भारतीय दर्शन में काल चिंतन
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हम अवधि को परिवर्तन से ही समझते हैं. अवधि से ही काल का निर्धारण करते हैं. काल और आकाश (जिससे दूरी नापी जा सके) ने हमेशा से मनुष्य को गहराई से सोचने पर विवश किया है. ‘मैं समय हूँ!” जैसे बहुचर्चित डायलॉग से कई बार काल को ‘मृत्यु’, ‘नियति’ या ‘कर्मफल’ का पर्याय समझ लिया जाता है, हालाँकि वे अवधारणाएँ काल में घटित होती हैं. यह स्पष्ट करना देना आवश्यक है कि ये काल की वे अवधारणाएँ नहीं है जो हमारे विचार का विषय है.
गणित और विज्ञान के विद्यार्थी जब कैलकुलस (कलन) पढ़ते हैं जिसके प्रारम्भ में ही वे हर परिवर्तन को समय के सापेक्ष समझते हैं, तब उनके लिए सहज प्रश्न होता है कि क्या काल सदिश (वेक्टर) है या अदिश (स्केलर)? निश्चित तौर पर काल सदिश तो नहीं है. न्यूटन के भौतिकीय नियमों में हम काल को एकरेखीय अदिश मानते हैं. फिर हम भौतिकशास्त्र गहराई में पढ़ते हैं तो आइंस्टीन के सापेक्षता के सिद्धान्त और क्वांटम फिजिक्स की कई समस्या से जूझने पर हम पाते हैं कि काल न सदिश है और न अदिश. वहाँ देश-काल (स्पेस-टाइम) के रूप में एक नयी अवधारणा के रूप में प्रकट होती है. इसके अलावा आधुनिक भौतिकशास्त्र हमें समझाता है कि प्रकाश का वेग (c) कूटस्थ है और काल सापेक्ष है.
हम प्रसिद्ध प्रकाश-घड़ी की सैद्धान्तिक कल्पना करें, जिसमें दो दर्पण के बीच एक घड़ी है. इन दोनों दर्पणों के बीच की दूरी डेढ़ लाख किलोमीटर मान लेते हैं. हम जानते हैं कि प्रकाश एक सेकेंड में तीन लाख किलोमीटर की दूरी तय करता है. इस तरह स्थिर अवस्था में पहले दर्पण से निकला प्रकाश दूसरे दर्पण से टकरा कर १ सेकेंड में लौटेगा. अगर कोई राकेट पर बैठा यात्री, जिसका राकेट डेढ़ लाख किलोमीटर प्रति सेकेण्ड (c/2) की गति से चल रहा हो, वह इस पूरे वाकये को चलती हुयी गाड़ी में प्रकाश की यात्रा एक त्रिभुज में देखेगा. जहाँ इस त्रिभुज की भुजा o का मान डेढ़ लाख किलोमीटर, और दूसरी भुजा a का मान = (आधे सेकण्ड में राकेट की तय की गयी दूरी= [(c/2)*(1/2) == c/4] ) = (डेढ़ लाख किमी)/२= पौन लाख किमी होगी. इस तरह राकेट पर वाली घड़ी पाइथागोरस के सूत्र से यह पाएगी कि भुजा h का मान = वर्गमूल ( (३/२)^२+ (३/४)^२) = १.६७७ लाख किमी.
इसका अर्थ यह हुआ कि राकेट यात्री के लिए प्रकाश की समझ में आने वाली गति प्रकाश की सैद्धान्तिक गति ३ लाख किमी प्रति सेकेण्ड (c) से ज्यादा ‘तीन लाख पैंतीस हजार किलोमीटर प्रति सेकेण्ड’ (1.118 c) होगी. यह भौतिकी के मूल सिद्धान्त के विरुद्ध है, जिसके अनुसार प्रकाश के गति से अधिक गति कोई द्रव्य कभी भी नहीं प्राप्त कर सकता. बाद में वैज्ञानिकों ने प्रयोगों से भी पुष्टि कि जब सापेक्षिक गति प्रकाश की गति की कोटि (उसके समकक्ष) में पहुँच जाती है तब काल सापेक्ष हो जाता है.
एक अन्य समस्या हमें बिंग-बैंग के सिद्धान्त से भी मिलती है. बिग-बैंग से पहले क्या था? इतना विशाल ब्रह्माण्ड एक क्षण में कैसे पैदा हो गया? इतना द्रव्य, इतनी ऊर्जा कहाँ से आयी? क्या काल का आरम्भ बिग-बैंग से मानना चाहिए?
इसी क्रम में यह सोचने के लिए हम बाध्य हो जाते हैं कि काल के विषय में क्या निश्चित विचार हो सकता है? दार्शनिकों ने काल के विषय में बहुत गहराई से और बड़े वैचित्र्य के साथ विचार किया है. दर्शन में वास्तविकता के सारे आयामों पर एक साथ सुसंगत रूप से विचार किया जाता है.
भाषा की दृष्टि से देखा जाय तो संस्कृत में काल शब्द ‘कल’ धातु से निष्पन्न है. कल धातु का अर्थ दो संदर्भों में प्रयुक्त है– (कल शब्दसंख्यानयो: ) – इसका मतलब हुआ आवाज़ करना और गणना करना. धातु पाठ में यह दो अधिक तरह से पढ़ गया है – १. किल बिल क्षेपे २. कल गतौ संख्याने च. इनके अर्थ हुए – कहीं जाना, गिनना/मापना, फेंकना/निशाना साधना. इस धातु से ही ‘कला’, ‘काल’, ‘कलन’, ‘काली’ आदि शब्दों की व्युत्पत्ति हुयी है. कल धातु का अर्थ मधुर (कल-कल ध्वनि) और सुन्दर (कलहंस) के अर्थों में भी हुआ है. कल का प्रयोग ‘जो सुख लाता है’ के अर्थ में भी हुआ है. (Navjivan Rastogi: 2022: 38-39).
प्रवेश
जिस रूप में हम आज दर्शन को समझते हैं, उसमें तीन मूलभूत समस्याएँ जो कि सन्मीमांसा का आधार बनती हैं तथा जिससे परमार्थ मीमांसा का द्वार खुलता है. वे इस प्रकार हैं:
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मनुष्य जब अपने जीवन को और आस-पास देखता है तो यह पाता है कि कुछ चीजें जड़ हैं, जिनमें स्वत: कुछ विशिष्ट क्रियायें नहीं होती जिसके आधार पर वह चेतन और जड़ का विभाजन करता है. यह क्रियाएँ जानना, इच्छा करना, या संकल्प से प्रेरित हो कर कोई कार्य निष्पादित करना आदि होती हैं. जब मनुष्य मर जाता है तो देखता है कि शव जड़ मात्र है. प्रश्न यह उठता है कि जड़ शरीर में चैतन्य कैसे था? जड़ और चेतन का संयोग का क्या आधार है? क्या जड़ सत्य है और चेतन जड़ से उपजता है जैसा कि आधुनिक विज्ञान मानता है? या चेतन ही मूल तत्त्व है और जड़ उससे बनता है? वास्तविकता के क्या घटक हैं? क्या वे जड़-चेतन में ही विभाज्य हैं? इन प्रश्नों का एक वर्ग है. वास्तविकता के घटक को तत्त्व की संज्ञा दे कर इन्हें तत्त्वमीमांसा कहते हैं.
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दूसरा सहज प्रश्न है जब मनुष्य अपने विकास क्रम को देखता है कि पहले वह बच्चा था और बाद में बड़ा हो गया. यह एकरेखीय क्रमबद्ध परिवर्तन जो हुआ, उसमें क्या-क्या बदला? क्या वह वही है जो पहले था? इस प्रश्न में काल की अवधारणा भी बहुत गहरे से छुपी है.
