• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » प्रभात रंजन : पत्र लेखक, साहित्य और खिड़की          

प्रभात रंजन : पत्र लेखक, साहित्य और खिड़की          

युवा चर्चित कहानीकार प्रभात रंजन की नई कहानी ‘पत्र लेखक, साहित्य और खिड़की’. इस कहानी को पढ़ते हुए आप अपने  युवावस्था की बिसरी स्मृतियों में चले जाएँ तो कुछ आश्चर्य नहीं. शायद आपको अपना लिखा कोई भूला प्रेम पत्र ही याद आ जाए जिसमें कुछ इस तरह लिखा हो आपने भी- “पहले सिर्फ तुम्हारा, अब सर्वहारा, कमलेश".  कहानी दिलचस्प है और रवानी से भरपूर.

by arun dev
November 12, 2013
in कथा
A A
प्रभात रंजन : पत्र लेखक, साहित्य और खिड़की          

पेंटिंग : राजा रवि वर्मा 

फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें

पत्र लेखक, साहित्य और खिड़की          

प्रभात रंजन

‘प्रिय सुम्मी,


सबके जीवन में एक मोड़ आता है, हमारे जीवन में भी आया. परिस्थिति ने हमें उस मोड़ से अलग-अलग रास्तों की तरफ मोड़ दिया है. तुम जा रही हो सुख के संसार में, मेरे लिए दुःख का वह सूना रास्ता बचा है जो न जाने मुझे कहाँ ले जाए. मुझसे यह आखिरी वादा करो- मुझे भूल जाना. मेरे पास आभा स्टूडियो की खिंचवाई फोटो है, तुम्हारी आखिरी निशानी की तरह रहेगी मेरे पास. भूल जाना तुम. मेरा क्या, आंधी की तरह तुम्हारे जीवन में आया था, एक तूफ़ान आया और उसने हमें एक नदी के दो किनारों पर पहुंचा दिया.

‘दो साल कैसे गुजरे पता ही नहीं चला’- उस रात जब चाँद बंसवाड़ी के घने झुरमुट के पीछे छिप रहा था, तुमने कहा था. तुम्हारे आखिरी शब्द गीले चुम्बन के उस आखिरी जूठन की तरह मन में ठहरे रह गए. अन्दर से तुम्हारी दादी के खांसने की आवाज आई थी जब तुमने आखिरी विदा ली थी. 

अलविदा!!! 

कल सुबह जब तुम अपने घर के बरामदे के छज्जे के तीसरे बांस के अन्दर से कुम्हड़े के पत्ते में लिपटी मेरी इस आखिरी चिट्ठी को को निकालोगी मैं गाँव के सिवान से दूर जा चुका होऊंगा. सुबह को डूबते आखिरी तारे के अँधेरे में यहाँ से दूर चला जाऊँगा. अपने गाँव सुग्गा से जहाँ अब मेरे लिए अँधेरा ही अँधेरा है. दो दिन बाद जहाँ बाजे बजेंगे, रात भर रौशनी होगी, भोज होगा, सब होंगे बस मैं नहीं होऊंगा! शहनाई की उस गूँज में मुझे कौन याद करेगा? 

क्या तुम भी? 

मुझे भूल जाना. अपनी जिन्दगी के नए उजालों में तुमको कभी मेरी याद न आए- यही मेरी आखिरी दुआ है तुम्हारे लिए. मेरा क्या! सांस लेने को अगर जीना कहते हैं तो तुम्हारे बगैर वैसे ही जीता रहूँगा. मेरे जीवन में जो सबसे अच्छा था उसकी यादों को संजोए.

कल यह कविता तुम्हारे लिए लिखी थी-

अगर डोला कभी इस राह से गुज़रे कुबेला

यहाँ अम्बवा तरे रुक

एक पल विश्राम लेना

मिलो जब गाँव भर से, बात कहना, बात सुनना

भूल कर मेरा

न हरगिज़ नाम लेना,

अगर कोई सखी कुछ जिक्र मेरा छेड़ बैठे

हंसी में टाल देना बात

आंसू थाम लेना!

