नैतिक दृष्टियाँ और पुरुषार्थप्रचण्ड प्रवीर |
पुराने पाश्चात्य चिन्तन में मानव को ब्रह्माण्ड का केन्द्र माना जाता था. अत: उसमें दैवीय गुण या देवताओं का सामना करने का हौसला आदि भी होते थे. पुनर्जागरण, औद्योगिक क्रान्ति और फिर डार्विन के प्रतिपादित जैविक विकास क्रम ने मनुष्य को पशु के विकास क्रम में प्राणी मात्र समझ लेने के कारण कुछ दार्शनिक और अन्य विचारक मूलभूत गड़बड़ी पाते हैं. पुरा-प्राच्य चिन्तन में मनुष्य के लिए मौलिक प्रश्न है- मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ और मेरा गन्तव्य क्या है.
को अद्धा वेद क इह प्रवोचत् कुत आ जाता कुत इयं विसृष्टि:l
अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद यत आबभूव ॥
(नासदीय सूक्त, ऋक संहिता १०l१२९l६)
अभी वर्तमान में कौन पूरी तरह से ठीक-ठीक बता सकता है कि कब और कैसे इस विविध प्रकार की सृष्टि की उत्पत्ति और रचना हुई, क्योंकि विद्वान लोग तो खुद सृष्टि रचना के बाद आये. अतः वर्तमान समय में कोई भी यह दावा करके ठीक-ठीक वर्णन नहीं कर सकता कि सृष्टि बनने से पूर्व क्या था और इसके बनने का कारण क्या था.
यह आज के संदर्भ में बदल कर इस तरह हो गया है कि मैं किस तरह का प्राणी हूँ- सामाजिक, राजनीतिक, चिन्तनशील आदि.
इस आलेख का उद्देश्य भारतीय चिंतन की महिमा बताना नहीं है बल्कि आधुनिक भारतीय विचारकों द्वारा मूलगामी नैतिक दृष्टि का पुनरावलोकन है. लेकिन इसकी जटिलता के लिए हमें अन्य सिद्धान्तों से भी परिचित होना पड़ेगा. पाश्चात्य चिन्तन में कई जटिल नैतिक दृष्टियाँ हैं. हम पाते हैं कि नैतिकता का प्रश्न, समाज, सुख, दुख, इच्छा, न्याय, नियम जैसी कई अवधारणाओं से जुड़ी हुयी है. प्रसंगवश कुछ प्रमुख पाश्चात्य नैतिक दृष्टियाँ इस तरह हैं :
पंथ आधारित आदेश (Commandment)– जैसे कि बाइबिल आदि सामी ग्रंथों में मूसा को दिए गए प्रभु के दस आदेश– तुम चोरी नहीं करो, किसी की हत्या न करो, आदि.
टामस हॉब्स का स्वार्थपरक सुखसंवेदनवाद (Social contract theory)– मानव नित्य नवीन सुख की खोज के अतिरिक्त और कुछ नहीं है. सुख इच्छा की एक विषय से दूसरे विषय तक निरन्तर प्रगति है जिसमें पहले की उपलब्धि दूसरे की उपलब्धि का उपाय बनती है. इसका कारण है कि मनुष्य सिर्फ एक बार इच्छोपभोग नहीं चाहता बल्कि भविष्य के इच्छोपभोग को भी आश्वस्त करना चाहता है.
मनुष्य सामान्यत: औरों को बराबर और प्रतिद्वन्द्वी मान कर उनसे भयभीत रहता है. वह अपने हितों को सुरक्षित रखने के लिए अपने को उनसे अधिक शक्तिशाली बनाना चाहता है. स्वभावतः स्वार्थी होते हुए भी वह बुद्धि के द्वारा अपने और औरों के लक्ष्यों, सामर्थ्य और दुर्बलताओं की समानता देखकर यह विचार अपनाता है कि पारस्परिकता के आधार पर सबके द्वारा बराबर त्याग सबके लिए हितकारी है क्योंकि वह संदिग्ध अमर्यादित लाभ के स्थान पर निश्चित मर्यादित लाभ को रखता है. सामाजिकता स्वार्थ बुद्धि की ही एक तरकीब है, और नैतिकता एवं कानून सामाजिकता के ही पक्ष हैं. मनुष्य को अपने किए हुए वादों के अनुकूल आचरण करना चाहिए क्योंकि पारस्परिक विश्वास और संविदा (contract) से ही समाज की स्थापना की जा सकती है.
बारुक स्पिनोजा का ‘सहज स्वार्थवाद’– सहज स्वार्थ सर्वप्रथम प्राणरक्षा में निरूपित होता है (सुरक्षा) फिर दूसरी, वे सब स्थितियाँ जो प्राण के अनुकूल हैं और जैव स्तर पर प्राय: सुख के रूप में पहचानी जाती हैं, इस तरह के सुख की प्राप्ति एवं उनके विपरीत का परिहार (सुख). तीसरी, शक्ति जिसमें अभीष्ट की प्राप्ति हो सके और उसकी हानि रोकी जा सके एवं कीर्ति जिसकी प्रत्येक मनुष्य को सहज अभिलाषा होती उसकी प्राप्ति (शक्ति और कीर्ति). स्पिनोजा के लिए सुख-संवेदन शरीर आंशिक सुख है, सौमनस्य सर्वांगीण प्राण की वृद्धि का लक्षण है, ऐसा ही भेद दु:ख के विषय में हैं.
जेरेमी बेंथेम और जॉन स्टुअर्ट मिल का उपयोगितावाद (Utilitarianism)– नैतिकता का लक्ष्य आम जनजीवन के लिए अच्छा या सुखकारी होना चाहिए. कर्म की शुचिता उसके फल से अधिकतम संख्या में लोग के लिए अधिकतम अच्छा और न्यूनतम संख्या में लोग के लिए हानिकारक होने से समझी जानी चाहिए.
इमानुएल काण्ट का ‘स्पष्ट अनिवार्यता’ सिद्धान्त (Categorical Imperative)– कर्म इस तरह का हो कि विचार के तहत किया हुआ कर्म सार्वभौमिक, सार्वकालिक नियम बन सके. उनके सार्वभौमिकता के सिद्धांत के अनुसार, कोई भी कृत्य तभी अनुज्ञेय है जब कि बिना किसी विरोधाभास के सभी लोगों द्वारा इसे लागू किया जाना संभव हो सके. काण्ट ने पूर्ण कर्तव्यों और अपूर्ण कर्तव्यों (perfect duties & imperfect duties) में भेद भी किया है. एक पूर्ण कर्तव्य है जैसे कि कभी झूठ न बोलने का कर्तव्य, हमेशा सच को धारण करे रखना; एक अपूर्ण कर्तव्य है जैसे कि दान करने का कर्तव्य जिसे किसी विशेष समय और स्थान के अनुसार लागू किया जा सकता है.
फ्रेडेरिक नीत्शे की अतिमानव की अवधारणा- नैतिक या अनैतिक क्या है, इसका कोई वस्तुनिष्ठ मानदंड संभव नहीं है. नैतिक वही है जो शक्ति के संकल्प की प्रबलता का परिणाम हो, अनैतिकता निर्बलता का ही प्रकट रूप है. नीत्शे का मानना है कि व्यक्तियों में “शक्ति के संकल्प” की “मात्रा में भिन्नता के कारण समाज की रूपरेखा पिरामिड की भाँति होती है. नीत्शे इस पिरामिड के ऊपर के व्यक्तियों को शासक तथा नीचे के व्यक्तियों को दास वर्ग को मानता है. दोनों वर्गों की स्वीकृत मूल्य-सरणी भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है. उच्च वर्ग के व्यक्तियों के जीवन-मूल्य उनके व्यक्तित्व की क्षमता तथा उसके उत्पन्न सहज जीवन के परिणाम होते हैं, पर निम्न वर्ग के मूल्य उच्च वर्ग के प्रति प्रतिक्रिया के परिणाम हैं. नीत्शे के अनुसार सहज जीवन और उसके लिए स्वेच्छया से अपनाया हुआ अनुशासन आदर्श व्यक्ति की कसौटी है. इस तरह नीत्शे व्यक्ति के स्वभाव पर जोर देते प्रतीत होते हैं हालांकि वे शक्ति के संकल्प को वरीयता देते हैं.
