“इतिहास इस बात की गवाही दे रहा है कि जिन देशों या जिन जातियों ने अपनी आर्थिक बातों पर विचार नहीं किया- अपने देश के कला-कौशल और उद्योग-धंधे की उन्नति के उपाय नहीं सोचे- उनकी दुर्दशा हुए बिना नहीं रही.”
(भूमिका: सम्पत्तिशास्त्र- महावीरप्रसाद द्विवेदी, १५ दिसम्बर, १९०७)
हिंदी में अर्थ की चिंता प्रारम्भ से ही रही है- ‘पै धन बिदेश चलि जात इहै अति ख्वारी’ (भारत दुर्दशा-भारतेंदु हरिश्चन्द्र) लेकिन उसे मुकम्मल चिंतन का विषय बनाया १९०७ में ‘सम्पत्तिशास्त्र’ लिखकर महावीरप्रसाद द्विवेदी ने. बांग्ला में सखाराम गणेश देउस्कर की ‘देशेर कथा’ (प्रकाशन-१९०४) से वे परिचित और प्रभावित थे. देशेर कथा के उस समय दो अनुवाद हिंदी में हुए, दूसरा अनुवाद बाबुराव विष्णु पराड़कर ने १९१० में ‘देश की बात’ शीर्षक से किया था जो इधर प्रसिद्ध आलोचक मैनेजर पाण्डेय के संपादन में एनबीटी (२००५) में प्रकाशित हुआ है.
हिंदी में अर्थशास्त्रीय चिंतन की परम्परा क्षीण ही रही, इस दिशा में डॉ. रामविलास शर्मा ने महत्वपूर्ण कार्य किया हालाँकि उनकी इस विषय पर कोई स्वतंत्र किताब नहीं है लेकिन अनेक किताबों और लेखों में उनका यह चिंतन फैला हुआ है. आलोचक-विचारक रविभूषण ने डॉ. रामविलास शर्मा के अर्थशास्त्रीय चिंतन पर विचार करते हुए उसे समकालीन संदर्भों से जोड़ते हुए यह गुरुतर कार्य संपन्न किया है. कहना न होगा कि हिंदी में मूल रूप से लिखने और विचार करने वाले अर्थशास्त्रियों की बहुत जरूरत है.
रामविलास शर्मा का अर्थशास्त्रीय चिंतन
रविभूषण
“विश्व पूंजीवाद के संकटकाल में केन्द्रबद्ध, सुनियोजित अर्थतंत्र को समाजवादी व्यवस्था की विशेषता कहकर उसकी खूब ले-दे हुई है. वास्तव में भारतीय इतिहास के अनेक गौरवशाली युगों का संबंध इस अर्थतंत्र से है. इनमें सबसे पहले आता है हड़प्पा सभ्यता का युग. यह युग उस समय के सबसे बड़े राज्य में केन्द्रबद्ध राज्य सत्ता और सुनियोजित अर्थतंत्र का युग है, इस तथ्य को उजागर करने का श्रेय पुरातत्वज्ञ पिगॉट का है.’’
(‘पश्चिमी एशिया और ऋग्वेद’, 1994, प्रस्तावना, पृष्ठ 19)
‘‘आदिम साम्यवादी व्यवस्था में जो मानव समुदाय संगठित होता है, उसे हम ‘गण’ कहते हैं. यह गण चाहे पशुपालन करे, चाहे खेती करे, जो भी सम्पत्ति होती है, उस पर सारे गण का अधिकार होता है. यदि गण छोटा हुआ तो सभी लोग मिलकर श्रम करेंगे… गण के अनेक घटक अलग-अलग खेती करते हैं. इस घटक को ‘गोत्र’ कहते हैं… यह गोत्र आर्थिक घटक होता है क्योंकि लोग मिलकर उत्पादन का काम करते हैं. यह सामाजिक घटक भी होता है.’’
(‘भारतीय इतिहास और ऐतिहासिक भौतिकवाद’, 1992, पृष्ठ – 29)
‘‘ब्रिटिश-पूर्व भारत के सामाजिक विकास की परख के लिए व्यापारिक पूंजीवाद की पहचान जरूरी है. मार्क्सवाद के रूढ़ि-मुक्त अध्ययन के लिए एक महत्वपूर्ण सूत्र है व्यापारिक पूंजीवाद.’’