शाम बीते, दूर जब भटकी हुई गायें रम्भायें

नींद में खो जाए जब

खामोश डाली आम की

तड़पती पगडंडियों से पूछना मेरा पता-

तुम को बतायेंगी कथा मेरी,

व्यथा हर शाम की,

पर न अपना मन दुखाना, मोह क्या उससे

कि जिसका नेह टूटा, गेह छूटा

हर नगर परदेस है जिसके लिए अब

हर डगरिया राम की!

भोर फूटे, भाभियाँ जब गोद-भर आशीष दे दें

ले विदा अमराइयों से

चल पड़े डोला हुमचकर

हाँ  कसम तुमको, तुम्हारे कोंपलों से नैन में आंसू न आयें

राह में पाकड़ तले

सुनसान पा कर

प्रीत ही सब कुछ नहीं है, लोक की मरजाद है सबसे बड़ी

बोलना रुंधते गले से—

‘ले चलो! जल्दी चलो! पी के नगर!’

पी मिलें जब

फूल सी ऊँगली दबाकर चुटकियाँ लें और पूछें—

‘क्यों?

कहो कैसी रही जी, यह सफ़र की रात?’

हँस कर टाल जाना बात!

हँस कर टाल जाना बात, आंसू थाम लेना!

यहाँ अम्बवा तरे रुक एक पल विश्राम लेना!

अगर डोला कभी इस राह से गुज़रे कुबेला!

अब बस. विदा

पहले सिर्फ तुम्हारा, अब सर्वहारा,

कमलेश.

बरसों बाद अपने गाँव गया तो एक दिन अपनी बची-खुची पुरानी किताबों को यूँ ही उलटने-पलटने लगा. मन कुछ नॉस्टेल्जिक हुआ जा रहा था. वीरेश्वर प्रसाद सिंह की ‘भारतीय शासन और राजनीति’ पुस्तक में यह चिट्ठी क्या मिली मन पूरा ही नॉस्टेल्जिक हो गया. २० साल से भी अधिक पहले का वह दौर याद आने लगा जब मैं इंटरमीडिएट में पढता था…

शहर के इकलौते कॉलेज में जो पढने में अच्छे समझे जाते थे वे साइंस पढ़ते थे, हम जैसे भुसकौल आर्ट्स पढ़ते थे. कॉलेज में सारे अच्छे कहे जाने वाले काम साइंस पढने वाले विद्यार्थियों के नाम होते थे. लेकिन कभी-कभी आर्ट्स पढने वाले कुछ विद्यार्थी भी चमक जाते थे, कहिये भुकभुका जाते थे. मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. हमारे शहर के सबसे बड़े कवि पूर्णेंदु सर हमारे कॉलेज में हिंदी पढ़ाते थे. उनकी क्लास में सबसे अधिक भीड़ जुटती थी. जो विद्यार्थी साहित्य में थोड़ी-बहुत दिलचस्पी रखते थे वे उनकी क्लास में कविता-कहानी सुनने आ जाया करते थे. उस दिन उन्होंने ‘नारायण खेमका स्मृति कविता प्रतियोगिता’ के प्रथम पुरस्कार विजेता के रूप में मेरे नाम की घोषणा करते हुए यह कह दिया कि इस बालक की कवि-प्रतिभा प्रभावित करती है. अगर इसी तरह इसने कविता का अभ्यास जारी रखा तो इसमें कोई संदेह नहीं कि यह एक श्रेष्ठ कवि बन सकता है.

सिर्फ १००० रुपये के नारायण खेमका स्मृति कविता प्रतियोगिता के पुरस्कार विजेता के रूप में नहीं, बल्कि पूर्णेंदु सर के इस वक्तव्य के कारण कॉलेज में खुसुर-पुसुर में मेरा नाम फैलने लगा- ‘पूर्णेंदु सर ऐसे किसी की तारीफ नहीं करते हैं. ई त लगता है कवि जी कहायेगा.’ यार-दोस्तों ने कविया बुलाना शुरू कर दिया. सीनियर लोग मिलने पर पहचान लेते और कई तो कह देते, कोई काम हो तो बताना. कविता लिखकर भी कोई प्रसिद्ध हो सकता है मुझे तब समझ में आया था. 

