बाहर निकलती है । वहाँ के तत्कालीन वाल्मीकि डिप्टी कमिश्नर ने वहाँ एक कार्यक्रम में एक संस्था के सहयोग से एक कार्यक्रम कराया था । संस्था द्वारा पहले से एकत्र किये गये पहनने योग्य कपड़ों को धुलवा और इस्तिरी कराकर उस बस्ती के परिवारों में बाँटे थे । महिलाएँ बाँटने वालों के पाँव में माथा टेककर रो रही थीं । तभी संस्था के सदस्यों ने अपनी अपनी जेब से रुपये इकट्ठे करके वितरित किये । उस समय जे जयललिता मुख्यमंत्री थीं । तमिलनाडु में एम करुणानिधि से लेकर उनके पुत्र स्टालिन का राज है । कविता में ग़रीबी से संत्रस्त व्यक्तियों की व्यथा कथा लिखी गयी है । एक पंक्ति में महात्मा बुद्ध की जगह बुध चला गया है । शुद्ध कर दें ।

    Reply
  13. अरुण कमल says:
    1 month ago

    चंद्रमोहन की कविता मैंने पहले भी पढ़ी है।आपका कहना सही है कि वह नये अनुभव क्षेत्र के कवि हैं।शुभकामना

    Reply
  14. आरसी चौहान says:
    1 month ago

    चंद्र की कविता मैं बहुत दिनों से पढ़ रहा हूं चंद्र आसाम से चलकर मुझसे आजमगढ़ मिलने आए थे । मैं भाव विह्वल था । सोनी पांडे के घर चाय नाश्ता भी हुआ ।मेरे घर खाना पीना भी हुआ। फिर देश जहान की बहुत सारी बातें हुई ।चंद्र की कविताओं को पढ़ने के बाद ऐसा लगता है कि चंद्र खेतों में बीज नहीं कविता बोते हैं और उसी की फसल लहलहाते हैं ।कपिली नदी ने उन्हें एक नई पहचान दी है या इन्होंने कपिली नदी को एक नई पहचान दिलाई है। ऐसे ही खूब लिखते रहिए मेरे भाई बहुत-बहुत बधाई

    Reply
  15. हीरालाल नगर says:
    1 month ago

    नि:संदेह कविताएं एकदम नये इलाके की ओर ले जाती हैं। ऐसा लगता है जैसे कवि हिन्दी बहुत अच्छी जानता है या भारतीय किसान और उसके पूरे परिवेश को बहुत अच्छी तरीके से जानता है। फसल, फसल का पकना और फिर उसका काटा जाना -इन सबका कवि ने मौलिक तथा देशज बिम्बों में दृश्यमान किया है।
    चन्द्र मोहन की और भी कविताएं यहां प्रकाशित कीजिए।
    चन्द्र मोहन अवचेतन में छाया हुआ नाम है। याद नही आ रहा। हिन्दी में कविता लिखनेवाले और भी कवि हैं, जिन्हें मैं जानता हूं।
    चन्द्र मोहन हिंदी परंपरा के कवि हैं। शायद इन्होंने केदारनाथ सिंह को गंभीरता से पढ़ा है। उनकी टेर है इनमें। इन सबको कवि ने अपनी मौलिक भाषा और देशज बिम्बों में दृश्यमान किया है।
    मेरी बधाई और शुभकामनायें।

    Reply
  16. दयाशंकर शरण says:
    1 month ago

    संवेदना की आँच से पगी इन कविताओ में एक देशज स्वाद है।अपने ही देश में निर्वासन की पीड़ा इनका मूल स्वर है।इनमें भूमि पुत्रों की आकांक्षा और आह- दोनों का समवेत स्वर है। कवि एवं समालोचन को बधाई !

    Reply
  17. Sumit Tripathi says:
    1 month ago

    सुंदर कविताएँ. कवि तथा समालोचन दोनो को बधाई.

    Reply
  18. डॉ. सुमीता says:
    1 month ago

    श्रमसिक्ताओं से सिंचित खेती-किसानी की सुन्दर कविताओं के लिए चंद्र मोहन जी को बहुत बधाई। निर्मम समय के क्रूर पंजे में छटपटाते संवेदनशील किसान-मज़दूर मन को, जिसने “यहाँ सभी की आँखों में देखी है करुणा”, बेहद मार्मिकता और ईमानदारी से अभिव्यक्त किया है उन्होंने। ‘मज़दूरों की मौत’ हो या ‘निर्वासन’, हमारे समय का सत्य उजागर करती हुई ये कविताएँ गहरे अवसाद में छोड़ जाती हैं। कवि को पुनः बधाई और इन्हें प्रस्तुत करने के लिए ‘समालोचन’ को बहुत धन्यवाद।

    Reply
  19. यादवेन्द्र says:
    1 month ago

    चंद्र मोहन की कविताएं पहले से पढ़ता रहा हूं,उनके पास साझा करने को दुर्लभ अनुभव और चिंताएं बातें हैं।उन्होंने पिछले महीनों में हाथियों द्वारा आबादी और फसल नष्ट करने के कई पोस्ट लिखे, उन अनुभवों पर उनकी कविता की प्रतीक्षा है।समालोचन ने उनके साथ हिंदी समाज का औपचारिक परिचय कराया,बधाई
    — यादवेन्द्र

    Reply
  20. Madhu B Joshi says:
    1 month ago

    In kavitaon mein badee kavita ke beej hain.
    Asha hai hindi kshetra Inka swagat karega.

    Reply
  21. अमिताभ मिश्र says:
    1 month ago

    वाकई चंद्रमोहन की कविताएं एकदम अलग और ठेठ तेवर की क्षमताहैं।
    एकदम जमीन से जुड़ी कविताएं, जिनमें फसल कटने के मौसम से लेकर, मजदूरों के दुख तकलीफ, निर्वासन, और यातना शिविर के निर्मम बीहड़ देश की पीड़ा व्यक्त हुई हैं।
    सारी कविताएं पढ़ने के बाद आप आत्मा की अंतहीन यातना महसूस करते हैं।
    हमारे निर्मम समय को नंगी आंखों से देखती हैं ये कविताएं।

    Reply

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