भले ही उपरोक्त कुछ दृष्टियाँ विसंगत या सरल लगें, किन्तु वे अपनी समग्रता में जटिल हैं. उपरोक्त दार्शनिक विचार गहरे चिन्तन और विमर्श की मांग करते हैं, जिसे उनकी अन्य दृष्टियों की संगति में और विशिष्ट परिप्रेक्ष्य में समझना चाहिए.
फिलहाल हम भारतीय नैतिक दृष्टि पर पुनर्विचार करते हैं. सभी तरह की नैतिक दृष्टियों के पीछे परमार्थ मीमांसक विचार (metaphysical postulates) काम करते हैं. जहाँ प्राचीन चिन्तनों में आत्मा और उसकी दिव्यता मूल दृष्टि थी, वह विज्ञान के विकास से छिन्न-भिन्न हो गयी. जर्मन प्रत्ययवादी विचारकों, जैसे हीगेल और कान्ट में आत्मा की लोकोत्तर, पूर्णतावादी चैतन्य की अवधारणा थी जो कि नीत्शे, अस्तित्ववादी और ‘अनालिटिकल’ विचारकों के आते-आते समकालीन चिन्तन से लुप्त हो गयी है. किन्तु नैतिकता का सिद्धान्त कर्म-फल के सिद्धान्त से भिन्न है.
पहली बात तो यह है कि नैतिकता लौकिक व्यवहार को ले कर सम्बन्धित है. कोई वनवासी हो कर या एकान्त में रह कर नैतिक नहीं हो सकता. कर्म-फल का सिद्धान्त जीव को उसके पाप और पुण्य के फलको विविध रूप से जन्म-जन्मान्तर में भुगतनी होती है. इस सिद्धान्त से समाज में किस तरह रहा जाये, इसकी व्याख्या नहीं होती भले यह पृष्ठभूमि में रहे. भारतीय चिन्तन में इसकी व्याख्या पुरुषार्थ व्यवस्था में हुयी. यह हजारों सालों में उन्नत हुयी. पहले यह धर्म-अर्थ-काम की त्रयी, फिर यह धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की चतुष्टयी में फलित हुयी.
पुरुषार्थ व्यवस्था का उन्नत रूप लोक सिद्धि (धर्म- कर्तव्य स्वरूप) और लोकातिक्रमण पूर्वक स्वरूप सिद्धि (मोक्ष) दोनों ही दृष्टियों से देखा जा सकता है. इसका स्थूल अर्थ है कि समाज में रहते हुए हम श्रेष्ठ आचरण भी कर लें और परलोक भी सुधार लें. इस व्यवस्था में मनुष्य की परिभाषा उसके पुरुषार्थी होने से की जाती है.
हम प्रायः यह पाते हैं कि हर प्राणी कुछ न कुछ चाहता है. पशु-पक्षियों में भी आहार-निद्रा-भय-मैथुन की कामना होती है. जिसकी प्राप्ति के लिए वे बहुत हिंसक रूप भी धारण कर लेते हैं. कामना की पूर्ति का साधन ‘अर्थ’ कहलाता है. इस तरह पाशविक जीवन काम और अर्थ की प्राप्ति में निहित होती है. मानव जीवन में यह विवेक से या परम्परा से या कहें, ज्ञान से नियमित हो जाती है. कुछ इस तरह कि हमें भूख मिटाने की कामना होती है, भोजन इसका कामना की पूर्ति का ‘अर्थ रूप’ साधन है, फिर भी हम जूठा खाने से परहेज करेंगे, और पौष्टिक भोजन करेंगे. इसी तरह जीवन के विविध आयामों में अनावश्यक हिंसा से बचेंगे, जैसे कई कर्तव्यों के नियम हम जीवन में अपनाते हैं.
स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि इस नियामक धर्म का स्वरूप क्या है? ऐसे कई आदेश, उपदेश और अवधारणाएँ हर परम्परा में वर्णित हैं. जैसे कि मनु स्मृति में धर्म के दस लक्षण हैं:
धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:l
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ll
(मनुस्मृति ६.९२)
अर्थ- धृति (धैर्य ), क्षमा (अपना अपकार करने वाले का भी उपकार करना ), दम (हमेशा संयम से धर्म में लगे रहना ), अस्तेय (चोरी न करना ), शौच ( भीतर और बाहर की पवित्रता ), इन्द्रिय निग्रह (इन्द्रियों को हमेशा धर्माचरण में लगाना ), धी (सत्कर्मों से बुद्धि को बढ़ाना), विद्या (यथार्थ ज्ञान लेना ). सत्यम ( हमेशा सत्य का आचरण करना ) और अक्रोध ( क्रोध को छोड़कर हमेशा शांत रहना ). यही धर्म के दस लक्षण है.
याज्ञवल्क्यस्मृति में ने धर्म के नौ लक्षण हैं:
अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:l
दानं दमो दया शान्ति: सर्वेषां धर्मसाधनम् ll
(याज्ञवल्क्य स्मृति १.१२२)
अहिंसा, सत्य, चोरी न करना (अस्तेय), शौच (स्वच्छता), इन्द्रिय-निग्रह (इन्द्रियों को वश में रखना), दान, संयम (दम), दया एवं शान्ति
जैन धर्म के दिगम्बर अनुयायियों द्वारा आदर्श अवस्था में अपनाये जाने वाले गुणों को दश लक्षण धर्म कहा जाता है. इसके अनुसार जीवन में सुख-शांति के लिए उत्तम क्षर्मा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, अकिंचन और ब्रह्मचर्य आदि दशलक्षण धर्मों का पालन हर मनुष्य को करना चाहिए.
संस्कृत सुभाषित की प्रसिद्ध उक्ति है कि अठारह पुराणों व्यास परोपकार को पुण्य और पर-पीड़न को पाप कहते हैं. पद्मपुराण में धर्म के स्वरूप को ले कर इस तरह की उक्ति है:
श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चाप्यवधार्यताम् l
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ll
(पद्मपुराण, सृष्टि 19/357-358)
अर्थ: धर्म का सर्वस्व क्या है, सुनो ! और सुनकर इसका अनुगमन करो. जो आचरण स्वयं के प्रतिकूल हो, वैसा आचरण दूसरों के साथ नहीं करना चाहिये.
लेकिन काण्टीय नीतिशास्त्र के ‘सदा सच बोलो’ जैसी अवधारणा की महाभारत जैसे कई ग्रंथों में (कौशिक मुनि की सदा सत्य बोलने की प्रतिज्ञा जिसके फलस्वरूप छिपे हुए शरणागत का दस्युओं द्वारा वध कर दिया जाता है) खिल्ली भी उड़ाई गयी है. इस तरह आदेशात्मक या अनिवार्यत्मक धर्म के पीछे अन्य विचार भी समाहित हैं जिसका अन्वेषण करना चाहिए.