(वही, पृष्ठ- 62)
‘‘मुनाफा कमाने के लिए बड़े पैमाने पर मशीनी उत्पादन- यह औद्योगिक पूंजीवाद की विशेषता है. यह पूंजीवाद पुरानी व्यवस्था का नाश करता है, लेकिन पूरी तरह नहीं.’’
(वही, पृष्ठ– 96)
‘‘पूंजीवाद की शुरूआत सूदखोरी से होती है, उसका खात्मा भी सूदखोरी से होता है. महाजनी पूंजीवाद के युग में दुनिया दो तरह की जातियों में बँट जाती है. एक सूद लेनेवाली जातियाँ, दूसरी सूद देने वाली जातियाँ. महाजनी पूंजी उद्योग-धंधों को अपने अधीन कर लेती है. बड़े-बड़े पूंजीवादी संघ बनाकर उत्पादन और वितरण पर इजारा कायम करती है. कच्चे माल के स्रोतों और तैयार माल की बिक्री के बाजारों पर कब्जा कर लेती है. पूंजी के अन्तर-राष्ट्रीयकरण और केन्द्रीयकरण में वृद्धि होती है.’’
(वही, पृष्ठ– 130)
‘‘दर्शन, साहित्य, संस्कृति, इतिहास, राजनीति, अर्थशास्त्र ये सभी तो जीवन सापेक्ष हैं. सभी प्रकार के शास्त्र, साहित्य और दर्शन जो भी सैद्धान्तिक मान्यताएँ विकसित करते हैं, उनका उद्गम भी जीवन यथार्थ ही है. इसलिए ज्ञान की ये स्थितियाँ एक दूसरे के भीतर और बाहर दोनों तरफ संचरण करती हैं.’’
(‘आज के सवाल और मार्क्सवाद’, 2001, पृष्ठ– 78)
(एक)
रामविलास शर्मा की 1933 से 2012 तक लिखित, अनूदित और सम्पादित जो 112 पुस्तकें हैं, उन सबका अभी तक किसी ने गंभीरतापूर्वक अध्ययन नहीं किया है. विवेचन-विश्लेषण की बात बाद की है. उनके लेखन में ‘एकात्मकता, अंतः संबद्धता और अंतस्सूत्रता’ है.
उनके अर्थशास्त्रीय चिंतन-विवेचन पर भी सम्पूर्णता में कोई गंभीर विचार नहीं हुआ है. ‘मार्क्स और पिछड़े हुए समाज’ (1986) के प्रकाशन के बाद नामवर सिंह ने उसी वर्ष यह किताब वीरभारत तलवार को ‘‘आलोचना में समीक्षा लिखने के लिए दी थी’’. यह समीक्षा ‘एक किताब जितनी लम्बी हो गई’. रामविलास जी ने इस पुस्तक के चौथे अध्याय में ‘प्राचीन और मध्यकालीन भारत: पगारजीवी श्रम की भूमिका’ पर 76-77 पृष्ठों में विचार किया था. तलवार ने ‘रामविलास शर्मा की विवेचन-पद्धति और मार्क्सवाद’ पर अपनी पुस्तक ‘सामना: रामविलास शर्मा की विवेचन-पद्धति और मार्क्सवाद तथा अन्य निबंध’ (2005) के चार अध्यायों में से एक में उनके व्यापारिक पूंजीवाद पर भी विचार किया है. उन्होंने पूंजीवाद-संबंधी डॉ. शर्मा के समग्र अध्ययन पर ध्यान नहीं दिया है. इन पंक्तियों के लेखक ने 2011 में दिल्ली में आयोजित उन पर वार्षिक कार्यक्रम में केवल ‘जुआरी सभ्यता’ या सट्टेबाजी-संबंधी उनके विचारों को ही सामने रखा था. बाद में ‘साम्य’ सम्पादक विजय गुप्त ने ‘रामविलास शर्मा का अर्थशास्त्रीय चिन्तन’ एक लेख लिखा, (उद्भावना: रामविलास शर्मा महाविशेषांक, 2012) जिसमें अत्यन्त संक्षेप में उनके अर्थशास्त्रीय चिन्तन-पक्ष पर आंशिक रूप में अपने विचार रखे.
रामविलास शर्मा को कोई इतिहासकार इतिहासकार नहीं मानता. वे समाजशास्त्रियों और भाषा वैज्ञानिकों की दृष्टि में भी न तो समाजशास्त्री हैं, न भाषा वैज्ञानिक. उनके व्यापक लेखन का अध्ययन कठिन है, पर उन्हें समग्रता में देखने-समझने के प्रयत्न जारी रहने चाहिए. उन्हें समझे बिना भी उनपर कई आरोप मढ़े गये हैं, कुछ बहसें भी हाई हैं, जो आगे भी जरी रहेंगी. डॉ. शर्मा अपने प्रशंसकों को भी पहले पढ़ने को कहते हैं.