कमलेश सिंह भी ऐसा ही एक सीनियर था. गाँव सुग्गा के विशुनदेव सिंह का पोता. बिशुनदेव सिंह तरियानी ब्लॉक के दो बार प्रमुख रह चुके थे. कमलेश सिंह के कॉलेज में घुसते ही जूनियर लोग ‘प्रणाम भैया! प्रणाम भैया!’ कहने लगते. जब उस कमलेश सिंह ने कहा कि कोई बात हो कहना, सच कहता हूँ अपने कवि होने पर उस दिन जितना गर्व हुआ था आज तक नहीं हुआ. कमलेश सिंह जिसके सर पर अपना हाथ रख दे वह पूरे शहर में छाती तानकर चलता. सिनेमा हॉल में कितनी भी भीड़ हो लाइन के बाहर टिकट मिल जाता. साइकिल स्टैंड वाला साइकिल लगाने के पैसे नहीं लेता, होटल वाले उधारी पर चाय-नाश्ता करवा देते. कमलेश सिंह का नाम ही कुछ ऐसा था. शहर में सब जानते थे चुपचाप रहने वाला कमलेश बात बात में चाकू तान देता था. कहते हैं एक बार रामनवमी के मेले में बोचहाँ गांव वालों ने उसे घेर लिया था. गाँव वालों का कहना था कि उसने उसने उनके साथ मेला घूमने आई रूमा का दुपट्टा खींच दिया और फिर साइकिल से भागा जा रहा था. उसने समझाने की बहुत कोशिश की कि हवा के कारण उस लड़की का दुपट्टा खुद भी खुद उसके साइकिल की हैंडल में आकर फंस गया था. जब गांववालों ने उसकी एक न सुनी तो उसने पास ही कचरी छान रहे हलवाई का छनौटा उठा लिया और उसे तलवार की तरह भांजता हुआ अपनी साइकिल पर सवार होकर निकल गया था. बोचहाँ गाँव के कई पुरुष उस दिन घायल हुए लेकिन कमलेश सिंह को कोई पकड़ नहीं पाया.

बहरहाल, ऊपर कविता का जिक्र आया था तो उस ऐतिहासिक कविता की दो पंक्तियाँ आपके लिए भी-  

‘दर्द जिसको कहते हैं प्यार का नगीना है

आंसू मत कहो इसको आँख का पसीना है…’

कविता तो कविता उन दिनों चिट्ठी लिखने के कारण भी मेरी गुप्त रूप से ही सही लेकिन ख्याति हो गई थी. हुआ यह कि मेरे एक सहपाठी प्रह्लाद का दिल मनोरमा इंटर कॉलेज में पढने वाली सुरभि बाला के ऊपर आ गया था. लेकिन वह कह नहीं पा रहा था. कहने का मौका मिलने का तो सवाल ही नहीं उठता था. कहाँ मिलता कहाँ कहता. उसने यह तय पाया कि जब वह स्कूल से लगभग एक किलोमीटर दूर घिरनी पोखर कॉलोनी अपने घर लौटती है तो रास्ते में किसी तरह मौका देकर चिट्ठी देकर अपने दिल की बात कह दी जाए.

हैण्ड राइटिंग पहचान में न आये इसलिए उसने मेरा सहारा लिया- ‘पूर्णेंदु सर कहते हैं तुम बड़ा बढ़िया लिखते हो. तनी एक प्राइवेट चिट्ठी लिखो न.’ मैंने चिट्ठी लिखी. एक दिन दोपहर के वक्त जब वह स्कूल से घर जा रही थी तो मौका देखकर प्रह्लाद ने वह चिट्ठी उसके हाथ में पकड़ा दी. अगले ही दिन सुरभि बाला ने जवाबी चिट्ठी उसके नाम लिख दी थी.