पुरुषार्थ व्यवस्था इस तरह की सांस्कृतिक अवधारणा है जिसमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का सन्तुलन जीवन के लिए उचित और वरेण्य बताया गया है. इसकी सांस्कृतिक स्वीकार्यता के कारण ही हमें धर्मशास्त्र (देखें पांडुरंग वामन काणे का ‘धर्मशास्त्र का इतिहास’), अर्थशास्त्र (बार्हस्पत्य का लुप्त अर्थशास्त्र, कौटिल्य का अर्थशास्त्र), कामशास्त्र (वात्स्यायन का कामसूत्र) और मोक्षशास्त्र के कई ग्रंथ परम्परा में मिलते हैं. नौवीं सदी के जयंत भट्ट अपनी पुस्तक ‘न्यायमंजरी’ में और दसवीं सदी के वाचस्पति मिश्र ‘न्यायवार्तिक तात्पर्य टीका’ में जैनों और बौद्धों की यथावत सामाजिक संरचना की स्वीकार्यता को रेखांकित करते हैं. जैन और बौद्ध ग्रंथों में पुरुषार्थ व्यवस्था को ही लोक व्यवस्था के मूल में स्वीकार करते प्रतीत होते हैं. उनके ग्रंथों में अलग धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र या कामशास्त्र नहीं मिलते. भले ही उनके मोक्ष का मार्ग और ज्ञान पद्धति वैदिक परम्परा से भिन्न हो
प्रश्न यह उठता है कि क्या इस सांस्कृतिक व्यवस्था का कोई सुचिन्तित स्वरूप है जो बहुविध विसंगतियों को समाहित कर सके? समकालीन दर्शनशास्त्र के अध्येता डॉ. अम्बिकादत्त शर्मा अपने लेख, ‘पुरुषार्थ सन्तुलनवाद के मूलभूत सूत्र’ (भारतीयता के सामासिक अर्थ-सन्दर्भ, भारतीय ज्ञानपीठ, 2015) में पुरुषार्थ के पाँच सूत्र पुराणों और स्मृतिग्रंथों में से पाते हैं.
पुरुषार्थ के पाँच सूत्र
पहला सूत्र महाभारत में मिलता है, जहाँ पुरुषार्थ त्रिवर्ग में उपस्थित है –
धर्मार्थकामा सममेव सेव्या: यो ह्येकसक्त: स नरो जघन्यl
द्वयोस्तु दाक्ष्यं प्रवदन्ति मध्यं स उत्तमो यो निरत: त्रिवर्गे॥
(महाभारत – १२l१६१l३८)
-धर्म अर्थ काम का समान सेवन करना चाहिए. यदि कोई एक ही पुरुषार्थ में अधिक आसक्ति रखता है तो वह व्यास की दृष्टि में जघन्य कोटि का व्यक्ति है. यदि कोई दो में दक्षता रखता है तो वह मध्यम कोटि का है. जो तीनों भावों में समान रूप से निरत रहता है वही उत्तम कोटि का पुरुषार्थ सेवी है.
दूसरा सूत्र विष्णु पुराण में मिलता है जिसमें पुरुषार्थ चतुष्टयी की एकरूपता की बात कही गयी है –
धर्मार्थकाममोक्षाख्या: पुरुषार्था: हि उदाहृता: चतुष्टयमिदं यस्मात्l
(विष्णु पुराण १.१८.२१)
-ये चतुष्टय है ये चार मिल कर एक बन रहे हैं. ये चार अलग अलग नहीं हैं.
तीसरा सूत्र मनुस्मृति में पुरुषार्थ के त्रिवर्ग से सम्बन्धित है. यहाँ परस्पर विरोधी पुरुषार्थों को त्याग देने की बात कही गयी है.
परित्यजेद् अर्थकामौ स्यातां धर्मविरोधिनौ धर्मं चाप्यसुखोदर्कलोकविक्रुष्टमेवच l
(मनुस्मृति ४.१७६)
– धर्म विरोधी अर्थ और काम का त्याग कर देना चाहिए और साथ में जो धर्म तुम्हारे अर्थ और काम का नाशक हो, उसे भी छोड़ देना चाहिए.
चौथे सूत्र के रूप में याज्ञवल्क्यस्मृति में पुरुषार्थीनिष्ठ पुरुषार्थों के सन्तुलन की अनिवार्यता को प्रस्तावित किया गया है-
ब्राह्मे मुहुर्ते हि उत्थाय चिन्तयेद् आत्मनो हितं l
धर्मम् अर्थं च कामं च यथाशक्ति: न हापयेत् ॥
(याज्यवल्क्य स्मृति १.११५)
– ब्रह्म मुहूर्त में उठकर आत्महित का आत्मोत्कर्ष का विचार करो. धर्म, अर्थ और काम जब तक तुम्हारी शक्ति है उसका अनुसरण करो, बिना उपेक्षा के.
पाँचवा सूत्र के रूप में भागवत पुराण में पुरुषार्थों के परस्पर अविरोध की बात कही गयी है-
धर्मार्थकाममोक्षाणां निमित्तानि अविरोधत:l
(भागवत पुराण ३l७l३२)
– इन चारों पुरुषार्थों में आपस में विरोध न हो, इस तरह धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष का समायोजन करो.
अम्बिकादत्त जी पुरुषार्थ चतुष्टयी और उनके परस्पर सन्तुलन की अवधारणा स्वस्तिक की तरह करते हैं. ‘सुअस्ति करोति इति स्वस्तिक:’– स्वस्तिक की स्वस्तिकता इसी में है कि उसके चारों हाथ एक-दूसरे की तरफ अभिमुख रहते हैं. धर्म-अर्थ-काम और मोक्ष पुरुषार्थ- व्यवस्था रूपी स्वस्तिक के चार हाथों की तरह हैं जिसमें पहला दूसरे की तरफ, दूसरा तीसरे की तरफ, तीसरा चौथे की तरफ और चौथा फिर पहले की तरफ ले जाता है. चारों पुरुषार्थों की एक-दूसरे की तरफ अभिमुखता ही उनका स्वस्तिकोचित सन्तुलन है.
मूल पुरुषार्थों की भाषायी व्याख्या
वल्लभाचार्य द्वारा प्रतिपादित शुद्धाद्वैत (पुष्टिमार्गी) परम्परा में दीक्षित समकालीन विचारक गोस्वामी श्याम मनोहर जी मनोविज्ञान और दर्शन के सूत्रों को जोड़ते हुए पुरुषार्थ व्यवस्था को विशिष्ट तरीके से पुनर्व्याख्यायित करते हैं. इस संदर्भ में वह मूल शब्दों को निम्नतरीके से परिभाषित करते हैं-
धर्म- ‘धृञ् धारणे’ धातुपाठ से धर्म का अर्थ देहधारणोपयोगी क्रिया, प्रभावानुकूल-प्रतिकूल क्रिया, निजज्ञानइच्छाप्रयत्नजन्य, परस्परावलम्बित कर्मरूप व्यवहार, स्वपर-व्यक्ति-समुदायहितकरण से निवृत्ति आदि से समझना चाहिए.
वेद: स्मृति सदाचार: स्वस्य च प्रियमात्मन:l
एतच्चतुर्विधं प्राहु: साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम् ॥
मनुस्मृति (२/१२)
मनुस्मृति के अनुसार श्रुति, स्मृति, सदाचार और जो स्वयं को प्रिय हो, इन चारों को जोड़ कर अपने कर्म को निर्धारित करने पर किया कर्म ‘धर्म‘ कहे जाने योग्य बन जाता है. चारों प्रमाणों में सन्देह की स्थिति में उत्पन्न पूर्व-पूर्व की अपेक्षा उत्तर-उत्तर का प्रामाण्य सबल माना जाता है. यहाँ स्वयं को प्रिय लगने का अर्थ स्वेच्छाचार न हो कर, अन्त:करण की पवित्रता से है.