दर्शन या विचार-व्यवस्था का प्रयास है वह जड़ हो या चेतन, किसी भी वस्तु या प्राणी के ‘होने’ को ले कर ऐसे सिद्धान्त प्रतिपादित करे जिससे वह अपने सभी प्रश्नों की सुसंगत व्याख्या कर सके. मोटे तौर पर किसी भी जड़ या चेतन के होने की अवधारणा, दर्शन में ‘सत्’ कही जाती है. जो नहीं है उसे ‘असत्’ कह सकते हैं, उदाहरण के तौर पर आकाश में खिलने वाला फूल (आकाशकुसुम) या खरगोश के सींग (शशशृंग). देश-काल में किसी का होना अस्तित्व कहलाता है, जैसे हम कह सकते हैं कि महात्मा गाँधी का अस्तित्व था वहीं आठ पैर वाले शरभ व ड्रैगन जैसे कल्पित जीवों का अस्तित्व कभी था ही नहीं. यह विवेचन सन्मीमांसा कहलाता है.
भारतीय चिन्तन व्यवस्थाओं में सत् के साथ स्वरूप की अवधारणा कई बार समाहित रही है. यह पाश्चात्य दर्शन के सार/ स्वरूप (एसेंस) की तरह सर्वदा अलग अवधारणा में प्रतिपादित नहीं हुयी है.
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सूरज का उगना-ढलना, ऋतुओं का बदलना – ये परिवर्तन ऋत (व्यवस्था) के रूप में प्रकट तो हैं, पर इन नियमों/व्यवस्थाओं का कोई नियामक है? साधारण शब्दों में पिंड के लिए ‘गुरुत्वाकर्षण का नियम’ या आवेश के लिए ‘कूलाम्ब का नियम’ देखने में तो आता है, पर यह नियम क्यों है? नियम इसी स्वरूप में क्यों हैं? क्या व्यवहार में आने वाले नियमों का कोई वृहद अर्थ है जैसे कि सर्वशक्तिमान विधाता? यह तीसरा प्रश्न ही ‘परमार्थ मीमांसा’ का मूलगामी प्रश्न है. बहुत से दर्शन ‘पारलौकिता’ (trans-worldly) को ही परमार्थ (metaphysics) समझते हैं, किन्तु यह किसी विचार व्यवस्था के लिए आवश्यक नहीं है, जैसे कि मार्क्सवादी चिन्तन में उत्पादन और उसके समान वितरण को ही परमार्थ समझा जाता है.
मोटे तौर पर आदमी पृथ्वी की गति से, सूर्य के कारण दिन-रात देखता है. इसी आधार पर वह दिन-रात, मास, ऋतुएँ, वर्ष, युग आदि की गणना करता है. इसी आधार पर वह कल, आज और आने वाले कल की अवधारणा बनाता है. भाषा के सम्बन्ध में वह हो गया, हो चुका है, हो रहा है , होता है, होने वाला है, होगा – आदि विचारों से वास्तविकता को समझने का प्रयास करता है.
प्रश्न यह उठता है कि क्या वास्तविकता के आयाम में जड़, चेतन के साथ-साथ काल को भी एक स्वतंत्र घटक माना जाय, या वह सत् की कोटि में या जड़ या चेतन की कोटि में ही समाहित हो जाएगा?
सर्वस्वीकृत आधुनिक विज्ञान हर चीज को मापने का प्रयास करता है. इस क्रम में वैज्ञानिक धारा में वही सत्य है जो मापा जा सके. इस तरह वास्तविकता को नापने की मूल इकाई ७ हैं – सेकेण्ड (काल की), मीटर (दूरी की), किलोग्राम (द्रव्यमान की), एम्पीयर (विद्युत धारा की), केल्विन (तापमान की), मोल (द्रव्याणु संख्या की), कैण्डेला (कान्ति की). इस आधार पर आधुनिक विज्ञान काल को वास्तविकता की स्वतंत्र इकाई मानता है. अन्य विचार पद्धतियों में ऐसा नहीं मानते क्योंकि वैज्ञानिक धारा में चेतना को कोई इकाई अभीष्ट नहीं है. न्यूरोसाइंस में चेतना को न्यूरॉन के टकराव का परिणाम समझा जाता है और उनका विश्वास है कि एक दिन चेतना को भी द्रव्य या रासायनिक समीकरणों से समझ लिया जा सकेगा.
बहरहाल काल की अवधारणा में मूलभूत प्रश्न इस तरह उठते हैं:
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क्या काल वास्तविक है?
कहीं ऐसा तो नहीं कि काल अवास्तविक है और वह अन्य अवधारणाओं जैसे कि परिवर्तन, क्रम आदि से ही समझा जाता है.
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क्या काल समस्त अस्तित्व की अवधारणाओं का आधार है?
जैसे हम पाते हैं कि वृत्त या त्रिभुज की अवधारणा तो है पर इनकी भौतिक सत्ता नहीं है. गणितीय प्रमेय जैसे कि रेखा या त्रिभुज आदर्श रूप में हैं, परन्तु बिना मोटाई की कोई रेखा नहीं हो सकती इसलिए कोई भी त्रिभुज या वृत्त कभी संभव ही नहीं है. यदि हम अस्तित्व का अर्थ केवल भौतिक सत्ता से लेंगे तो यह कहना पड़ेगा कि ज्यामिति अवधारणाओं का अस्तित्व ही नहीं है. इस तरह हम त्रिभुज, बिन्दु की अवधारणाओं की भौतिक सत्ता को नकारते हैं, फिर उन्हें विचार व्यवस्था में उन्हें कैसे स्थान दें?
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क्या काल बुद्धि विकल्प है?
क्या बिना काल की अवधारणा के हम किसी भी तरह का भाषा व्यवहार कर सकते हैं? क्या बिना काल की अवधारणा के हम कुछ भी सोच सकते हैं? क्या काल बुद्धि में पहले से ही समाहित है?
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क्या क्रिया काल को मापने की इकाई है या काल क्रिया को मापने की इकाई है?
पाश्चात्य चिन्तन में यह विचारा जाता है कि यदि ऐसा हो कि सृष्टि के समस्त क्रिया कलाप, पंछी का उड़ना, सूर्य की गति, पृथ्वी की गति, अणु-परमाणुओं की गति- सभी कुछ निश्चित अवधि के लिए अचानक रुक जाएँ तो क्या समय बीता हुआ कहलाएगा?
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क्या काल कहीं से आरम्भ होता है?
यह अब्राहमिक पंथों की यह मूल अवधारणा है कि सृष्टि का आरम्भ होता है. आरम्भ से पहले क्या था? बिग-बैंग से पहले क्या था? यहाँ सोचना आवश्यक है कि आरम्भ भी काल में घटित होती है, जिसे हम माप सकते हैं. अगर काल अमाप्य हो तो, तब क्या हम इस प्रश्न का उत्तर नहीं दे सकते?
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क्या काल कहीं समाप्त होगा?
यह भी अब्राहमिक पंथों की मूल अवधारणा हैं कि अंतिम प्रलय होगा. अंतिम प्रलय के समय सर्वशक्तिमान ईश्वर न्याय करेंगे.
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क्या काल पुनरावर्तित होता है? क्या घटनाएँ एक ही तरह बारम्बर चक्र में घटित होंगी?
पुराणों में कई युगों और कल्पों की अवधारणा है. क्या बार-बार आने वाले युग क्या एक ही तरह ही घटित होते हैं? यदि होते हैं तो जगत् के सारे क्रियाकलाप नियत हैं तथा इस कारण अर्थहीन हैं. कई पाश्चात्य विचारकों ने काल के चक्र की अवधारणा को वृत्ताकार या पुनर्घटित होने की अवधारणा में जोड़ते हैं.
भारतीय दर्शन में श्रुति (वेदों) में आस्था वाली आस्तिक परम्परा के षड् दर्शनों में तथा वेद विरोधी नास्तिक दार्शनिक (बौद्ध दर्शन की चार प्रमुख वाद, जैन और चार्वाक) परम्पराओं में काल का गहरा विवेचन है. इसके अतिरिक्त भारतीय आगमिक दर्शन का फलित पुष्प काश्मीरी शैव दर्शन में काल को ले कर मौलिक प्रतिपत्तियाँ स्थापित की गयी हैं. हम इन्हें संक्षेप में देखेंगे.
