जेएनयू के भारतीय भाषा केंद्र में उस समय मैनेजर पाण्डेय, केदारनाथ सिंह और वीरभारत तलवार जैसे दिग्गज थे, लेकिन पुरुषोत्तम अग्रवाल का अपना अलग दबदबा था. शोधार्थियों पर उनका प्रभाव संक्रामक था और उनकी कक्षाएँ बौद्धिक उत्तेजना से भरी होती थीं. उनसे किसी तरह की कोई छूट कभी भी नहीं ली जा सकती थी.
मिलने पर उनका पहला सवाल यही होता, “आजकल क्या पढ़ रहे हो?” इस प्रश्न के उत्तर में दो ख़तरे हमेशा रहते. यदि आपने किसी हल्की पुस्तक का नाम लिया तो ख़ैर नहीं, और यदि वह वाकई महत्वपूर्ण निकली तो फिर गम्भीर चर्चा में उतरना ही पड़ता. अधिकांशतः वे पुस्तकें पहले से उनकी पढ़ी हुई होतीं. साहित्य के साथ समाज-विज्ञान को समान महत्व देना उनकी विशिष्ट धारा थी. यह पुरुषोत्तम अग्रवाल की परम्परा है. साहित्य पढ़ते-पढ़ते क्रिस्टोफर आर. किंग, केनेथ डब्ल्यू. जोंस, सुधीर चंद्रा, आशीष नंदी, पार्थ चटर्जी, निकोलस बी. डर्क्स, देरिदा, एडवर्ड सईद जैसे विचारकों तक को पढ़ जाना पड़ा.
सामान्य को विशिष्ट बनाने और प्रचलित में छुपे अंतर-विरोधों की तलाश के अपने सुख थे. गुरुओं की अकादमिक हैसियत से शिष्यों का पदानुक्रम निर्धारित होता था. और उनमें अक्सर तलवारें खींची रहती थीं, स्थापनाओं का रक्तरंजित युद्ध चलता ही रहता. देशी-विदेशी विद्वानों से नए-नए प्रक्षेपास्त्र हस्तगत किए जाते पर प्रहार करते समय अगर वे राजनीतिक रूप से कहीं ग़लत साबित हुए तो खुद की सेना के संहार का ही खतरा उत्पन्न कर देते थे. दायाँ-बायां तो था पर अगर विद्वता हो तो सम्मान दिया जाता था. मैंने सेंटर में किसी भी अध्यापक को इस आधार पर पक्षपात करते हुए नहीं देखा था.
पुरुषोत्तम अग्रवाल से मेरी पहली मुठभेड़ एक ‘साक्षात्कार’ के दौरान हुई. भारतीय लोकतंत्र के सामने आ खड़ी हुई साम्प्रदायिक राजनीति से सामना करती उनकी अपने तरह की पहली आलोचनात्मक पुस्तक, ‘संस्कृति: वर्चस्व और प्रतिरोध’ छप कर पर्याप्त चर्चित प्रशंसित हो चुकी थी. दूसरी पुस्तक ‘तीसरा रुख़ ‘ के लिए उन्हें देवीशंकर अवस्थी सम्मान मिला ही था. यह पुस्तक नामवर सिंह की आलोचना-परंपरा का अगला चरण कही जा सकती है. शीर्षक यही ध्वनित करता है. यह संयोग नहीं कि जब नामवर सिंह से उनके श्रेष्ठतम शिष्यों के नाम पूछे गए तो दो में से एक नाम पुरुषोत्तम अग्रवाल का था. ज़ाहिर है इस सम्मान के लिए वह सर्वथा योग्य थे और इस पुरस्कार ने अब तक जो कुछ अच्छे चयन किए हैं उनमें से एक वह हैं.
साक्षात्कार में मेरा पहला सवाल ही पुरस्कारों की विश्वसनीयता को लेकर था. उसी शाम उनके घर जनसत्ता के संपादक ओम थानवी भी मौजूद थे. मेरी ओर इशारा कर अग्रवाल जी हँसते हुए बोले— “देख रहे हैं, ये मेरे छात्र हैं और मुझसे पूछ रहे हैं कि मैंने यह पुरस्कार पाने के लिए कोई जोड़-तोड़ की है” फिर थोड़ी देर सोचकर कहा, “यह केवल जेएनयू में ही संभव है.” और मेरी ओर देखकर जोड़ा, “मैं इसका ज़रूर जवाब दूँगा.” यह विस्तृत साक्षात्कार पल प्रतिपल (1997) में प्रकाशित हुआ.
उस समय वह कबीर पर अपनी महत्वाकांक्षी परियोजना को अंतिम रूप दे रहे थे. देशज आधुनिकता से कबीर को जोड़ना उनके विमर्श का केंद्रीय बिंदु है. यदि अंग्रेज़ यूरोप से भारत न आए होते तो क्या हम आधुनिक नहीं हो पाते? क्या भारत अपनी ही सांस्कृतिक संसाधनों से आधुनिक नहीं हो सकता था? ऐसे विषयों पर उन दिनों वह बड़े उत्साह से चर्चा किया करते थे. इस बीच उनकी एक और आलोचना पुस्तक आई ‘विचार का अनंत’ जिसमें कबीर पर लिखे हुए उनके पाँच लेख शामिल थे. इसके साथ ही भक्ति मीमांसा की श्रृंखला पर भी कार्य कर रहे थे. इसके वे सूत्रधार और श्रृंखला संपादक थे. भक्ति साहित्य के दूसरी भाषाओं के विद्वान के कार्यों का संपादन और प्रकाशन होना था जिसके अंतर्गत डेविड एन लोरेंजन का अनुवाद ‘निर्गुण संतों के स्वप्न’ प्रकाशित हुआ. इसी क्रम में 2009 में ‘अकथ कहानी प्रेम’ की और 2023 में श्यामसुंदर दास सम्पादित ‘कबीर ग्रंथावली’ का परिमार्जित संस्करण सामने आया.
पुरुषोत्तम अग्रवाल में एक एक्टिविस्ट हमेशा मौजूद रहा है. उनकी सामाजिक-राजनीतिक सक्रियता उन्हें संघ लोक सेवा आयोग तक ले गई, जहाँ सदस्य के रूप में उनके कार्य की व्यापक सराहना हुई. पर मुझे आज भी लगता है कि जेएनयू के भारतीय भाषा केंद्र में उनके जैसे अध्यापक की अधिक आवश्यकता महसूस की जाती रही होगी. ऐसे विद्वानों की वास्तविक ज़रूरत विश्वविद्यालयों में है, जहाँ आलोचनात्मक परंपरा धीरे-धीरे सिमट रही है. जब वह यूपीएससी के सदस्य थे तब उनके सरकारी आवास में एक बार उनसे मिलने का अवसर मिला था. उनका अध्ययन-कक्ष अद्यतन था.
नामवर सिंह ने एक बार कहा था कि ‘विश्वविद्यालय ज्ञान के कब्रगाह हैं’ अगर आज वह होते तो उन्हें कहना पड़ता कि अब वे पक्के कंक्रीट के बन गए हैं, जिनका उत्खनन भी कठिन है.
मेरे दूसरे कविता-संग्रह ‘कोई तो जगह हो ‘ के प्रकाशन के लिए पुरुषोत्तम अग्रवाल ने न केवल प्रेरित किया, बल्कि ब्लर्ब भी लिखा और विमोचन में भी शामिल हुए. एक अध्यापक अपने विद्यार्थियों को अलग-अलग तरीकों से सक्रिय करता है; यही ज्ञान के विकास और प्रसार का तरीका है. यदि उनमें आलोचनात्मक साहस पैदा कर दे तो कहना ही क्या.
पुरुषोत्तम अग्रवाल में तीक्ष्ण और मारक वाग्मिता है. इस अर्थ में वे नामवर सिंह के निःसंदेह योग्यतम शिष्य हैं. समाज-विज्ञान से जोड़कर उन्होंने इस परंपरा को और समृद्ध ही किया है. उन्हें सुनना हमेशा प्रबोधक अनुभव होता है. नामवर सिंह अंग्रेज़ी में लिखने और बोलने में सक्षम थे. पुरुषोत्तम अग्रवाल अंग्रेज़ी में भी लिखते और बोलते हैं. कई विदेशी विश्वविद्यालयों के विजिटिंग प्रोफेसर के लिए यह आवश्यक भी है. ‘हू इज़ भारत माता’ और ‘पद्मावत ‘ मूलतः अंग्रेज़ी में ही लिखे गए. पद्मावत एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक है जिसे देवदत्त पटनायक की प्रस्तावना और रेखांकन ने और भी विशिष्ट बना दिया है.
समालोचन में उनकी कहानी नाकोहस छपी जिस पर राकेश बिहारी की असहमतियाँ भी प्रकाशित हुईं. यह संपादक का अपना ‘स्वधर्म’ है और यह जोखिम तो वह हर दिन उठाता ही है.
आज जब सर सत्तर वर्ष के हो चुके हैं, उन्हें याद करते हुए उनके महत्व का गहरा एहसास होता है. उन्हें याद करना अपने प्रिय शिक्षक, मित्र और मार्गदर्शक को याद करना है. आलोचना उनके लिए केवल अकादमिक अभ्यास नहीं रही, बल्कि समाज के विवेक को जाग्रत करने का माध्यम बनी. उनसे फिर पढ़ने और उन्हें सुनने का मन करता है. निस्संदेह, वे हमारे समय के एक अपरिहार्य सार्वजनिक बुद्धिजीवी हैं.
उनकी शतायु होने की और उनकी अक्षुण्ण सार्थकता की कामना करता हूँ.