अर्थ- ‘अर्थ याचने’ धातुपाठ से अर्थ का आशय धर्म के अनुष्ठान सम्पन्न करने को आवश्यक या अपेक्षित अथवा अन्य किसी भी कामना की पूर्ति के हेतु अपेक्षित वस्तु का परामर्श समझना चाहिए .
काम – ‘कमु कान्तौ’ धातुपाठ में इच्छा या अभिलाषा का अर्थ काम है.
मोक्ष – ‘मृच्लृ मोक्षणे’ धातुपाठ से निर्देशित इसका अर्थ किसी भी प्रकार का बन्धन लगती बातों का छुटकारा मिलने से है.
पुरुषार्थ व्यवस्था के घटक
विचारक श्याम मनोहर जी, अपनी पुस्तक पुरुषार्थ व्यवस्था (स्वस्तिक सोसाइटी, २०१२) में प्रतिपादित करते हैं कि स्वभाव, प्रभाव, कर्म, व्यवहार और नीति जैसी अवधारणाएँ पुरुषार्थ को प्रभावित करती है. वे धर्म को एकांगी नहीं मानते. उनके विचारों की तार्किक योजना इस तरह है कि इन अवधारणाओं में भी वह पुरुषार्थ चतुष्टयी का सन्तुलन खोज लेते हैं.
स्वभाव – हर व्यक्ति की निजी विशेषता जिससे उसके गुणधर्म प्रकट हों
प्रभाव – बाहरी कारणों से आगन्तुक गुणधर्मों का प्रकट होना
कर्म – ज्ञान, इच्छा, प्रयत्न से पैदा होने वाली क्रिया
व्यवहार – किसी अन्य को उद्देश्य, साधन या उनके लिए किया गया कर्म
नीति – जो अपने लिए अनुकूल न हो, वैसा व्यवहार दूसरों के लिए न करना
पुरुषार्थ के घटकों में पुरुषार्थ सन्तुलन
गोस्वामी श्याम मनोहर, स्विटजरलैण्ड के चिकित्सा मनोविज्ञानी ज़ाँ पियाज़े (Jean Piaget– 1896-1980) के विकासात्मक मनोवैज्ञानिक विश्लेषणों को ध्यान में रखते हुए उपरोक्त घटकों में पुरुषार्थ सन्तुलन देखते हैं. अपनी अवधारणा में अर्थ और काम का पारस्परिक सम्बन्ध साधन-साध्य रूप में लेते हैं. वे कहते हैं कि धर्म कभी अनीतिमय नहीं हो सकता, नीति कभी अव्यावहारिक नहीं हो सकती. व्यवहार कर्म से रहित नहीं हो सकता. कर्म बिना प्रभाव के उत्पन्न नहीं हो सकता. प्रभाव बिना मूल स्वभाव की अनुकूलता के उत्पन्न नहीं हो सकता.
1
स्वभाव– मानव जीवन में शैशवावस्था, वयस्क जीवन और बुढ़ापे में भी कुछ आचरणगत विशेषताएँ होती हैं. नैतिक विचार के लिए अनैच्छिक क्रियाओं को न ले कर, ऐच्छिक क्रियाओं का विश्लेषण स्वभाव की चर्चा में लिया जाता है. विभिन्न भूमिका में यह अलग तरह के आचरण को बताता है जैसे कि कुलधर्म, राजधर्म, विद्यार्थी धर्म आदि. मूल स्वभाव सभी भूमिकाओं में व्यक्तिगत विशेषता है. स्वभाव से व्यक्ति में गुण धर्मों की उत्पत्ति होती है और वह स्थिति ‘लय’ में बनी रहनी चाहिए.
स्वभाव में धर्म – गुणों की उत्पत्ति
स्वभाव में अर्थ – गुणों की यथावत स्थिति
स्वभाव में काम – गुणों का लय
स्वभाव में मोक्ष – विनाश/ पुनर्चक्रण
२
प्रभाव – बाह्य कारणों से मनुष्य के वैसे गुणधर्म आ जाते हैं जो पहले नहीं रहते. जैसे कि शिक्षक द्वारा विद्यार्थी को पढाना. शिक्षण का उद्देश्य है कि बिना शिक्षक की सहायता से विद्यार्थी में नयी क्रिया (जैसे पढ़ना-लिखना) स्थापित हो जाए. शिक्षक के प्रभाव की मुक्ति इसी में है कि उसके बिना विद्यार्थी पढ़-लिख सके.
प्रभाव में धर्म – नए गुणों का उत्पादन
प्रभाव में अर्थ – आगंतुक गुणों का स्थापन
प्रभाव में काम – बाह्य कारक का विलापन
प्रभाव में मोक्ष- आगंतुक गुणों का नूतनोत्पादन
3
कर्म – मानव जो भी जान कर, इच्छा कर के प्रयत्नपूर्वक क्रिया करता है वे कर्म कहे जाते हैं. चोरी करना अपने आप में विकर्म नहीं है. जैसे कि बच्चे का अपने घर की रसोई से कुछ चुरा कर खाना और किसी ठग का असहाय का बिना पूछे सामान गायब करना एक ही बात नहीं है.
कर्म में धर्म – ज्ञान
कर्म में अर्थ – प्रयत्न रूप
कर्म में काम – कामना
कर्म में मोक्ष – तुष्टि
4.
व्यवहार – किसी अन्य के लिए, अन्य को साधन बना कर या उसके प्रति किया कर्म व्यवहार है. व्यवहार में मनुष्य का सामाजिक स्वरूप उजागर होता है कि वह किस तरह दूसरों पर निर्भर है. जैसे कि हम किसी दुकानदार से कुछ खरीदते हैं तो यह दोनों के लिए अनुकूल स्थिति है. व्यापारी का मुनाफा हुआ और ग्राहक को वाञ्छित सामान मिल गया.
व्यवहार में धर्म – सामुदायिक हानिलाभ विवेक के आधार पर अनुकूल कर्म
व्यवहार में अर्थ – एक-दूसरे पर अवलम्बन
व्यवहार में काम – स्वार्थ ओर परार्थ की साधना
व्यवहार में मोक्ष – स्वतुष्टि और परतुष्टि
5.
नीति – जो व्यवहार अपने और समुदाय के लिए अनुकूल न लगे, वही आचरण दूसरे या अन्य समुदाय के लिए न करना नीति समझी जा सकती है. यह नीति ही उपयोगितावाद (utilitarianism) और हॉब्स के सामाजिक संविदावाद (social contract theory) के समीप है.
नीति में धर्म – जो अपनी आत्मा के अनुकूल न हो, वैसा दूसरों के प्रति आचरण न करना
नीति में अर्थ – अपने स्वार्थ पर संयम
नीति में काम – दूसरे भी स्वप्रतिकूल आचरण नहीं करें ऐसी आकांक्षा
नीति में मोक्ष – सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय
6.
धर्म – मनुष्य जब अपने सामने कर्त्तव्य का विचार करता है, उस स्थिति में उसका धर्म परम्परा से (वैदिक श्रुति, पौराणिक स्मृति) या सदाचार से (महाभारत के यक्षसंवाद में – महाजनो येन गता: स पंथा) या फिर उसके अन्त:करण की आवाज को धर्म कहा जाता है. यह धर्म एकांगी नहीं है. यद्यपि धर्म के लक्षण हर जगह बताए जाते हैं किन्तु देश-काल-कर्ता-कर्म-द्रव्य-मंत्र के आधार पर यह भिन्न हो जाते हैं. सैनिक द्वारा शत्रु की हत्या और नागरिक द्वारा निर्दोष की हत्या समाज को स्वीकार्य नहीं है. जो नियम एक देश में मान्य हैं, वह दूसरे देश में मान्य नहीं होते. इस तरह धर्म का स्वरूप बहुत सूक्ष्म और विचित्र है.