‘‘मुझे निन्दकों का डर नहीं है और प्रशंसकों की आवश्यकता भी नहीं है. मुझे पढ़ने और समझने वालों की आवश्यकता है और यह भरोसा नहीं हो पाता कि लोग मुझे ध्यान से पढ़ते और समझते भी हैं’’
(उद्भावना, रामविलास शर्मा महाविशेषांक, पृष्ठ- 233 पर उद्धृत)
उनके अर्थशास्त्रीय लेखन-चिंतन का क्षेत्र व्यापक है. वे ऋग्वेद कालीन भारत और हड़प्पा सभ्यता से लेकर बीसवीं शताब्दी के अंत तक की आर्थिकी और पूंजीवाद पर विचार करते हैं. चार-पाँच हजार वर्ष की इस सुदीर्घ विचार-यात्रा में कुछ त्रुटियों का होना स्वाभाविक है. इससे उनके अर्थशास्त्रीय चिन्तन का महत्व घट नहीं जाता.
भारत और यूरोप में पूंजी और पूंजीवाद के विकास की कई मंजिलें हैं. एडम स्म्थि (5.6.1723-17.7.1790) को ‘अर्थशास्त्र का पितामह’ कहा जाता है. क्लासिकल अर्थशास्त्र का उनका मूलभूत ग्रंथ ‘द वेल्थ ऑफ नेशंस’ 1776 में प्रकाशित हुआ था. इसके सत्रह वर्ष पहले ‘द थ्योरी ऑफ मोरल सेंटीमेंटस’ (1759) प्रकाशित हुई थी, जिसकी कम चर्चा होती है. रामविलास जी ने 16वीं सदी से बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध के अंतिम चरण को ‘इंग्लैण्ड और यूरोप के सामाजिक विकास की मंजिल’ माना है. वे कई प्रकार का पूंजीवाद मानते हैं.
उद्योग, व्यापार और महाजनी, पूंजीवाद के लिए ये तीनों जरूरी हैं, पहले दौर में भाप से चलनेवाली मशीनों का उपयोग नहीं होता. उत्पादन के औजार पुराने होते हैं. उत्पादन का यह तरीका उनकी दृष्टि में दो विशेषताओं- मुनाफे के लिए माल तैयार करना और पेशगी धन देकर कारीगर की श्रम शक्ति खरीदने के कारण पूंजीवादी है. हाथ से औजारों के इस्तेमाल के कारण इसे वे ‘दस्तकारी पूंजीवाद’ कहते हैं.
औद्योगिक क्रान्ति युग 1760 ई. से 1840 ई. तक का है. इंग्लैण्ड का औद्योगिक विकास 1757 ई. के बाद आरंभ होता है. जहाँ तक नये यांत्रिक आविष्कारों का प्रश्न है, जॉन के (1704-1779) ने, सन् 1723 ई. में फ्लाइंग शटल नामक एक मशीन का आविष्कार किया, जिससे एक व्यक्ति कम समय में अधिक कपड़ा बुन सकता था.
रिचर्ड आर्कराइट (23.12.1732-3.8.1792) ने कताई फ्रेम का आविष्कार किया (पानी फ्रेम) था 1769 में. रामविलास शर्मा 1757 को ‘भारत और इंग्लैण्ड दोनों के इतिहास के लिए महत्वपूर्ण’ मानते हैं. इंग्लैण्ड का औद्योगिक इतिहास 1757 से आरंभ होता है और इसी वर्ष पलासी की लड़ाई के बाद वे भारत का आर्थिक विकास अवरूद्ध देखते हैं. 1757 का महत्व इस रूप में भी है कि इसी वर्ष इंग्लैण्ड के श्रॉप शायर में विश्व में लोहे से निर्मित पहला पुल बना. औद्योगिक क्रान्ति का आरंभ वस्त्र-उद्योग के मशीनीकरण से हुआ था. वाष्प इंजन को औद्योगिक क्रान्ति का प्रतीक माना गया.