सांख्य का अभिव्यक्तिवाद (सत्कार्यवाद)
सांख्य-योग ऐसे दर्शन युग्म हैं, जो समस्त वास्तविक जगत में जड़ और चेतन का स्पष्ट विभाजन मानते हैं, जिसे वह प्रकृति तथा पुरुष की संज्ञा देते हैं.
ईश्वरकृष्ण (तीसरी से पाँचवी सदी के बीच) की सांख्यकारिका (निरीश्वर सांख्य) के अनुसार पुरुष चेतन और कूटस्थ है वहीं प्रकृति जड़ हैं जो तीन गुणों से बनी निरन्तर परिवर्तनशील है. सत्त्व गुण, रजस् गुण और तमस् गुण से बनी प्रकृति अपने इन गुणों में अविभाज्य है. प्रकृति और उसके २४ घटक (प्रकृति, बुद्धि, अंहकार, मन, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच तन्मात्राएँ और पाँच महाभूत) तीन गुणों के संयोग से बने हैं जो सदा क्रियाशील हैं. हम संसार में देखते हैं कि बहुत से जीव-जंतु हैं. इसलिए बहुत से चेतन प्राणी होने के कारण पुरुष की अनेकता मानी गयी है. (चन्द्रधर शर्मा, १९९५:१४३-१४४).
सांख्य दर्शन सत्कार्यवाद को मानता है, जिसका अर्थ है कि कारण कार्य में पहले से ही प्रतिसर्ग अवस्था में वर्तमान है. वह केवल विकार के कारण, जिसे सर्ग या सृष्टि कहते हैं, कार्य रूप में व्यक्त होता है. परिणाम दो तरह के होते हैं – १. सरूप ( या सजातीय) परिणाम २. विरूप (या विजातीय) परिणाम.
जिस तरह बीज से पेड़ बनता है, उसका कारण यह है कि बीज में ही पेड़ अव्यक्त रूप से विद्यमान था और सरूप परिणाम के कारण सृष्ट हुआ है. (चन्द्रधर शर्मा, १९९५:१४०-१४१).
चूँकि सांख्य दर्शन हर परिवर्तन को प्रकृति का अन्तर्निहित स्वभाव मानता है, इसलिए काल को वास्तविकता का कोई घटक नहीं स्वीकार करता. भूत, वर्तमान तथा भविष्य को केवल प्रकृति तत्त्व की अलग अभिव्यक्ति मानता है. काल वस्तु का अंग बन के ही प्रकृति का घटक बनता है.
योग दर्शन का क्षणवाद
पतंजलि के योगसूत्र में सांख्य की तत्त्वमीमांसा को पूरी तरह स्वीकार करते हुए ईश्वर नामक पच्चीसवाँ तत्त्व जोड़ा गया है. काल के संदर्भ में क्षण और उसके क्रम को वास्तविक माना गया है किन्तु सांख्य की ही तरह इसे वास्तविकता का कोई तात्त्विक घटक न मान कर प्रकृति के परिणामों में संकल्पित किया गया है.
योगसूत्र (३.१३) में तीन तरह के परिणाम बताए गए हैं – धर्म परिणाम, लक्षण परिणाम और अवस्था परिणाम. सांख्य की ही तरह इसमें भी मृत्यु या विनाश ‘असत्’ नहीं माना जाता. उदाहरण के लिए यदि मिट्टी धर्मी है तो मिट्टी का घड़ा बनना और पानी को शीतल बनाने का गुण उत्पन्न होना धर्म परिणाम है. गीली मिट्टी का कठोर घड़ा बनना लक्षण परिणाम है. घड़ा का नया-पुराना होना अवस्था परिणाम है (Anindita Niyogi, 2019 : 45-46). धर्म परिणाम स्वभाव को बताता है, वहीं लक्षण परिणाम और अवस्था परिणाम काल को ही स्पष्ट रूप से संदर्भित करते हैं.
इन परिणामों को सांख्य दर्शन भी स्वीकार करता है.
योगसूत्र (३.५२) में क्षण के संदर्भ में यह कहा गया है कि जिस तरह द्रव्य के लिए अणु सबसे छोटी अविभाज्य इकाई है उसी तरह क्षण अणु के स्थान परिवर्तन की सबसे छोटी इकाई है (Anindita Niyogi, 2019 : 47).
न्याय-वैशेषिक का आरम्भवाद
महर्षि कणाद का वैशेषिक दर्शन और अक्षपाद गौतम का न्याय दर्शन परस्पर सम्बद्ध हैं और करीब दो हजार साल से अधिक पुराने माने जाते हैं. वैशेषिक में तत्त्वमीमांसा प्रधान है और वहीं न्याय में ज्ञानमीमांसा प्रधान है. वैशेषिक दर्शन में सात पदार्थों की मान्यता है और समस्त वस्तुओं को इन्हीं सात में वर्गीकरण किया जाता है; किन्तु न्याय दर्शन सोलह पदार्थ को स्वीकार करता है. यहाँ पदार्थ का अर्थ है पद का अर्थ मतलब किसी पद से संकेतित वस्तु. पदार्थ का सामान्य लक्षण है अभिहित होने की योग्यता वाली वस्तु और ज्ञान का विषय बनने की योग्यता वाली वस्तु. यहाँ वस्तु का अर्थ जड़ या भौतिकवादी होना नहीं है.
नैयायिक और वैशेषिकों ने असत्कार्यवाद को माना है, जिसके अनुसार कारणों से कार्य की उत्पत्ति होती है (कार्य की दृष्टि से असत्). ऐसा मानने के पीछे हमें वैशेषिक की तत्त्वमीमांसा को देखना पड़ेगा. आरम्भिक वैशेषिकों ने छह भाव पदार्थों और बाद के वैशेषिक आचार्यों ने अभाव को भी पदार्थ माना है (चन्द्रधर शर्मा, १९९५:१६५). यहाँ पदार्थ को ‘सत्’ न समझा जाय, क्योंकि अभाव को पदार्थ मान कर वास्तविकता को समझने की चेष्टा की गयी है. यहाँ अभाव ‘असत्’ ही है और पदार्थ सम्पूर्ण वास्तविकता को समझने की संप्रदायगत चेष्टा है.
भावात्मक पदार्थ – द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय.
अभावात्मक पदार्थ – प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अत्यन्ताभाव और अन्योन्याभाव.
यहाँ द्रव्य नौ तरह के हैं – पंच महाभूत (पृथिवी, तेज, जल, वायु और आकाश), काल, दिक्, आत्मा और मन.
द्रव्य वह है जो गुण तथा कर्म का आश्रय होता है और अपने कार्य का समवायिकारण होता है. द्रव्य की अपनी स्वतंत्र सत्ता होती है (चन्द्रधर शर्मा, १९९५:१६५).
यहाँ पृथिवी, जल, तेज और वायु अपने मूल स्वरूप में नित्य परमाणु रूप हैं. आत्मा, काल, दिक् और आकाश नित्य और विभु (सर्वव्यापक) रूप हैं. कहने का अर्थ है कि काल, दिक् और आकाश वस्तुत: अखण्ड हैं किन्तु व्यवहार में इनके खण्डों की कल्पना की गयी है. मन नित्य और अणुरूप है, महाभूतों के परमाणु रूप से भिन्न होने के कारण इसमें संघात का निर्माण नहीं होता. प्रत्येक बद्ध आत्मा के साथ अणुरूप में मन संयुक्त होता है.
इस वैचारिक सम्प्रदाय-द्वय की तत्त्वमीमांसा में परमाणु, मन और आत्मा अनेक हैं. आकाश, दिक् (दिशाएँ) और काल एक-एक हैं.
महर्षि कणाद के बाद के वैशेषिक चिंतको ने अभाव को भी पदार्थ माना है. दो तरह के अभाव हैं – संसर्गाभाव (दो वस्तुओं के सम्बन्ध का निषेध) और अन्योन्याभाव (दो वस्तुओं का परस्पर भेद). संसर्गाभाव तीन प्रकार के होते हैं – प्रागभाव (उत्पत्ति के पूर्व कार्य का अभाव, जैसे उत्पत्ति से पहले घट का ‘नहीं होना’), प्रध्वंसाभाव (विनाश के बाद वस्तु का अभाव (जैसे फूट जाने के बाद घड़ा का ‘न होना’) और अत्यन्ताभाव (तीनो कालों में न होना जैसे कि आकाशकुसुम). अन्योन्याभाव का मतलब है दो वस्तुओं का परस्पर भेद, जैसे घट में पट का अभाव, पट में घट का अभाव.