धर्म में धर्म – दस यम – सत्य, दम, तप, शौच, संतोष, क्षमा, आर्जव, विद्या, शम और दया
धर्म में अर्थ – कर्ता, कर्म, देश, काल, द्रव्य, मंत्र
धर्म में काम – धर्मो रक्षति रक्षित:
धर्म में मोक्ष – जीवनपर्यंत पापभीति, अपराधग्रन्थि, आत्मग्लानि और दण्डभीति
यहाँ कहा जा सकता है कि धर्म में काम की अवधारणा, जो महाभारत में कई बार कही गयी- धर्मो रक्षति रक्षित:- का आधार पारलौकिक है कि धर्म की रक्षा करने पर धर्म ही हमारी रक्षा करेगा. उपरोक्त सिद्धान्त की जटिलता को परखने के लिए या खारिज़ करने के लिए भी बहुत मेहनत करनी पड़ेगी. हम स्पिनोजा को स्पिनोजा के अंतर्विरोध से गलत सिद्ध कर पाते तो क्या बात थी. स्पिनोजा के ज्यामितीय प्रमेयों की अपर्याप्तता सिद्ध करने के लिए कान्ट ने जीवन के बारह वर्ष केवल एक पुस्तक “शुद्ध तर्क की समीक्षा” (क्रिटिक ऑव प्योर रीज़न) के लिखने में व्यतीत किए.
श्याम मनोहर जी के पुरुषार्थ चतुष्टयी विवेचना के उपरांत नीचे की अवधारणाएँ जोड़ना मुझे अनुकूल लगा. मेरे इस मौलिक प्रयास में सुधार और विचार की संभावनाएँ हैं. निम्न तदर्थ विवेचना (ad-hoc explanation) मेरा विनम्र प्रयास है जो कि असंगत भी हो सकता है.
7.
अर्थ – चाणक्य सूत्र (१५.१) में मनुष्यों की वृत्ति (जीविका) को अर्थ कहते हैं. मनुष्यों से संयुक्त भूमि ही अर्थ है. अर्थ के व्यापक दृष्टिकोण को देखते हुए कौटिल्य के अर्थशास्त्र में अर्थव्यवस्था, राजव्यस्था, विधि व्यवस्था, समाज व्यवस्था और धर्म व्यवस्था वर्णित हैं. यज्ञ और ऋण का अंतर्सम्बन्ध अर्थ में मोक्ष समझा जा सकता है. उपरोक्त विचार व्यवस्था की संगति में धर्मानुकूल काम के साधन के रूप में अर्थ की संरचना इस प्रकार होनी चाहिए :-
अर्थ में धर्म – सत्कर्म से अर्जित आय/ प्रयोजन का धर्मानुकूल साधन
अर्थ में अर्थ – श्रम, व्यापार
अर्थ में काम – योगक्षेम
अर्थ में मोक्ष – देव ऋण, ऋषि ऋण, पितृ ऋण आदि ऋणों से उऋण होने के लिए व्यय
8.
काम – धर्म अविरुद्ध काम की संकल्पना श्रीमद्भग्वद्गीता (७.११) में की गयी है. काम का मूल कुशलकर्म का जनक होना चाहिए, वहीं समाज और मनुष्य का स्वातंत्र्य ही उसका अर्थ होना चाहिए. परम्परा में तीन एषणाएँ ही काम में काम कही जा सकती है. अत: धर्मानुकूल काम की अवधारणा की आंतरिक संरचना इस तरह हो सकती है:-
काम में धर्म – कर्म कौशल की कामना
काम में अर्थ – समाज में व्यक्ति के कर्म संपादन की स्वतंत्रता
काम में काम – लोक एषणा, पुत्र एषणा, वित्त एषणा
काम में मोक्ष – प्रयोजित कामना से तज्जनित अवांतर कामनाओं का अभाव
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मोक्ष – वैदिक श्रमण परम्परा ((शतपथ ब्राह्मण-१४.७.१.२२, तैत्तरीय आरण्यक-२.७.१, बौधायन श्रौत सूत्र-१६.३०)) और वेदों से इतर श्रमण परम्परा (जैन और बौद्ध) में मोक्ष परम पुरुषार्थ माना जाता है. यह और बात है कि गौतम-धर्म-सूत्र (१.३.३), आपस्तम्ब-धर्म सूत्र (२.२३-३-९) जैसे कई स्थानों पर गृहस्थ आश्रम को वरीयता दी गयी है. कुमारिल भट्ट बिना गृहस्थ जीवन के संन्यास का अनुमोदन नहीं करते (जिसे परम्परा में पिपिलिका मार्ग कहते हैं – चींटी की तरह सभी आश्रमों के बाद मोक्ष की क्रमानुसार प्राप्ति). हालांकि जैन और बौद्ध परम्पराओं यहाँ तक कि शाङ्कर वेदान्त में ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास के क्रम को आवश्यक नहीं मानते (यह परम्परा में शुक मार्ग कहलाता है – तोते की तरह उड़ जाना).फिलहाल हमारे दृष्टिकोण के अनुसार, मोक्ष समाज में हर तरह के बंधन से मुक्ति के अर्थ में लेने पर इस तरह की अवधारणा की जा सकती है :-
मोक्ष में धर्म – बंधन बोध
मोक्ष में अर्थ – उपलब्ध अर्थों की दिशा की बदल कर नयी दृष्टि का उन्मेष – (संन्यास / भक्ति या अन्य साधन)
मोक्ष में काम – बंधन से मुक्ति की इच्छा
मोक्ष में मोक्ष – बंधन से मुक्ति
वामन पुराण में वर्णित पुरुषार्थ- व्यवस्था के सन्तुलन की उपमा एक सदाचार तरु से दी गयी है. एक वृक्ष के मूल, शाखा, पुष्प और फल में जैसा सन्तुलन होता है वैसे ही जीवन रूपी वृक्ष में पुरुषार्थ चतुष्टयी का सन्तुलन होना चाहिए. मानव जीवन रूपी ‘सदाचार तरु’ में धर्म इसकी जड़, अर्थ इसकी शाखाएँ, पुष्प इसका काम और फल इसका मोक्ष है (वामन पुराण- १४.१९).
पुरुषार्थ चर्चा में अम्बिकादत्त शर्मा चिन्ता व्यक्त करते हैं कि इस व्यवस्था के सन्तुलन के बिगड़ने से ही मानवीय व्यवहारों में विकृति आती है और ऐसे विचित्र रूपों में आ रही है कि उसे पारिभाषित करना कठिन होता जा रहा है. बदलते समय में पुरुषार्थ व्यवस्था की व्याख्या, समीक्षा और पुनर्विचार आवश्यक है.
दुख इस बात का है कि भारतीय मौलिक चिन्तन और विवेचन हाशिये पर पड़ा है. अपनी परम्परा और उसकी गूढ़ता समझने का प्रयास हम कम ही करते हैं. उन विचारों को नया जामा पहना कर आचरण करना अधोगामी समझा जाने लगा है. बर्ट्रेन्ड रसेल ने उदासी से भविष्यवाणी की थी-
“एक समय ऐसा आएगा कि पूर्व और पश्चिम में केवल यह भेद रह जाएगा कि पूर्व कहीं ज्यादा पश्चिमी है.”
