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प्रेम भी एक यातना है राकेशरेणु |
प्रेम क्या है?
एक उत्कृष्ट और विस्मयकारी मानवीय अनुभूति जो अंतर्मन के सूनेपन और खालीपन को न केवल सतह पर ले आए बल्कि उसे आश्वस्ति और पूर्ति के शीतल जलबोध से भर दे. संपूर्णता के अहसास से आलोड़ित कर दे. देवीप्रसाद मिश्र के शब्दों में, ‘युद्ध, कड़वाहट और वर्चस्ववाद के युग में पारस्परिकता का अनंत पुनर्वास’ करे.
प्रेम की शर्त है अहम का, आत्म का विसर्जन. सुनने में यह जितना सरल लगता है उतना है नहीं. वास्तव में इसकी प्रक्रिया बहुत ही जटिल और दुखदायी है. किन्तु मनोगत चुनौतियों का मुकाबला कर जिसने आत्म और अहम का विसर्जन कर लिया वह मनुष्यता के श्रेष्ठतम शिखर पर पहुँच गया. इस प्रक्रिया में प्रेम में डूबा व्यक्ति मनुष्यता का आदर्श बन जाता है. इस समझ का यदि विस्तार करें, किंचित दूसरे चश्मे से देखें तो अपने विस्तारित स्वरूप में यह हमें प्रकृति के करीब ले जाता है, उसी का रूप धर लेता है. यह स्त्री के करीब ले जाता है, उसी में बदल जाता है, उसी में कायांतरित हो जाता है, उसी से पोषित-पल्लवित होता है. स्त्री प्रेम में डूब कर उसकी यातनाएँ झेलती है, लहूलुहान होती है.
यह प्रेम अचानक आता प्रतीत होता है पर अचानक नहीं आता. कहीं बाहर से नहीं आता. हमारे भीतर पैवस्त होता है- केवल हृदय में नहीं, रोम-रोम में पैवस्त होता है पर हम उसे देख नहीं पाते. फिर समय आने पर यह अचानक प्रकट होता है- देह का कोना-कोना मथता हुआ, उसमें फुरफुरी, सिहरन और पीड़न भरता हुआ. जिस तरह मृत्यु पूछ कर उपस्थित नहीं होती वैसे ही प्रेम भी पूछकर प्रकट नहीं होता. वह बस प्रकट हो जाता है. जब प्रकट होता है तो यह जिद बिला जाती है कि दुनिया में प्रेम नहीं है. फिर लगता है, जब तक मानव संसार रहेगा, दुनिया में भावनाएँ रहेंगी, तब तक प्रेम रहेगा. मगर जिस तरह महज भावनाओं के साथ जीना आसान नहीं होता, प्रेम के साथ भी जीवन सीधा-सरल नहीं हो सकता. प्रेम किसी बीमारी की तरह मारने लगता है. एक त्रासदी की तरह मारने लगता है. मारने का मतलब यह नहीं कि सचमुच जान ही चली गई. अपनी भावनाओं को अपने ही पैरों तले कुचलते जाना भी किसी यातना, सजा या मृत्यु से कम नहीं. बावजूद इसके सविता सिंह कहती हैं-
प्रेम में मरना सबसे अच्छी मृत्यु है.
(किसी और रंग में, पृ 66)
सविता सिंह अपनी कविताओं में प्रेम के फ़ॉर्मूलाबद्ध स्वरूप को तोड़ती हैं. उसे एक नई ज़मीन देती हैं. उनकी अब तक की प्रेम कविताओं का संकलन प्रेम भी एक यातना है (राजकमल प्रकाशन, पहला संस्करणः2025) इसकी तस्दीक़ करता प्रतीत होता है. संग्रह में कुल 88 कविताएँ और आख़िर में ‘खुदा करे तुम्हें इश्क़ हो’ शीर्षक उपरांत कथन है. उपरांत कथन का महत्व इस बात में है कि यह कवि की प्रेम के बाबत दृष्टि और वैचारिक आयतन का ख़ुलासा करता है. बताता है कि ‘जिस प्रेम की कल्पना स्त्री करती है, यह कल्पना के बाहर ही रहती है.…. जहाँ तक जाया जा सकता है, वहाँ तक, प्रेम जहाँ खोजा जाता है वहाँ नहीं मिलता. बल्कि वहाँ प्यास का कोई एक ताल दिखता है, किसी कंपन से भरा.’
प्रेम की यह ज़मीन वही नहीं है जो सर्वविदित है. प्रेम की यह एक स्त्रीवादी दृष्टि है जो भीतरी और यातनापरक होने के साथ-साथ ऐन्द्रिक और बाहरी भी है. दोनों एक दूसरे में अंतर्ग्रथित हैं– कवि की प्रखर स्त्रीवादिता को पुष्ट करती हुई. तभी वह देख पाती है कि प्रेम स्त्री का वही नहीं होता जो पुरुष का होता है. वह देख पाती है कि आज भी प्रेम करती हुई स्त्री ही स्वीकार है, तन कर खड़ी, आत्मविश्वास से भरी, खुद को आजमाती स्त्री नहीं. देख पाती है कि प्रेम में बहुधा स्त्री ही छली जाती है-
प्रेम करती हुई स्त्री ही अब भी पसंद की जाती है
छल में भी एक अजीब जादू है
जो झूठ में नहीं
कितना मिलता-जुलता है झूठ भी सच से आख़िर
मृत्यु ज्यों प्रेम से
(पसंद की जाने वाली स्त्री, पृ 67)
इस छल को पहचानने का औज़ार उन्हें उनकी स्त्रीवादी दृष्टि देती है. पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री-पुरुष संबंध बराबरी की ज़मीन पर नहीं, ग़ैर बराबरी की काँकर-पाथर भरी सतह पर खड़ा है. इसकी बुनियाद में छल और शोषण है. इसीलिए पसंद की जा रही स्त्री वस्तुतः पसन्द नहीं की जा रही बल्कि छली जा रही स्त्री है –
उन्हीं बातों को फिर से दोहराती हूँ
प्रेम की जगह प्रेम
और छल की जगह छल रखने से
हम एक पुराने ख़तरनाक छल से बच सकते हैं
अब भी.
(रुक्मिणियाँ राधिकाएँ, पृष्ठ 69)
वस्तुतः सविता स्त्री विमर्श के अनेक रूपक गढ़ती हैं. यहाँ भाषा भी एक स्त्री है लेकिन जो भाषा हम बरतते हैं वह स्त्रियों की नहीं है. स्त्रियों के लिए नहीं है. उनके अनुकूल नहीं है. स्त्रीवादी नजरिये से देखें तो हमारी भाषा में भारी लोचा है. लगता है जैसे यह भाषा स्त्रियों को अपमानित और प्रताड़ित करने के लिए ही गढ़ी गई है. यहाँ कर्ता ज़्यादातर मामलों में आदमी या पुरुष है, स्त्री या औरत नहीं. यहाँ प्रायः सभी गालियाँ स्त्रियों के लिए हैं, पुरुषों के लिए नदारद. कुलटाएँ, वेश्याएँ, चुड़ैलें आदि सभी स्त्रियाँ हैं, पुरुष सब साफ़-सफ्फ़ाक़, उजले-धुले. ग़रज़ कि ठेठ पुरुषवादी नज़रिए से गढ़ी गई और प्रयुक्त की जा रही भाषा. भाषा के इस घर में कोई स्त्री कैसे सहज महसूस कर सकती है —
भाषा भी एक स्त्री है व्यग्र बेचैन
परंतु पड़ी हुई सुन्न
जानती शब्दों के अर्थ सत्ता परिवर्तन से
गतिशील होते हैं
प्रेम को प्रेम और सुंदर को सुंदर
बनाने में ही ध्वस्त हुईं
कितनी ही रुक्मिणियाँ
राधिकाएँ
भाषा साक्षी है इसकी अपनी विक्षिप्तता में
(रुक्मिणियाँ राधिकाएँ, पृष्ठ 69)
सविता सिंह के यहाँ प्रेम इकहरा नहीं है. यह केवल स्त्री-पुरुष का प्रेम नहीं है. केवल देह का प्रेम नहीं है. इसके विस्तार में समूची प्रकृति समाई है. इसके मानस में अस्मितावादी विचार सरणियाँ हैं. ‘मगर एक प्रेम वह भी होता है जिसे एक स्त्री करती है जिससे यह ब्रम्हाण्ड चलता है. उसकी वासना का आयतन इतना बड़ा होता है कि वह इसकी रक्षा किसी गूढ़ ज्ञान की तरह करती है, यही उसके अस्तित्व का रहस्य भी है. उसका प्रेम सिर्फ़ पुरुषों के लिए ही नहीं होता, वह नदियों, पहाडों, दुर्गम रास्तों, फूलों, पेड़ों और समस्त जीवों के लिए होता है.’ (ख़ुदा करे तुम्हें इश्क़ हो, पृष्ठ 159-160) कहना रह गया कि स्त्रियों का यह प्रेम सहधर्मिणी स्त्रियों के लिए भी होता है. ऐसा जो केवल इस जनम के लिए नहीं बल्कि जन्म-जन्मांतर का प्रेम हो –
‘वहीं जहाँ हम मिले थे पिछले जन्मों में
अपलक देखते रह गए थे एक दूसरे को
जब लगा था सारी दुनियाँ सुंदर है
कहीं कुछ भी कुरूप नहीं
प्रेम प्रकृति का नर्तन है. उसकी अतृप्तियों का विलोपन, उसे तृप्त करता, पूरता. प्रकृति इस प्रेम में समायी है. उसकी हमराह है. साथ-साथ चलती, आह्लादों पर कूची चलाती, भीतर-बाहर रंगती, अपने सात आसमान सिरजती, तारों का पथ रचती. प्रेम किसी दीप्त नक्षत्र से कम नहीं, अचानक तेज रोशनी बन कौंधता, आलिंगन में समा जाता (तारों का पथ, धन्यवाद प्रेम). इसलिए वह जो प्रच्छन्न प्रेमी है, प्रकृति की ही एक छटा है. उसी के स्पर्श की, बालों के छुअन की प्रत्याशा है (छिपा हुआ जल). अनासक्त होकर उसी को जानना है- एक दूसरे में छिपे छोटे-छोटे रहस्यों को, जैसे चिड़ियों के पंखों में छिपे छोटे-छोटे पंखों को-
अनासक्त
आसक्त एक दूसरे से
जैसे मछलियाँ लहरों से
आँखें अपनी रोशनी से
हृदय धड़कन से अपनी
(अनासक्त, पृ 82)
और इस तरह, एक दूसरे से अंतस की बातें कहें, फिर भी बचे रहें. नाचो पृथ्वी (पृ 89-90) एक साथ स्त्री और पृथ्वी दोनों का उल्लास है. यह कामनाओं की पूर्ति का, कोठार भरने का उल्लास है. प्रेम प्राप्ति नहीं, उपलब्धि है – अपने ही अंतर के आलोक से आलोकित होकर अपना साक्षात्कार करने की संवेदनशीलता! संवेदना का यह घेरा निजता के बिंदु पर खत्म नहीं होता, फैल कर बृहत्तर परिधि बनाता है – समाज, लोक और लोकोत्तर तमाम जीवों, वस्तुओं को उसमें समेट लेता है.
प्रेमी एक-दूसरे के लिए सृष्टि की भाँति हैं. उससे बेहतर कुछ भी नहीं कायनात में. उनका झुकना एक-दूसरे पर, झुकना मानो तारों का परस्पर. आसमान आँखों में उतर आना, ख़ुद का कभी हवा कभी आसमान बन गलबहियाँ करना. इस तरह सृष्टि की अनुपम कृति एक-दूसरे में समाती है, एक-दूसरे के हृदय को गेह बनाती है. चाँद के ओझल रहने वाली घनघोर काली स्याह रातों के दरम्यान लेकिन सब कुछ बदल जाता है. कुछ भी वह नहीं रहता जो पहले था कितनी ही चीज़ें मिट जाती हैं कितनी दूसरी नई सिरजती-रचती. और, जब चाँद लौटता है दो रातों बाद, सब कुछ बदल चुका होता है प्रेम में. वह बस स्मृतियों में बचा रहता है और कुछ भी तो नहीं, कहीं नहीं. (जब चाँद लौटेगा, पृष्ठ 86-87).
प्रेम जहाँ पुलक और सिहरती उम्मीद देता है, जीवन को स्वीकार और सर्जन की दृष्टि से देखने की सलाहियत देता है वहीं यह असह्य यातना का कारण भी बनता है. अन्यथा नहीं है कि प्रेम कविताओं के इस संग्रह का शीर्षक ही प्रेम भी एक यातना है रखा गया है. सविता सिंह प्रेम के यातनापरक रूप को उजागर करती हैं. वे बार-बार रेखांकित करती हैं कि प्रेम के बदले प्रेम नहीं मिला. रेखांकित करती हैं कि प्रेम की शुरुआत दरअसल यातना की शुरुआत है –
एक यातना की शुरुआत आहिस्ता से
हो चुकी थी
प्रेम भी यातना है यह जानना बाक़ी था.
(प्रेम भी एक यातना है, पृष्ठ 48)
प्रेम की उनकी अनुभूति गहरे दुख से निर्मित है. यह एक स्त्री के प्रेम में होने का हासिल है. यह प्रेम में पड़ी स्त्री को मिले एकांगी और अधूरे प्रेम से उपजा दुख है. इस कवि के पास ऐसी कविताओं की लंबी क़तार है – कैफ़े प्राग, हंस और शागाल, रूथ का सपना, प्रेम के बारे में, शैटगेः जहाँ ज़िंदगी रिसती जाती है, नींद और सपनों के बाहर आदि अनेक कविताएँ संग्रह में हैं जिनमें प्रेम यातना और दुख में तब्दील हो जाता है. प्रेम के बारे में शीर्षक कविता में वे स्त्रीवादी कवि सिल्विया प्लाथ से संवाद करती हैं. सिल्विया ने दुनिया भर की स्त्रियों को नई राह दिखाई. इसलिए सिल्विया प्लाथ का दुःख मात्र उसका ही दुख नहीं है. दुनिया भर की स्त्रियों का दुःख, यातना और यंत्रणा समायी है उसमें. सविता सिंह उसे अपनी कविता में जगह देती हैं. मुक्त करना चाहती हैं.
यहाँ दूर-दूर तक कोई पुरुष तुम्हें
इतना बेबस नहीं कर सकेगा अपनी क्रूरता से
कि तुम नष्ट हो जाओ
अपने प्रेम से नहीं मार सकेगा वह तुम्हें दोबारा
आओ अपनी बाकी कविताएँ लिखो. (पृष्ठ 106)
प्रेम में पैबस्त यातना और दुख के बावजूद इस कवि में सकारात्मक ऊर्जा और दृष्टि का अभाव नहीं है. इसलिए वह यातना और दुख के भीतर भी आह्लाद ढूँढ लेती हैं –
एक समय बाद वैसे भी दुख दोस्त की तरह
हो जाते हैं
(शैटगेः जहाँ ज़िंदगी रिसती जाती है, पृष्ठ 95)
यहाँ से देखें तो रोग की तरह प्रेम भी एक ख़तरनाक मामला है. यह जहर है साँप का जो चढ़ जाए तो उतरे ही नहीं. इन अर्थों में कि यह किसी से भी हो सकता है, गीदड़ से प्रेम हो जाए तो डरपोक बनोगे. लुटरे से प्रेम हो जाए तो दुनिया लूटना चाहोगे. झूठे से प्रेम हो जाए तो सच बोलना भूल जाओगे. हत्यारे से प्रेम हो जाए तो क्या पता हत्या में ही रस आने लगे. रोग की तरह प्रेम भी सोचने-समझने की शक्ति को हर लेता है. अपनी ही कविता ‘प्रतिरोध’ की पंक्तियाँ याद आती हैं.
सपनों में हिंडोले में झुलाने वाला प्रेम हक़ीक़त में पितृसत्तात्मक समाज में बहुत ही दुश्वार, दुख और पीड़ाओं से भरा होता है. भारतीय समाज की हक़ीक़त की पहचान मैनेजर पांडेय सही-सही करते हैं. कहते हैं कि भारतीय समाज अभी भी अर्ध-विकसित और कई मामलों में मध्ययुगीन समाज है. यह कायदे से आधुनिक भी नहीं हो पाया है. हिन्दी साहित्य में जब अस्मिता विमर्श को लेकर नकार का भाव था, मैनेजर पांडे ने तब भी समाज को आधुनिक बनाने की प्रक्रिया में इसे ज़रूरी बताया था. आज भी भारत के सामाजिक लैंडस्केप में बड़ा परिवर्तन नहीं आया है. अस्मिता विमर्श की चर्चा के बीच भारतीय कस्बों-गाँवों-शहरों की हक़ीक़त क्रूरता की हद तक स्त्री विरोधी, प्रेम विरोधी और स्त्री पीड़क है. लेकिन सविता सिंह की पहचान स्त्रीवादी चिंतक और कवि के तौर पर यों ही नहीं है. सविता खम ठोककर अपने स्त्रीवादी होने की घोषणा करती हैं. चाहे कविता हो अथवा वैचारिक साहित्य, चाहे प्रेम हो अथवा प्रकृति, उनकी कोशिश सामाजिक संरचना में व्याप्त असमानता के विरुध्द संघर्ष को धार देना है. कविता अपनी शिल्पगत कोमलता को बचाए रखते हुए पितृसत्ता की भयावहता से निजात दिलाने का उपकरण है. जिस असमानता का असर समाज पर है, सविता कविता में उसके स्याह अंधेरे कोनों को सामने लाने की सतत कोशिश करती रहती हैं. उनकी प्रेम कवितायें इस दायरे से बाहर नहीं हैं. एक रचनाकार के रूप में अपनाए गए उनके समस्त औजार एक ही उद्देश्य की पूर्ति का लक्ष्य लेकर प्रयुक्त होते हैं. वह लक्ष्य है पितृ सत्तात्मक समाज के बरक्स स्त्री को समानता, शोषणमुक्त और सम्मानजनक पायदान पर खड़ा करना.
सीधी-सरल सी लगती कविता पंक्तियाँ एक ओर कवि की नुमाइंदगी में तमाम स्त्रियों के दृढ़ संकल्प और दूसरी ओर मध्ययुगीन सामंती दृष्टि वाले समाज में युवतियों-स्त्रियों के साहस की सबल अभिव्यक्ति बन जाती हैं. अनायास नहीं है कि हर बार पलट कर इस कवि को सिल्विया प्लाथ याद आती है. याद क्या, उसी में रची-बसी है. दोनों एक-दूसरे में रचे-बसे हैं. सविता जब सिल्विया प्लाथ को आवाज़ देती हैं तो वास्तव में अपनी की चेतना को जागृत कर रही होती हैं. उसे ही ढाढ़स बँधा रही होती हैं. शक्ति दे रही होती हैं. जब उसके समाज में हर तरफ़ प्रेम में डूबी स्त्री प्रताड़ित, बलत्कृत और जाति-धर्म-खापों जनित हत्या की शिकार हो रही हो, तो सविता कहती हैं –
अपने प्रेम से नहीं मार सकेगा वह तुम्हें दोबारा
आओ और अपनी बाक़ी कविताएँ लिखो
बताओ वह कैसी उदासी थी जिसे तुम झेल नहीं पाईं
डूब गईं जिसमें अंततः
और वह भी कि अंत तक लगाते हुए आख़िरी गोता
क्या सोचा था तुमने प्रेम के बारे में.
(प्रेम के बारे में, पृष्ठ 106)
ग़ौरतलब है कि सांत्वना और संबलन की यह कविता समकालीन वैश्विक स्त्रीवादी विमर्श के उस केंद्रीय व्यक्तित्व के संदर्भ में है जिसे पितृसत्ता के पाशों के विरोध में आत्महत्या के लिए विवश होना पड़ा. वस्तुतः स्त्री इस दुख को शताब्दियों से झेलती आई है. देखती आयी है. कभी मूर्त होकर कभी नक्षत्र बनकर. ऐसे तारे को कब का डूब जाना चाहिए था लेकिन जाने क्या बात है कि चाँदनी रात, दिन के उजाले में बदल चुकी है, रात भर ख़ुशबू बिखेर प्रातः झर जाने वाला पारिजात झर कर कब का निर्कुसुम-निर्गन्ध हो चुका लेकिन यह दुस्सह और दुर्दांत तारा अस्त होने का नाम ही नहीं लेता. जाग्रत स्त्री-चेतना पर कुण्डली मारे बैठा पुरुष कालिया डूबता ही नहीं –
एक तारा था बस जो डूबने का नाम नहीं ले रहा था
शताब्दियों से देखता आया था जो इस दुख की पुनरावृत्ति.
(एक तारा बस, पृष्ठ 110)
ग़ौर से देखें तो यह प्रेम का आलाप है, उसी की हल्की थाप. वही कभी दुख सा टीसता है कभी आह्लाद बन थिरकता है. वही जो चिरंतन है डूबने का नाम ही नहीं लेता. प्रेम ही वह व्यथा है स्त्री जिसे धारे रहती है परिधान सी. यही वह स्वप्न है जिसमें संसार के और सुंदर होते जाने, किसी देह को आत्मा की तरह प्यार करने का स्वप्न देखा जा सकता है (संदर्भः पिछले साल बारिश). यह जहाँ बाँधता है एक तरफ़ वहीं दूसरी तरफ़ मुक्त करता है स्त्री को और साहस भरता है उसमें संकटों और चुनौतियों की नदी पार करने का. प्रकृति के साथ, हरीतिमा के साथ तादात्म्य बनाने का. प्रकृति और हरीतिमा उसके नए परिधान हैं. यह प्रेम बार-बार लौटता है. नए आघात लेकर लौटता है. यह एक-सा और एकरूप कभी नहीं होता. बदल जाता है. स्त्री ही है जो प्रकृतिस्थ होकर उनकी भी प्रसन्नचित्त प्रतीक्षा करती है (आघात).
प्रकृति और स्त्री रूप की अविच्छिन्न आवाजाही, मानो दोनों अलग नहीं, एक ही कृति की अनुकृतियाँ हों. सविता सिंह के प्रेम का विस्तार प्रकृति की भाँति है. उसके समस्त उपादान – जीव-जन्तु, नदी-समुंदर, पहाड़-मैदान, खेत-वन, पौधे-फूल-मौसम आदि-आदि सब प्रेम के उपादान बन जाते हैं. उनसे मिलने गलबहियाँ करने की इच्छा को सविता वासना कहती हैं –
पानी पर कुमुदनी फैली हुई थी
खिल रही थी किसी वासना की तरह
(चकित सा, पृष्ठ 130-131)
प्रेम भी एक यातना है की आख़िरी कविता ‘स्त्री सच है’ स्त्री और उसके अस्तित्व को, संसार में उनके महत्व को रेखांकित करती है. उस बहुश्रुत कथन को दोहराती है कि स्त्री ही प्रकृति है. उसके होने से ही संभव हुआ संसार. किन्तु इस स्त्री की प्यास युगों-युगों से चली आई है. बेहद प्राचीन से लगते विश्व के इस हिस्से में (जाहिरन यह हिन्दुस्तान का अबतक अर्धविकसित मध्ययुगीन पितृसत्तात्मक समाज है) वह आज भी लाँघती है प्यास –
दूर तक देख सकते हैं
समतल पथरीले मैदान हैं
प्राचीनतम-सा लगता विश्व का एक हिस्सा
और एक स्त्री है लाँघती हुई प्यास
(स्त्री सच है, पृष्ठ 156)
अन्यथा नहीं है कि सविता सिंह की कविता में सर्वाधिक प्रयुक्त होने वाले बिम्ब अँधेरा, शाम, रात, सपने या नीले रंग के हैं. ये कविता में बार-बार लौटते हैं. कविता में ये स्त्री का रुपक बन जाते हैं, उसकी कामनाओं और बेचैनी की अभिव्यक्ति भी. इन रंगों को शब्दों का बाना देखकर वे अपने प्रतिरोध को धार, दिशा और बल देती हैं.
सविता अपनी कविताओं में स्त्री प्रश्न को मनुष्यता के सम्मुख एक बड़े सवाल के तौर पर उपस्थित करती हैं. उनके उत्तर खोजती हैं. उनकी बेचैनी न केवल स्त्रियों की, बल्कि मनुष्यता की बेचैनी है. जैसा पहले कहा गया है, उनका प्रेम केवल स्त्री-पुरुष प्रेम नहीं है. उनकी स्त्री केवल एक स्त्री नहीं है. वह समूची प्रकृति है. वह पितृसत्ता से मुक्ति की कामना है. उनकी बेचैनी स्त्रियों की बेचैनी की समष्टिगत अभिव्यक्ति है. उनका प्रेम कविता में एक उदात्त समाज के सृजन की कामना है. इस संक्रमण और नये, स्त्री-दृष्टि से सम समाज के निर्माण का हासिल जो दुख और यातना हो सकती है, वह इस प्रेम की यातना है.
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राकेश रेणु का जन्म 17 अगस्त 1963 को बिहार के सीतामढ़ी में हुआ. उनके तीन काव्य-संग्रह ‘रोज़नामचा’, ‘इसी से बचा जीवन’ और ‘नए मगध में’ प्रकाशित हैं. उन्होंने ‘समकालीन हिन्दी कहानियाँ’ और ‘समकालीन मैथिली साहित्य’ का संपादन तथा ‘यादों के झरोखे’ का संकलन-संपादन किया है. उनके साहित्यिक लेखों का संकलन ‘प्रसंगवश’ और मीडिया समालोचना की पुस्तक ‘मीडिया के सरोकार’ उल्लेखनीय हैं. उन्होंने ‘रेणु के उपन्यास’ का भी संकलन-संपादन किया है. वे ‘योजना’, ‘कुरुक्षेत्र’, ‘रोज़गार समाचार’ और ‘बाल-भारती’ जैसी पत्रिकाओं के संपादन से भी संबद्ध रहे हैं. उन्हें साहित्य संस्कृति सम्मान से सम्मानित किया गया है. ईमेल: pran.b339@gmail.com |

राकेशरेणु


बहुत बढ़िया!
कवि जब आलोचना करे तो वह ऐसी ही अद्भुत रचना होगी। राकेशरेणु और सविता सिंह के साथ-साथ समालोचन टीम को भी बधाई!
हासिल हुआ:
एक तारा था बस जो डूबने का नाम नहीं ले रहा था
शताब्दियों से देखता आया था जो इस दुख की पुनरावृत्ति.
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अच्छा आलेख।
बधाई ।
सुबह विश्वनाथ त्रिपाठी की प्रिय दर्शन से मुलाक़ात का नोटिस आया । साढ़े दस बजे थे और तब फ़ोन उठा सका । घर के कामों में व्यस्त था । सुबह की चाय नहीं पी थी । वहाँ टिप्पणी के नाम पर चाय न पीने का ज़िक्र करते १५ मिनट खपा दिये । वह नशा चढ़ गया । चाय बनाने में मुझे २५ मिनट चाहिए । बनने की इंतज़ार में द संडे एक्सप्रेस देखा । ३-४ दिनों से नये कलेवर में । वर्षों बाद आमूल परिवर्तन । नयापन कोंपल की तरह महकता है । उसकी शक्ल की महक बदन तक पहुँचती है ।
चाय पी चुके । प्रेम के नशे का समालोचन सामने आया । मैं औपचारिक होकर टिप्पणी नहीं करता । मेरी कमज़ोरी समझ लीजिए । कइयों के प्रिय राजकमल प्रकाशन ने छापा । प्रकाशक ख़रीदने के लिए उकसाता है । अगली खेप में पक्का । खेप जैसे समुद्री जहाज़ से आती है । बंबई के तट पर नहीं बल्कि हमारे घर के पते पर ।
सबसे पहले सविता सिंह जी को बधाई । इनसे मेरा भावनात्मक नाता है । वही बा-ज़रिए परिचित पंकज सिंह जी के । सविता जी ने
कविताओं का अहसास गहराई से किया । उठती गिरती लहरों की तरह । प्रेम पारस्परिकता है । एक-दूसरे को आत्मसात् करना । बहाना है बन जाने और हो जाने का । राकेश रेणु जी का ज़िक्र न रह जाए । उन्होंने समालोचन के माध्यम से वाक़िफ़ कराया ।
प्रेम पितृसत्तात्मक क़तई नहीं है । हम मध्ययुगीन नहीं हैं । नित्य नूतन हैं । हर सूर्योदय प्रेम जताने के नये तरीक़े बनाता है । रेसिपी है । सविता सिंह जी के शब्दों में यातना नहीं है । यद्यपि विरह की पीड़ा है । इस पीड़ा से पुलक कर प्रकट होता है ।
यदि एकतरफ़ा है और स्त्री के शुरुआत की ज़िम्मेदारी है तो निश्चित रूप से पुरुष दोषी है । जेनेटिक रूप से स्त्री आक्रामक नहीं है । प्रेम प्रकट करने की प्रतीक्षा है । स्त्री को पुरुष के जल्दी प्रेम जताने से वह विमुख हो जाती है । इंतज़ार करना पड़ेगा । प्यार निरा दैहिक नहीं है । आत्मिक है, आभा है, यहाँ लिखा कि भाषा है । नयनों में देखना चाहती है । रोम रोम से उठता रंध्रों में समाना चाहिए ।
हौले से आता है । रास्ते बदलता है । ढंग बदले हुए चाहिए ।
बस इतना ही । प्रोफेसर अरुण देव जी मेरी सीमा जानते हैं । मेरा यहाँ इति नहीं है; इसका वर्तुल आदि तक पहुँचता है ।