नैयायिक और वैशेषिक परमाणुओं को जगत् का कारण मानते हैं. संसार की सारी दृश्य वस्तुओं (जड़ हो या चेतन), वे सब संघात रूप हैं. अत: पदार्थ की उत्पत्ति का अर्थ है परमाणु-संयोग और विनाश का अर्थ है परमाणु-संयोग-विभाग. सृष्टि के मूल तत्त्व नित्य हैं (चन्द्रधर शर्मा, १९९५:१६९).
न्याय-वैशेषिक के आरम्भवाद में कारणों से कार्य की उत्पत्ति होती है (कारण की दृष्टि से आरम्भ). उत्पत्ति के पहले कार्य नहीं होता. यदि कार्य उत्पत्ति के पहले रहता तो उत्पादन की आवश्यकता ही न होती. इसी सार्वजनीन अनुभव के आधार पर न्यायशास्त्र में उत्पन्न कार्य को उत्पत्ति के पहले असत् माना जाता है. बहुत से कारण एकत्र होकर किसी पहले के असत् कार्य का निर्माण आंरभ करते हैं. इसी असत् कार्य के निर्माण के सिद्धांत को आरंभवाद कहा जाता है. यदि तेल पहले से विद्यमान है तो तिल को पेरने का कोई प्रयोजन नहीं. यदि तिल को पेरा जाता है तो सिद्ध है कि तेल पहले नहीं था. यदि मान भी लिया जाय कि तिल में तेल छिपा था, पेरने से प्रकट हो गया तो भी आरंभवाद की ही पुष्टि होती है. उपभोग योग्य तेल पहले नहीं था और पेरने के बाद ही उस तेल की उत्पत्ति हुई. अत: न्याय के अनुसार कार्य सर्वदा अपने कारणों से नवीन होता है. (चन्द्रधर शर्मा, १९९५:१६९)
यहाँ काल सर्वव्यापी मूल द्रव्य है, किन्तु उसमें व्यवहार हेतु खण्डों की कल्पना की जाती है. यह ध्यान देने योग्य बात है कि साँख्य-योग में काल वास्तविकता का एक स्वतंत्र घटक नहीं है, पर यहाँ काल का स्वतंत्र और सर्वव्यापक अस्तित्व (नित्य और विभु) है. काल का अस्तित्व उन अर्थों में नहीं है जैसे घड़े का है (घड़े नाम के द्रव्य में सत्ता नामक जाति या सामान्य के होने कारण), बल्कि तत्त्वमीमांसा में उसका वर्गीकरण उसे विशिष्ट बनाता है (यहाँ काल अन्वयी द्रव्य है). न्याय-वैशेषिक में काल को प्रत्यक्ष नहीं बल्कि अनुमान से गृहीत बताया जाता है.
अपनी विशिष्ट तत्त्वमीमांसा के कारण यहाँ ‘असत्’ (कारण में असत् रूप में अभावात्मक होने के चलते) से ‘सत्’ (कार्य) की उत्पत्ति समझी जाती है. दूसरे शब्दों में परमाणुओं, अणु और विभु तत्वों के संयोग और विनाश आदि परिवर्तन ही कार्यकारणवाद है.
बौद्धों का क्षणभङ्गवाद (क्षणिकवाद)
वैसे तो जिस रूप में आज हम बौद्ध दर्शन को पाते हैं, वह पिछले ढाई हजार साल में पल्लवित कई सम्प्रदायों का समुच्चय है, किन्तु जो मूलभूत प्रेरणा उसे वैदिक दर्शन से भिन्न करती हैं वह हैं – प्रतीत्यसमुत्पाद की अवधारणा. यह चार आर्यसत्यों (दु:ख, दु:ख समुदय, दु:ख-निरोध और दु:ख निरोध मार्ग) में द्वितीय और तृतीय आर्यसत्य के अन्तर्गत है – दु:ख की उत्पत्ति का कारण है और इस कारण का निरोध करने से दु:ख भी नहीं रहता. प्रतीत्यसमुत्पाद कार्यकारणवाद है. इसका यहाँ अर्थ है – कारण की अपेक्षा रखकर या कारण पर निर्भर रह कर कार्य की उत्पत्ति. अत: कार्य सदा कारण-सापेक्ष होता है. जो उत्पन्न होता है, वह कार्य होता है. जो कार्य है, वह सापेक्ष है (चन्द्रधर शर्मा, १९९५:६१).
अस्तित्व की कोटि के लिए सभी चीजें ‘अनित्य’ और ‘अनात्म’ हैं. बौद्ध दर्शन किसी भी नित्य या कूटस्थ अवधारणा का निषेध करता है. किन्तु यह कर्मफल, पुनर्जन्म या योगदृष्टि या योगसृष्टि का निषेध नहीं करता. बौद्ध व्यवहार और परमार्थ का स्पष्ट भेद करते हैं.
बौद्धों ने भौतिक परमाणुओं आदि को भी नित्य क्यों नहीं कहते इसके लिए उनके क्षणिकवाद को समझना पड़ेगा जिसमें सत् की अवधारणा में काल की अवधारणा मूल रूप से ही संयुक्त है, अत: वे काल को वास्तविकता की अलग कोटि नहीं मानते. क्षणिकवाद बौद्ध के सभी संप्रदायों के लिए मान्य है.
बौद्धों के प्रमुख संप्रदायों पर एक विहंगम दृष्टि डालते हैं:-
१. वैभाषिक और सौत्रान्तिक (हीनयान का सर्वास्तिवाद) –
बौद्ध धर्म के प्रारम्भिक स्वरूप में प्रसिद्ध हीनयान के इन दो प्रमुख संप्रदायों में महत्त्वपूर्ण भेद होते हुए भी हमारे विषय में उन्हें एकमत समझा जा सकता है.
सर्वास्तिवाद में कारण-कार्य-भाव को कार्य की वास्तविक उत्पत्ति मानी है. हीनयान के अनुसार सापेक्ष का अर्थ है कि कार्य की उत्पत्ति से पूर्व कारण का होना आवश्यक है, यह नहीं कि कार्य की सत्ता सापेक्षिक या प्रातीतिक है. इसलिए कार्य वस्तुत: उत्पन्न होता है और उसकी सत्ता वास्तविक है. हीनयान के अनुसार ‘प्रतीत्य’ का अर्थ है ‘प्रतिक्षण-विनाशशील या क्षणिक धर्म’ और समुत्पाद का अर्थ है वास्तविक उत्पप्ति अर्थात् प्रतिक्षण विनाशी भावों की उत्पत्ति. जिसका अर्थ हुआ कि क्षणिक धर्मों (जड़ और चेतन दोनों) का निरन्तर प्रवाह जिसमें पूर्व अंग कारण और उत्तर अंग कार्य है.