मैंने प्रह्लाद के लिए लिखी उस चिट्ठी में उसके कहने पर यह लिखा था- अगर उसका जवाब हाँ है तो कल दोपहर में मेरी साइकिल दीपक स्टोर के बाहर खड़ी होगी. तुम उसके पीछे कैरियर में किताबों के बण्डल के बीच अपनी जवाबी चिट्ठी फंसा देना, मैं सामने से आकर उसे ले लूँगा. अगले दिन उसने इधर-उधर देखा और ठीक यही किया. उसने चिट्ठी में और बातों एक अलावा एक बात और लिखी थी, ‘एक बात है, आप लिखते बहुत अच्छा हैं.’ जब प्रह्लाद ने मुझे यह बात बताई तो उस दिन मुझे वह पूर्णेंदु सर से भी ज्यादा बड़ा सर्टिफिकेट लगा. तब तक अपने दिल की बात किसी को चिट्ठी लिखकर नहीं कह पाया था.

कह तो खैर बाद में भी नहीं पाया…

मैं चिट्ठी लिखकर अभी अपने दिल की बात कभी किसी को कह नहीं पाया. जब तब दूसरों के लिए चिट्ठी लिखता रहा…

खैर…

प्रह्लाद ने यह बात यह बात कुछ और लोगों को बताई, उन्होंने कुछ और लोगों को, बस बात फैल गई कॉलेज में. उसी ख्याति के कारण कमलेश सिंह ने मुझे एक दिन ‘लोहिया लॉज’ के अपने कमरे में बुलाया, बड़े प्यार से रामानुज का मशहूर मुढ़ी-कचरी खिलाया और जब मैं कुछ सहज हो गया तो उसने कुछ ‘प्राइवेट’ लिखने का अनुरोध किया तो मेरे लिए तो आश्चर्य की कोई सीमा नहीं रही. हमेशा मदद करने की बात करने वाला आज मदद मांग रहा था.

उसने किसी फिल्म निर्देशक की तरह सिचुएशन समझाया कि उसके गाँव में ही दूसरे टोले में रहने वाली सुमिता, जिसे वह प्यार से सुम्मी बुलाता था, की शादी तय हो गई थी. वह उसको अंतिम चिट्ठी लिखना चाहता था. ‘चिट्ठी ऐसी लिखना कि उसको जीवन भर याद रहे’, उसने कहा था. मैं किसी संवाद लेखक की तरह चिट्ठी लिखने लगा.

अब सुम्मी को चिट्ठी जीवन भर याद रही या नहीं लेकिन कमलेश सिंह उस चिट्ठी के बाद वैसे ही मेरे मुरीद हो गए जैसे पूर्णेंदु सर हो गए थे. अगर मैं कैरियर की दौड़ में न पड़ा होता, अगर मैंने हिंदी में लिखने को दोयम दर्जे का काम न समझा होता, अगर मैंने लिखने से अधिक कमाई को अधिक महत्व न दिया होता, सबसे बढ़कर अगर मैंने पूर्णेंदु सर की बातों को गंभीरता से लिया होता, तो आज मेरा भी नाम लेखकों में शुमार किया जाता.

मैं तो बस कुछ गुमनाम लोगों की गुप्त चिट्ठियों का लेखक बन कर रह गया. अब सोचता हूँ तो लगता है न जाने क्या था मेरे लिखे में मैंने जिस-जिस मित्र की प्रेमिकाओं के लिए प्यार की गुप्त चिट्ठी लिखी सबका भाग्य कमलेश सिंह जैसा ही रहा. सबकी प्रेमिकाएं डोला में चढ़कर कुबेला निकल गई.

कमलेश सिंह उस चिट्ठी के बाद से मुझे अपना बहुत करीबी मानने लगा. उसे पूरी चिट्ठी याद हो गई थी. कई बार अकेले में उसने मुझे वह चिट्ठी जबानी सुना दी थी. वह अक्सर मेरी मदद करने की कोशिश करता. एक बार कहने लगा कि मुझे बड़े-बड़े लेखकों की किताबें पढनी चाहिए, उससे आगे चलकर मैं और अच्छा लिख पाऊंगा. सिर्फ कहा नहीं, उसने मुझे जिंदगी में पहली बार कुछ साहित्यिक कही जाने वाली पुस्तकें उपहार में दी. उसने उन दिनों मेरे अन्दर लेखक बनने का उत्साह पैदा कर दिया था. अगर मैं कभी लेखक बनता, कभी मेरी कोई किताब प्रकाशित होती तो हो सकता है उसका समर्पण मैं यह लिखता- ‘अपने बड़े भाई जैसे कमलेश सिंह के लिए, जिन्होंने मेरे अन्दर लेखक होने का विश्वास पैदा किया.’ जीवन ने अभी तक उतना समय ही नहीं दिया की कुछ लिख पाऊं. मैं तो फेसबुक स्टेटस भी बहुत मुश्किल से लिख पाता हूँ. लेकिन समय मिलते ही कुछ ऐसा जरुर लिखूंगा जो व्यापक समाज के हित में हो. फिलहाल…