(Alan Woon, Bertrand Russell : A Passionate Sceptic page 136)
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प्रचण्ड प्रवीर बिहार के मुंगेर जिले में जन्मे और पले बढ़े हैं. इन्होंने सन् २००५ में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान दिल्ली से रासायनिक अभियांत्रिकी में प्रौद्योगिकी स्नातक की उपाधि ग्रहण की. सन् २०१० में प्रकाशित इनके पहले उपन्यास ‘अल्पाहारी गृहत्यागी: आई आई टी से पहले‘ ने कई युवा हिन्दी लेखकों को प्रेरित किया. सन् २०१६ में प्रकाशित इनकी दूसरी पुस्तक, ‘अभिनव सिनेमा: रस सिद्धांत के आलोक में विश्व सिनेमा का परिचय‘, हिन्दी के वरिष्ठ आलोचकों द्वारा बेहद सराही गई. सन् २०१६ में ही इनका पहला कथा संग्रह ‘जाना नहीं दिल से दूर‘ प्रकाशित हुआ. इनका पहला अंग्रेजी कहानी संग्रह ‘Bhootnath Meets Bhairavi (भूतनाथ मीट्स भैरवी)’ सन् २०१७ में प्रकाशित हुआ था. कहानियों के दो संग्रह उत्तरायण और दक्षिणायन इसी वर्ष प्रकाशित हुए हैं. इन दिनों प्रचण्ड प्रवीर गुड़गाँव में एक वित्त प्रौद्योगिकी संस्थान में काम करते हैं . prachand@gmail.com |
यह लेख इसलिए प्रशंसा का भाजन है कि कई असंबद्ध विचारों को एक जगह सजाकर प्रस्तुत करता है। बाकी न तो इससे कोई आंतरिक संगति बनती दीख रही है और न कोई बाह्य तर्क निर्मित होता है।
प्रचंड प्रवीर की दिक्कत यह है कि वे इस लेख में पुरुषार्थ की सामाजिकी को देख पाने में असफल रहे हैं। जिन स्रोतों को वे उद्धृत कर रहे हैं, उनको उन्हें ठीक से एक बार पढ़ना चाहिए। पुरुषार्थ किसका? किसके लिए? वह केवल कुछ लोगों के लिए था। बाकी लोगों का क्या हुआ? क्या उनका कोई नैतिक शास्त्र नहीं हुआ करता है?
और यह लेख हद से ज्यादा मनुष्य केंद्रित है। जिन स्रोतों को वे उद्धृत कर रहे हैं वे स्रोत पशुओं के बारे में भी बताते हैं। पंचतंत्र जैसे ग्रन्थ तो उन्हें बुद्धिमान, चतुर और सुजान बताते हैं।
आरम्भिक भारत की दुनियावी समझ में ‘सर्वभूत’ की बात की जाती थी, वह युरोप की तरह मनुष्य को ही केंद्र में नहीं रखती था।
शायद ऐसे ही कारण रहे होंगे, जिनकी वजह से मैंने अपनी टिप्पणी में गैप्स की बात भी कही। पुरुषार्थ किसके लिए? यह प्रश्न अत्यधिक महत्वपूर्ण है । धारायति इति धर्म: के अंतर्गत मनुष्य के द्वारा किया गया मूल्य चिंतन मनुष्य के अर्थ , काम ,मोक्ष इत्यादि में बहुत कुछ जोड़ता है जो मनुष्य द्वारा प्रकृति के पक्ष में कितने ही मुद्दे खड़े करता है जिन्हें प्रवीर ज़्यादा छूते दिखाये नहीं देते …मूल्य चिंतन के संदेर्भ में।
देखे जा चुके को देखना और देखते रहना दृष्टि के लिए अनिवार्य व्यायाम है। प्रचण्ड प्रवीर जी ने बड़ी गहनता से देखे हुओं को देखा है। दर्शन शास्त्र मेरा विषय नहीं, मगर यदा-कदा झाँक लेता हूँ। मुझे तो सबमें कोई न कोई बात भा जाती है। यह प्रतिपाद्य की शक्ति है या मेरी सीमा – कह नहीं सकता।
दरअसल यह बात मैं नैतिकता के संदर्भ में कह रहा हूँ। जाने क्यों मुझे यह लगता है कि एक मनुष्य अपने जीवन में कई तरह की नैतिक वीथियों से गुजरता है। कोई भी अवधारणा दिखती भले ठोस हो मगर मनुष्य की चेतना के पानी (सामूहिक चेतन/अवचेतन भी) में उतरते ही घुल जाती है और फिर वैयक्तिक ढंग से व्याख्यायित होती है, और वह भी कई variables के आलोक में।
बहरहाल, सुंदर आलेख के लिए प्रवीर जी को बधाई।
भारतीय विद्या मेरी रुचि का विषय है । इस विस्तृत लेख को मैंने आद्योपांत पढ़ा है । प्रचण्ड प्रवीर जी के गहन अध्ययन और अनुसंधान से प्रभावित हुआ हूँ । मैं इसे साझा कर रहा हूँ । प्रोफ़ेसर Arun Dev जी आपने अपनी पोस्ट में इनके आलेख को स्थान दिया है । आपको बधाई ।
As a communicator, education person and a social animal, I have long felt the need of multiple definitions of naitikta and shubh coming from a nonsuspect source.
Congratulations and thanks to the author and editor.
Where can I get this book ?
नैतिकता … अंतः में स्थित बीज की पूर्णता की यात्रा, सम्पूर्णता के उत्थान के अनुकूल रखना ही नैतिकता है ! tulsitawari@gmail.com
निश्चय ही यह आलेख मनुष्य केन्द्रित है और पुरुषार्थ जानवरों के लिए नहीं मनुष्यों की सामाजिकता के लिए ही है। पहली टिप्पणी की आपत्ति को समझने में मैं असमर्थ हूँ, क्योंकि धर्म ही मानव को पशु से अलग करता है यह कह दिया गया है। पशुजीवन में औचित्य या मूल्यबोध नहीं होता है।
एक आपत्ति इस तरह आयी कि – “हम लोग व्याकरण से लेकर दर्शन तक पाश्चात्य टेम्प्लेट पर रखकर पढ़ते हैं। ऐक्सिऑलजी वाला एथिक्स और एस्धेटिक्स हमारी परम्परा में नहीं हैं। हमारी सम्पूर्ण चिन्ता ही अलग है। इस प्रकार का सारा विवेचन खोल पर चमड़ा मढ़ने वाली खींचतान है। पर सौ साल से चल रही है। ”
शायद इस टिप्पणी कहने का अघोषित तात्पर्य यह भी होगा कि पुरुषार्थ चिन्तन ही पश्चिमी है, और दसवीं सदी के अभिनवगुप्त जो तन्त्रालोक में सौन्दर्यमीमांसा में ‘मूल्यबोध’ की बात करते हैं वो उन्होंने इक्कीसवीं सदी के ‘शेल्डेन पॉलोक’ से चुरायी है। इस तरह के परम्पराबोध का क्या उत्तर दिया जा सकता है?
इस आलेख का मूल वल्लभाचार्य की पुस्तक – तत्त्वार्थदीपनिबन्ध ( 1. शास्त्रार्थप्रकरण 2. सर्वनिर्णय प्रकरण 3. भगवतार्थ प्रकरण) में है। यह सोलहवीं सदी की रचना है। इच्छुक व्यक्ति इसे पढ़ कर कुछ प्रामाणिक बात कहे तो कोई बात है। वरना फतवे जारी करना हमारी परम्परा तो कभी नहीं रही है। लेकिन अफसोस है कि समकालीन हिन्दी विमर्श में यह अपना ली गयी है।
महत्वपूर्ण आलेख ,लेकिन और व्यवस्थित और पठनीय बनाया जा सकता था .बधाई प्रचण्ड प्रवीर जी .