इसे ही क्षणभङ्गवाद या क्षणिकवाद कहते हैं, जिसका उद्घोष है सब कुछ क्षणिक है. केवल क्षणिक धर्मों की धारा का प्रवाह है. ये धर्म दो प्रकार के हैं – चेतन और अचेतन. चेतन धर्म को ‘विज्ञान’ और अचेतन धर्म ‘भौतिक परमाणु’ हैं. दोनों परस्पर स्वतन्त्र हैं और दोनों सत् हैं. यहाँ सत् का लक्षण है कार्य को उत्पन्न करने की शक्ति या ‘अर्थ क्रियासामर्थ्य’ या ‘अर्थक्रियाकारित्व’. अत: प्रतीत्यसमुत्पाद के कारण-कार्य-प्रवाह में प्रवाहमान क्षणिक धर्म ही सत् है; क्षणिक विज्ञान और क्षणिक परमाणु सत् हैं. (चन्द्रधर शर्मा, १९९५:६२)
यहाँ ध्यान देने योग्य बात है कि क्षणिक पंचस्कन्धसंघात (रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान) को व्यवहार में पुद्गल (चेतन जीव) और क्षणिक परमाणु संघात को ‘भौतिक पदार्थ’ कहा गया है. इन दोनों की वास्तविक सत्ता नहीं है, वह केवल क्षणिक विज्ञानों और क्षणिक परमाणुओं की है. (चन्द्रधर शर्मा, १९९५:६३)
२. माध्यमिक (शून्यवाद) – शून्यवाद या माध्यमिक सम्प्रदाय में सत् की दो कोटियों –
व्यवहार और परमार्थ – में शून्य का विवेचन है. आचार्य नागार्जुन का कथन है कि भगवान् बुद्ध ने दो प्रकार से सत्य का निरूपण किया है, एक तो लोकसंवृति सत्य और दूसरा परमार्थ सत्य. माध्यमिक दर्शन के अनुसार व्यहार ‘स्वभाव शून्य’ है और परमार्थ ‘प्रपञ्चशून्य’ है. आचार्य नागार्जुन यहाँ स्वभाव को प्रतीत्यसमुत्पाद से समझते हैं. अत: उनके लिए जो सापेक्ष है, वह वस्तुत: न ‘सत्’ है, न ‘असत्’ है, केवल प्रतीति है.
शून्यवाद में सत् की संज्ञा त्रिकालाबाध अस्तित्व से दी जाती है. असत् उसे कहते हैं जिसकी त्रिकाल में कोई ‘प्रतीति’ न हो जैसे कि आकाशकुसुम. अत: संसार की सभी पदार्थ न ‘सत्’ हैं, और न ‘असत्’ हैं, अत: वे ‘सदसदनिर्वचनीय’ हैं, मिथ्या हैं, प्रतीतिमात्र हैं.
माध्यमिक सम्प्रदाय में ‘मध्यम’ का अर्थ समस्त बुद्धि विकल्पों का निषेध है. अपने सत् व असत् की अवधारणा से यह ‘अजातिवाद’ की स्थापना करते हुए कारण-कार्यवाद का खण्डन करते हैं. इसका उद्घोष है– कोई भी पदार्थ कभी, कहीं और कथमपि उत्पन्न नहीं हो सकता. कोई पदार्थ स्वत:, न परत:, न ही अपने और दूसरे दोनों के कारण और न बिना कारण उत्पन्न हो सकता है. (चन्द्रधर शर्मा, १९९५:७४)
आचार्य नागार्जुन मूलमाध्यमिककारिका में अन्य अवधारणाओं की तरह काल का भी तार्किक रूप से परमार्थिक निषेध करते हुए (काल परीक्षा अध्याय में) उसे ‘स्वभाव-शून्य’ बताते हैं, जिसमें वे “अतीत की अपेक्षा कर वर्तमान और भविष्य” को सिद्ध नहीं मानते.
३. योगाचार (विज्ञानवाद) –
आर्य असङ्ग, आचार्य वसुबन्धु, आचार्य दिङ्नाग और आचार्य धर्मकीर्ति स्वतंत्र विज्ञानवाद या ‘सौत्रान्तिकयोगचार’ के प्रमुख आचार्य हैं. विज्ञानवाद के अनुयायी योग-साधन पर अत्यधिक बल देते हैं इसलिए इस सम्प्रदाय को योगाचार भी कहा जाता है. इस संप्रदाय में ‘विज्ञान’ मात्र को सत्य मानते हैं, तथा समस्त भौतिक धर्मों का निराकरण करते हैं. दूसरे शब्दों में यहाँ केवल चेतन की सत्ता स्वीकार की जाती है और जड़ को बुद्धि-विकल्प मात्र समझा जाता है. (चन्द्रधर शर्मा, १९९५:९८)
विज्ञानवाद में काल बुद्धि विकल्प से अतिरिक्त कुछ नहीं है.
जैनों का अनेकान्तवाद
जैन तत्त्वमीमांसा वस्तुवादी और सापेक्षतावादी बहुत्ववाद है. यहाँ चेतन जीव और अचेतन जीव दो प्रमुख और स्वतन्त्र तत्व हैं. तत्त्व को अनन्तधर्मात्मक माना गया है क्योंकि प्रत्येक वस्तु के अनन्त धर्म होते हैं. इस मत के अनुसार लोक में अनेक द्रव्य और वस्तुएँ हैं और इनमें से प्रत्येक वस्तु के अनेक धर्म हैं. प्रत्येक वस्तु के दो अंश होते हैं – नित्यांश और अनित्यांश. नित्यांश के कारण प्रत्येक वस्तु नित्य या ध्रुव है और अनित्यांश के कारण उत्पत्ति-विनाशशील (उत्पादव्ययात्मक) है. यहाँ सत् का लक्षण है उत्पाद, व्यय (विनाश) और ध्रौव्य (नित्यत्व) युक्त होना (चन्द्रधर शर्मा, १९९५:३१).
द्रव्य वह है जिसके गुण और पर्याय नामक धर्म हों. द्रव्य के सर्वप्रथम दो भेद हैं – अस्तिकाय और अनस्तिकाय. अस्तिकाय का अर्थ है ‘विस्तार युक्त’. सत्ता के युक्त होने के कारण ‘अस्ति’ और शरीर के समान विस्तार-युक्त होने से काय.
अस्तिकाय द्रव्य पाँच हैं – जीव, पुद्गल (भौतिक पदार्थ), आकाश, धर्म (गति) और अधर्म (स्थिरता). (इनमें जीव को छोड़ कर शेष अचेतन हैं).
अनस्तिकाय द्रव्य एक मात्र – काल – है, जो एक-प्रदेशव्यापी द्रव्य माना गया है. काल की सत्ता अनुमान के आधार पर सिद्ध होती है. यहाँ काल के दो भेद मानते हैं – परमार्थिक काल, व्यावहारिक काल. (चन्द्रधर शर्मा, १९९५:३९)
पंचास्तिकाय सार के काल के अणु की संकल्पना विवेचित है, लेकिन ये द्रव्याणु जैसे नहीं है. इनका उर्ध्व प्रचय होता है, त्रियक प्रचय नहीं; अर्थ है कि काल का एकरेखीय प्रवाह होता है. काल के अणुओं से भिन्न तरह के समय जैसे कि निमिष, मुहूर्त, मास, ऋतु, संवत्सर आदि की गणना करते हैं. किन्तु यह व्यावहारिक काल गणना खगोलिय पिण्डों की गति के कारण होती है. परमार्थिक काल किसी भी अन्य कारणों पर निर्भर नहीं होता. यह परमार्थिक काल ही सभी परिवर्तन का मूल माना गया है, जो अनादि और अनन्त है.
यहाँ परमार्थिक काल पारलौकिक न हो कर एक वैचारिक प्रतिपत्ति है जो अतिक्रामी (ट्रान्सेन्डेटल) है; जो व्यावहारिक काल को निर्धारित करती है.
अद्वैत वेदान्त का विवर्तवाद
उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र व श्रीमद्भगवद्गीता को शाङ्कर वेदान्त की प्रस्थान त्रयी कहा जाता है. शङ्कराचार्य, रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, निम्बार्काचार्य और वल्लभाचार्य ने अपने-अपने वेदान्त सम्प्रदाय की स्थापना की. आदि शङ्कराचार्य का अद्वैत वेदान्त माध्यमिक बौद्धों की तरह अजातिवाद का समर्थन करता है. इनके लिए भी सत् त्रिकाल बाधारहित और असत्, तीनों काल में अस्तित्व रहित माना गया है. इस तरह सारा संसार न तो ‘सत्’ है, न ‘असत्’, बल्कि सदसदनिर्वचनीय है. माध्यमिक बौद्धों संसार को शून्य बता कर उसके किसी भी कारण का निषेध करते हैं. अद्वैत वेदान्ती संसार को परमार्थ के स्तर पर ‘मिथ्या’ तो कहते हैं, किन्तु ब्रह्म को जगत का एकमात्र कारण बताते हैं. आत्मा और ब्रह्म में तादात्म्य है. अत: अद्वैत आत्मतत्त्व ही कूदस्थ नित्य है.