हमारे उस शहर में जहाँ गार्जियन कोर्स की किताबों के अलावा कुछ भी पढ़े जाने को अपने बच्चों का बिगड़ जाना मानते थे, जहाँ पुस्तक भंडारों में कोर्स की किताबों के अलावा कुछ मिलती थी तो कम्पीटीशन की किताबें. ऐसे में विश्व साहित्य की क्लासिक समझी जाने वाली किताबों का तोहफा मेरे लिए सचमुच नायाब था. वह तोहफा मुझे मिला कमलेश सिंह के सौजन्य से.

न,न, उसने मुझे किताबें खरीद कर नहीं दी थी. जब दुकान से कोई किताब नहीं खरीद सकता था तो वह कहाँ से खरीदता. असल में इस चिट्ठी की तरह इन किताबों का भी एक किस्सा है. हमारे शहर के बीचोबीच किसी जमाने में ‘चुन्नीलाल साव सार्वजनिक पुस्तकालय’ था. अच्छा खासा भवन था. अदब की मंजिल थी. इस बात के सबूत की तरह कि उस शहर में पढने लिखने वाले लोग भी रहते हैं. 

शहर के गणमान्य लोग बहुत दिनों से यह मांग कर रहे थे कि टाउन थाना जो शहर के एक कोने में था उसे शहर के बीचोबीच बनाया जाए. एक बार शहर में एक युवा एसपी आये. जब उनसे मांग की गई तो उन्होंने गणमान्य लोगों की मांग पर तत्काल कार्रवाई शुरू की और उनको यह सुझाव दिया कि शहर के बीचोबीच इतनी बड़ी बिल्डिंग पुस्तकालय की है. अब वहां लोग ज्यादा आते-जाते तो हैं नहीं. अगर वहां थाना खुल जाए तो लोगों का कल्याण होगा. पुस्तकालय उनके किस काम का. गणमान्य लोग इस बात पर राजी हुए कि फिलहाल थाना वहां खोल दिया जाए. बाद में जब थाने की अपनी बिल्डिंग बन जाए तो पुस्तकालय को वापस स्थापित कर दिया जायेगा. 

यही तय हुआ कि फिलहाल किताबों को एक कमरे में रखकर पुस्तकालय के बाकी कमरों में पुलिस थाना काम करे. अब आप कहेंगे कि मैंने कहानी शुरू की थी कमलेश सिंह और उसके द्वारा भेंट की गई किताबों की और मैंने बात शुरू कर दी टाउन थाने की. तो अर्ज कर दूँ कि सारी बातें मिली-जुली हैं.

यथार्थ कभी इकहरा होता है?

हुआ यह कि एक बार मारपीट के एक केस में कमलेश सिंह को थाने में एक रात के लिए बंद किया गया. कहते हैं उसके बाद शहर के कई प्रोफेसरों को, अपने कई पढ़ाकू सहपाठियों को वह किताबें बाँटने लगा था. 

असल में तब तक थाने में लॉक अप नहीं बन पाया था इसलिए कभी-कभार अगर कोई पकडाता तो उसे किताबों वाले गोदाम में बंद कर दिया जाता. उस कमरे में उस रात कमलेश ने देखा कि कमरे की गलियारे की तरफ खुलने वाली खिड़की का एक पल्ला टूटा हुआ था. और उसे बंद करने के लिए वहां ईंटों का स्टैक लगाया हुआ था. ईंटों को हटाते ही वहां से बाहर जाने का रास्ता निकल आता था. न, न वह उस रास्ते निकल कर भागा नहीं. भागता क्यों? अगली सुबह तो उसे छूट ही जाना था. छूटने के बाद उस रास्ते का इस्तेमाल कर वह किताबों को बाहर ले जाने लगा. 