अरुण देव
पुरुषोत्तम अग्रवाल की आलोचना दृष्टि
आनंद पांडेय
पुरुषोत्तम अग्रवाल हिंदी के वरिष्ठ आलोचक और साहित्य चिंतक हैं. करीब पाँच दशकों की उनकी आलोचना यात्रा वैश्विक परिप्रेक्ष्य में भारतीय समाज और संस्कृति के तमाम असहज करने वाले मुद्दों और प्रश्नों से टकराती रही है. उन्होंने आलोचना के आयतन को विस्तृत कर उसे ‘सभ्यतामूलक जिज्ञासा’ में रूपांतरित करने का प्रयत्न किया है. किसी विशेष विचारधारा, साहित्यिक वाद, या दृष्टि की वकालत और प्रतिष्ठा के बजाय उन्होंने अपने लिए आलोचना को समाज में आलोचनात्मक दृष्टि और विवेक के निर्माण के नैतिक दायित्व से संपन्न करने का लक्ष्य रखा है. इस लक्ष्य की प्राप्ति की प्रक्रिया में उन्होंने आलोचना को अधिक दायित्वपूर्ण और उत्तरदायी बनाया है. इस भूमिका के निर्वाह में आलोचना सक्षम हो; इसके लिए अपनी ओर से उन्होंने अविराम बौद्धिक और नैतिक संघर्ष किया है. उनकी विलक्षण मेधा और विकल चिंतनशीलता ने उनके व्यक्ति को कभी विश्राम नहीं लेने दिया. उनका उर्वर मस्तिष्क कभी क्लांत हुआ और न ही शांत इसलिए उनकी आलोचना में कभी ठहराव आया और न ही दुहराव. उनके वैचारिक ओज और प्रखरता ने उन्हें स्पृहणीय ऊँचाई दी. उनकी शोधपुष्ट और सुचिंतित आलोचना ने उन्हें हिंदी समाज और संस्कृति के केंद्र में एक अपरिहार्य और हस्तक्षेपकारी उपस्थिति दी. उद्विग्न चिन्तनशीलता और तीक्ष्ण तर्कणा से संपन्न उनकी आलोचना इत्मीनान और सुविधापरक वैचारिक निरूपणों एवं स्थितियों के विरुद्ध सतत सांस्कृतिक कर्म है.
आलोचना उनके लिए श्वेत-श्याम श्रेणियों में बँटने-बाँटने के बजाय रचना को उसके परिवेश की जटिलता में देखने और समझने का अनुशासन है. वैचारिक शिविरबद्धता और साहित्य सिद्धांतों के आधार पर वे लेखक और रचना को ख़ारिज और दाख़िल करने के बजाय उससे संवाद और जिरह में रुचि लेते हैं. मोटेतौर पर वृहत्तर संस्कृति के विवेक से चलना, ख़ारिज-दाख़िल करने की प्रवृत्ति से बचना और पाठ को विचारोत्तेजक मुखामुखम, जिरह और संवाद में बदलना उनकी आलोचना की दुर्लभ विशेषताएँ हैं. उनकी आलोचना वैचारिक शिविरबन्दी, साहित्य सिद्धान्तों के अतिरेकी एवं यांत्रिक अनुपालन और उपलब्ध विकल्पों में से किसी एक के सुविधापूर्वक चयन की सर्वव्यापी कुप्रवृत्तियों का प्रतिहार करती है.
पुरुषोत्तम अग्रवाल की आलोचना शास्त्र निरूपण के बजाय सतत ‘जिज्ञासु आत्मचेतनता’ के धर्म निर्वाह पर बल देती है. इसीलिए वे आलोचना को अंतिम नहीं, ‘अंतरिम रिपोर्ट’ कहते हैं. जाहिर है, उनका आशय यह है कि कोई भी आलोचना अंतिम पाठ, व्याख्या और अर्थ-मीमांसा नहीं होती है. वह हमेशा अंतरिम ही हो सकती है क्योंकि कोई भी पाठ सदैव नये युग-संदर्भ में नयी आलोचना के लिए खुला रहता है.
पुरुषोत्तम अग्रवाल के लिए आलोचना रचना की व्याख्या और मूल्यांकन तक ही सीमित नहीं है बल्कि समाज और मानव अस्तित्व के वृहत्तर आयामों तक विस्तृत एक सांस्कृतिक गतिविधि है. अपनी आलोचना यात्रा के आरंभ में ही उन्होंने साहित्य और आलोचना की सांस्कृतिक भूमिका की पहचान कर ली थी. इसलिए वे साहित्य की आलोचना को संस्कृति की आलोचना के रूप में विकसित करते हैं.
वे सायास ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि जो साहित्य, आलोचना का उपजीव्य है वह स्वयं गहरे अर्थों में सांस्कृतिक है. ‘साहित्य नितांत वैयक्तिक सृजन’ होते हुए भी ‘सांस्कृतिक संदर्भ’ के बिना असंभव है. यह सांस्कृतिक संदर्भ इसलिए भी व्यापक है क्योंकि उनकी दृष्टि में “साहित्य का संबंध मनुष्य की किसी एक गतिविधि, मनुष्यत्व के किसी एक पहलू से न होकर उसकी समग्रता से है.” साहित्य का यह समग्रताबोध अनिवार्यत: उसको सांस्कृतिक बनाता है. फलतः उनकी दृष्टि में आलोचना का प्रमुख धर्म संस्कृति से रचना के ‘अंतस्सम्बन्ध का निरूपण करना है.’ क्योंकि— ‘संस्कृति के सवाल आलोचना के भी सवाल हैं.’
अपनी प्रविधि और प्रकार्य में आलोचना विशिष्ट अनुशासन है. फिर भी संवेदना और ज्ञान के सभी स्रोतों को समाविष्ट करने में वह अद्वितीय साहित्य विधा है. जो तत्व संस्कृति को निर्मित करते हैं; आलोचना उन्हें अपना विषय बनाती है. पुरुषोत्तम अग्रवाल के लिए आलोचना एक गम्भीर बौद्धिक, सौंदर्यशास्त्रीय और समाजवैज्ञानिक अनुशासन है. ऐसे में यह स्वाभाविक है कि उनकी दृष्टि में साहित्य और आलोचना के लिए संवेदनशीलता के साथ ज्ञान की भी आवश्यकता होती है. उनके लिए सच्चे साहित्य का गम्भीर पाठ अनिवार्यतः ‘सभ्यतामूलक जिज्ञासा’ में पर्यवसित होता है. उन्होंने अपनी आलोचना के माध्यम से सभ्यतामूलक जिज्ञासा की सुदीर्घ और ज्ञानवर्धक यात्राएँ की हैं. इसका एक उदाहरण कविता की संस्कृति की खोज में उनका बहुदेववादी और एकेश्वरवादी परंपराओं का तुलनात्मक विश्लेषण है. वे पाते हैं कि कविता के प्रति पैग़म्बरी-एकेश्वरवादी परम्पराएं प्रतिकूल रही हैं जबकि बहुदेववादी परम्पराएं काव्यात्मक रही हैं. बहुदेववाद को वे वैश्विक परंपरा के रूप में देखते हैं. इस उपक्रम में उनकी कविता की खोज सहज रूप से ‘सभ्यतामूलक जिज्ञासा’ में अंतर्भुक्त हो जाती है.
वह इतिहास की तमाम जटिलताओं और विरूपताओं को एकेश्वरवाद और बहुदेववादी की तुलना-क्रम में विश्लेषित करते हैं. कबीर संबंधी उनका अध्ययन भी इस दृष्टि से एक कालजयी दृष्टांत है. कबीर की कविता के प्रति सहज आकर्षण उन्हें भारतीय और यूरोपीय सभ्यता के शाश्वत प्रश्नों, वर्णव्यवस्था, आधुनिकतावाद, उपनिवेशवाद, प्राच्यवाद जैसी संरचनाओं और उनकी राजनीति की ‘सभ्यतामूलक जिज्ञासा’ की ओर खींच ले जाता है. साहित्य के पाठ के प्रयोजन से शुरू करके वे बार-बार सभ्यतामूलक जिज्ञासा से अनुशासित होते हैं. इस जिज्ञासा को शांत करने के उपक्रम में वे साहित्य और आलोचना को सभ्यता समीक्षा के रूप में जीवंत करते हैं. यह जिज्ञासा वह स्वर्ण मृग है जो शिकार के लिए सहज रूप से आकर्षित तो करता है लेकिन अपने छल से वह आलोचक को शोध, अध्ययन और चिंतन के कष्टप्रद वन में भटकने के लिए छोड़ देता है! इस जिज्ञासा की शुरुआत साहित्य के आकर्षण से होती है लेकिन परिणति व्यापक ज्ञानलोक की खोज में ही हो सकती है. विशाल अध्ययन, विचारोत्तेजन, बौद्धिक तनाव तथा सही दिशा और दृष्टि ही भटकाव से बचाकर सही निष्कर्ष की ओर ले जा सकती है. इन शर्तों को पूरी करने की वजह से पुरुषोत्तम अग्रवाल की सभ्यतामूलक जिज्ञासा मानवीय सरोकारों और बेहतर भविष्य के लिये मूल्यवान सिद्ध होती है. इसलिए अंतर अनुशासनात्मकता उनकी आलोचना को ‘ज्ञान राशि का संचित कोश’ बनाती है.
महावीरप्रसाद द्विवेदी ने जो कसौटी साहित्य के लिए स्थिर की थी वही कसौटी पुरुषोत्तम अग्रवाल अपनी आलोचना के लिए भी तय करते हैं. इसलिए वे साहित्य को संवेदना और कला की ही नहीं बल्कि इतिहास, संस्कृति और ज्ञान परंपरा में भी अवस्थित करके देख पाते हैं. उनके लिए साहित्य है ही– ‘ज्ञान और संवेदना के तनावसिद्ध संतुलन का विशिष्ट क्षेत्र.’ इस तनाव की सिद्धि संवेदनात्मक गहराई और ज्ञान पिपासा की साधना-साध्य यात्रा की माँग करती है. रचनाकार और आलोचक दोनों को यह यात्रा करनी ही पड़ती है. अग्रवाल अपने को इस यात्रा का एक अथक यात्री बनाते हैं— ‘ताकि फिर से लिखा जाए सभ्यता का पाठ.‘ उनका जीवन और कर्म, इसकी गवाही देते हैं.