शाङ्कर वेदान्त में माया की अवधारणा ‘विवर्तवाद’ को प्रतिपादित करती है. समस्त जगत ब्रह्म का विवर्त रूप है. कारण-कार्य शब्दावाली इसे समझा जाय तो यहाँ कहा जा रहा है कि कारण और कार्य की कोटि भिन्न है. यह भिन्नता माया के कारण है जो भौतिक और जड़ है, अनादि है; इतना ही नहीं यह ब्रह्म की अभिन्न शक्ति है. (चन्द्रधर शर्मा, १९९५:२३९)
इस तरह काल को भी केवल व्यवहार के लिए समझा जा सकता है, परमार्थिक रूप से यह अन्य सभी अवधारणाओ की मिथ्या ही है.
वल्लभाचार्य का शुद्धाद्वैत
रामानुज के विशिष्टाद्वैत सम्प्रदाय की सत् मीमांसा की संगति जैनों के अनेकान्तवाद के साथ है. वहीं आदि शङ्कराचार्य का अद्वैत वेदान्त बौद्धों के शून्यवाद की संगति में हैं. वल्लभाचार्य के शुद्धाद्वैत की सत् मीमांसा की संगति सेश्वर सांख्य (महाभारत या गीता में वर्णित सेश्वर सांख्य) से है.
वल्लभाचार्य के शुद्धाद्वैत में ‘श्रुति, गीता, ब्रह्मसूत्र और पुराण’- चारों की एकवाक्यता को ही प्रमाण माना जाता है. शुद्धाद्वैत में ब्रह्म के तीन रूप हैं- अक्षर ब्रह्म (उपादान रूप), पुरुषोत्तम (सृष्टा रूप) और अंतर्यामी (अंतर्निहित). जैसे सोना उपादान है और गहना कार्य है और गहने में सोना निविष्ट है, उसी तरह ब्रह्म उपादान भी है, सृष्टा भी है और निविष्ट भी है. इस सम्प्रदाय में ब्रह्म विश्वात्मक है और विश्वोत्तीर्ण भी है. अक्षर ब्रह्म (उपादान रूप) इन घटकों में उपस्थित होती है- काल, कर्म, स्वभाव, प्रकृति और पुरुष. सृष्टि की सृजनोमुख चेष्टा ही काल है.
भर्तृहरि का शब्द-ब्रह्मवाद
महान वैयाकरण भर्तृहरि ने व्याकरण की दृष्टि से विचार किया कि व्यावहारिक भाषा (प्रयोग किया जाने वाला वाक्) बिना क्रियाओं के सम्भव नहीं है. भाषा की सारी क्रियाएँ भूत, भविष्य या वर्तमान से जुड़ी होती हैं. किसी भी वाक्य के अर्थगर्भित होने के लिए क्रियाओं का होना अनिवार्य है, इस तरह समस्त वाक् व्यवहार में काल की अवगुंठित है. पाणिनि ने अष्टाध्यायी (३.१.१८३) में वर्तमान की परिभाषा ‘प्रारब्धपरिसमाप्तम्’ से दी है, जिसका अर्थ हुआ– वाञ्छित कार्य की उत्पत्ति से उसके अंत तक का समय.
भर्तृहरि का उद्घोषणा है कि कोई भी विचार शब्द के बिना नहीं हो सकता है. यह अपने शब्दब्रह्मवाद के अंतर्गत कहते हैं जहाँ वाणी के चार स्तर (परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी) बताते हैं. भर्तृहरि काल के चय, अपचय, उपचय के सिद्धान्त के अनुसार भूत, भविष्य, वर्तमान की अवधारणा को आवश्यक मानते हैं.
काश्मीरी शैव दर्शन का आभासवाद
भारतीय आगम परम्परा में तंत्र का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है. इसने करीब-करीब सभी दार्शनिक धाराओं को विचार और क्रिया के स्तर पर प्रभावित किया है. चाहे वे वैष्णव हों (पाञ्चरात्र और वैखानस) या बौद्ध (व्रजयान) या जैन या शाक्त या शैव. हालांकि शैव और शाक्त दर्शन तंत्र प्रधान ही रहे. बौद्धों और वेदान्तियों के घोर वैचारिक प्रतिवाद तथा वैयाकरणों की मौलिक अभिधारणाओं ने काश्मीर के वैचारिक सम्प्रदाय को पुष्पित-पल्लवित किया, भले ही वे अति प्राचीन हों.
काश्मीर में शिवाद्वय वाद त्रिक, क्रम, कुल, स्पन्द और प्रत्यभिज्ञा सम्प्रदायों में फला-फूला. इन सम्प्रदायों की सत् मीमांसा घोर अद्वैत वादी तो है, पर जगत के मिथ्या होने का निरकारण करती है. अत: इसकी विशिष्टता ‘आभासवाद’, ‘आभासपरमार्थवस्तुवाद’, ‘सर्वसर्वगततावाद’ आदि संज्ञाओं से यह बताती है कि जागतिक पदार्थ मिथ्या न हो कर एक पूर्ण तत्त्व के आभासमात्र हैं. वह अपनी इच्छा से ही इन रूपों में अंशत: भासित होता है. स्वातन्त्र्य इसका मूल सिद्धान्त है, जो चेतना का स्वरूप है (नवजीवन रस्तोगी, २००२:२).
काश्मीर शिवाद्वयवाद की तत्त्वमीमांसा ३६ तत्त्वों की संकल्पना प्रतिपादित करती है–
शिव तत्त्व (शिव, शक्ति),
विद्या तत्त्व (सदाशिव, ईश्वर, शुद्धविद्या),
आत्म तत्त्व (माया, माया के पञ्च कञ्चुक, कला, काल, विद्या, राग, नियति से अविच्छिन्न पुरुष),
विषय तत्त्व (प्रकृति, महत्, बुद्धि, अहंकार, पाँच ज्ञाननेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच तन्मात्रा, पाँच महाभूत).
यह सारे तत्त्व संक्रेन्दित वृत्त से स्फुटमान होते हैं. विषय रूप में भौतिक वस्तुओं की सत्ता आभासरूप है. यहाँ कोई भी चीज जड़ नहीं है, सभी कुछ चैतन्यस्वरूप होते हुए भी यह विज्ञानवाद से भिन्न है. यहाँ जड़ता चेतना की न्यूनता, अत्यन्तअल्पता का द्योतक है जिसके कारण वह चैतन्य क्रियाएँ करने में असमर्थ है.
शिवाद्वयवाद में वास्तविकता (शिव) विश्यमय भी हैं और विश्वोतीर्ण (पारलौकिक) भी. ध्यातव्य है कि अब्राहमिक पंथों में ईश्वर की अवधारणा विश्वोतीर्ण (पारलौकिक) है, विश्वमय नहीं.
शिवाद्वयवाद में परमेश्वर की स्वरूप की दृष्टि से पाँच शक्तियाँ हैं– १. चित् २. आनन्द ३. इच्छा ४. ज्ञान और ५. क्रिया. परन्तु विश्वमयता की दृष्टि से दो ही शक्तियाँ हैं – १. चित् शक्ति और २. स्वातन्त्र्य शक्ति. शिव के पाँच कृत्य हैं– १. सृष्टि २. स्थिति ३. संहार ४. तिरोधान व ५. अनुग्रह.
जागतिक स्तर पर मायापद में पदार्थों की सत्यता, स्थैर्य तथा उपयोग के कारण सिद्ध है (नवजीवन रस्तोगी, २००२:१४). बौद्धों की अर्थक्रियाकारित्व यहाँ ‘उपयोगिता’ की दृष्टि से गृहीत है. आभासमान होने का अर्थ है कि सत् को ‘स्फुट रूप’ से ‘जाना’ जा सकता है. यहाँ सत् प्रकाशमानता (स्वयं को प्रकाशित करना), स्फुरत्ता (चेतना में स्फुरित होना) और सत्ता (इस विचार व्यवस्था में देश-काल स्वयं सत्ता में घटित होते हैं) है. स्थूल अर्थों में सत् इस तरह भी समझा जा सकता है – १. स्थिरता व उपयोगिता और २. प्रमेयतापन्नता (प्रमेय दशा में आना).
