| राकेश कुमार मिश्र की कविताएँ |
उनकी याद
यह तय करना है मुश्किल
उनके जीवन में पहले अवसाद आया या वैराग्य
अवसाद के गहरे काले समुद्र के तल पर
जब पहुँचे
वैरागी हो गए
और बांटने लगे अपनी ज़रूरी चीज़ें
अब मेरे पास जीवन बचा ही कितना है?
कई महीनों तक खूब रोये
जूते के फीते बांधते हुए रोये
बेहद शांत सुबह में रोये किसी चिड़िया को देखकर
भरी दोपहरी में पिता की आई चिट्ठी पढ़कर रोये
किसी पुराने दु:ख से पीछा छुड़ाने के लिए रोये ढलती शाम को देखकर
नए दिन की प्रतीक्षा में रात के आख़िरी पहर में रोये
बीसवीं सदी के आख़िरी छोर पर घनघोर वर्षा में रोये
उन्हें परदेस में रहने का दु:ख था
पिता द्वारा न समझ पाना
उनके साथ किसी घाव की तरह रहा
छुट्टी ख़त्म होने के सप्ताह भर पहले ही उन्हें
हल्का पीला बुखार हो जाता
दोपहर में किसी गाछ की छाँह में सोते हुए
वह उस बच्चे की तरह लगते
जो अपनी माँ से बिछड़ गया हो
जैसे नज़दीक आता घर छोड़ने का समय
कम होने लगती उनकी भूख और नींद
जहर की तरह फैलता जाता वियोग
अक्सर बहुत बेचैन दिखते
जैसे कुछ खो गया हो
एक कोने में पड़ा रहता दोपहर का भोजन
आती ईआ मनाने
फिर जेठ की तपती दोपहरी में बंसवाड़ी में बैठे माँ-बेटा
रोते
वह ईंटें खोजते रहे घर के लिए
परिवार बचाने गए हर सीमा के पार
बने बैल, मशीन, खुरपी
और बने अलाव भी
जलते रहे बची अंतिम चिंगारी तक.
संकेत की भाषा
जूट मिल की घनघनाते मशीनों के बीच में
जब किसी मज़दूर को लगती भूख
वह अपना हाथ पेट पर रखता
प्यास लगती तो वहीं हाथ ले जाता मुँह तक
और लघु-दीर्घ शंका की स्थिति में हाथ
आकार बदल लेते
इन चटकल मिलों में होता इतना शोर
संकेत ही होता संवाद का माध्यम
जूट की बोरियों के उत्पादन का इतना दबाव
पड़ोस के मशीन पर काम करने वाले मज़दूर को
अपने ही भाई की बीमारी के बारे में
पता चलता कई दिनों बाद
किसी मज़दूर को आए अपनी पत्नी की याद
तो कोई संकेत नहीं था उसे कहने के लिए
अगर किसी कारीगर को अपनी नवजात बेटी को
देखने का मन कर रहा हो
उसके पास कोई संकेत नहीं बल्कि प्रतीक्षा थी
दूर कलकत्ता में धूल से ढके चटकल मशीनों के शोर में
अगर किसी को अपने गाँव की होली की याद आए
वह मन के रंग में डूब सकता था
कह नहीं सकता था किसी भाषा या संकेत में
कोई मज़दूर बीमार पड़ जाए परदेस में
कालिख और घुटन के बीच में था उसके पास
सिर्फ एक पोस्टकार्ड
जिस पर पर वह बिहार के किसी सुदूर गाँव में
इंतज़ार कर रहे परिवार को लिखता
‘मैं ठीक हूँ. जल्द ही कुछ पैसे भेजूँगा. मुन्ना से कहना मन लगाकर पढ़े.’
नींद से बहुत दूर खड़े
अपने देह को घसीटते
यही भाषा बची थी
इन मज़दूरों के पास
वे बहुत कुछ छुपा रहे थे दूसरों से
और ख़ुद से भी.
अंतिम साँस की तैयारी
अंतिम साँस लेने से पहले
वह मौत पर करते थे इस तरह बात
जैसे रंग-बिरंगे फूलों का नाज़ुक क़सीदा काढ़ रहे हों
बड़की माँ से कहते
अगर रात के चौथे पहर मरा
तो मत रोना
बस लाश को खटिया से उतार कर रख देना
कोठरी की चिटकिनी लगा देना धीरे-से
करना सुबह का इंतज़ार
बड़कु सिधुआ हैं
पटीदार परेशान करें तो
तीनों भाई एक साथ खड़े होना
हमरा किरिया करम में ढेर खर्चा मत करिह लोगिन
न त लईका सन के पईसा बरबाद होई
अंतिम दिनों में ईआ को मना करते रहे
पिता को खबर न दिया जाए
नहीं तो परदेस में ठेके की नौकरी कर रहे होंगे परेशान
उन्हें याद आते खेत-खलिहान, यार-दोस्त, परब-त्योहार
महुआ टपकता रहता अतीत के आँगन में
मित्र रहते उनके आसपास
श्रम को गमछा की तरह ओढ़े रहे
उनका जाना घर के छायादार पेड़ की विदाई थी
उनके जाने के बाद
महुआ का गाछ बहुत रोया.
पिता से बातचीत
हमारी बातचीत में काश नौकरी की चिंता कम होती
अंधकार का ज़िक्र न होता
फ़ासलों के बाद भी होने वाली इस बातचीत में
भटकाव नहीं होते
अब कभी न संभव होने वाली इस बातचीत में
काश, रंगों और उम्मीदों के लिए जगह होती.
आत्मकथा से बाहर
जहाँ भी पहुँचा
देर से पहुँचा
जहाँ भी रहा बहुत कम रहा
जब भी रोया थोड़ा कम रोया
जब भी बोला थोड़ा कम बोला
अब तक मेरे हाथों जितना भी हो पाया
बहुत-बहुत कम हुआ
जो गुज़र गया वह सिर्फ समय नहीं था
जो बह गया वह सिर्फ दु:ख नहीं था.

यात्रा में रुलाई
कोई कैसे कह सकता है
अब उसे नहीं जीना?
निराशा की कौन-सी ऊँचाई थी
जब जनरल डब्बा के खचा-खच भीड़ में
वह आदमी दहाड़ मारकर रोने लगा
अनजान चेहरों के बीच
बगल में बैठी वह औरत
समझा रही थी उस आदमी को
पर नहीं पहुँच पा रहा था कोई वाक्य
उस तक
वह आदमी
अब रोने लगा था फफक-फफक कर.
वैंटाब्लैक
यह कोई रंग नहीं बल्कि अभाव है
कोई सुरंग है जहाँ सारे रंग बिला जाते हैं
एक शून्य जो निगल रहा है आसमान को
यह वह जगह है जहाँ समाप्त हो जाता है देखना
पर देखने की तृष्णा नहीं
क्या मृत्यु का रंग वैंटाब्लैक है?
क्या शोक भी बना है इसी रंग से?
क्या इस रंग से चित्रित किया जा सकता है वियोग को?
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राकेश कुमार मिश्र लम्बे समय से रंगमंच, साहित्य और अनुवाद की दुनिया में सक्रिय |