लगता है , बर्ट्रेंड रसल की उदास भविष्यवाणी में काफी दम है। प्रचण्ड प्रवीर को इस लेख में छूटे हुए गैप्स पर अपनी निगाह को और ज़्यादा तीक्ष्ण बनाना होगा। उनका चिंतन जिन सूत्रों के समावेश को और जिस विश्लेषण को प्रभावी बनाने के लिए क्रियाशील है उसमें कई तरह के निष्कर्ष सम्मत उद्देश्य उनके पाठ को सिरे से समस्याग्रस्त करते हैं। अगर किसी को यह आभास मिले कि उनकी निष्पत्तियों में दर्शन की आँख दृश्य की भूख़ी है तो उन्हें अपनी प्रत्यंचा और अधिक कसनी होगी।
कुछ आपत्तियों पर स्पष्टीकरण देने की आवश्यकता जान पड़ती है। किसी भी दार्शनिक परम्परा में उसकी परमार्थ मीमांसा (मेटाफिजिक्स) और सन्मीमांसा (आण्टोलॉजी) महत्त्वपूर्ण हैं। श्याम मनोहर जी शुद्धाद्वैत परम्परा के हैं जिसमें जड़-चेतन का विवाद नहीं है। इस तरह पुरुष का अर्थ ‘नवद्वारे पुरे देही’ – नौ द्वारों वाले शरीर रूपी पुर में रहने वाली चेतना से है, जो किसी वर्ग या लिंग या वर्ण से बाधित नहीं है।
सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्॥5.13॥ – श्रीमद्भगवद्गीता
_कर्मयोगी सभी कर्मों के फल को सर्वथा त्याग कर न कोई कर्म करता हुआ ओर न करवाता हुआ नौ द्वारवाले शरीर रूपी नगर में सुख से रहता है।_
_मानव-शरीर को नौ द्वारों का नगर कहा गया है (कठोउपनिषद ५.०१ और श्वेताश्वतर उपनिषद ३.१८)। यह नौ प्रवेश द्वार हैं – दो आँखों, दो कान, दो नासिकाछिद्र, एक मुख, पायु और उपस्थ।_
इस तरह पुरुषार्थ व्यवस्था धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की लोक व्यवस्था के संदर्भ में संतुलन के विषय में है। यह धर्म ‘धारायति इति धर्म:’ के रूप में न हो कर ‘धृञ् धारणे’ धातुपाठ से धर्म का अर्थ देहधारणोपयोगी क्रिया, प्रभावानुकूल-प्रतिकूल क्रिया, निजज्ञान इच्छाप्रयत्नजन्य, परस्परावलम्बित कर्मरूप व्यवहार, स्वपर-व्यक्ति-समुदायहितकरण से निवृत्ति आदि से समझना चाहिए।
यहाँ धर्म का स्वरूप न्याय के मूल में निहित है, न कि परम्परा में धर्म के व्यापक अर्थ से।
धर्म की विशद चर्चा के लिए जैमिनी ‘अथातो धर्मजिज्ञासा’ कह गए हैं। आलेख में ‘धर्म में धर्म’ का स्वरूप मूल्यात्मक अवश्य है, लेकिन इस आलेख का प्रतिपाद्य ‘धर्म के छह अर्थों से होने वाली भिन्नता’ की ओर ध्यान आकृष्ट करना है।
यह पुरुषार्थ व्यवस्था सभी मनुष्यों के लिए जान पड़तीं हैं, न कि किसी विशेष वर्ग के लिए जैसा कि आपत्तियाँ उठ रही हैं। क्योंकि इस व्यवस्था में सभी को पर्याप्त अर्थ, काम, धर्म – तीनों पुरुषार्थों का भरपूर सेवन करने की छूट है लेकिन परस्पर अविरोध और सम्यक संतुलन में। पशुओं में धर्म और मोक्ष की कामना नहीं होती। मनुष्य इसलिए मनुष्य है कि वह आत्मचेतन है, सत्य, अहिंसा, क्षमा जैसे मूल्यों पर सतता से विचार ओर आचरण कर सकता है। दुनिया के हर धर्म-पंथ में ‘धर्म में धर्म’ की अवधारणा मिलती है कि चोरी न की जाय, संतोष रखा जाय आदि आदि। किन्तु यह मनुष्य के लिए स्वभाव से, प्रभाव से जटिल हो जाता है। इसलिए कई बार आपद धर्म की व्यवस्था करनी पड़ती है, लेकिन वह ‘आपदधर्म’ सतत या कुलधर्म नहीं बन सकता।
इस आलेख का उद्देश्य एक भूली हुयी व्यवस्था पर पुनर्विचार है, न कि विशद व्याख्या है, जिसका मैं सुयोग्य विद्वान नहीं हूँ। यदि आपत्तियाँ बेहतर रूप से समझ में आए तो भविष्य में उसके उत्तर का प्रयास करूँगा।
“पहली बात तो यह है कि नैतिकता लौकिक व्यवहार को ले कर सम्बन्धित है. कोई वनवासी हो कर या एकान्त में रह कर नैतिक नहीं हो सकता.
कर्म-फल का सिद्धान्त जीव को उसके पाप और पुण्य के फल को विविध रूप से जन्म-जन्मान्तर में भुगतनी होती है. इस सिद्धान्त से समाज में किस तरह रहा जाये, इसकी व्याख्या नहीं होती भले यह पृष्ठभूमि में रहे. भारतीय चिन्तन में इसकी व्याख्या पुरुषार्थ व्यवस्था में हुयी. यह हजारों सालों में उन्नत हुयी. पहले यह धर्म-अर्थ-काम की त्रयी, फिर यह धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की चतुष्टयी में फलित हुयी.”
पहले आप इसे पढ़ें। यह मानकर कि आपने नहीं लिखा है, किसी दूसरे ने लिखा है। इससे आप जान पाएंगे कि आपने कितनी हवाबाज़ी की है। कोई वनवासी होकर नैतिक नहीं हो सकता है? कैसे नहीं हो सकता है?
यदि वह व्यक्ति ‘मुख्य भूमि’ का है तो वह में जाकर कैसे नैतिक नहीं रह जाएगा? नैतिकता किसी भी मनुष्य के उसके अपने वातावरण की अनुक्रिया से ही उपजती है। तो क्या वहाँ उसका अकेला होना उसके नैतिक होने में बाधा पहुंचाएगा?