नैयायिको और वैशेषिकों की तरह यहाँ भी जो ज्ञेय है वही सत् है, और जो सत् है वह ज्ञेय है. किन्तु नैयायिकों व वैशेषिकों से वैचारिक भिन्नता ये है कि यहाँ ‘आकाशकुसम’ जैसी असत् चीजें, शब्द के स्तर पर तो विकल्पित हैं पर संविद् (चेतना) में स्फुरित न होतीं इसलिए असत् हैं. इस आधार पर ज्यामिति अवधारणाएँ (बिन्दु, रेखा, त्रिभुज आदि) चेतना में स्थिर, उपयोगी और प्रमेय होने के कारण सत् हैं.
सांख्य के ‘सत्कार्यवाद’ के तुलना में काश्मीर शिवाद्वयवाद में ‘कर्तृकर्म-भाव’ को माना जाता है. अन्य दार्शनिक दृष्टियों में स्वीकृत जागतिक पदार्थों की कारणता का यहाँ पूरा निषेध है. कर्त्ता का कारण व्यापार उत्पत्ति या अभिव्यक्ति न हो कर आभासन रूप ही है. ‘कार्य’ यहाँ कर्म संज्ञा से वाच्य है और ‘कारण’ कर्तृ संज्ञा से. इस आभासन का अभिप्राय है उभयेन्द्रियवेद्यता की प्राप्ति. इस प्रकार चेतन तत्त्व को ही कारण रूप से स्वीकृत करने से अन्य उन सभी मतों का खण्डन हो जाता है जो अचेतन की कारणता प्रतिपादित करते हैं.(नवजीवन रस्तोगी, २००२:१५, १३७)
काश्मीर शिवाद्वयवाद में क्रम दर्शन काल की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है. हम अभी तक देखते आये हैं कि काल की अवधारणा क्रिया या परिवर्तन के गणन या मापने के लिए प्रयुक्त हुआ है. इस दर्शन में क्रिया काल ही है. किसी भी तरह की गति (मूवमेंट) में एक क्रम हैं– जैसे कि कुछ पहले होगा और कुछ उसके बाद. यही गत और अनागत, भूत और भविष्य के लिए निर्धारण का काम करता है. क्रम दर्शन में क्रम को ही मूल तत्त्व मानते हैं.
क्रम को मूल तत्त्व मानने में दार्शनिक समस्याएँ हैं. वह यह कि वास्तविकता या तो पूर्ण रूप से अविच्छिन्न (कंटीन्युअस) हो या पृथक-पृथक (डिस्क्रेट) हो. दोनों ही सूरतों में क्रम सम्भव नहीं है. अगर वास्तविकता पूरी तरह अविछिन्न है तो क्रम काहे का? अगर अलग-अलग है तो फिर उनमें क्रम बुद्धि द्वारा आरोपित उपाधि मात्र होगी. फिर वह मूल तत्त्व नहीं हो सकती (Navjivan Rastogi: 2022: 18, 120).
क्रम दर्शन यह प्रतिपादित करता है कि क्रम वस्तुत: क्रिया शक्ति ही है. मूल तत्त्व काली के रूप में वह क्रम को प्रकट करती है और क्रमित रूप में भी वह स्वयं ही है (Navjivan Rastogi: 2022: 44). इसका सुन्दर उदाहरण कमल की पँखुड़ियों के खिलने व बंद होने में, चक्र के घूमने में, वह लहर (उर्मि) की गति में देखने को मिलता है (Navjivan Rastogi: 2022: 120). वास्तविकता यहाँ गतिशील प्रत्यय है. क्रम दर्शन में क्रम का भेदन अपोहन से भिन्न दर्शाया गया है जहाँ अपोहन भिन्नता का अवभासन कर के एक को चुन लेना मात्र है.
भर्तृहरि की परम्परा को आगे बढ़ाते हुए इस दर्शन में ‘भूत’ शब्द की व्याख्या में कहते हैं कि इस शब्द के दो अर्थ हैं– १. बीता हुआ २. द्रव्य (मैटर). शक्ति का जम जाना ही ‘शक्तिभूत’ या द्रव्य है. ‘ऊर्जा’ का आश्यानीभाव ही ‘द्रव्य’ है. ऊर्जा कुछ और नहीं बल्कि द्रव्य की गति है. वहीं द्रव्य भी कुछ और न हो कर ‘गति’ का रुक जाना ही है (Navjivan Rastogi: 2022: 32).
जगत में यह क्रम माया के भेदन क्रिया के कारण स्फुटमान है. काश्मीर शिवाद्वयवाद में काल की अवधारणा कई स्तरों पर है.
१. पहले स्तर पर: काली के रूप या महाकाल के रूप में मूल तत्त्व में. इसका स्थूल अर्थ यह हुआ कि सब कुछ काल से ही उत्पन्न हो कर भासमान है.
२. दूसरे स्तर पर: कालसंकर्षिणी रूप में जहाँ यह परमशिव की स्वातन्त्र्य या विमर्श शक्ति के रूप में है. कलनात्मकता के कारण इसे कालसंकर्षिणी कहा गया है. इसका स्थूल अर्थ हुआ कि नियति, मृत्यु, क्रम आदि सभी अवधारणाएँ परमतत्त्व की शक्ति (शक्यता) के रूप में हैं.
३. तीसरे स्तर पर: माया के कञ्चुक तत्त्व ‘काल’ के रूप में जो कि क्रिया का भेदन करके क्रम के रूप में स्फुटित होता है. इसका अर्थ हुआ कि माया शक्ति के कारण जो जगत में भूत, वर्तमान और भविष्य का क्रम दिख रहा है, उसका अवभासन होना.
४. चौथे स्तर पर: वैयाकरणों की तरह प्रामतृत्व शक्ति (या ज्ञातृत्व शक्ति), जो कि बुद्धि विकल्पों के रूप में भी प्रकट होती हैं. इसका अर्थ हुआ कि विचार में क्रम उत्पन्न होने के कारण कुछ भी समझने की प्रक्रिया.
५. पाँचवे स्तर पर: यह क्रिया या काल के रूप में जहाँ यह जागतिक स्तर पर क्रियाओं की मापने की इकाई है. जैसे कि घड़ी की सुई के चलने से समय मापना, घोड़े की गति नापना आदि, आदि.
उपसंहार
सेंट ऑगस्टाइन ने अपनी पुस्तक ‘सिटी ऑफ गॉड’ में कुछ ग्रीक विचारों का खण्डन किया था कि चक्रीय काल में एक ही चीजें बार-बार दोहरायी जाएंगी, जो कि असंगत है और प्रभु की इच्छा के विरुद्ध है (Anindita Niyogi, 2019 : 157). कई पाश्चात्य इतिहासकारों जैसे कि जोज़फ अर्नाल्ड टॉयनबी ने भारतीय काल की अवधारणा को अपनी समस्तता में पुनर्घटित होती हुयी बतायी (Anindita Niyogi, 2019 : 166). यहाँ स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि चक्रीय अवधारणा का अर्थ पुनर्घटन नहीं है. इसे गलत समझा गया है. पुराणों में वर्णित सृष्टि का निर्माण और फिर प्रलय कभी भी एक ही घटनाक्रम या एक ही जीवन को फिर से हूबहू घटने की बात नहीं करते.
इसी तरह काल का अनादि और अनन्त होने की अवधारणाएँ भी पाश्चात्य दर्शन के काल के एकरैखीय अवधारणा को नहीं प्रतिपादित करती. इस तरह के विचार कई बार गहरे दार्शनिक विचारों का फूहड़ सरलीकरण ही नहीं, अपितु निहायत भ्रामक भी है.