‘किताबों की चोरी चोरी नहीं होती. किताबों को उनके पढने वालों तक पहुंचा देना तो पुण्य का काम होता है’, जिस दिन वह उस रास्ते मुझे अन्दर ले गया था अपनी मनपसन्द किताबों का ईनाम देने के लिए तब उसने मुझसे यह कहा था. दुर्भाग्य से मुझे हिंदी लेखकों के नाम उस समय अधिक पता नहीं थे. मैंने वहां से दुनिया के कुछ बड़े-बड़े लोगों की किताबें चुनी. उसने कहा था कि कोई पांच किताब चुन लो. मैं उस दिन पहली बार घर कुछ महान साहित्य लेकर आया- लियो टॉलस्टॉय का उपन्यास ‘अन्ना करेन्निना’, फ्योदोर दोस्तोवस्की का उपन्यास ‘अपराध और दंड’, चेखव की कहानियों की किताब, प्रेमचंद की कहानियों का संकलन ‘मानसरोवर, भाग 1’ और एक किताब थी साहिर लुधियानवी की ‘तल्खियाँ’.

मुझे याद है उस दिन मैं घर आया तो अपने पढने की टेबल पर उन किताबों को मैंने एक कोने में सजाकर रख दिया. रात में खाने के बाद लैम्प जलाकर बारी-बारी से उनको पढता रहा. उस एक घटना ने मुझे आम विद्यार्थियों से कुछ अलग, कुछ ख़ास बना दिया था. ऐसे विद्यार्थी जो सिर्फ कोर्स की किताब और समय बचने पर कम्पटीशन की किताब पढ़ते और अच्छे कहलाते. उपन्यास-कहानी पढने वाले कभी अच्छे विद्यार्थी नहीं कहलाये. बहरहाल, मैंने किस्से-कहानी  पढना शुरू किया तो कमलेश सिंह की वजह से. उसने मेरे लिए ज्ञान का दूसरा दरवाजा खोल दिया था बरास्ते खिड़की.

 

कॉलेज में मनोविज्ञान पढ़ाने वाले प्रोफ़ेसर बी.एन. सिंह ने मेरे एक सहपाठी विमलेश को जो कहानी सुनाई थी वह कुछ और ही थी. उस थाने का प्रभारी कमलेश के एक पारिवारिक मित्र के परिवार का था. उसने यह योजना बनाई कि अगर किताबों से भरे उस गोदाम को खाली कर दिया जाए तो लोगों की स्मृतियों से भी कुछ समय बाद वहां पुस्तकालय होने की बात मिट जाएगी. सार्वजानिक रूप से थाना प्रभारी किताबों को वहां से हटवाये तो उससे से शहर कुछ प्रबुद्ध नागरिकों को वहां पुस्तकालय होने की बात याद आ सकती थी. वे पुस्तकालय का भवन वापस मांग सकते थे. इसलिए उसने कमलेश सिंह से कहा कि जितनी जल्दी हो वह उन किताबों को वहां से खिसका दे, उसके बाद ही कमलेश के मन में ‘पुस्तक दान जनकल्याण’ की भावना जाग्रत हुई. वैसे विमलेश ने यह भी बताया कि बी. एन. सिंह सर के किताबों के टेबल पर ८-१० नई किताबें उसे दिखाई देने लगी हैं, जो उसे लगता है कमलेश सिंह ने ही उस लाइब्रेरी से लाकर दी हों. वैसे इस बात का उसके पास अनुमान के अलावा कोई और प्रमाण नहीं था.

अब जबकि मुझे खुद किसी को भी चिट्ठी लिखे पता नहीं कितने साल हो गए हैं. मेल, फोन के इस दौर में मैं उस चिट्ठी को देखकर भावुक हो रहा हूँ. इस चिट्ठी को कमलेश ने अपने हाथ से अपने अक्षरों में उतारा था, मेरी प्रति मेरे पास रह गई. इस चिट्ठी से उन कई चिट्ठियों की याद आ रही हैं.