फिर जब आप वनवासी शब्द लिखते हैं तो इसका आशय मनुष्यों की, स्त्रियों-पुरुषों की एक पूरी रहनवारी और सांस्कृतिकी से है। तो फिर वनवासी होकर कोई नैतिक कैसे नहीं हो सकता है? आपका यह लेख ‘बेसिकली’ मनुष्यता विरोधी है।
कर्म फल का सिद्धांत केवल पुरुषार्थ के आधार पर नहीं समझा जा सकता है। इसमें तो स्त्रियों और शूद्रों के लिए बहुत ही विभेदकारी व्यवस्था थी। आपने पहले एक वाक्य लिखा कि ‘भारतीय चिन्तन में इसकी व्याख्या पुरुषार्थ व्यवस्था में हुयी.’ ऐसे सरलीकरण से आप अपनी मनमानी व्याख्या को पुष्ट करने का प्रयास कर रहे हैं।
यह पूरा लेख कोई इतिहासकार या दार्शनिक(यदि वह है) कैसे पढ़ेगा, मुझे नहीं पता लेकिन मुझे यह बहुत ही आधारहीन लगा। तथ्यों का जंगल।
यहाँ वनवासी का आशय समाज से अलग-थलग होना है। कोई भी नैतिक व्यवहार किसी अन्य की अपेक्षा करता है। जब ‘अन्य’ नहीं होगा तो ‘नैतिकता’ का प्रश्न नहीं उठता। यह कोई हवाबाजी नहीं, बल्कि दार्शनिक पक्ष है। एकान्त में भजन-कीर्तन कर सकते हैं, लेकिन वहाँ नैतिकता का अवसर नहीं आता। आता है तो सोदाहरण बताइए वरना आपकी आपत्ति निर्मूल ही नहीं बल्कि पूर्वाग्रहों से भरपूर और बेसिरपैर की है। यह नहीं कहा जा रहा कि आदिवासी सारे अनैतिक हैं, यह कहा जा रहा है कि बिना समाज या ‘अन्य’ के नैतिकता का प्रश्न नहीं होता।
कर्म फल का सिद्धान्त पुरुषार्थ का स्पष्ट आधार नहीं है पर पृष्ठभूमि में है, यह कह दिया गया है। लेकिन कर्म फल का सिद्धान्त मूलत: तत्त्वमीमांसा और परमार्थ मीमांसा से जुड़ा है। आप उसे नकार सकते हैं पर इस वाक्य को नकारना अतार्किक है।
आलेख किसी के पूर्वाग्रहों को संतुष्ट करने के लिए नहीं लिखा जाता। दर्शन तथ्यपरक नहीं होता, विचारपरक होता है। भले ही लोग को हीगेल, काण्ट, नीत्शे या सार्त्रे की बातें पसन्द न आये, इससे वैचारिकी और उसके संयोजन पर कोई फर्क नहीं पड़ता।
“”पहली बात तो यह है कि नैतिकता लौकिक व्यवहार को ले कर सम्बन्धित है. कोई वनवासी हो कर या एकान्त में रह कर नैतिक नहीं हो सकता. कर्म-फल का सिद्धान्त जीव को उसके पाप और पुण्य के फलको विविध रूप से जन्म-जन्मान्तर में भुगतनी होती है. इस सिद्धान्त से समाज में किस तरह रहा जाये, इसकी व्याख्या नहीं होती भले यह पृष्ठभूमि में रहे. भारतीय चिन्तन में इसकी व्याख्या पुरुषार्थ व्यवस्था में हुयी. यह हजारों सालों में उन्नत हुयी.”” इसे फिर से पढ़िए।
भारतीय चिन्तन में इसकी व्याख्या —> भारतीय चिन्तन में नैतिकता की व्याख्या
पुरुषार्थ व्यवस्था कर्मफल के सिद्धान्त की व्याख्या नहीं है, बल्कि मनुष्य को कैसा आचरण करना चाहिए (नैतिक) जिससे इहलोक और परलोक दोनों सध जाएँ। यह ऊपर भी कहा गया है।
जहाँ तक मैं समझ रहा हूँ कि पाठदोष आरोपित किया जा रहा है क्योंकि पूर्वाग्रह को छोड़ कर खुले दिमाग से विचार को नहीं पढ़ा जा रहा है, बल्कि उनके संदर्भ को (जिसे तथ्य कहा जा रहा है)। वैचारिकी में तथता सन्दर्भ से अधिक कुछ नहीं होती अत: उस पर अन्यथा देखने से ऐसे पाठदोष सहज निकल आएँगे।
1. ‘दर्शन तथ्यपरक नहीं होता, विचारपरक होता है।’ मतलब कुछ भी कह दीजिए।
2. ‘यहाँ वनवासी का आशय समाज से अलग-थलग होना है।’ इससे मुझे घनघोर आपत्ति है।
3. ‘आलेख किसी के पूर्वाग्रहों को संतुष्ट करने के लिए नहीं लिखा जाता।’ मेरी टिप्पणी के लिए भी यह बात सच है।
१. दर्शन तथ्यपरक नहीं होता है, इसका अर्थ यह है कि यह ‘सर्वे’ या ‘घटनाओं’ जैसे तथ्यों पर आधारित नहीं होता है। यह विचारों को निगमित करने के लिए प्रतिपत्तियों और वादों पर सोची-समझी व्यवस्था होती है। उदाहरण के तौर पर नीत्शे जब शक्ति की कामना को सबसे प्रबल और मूलभूत मानते हैं तो इसके समर्थन या आधार के लिए उन्हें ‘तैमूर लंग’ और ‘चंगेज खान’ के वर्णन की आवश्यकता नहीं पड़ती है, भले ही बातों को समझाने के लिए वह सम्बन्धित रूप में कुछ कह सकें। शेष आप किसी दार्शनिक व्यवस्था को पढ़िए तो मेरी बातें और स्पष्ट होंगी। काण्ट या स्पिनोजा किसी तथता को ले कर आग्रही नहीं है। पहले यह सोचिए कि तथ्यता का मतलब क्या लिया जाता और क्या लिया जा रहा है।
२. जब कैकेयी ने राम के लिए वनवास माँगा था, उनका आशय यह नहीं था कि राम आदिवासियों के पास पहुँच कर उनमें घुल-मिल कर रहने लगे। आपकी घनघोर आपत्ति वाल्मिकी रामायण और पुराणों को पढ़ने से दूर हो सकती है यदि आप खुले मन से पढ़ना चाहें तो।
३. आपकी टिप्पणी आलेख नहीं, बल्कि प्रतिवाद में प्रायोजित कुतर्कों का प्रदर्शन है। अधिकांश टिप्पणियाँ पूर्वाग्रहों के साथ आती हैं और इस प्रतिवाद में इसका मानक प्रतिदर्श खड़ा कर दिया गया है। समय और ऊर्जा की बचत के लिए यह मान के चलिए कि यह पूरा आलेख व्यर्थ ही है किन्तु अपनी समझ के लिए ही सही, काण्ट और स्पिनोजा के दर्शन को ही आद्योपांत पढ़िए (यह अवश्य है कि आपने उन्हें नहीं पढा वरना इस तरह की आपत्तियाँ नहीं आती)। शायद वही आपकी सच्ची मदद कर सके और आपकी पीड़ा को कुछ कम कर सके।
मुक्तिबोध की उक्ति को कुछ युक्ति के साथ परिवर्तित करे अपनी बात को विराम देना चाहता हूँ क्योंकि इन तरह के कुतर्कों की परिधि मुझे दिख नहीं रही है।
और, तब मुझे प्रतीत हुआ भयानक
गहन मृतात्माएँ इसी नगर की
हर रात जुलूस में चलतीं,
परन्तु दिन में
बैठती हैं मिलकर करती हुई षड्यंत्र
विभिन्न विश्वविद्यालयों, टीवी चैनलों में, सोशल मीडिया में।
हाय, हाय! मैंने उन्हे देख लिया नंगा,
इसकी मुझे और सज़ा मिलेगी।
पढ़ाई अक्षरों का पारायण नहीं है जो आप कह रहे हैं, यह पढ़ें, वह पढ़ें।
वह मैंने भी पढ़ा है। मामला नजर का है। आपको दिखाई क्या पड़ता है। मेरी तरफ़ से आपके ‘विद्वत्तापूर्ण’ लेख पर यह अंतिम टिप्पणी है
सब कुछ पढ़ लेने के बाद भी अगर जानबूझ कर गलत पढ़ा जाय और ऐसी तिरछी नजर पैदा की जाए, तो इसे ही कुपढ़ता कहा जाना चाहिए। इन वाक्यों में न कोई विसंगति उजागर हो पायी, न ही कोई सम्मानजनक विरोधी तर्क दिया जा सका है। अंत में थक-हार कर व्यक्तिगत आक्षेप के सिवा इन प्रतिवादों में कुछ नहीं प्रकट हो पाया।
आशा है इस प्रकरण से आप शिक्षा लेंगे और भविष्य में इस तरह की अतार्किक और पूर्वाग्रह से भरी टिप्पणियों व अशोभनीय प्रलाप से बचेंगे। निश्चित तौर पर आपने आनन्दवर्धन का ‘ध्वन्यालोक’ नहीं पढ़ा है। अगर पढ़ लेंगे तो आपकी भविष्य की इस तरह की दुराग्राही परियोजनाओं में सहायता मिलेगी। मंगलकामनाओं के साथ मैं आपके उज्ज्वल भविष्य की कामना करता हूँ। इति।