इस छोटे से आलेख में यह प्रयास मात्र है कि भारतीय पारम्परिक वैचारिक वैचित्र्य और विपुलता में काल-प्रत्यय की मूल अवधारणाओं से परिचित होना है. सत् मीमांसा के साथ-साथ सभी दर्शन ज्ञान-मीमांसा और परमार्थ मीमांसा को भी बताते हैं. मैं समझता हूँ कि हमें यह भी विचार करना चाहिए कि सम्प्रदायगत वैचारिक विपुलता कितनी विस्तृत, सुसंगत और आनन्दकारी है. वह कितनी गहराई से हमारे प्रश्नों का उत्तर दे सकती है. हालांकि इस उपक्रम में हमारी पात्रता भी विचारणीय है कि हम उसे कितना ग्रहण कर पाते हैं.
आधार-ग्रन्थ
१. नवजीवन रस्तोगी, काश्मीर शिवाद्वयवाद की मूल अवधारणाएँ, मुंशीराम मनोहरलाल पब्लिशर्स, नई दिल्ली, २००२
२. चन्द्रधर शर्मा, भारतीय दर्शन : आलोचन और अनुशीलन, मोतीलाल बनारसीदास, नई दिल्ली, १९९५
३. Anindita Niyogi Balslev, A Study of Time in Indian Philosophy, D K Printworld, New Delhi, 2019
४. Navjivan Rastogi, Kalikrama and Abhinavgupta, D K Printworld, New Delhi, 2022
मुख्य दार्शनिक पदों के प्रचलित समानार्थी अंग्रेजी शब्द सत् = Being |
प्रचण्ड प्रवीर बिहार के मुंगेर जिले में जन्मे और पले बढ़े हैं. इन्होंने सन् २००५ में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान दिल्ली से रासायनिक अभियांत्रिकी में प्रौद्योगिकी स्नातक की उपाधि ग्रहण की. सन् २०१० में प्रकाशित इनके पहले उपन्यास ‘अल्पाहारी गृहत्यागी: आई आई टी से पहले‘ ने कई युवा हिन्दी लेखकों को प्रेरित किया. सन् २०१६ में प्रकाशित इनकी दूसरी पुस्तक, ‘अभिनव सिनेमा: रस सिद्धांत के आलोक में विश्व सिनेमा का परिचय‘, हिन्दी के वरिष्ठ आलोचकों द्वारा बेहद सराही गई. सन् २०१६ में ही इनका पहला कथा संग्रह ‘जाना नहीं दिल से दूर‘ प्रकाशित हुआ. इनका पहला अंग्रेजी कहानी संग्रह ‘Bhootnath Meets Bhairavi (भूतनाथ मीट्स भैरवी)’ सन् २०१७ में प्रकाशित हुआ था. कहानियों के दो संग्रह उत्तरायण और दक्षिणायन सन २०१९ में तथा लघु कथा संग्रह ‘कल की बात’ के तीन संकलन षड्ज, ऋषभ व गान्धार नवम्बर २०२१ में सेतु प्रकाशन द्वारा प्रकाशित हुए हैं. इन दिनों प्रचण्ड प्रवीर गुड़गाँव में एक वित्त प्रौद्योगिकी संस्थान में काम करते हैं. prachand@gmail.com |
प्रचंड वीर का भारतीय रस सिद्धांत और सिनेमा पर भी अद्भुत किताब पढ़ी। दूसरों को recommend,संस्तुति भी की। ये लेख भी महत्वपूर्ण है। शुक्रिया
काल गति सापेक्ष है । भौतिक विज्ञान पढ़ते हुए यह पहलू समझ में आया था । एक शायर विवेकशील होगा जिसने लिखा था
‘वक़्त हमारा साथ न देगा
ख़ुद ठहरेगा चलते चलते’
बहरहाल, लेख गंभीर अध्ययन, अनुसंधान और चिंतन पर आधारित है । इसमें विज्ञान और भारतीय प्राच्य विद्या का समन्वय किया गया है । विषय जटिल है लेकिन विस्तार से समझाया गया है ।
This article appears to have been based on secondary sources only. If the author wishes to write a longer paper or a book, he will have to read the primary sources.
A good introductory article providing a bird’s – eye view of concept of “Kala” through the lens of diverse philosophical thoughts in India. Deserves wider audience.
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काल अपनी हिंदी या संस्कृत ध्वनि में हर बार मन में कुछ नया अज्ञेय ही जगाकर मानता है। दूसरी खासियत इस काल चिंतन को लेकर यह है कि इसका सुंदर आख्यान-व्याख्यान लगभग सभी लोग कर लेते हैं। वे जो दर्शन, विज्ञान, अध्यात्म, भक्ति, प्रेम आदि में अकादमी या अनुशासनबद्ध रूप से तपे-तपाए हैं या वे भी जो केवल फक्कड़ या सूफियाने अंदाज से जीवन जिए जा रहे हैं – सभी यह जीवन और उसकी हर शय को अपने-अपने तरीके से बूझते हैं, उससे चौंकते हैं, उसमें उलझते है, उसको बयां करते हैं।
भारतीय मनीषा में काल विमर्श के तार कई प्रकार के द्वित्वों से जुड़े हैं – जैसे कभी जड़-चेतन, कभी चर-अचर, कभी लोक-परलोक, कभी विचार-कर्म, कभी ज्ञान-भक्ति, कभी जीव-ब्रह्म, कभी पिण्ड-ब्रह्माण्ड, कभी सगुण-निर्गुण, आदि। इन सब पर पढ़ने-लिखने के लिए अकथ वांग्मय भी बिखरा पड़ा है। हर पढ़े-लिखे को अपनी यह थाती बहुत लुभाती। कुछ ज्ञानाश्रयी हल्कों में उनके तथाकथित पूर्वाग्रहों के कारण वर्ज्य समझी जानी वाली सनातन परंपरा से प्राप्त ज्ञान को छोड़ भी दें तो भी सभी प्रकार के आर्ष और अपौरुषेय ज्ञान की वैदिक ऋचाएं, श्रुति परंपरा से प्राप्त उवाचीय संदर्भ-साहित्य, पुराण, ब्राह्मणग्रंथ, अरण्यकग्रंथ, स्मृतियां, संहिताएं, टीकाएं, भाष्य एवं सभी आस्तिक एवं नास्तिक दार्शनिक सिद्धांत इस पर काफी कुछ प्रकाश डालते हैं। लेखक ने निश्चित रूप से उसकी गहराइयों में जाकर अनुशीलन किया होगा।
मैंने उनका यह लेख पढ़कर देख लिया है। यह सब वांग्मय कितना विपुल है – इसको सूर ने गोपियों के विरह-वर्णन के एक पद में कुछ यूँ लिखा था जो ज्ञान के हिसाब-किताब का संख्यात्मक चित्रण कर देता है –
कहत कत परदेसी की बात
मंदिर अरध अवधि बदि हमसो
हरि अहार चलि जात।
ससिरिपु बर्ष सूररिपु जुगबर
हररिपु कीन्हों घात ।
मघपंचक लै गयो सांवरो
तातै अति अकुलात।
नखत वेद ग्रह जोरि अर्ध कर
सोई बनत अब खात।
सूरदास बस भईं विरह के
करि मींजै पछितात।
कहने का मतबल है कि काल विवेचना की ज्ञानाश्रयी मंडली की बात हम करते जाएंगे लेकिन बात जल्दी समझ में नहीं आएगी और जीवन निकल जाएगा। हाँ, when it was tried in the backdrop of the spacetime framework, the historical understanding of the time takes a shape. when the time came – is it only understandable in terms of the universe having come into being OR is it an absolute phenomenon going beyond all the singularities as postulated and observed in the universe? was it there before the Big Bang? Once Hawking talked about a “thermodynamic arrow of time”, a direction to time in which disorder or entropy increases. The increase of disorder or entropy with time … distinguishes the past from the future, giving a direction to time.
Time as interpreted in the classical Newtonian theory of gravity and later expanded in its quantum theory avatar require to be analyzed going closer to the theory of relativity. From the philosophical ground also the discourse on Time with reference to its temporal historical context took a start right from the beginning of Greek philosophy and continued to debated through the later ages in various metaphysical and ontological perspectives.