अगर कमलेश सिंह के लिए मेरी तरफ से किसी गुमनाम सुम्मी को लिखे गया इस पत्र की तरह अगर अन्य पत्र भी इसी तरह किन्हीं किताबों में दबे मिल जाएँ तो हो सकता है कोई प्रकाशक उन पत्रों का संग्रह छाप दे. लेकिन मुश्किल यह है कि उन दिनों की अब और किताबें वहां भी घर में दिखाई नहीं देती हैं. सब कुछ पुराना गुम होता जा रहा है. वहां भी हर बार कुछ नया होता रहता है- डिश टीवी, सौर ऊर्जा. कितना कुछ बदलता जा रहा है. चिट्ठियों की वह दुनिया कितनी पीछे छूट गई है.

आप सोच रहे होंगे कमलेश सिंह? अपने दादा से बड़ा नेता बनना ख्वाब था उसका. दादा ब्लॉक प्रमुख ही मरे. वह विधायक बनना चाहता था. प्रदेश की राजनीति में अपनी छाप बनाना चाहता था. एक बार विधानसभा का चुनाव लड़ा भी. ताकत के जोश में रहने वाला कमलेश सिंह निर्दलीय लड़ गया और सत्तारूढ़ पार्टी के एक नेता से हार गया. कुछ अधिक जल्दी में था. अचानक ही मारा गया. अगले चुनाव का माहौल गरमा रहा था कि एक रात अँधेरे में कुछ लोग आये और मार कर चले गए. उसकी मौत न किसी विद्रोह का कारण बनी न किसी सेलेब्रेशन का. न जाने कितने कमलेश सिंह इसी तरह उन दिनों इसी तरह धोखे में मारे जा रहे थे. सब कुछ बदल रहा था, यथार्थ पहलू बदलता जा रहा था. 

उसके जीवन की तरह उसके मौत की भी कई कहानियां बनी… लेकिन सच्चाई यही है कि कमलेश सिंह मारा गया. जल्दी ही सब भूल-भाल गए. कौन कमलेश? कौन सिंह? परिदृश्य पर लोग आते जा रहे थे, लोग गम होते जा रहे थे. मुझे भी कुछ कहाँ याद था, वह तो वीरेश्वर प्रसाद सिंह की किताब में वह चिट्ठी मिल गई और इतना कुछ याद हो आया.

वर्ना अब याद कहाँ रहता है? कुछ भी…

समय की सबसे बुरी मार याद्दाश्त पर ही तो पड़ी है. कितना कुछ है याद रखने के लिए कि कितना कुछ भूलना पड़ता है.

नोट: कमलेश को पता नहीं था, कथावाचक ने बताया नहीं. बतौर लेखक मेरा यह दायित्व बनता है कि बता दूँ कि कहानी के आरम्भ में पत्र में जिस कविता का उपयोग किया गया है वह धर्मवीर भारती की कविता है. आप कहेंगे कि यह कविता उसने कहाँ से पढ़ी थी? यही तो बात है पूर्णेंदु सर ने पुरस्कार में उसे अपनी तरफ से एक किताब भेंट की थी, कवि धर्मवीर भारती की कविताओं का संकलन ‘ठंढा लोहा.’

धन्यवाद.     

प्रभात रंजन
prabhatranja@gmail.com
Tags: प्रभात रंजन
ShareTweetSend
Previous Post

सबद भेद : लीलाधर मंडलोई की कविता पर अद्यतन : ओम निश्चल

Next Post

रीझि कर एक कहा प्रसंग : निशांत

Related Posts

एक्स वाई का जेड: प्रभात रंजन
कथा

एक्स वाई का जेड: प्रभात रंजन

प्रभात रंजन: देश की बात देस का किस्सा        
कथा

प्रभात रंजन: देश की बात देस का किस्सा        

प्रभात रंजन: अनुवाद की गलती
Uncategorized

प्रभात रंजन: अनुवाद की गलती

अपनी टिप्पणी दर्ज करें Cancel reply

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2022 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक