सिद्ध पुरुषप्रवीण कुमार
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एक दिन उनकी पत्नी ने देखा कि वे गली में अपनी खिड़की के पास खड़े होकर अपना ही कमरा चोर नज़र से झाँक रहे हैं. जैसे कोई ऐसी चीज हो वहाँ जिसका मुआयना अब बहुत ज़रूरी हो गया था. पत्नी कमरे में दाख़िल हुईं और उनको टोक दिया. उन्होंने गली वाली खिड़की से खड़े-खड़े ही जवाब दिया,
“अरे कुछ भी तो नहीं…मैं तो बस देख रहा हूँ कि जब मैं पलंग पर तुम्हारे साथ सोता होऊँगा तो यहाँ से कैसा दिखता होगा?”
बात तो उन्होंने मुसकुरा कर कही, पर पत्नी के कान खड़े हो गए,
“क्या बकवास है ये? चुपचाप भीतर आइए.”
वे सचमुच चुपचाप भीतर आ गए. भीतर आते ही उन्होंने सबसे पहले घड़ी देखी, फिर कलेंडर देखा और किसी तारीख़ को लाल स्याही से गोल घेर कर चुपचाप बैठ गए. देर तक बैठे रहे. फिर कुछ सोचकर अपने लैंड-लाइन से कोई नंबर घुमाने लगे. वे कोशिश करते कि लोगों से अब लैंड-लाइन पर ही बात करें. जब पूरी दुनिया स्मार्टफोन की दीवानी हो रही थी, तब वे बी.एस.एन.एल के ऑफिस से झगड़ कर इसे ले आये थे.
वे इधर पहले से बहुत बदल गए थे और चाहने लगे थे कि लोग उनके बदलाव की नोटिस लें. पर नयेपन के रूप में नहीं बल्कि एक ऐसे गुण के रूप में जो उनमें पहले से मौजूद तो था पर लोग ही नोटिस नहीं ले रहे थे. लापरवाही लोगों की थी, उनकी नहीं. इसीलिए अब उन्होंने ख़ुद को नोटिस कराते रहने के उपक्रम को अपनी दिनचर्या में गुपचुप मिला लिया था. इससे उनका जीवन शहर के सामने अब ज्यादा प्रत्यक्ष हो चला था.
वे अक्सर अपने बरामदे में अखबार पढ़ते तो अखबारी सूचनाओं पर बुलंद आवाज में टिप्पणी करते ताकि यह बात पड़ोसी और पूरे मोहल्ले को पता चल जाए कि मास्टर साहब अख़बार पढ़ रहे हैं. इसके ठीक उलट जब वे किसी पड़ोसी से प्रत्यक्ष बतियाते तो उनकी आवाज बेहद धीमी हो जाती. कभी-कभी वे इतना धीमे बतियाते कि सामने वाला चिढ़ जाता,
“अरे गोगिया साहब क्या फुसफुसा रहे हैं? बिलकुल सुनाई नहीं दे रहा है! थोड़ा साफ़ और ऊँचा बोलिए.”
ऐसे में गोगिया जी बहुत नाप कर आवाज को थोड़ा ज्यादा स्पष्ट और ऊँचा करते. पर उनका ध्यान अब हमेशा इस बात पर रहता कि जब वे मैन टू मैन बात करें तो कोई तीसरा किसी भी हाल में ना सुन पाए. बदलाव तो यह भी आया कि उन्होंने अजनबियों को टोकना और बात करना अब एकदम ही छोड़ दिया था.
छोटा शहर है, इसलिए वे अब हर जगह पाए जाते हैं. उनका हर प्रत्यक्ष शहर के चौराहे पर दर्ज होने लगा है. वे राह चलते, बतियाते या नुक्कड़ पर चाय पीते तो समय, स्थान और तारीख को लेकर चौकन्ने रहते और कोशिश करते कि सामने वाले के मन पर यह बात ठोस ढंग से दर्ज हो जाए कि जब वे सामनेवाले से बात कर रहे हैं तो वह तारीख कौन-सी है और घड़ी की सुई ठीक-ठीक कहाँ पर है. यह आदत अब इतनी सघन हो चुकी थी कि दुआ-सलाम करते हुए आगे बढ़ रहे जाने-पहचाने लोगों से वे घड़ी की सुई और कैलेंडर की तारीख़ की शक्ल में बात करते; मगर फुसफुसाकर –
“भई भार्गव साहब!! अब ये देखिए कि आज अट्ठारह सितम्बर है और चार बज गए और मैं अभी तक पत्नी के लिए फल लेकर घर नहीं पहुँचा, बेचारी ने व्रत रखा है उन्नीस को. एकादशी जो है. लाख मना करने पर भी नहीं मानती.”
सामने वाला थोड़ा अचरज में पड़ता, फिर मुसकुराकर जवाब देता,
“अरे तो रोकते ही क्यों हैं मास्टर जी आप? अब देर मत कीजिये, चार बज गए हैं, झटपट घर निकलिए!”
ऐसा सुनने के बाद वे कुछ सुकून पाते, ‘चलो एक ठोस काम तो हुआ.’
जब उन्हें कोई नहीं मिलता तो वे ख़ुद को दर्ज करने के लिए रेलवे स्टेशन हो आते. रेलवे स्टेशन के पूछताछ गृह में बैठा कर्मचारी उनसे धीरे-धीरे चिढ़ने लगा था शायद. गोगिया जी अब दिन में तीन-तीन चार-चार दफ़ा आने लगे थे और अलग अलग रेलों की टाइमिंग का पता करके चलते बनते. उस कर्मचारी ने आज तक गोगिया साहब को कोई ट्रेन पकड़ते नहीं देखा. उसने नोटिस किया कि जब भी गोगिया साहब उसके केबिन के सामने आते तो उनकी कोशिश रहती है कि सी.सी.टी.वी में उनका चेहरा सशरीर दर्ज हो जाए. कर्मचारी उनको नज़रअंदाज़ करने की भूल भी नहीं कर सकता था. गोगिया जी इधर इस बात से ज्यादा ख़ुश रहने लगे हैं कि क्राईम के ग्राफ़ को कम करने के लिए शहर के हर चौराहे पर सी.सी.टी.वी लगाने की सरकारी घोषणा हो चुकी है. अब शहर के लिए ज्यादा प्रत्यक्ष रहा जा सकता है. प्रामाणिक प्रत्यक्ष!
वैसे गोगिया साहब कोई सनकी आदमी नहीं हैं. वे साइंस के विद्यार्थी रहे थे और स्वभाव से विद्रोही. तर्क की कसौटी पर हर चीज को परखते. पिता संस्कृत के आचार्य थे और माँ प्यारी-सी गृहणी थीं. गोगिया जी अपने जन्मदाताओं को बाबा और अम्मा कहकर पुकारते थे. अम्मा एकादशी के व्रत के दौरान मर गईं तो बालक गोगिया धर्म-द्रोही हो गए. उनका मानना था कि उपवास और व्रत की आदत ने, जो कि धर्म के खौफ़ से किया जाने वाला तथाकथित पुण्य-कर्म था, उसी ने माँ की हत्या की. अम्मा मरी नहीं थी बल्कि हत्या हुई थी. एक धीमी धार्मिक हत्या. गोगिया प्रतिक्रिया में रसायन-शास्त्र के विद्यार्थी हो गए. पर पिता वेद-पुराण और उपनिषद् से ताउम्र बाहर नहीं आए. उसी को पढ़ते-पढ़ाते और अपनी दिवंगत अर्धांगिनी के लिए संस्कृत में गीत लिखते हुए बाबा ने अपना बाक़ी का सारा जीवन बिता दिया. परिवार मुफ़लिसी की रेखा के ऊपर-नीचे डोलता चलता रहा. जब भी किसी त्यौहार में अखंड ग़रीबी दस्तक देती तो पिता विचलित होने की जगह मुसकुराकर कहते,
“त्याग के साथ भोग करना चाहिए! समझे, चीकू?”
चीकू बालक गोगिया के पुकार का नाम था.
तमाम असहमतियों के बावजूद अनजाने ही बाबा की कई आदतें उनमें घर कर गई थीं. चीकू हेड-मास्टर होकर रिटायर हुए थे और उनकी दो संततियां बैंगलोर और भोपाल में बेहतरीन जीवन जी रही थीं. पर वे ख़ुद शहर का पैतृक घर छोड़कर कहीं नहीं गए. उनका परिवार तीन पीढ़ियों से इसी शहर में रह रहा था. वे भी यही मरेंगे, अम्मा-बाबा के पास. गोगिया जी ने घर को चालीस साल से वैसा ही रखा है जैसा बाबा देह छोड़ते हुए छोड़ गए थे. उन्हें लगता रहा कि परेशानी के समय में इस घर में– अम्मा-बाबा को फिर से देखने के लिए जब भी वे मचल उठते हैं तो दो जोड़ी अदृश्य आँखें उनको झाँक कर सहारा देती हैं.
उस घटना के बाद तो उन्हें बार-बार अम्मा-बाबा की याद आने लगी थी. वे कई बार अपने बेडरूम से रसोई की ओर झाँकते तो लगता कि माँ उधर से झाँक कर बुला रही है,
“रे चीकू… रोटियाँ तैयार हैं…चल खा ले बेटे.”
वे हड़बड़ी में उठकर रसोई की ओर भागते, पर वहाँ कोई न होता. उनकी आँखों में पानी उतर आता. कोई देखेगा तो क्या कहेगा कि एक रिटायर बुड्ढा अपनी माँ को याद करके रो रहा है? वे झट आंसू पोंछ लेते. एक दिन तो हद ही हो गई. झुलसा देने वाली जेठ की दुपहरी में अचानक बाबा ने छत से आवाज दी,
“अरे चीकू!! मेरी किताबों पर इतनी धूल कैसे?”
वे जानते थे कि वे दौड़कर छत के कमरे में जायेंगे और वहां बाबा नहीं होंगे. फिर भी उस रोज वे छत पर गए और धीरे से बाबा के बंद कमरे को खोलकर किताबों से धूल निकालने लगे. बाबा की नोटबुक झाड़ते हुए उन्होंने उसे उलटा-पलटा. कहीं-कहीं सुन्दर अक्षरों में कुछ-कुछ लिखा हुआ था. नोटबुक के ऊपर बड़े बड़े अक्षरों में लिखा था,
“उस समय न सत् था न असत् था, न अंतरिक्ष न उसके परे व्योम. तब न मृत्यु थी और न अमरता मौजूद थी, रात और दिन में वहाँ भेद न था.”
बकवास! उन्होंने नोटबुक बंद की, अलमीरा में उसे विन्यस्त किया और ताला मारकर नीचे उतर आए.
गोगिया जी को पूरा जानने के बाद यह मानना थोड़ा मुश्किल होगा कि जगत-जीवन और दर्शन के बीच कोई गहरा और ऐसा परस्पर संबंध होता है जिसके असंतुलन से सब कुछ नष्ट हो जाता है. जीवन क्या है और जगत कैसे है और दर्शन क्या होता है, यह न तो गोगिया जी जानते थे और न ही उनकी पत्नी. गोगिया जी की पत्नी बस इतना जानती हैं कि उस घटना के बाद गोगिया जी बहुत बदल गए हैं. जबकि हाल-फ़िलहाल तक वे शरारती थे और रिटायरमेंट के समय तक रोमांटिक आदमी रहे. तब वे अक्सर कहते,
“देखो बिन्दू जी, तुम चाहे मुझसे छुटकारा पाने के लिए जितनी मर्जी पूजा कर लो, पर मेरे जैसा पति अगले छह जन्मों में नहीं मिलेगा.”
फिर फुक्के मार कर हँसते. गोगिया जी जब हँसते तब उनकी कंचे जैसी नीली गोल आँखे मुंद जातीं. यही नहीं, जब वे ठट्ठा मारकर हँसने की जगह भीतर ही भीतर हँसते तो उनकी तोंद हरकत करती और दोनों लाल गाल ऐसे फूल जाते मानो किसी बच्चे ने अपने दोनों गालों के भीतर टॉफियाँ ठूँस ली हों. बिन्दू जी प्यार से उन्हें लाफ़िंग बुड्ढा कहकर अपना माथा ठोक लेतीं.
वैसे भी जीवन को पटरी पर लाने के लिए इस दम्पति ने मामूली संघर्ष नहीं किए थे. बिन्दू जी की निगाह में गोगिया जी का सारा संघर्ष किसी सिकंदर से कम न था. विरासत में इस घर के अलावा मिला ही क्या था. जीवन में पसरी इंच-इंच की गरीबी को बड़े साहस और धीरज के साथ मुक्त कराया था. ट्यूशन पढ़ाकर अपनी पढ़ाई पूरी की और शहर के सबसे कम उम्र के मास्टर बने. वे अपने बूढ़े बाबा के इलाज में आधी तनख्वाह ख़ुशी-ख़ुशी झोंकते. बदले में बाबा फुसफुसाते, “चरैवेति…चरैवेति.. चरैवेति.”
पता नहीं क्यों उन्हें इससे जोश मिलता. बाक़ी के खर्चे की भरपाई वे साईकिल से ट्यूशन पढ़ाकर पूरी करते. सुबह से साँझ तक इसी चक्कर में पूरा शहर नाप देते. सदियाँ गुजार दीं उन्होंने ट्यूशन पढ़ाकर. इससे मुफ़लिसी कुछ कम हुई. बाबा एक भरापूरा परिवार देख कर मरे थे. जब छोटे गोगिया के ख़ुद के बच्चे योग्य हुए तो उन्होंने उनका ट्यूशन छुड़वा दिया. अब गोगिया जी नौकरी और ट्यूशन दोनों से रिटायर्ड होकर एकदम फ़ुर्सत में थे. अपने पिता की तरह सुबह चार बजे उठकर पार्क चले जाते और फिर दिन भर सुबह की ताज़ा हवा की तरह सनसनाते फिरते.
पर यह उस घटना से पहले की बात है. अब पार्क से लौटते तो अपने पिता की तरह प्रसन्नचित्त नहीं बल्कि थके हुए, पसीने से लथपथ और बेहद उदास. बिन्दू जी अपनी डबडबाई आँखों से उन्हें गुनगुना पानी देतीं और रसोई में चुपचाप लौट भी जातीं.
गोगिया जी के पास से एक-एक करके सब लौट रहे हैं. बिंदू जी रसोई में लौटतीं, संततियाँ ढाँढस देकर भोपाल और बैंगलोर लौटतीं, और अम्मा-बाबा आँख खुलते ही स्मृतियों के बहुत पीछे लौट जाते. अब बचते केवल गोगिया साहब. निपट अकेले. कहाँ जाएँ, क्या करें? वे आने वाली तारीख का इंतजार करें या जो बीते दिनों में घटा था वहाँ लौट जाएँ? वे पीछे लौटना चाहते हैं पर लौट नहीं सकते. काश कि वे लौट पाते! अगर लौटते तो सबसे पहले अपनी निश्छल हँसी ले आते. हँसते तो वे अब भी थे, ठट्ठा मारकर पर उन्हें लगता कि यह हँसी प्रमाणिक नहीं. हँसी ही क्या, वह हर चीज जो दर्ज नहीं की जा सकती, जो दिखाया-सुनाया और समझाया नहीं जा सकता, वह प्रमाणिक नहीं. प्रमाणिक माने दर्ज की जाने वाली चीजें.
दोपहर को लैंड-लाइन फोन की घंटी बजी तो वे कुछ मुस्कुराए. उनको शायद इसी फोन का इंतजार था. डिलेवरी बॉय कब से दरवाज़ा पीट रहा था, पर किसी ने नहीं खोला. जब उसने फोन किया और झल्लाकर कर कहा कि ‘मैं हूँ’ तो गोगिया जी उसे पहचान गए. वे इसीलिए मुसकुराए थे. उस लड़के ने अंदर आते ही पूछा, “कहाँ कहाँ फिट करना है?” इधर वे पूरा नक़्शा बनाकर बैठे थे. उन्होंने नक़्शा दिखाया तो लड़के को सारा कुछ समझ में आ गया.
कुल सात फिट करने थे, सात जगहों पर. दो तो छत पर फिट होंगे ताकि छत पर सीढ़ियों से चढ़ते और बाबा के कमरे में जाते हुए सब कुछ कवर हो जाए. तुलसी का वह संगमरी चौरा भी जो छत की पूर्वोत्तर दिशा में था और लाख समझाने पर भी पुजारिन हो चुकी बिन्दू जी जिस पर जल चढ़ाती थीं– सुबह आठ बजे. पहले अम्मा यहाँ जल चढ़ाती थीं, एकदम उसी समय जब सूरज असमान को अपनी पहली चाप से सिंदूरी करता था. खैर, बाकी के दो उन्होंने दरवाजे के बाहर फिट करवा दिए. एक को कुछ इस तरह फिट करवाया कि गली का मुहाना दिख जाए और आते-जाते सब पता चले. एक को उन्होंने बरामदे में फिट करवाया. कुछ इस तरह से कि गेस्ट रूम भी कवर हो जाए. जब छठा आँगन में फिट होने लगा तो बिन्दू जी ने आपत्ति दर्ज की, “अब यहाँ इसकी क्या ज़रूरत है?”
गोगिया साहब ने उन्हें कटी नज़रों से देखा और लड़के को नक़्शे के हिसाब से फिट करने का निर्देश दिया. बिन्दू जी ने तब मिन्नत की, पर सख्ती से, “अब बाथरूम को तो बख्श दें मास्टर साहब!” लड़के ने छठे की फिटिंग के दौरान उसे थोड़ा झुका दिया. आँगन पूरा कवर हो रहा था पर बाथरूम नहीं. फिर लड़के ने पूछा, “सातवें के लिए तो नक़्शे में कुछ है ही नहीं जी. इसका क्या करूँ?” बिन्दू जी का मन हुआ कि चीख़ कर कहें, “इसे इस बूढ़े गोगिया के माथे के भीतर फिट करता जा. पता तो चले कि इनके दिमाग में क्या चल रहा है?” पर कुछ कह न सकीं.
गोगिया साहब ने ही जवाब दिया, “इसे फिलहाल मेरे पास रहने दो. सोचकर बताऊँगा कि कहाँ फिट करना है.”
फिटिंग में पूरा दिन निकल गया. उसे स्क्रीन पर सेट करने और कवरेज के साथ कदमताल मिलाने में साँझ हो गई. आठ बजे गया वह लड़का. गोगिया साहब कुछ संतुष्ट-से दिखे. आज उनमें कोई ख़ास विचलन न था. खाना खाकर एक बार स्क्रीन का मुआयना किया और सब कुछ दुरुस्त पाकर पहले बरामदे में गए, फिर सीढ़ियों से होते हुए छत पर. नीचे उतर कर गुसलखाने में झाँका और फिर स्क्रीन के सामने खड़े हो गए. लड़के ने जैसे हैंडल करने को कहा था, उन्होंने वही किया. रिवाइंड का बटन दबाया तो उनकी पिछले एक मिनट की सारी गतिविधि फिर से दिखी. वे ख़ुश हुए, “हाँ !दर्ज हो रहा है.’ फिर उन्होंने उसे घड़ी की सुई से मिलाकर वर्तमान में छोड़ दिया. स्क्रीन पर अब का सारा दिख रहा था. उन्होंने देखा कि गली के मुहाने से एक बाइक आई. उसे एक नौजवान चला रहा था. नौजवान ने हेलमेट पहन रखी थी. बाइक बेआवाज रुकी तो उसकी पिछली सीट से चमोली साहब की बेटी उतरी. वह हौले से और बेआवाज अपने घर में गुम हो गई. घर घुसने से पहले उसने नौजवान को फ्लाइंग किस दिया.
“ओ! आई सी! ओ! तो चमोली-पुत्री आजकल बॉय-फ्रेंड के साथ व्यस्त है. खैर! मुझे क्या?” वे चैन की नींद सोने चले गए .
बिस्तर पर लेटते हुए वे थोड़े मुसकुराए. कमाल की चीजें आ गई हैं दुनिया में. सबकुछ दर्ज हो जाता है. पर नहीं! यह भी कोई कमाल है? कमाल तो तब हो जब पिछली हरकतों के साथ-साथ भविष्य में होने वाली हर हरकत भी दिख जाए. ऐसी कोई चीज बने तो मजा आ जाए. पता नहीं क्यों, जब भी भविष्य शब्द से उनका सामना होता है तो वे अपने परदादा के बारे में सोचने लगते हैं. अम्मा कहती थीं कि परदादा सात जन्म आगे और सात जन्म पीछे देख सकते थे. उनमें कोई दिव्य-शक्ति थी. आज अगर वे जिन्दा होते या किसी दिव्य-शक्ति से वे ख़ुद अपने परदादा के पास जा सकते तो जाकर पूछते कि बताओ ना दादा, मेरा भविष्य क्या है? यदि पाप जैसी कोई चीज होती है तो मैंने पिछले जन्म में ऐसा कौन-सा पाप किया है कि मुझे यह सजा मिल रही है? मेरा अपराध क्या था दादा, मुझे बताओ ना. मैं कैसे सिद्ध करूँ कि मैं निर्दोष हूँ? पूरी ज़िंदगी स्कूल और ट्यूशन में बच्चों के बीच गुजार दी मैंने. ना किसी के सामने गिड़गिड़ाया, ना किसी का धेला चुराया. पूरी ज़िंदगी घिसटता रहा, तब जाकर बुढ़ापे में मुफ़लिसी ख़त्म हुई. फिर भी ईमानदारी को कभी छाती पर ढोलक की तरह रख कर नहीं बजाया. अपनी सादगी का कभी प्रचार नहीं किया. तब भी… तब भी… यह सब हो क्यों रहा है, क्यों? आख़िर मेरे ही साथ क्यों? बता सकते हो तो बता दो, प्यारे दादा.
पर गोगिया जी जानते थे कि उन्हें ख़ुद इन काल्पनिक बातों में भरोसा नहीं. ऐसी बेसिर-पैर की बातें विज्ञान की समझ की अनुपस्थिति का नतीजा है. हालाँकि इधर वे महसूस करने लगे थे कि इन फ़ालतू की कथा-कल्पनाओं में एक ज़बरदस्त आकर्षण है. वे भले ही विज्ञान के सारे नियमों को ताख पर रख कर बुनी जाती हैं, पर किसी और अनजाने नियम से हमें गिरफ़्त में तो ले ही लेती हैं! गोगिया साहब को अब नींद ने घेर लिया. फिर उन्हें लगा कि वे सुबह थोड़ी जल्दी उठकर पार्क चले गए हैं. पार्क लगभग ख़ाली है और ठीक वहाँ जहाँ बीच में घास का वृताकार मैदान है, वह आज कुछ अजीब-सा दिख रहा है. कुछ उठा हुआ और घूमता हुआ. उन्होंने सोचा कि शायद नींद पूरी नहीं हुई है, इसलिए ऐसा आभास हो रहा है. रोज की तरह उन्होंने अपने हाथ-पाँव खींचे और उस मैदान पर तेज-तेज चलना शुरू किया. वृताकार चलते-चलते उनकी पुरानी शरारती-वृत्ति ने यकायक करंट दिया तो वे सोचने लगे जिस तरह उस स्क्रीन पर पिछला सारा दर्ज होता है, उसी तरह यदि कोई ऐसी चीज हाथ लगे कि मैं उल्टे पैर चलूँ और उल्टे चलते-चलते पिछली दिनों की सारी हरकतें और घटनाएँ प्रत्यक्ष हो जाएँ, तो कैसा रहेगा ? तब तो सब कुछ दुरुस्त कर सकता हूँ.
(दो)
पार्क में अब भी कोई था नहीं. शरारतन उन्होंने उल्टे पैर चलना शुरू किया. करीब पाँच मिनट चलने के बाद उन्होंने महसूस किया कि उनके जैसा ही कोई उनकी बगल से गुजरा है. वह आगे की ओर सीधे पैर चल रहा है जबकि वे ख़ुद उल्टे पैर. वृत्त पर चलते हुए उन दोनों ने एक बार फिर एक दूसरे को एक बिंदु पर काटा और दोनों फिर दूर हो गए. गोगिया जी ने पक्का माना लिया कि यह भ्रम है कि उनके जैसा ही कोई है वह. वे उसी तरह शांत भाव से उल्टे पैर चलने लगे. उन्हें मजा आने लगा था. उल्टे पैर चलते हुए उन्होंने मैदान का एक वृत्त पूरा किया तो पाया कि हूबहू उनके जैसा वह आदमी ठीक उन्हीं की तरह व्यायाम कर रहा है. वे उसके पास पहुँचे तो पाया कि ये तो वे ख़ुद ही हैं जो ठीक दस मिनट पहले दाख़िल हुए थे इस पार्क में. यह तो हद ही हो गई. एक ही पार्क में दो-दो गोगिया थे. दोनों में दस मिनट का अंतर था बस. उन्होंने उसे टोका, “कौन?” पर दूसरे ने कोई जवाब नहीं दिया.
उन्होंने दो-तीन बार पूछा, पर कोई उत्तर न आया. तो क्या उल्टे पैर चलने से पिछले समय में पहुँच गए हैं वे? यह सोचते हुए वे फिर उलटे पैर तेज-तेज चलने लगे. वह आदमी छूटता चला गया. वे लगातार महसूस कर रहे थे कि पृथ्वी की घूर्णन की दिशा एकदम पलट गई है. उनकी चाल और तेज हो गई. अब पार्क में भीड़ घट-बढ़ रही थी, लोग आ-जा रहे थे पर कोई उन्हें नोटिस नहीं कर रहा था. वे लगातार बीते समयों में गोते लगा रहे थे. थोड़ी देर में वे समझ गए कि वे पिछली दुनिया में दाख़िल हो चुके हैं जहाँ वे सबको देख सकते हैं, पर उन्हें कोई नहीं देख रहा है शायद. उन्होंने सबसे पहले अपनी घड़ी देखी. अरे!! पंद्रह मई बता रही है ये तो? क्या घड़ी भी पीछे की ओर चल रही है. उन्होंने घड़ी को ध्यान से देखा तो उसकी सुई सच में पीछे की ओर भाग रही थी. उन्होंने टाइमिंग सेट करनी चाही जब वे पार्क में घुसे थे- नौ अक्टूबर, सुबह चार बजकर सत्रह मिनट. पर घड़ी की सुइयां झर्र करती हुई उलटी दिशा में घूम जातीं और पंद्रह मई, सुबह छः बजकर पैंतीस मिनट बताने लगतीं.
गोगिया जी समझ गए कि घड़ी उन्हें उसी पुराने समय में आ चुकने का संकेत दे रही है जिस दिन वह वारदात हुई थी. मतलब वे अब सच में साढ़े तीन महीने पीछे की दुनिया में दाख़िल हो चुके हैं. उनका कलेजा धक् कर गया. कुछ देर ठहर कर उन्होंने मन ही मन सोचा, “क्या करें वे इस समय का अब?” फिर उन्हें लगा कि उनको चुपचाप विगत समय के घटनाक्रमों को ठीक से देखने और दुरुस्त करने का अवसर मिल गया है.
वे घुसपैठिये की तरह तत्काल अपने घर की ओर लपके. वही दुनिया वही घर. बस, मौसम गर्मी का था–बहुत उमस थी. उन्होंने पाया कि उनके घर पर साढ़े तीन महीने पहले वाला और उन्हीं के जैसा गोलमटोल टकले सर वाला हंसमुख गोगिया बड़े मजे से बरामदे में दातुन कर रहा है. यह सब देखते ही घुसपैठिये गोगिया सब समझ गए- “हाँ, यह वही समय है–वारदात वाली सुबह का समय.”
यह वही क्षण था जब घुसपैठिया गोगिया हंसमुख गोगिया को सावधान कर सकते थे. गोगिया जी ने दम साधकर उस हंसमुख गोगिया को सावधान किया, “सुनो… अरे सुनो तो… अभी चंद मिनटों में दो लड़के आएंगे बाइक से. वे शर्मा जी के बारे में पूछेंगे. उनके घर का पता भी. प्लीज, कुछ भी ना कहना. बिलकुल भी बात नहीं करनी है उनसे. समझ गए न?” पर हंसमुख गोगिया गंभीर और घुसपैठिये गोगिया को नोटिस करे तब न? हंसमुख गंभीर को ऐसे ख़ारिज कर रहा था जैसे गंभीर का कोई अस्तित्व ही ना हो. हँसमुख दातुन करते हुए उठा और ज़ोर से गली में थूक दिया, “आक् थू.” थूक दूर तक गई तो हँसमुख ख़ुश होकर सोचने लगा, “अभी भी दम है मुझमें…रिटायर होने के बाद भी वहाँ तक थूक सकता हूँ जहाँ तक जवानी में थूकता था… हाँ, दम है.” इधर गंभीर गोगिया हंसमुख गोगिया की हरकत और सोच को देख-समझ रहा था. उसका पारा चढ़ता गया. वह बिफ़र गया, “अबे!! सुन क्यों नहीं रहा है तू ? दो लौंडे आएंगे और तेरा सारा थूकना पिछवाड़े में चला जाएगा. मैं कह रहा हूँ कि वे शर्मा जी के बारे में पूछेंगे, पर कुछ कहना नहीं है. समझा?”
तभी दो लड़के बाइक से गली में दाख़िल हुए. उन्होंने बाइक रोकी और इधर-उधर देख कर हंसमुख गोगिया की ओर लपके, “अंकल जी, नमस्ते!” उन्होंने बड़े ही संस्कारी भाव से नमस्कार किया हंसमुख गोगिया को. इधर घुसपैठिया गोगिया छटपटाने लगा. हंसमुख ने लड़कों से हँसकर पूछा, “कौन हो भई तुमलोग? मोहल्ले के तो नहीं लगते? पर कहे देता हूँ, अगर मेरे पुराने छात्र हो तो दूधवाला अभी दूध नहीं दे गया है तो चाय नहीं पिला पाऊँगा.” कहकर हंसमुख ज़ोर से हँसा. दोनों लड़के भी हँसने लगे. एक लड़के ने जवाब दिया, “अरे नहीं अंकल जी, हम आपके छात्र नहीं हैं और हम चाय नहीं बल्कि शर्मा जी को ढूँढ रहे हैं.” हंसमुख व्यंग्य में हँसा, “अबे कौन शर्मा? मास्टर दीन दयाल शर्मा या इंजीनियर सी पी शर्मा?” घुसपैठिये गोगिया का हलक सूखने लगा था. लड़कों ने एक साथ कहा, “इंजीनियर साहब.” घुसपैठिये से रहा नहीं गया, वह चीखने लगा, “अबे गोगिया,अबे ओ… मत बता शर्मा के बारे में… मत बता साले… ये लड़के नहीं, हत्यारे हैं.” पर हंसमुख गोगिया ने लड़कों को बताया, “वे तो अभी घर पर नहीं होंगे.” लड़कों ने पूछा, “कहीं गए हैं अंकल जी वे ?” हंसमुख गोगिया का मन हुआ कि कह दे कि वह साला घुसखोर शर्मा खा-खाकर सांड हो गया है और कालेधन ने उसका स्तन इतना बढ़ा दिया है कि उसके लटके हुए स्तन से चीनी चूने लगा है अब. उसको शुगर हो गया है और वह नए लौंडों के साथ आजकल ज़िम करने लगा है. पर हंसमुख गोगिया मास्टर ठहरे, बोले, “शायद ज़िम गए हों… आजकल शरीर पर ध्यान देने लगे हैं.”
ऐसा कहते हुए हंसमुख के भीतर यह विचार कौंधा कि शर्मा आत्मा का नाश तो कर ही चुका है, बस, शरीर बचा ले, इसी जुगत में लगा हुआ है आजकल. पर लड़कों ने हंसमुख के विचार में ख़लल डाला, “अरे अंकल जी, हम ज़िम से ही आ रहे हैं… वहाँ तो नहीं हैं.” इधर घुसपैठिया गोगिया आपे से बाहर हो गया, “अबे, गोगिया के बच्चे… सुनता नहीं क्या? मत बता… मत बता… तू फँसेगा, साले.” घुसपैठिया इस बार इतनी तेजी से चीखा कि उसका गला रुंध गया. उसने तुरत हंसमुख के पास रखे मग्गे से पानी पिया. उसे लगा कि उसने पानी ना पिया होता तो मर ही जाता. उधर हँसमुख गोगिया ने गंभीर गोगिया के लाख मन करने के बावजूद कुछ सोच कर लड़कों से कहा, “ऐसा है…कि…तब शर्मा जी ज़रूर नए वाले पार्क में गए होंगे. आरामबाग़ में नगर-निगम ने अभी-अभी बनवाया है…एक छोटा-सा ज़िम भी दे दिया है…वहाँ तो पक्के ही मिलेंगे.” दोनों लड़के मुसकुराए और एक-एक करके उनके पैर छू लिए. इधर घुसपैठिया गोगिया बदहवास हो चुका था, “अरे रे!! ये क्या कर दिया गोगिया तूने…हे भगवन…ओ मेरे मालिक…फँसा तू साले अब…मुझे भी ले डूबा.”
हंसमुख गोगिया इधर लड़कों को तौलने लगा, “अरे भई…सुबह-सुबह शर्मा जी से क्या काम आन पड़ा?” एक ने उत्तर दिया, “अंकल जी, इंजीनियरिंग की परीक्षा देने जा रहे हैं हम लोग. सोचा कि कुछ टिप्स ले लें उनसे.” हंसमुख गोगिया को गुस्सा आ गया, पर कुछ बोला नहीं. लड़के चले गए तो हंसमुख गोगिया ने फिर वैसे ही थूका और सोचना ज़ारी रखा — शर्मा साला क्या टिप्स देगा बे बेवकूफ़ो ? उसके बाप ने झोला भरकर नोट फेंका था तब यह इंजीनियर बना. साला मुझसे पाँच साल जूनियर था स्कूल में. मैं उसे ट्यूशन देता था. क्या मैं ही नहीं जानता उस गोबर-बुद्धि को!! क्या जमाना आ गया है…साले चोर-उचक्के और घुसखोर टिप्स दे रहे हैं…यहाँ इस मास्टर के पास आते तो सारे फ़ॉर्मूले देखते-देखते रटवा देता…पता नहीं कितने इंजीनियर-डाक्टर पैदा कर दिए हैं इस गोगिया ने…पर नहीं वह सिविल-इंजीनियर ही टिप्स देगा…हंह! घुसपैठिया गोगिया के लाख मन करने के बावजूद हंसमुख गोगिया उन हत्यारों को सब कुछ सटीक बता चुका था. पता नहीं, वह लात लगी कि नहीं, पर घुसपैठिये गोगिया ने हंसमुख गोगिया को एक लात जमाई और आरामबाग के पार्क की ओर बदहवास भागने लगा. शार्टकट लेकर .
आरामबाग पार्क के किनारे खुले असमान के नीचे छोटा-सा जिम था जिसमें शर्मा पैडलिंग कर रहा था. घुसपैठिये ने आते ही उसे झकझोरा, “शर्मा भाग…भाग शर्मा.” शर्मा की पैडलिंग कुछ धीमी हुई तो घुसपैठिया फिर चीखा, “वे इधर ही आ रहे हैं…भाग…भाग जा शर्मा. जल्दी भाग.” शर्मा ने जब पैडलिंग करनी छोड़ी तो घुसपैठिये को लगा कि बात बन गई. शर्मा जिम से निकल कर हरी घास पर भूरी भैंस की तरह लोटने लगा. फिर वह शव-आसन की मुद्रा में लेट कर धीरे-धीरे साँस अन्दर-बाहर करने लगा. घुसपैठिये के होश उड़ गए. रोनी सूरत बना कर वह कभी मिन्नतें करता तो कभी शर्मा पर लात जमाता. पर शर्मा ने गोगिया की न तब सुनी थी, न आज सुन रहा था. गोगिया साहब बिलख कर रोने लगे, “देख भाई…मैं हाथ जोड़ रहा हूँ…तेरे पैर पड़ रहा हूँ, भाग यहाँ से जल्दी. पूरी ज़िंदगी तुझसे जलता रहा…पूरी ज़िंदगी…पर तेरी हत्या होते हुए नहीं देख सकता, शर्मा…भाग जा, मेरे भाई.” उधर हत्यारे आ धमके. शवासन की मुद्रा धरे शर्मा जी की आँखें बंद थीं. हत्यारे बिलकुल पास आ गए तो घुसपैठिये ने हरकत की. वह हत्यारों और शर्मा के बीच में आकर हिचकियाँ लेने लगा, “नहीं नहीं, मेरे बच्चो…नहीं नहीं. मत मारो, ठहर जाओ.” हत्यारों ने अपनी अपनी पिस्टलें निकालीं तो गोगिया जी रो पड़े, “नहीं नहीं…देखो इसके बेटे की शादी है अगले महीने…रहम करो भाई…नहीं नहीं.” पर पूरे पार्क में ताबड़तोड़ फ़ायरिंग की आवाज गूँज गई. शर्मा जी की देह हरी घास पर खून से सन गई. घुसपैठिया सिर धुनता हुआ वही बैठ गया, “अब नहीं बचूँगा मैं…फँस गया…बिलकुल फँस गया, बुरी तरह.”
थोड़ी देर में अपनी साँसे सँभालते हुए घुसपैठिया उठा. उसे याद आया कि उन हत्यारों से जब हंसमुख गोगिया बात कर रहा था, तब किसी ने उन तीनों को बतियाते नहीं देखा था. इससे पहले कि हंसमुख आदतन पाँच लोगों को कहे कि शर्मा जी को ढूंढ़ने दो लड़के आये थे, उसे रोक देना होगा. वह पागलों की तरह हंसमुख के घर भागा. हंसमुख दातुन से निवृत होकर अपने बरामदे में चाय और पोहे उड़ा रहा था. यह उसकी रोज की आदत थी. आते-जाते राहगीरों को टोकता, बतियाता और जान-पहचान वालों को पोहा चखने के लिए आमंत्रित भी करता. तभी सक्सेना जी उधर से गुजरने लगे. वे इंजीनियर शर्मा के पक्के चेले थे और इतवार के इतवार उसके घर मयकशी करते थे. हंसमुख ने उन्हें भी टोका, “क्या महाराज…पोहा तो चखते जाओ!” सक्सेना ने मना किया तो हंसमुख बुरा मान गए, “अरे शर्मा की जी-हुजूरी में कुछ और खा लेना…यह शुद्ध पसीने की कमाई है.” सक्सेना जी झेंप गए, इसलिए ठहर भी गए, “अरे मास्टर जी…आप भी…पर मैं शर्मा जी के यहाँ नहीं जा रहा हूँ.”
“अच्छा? तो?”
“तो क्या? मान लें कि आपसे ही मिलने आया हूँ.” सक्सेना जी ने सफाई दी.
तभी वहाँ घुसपैठिया भी आ धमका. सक्सेना को वहाँ पाकर उसकी धड़कनें और भी तेज़ हो गईं. उसे लगा वह छाती फोड़कर बाहर आ जाएंगी अभी. उधर हँसमुख ने पोहा देते हुए सक्सेना से ठीक वही कहा जो उसे बिलकुल नहीं कहना चाहिए था, “अभी दो लौंडे आये थे…शर्मा को खोज रहे थे. पर ये बताओ सक्सेना, शर्मा क्या इतना जानता है कि इंजीनियरिंग की परीक्षा के लिए टिप्स दे सके?” सक्सेना जी हँस पड़े, “आप भी ना मास्टर साहब….” घुसपैठिया हंसमुख को लगातार रोकता रहा और हंसमुख ने सुबह का सारा वृतांत सक्सेना को धीरे-धीरे बता डाला.
घुसपैठिया अब लगातार हंसमुख पर लात और घूँसे बरसा रहा था, “अरे साले…अबे कुत्ते, तूने ये क्या किया? यही सक्सेना एक दिन गवाही देगा और हम दोनों फँस जाएंगे, हरामजादे.” घुसपैठिया लगातार रो रहा था और लात-घूँसे जमा रहा था. छत से तुलसी-पूजन करके लौटी पत्नी ने देखा कि पलंग पर लेटे-लेटे गोगिया साहब के शरीर में अजीब-सी मरोड़ है और वे लगातार अपने पैर हवा में उछाल रहे हैं. सुबह चार बजे उठने वाले गोगिया आठ बजे तक सो रहे हैं. पत्नी ने तत्काल तुलसी-जल उनके ऊपर उछाल दिया. गोगिया साहब हड़बड़ाकर उठ गए. उनकी आँखें लाल थीं और कनपट्टी से पसीना चू रहा था. बिन्दू जी ने टोका, “जी तो ठीक है ना आपका…आज पार्क भी नहीं गए?” गोगिया जी अभी भी साबुत नहीं हुए थे. उन्होंने हड़बड़ाकर घड़ी देखी तो सच में आठ बज रहे थे. वे एक उछाल के साथ उठे और गेस्टरूम में कल ही लगे स्क्रीन के सामने खड़े हो गए. सारे कैमरे चालू थे. ‘ओ! तो फिर वही सपना!’ वे मन को शांत करते हुए बरामदे में बैठ गए. कुछ साबुत हुए तो अपने काल-बोध को पुनः दुरुस्त किया.
(तीन)
समय लौटता है. हू-ब-हू. और बीतता तो कुछ भी नहीं है. परिस्थितियाँ भी एक जैसी ही आती रहती हैं और चुनौतियाँ भी. फैसला करने वाली. पर असली चीज है, आए हुए समय को अपनी रगों में घुला लेना. उससे ऐसे निपटना कि जब वह दुबारा आए तो किसी हारे हुए पहलवान की तरह थोड़े संकोच से आए. जो अपने समय से जूझ लेता है, वही इतिहास की नाक में नकेल डाल कर इतिहास को ऊँट की तरह पीछे-पीछे घुमाता है.
यह सब उनकी जवानी के समय की डायरी में लिखा हुआ था. ग़रीबी से संघर्ष के समय की बातें. वे जब भी अपने बाबा से बहस करते तो ऐसी सैकड़ों पंक्तियाँ बहस के लिए अपनी डायरी में लिखकर तैयार रखते. ये पंक्तियाँ छोटे गोगिया की अपनी समझ का चेहरा थीं. हर तीसरे या चौथे दिन वे अपने बाबा से उलझ जाते. बाबा कहते शब्द तो गोगिया जी कर्म. बाबा से वे तब तक उलझते रहे जब तक बाबा बहुत बूढ़े और बीमार नहीं हुए. आज गोगिया जी उस डायरी को हाथ में लिए दिनभर घूमते रहे. उन्हें भरोसा नहीं हो रहा था कि यह सब उनका लिखा हुआ है. इस उम्र में तो वे इस बात पर भी भरोसा नहीं करना चाहते कि वे बाबा से बहस करते थे. बिन्दू जी के आने के बाद तक, बल्कि पहली संतान के आने के बाद तक बाबा से बहस की. डायरी उनके हाथ में थी और बाबा उन्हें बार-बार याद आ रहे थे. एक दफा उनका मन रोने को भी हुआ, पर चूक गए .
पूरी जवानी उन पर जीवन-बोध हावी रहा. हावी तो तब तक रहा जब तक वह घटना ना घटी थी पर उसके बाद उन पर मृत्यु-बोध धीरे-धीरे हावी हो रहा था. क्या सच में? वे मरने से नहीं डरते. उनके बाबा ने उनको बहुत पहले मृत्यु से निर्भीक कर दिया था. बस वे चाहते हैं कि मौत से पहले निश्चिंत हो लें. कम से कम उस समय से जो हाथ में कालिख लिए उनका इंतजार कर रहा है. वे अपनी मान्यताओं के सामने उस समय को ध्वस्त होते देखना चाहते थे. वे पहले जैसा होकर मरना चाहते हैं. हँसते हुए और अभय मुद्रा में– समाज के सामने पूरी धवलता के साथ. पर कैसे? यह चीज उन्हें शायद डरा जाती. हत्यारों का भी तो अब तक पता नहीं चला. अदालत के संज्ञान के बाद जब दूसरी बार इजलास में खड़े हुए थे, तब भी नहीं डरे थे मास्टर गोगिया. शर्मा जी का बेटा तो उन्हें ऐसे देख रहा था जैसे खून पी जाएगा उनका. पर गोगिया खौफ़जदा नहीं हुए. बिलकुल भी नहीं. इधर अदालत को उनकी निर्दोषता का प्रमाण चाहिये था. पर हुआ उल्टा. गोगिया जी ने अपने बच्चों और वकील के लाख मना करने पर भी वारदात वाले दिन का वृतांत अदालत को हु-ब-हू बता दिया. सरकारी वकील ने आरोप भी लगाया कि
“पूरा मोहल्ला जानता है कि सी पी शर्मा से मास्टर गोगिया नफ़रत करते थे. इसलिए उन्होंने उन हत्यारों को ठीक वही लोकेशन बताई जहाँ शर्मा जी व्यायाम कर रहे थे.”
मास्टर गोगिया अदालत में ही टूट पड़े,
“जी वकील साहब, आप कुछ-कुछ ठीक कह रहे हैं. मैं उनसे नफ़रत करता था. जलता था. कभी-कभी उन पर सरेआम फ़ब्तियाँ भी कसता था. कमअक्ल शर्मा जी एक घूसखोर व्यक्ति थे. वे अपने पिता के पैसे के दम से इंजीनियर बने थे. मैं सारा क़िस्सा जानता हूँ कि उन्होंने पैसे से पैसा किस तरह बनाया. पर यह जलन, यह नफ़रत उनकी हत्या की हद तक नहीं थी वकील साहब. जज साहब, मैं सच कह रहा हूँ, यकीन करें.”
अदालत सन्न रह गई. यह सिद्ध करना अभी बाक़ी था कि मास्टर गोगिया गुनाहगार हैं या नहीं. बहुत संभव था कि बेनीफिट ऑफ़ डाउट मिल जाता अदालत से. पर अब तो संदेह गहरा दिया था गोगिया जी ने. सक्सेना की गवाही और मास्टर गोगिया की आत्म-स्वीकृति ने अदालत के सामने यह साफ़ कर दिया था कि जो हत्यारे भ्रमित थे शर्मा जी की लोकेशन को लेकर, उनको गोगिया जी ने ही सही-सही पता बताया था. अदालत ने सुनवाई की अगली तारीख दी थी पर गोगिया जी के बेल की अर्जी ख़ारिज भी कर दी थी. तीन दिन जेल में रहे गोगिया जी. चौथे रोज बड़ा बेटा हाईकोर्ट से उनका बेल लेकर आया .
जेल में उन्हें कोई ख़ास दिक्कत नहीं हुई, पर उनकी खुशमिज़ाजी और बातूनीपन पर असर पड़ गया. वे पद-प्रतिष्ठा,जीवन-मरण, ख़ुशी-गम इन सब पर कुछ ज्यादा ही सोचने लगे. पूरा शहर सदमे में था. घर आते ही बिन्दू जी ने रोते हुए जानना चाहा कि लाख मना करने पर भी उन्होंने सब कुछ क्यों बता दिया अदालत को.
इसी सवाल का जवाब ढूँढते हुए गोगिया जी बदलना शुरू हुए .
जैसे इस सवाल ने उनके व्यक्तित्व में एक ठहराव पैदा कर दिया. घंटों चुप रहने के बाद उन्होंने बिन्दू जी को जवाब दिया “नफ़रत बहुत ज़रूरी चीज है बिन्दू. तुम शायद ही समझो!” उस दिन के बाद गोगिया जी गुमसुम रहने लगे. यह बदलाव किसी दार्शनिक दृष्टि की वजह से आया या किसी ज़िद की वजह से, यह कोई नहीं जानता, पर यह तो तय था कि इसका वहन करना अब गोगिया जी के लिए लगातार मुश्किल होता जा रहा था. उनकी बढ़ती उम्र हर साँझ उनको थोड़ा-सा खुरच कर कम कर देती . वे इस नफ़रत का क्या करें अब?
फिर भी पार्क जाना उन्होंने बंद नहीं किया. बस वे अँधेरेवाली सुबह की जगह थोड़े उजालेवाली सुबह जाने लगे ताकि कुछ लोग तो हों ही वहाँ. वे उस वृताकार घास के मैदान पर टहलते ज़रूर, पर आड़े-तिरछे. पता नहीं क्यों? उन्हें दिन के उजाले में रात के सपनों पर सच में शर्मिंदगी होती थी कि कैसे वे बीते समय में जाकर सब कुछ दुरुस्त करने लगते. खासकर अपने रोने और झगड़ने पर तो वे सख्त नाराज थे, “आदमी को इतना भी कमज़ोर नहीं होना चाहिए…मर जाओ पर गिड़गिड़ाओ मत.” वे आज तक नहीं गिड़गिड़ाए थे. सपने में कैसे ऐसा कर रहे थे, समझ में नहीं आ रहा था उन्हें. पर सपने थे कि अक्सर…!
पार्क से लौट कर आते तो पढ़ते. पढ़ते कम और सोचते ज्यादा. उनकी दिक्क़त यह थी कि बाबा के किताबों से वे बीस साल से ज्यादा समय तक बहस कर चुके थे, इसलिए उन्हें पढ़ते नहीं, और साइंस-मैथ्स की किताबें अब बोर करतीं. अखबार और पत्रिकाएँ पलटते. कहानियों पर तो उन्हें हँसी ही आती. कहानियाँ अक्सर तर्कातीत और अति-भावुक होतीं. कुछ कविताएँ उन्हें अच्छी लगतीं. उसमें वे समझने और गुनने का स्पेस देखते. पर ये सारी चीजें अपर्याप्त पड़ जातीं. एक अजीब-सी सोच उन्हें बेचैन करती. इस बेचैनी में वे टहलते. स्टेशन जाते. लोगों को लगता कि यह किसी डरे हुए आदमी की बेचैनी है. मोहल्ले ही नहीं बल्कि शहर की नज़रों तक में वे आज भी निर्दोष और धवल चरित्र के थे. लोग तरस भी खाते, पर कोई कुछ कहता नहीं.
एक दिन उनके मोहल्ले के मित्र श्रीवास्तव जी ने टोक ही दिया, “अरे भई गोगिया…क्यों बेचैन है? गीता पढ़.” गोगिया तुनुकमिजाज हो चुके थे, खीजकर कर पूछा, “आखिर क्यों पढूँ?” मित्र उसी अबोधपने में बोला, “स्थितप्रज्ञ हो जाएगा.” गोगिया बरस पड़े, “देख श्रीवास्तव…भालू को अपने बाल नहीं दिखाते…समझे? मैं डरा हुआ आदमी नहीं…संघर्ष ही मेरी कथा है.” मित्र की तो सिट्टी पिट्टी गुम हो गई. चीखने से गोगिया की भी साँस फूल गई, पर श्रीवास्तव के बहाने पूरे मोहल्ले को मैसेज देना ज़रूरी था कि गोगिया किसी से नहीं डरता. जेल जाने और फाँसी चढ़ने से तो कतई नहीं. और हुआ भी वही. मित्र ने इस झिड़क को कीर्तन की तरह फैला दिया. अब मोहल्ले में कोई नहीं टोकता मास्टर गोगिया को. इसका परिणाम यह हुआ कि गोगिया और अकेले पड़ते गए. गोगिया इस चीज को महसूस कर रहे थे. उनको लगा कि ऐसे झगड़कर वे एक तरह का आत्मघात कर रहे हैं. फिर सोचते कि यह आत्मघात नहीं है, बाबा कहते थे कि जो आत्मा का नाश या घात करता है वह आत्मघाती है. गोगिया ने कभी आत्मा को घात नहीं पहुँचाया. उसी को बचाने के लिए यह सारा उपक्रम है. आत्मघात तो शर्मा करता रहा उम्रभर.
पर यह बदलाव क्यों हो रहा है उनमें ? इस तरह से और इतना सख्त ! बहुत सहज और ख़ुशहाल होकर भी तो लड़ा जा सकता है. उसी सहज भाव से नफरत भी की जा सकती है. गोगिया जी ने मन को फिर समझाया, ‘नफ़रत ज़रूरी चीज है. बस, वह डर से बाहर निकल आये तभी’. पर मन? मन है कि पानी! मन ने उनका इतिहास-भूगोल गड़बड़ा दिया था.
जब उनके पास कुछ भी करने या सोचने को नहीं होता तो सी सी टी वी के पुराने फुटेज देखने लगते. वे देखते कि चमोली साहब की बेटी का इश्क़ अब गहरा गया है. मामला फ्लाइंग किस से और ऊपर चला गया है. गहरी रात में आने लगी है अब वह. उन्होंने नोटिस किया कि सक्सेना जब भी इधर से गुजरता है तो गोगिया साहब के घर को चोर नज़र से देखता है. गली में घर के सामने से गुजरते हुए राहगीर इधर नहीं देखते पर जानने वाले इधर देखते हुए जाते .कुछ तो साथ चल रहे राहगीर को घर की ओर इशारा करते , मानो कह रहे हों, “यही है बेचारे गोगिया का घर…झूठमूठ की जेल हो गई थी.”
गोगिया जी का कलेजा कट जाता. फिर भी वे देखते रहते सब कुछ. कभी रिवाइंड तो कभी फ़ास्ट फॉरवर्ड. बिलकुल कुछ सेकेण्ड पहले लाकर छोड़ते रिकोर्डिंग को. एकाध बार तो शर्मा का बेटा भी दिखा पर उसने इधर आँख उठा कर भी नहीं देखा. देखेगा भी कैसे. उसकी आत्मा जानती है कि मास्टर साहब ऐसा हरगिज नहीं कर सकते हैं. उसका गुस्सा भी अब तक कपूर हो गया होगा. पर संभल कर रहना होगा. कब कहाँ घात हो जाए? क्या पता किसी दिन यहीं ताबड़तोड़ कर दें– पार्क में जैसा किया था. यह सोचकर गोगिया जी का दिल धक् करके बैठने लगता. खैर! जो भी हो. झेलना है और लड़ना है. अदालत में अपने ईमान पर खड़े रहना है, भले कोई फाँसी दे दे. तभी गोगिया जी को स्क्रीन पर शर्मा जैसा एक आदमी दिख गया. गोगिया जी उछाल मार कर खड़े हो गए, “ये क्या है?”
वह बिलकुल शर्मा जैसा ही था. बल्कि शर्मा ही था. कपड़े भी वही पहन रखे थे — क़त्ल के दिन वाले . उसने बाहर के कैमरे में दो बार झाँका था और चलता बना . वे दौड़कर बरामदे में गए और वहाँ से फिर गली में. कहीं कोई नहीं था. वे भागते हुए वापस आए और रिवाइंड का बटन दबाया. बार-बार हर बार वही निकला — “हाँ ,यह तो शर्मा ही है!” पर कैसे हो सकता है भला? मरा हुआ आदमी ऐसे कैसे लौट सकता है? गोगिया जी ने बार-बार उसी दृश्य को देखा. एकदम वही. उन्होंने घड़ी देखी. बिलकुल ठीक थी.
अब सच में उनकी परेशानी बढ़ती जा रही है. अगर बिन्दू जी को बताया तो पक्का है कि बच्चों को बुलाकर उन्हें मनो-चिकित्सक को दिखाया जाएगा. वह भी जबरन. जिस जादू-टोना, भूत-प्रेत और क़िस्से-कहानियों से वे जिंदगी भर नफ़रत करते, रहे वही अब हक़ीकत होती दिख रही थी. हद है भई, यह तो हद ही है! वे पागल नहीं हुए हैं, यह भी तय था. आज भी बल्कि अभी भी रसायन-शास्त्र ही नहीं, भौतिकी और बीज-गणित के ढेरों फ़ॉर्मूले याद हैं उन्हें. उन्होंने एक बार फिर खुद को जाँचने के लिए बुक-सेल्फ से प्रश्न-पत्र से भरी एक जर्जर किताब उठा ली. किताब बीज-गणित की थी. वे मैथ्स सॉल्व करने बैठ ही गए. तक़रीबन एक घंटे में बत्तीस मुश्किल सवाल हल किये उन्होंने. एकदम सही-सही. अब कोई कह सकता है कि मैं पागल हो रहा हूँ! तभी बिन्दू जी चाय लेकर आ गईं. गोगिया जी सब कुछ भूल-भालकर अपनी इस सफलता में फूले नहीं समा रहे थे, मुसकुरा कर गर्व से बोले,
“बिन्दू जी! कभी यह ना समझना कि बढ़ती उम्र ने मेरी बुद्धि कुंद कर दी है. ये देख लो. एक घंटे में बत्तीस मुश्किल सवाल हल किये हैं मैंने — एकदम सही-सही.”
उन्होंने रजिस्टर बिन्दू जी की ओर बढ़ा दिया. बिन्दू जी ने चाय टेबल पर रखी और प्यार से उनके माथे को सहलाना शुरू किया. उन्होंने अपनी आँखें बंद कर लीं. फिर सब शांत हो गया. सब कुछ. गोगिया जी का सारा गर्व आँसुओं के साथ देर तक ढुलकता रहा.
(चार)
लोगों का कहना था कि गोगिया जी के परदादा एक प्रकांड विद्वान थे. बहुत पहले जब मोहल्ले के पास के खेतों पर यह पार्क बना था तो नामकरण को लेकर विवाद पैदा हो गया. जिला कलक्टर ने तब गोगिया जी के परदादा को बुलाया और उनकी राय जाननी चाही. भरी सभा में उन्होंने कुछ नहीं बोला. बस सभा से जाने लगे तो तीन बार एक ही शब्द दुहरा गए, “चरैवेति…चरैवेति…चरैवेति.” इसका असर पड़ा. तत्काल कलक्टर के निर्देश पर उस पार्क के प्रवेश-द्वार पर बड़े-बड़े अक्षरों में उस शब्द को तीन बार ढलवाया गया. तभी से उसका नाम चरैवेति पार्क हो गया. गोगिया के बाबा भी इसी शब्द को दुहराते-तिहराते रहे. पर गोगिया जी उन शब्दों को केवल पढ़ते. वह भी जब पार्क जाते समय उसे देख लेते तब. वे उसे पढ़ते और अंत में जोड़ते, “चरैवेति…पर किधर ?”
हालिया दिनों में उनका दिशा-बोध गायब हो रहा था. वे अब कमरे में भी चलते तो लगता कि पिछले समय में चले जा रहे हैं. इससे बचने के लिए वे स्क्रीन को फिर से देखने लगते. कुछ साबुत होते और सोचने बैठ जाते. आजकल बीज-गणित और स्क्रीन ही उनका सहारा था. लेकिन जो स्क्रीन उनके वर्तमान को सहारा देने का ठीहा था, अब उसी ठीहे पर शर्मा प्रत्यक्ष हो गया था. शर्मा आये दिन उनके स्क्रीन पर झाँककर लापता हो जाता था. एक दिन तो वह गली के मुहाने पर प्रत्यक्ष दिख गया . गोगिया जी ने उससे कोई बात नहीं की, बल्कि इस सोच में पड़ गए कि कहीं वे पिछले समय में तो नहीं चले आए. भागकर फिर घर पर आए. ऊपर-नीचे आँगन में एक चक्कर काटा और फिर रिवाइंड का बटन दबाकर पिछली हरकते देखने लगे. सब ठीक था. पर यह सब हो क्या रहा है ?
इसी सोच में पड़े-पड़े वे पहले रेलवे स्टेशन गए और फिर पार्क में चले आये थे . सब ठीक था. बच्चे हँसी-ख़ुशी क्रिकेट खेल रहे थे और कुछ फुटबॉल. फुटबॉल खेल रहे बच्चों की क्रिकेट खेल रहे बच्चों के साथ कहासुनी हो गई थी. गोगिया जी तुरंत बीच-बचाव में उतर पड़े, “क्या बेवकूफी है, भई? यहाँ रोज खेलना है तुम लोगो को. ऐसे लड़ोगे तो कैसे चलेगा?” समझा-बुझाकर गोगिया जी ने दोनों समूहों को अलग किया और टहलने लगे. फिर ख़ुद को तसल्ली दी, ‘सब ठीक ही तो है!’ पर अचानक उन्हें याद आया कि जब वे बच्चों से बात कर रहे थे तो शर्मा जैसा ही कोई उनकी बगल से गुजरा था पर तब वे ध्यान नहीं दे पाए. उन्होंने तय किया कि इस रोज-रोज के नाटक को वे ख़त्म करके मानेंगे. उन्होंने उड़ती नज़रों से पूरे पार्क का मुआयना किया. बहुत दूर पार्क के कोने में कोई चरवाहा अपनी भैंस लेकर घुस गया था. उस चरवाहे से शर्मा जैसा कोई आदमी बात कर रहा था. गोगिया तीर की गति से वहाँ पहुँचे. बिलकुल शर्मा ही वहाँ मौजूद था. सी पी शर्मा. शर्मा मास्टर गोगिया से बिलकुल अनजान उस चरवाहे से भैंस के लिए मोलभाव कर रहा था,
“देख लो भैया …मैं तो रेट सही लगा रहा हूँ…बेच दो मुझे. इससे ज्यादा कीमत तुम्हें इस भैंस का कोई नहीं देगा इस शहर में.”
उधर चरवाहा बार-बार अपनी मुंडी ना में हिला रहा था, “नहीं बाबूजी…चालीस हजार से कम में बिलकुल नहीं दूँगा.” साला शर्मा मिला भी तो मोलभाव करते हुए. मरने के बाद भी नोटों की गर्मी शांत नहीं हुई है इसकी! कुछ ऐसे ही सोचते हुए गोगिया जी ने शर्मा की कलाई पकड़ ली, “सी पी शर्मा ?” शर्मा ने बेहद कटी नजरों से गोगिया जी को देखा पर जवाब चरवाहे को दिया, “देख लेना भाई…कोई ज़ोर-ज़बरदस्ती तो है नहीं. मैं भी कहीं जा नहीं रहा. कल फिर मिलूँगा.” चरवाहा अपनी भैंस लेकर आगे बढ़ गया. गोगिया साहब शर्मा की कलाई उसी मजबूती से पकड़े रहे. वे डरे हुए थे कि शर्मा भाग ना जाए. इस बार शर्मा पलटा, “मेरा हाथ छोड़ो मास्टर.” उसकी आवाज में बहुत तल्खी थी. जैसे वह गोगिया जी को चबा जाएगा. गोगिया जी ने उसकी कलाई छोड़ दी. फिर कुछ सोचकर बोले, “देखो शर्मा…तीन ही बाते हैं. या तो मैं पागल हो चुका हूँ या तो पिछले समय में आ गया हूँ या फिर तुम मेरे समय में घुसपैठ कर चुके हो. “यह बोलते हुए गोगिया जी बिलकुल शांत थे और सारी तर्क-शक्ति जुटाकर शर्मा का सामना कर रहे थे.
शर्मा ने आदतन अपने सिर को अपने दोनों कन्धों पर बारी-बारी से पटककर चटकाया. पर बोला कुछ भी नहीं. बस गोगिया जी को घूरता रहा. गोगिया जी ने हलक साफ़ करते हुए सवाल दागा, “घूरकर क्या देख रहे हो शर्मा?” शर्मा ने आदत के विपरीत गंभीर होकर जवाब दिया,
“देख रहा हूँ कि आपकी अंतरात्मा अभी तक ज़िन्दा है कि नहीं.”
“मतलब?”
“मतलब कि आप पागल नहीं हुए हैं अभी तक.”
“तो पागल करने पर तुले हो?”
“जो करना था वह आपने कर ही दिया, मास्टर जी. अब मैं कर ही क्या सकता हूँ?”
गोगिया जी पूरी ताक़त से चीखे, “तो मरा हुआ आदमी वापस कैसे आ सकता है?”
“वैसे ही जैसे ज़िन्दा आदमी सपने में वर्तमान को चीरकर पिछले समय में चला जाता है और मुझे बचाने के लिए रोता-छटपटाता है.” इस जवाब की उम्मीद नहीं थी गोगिया जी को. शर्मा ने बहुत शांत होकर जवाब दिया था.
पल-दो पल के लिए दोनों चुप हो गए. फिर कुछ सोचकर शर्मा को छुआ गोगिया जी ने. शर्मा एकदम बिफ़र पड़ा, “क्यों? क्यों? मेरी हत्या कराकर चैन नहीं मिला अब तक आपको?” गोगिया पहले तो सन्न हुए, पर ऐसे काम नहीं चलने वाला था. वे भी उखड़ी हुई साँस में एक बार फिर चीख़ पड़े,
“तुझ जैसों की हत्या कोई कराता नहीं है, शर्मा…तेरी हत्या तेरी काली करतूतों ने कराई थी…समझा…समझा तू?”
चीखते हुए गोगिया जी की पूरी देह कांप रही थी. इधर धूप भी तेज हो गई थी. पसीने में दोनों नहा रहे थे. शर्मा ने बस इतना ही कहा, “समझ तो बहुत कुछ रहा हूँ, मास्टर जी…पर धूप तेज है. आपके घर चलकर अब बात करेंगे.”
घर लौटते हुए गोगिया जी ख़ुश थे कि आज इस रहस्य का भंडाफोड़ कर दूंगा. बिन्दू को बुलाकर दिखाऊँगा कि देखो यह आठवां आश्चर्य. उन्हें तो यह भी लग रहा था कि शर्मा मरा ही नहीं था. अपने नाटक में पूरे शहर को फँसा रखा है उसने. दोनों ड्राइंग-रूम में आकर बैठ गए. स्क्रीन चल रही थी. सारे फुटेज साफ़-साफ़ दिख रहे थे. बैठते ही गोगिया जी ने पूछा, “जब आना ही था तो आ ही जाते. ऐसे झाँक-झाँककर क्यों भाग जाते जाते थे?”
“देखना चाहता था कि आपकी अंतरात्मा मेरे लिए कितना कलपती है?”
गोगिया एकदम होश में थे, “तुम्हारे मरने का दुःख है मुझे.” यह कहते हुए उनकी आँखें डबडबा गईं. पर शर्मा एकदम भावहीन था, बोला “आप समझे नहीं लगता है!”
गला साफ करके गोगिया जी ने कहा, “चलो समझाओ.”
इस बार शर्मा उनको हिक़ारत से देखकर मुसकुराया, “हुंह. इकतालीस साल! इकतालीस साल आप मास्टर रहे. आप कहते थे कि किसी बच्चे को देखकर ही पहचान जाते हैं कि वह पढ़ने वाला है कि नहीं. आप हत्यारे और विद्यार्थी में फ़र्क करते हुए चूक कैसे गए मास्टर जी?”
“वो मानवीय भूल थी.”
“बिलकुल मास्टर जी…मैं भी वही कह रहा हूँ कि वह मानवीय भूल थी. भूल नहीं बल्कि मानवीय नफ़रत. पर इस हद तक मास्टर जी? मैं जो भी था, जैसे भी था, पर इतनी नफ़रत? इस हद तक कि मेरी हत्या करवा दी आपने?” यह कहते हुए शर्मा की आँखें किसी पिशाच की तरह लाल हो गईं. उसकी साँस तेजी से चढ़ने-उतरने लगी. गोगिया साहब सकपका गये. उन्होंने तत्काल चीख़ कर बिन्दू जी को आवाज देनी चाही पर वह हलक से बाहर नहीं निकल रही थी. मज़बूरी में इस भाव को उन्होंने शर्मा के आगे जाहिर भी नहीं किया. उल्टे अपने हाथ मलकर कभी फ़र्श देखते तो कभी चोर नज़र से शर्मा को. फिर उन्होंने साहस करके कहा, “देखो शर्मा…मैं तुमसे नफ़रत करता था पर इस हद तक नहीं…चाहे तुम जो सोचो.”
शर्मा ने अपनी मुंडी ना में हिलाई “नहीं नहीं, मास्टर जी…आप आधा सच कह रहे हैं. आप मुझसे नफ़रत करते थे पर अपनी सादगी और ईमानदारी को मेरे किये पर और पूरे समाज पर सिद्ध करना चाहते थे. आपके मन के कोने में यह विचार आया था उस वक्त कि वो हत्यारे कहीं से छात्र नहीं दिख रहे हैं, पर आपकी नफ़रत ने विवेक को निगल लिया था.”
गोगिया अपनी सफाई में उतर आये. भावुक होकर कहा “नहीं शर्मा, नहीं…तुम वही कह रहे हो जो तुम्हारा वकील कोर्ट में कह रहा था.”
शर्मा का मूड एकदम उखड़ गया था अब. किसी दैत्य की तरह दाँत पीसते हुए बोला, “वकील-अदालत की ऐसी की तैसी…अब क्या मतलब रहता है कोर्ट-कचहरी का मेरे लिए? बोलिए…?”
सन्नाटा पसर गया.
शर्मा बोलता रहा “पूरा मोहल्ला जानता था कि मेरे बढ़ते धन पर कईयों की नज़र थी. आये दिन मुझे धमकियाँ भी आती थीं. मैं पार्क बदलता रहता था. ऐसे में सब जानते हुए कैसे चूक हो सकती है आपसे?”
गोगिया इस बार फुसफुसाए, “अगर ऐसा होता तो मैं सक्सेना को क्यों बताता सब कुछ?”
“सिद्धि, मास्टर जी, सिद्धि…अपने भोलेपन और ईमानदारी की सिद्धि. आप मेरी लोकेशन बताकर डर गए थे. फिर उसे अपनी मासूमियत में छुपा ले गए.”
गोगिया जी की लगभग रुलाई छूट गई, “मैं निर्दोष हूँ शर्मा…बिलकुल निर्दोष.”
अब शर्मा की देह गुस्से से काँपने लगी. वह झटके के साथ खड़ा हो गया और बहुत ऊँची-ऊँची आवाज में चीखने लगा, “मास्टर जी…ओ मास्टर जी…आपने अपनी सादगी और ईमानदारी की सिद्धि के लिए मेरी बलि ले ली…”
मास्टर जी सदमे में चले गए. एकदम चुप.पर शर्मा का चीखना चालू रहा, “मैं आपको आवाज मारता रहा. उसे अनसुना कर आप घर-आँगन में मशीने लगवाते रहे. मैं पूछता हूँ कि मुझे सजा दिलाने वाले आप होते कौन हैं? किस चीज ने आपको यह अधिकार दिया?”
गोगिया जी एकदम टूट गए. बिलखकर कहा, “मैं निर्दोष हूँ…मैं निर्दोष हूँ.” उनकी आवाज धीरे-धीरे उनके गले में रुंधती चली गई.
शर्मा का मुँह घृणा से भर गया. वह और ऊँचा चीखा,
“निर्दोष मरना इतना आसान होता है क्या?”
यह कहते हुए शर्मा ने ड्राइंग-रूम के दरवाजे को ज़ोर से पटका और तमतमाते हुए बरामदा नापता चला गया. दरवाजे की पटकने की आवाज इतनी ऊँची थी कि बिन्दू जी भागती हुए ड्राइंग रूम में आईं, “किसने दरवाज़ा पटका? इतनी ज़ोर से?” गोगिया जी का चेहरा स्याह हो गया था. उन्होंने सिसकते हुए जवाब दिया, “शर्मा ने… अभी आया था वह.” उनका हाथ दरवाजे को थामे हुए था और उनकी सिसकी अब धीरे-धीरे रुलाई में बदल रही थी.
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