दो)
साहित्य तमाम भेदों और विशिष्टताओं के मध्य मनुष्यमात्र की संवेदनात्मक एकता का वाहक है. इस संवेदना का विस्तार सृष्टि के चर-अचर सभी रूपों तक विस्तृत है. आलोचना का मुख्य कार्य साहित्य के इस भावनात्मक भंडार को भेदपरक विभाजनों और आग्रहों में उलझकर निष्प्रभावी होने से बचाना और इसे मुक्तिदायी ज्ञान में रूपांतरित करना है. पुरुषोत्तम अग्रवाल की आलोचना इस दृष्टि से अत्यंत सजग है. उनकी आलोचना के प्रतिमान उतने ही स्थानिक और सार्वजनीन हैं, जितने कि श्रेष्ठ साहित्य के होते हैं. वे समस्त विभेदों और उत्पीड़नों के परे स्वतंत्र और सार्वभौम मानवीय मूल्यों से संपन्न साहित्य को महत्व देते हैं. यही साहित्य की साहित्यिकता है. इसी रूप में वह संवेदना और दृष्टि का विस्तार करता है. इसलिए वे ‘औपनिवेशिक ज्ञानकांड’ के जितने प्रबल आलोचक हैं उतने ही जनपदीयतावाद के भी. आलोचना और रचना के क्षेत्र में देशज-विदेशज के विभाजन के बजाय वे औपनिवेशिक तथा मुक्त मूल्यों-दृष्टियों में विवेक पर बल देते हैं. शिवदान सिंह चौहान की आलोचना के मानों का विश्लेषण करते हुए वे लिखते हैं कि उन्होंने, “सार्वभौम मानवीय मूल्यों पर आधारित वस्तुनिष्ठ आलोचना के मान प्रस्तावित किये हैं.” ये मान स्वयं पुरुषोत्तम अग्रवाल ने भी अपनी आलोचना में आत्मसात किये हैं. इसलिए देशज आधुनिकता के अन्वेषी और उपनिवेशवाद विरोधी आलोचक होने के बावजूद वे ‘ऑक्सीडेंटलिस्ट’ होने से इनकार करते हैं. उनके देशज का प्रतिपन्थी पद विदेशज नहीं, ‘औपनिवेशिक’ है.
देशज मूल्य भी उनके लिए मूल्य निरपेक्ष नहीं, सापेक्ष हैं. मूल्य-निकष पर वे देशज आधुनिकता को स्वीकार्य पाते हैं तो इसलिए नहीं कि वह अपने देश की विरासत है बल्कि इसलिए क्योंकि ‘धर्म, जाति, देश आदि से परिभाषित होने वाले मनुष्य’ को वह उसकी ‘मूलभूत मनुष्यता’ से परिभाषित करती है. जाहिर है, उनके लिए देशज स्वयं में कोई निरापद मूल्य नहीं है सो उसके नाम पर सब कुछ स्वीकार्य भी नहीं है. इससे उनमें समस्त स्वीकार्य को देशज सिद्ध करने का मोह भी नहीं जागता है. उनकी देशज आधुनिकता संकीर्ण और उग्र राष्ट्रवाद और विशुद्धताग्रही भारतीयता नहीं है. वह आस्था नहीं, विवेक का विषय है. जड़ नहीं गतिशील मूल्य है. ‘प्रामाणिक भारतीयता की खोज’ उनके लिए उस भारतीयता की खोज है जो आस्था और परंपरा की विविधता को स्वीकार करे और जो राष्ट्रीयता की सीमा रेखा के परे की संस्कृतियों के प्रति जिज्ञासु और संवादी हो. विरोध को तज अविरोध की ओर ले जाने वाली हो. इसलिए उनके लिए औपनिवेशिक पराधीनता का विकल्प भारत व्याकुल देशजता नहीं है. वे आरम्भ में ही पहचान सके थे कि “यूरोपीय सभ्यता के सांस्कृतिक औपनिवेशीकरण से त्रस्त सभ्यताओं के पास दो लोकप्रिय विकल्प हैं, बल्कि कहें, दो सुविधाजनक युक्तियाँ हैं— भीषण आत्मधिक्कार की युक्ति, या उतने ही भीषण आत्ममोह-ग्रस्त महिमामंडन की युक्ति.”
वह इन दोनों युक्तियों से बचते हुए उस विवेक को अर्जित करते हैं जो वैज्ञानिक दृष्टि से देशज परंपरा और उपनिवेशवाद दोनों को एक ही कसौटी पर कसता है— “पक्ष और प्रतिपक्ष के रुप में परंपरा और आधुनिकता को नहीं, बल्कि प्रगति और जड़ता, मुक्ति और बंधन को देखना चाहिए.” वे स्वयं को देशज परंपरा से जोड़ते हैं. यह परंपरा शास्त्र से अधिक जनभाषाओं में अभिव्यंजित और संचित काव्य की परंपरा है. वे परंपरा और संस्कृति की प्रगतिशीलता की रक्षा भी उन ‘भारत व्याकुल’ बुद्धिजीवियों से अधिक सफलतापूर्वक करते हैं जो यूरोपीय सांस्कृतिक वर्चस्व से आतंकित होकर देशज परम्पराओं की शरण में आश्वासन ढूंढने के नाम पर असल में उसी आधुनिकता में फंसने की बिडम्बना से ग्रस्त होते हैं, जिसका विकल्प वे ढूंढना चाहते हैं. उनके हिसाब से अंततः भारत व्याकुलता स्वयं में एक उपनिवेशीकृत मानस की बेचैनी है. अपने देश की सांस्कृतिक पूँजी से परिचय और इतिहास का ज्ञान एक बात है और व्याकुलतावश सब कुछ को न्यायोचित ठहराना दूसरी बात है. पहली बात के पक्ष का स्वीकार और दूसरे पक्ष का प्रतिकार करने में उनकी आलोचना विकसित होती है.
समग्र सांस्कृतिक कर्म के बावजूद साहित्य एक विशिष्ट कल्पना प्रवण सर्जनात्मक विधा है. संसार को देखने और अनुभव करने का उसका अपना ढंग है. पुरुषोत्तम अग्रवाल जहाँ एक ओर साहित्य को संस्कृति के वृहद परिसर में संचरित मानते हुए समझते हैं वहीं दूसरी ओर साहित्य के स्वभाव और वैशिष्ट्य को भी महत्त्व देते हैं. उन्होंने अपनी आलोचना में अन्य ज्ञानानुशासनों से साहित्य की विशिष्टता और विलक्षणता के विवेक पर बल दिया है. ‘पद्मावत’ को इतिहास-ग्रंथ के रूप में पढ़ने के आग्रहों के समानांतर वे उसे साहित्यिक कृति के रूप में पढ़ने का आग्रह इसी विवेक के सहारे करते हैं. इसी तरह कबीर और जायसी को संत और फकीर के बजाय एक कवि के रूप में पढ़ने पर बल देते हैं. उनके काव्य को ‘फोकट का माल’ नहीं बल्कि मूल मन्तव्य मानते हैं. इसी विवेक के बल पर वे सभी प्रकार के लेखन को एक ‘पाठ’ मानने के उत्तर आधुनिकतावादी प्रत्यय का भी प्रतिकार करते हैं.
उनकी आलोचना, रचना के स्वभाव और स्वधर्म की पहचान और रक्षा के प्रति प्रतिबद्ध है. वे रचना से किसी विचारधारा या राजनीति के अनुसरण और प्रचार की अपेक्षा नहीं करते हैं. उनकी दृष्टि में सामाजिकता रचना में सहज रुप से अंतर्निहित होती है. इसलिए किसी प्रदत्त सामाजिकता की कसौटियों पर उसे जाँचने के बजाय उसका संवेदनशील पाठ आलोचना का प्राथमिक दायित्व है. किसी पूर्वनिर्मित परियोजना और वैचारिकी को सशक्त और प्रासंगिक सिद्ध करने की कोशिश में रचना का ईंट-गारे की तरह इस्तेमाल आलोचना का धर्म नहीं है. वे रचना को किसी विचारधारा के दृष्टांत के रूप में पढ़ने की प्रवृत्ति को आलोचना की व्याधि मानते हैं, “स्थिति यहाँ तक है कि आलोचक किसी के कवि कर्म का विश्लेषण करता है, तो कविता के साथ संवाद का रिश्ता बनाने की बजाए, कवि कर्म को किसी वैचारिक ‘कंस्ट्रक्ट’ का ऐसा उदाहरण भर बना देता है, जिसे कविता की ‘अतिव्याख्या’ (ओवरइंटरप्रेटेशन) के सिवा कुछ नहीं कहा जा सकता.” वे रचना के पास मुक्त हृदय और पूर्वग्रह रहित मानस के साथ जाने को आलोचना का प्रस्थान बिंदु मानते हैं. साहित्य उनकी दृष्टि में ‘आत्मसन्दर्भित’ होता है. साहित्य के इसी ‘आत्म संदर्भ’ में जगतसन्दर्भ भी सहज रूप से समाविष्ट रहता है. जो आलोचक अपने पूर्व निर्धारित निष्कर्षों को पुष्ट करने के लिए रचना के समक्ष जाते हैं वे स्वयं रचना के निष्कर्षों की परवाह नहीं करते हैं. पुरुषोत्तम अग्रवाल निष्कर्षप्रेमी आलोचना की राजनीति को भलीभांति समझते हैं इसलिए आलोचना के इस अतिचार को निरर्थक मानते हैं—
“पहले से तय कर लिए निष्कर्षों को सिद्ध करने भर के लिए कविता को पढ़ना व्यर्थ है.” स्वाभाविक है कि वे निष्कर्ष के साथ-साथ उस तक पहुंचने की पद्धति और प्रविधि को भी महत्त्वपूर्ण मानते हैं,
“आलोचना में निष्कर्ष तक पहुंचने की पद्धति का महत्त्व निष्कर्ष से कम नहीं होता, शायद कई बार ज्यादा ही होता है, क्योंकि आलोचक के आग्रह, प्रतिमान और उसकी चिन्ताएं आलोचनात्मक पद्धति में ही विश्वसनीय रूप से अभिव्यक्त होती हैं.”
पुरुषोत्तम अग्रवाल रचना ही नहीं, आलोचना के भी स्वधर्म की पहचान और रक्षा की जरूरत पर बल देते हैं. अपनी आलोचना यात्रा के आरंभ में ही उन्होंने आलोचना के संदर्भच्युत और पाठच्युत ‘दो रुखों’ को देखा था इसलिए ‘तीसरे रुख़’ की दिशा में अपनी आलोचना को गतिमान बनाया. आलोचना के तीनों रुखों में अंतर उनके इस कथन को पढ़ने से स्पष्ट होता है,
“हमारे सामने एक आलोचना वह है जिसने स्वेच्छा से दोयम दर्ज़ा स्वीकार कर लिया है. वह रचना की अनुगामिनी है. न उसके अपने सरोकार हैं, न सांस्कृतिक स्थिति के बोध से उपजने वाला उसका अपना एजेंडा.… एक आलोचना वह है जिसने आलोचना के आत्मबोध का ही विशद-शास्त्र गढ़ लिया है, जो रचना और संसार से निर्लिप्त दीनो दुनिया से बेखबर गजगामिनी सी अपनी राह चली जा रही है– चली ही जा रही है.”
जाहिर है, आलोचना का तीसरा रुख़ वह है जो न रचना से स्वतंत्र हो और न ही उसके सांस्कृतिक संदर्भ से बल्कि रचना और संस्कृति के अंतस्संबंधों का निरूपण करे. साथ ही, स्वयं रचना का अनुगामी बने और न ही संस्कृति का बल्कि रचना और संस्कृति के दो छोरों के मध्य स्थित होकर अपने स्वधर्म को पहचाने और सत्ता तथा संस्कृति की वर्चस्ववादी शक्तियों से जिरह करते हुए साहित्यिक प्रतिमानों और मूल्यों को सार्वभौम मानवीय अपेक्षा में विकसित करे तथा स्वयं को एक सार्थक और अपरिहार्य नैतिक हस्तक्षेप के रूप में परिभाषित करे.
आलोचना का स्वधर्म क्या है? नामवर सिंह की आलोचना पर विचार करते समय अग्रवाल इस सवाल का जवाब यूँ देते हैं— ‘सत्तातंत्र और उसकी संस्कृति पर सवालिया निशान लगाने की जुर्रत’ ही ‘आलोचना का स्वधर्म है.’ इसी स्वधर्म के बल पर उनकी आलोचना साहित्य की व्याख्या और आस्वाद से आगे बढ़कर संस्कृति विमर्श के केंद्र में आ जाती है.
संस्कृति की उनकी अवधारणा अमूर्त और सपाट नहीं है बल्कि समाज के शक्ति संघर्ष एवं वर्चस्व और प्रतिरोध की प्रक्रिया से न केवल सुपरिचित है बल्कि एक मानवनिष्ठ नैतिक पक्षधरता से संपन्न भी है. जातिव्यवस्था और पितृसत्ता की जटिल और बहुस्तरीय सामाजिक संरचना और रोजमर्रा के जीवन में उनकी फलश्रुति के प्रति वे सजग और क्षुब्ध हैं. संस्कृति की उनकी स्पष्ट समझ है, “संस्कृति का मतलब सांस्कृतिक कार्यक्रम नहीं होता. संस्कृति जिन मूल्यों, मर्यादाओं को समाज में अनुकरणीय बनाती है, वे सामाजिक सत्ता, सामाजिक आत्मबोध और उसके विकास (अथवा पतन) की दशा-दिशा को सूचित करते हैं.” इसलिए जब वे साहित्य और आलोचना को सांस्कृतिक प्रक्रिया के रूप में समझते हैं तब वे इनकी भूमिका या तो वर्चस्व या फिर प्रतिरोध के पक्ष में परस्पर द्वंद्वात्मक अवस्था में देखते हैं. उनका जोर एक ऐसी संस्कृति-साहित्य दृष्टि पर है जो मुक्तिकामी और मानवनिष्ठ हो, वर्चस्व की शक्तियों के विरुद्ध प्रतिरोध का स्वर हो.
यानी वे आलोचना को सामाजिक शक्ति विमर्श और संघर्ष में एक हस्तक्षेपकारी भूमिका में देखना चाहते हैं— सत्ता संस्थानों और व्यवस्थाओं को ध्वस्त और प्रश्नांकित करने की ‘जुर्रत’ करती भूमिका में. इस तरह आलोचना को वे वर्चस्ववादी यथास्थितिवाद के विरुद्ध मुक्तिधर्मी और परिवर्तनकामी सांस्कृतिक-रचनात्मक माध्यम के रूप में पहचानते हैं. इस भूमिका को वे केवल अपनी या विचारधारा विशेष की आलोचना का स्वधर्म नहीं मानते हैं, बल्कि आलोचना मात्र का स्वधर्म मानते हैं.
आलोचना के स्वधर्म की पहचान के बल पर पुरुषोत्तम अग्रवाल आलोचना को रचना की पिछलग्गू समझे जाने की ‘लोकप्रिय मान्यता’ का प्रतिकार करते हैं और उसे एक स्वतंत्र अनुशासन के रूप में बरतते हैं. आलोचना को वे रचना सापेक्ष किंतु स्वतंत्र अनुशासन के रूप में स्थापित करने का संघर्ष करते हैं. आलोचना की यह स्वतंत्रता वे रचना के आलोचकीय चुनाव में देखते हैं. आलोचना रचना की होती है लेकिन आलोचक वही कहने के लिए बाध्य नहीं है, जिसे रचना में कहा जा चुका है. वे आलोचना के सरोकारों और प्रतिमानों को रचना केंद्रित मानते हुए भी आलोचक के लिए कहने को कुछ अधिक बचा पाते हैं. इसी बचे हुए को कहने में आलोचना की सार्थकता तय होती है और आवश्यक भूमिका भी निष्पादित होती है. आलोचना की इस भूमिका को स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं,
“रचनाकार की तरह ही आलोचक का भी अपना एक कथ्य होता है.”
आलोचना के स्वधर्म की हानि तब भी होती है जब आलोचक विचारधारा को सर्वोच्च प्रतिमान मानकर रचना का पाठ करते हैं. साहित्य की स्वायत्तता, परंपरा में अवस्थिति, रचना प्रक्रिया और अंतर्निहित सामाजिकता की उपेक्षा करके रचना को ‘पसंदीदा विचारधारा के जड़ फार्मूले में जड़ने’ की प्रवृत्ति को अग्रवाल आलोचना की एक बड़ी ‘व्याधि’ के रूप में देखते हैं. आधुनिक साहित्य की रचना और मूल्यांकन में विचारधारा एक अपरिहार्य प्रतिमान है. इससे रचना की अर्थमीमांसा और मूल्यांकन में सहायता मिलती है. तो क्या पुरुषोत्तम अग्रवाल कलावादियों की तरह साहित्य के मूल्यांकन में विचारधारा को अनावश्यक घुसपैठ मानते हैं? ऐसा मानना अत्यंत सरलीकरण होगा जो उनकी आलोचना से अपरिचय का ही परिचायक हो सकता है. वे विचारधारा के अतिचार का प्रतिहार करते हैं, व्यवहार का नहीं. स्वयं उनकी आलोचना गहरे अर्थ में वैचारिक है और उसकी एक व्यवस्थित वैचारिकी भी है. जिसे वे अपनी आलोचना में रचना के मूल्यांकन के एक प्रतिमान के रूप में बरतते हैं.
इसका अर्थ यह नहीं है कि उनकी दृष्टि में रचना का स्वधर्म किसी सामाजिक अनुशासन और दर्शन का अनुसरण और उसका साहित्यानुवाद होता है. इसके विपरीत वे मानते हैं कि रचना स्वभावतः सामाजिक होती है. इसलिए आलोचना के लिए जरूरी है कि वह रचना में सहज रूप से अंतर्निहित सामाजिकता और दार्शनिकता का मुक्त पाठ करे.
तीन)
पुरुषोत्तम अग्रवाल की व्यावहारिक आलोचना साहित्य के बहुत से सैद्धांतिक सवालों को उठाती है और उनके उत्तर भी देती है. कहने का तात्पर्य यह है कि उनकी आलोचना साहित्य सिद्धांत चिंतन से पुष्ट है. यों तो उन्होंने आलोचना को वृहत्तर सांस्कृतिक उपक्रम के रूप में लिया है इसलिए तमाम सामाजिक, राजनीतिक और दार्शनिक प्रश्नों तक अपनी आलोचना दृष्टि को दौड़ाया है फिर भी उन्होंने अपेक्षाकृत विधा के रूप में काव्य आलोचना पर अधिक केंद्रित किया है. उनकी संपूर्ण आलोचना सर्जनात्मकता, साहित्य और कविता की महिमा, भूमिका और महत्ता का बखान है फिर भी यहाँ यह कहना जरूरी लगता है कि उनकी आलोचना में उनका काव्यशास्त्री रूप मुखरित हुआ है. उनके काव्यचिन्तक रूप पर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया गया है. जबकि उन्होंने संस्कृत काव्यशास्त्र की विगत महत्ता और वर्तमान अर्थवत्ता का विचारोत्तेजक विश्लेषण किया है.
संस्कृत काव्यशास्त्र को वे कविता की स्वायत्तता और स्वधर्म का पक्षधर सिद्ध करते हैं. उनके लिए कविता का ‘संकल्प’ है— ‘शब्द और अर्थ की पुनः प्रतिष्ठा.’ वे संस्कृत और पश्चिमी काव्यशास्त्र से लेकर आज तक की काव्यशास्त्र के अनुशासन से लगभग मुक्त कविता की लंबी यात्राओं से विकसित समझ को आत्मसात करते हुए कविता की वर्तमान समझ को बढ़ाते हैं. उन्होंने कविता की समझ को बोधगम्य और अद्यतन किया है. उन्होंने कविता को सभ्यता और संस्कृति को जाँचने की एक अनिवार्य कसौटी के रूप में लिया है. इस तरह उनके काव्य चिंतन का आयाम वृहत्तर है. उन्होंने कविता की संस्कृति, रचना प्रक्रिया, प्रयोजन, उसकी सामाजिक भूमिका, फलश्रुति, विचारधारा से कविता के संबंध और शिल्प-भाषा जैसे सैद्धान्तिक आयामों पर व्यवस्थित चिंतन किया है. उनके लिए कविता मनुष्य की बहुआयामी सर्जनात्मकता का रूपक है.
उन्होंने विभिन्न दार्शनिक, धार्मिक, सांस्कृतिक परंपराओं और राजनैतिक-वैचारिक धाराओं का कविता के प्रति व्यवहार और उनमें कविता यानी सर्जनात्मकता के अवकाश की विचारोत्तेजक पड़ताल की है जो शास्त्रीय अनुशासन में न बंधकर एक ऐतिहासिक दृष्टि से नियमित होती है. वे कविता-सर्जनात्मकता को विभिन्न धर्मों, संस्कृतियों और राजनीति के मानवीय, लोकतांत्रिक और प्रगतिशील होने की कसौटी के रूप में स्थिर करते हैं. अंततः यह पड़ताल कविता और सत्ताओं के द्वंद्वात्मक सम्बन्ध के विश्लेषण के रूप में पर्यवसित होती है. संस्कृति और सभ्यता के मूल्यांकन में कविता उनके लिए कितनी बड़ी कसौटी है; यह हम तब देखते हैं जब वे धर्मों को ‘प्रोफेटिक और पोयटिक’ दो श्रेणियों में अलगाते हैं. कविता के संदर्भ में उन्होंने बहुदेववादी और एकेश्वरवादी परंपराओं के अपने गहन और विचारोत्तेजक चिंतन, विश्लेषण और तुलनात्मक अध्ययन से कई रोचक निष्कर्ष निकाले हैं. उनका केंद्रीय निष्कर्ष है कि बहुदेववादी सभ्यताएं कविता के अनुकूल हैं जबकि एकेश्वरवादी प्रतिकूल हैं.
कविता मनुष्य की सहज जिज्ञासा और प्रश्नाकुलता को धारण करती है. उनकी स्पष्ट मान्यता है कि कविता विरोधी संस्कृतियां असल में उसके जिज्ञासु और प्रश्नाकुल स्वभाव के कारण ही उसके बहिष्कार या दमन में संलग्न होती हैं. कविता का यह स्वभाव बहुदेववादी संस्कृतियों में सहज रूप से अनुस्यूत रहता है क्योंकि उनमें सत्य, अनुभव और नैतिकता की अनेकांतता या बहुवचनात्मकता होती है जबकि एकेश्वरवादी संस्कृतियों में इनके पूर्वनिर्धारित एक रूप ही होते हैं. कविता की उनसे परे की जिज्ञासा और उनकी मूलभूत मान्यताओं के प्रश्नांकन की प्रवृत्ति उन्हें कविता के विरोध में खड़ी कर देती है.
इसके विपरीत वे देखते हैं कि पैगन या बहुदेववादी विशेषकर हिंदू परंपरा बड़े पैमाने पर कविता से निःसृत होती है. धर्म से कविता का संबंध आज भले ही निषिद्ध माना जाने लगा है फलस्वरूप कवियों में उससे जुड़े अनुभव को काव्य संवेदना का अंग बनाने में एक संकोच दिखाई देता है लेकिन भारत का पुराना कालजयी साहित्य धर्म और काव्य की समन्वित अनुभूति को अपने ढंग से व्यक्त करता है. ऐसे साहित्य का मूल्यांकन केवल धर्म को दृष्टिओझल करने के धर्मनिरपेक्ष आग्रहों के आधार पर नहीं किया जा सकता है, उसके लिए धार्मिक परंपरा और काव्य से उसके संबंध की समझ आवश्यक है. पुरुषोत्तम अग्रवाल इस समझ को अर्जित करते हैं. इसका साक्ष्य हम पहले भी देख चुके हैं. लेकिन इस दृष्टि से ‘ये मसाइल-ए-तसव्वुफ़, यह तिरा बयान…’ नामक उनका निबंध काव्य और धर्म के जुड़ाव-अलगाव का अत्यंत समृद्धकारी अध्ययन का प्रमाण है. इसमें वे पैगन, विशेष रूप से हिन्दू परंपरा में ‘काव्य और धर्म के गुँथाव’ का विचारोत्तेजक विश्लेषण करते हैं. वाल्मीकि रामायण जैसे कालजयी काव्य के विश्लेषण के माध्यम से वे रामचरित के गुणगान के बजाय उसके निर्माण में काव्य दृष्टि की भूमिका को पहचानते हुए लिखते हैं, “एक समृद्ध, व्यक्तिगत भावानुभव को एक पारंपरिक सामूहिक आख्यान से जोड़कर एक कल्पसृष्टि, एक काव्यानुभव को समूची आध्यात्मिक पिपासा और सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक बनाया कविता ने.… वाल्मीकि की कविता सिर्फ एक आख्यान की नहीं, बल्कि भावी भारतीय मन की पुनर्रचना कर रही थी.” यहाँ हम पुनः देख सकते हैं कि कैसे कविता को समझने की उनकी कोशिश एक ‘सभ्यतामूलक जिज्ञासा’ में बदल जाती है.
कुँवर नारायण की कविता पर लिखते हुए वे जर्मन कवि होल्डरिन के कविता के उपयोगितावादी सवाल को याद करते हैं– ‘किसी दरिद्र समय में कवियों के होने का मतलब क्या है?’ इस प्रश्न पर विचार करने से पहले वे तपाक से कह देते हैं– “सबसे पहले तो, हर समय की अपनी दरिद्रता की विशिष्ट सूरत को पहचानने और समझने के लिए!”
उनके लिए रचना की सार्थकता अपने काल की तथ्यात्मक सूचना देने और दर्पणात्मक भूमिका निर्वहन में नहीं बल्कि अपने समय में नैतिक हस्तक्षेप में है. यह नैतिक हस्तक्षेप सामाजिक बदलाव के रूप में नहीं; ‘बदलाव की बेचैनी को शब्द और अर्थ’ देने में है.
इसका अर्थ यह नहीं है कि उनकी दृष्टि में रचना समय और परिवेश निरपेक्ष होती है. यानी उसका अपने उत्स काल और देश से कोई संबंध नहीं होता है. शमेशर बहादुर सिंह की कविताओं पर लिखते हुए वे सचेत रहते हैं, “कला का संघर्ष कालनिरपेक्ष और देशातीत नहीं है.” इसी सम्मति के अनुरूप वे रचना की सामाजिक संपृक्ति और भूमिका पर बल देते हैं. ‘समाज का अमूर्त जाप’ करने वाली रचना और आलोचना दृष्टि के बजाय वे साहित्य के समाज से ‘गहरे गुँथाव और अंगांगि भाव’ के संबंध पर बल देते हैं जिसमें वास्तविक शक्ति विमर्श और सर्जनात्मक परंपराओं के प्रति विवेकपूर्ण रवैया होना चाहिए.
ऐसे ही पंजाबी के प्रसिद्ध कवि पाश पर लिखते हुए उन्होंने प्रगतिशील साहित्य और वाम राजनीति से जुड़े तमाम सुविधाजनक प्रतिमानों को प्रश्नांकित किए हैं. उनकी आलोचना ‘जड़ीभूत सौंदर्यबोध’ और ‘जड़ीभूत विचारमूढ़ता’ के विरुद्ध एक सजग और सतत विचारोत्तेजक अभियान है. जड़ सौंदर्यबोध ‘अनुभव के प्रति काव्य-प्रतिक्रिया के स्वरूप और सार’ के मार्ग की रुकावट है तो वैचारिक जड़ता ‘मनुष्य और कविता को सुविधापूर्ण फार्मूलों में बदलने की बेअदबी करती है.’ ‘विचारधारा का काव्यानुवाद’; की प्रवृत्ति इन जड़ताओं की उपज है. जिससे कविता को राजनैतिक कर्म का स्थानापन्न मानकर संतुष्ट हो जाने का ‘सुविधावाद’ पैदा होता है.
अपनी आलोचना को व्यापक सांस्कृतिक और राजनैतिक हस्तक्षेप के रूप में विकसित करने के बावजूद पुरुषोत्तम अग्रवाल विचारधारा और पार्टीबद्धता के आधार पर पूर्वनिर्धारित सत्य के साहित्य में यथावत रूपांतरण को उचित नहीं मानते हैं. इस स्थिति को विचार और सृजन दोनों के लिए घातक बताते हुए वे ‘विचार और सर्जनात्मक शब्द के बीच दुमहिलाऊ अनुसरण’ के बजाय ‘तेजस्वी संवाद का रिश्ता’ काम्य मानते हैं.
काल का निरंतरता बोध, पाठ का समग्र सांस्कृतिक संदर्भ और मानवीय संवेदना की सार्वजनीनता पुरुषोत्तम अग्रवाल की आलोचना दृष्टि के महत्वपूर्ण आयाम हैं. वे मानवीय चेतना, रचनात्मकता और आलोचना दृष्टि के समग्रबोध को अभीष्ट और काम्य मानने वाले आलोचक हैं. उनकी आलोचना दृष्टि ‘समग्रता के विवेक’ को अर्जित करने में प्रयत्नशील है. वह रचना से मानव ‘अस्तित्व के समग्र बोध’ की अपेक्षा करती है. खंडित संवेदना और खंडित चेतना की व्यापक समस्या को उठाते हुए वे लिखते हैं,
“कोई नैतिक को राजनैतिक से जुदा करके खुश है, कोई समकालीन को ऐतिहासिक से. किसी को केवल समयबद्ध से वास्ता है, किसी को केवल समयातीत से. किसी को केवल सामाजिक चाहिए, किसी को केवल आध्यात्मिक. किसी को केवल लौकिक से मतलब है, किसी को केवल लोकोत्तर से.”
इसी मान्यता के अनुरूप उन्होंने अस्मिता विमर्श और अस्मितावादी साहित्य दृष्टि की सीमाओं का साहसपूर्वक प्रतिकार किया है. लेकिन विशिष्ट देश-काल और सामाजिक संरचनाजन्य विशिष्ट अस्मिताओं की समस्याओं के प्रति संवेदनशीलता के साथ— “वर्णाश्रम के वैचारिक- सामाजिक ढाँचे की विशिष्टताओं पर ध्यान दिए बगैर भारतीय समाज में वर्ग-संघर्ष की बातें करने का उपक्रम अन्ततः एक सुविधापूर्ण, पलायनजीवी कल्पनालोक रचने का उपक्रम बनकर रह जाता है.” वे अस्मिता विमर्शों की उन अतियों पर सवाल उठाते हैं जो सार्वभौम संवेदना और मूल्यों को ही असंभव सिद्ध करती हैं लेकिन इस तर्क के सहारे वे अस्मिताओं के उत्पीड़न, आत्मबोध की सहज तलाश और मुक्ति संघर्षों की कोशिशों को नहीं नकारते. वे विशिष्टताओं को सार्वभौम चेतना और संवेदना से विच्छिन्न नहीं देखना चाहते इसलिए ‘विशिष्टता के पूरे बोध को विश्व नागरिकता की संवेदना में गूँथने’ पर बल देते हैं.
इसके लिए लेखक को जाति-धर्म-निरपेक्ष होने की आवश्यकता है. शिवदान सिंह चौहान की आलोचना की मूल चिंताओं में वे उनकी ‘जाति-धर्म-निरपेक्ष नागरिकता’ की चिंता को केंद्रीय पाते हैं. आलोच्य के इस सरोकार में आलोचक का भी सरोकार व्यंजित होता है, “उनका केंद्रीय सरोकार नागरिकता की जाति धर्म निरपेक्ष संवेदना के विकास का था.” शिवदान सिंह चौहान की चिंताओं और सरोकारों को उन्होंने अपनी चिंताओं और सरोकारों के रूप में पहचाना है और स्पष्ट किया है – “लेखन जब तक लेखक के सामाजिक उद्गम को ट्रांसेंड नहीं करता तब तक बड़ा लेखन नहीं बनता.”
चार)
वे वर्णाश्रमी पितृसत्ता से दलितों और स्त्रियों के मुक्ति संघर्ष का वैचारिक समर्थन करते हैं. अस्मिता के वाजिब रेखांकन को जातिवाद कहकर खारिज करने की सवर्णवादी मानसिकता को दृष्टिगत रखते हैं. उन्हें जहाँ सामाजिक अस्मिताओं के विशिष्टबोध की कमी खलती है वहाँ वे निर्मम होकर उसकी सायास-अनायास उपेक्षा पर चिंता प्रकट करते हैं. जैसे निर्मल वर्मा के प्रति उनकी शिकायत है कि उनके यहाँ दलितों की कोई उपस्थिति नहीं है. ‘पान पत्ते की गोठ’ नामक अपनी कहानी में उन्होंने सामाजिक न्याय के स्वर को उठाया है. वे आरंभ में ही यह पहचान लेते हैं कि वर्णव्यवस्था और पितृसत्ता से टकराये बिना मुक्ति का कोई आख्यान नहीं रचा जा सकता है.
फिर भी उन्होंने अस्मितापरक विशिष्टता को जन्मना और रक्त शुद्ध मानने के बजाय मूल्यपरक और संवेदनपरक बनाने पर बल दिया है. कबीर और जायसी के मूल्यांकन के समय वे बार-बार यह रेखांकित करते हैं कि ये कवि अपने उद्गम की अस्मितापरक विशिष्टता के प्रति सचेत हैं फिर भी वे व्यक्तिसत्ता पर बल देते हुए सामाजिक मूल्य के आधार पर अपने ‘साधो’ को अपनाते हैं न कि उद्गम की अस्मिता के आधार— “जन्मजात सामाजिक पहचान के स्थान पर कबीर समान संवेदना और मूल्यबोध पर आधारित पहचान की खोज करते हैं.” और जायसी के लिए उनके “चरित्रों का मूल्यांकन उनके व्यक्तिगत कार्यों और गुणों पर निर्भर करता है, न कि उनकी धार्मिक पृष्ठभूमि या जातिगत पहचान पर.” इसी को पुरुषोत्तम अग्रवाल वह मूल्य मानते हैं जो साहित्य का आधार है— “व्यक्तिगत आत्म, सामाजिक अस्मिता और सांस्कृतिक विशिष्टता से रूपायित होते हुए भी रचना विशेष की साहित्यिकता का गहरा संबंध मानवीय अनुभव और चेतना की समग्रता से है.”
पुरुषोत्तम अग्रवाल की मनुष्य की अवधारणा अवधारणात्मक नहीं; ऐतिहासिक है. वे किसी वादान्ध दृष्टि से मनुष्य को नहीं देखते हैं. मनुष्य प्रजाति के सार तत्व को वे समग्रता में लेते हैं. उनकी साहित्य और आलोचना दृष्टि उनकी मनुष्य की अवधारणा से निरूपित होती है इसलिए मनुष्य के हृदय और बुद्धि का, चिंतन और सृजन का, कल्पना और सामाजिक व्यवहार का कोई पक्ष उनके लिए उपेक्षणीय या प्रतिक्रियावादी नहीं है. इसलिए वे धर्म, अध्यात्म और लोकोत्तर के प्रति उसकी जिज्ञासाओं को भी अपनी आलोचना में शामिल करते हैं ताकि मनुष्य को समग्रता में समझा जा सके और उनसे उद्भूत समस्याओं का समाधान तजवीज़ किया जा सके. उनकी आलोचना मनुष्य की आध्यात्मिकता और लोकोत्तर जिज्ञासा को असामाजिक और सांस्कृतिक रूप से प्रतिक्रियावादी नहीं मानती है. वे इसे मनुष्य की सहज प्रवृत्ति के रूप में देखते हैं. उनकी दृष्टि में यह धर्मगुरुओं और कर्मकांडियों का नहीं बल्कि साहित्य, कला और दर्शन का क्षेत्र है. इसलिए वे आलोचना को ‘अध्यात्म सजग सामाजिक संवेदना’ से समृद्ध करते हैं.
धर्मेतर अध्यात्म की अवधारणा उनके लिए इसीलिए महत्त्वपूर्ण है ताकि संगठित धर्मसत्ता के बरक्स मनुष्य जाति के सार तत्व के रूप में आध्यात्मिकता को समस्याप्रद धर्म से मुक्तकर स्थापित जा सके. यह मुक्ति उनके लिए सर्वांगीण मानव मुक्ति से अभिन्न है. मध्यकालीन, पुरुषोत्तम अग्रवाल की दृष्टि में आरम्भिक देशज आधुनिक काल के भक्ति, विशेष रूप से संत साहित्य की संवेदना इसी धर्मेतर अध्यात्म की साधना करती है. इन संतों के लिए सांसारिक जीवन और आध्यत्मिक जिज्ञासाएं सहज रूप से अविच्छिन्न हैं. आधुनिक चित्त इन्हें विच्छिन्न रूप में देखने का अभ्यस्त बन गया है. वे इस अभ्यस्तता की विडम्बनाओं को रेखांकित करते हैं.
पुरुषोत्तम अग्रवाल धर्मशास्त्र, धर्मदर्शन और धर्मतंत्र के गहन अध्येता और चिंतक हैं. पैगन और सामी धर्म परम्पराओं का उनका तुलनात्मक ज्ञान चकित करनेवाला है. वैविध्यपूर्ण संसार में सभी के शांतिपूर्ण सहअस्तित्व को सुनिश्चित करने की दृष्टि से पैगन संस्कृतियों की बहुवचनात्मकता और लोकतांत्रिकता का उनका रेखांकन अर्थपूर्ण है. इसके अतिरिक्त वे रोजमर्रा के जीवन में धर्म की फलश्रुति के प्रति सजग भी हैं. वे प्राचीन और मध्यकालीन ही नहीं बल्कि आधुनिक मनुष्य के भी जीवन में धर्म की महत्त्वपूर्ण जगह को साहसपूर्वक स्वीकार करते हैं. धर्म की प्रचंड उपस्थिति और मनुष्य के व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन के धर्माच्छादित स्वरूप को वे किसी षड्यंत्र का फलित नहीं बल्कि मनुष्य की सहज प्रवृत्ति के क्रमिक विकास के रूप में देखते हैं. जिसमें सत्तातंत्र की भूमिका भी वे ध्यान में रखते हैं. वर्तमान में वैश्विक स्तर पर संगठित धर्मों के आक्रामक राजनीतिक ध्रुवीकरण और सामाजिक अस्मिता के रूप रेखांकन से उपजी समस्याओं के प्रति वे चिंतित रहे हैं. इसलिए वे धर्म को सांस्कृतिक-साहित्यिक चिंतन से बहिष्कृत करने की प्रवृति का विरोध करते हैं. वे इस बात पर बल देते रहे हैं कि किसी भी कारण से धर्म को दृष्टिओझल करना घातक है. इसलिए ‘धर्म की सम्यक समीक्षा’ का उनका संकल्प उनकी आलोचना का एक जरूरी आयाम बनता है.
पुरुषोत्तम अग्रवाल की आरंभिक आलोचना जहाँ वर्णव्यवस्था के आंतरिक उपनिवेशीकरण से जूझती है वहीं उत्तरवर्ती आलोचना बाह्य उपनिवेशीकरण के विरुद्ध मोर्चाबद्ध है. यत्र-तत्र देखने में आता है कि कुछ लोग उनकी उत्तरवर्ती आलोचना को पूर्ववर्ती आलोचना से विचलित मानते हैं. उनकी दृष्टि में आंतरिक और बाह्य, दोनों प्रकार के उपनिवेशवाद का एक साथ प्रतिहार अंतर्विरोधी है! ऐसे लोग उनकी सामाजिक आलोचना में गुणात्मक परिवर्तन देखते हैं और समझते हैं कि उसकी परुक्षता और तेजस्विता में कमी आयी है. इस संदर्भ में इतना कहना पर्याप्त होगा कि आलोचक का विकास होता है. उसके जीवन की तरह उसकी दृष्टि और सृष्टि में भी बदलाव स्वाभाविक हैं. असल चीज़ सरोकार और प्रतिबद्धता है; आलोचना का सामाजिक उद्देश्य है. इस दृष्टि से परिवर्तन के बावजूद उनमें विचलन नहीं आया है. उनके सरोकारों में नैरंतर्य है, दिशा पूर्ववत है, प्रतिबद्धता अचल है. मध्यकाल में सामाजिक गतिशीलता, वर्णव्यवस्था की तरलता, देशज आधुनिकता की प्रकृति और उसमें ‘औपनिवेशिक ज्ञानकांड’ की विचलनकारी भूमिका का रेखांकन उनकी सामाजिक आलोचना के और अधिक विशद और तर्कपूर्ण होने के प्रमाण हैं; न कि विचलन के. इसके अतिरिक्त शैली और तेवर में आये परिवर्तनों को भी सरोकारों के परिवर्तन या विसर्जन के रूप में बिल्कुल नहीं देखा जा सकता है. इस तथ्य की उपेक्षा प्रमादी और विवादी आलोचना ही कर सकती है. उनका वर्णाश्रमी पितृसत्ता के विरुद्ध आरंभिक संघर्ष उपनिवेशवाद के विरुद्ध उनके उत्तरवर्ती संघर्ष के विरुद्ध नहीं है. वे जातिव्यवस्था और पितृसत्ता की सामाजिक आलोचना से शुरू करते हैं और बाद में उनकी निर्मितियों और उसमें औपनिवेशिक ज्ञानकांड की साम्राज्यवादी राजनीति के विक्षेप से उपजी समस्याओं को समझने की कोशिश करते हैं. इससे उनकी आरंभिक आलोचना का मूल्य किसी तरह कम नहीं हो जाता. इस संदर्भ में ‘तीसरा रुख’ की भूमिका की यह पंक्ति ध्यान में रखनी होगी जो उनके संपूर्ण लेखन के बारे में भी उतनी ही सही है— ‘इस किताब में सरोकारों की निरंतरता है, उपकरणों और पूर्वग्रहों में आये बदलावों के बावजूद.’
उन्नीसवीं और बीसवीं सदियों के साहित्य के मूल्यांकन का एक अपरिहार्य संदर्भ या कसौटी उपनिवेशवाद है. पुरुषोत्तम अग्रवाल के यहाँ यह अनिवार्य संदर्भ धीरे-धीरे मूल कथ्य बन जाता है. उपनिवेशवाद, उसकी विरासत और भारतीय इतिहास और समाज को देखने का उसका दृष्टिकोण और उसकी राजनीति की तलस्पर्शी आलोचना, उनकी आलोचना दृष्टि की एक सुखद संतोषजनक उपलब्धि है. औपनिवेशिक दृष्टि ने भारतीय इतिहास और साहित्य को देखने का जो दृष्टिकोण तय किया उससे उपजी समस्याओं और विडम्बनाओं की पहचान और उनका प्रतिहार ऐसा पक्ष है जिसे हिंदी आलोचना में उनके विशेष योगदान के रूप में लंबे समय तक याद रखा जाएगा. उपनिवेशवाद की ज्ञान की राजनीति ने सहज रूप से चली आती देशी दृष्टि को आच्छादित कर दिया फलतः भारतीय आत्मबोध औपनिवेशिक दृष्टि से निर्मित होने लगा. पुरुषोत्तम अग्रवाल ने इसे अपने ढंग से चुनौती दी. औपनिवेशिक दृष्टि का पूर्ण प्रतिहार और स्वयं को देखने की देशज दृष्टि की खोज पुरुषोत्तम अग्रवाल की परवर्ती आलोचना की चिंता और चिंतन के केंद्र में है.
उपनिवेशीकरण और भारतीय दृष्टि का हरण जिस बड़ी परियोजना के तहत संपन्न हुआ उसे मोटेतौर पर औपनिवेशिक आधुनिकता कहते हैं. पुरुषोत्तम अग्रवाल आधुनिकता के आलोचक हैं लेकिन उत्तर आधुनिकतावादी नहीं, बल्कि देशज आधुनिकतावादी आलोचक. आधुनिकता के समानांतर बल्कि प्रतिपन्थ के रूप में देशज आधुनिकता की पहचान और खोज करने वाले तथा उसे भारतीय साहित्य के मूल्यांकन के आवश्यक प्रतिमान के रूप में जमाने वालों में उनका नाम प्रमुख है. आज हिंदी आलोचना में देशज आधुनिकता के प्रत्यय का प्रयोग लोकप्रिय होता जा रहा है. तमाम आलोचक उनका नाम लिए बिना इसकी सहायता से अपनी आलोचना में एक सार्थक आयाम जोड़ रहे हैं तो इसके पीछे पुरुषोत्तम अग्रवाल के सुदीर्घ शोध और चिंतन का ही योग समझना चाहिए. इसी तरह पब्लिक इस्फीयर के लिए उन्होंने हिंदी पद ‘लोकवृत्त’ गढ़ा. यह पद भी अब हिंदी आलोचना में लोकप्रिय और अपरिहार्य हो चुका है. बिगूचन यह कि आलोचक उनके नामोल्लेख के बिना इसे चलाते हैं. याद आया कि यह ‘बिगूचन’ शब्द भी उन्होंने ही लोकप्रिय किया— अंग्रेजी के ‘कन्फ्यूजन’ के अर्थ में!
इस तरह हम देखते हैं कि पुरुषोत्तम अग्रवाल की आलोचना का वैचारिक आधार और परिप्रेक्ष्य व्यापक और सुगठित है. इतिहास दृष्टि इसका एक जरुरी आयाम है. उत्तर काल में औपनिवेशिक इतिहास दृष्टि से मुक्त दृष्टि और देशी सांस्कृतिक संवेदना की निरंतरता की पहचान और रेखांकन उनके चिंतन और लेखन का केंद्रीय विषय होता गया है. वजह यह तीखा एहसास है कि ‘औपनिवेशिक आधुनिकता ने सारे ग़ैर यूरोप में सांस्कृतिक संवेदना विच्छेद उत्पन्न किया है.’ इस ‘संवेदना विच्छेद’ का प्रतिहार करके संवेदना की निरंतरता को पुनः प्रतिष्ठित करने की आवश्यकता भारत जैसे पूर्व औपनिवेशिक देशों के बुद्धिजीवियों के सामने गंभीरता से रखनेवाले विचारकों में उनकी भूमिका अभिनंदनीय है.
पुरुषोत्तम अग्रवाल परंपरा और सांस्कृतिक निरंतरता को महत्त्वपूर्ण मानते हैं. उनकी दृष्टि में आधुनिकता का भवन परंपरा के भवन को ढहाकर समतल भूमि पर नहीं बनता है. वह बनता है; परंपरा के विवेकपूर्ण पाठ के धरातल पर. आधुनिकता का अर्थ प्रस्फुटन ही परंपरा के संदर्भ में संभव होता है. परंपरा और आधुनिकता की चिरपरिचित बहस में हस्तक्षेप करते हुए वे स्पष्ट करते हैं— “बिना परंपरा के कोई आधुनिकता नहीं होती, और हर आधुनिकता परंपरा में से चुनाव करती है.” इस तरह वे परंपरा बनाम आधुनिकता की रूढ़ बाइनरी को ध्वस्त करते हैं. उनके लिए न परंपरा अप्रश्नेय और न ही आधुनिकता. परंपरा जड़ता और प्रतिक्रियावाद का पर्याय नहीं है और न ही आधुनिकता प्रगतिशीलता और विकास का. नामवर सिंह के शब्दों में वे आधुनिकता को परिभाषित करते हैं, ‘वास्तविक आधुनिकता परंपरा की पुनर्नवता ही है.’ अग्रवाल की दृष्टि में औपनिवेशिक आधुनिकता ने परंपरा की इस ‘पुनर्नवता’ की सार्वकालिक और सार्वदेशिक सहज प्रक्रिया को बाधित करके ‘एक सांस्कृतिक संवेदना विच्छेद’ पैदा किया है, इसीलिए वे औपनिवेशिक ज्ञान और दृष्टि का निर्ममतापूर्वक प्रतिहार करते हैं— “साम्राज्यवाद के परिवेश में विकसित हुए इतिहास का ही नहीं, बल्कि उसके समूचे सांस्कृतिक विमर्श का प्रतिवाद करना जरूरी काम है.”
पाँच)
परंपरा का पाठ और मूल्यांकन एक ऐसा विषय रहा है जिसको लेकर आलोचना में बहुत वैचारिक तुमुल कोलाहल होता रहा है. प्रगतिवादी हिंदी आलोचना में यह आपसी द्वंद्व और बैरभाव का कारण भी रहा है. रामविलास शर्मा और शिवदान सिंह चौहान के आपसी विवाद का अध्ययन पुरुषोत्तम अग्रवाल ने ‘प्रगतिशील आलोचना : बीच बहस’ में किया है. इस संदर्भ में उन्होंने अपनी परंपरा-दृष्टि को भी स्पष्ट किया है— “परंपरा भंजन की प्रवृत्ति निश्चय ही त्याज्य है, साथ ही परंपरा का ऐसा पूजन भी त्याज्य ही है, जो उसके निषेधात्मक तत्वों से टकराने की बजाय उन्हें गोल कर जाना अधिक उचित मानता हो.” संग्रह और त्याग के विवेक के आधार पर वे ‘सांस्कृतिक विरासत के प्रगतिशील तत्वों का समकालीन सांस्कृतिक चेतना में समावेश’ करने की कोशिश को ‘प्रगतिशील आलोचना’ की ‘मूल प्रतिज्ञा’ मानते हैं. इस प्रतिज्ञा के अनुरूप उनकी आलोचना ‘परंपरा भंजन’ और ‘परंपरा पूजन’ से बचते हुए उसके प्रगतिशील मूल्यों को समकालीन सांस्कृतिक चेतना में समाविष्ट करती है और प्रतिक्रियावादी तत्वों की आलोचना करके उन्हें फटकार कर दूर करती है. इसके लिए परंपरा का आलोचनात्मक विवेक पूर्वशर्त है, जिसे अर्जित करने की कोशिश पुरुषोत्तम अग्रवाल बराबर करते हैं.
पुरुषोत्तम अग्रवाल की आलोचना किसी भी आस्था, सत्तातंत्र और अस्मितावाद से निर्भीक ज़िरह के साहस पर्याय है. उन्होंने अपने सवालों से किसी को नहीं बख्शा है. हिंदू, मुसलमान, ईसाई, सिख, बौद्ध, पारसी इत्यादि धार्मिक आस्थाएँ हों, या फिर ब्राह्मण, दलित, पिछड़ा-अगड़ा की सामाजिक अस्मिताएं हों, उन्होंने सबकी कट्टरता और अस्वीकार्य मूलभूत मान्यताओं का अपने तीखे सवालों से वेधा है. इसी तरह राष्ट्रवाद, साम्यवाद, सम्प्रदायवाद, फासीवाद और उपनिवेशवाद जैसी वैचारिक शरणियां हों, उन्होंने सार्वभौम मूल्यों और मानवीय संवेदना की ओर से सबको लहूलुहान किया है. जाहिर है, यह सब अनास्था और विसर्जनवादी दृष्टि के कारण नहीं बल्कि मानवीय विवेक और सर्जनात्मकता में गहरी आस्था और निष्पक्ष बौद्धिकता के कारण संभव हुआ है. उनकी आलोचना का यह पक्ष निश्चय ही आलोचना को उसकी सच्ची संकल्पना में आत्मसात करने और उसे साधने में निखरता है. उनके बौद्धिक तेज, और वैचारिक साहस का श्रेष्ठ परिचय उनकी आलोचना का यह पक्ष देता है. उनकी आलोचना के इस स्वभाव के समक्ष बड़े-बड़े आलोचकों की आलोचनाएं वायवीय और निर्जीव प्रतीत होती हैं. उनके इस रूप का साक्षात्कार करके सहज ही उनके चरितनायक कबीर का स्मरण हो आता है!
‘सुरुचि की मर्यादाएं’ में उन्होंने हिंदी आलोचना की उस लोकमान्य बिडम्बना का रेखांकन किया है जो आलोचना के कविता केंद्रित होने और कथा कथालोचना की उपेक्षा में दिखायी देती है. फिर भी उन्होंने स्वयं काव्यालोचना को ही प्राथमिकता दी है. कबीर, मलिक मुहम्मद जायसी, मैथिलीशरण गुप्त, शमशेर बहादुर सिंह, कुँवर नारायण, पाश और अशोक वाजपेयी के काव्य पर उन्होंने व्यवस्थित रूप से लिखा है तो ‘इत्मीनान की जुगलबंदी के खिलाफ’ में नवें दशक की कविता की दशा और दिशा का अंतर्दृष्टिपूर्ण विवेचन किया है. उनकी आलोचना में यथाप्रसंग मध्यकालीन कविता से लेकर समकालीन कविता तक की अंतर्दृष्टि संपन्न चर्चा मिलती है. लेकिन कहानी और उपन्यास की आलोचना उन्होंने अपवादस्वरूप ही की है. वह भी केवल प्रेमचंद और जैनेंद्र कुमार की जैसे कुछ कथाकारों की ही. वह भी किसी आयोजन या अनुष्ठान में आमंत्रित किये जाने पर ही.
भाषा की चिंता पुरुषोत्तम अग्रवाल की आलोचना का एक गौण नहीं बल्कि प्राथमिक सरोकार है. भाषा विज्ञान की दृष्टि से नहीं बल्कि रचना और संस्कृति के माध्यम के रूप में भाषा. वे भाषा को जीवंत और परिवर्तनशील बनाये रखने पर लगातार बल देते आये हैं. वे अनुभव करते हैं कि ज्ञान और संवेदना के विकास के साथ-साथ भाषा भी बदलनी चाहिए. उसे भी अद्यतन मूल्यों और संवेदना के निर्वहन के लिए सक्षम बनाना रचना और आलोचना का प्रमुख प्रकार्य है. उनकी मान्यता है, “ज्ञान और संवेदना के जो स्तर हमारे अपने समाज में इस वक़्त प्राप्त किये जा चुके हैं, उनकी रोशनी में भाषा के पूर्वग्रहों की गहरी पड़ताल…आवश्यक हो गयी है.” जबकि आलोचना पुरुषोत्तम अग्रवाल के लिए एक सांस्कृतिक कर्म है तब भाषा की उपेक्षा उनके आलोचना कर्म के सांस्कृतिक आयतन को संकीर्णतर ही करती. वे साहित्य की भाषा को जीवन की भाषा से अभिन्न नहीं तो कम-से-कम निकटम रखना चाहते हैं. इसी दृष्टि से वे छायावाद को जीवन की भाषा से दूर रहने के साहित्यिक संस्कार बनाने के लिए दोषारोपित करते हैं.
पुरुषोत्तम अग्रवाल
विचारों के इतिहास-लेखन (हिस्ट्री ऑफ आइडियाज), आलोचना और कथा-साहित्य के लिए सुपरिचित पुरुषोत्तम अग्रवाल हिन्दी और अंग्रेजी दोनों में समान अधिकार के साथ लिखते हैं. उनकी पुस्तक ‘अकथ कहानी प्रेम की: कबीर की कविता और उनका समय’ (2009) आरंभिक आधुनिक कालीन भारतीय इतिहास और भक्ति-मीमांसा के क्षेत्र में मानक का दर्जा हासिल कर चुकी है. ‘कबीर, कबीर: दि लाइफ एंड वर्क ऑफ दि अर्ली मॉडर्न पोयट-फिलासफर’ (2021) और ‘कबीर-ग्रंथावली-परिमार्जित संस्करण’ ( 2023) ने भी बहुत सराहना अर्जित की है. संत दादू के जीवनीकार जनगोपाल पर प्रो. डेविड लोरेंजन के साथ मिल कर लिखी गयी उनकी पु्स्तक अत्यंत महत्वपूर्ण किंतु उपेक्षित व्यक्तित्व के योगदान की पड़ताल करती है. जवाहरलाल नेहरू के लेखन और वक्तव्यों के संकलन ‘ हू इज भारत माता’ ( 2019) की विस्तृत भूमिका को नेहरू पर लिखे गये सर्वश्रेष्ठ आलेखों में गिना गया है. उन्होंने कुछ कहानियाँ भी लिखीं हैं. उनका उपन्यास ‘नाकोहस’ आहत भावनाओं की भयावह राजनीति की गहरी और तीखी पड़ताल करने के कारण बहुचर्चित हुआ है. पुरुषोत्तम अग्रवाल को साहित्य अकादमी ने प्रतिष्ठित भारतीय भाषा सम्मान प्रदान किया है. इसके पहले वे देवीशंकर अवस्थी सम्मान, मुकुटधर पांडे सम्मान, राजकमल कृति सम्मान, शुकदेवसिंह सम्मान और कमलापति त्रिपाठी सम्मान अर्जित कर चुके हैं. प्रो. अग्रवाल इस समय महाभारत पर काम कर रहे हैं. |
आनंद पांडेय
जेएनयू से ही 2011 में यूजीसी की रिसर्च फेलोशिप के तहत पीएचडी. साही पर आलोचना पुस्तक ‘साही साखी : आशंकाओं के द्वीप में लघुमानव’ इसी वर्ष प्रकाशित. राजकमल प्रकाशन के लिए ओम थानवी के साथ ‘पुरुषोत्तम अग्रवाल संचयिता’ का संपादन. स्वराज प्रकाशन से आई पुस्तक ‘सोशल मीडिया की राजनीति’ का संपादन. ‘साही आलोचना संचयन’ का संपादन और सुस्मिता साही श्रीवास्तव के साथ ‘साही कविता समग्र’ का सह संपादन लोकभारती प्रकाशन से प्रकाशनाधीन. राजकमल प्रकाशन की प्रतिष्ठित प्रतिनिधि कविताएँ शृंखला के अंतर्गत विजयदेव नारायण साही की प्रतिनिधि कविताओं का संपादन प्रकाशनाधीन. समालोचन पर ‘नदिया के पार रीमिक्स’ कहानी प्रकाशित. लंबे समय तक राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में सक्रिय रहे. वर्तमान में राष्ट्रीय रक्षा अकादमी, पुणे में एसोसिएट प्रोफेसर. संपर्क : हिंदी विभाग, राष्ट्रीय रक्षा अकादमी, पुणे. |