आर्नल्ड टॉयनबी(ब्रिटिश, आर्थिक इतिहासकार, 23.8.1852-9.3.1883) ने ‘लेक्चर्स ऑन न द इंडिस्ट्रियल रेवोल्यूशन इन इंग्लैंड’ (1884) में ‘औद्योगिक क्रान्ति’ पद का प्रयोग किया. रामविलास शर्मा ने ‘इंडिस्ट्रियल रेवोल्यूशन’ के समान कुछ इतिहासकारों द्वारा ‘कमर्शल रेवोल्यूशन’ (‘सौदागरी क्रान्ति’) की चर्चा की भी बात कही है. उन्होंने एंगेल्स, लेनिन और स्टालिन की पुस्तक ‘कार्ल मार्क्स और उनके सिद्धान्त’ (1952) का, 1957 में माओ त्से तुंग ग्रंथावली के प्रथम भाग का अनुवाद और 1974 में मार्क्स की ‘पूंजी’ खण्ड – 2 का अनुवाद किया था.
व्यापारिक पूंजीवाद की तुलना में औद्योगिक पूंजीवाद की प्रधानता वे अधिक समय तक नहीं देखते. 1867 में दूसरे रिफार्म बिल के पास होने के बाद वे औद्योगिक पूंजीवाद के हाथ में राजनीतिक शक्ति को देखते हैं. इसके पहले वह आर्थिक शक्ति था. 1875 से वे ‘महाजनी पूंजीवाद’ का आरंभ मानते हैं, जो बीसवीं शताब्दी में प्रथम विश्व-युद्ध के पहले राज्यसत्ता पर हावी हुआ.
रामविलास शर्मा अपनी इस मान्यता पर सदैव अडिग रहे हैं कि अंग्रेजों ने भारत का विकास नहीं किया. उन्होंने विश्व-विकास को यूरोप केन्द्रित नहीं माना है. वे प्राचीन सभ्यता के तीन प्रमुख केन्द्रों- मिस्र, (2000-150 ईसा पूर्व) सुमेर (2300-2150 ईसा पूर्व) या मेसोपोटामिया और भारत को परस्पर संबद्ध मानते हैं.मिस्र और सुमेर में भारत से निर्यात की गयी अनेक वस्तुओं के आधार पर उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला है कि सुमेर में भारतीय व्यापारियों के उपनिवेश भी थे. (‘पश्चिम एशिया और ऋग्वेद’, 1994, पुष्ठ 85) वे वैदिक सभ्यता और हड़प्पा सभ्यता का विकास एक ही क्षेत्र में देखते हैं.
‘‘रेडियो-कार्बन काल-निर्धारण पद्धति से हड़प्पा सभ्यता की शुरूआत2700 और 2500 वर्ष ईसा पूर्व के बीच मानी जाती है. बड़े पैमाने पर नगर समाजों का एकीकरण 2600 के आस-पास शुरू हुआ.’’
(भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश, खण्ड 1, 1999, पृष्ठ – 153)
हड़प्पा और उपनिषद को वे ऋग्वेद की परम्परा में देखते हैं.
‘‘ऋग्वेद में सामाजिक विकास की जो मंजिलें दिखाई देती हैं, उन्हीं के आगे की मंजिल हड़प्पा सभ्यता के भीतर विद्यमान है. ’’
(वही, पृष्ठ – 136)
उन्होंने बार-बार इस धारणा का खण्डन किया है कि भारत ग्राम-समाजों का देश है और यहां के लोग यूरोप की तुलना में पिछड़े हुए हैं. वे यूरोप केन्द्रित सभ्यता की तुलना में अन्य सभ्यताओं को ‘ठहराव तथा अलगाव की हालत में’ नहीं देखते. अपने अर्थशास्त्रीय विवेचन में वे ऋग्वेद के पहले के गण समाज की व्यवस्था पर भी विचार करते हैं. ऋग्वेद का समाज गण-समाज के बाद का है. ऋग्वेद के पहले के गण समाज की व्यवस्था पर विचार करते हैं. ऋग्वेद का समाज गण-समाज के बाद का है. ऋग्वेद और रामायण के समाजों से महाभारत के समाज को उन्होंने ‘पिछड़ा’ कहा है. गण समाज पहले था, व्यक्तिगत सम्पत्ति वाला समाज उसके बाद का है. गणसम्पत्ति के विघटन के बाद उसके स्थान पर व्यक्तिगत सम्पत्ति के चलन को उन्होंने ‘प्राचीन काल की बहुत बड़ी सामाजिक क्रान्ति’ (वही पृष्ठ 42-43) कहा है.
“ऋग्वेद का समाज आदिम साम्यवादी समाज नहीं है, वह इस व्यवस्था से बाहर निकल आया है. व्यक्तिगत सम्पत्ति यहाँ दृढ़ता से स्थापित है. समाज में सम्पत्ति-भेद पैदा हो गया है.’’
(वही, पृष्ठ 11)
‘भारतीय साहित्य की भूमिका’ (1996) के तीसरे अध्याय ‘नगर सभ्यता और वर्ण व्यवस्था’ के दूसरे उपखण्ड ‘वैदिक काल में विनिमय और लेनदेन’ में वे ऋग्वैदिक काल में विनिमय का कम विकास देखते हैं और यह नहीं मानते कि उस समय विनिमय एकदम नहीं होता था. भारतीय-ईरानी भाषाओं में ‘क्रय’ के लिए ‘क्रिणाति’ शब्द का प्रयोग है. ऋग्वेद में ‘विक्रीत’ शब्द के उल्लेख से वे यह अनुमान करते हैं कि
‘‘भारतीय ईरानी काल में पारस्परिक आदान-प्रदान के रूप में क्रय तथा विक्रय विद्यमान रहे होंगे.”
(भारतीय साहित्य की भूमिका; 1996, पृष्ठ 99)
डॉ. शर्मा के अनुमान का एक आधार है. मोनियर विलियम्स ने ‘वस्न’ का अर्थ ‘प्राइस’ ओर ‘वैल्यू’ किया है तथा ‘वैदिक इंडेक्स’ के लेखकों ने ‘क्रय’ के अंतर्गत ‘शुल्क’ को भी माना है. बेचने-खरीदने का ऐसा चलन आदिम अवस्था में है. रामशरण शर्मा ने ‘वाणिज्य’ के लिए किसी स्पष्ट प्रमाण के न होने की बात कही थी. वे प्राचीन भारत के बड़े इतिहासकार हैं. रामविलास शर्मा के लिए महत्वपूर्ण बात यह है कि ऋग्वेद में केवल ‘वणिज’ का ही नहीं, ‘औशिजाय दीर्घ श्रवसे वणिजे’ का भी उल्लेख है. ‘उशिक पुत्र दीर्घश्रवा नामक व्यापारी’ को उन्होंने ‘विश्व साहित्य में व्यापारी का पहला नामोल्लेख’ माना है.
अथर्ववेद में व्यापार में सफलता के लिए पहली प्रार्थना है और मंत्र में स्वयं इन्द्र को धन से व्यापारी कहा गया है. ‘धनेन धनं इच्छमानः’ में धन से धन कमाने की बात है. रामशरण शर्मा ने ‘प्राचीन भारत में भौतिक प्रगति एवं सामाजिक संरचनाएँ’ पुस्तक में उस समय सिक्कों के न होने के कारण यह लिखा है कि ब्याज लेने की प्रथा संभवतः प्रारंभ ही नहीं हुई होगी. रामविलास शर्मा की विशेषता यह है कि वे शब्दों में अवगाहन करते हैं, उसके प्रयोग का सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक पक्ष भी देखते हैं. यास्क ने ऋग्वेद के ‘बेकनाट’ शब्द का अर्थ ‘सूदखोर’ किया है. सातवलेकर ने 8.66.10 मंत्र के अनुवाद में इन्द्र द्वारा सभी सूदखोरों और दिन गिनने वाले कंजूसों को अपने कर्म से दबाने की बात कही है. (वही पृष्ठ 101) ऋग्वेद के पहले, दूसरे, चौथे, आठवें, नवें और दसवें मंडलों में ‘ऋण’ शब्द के प्रयोग पर उनका ध्यान है और उनके लिए ऋण देना ‘सामान्य क्रिया’ न होकर एक तरह की विपत्ति है. ग्रिफिथ, मोनियर विलियम्स, सातवलेकर को आधार बना कर उन्होंने यह प्रमाणित किया है कि ऋग्वेद में ‘ब्याज’ के लिए शब्द है और वहाँ अंधकार को ऋण की तरह माना गया है.
‘‘व्यक्तिगत सम्पत्ति के उद्भव के साथ हर समाज में सूदखोरी का चलन हो जाता है. यह स्थिति ऋग्वैदिक समाज में थी. जो कर्ज न चुकाये, वह अपराधी के समान था और दण्डनीय था.’’
(वही पृष्ठ 102)
ऋग्वेद के ‘पुर’ को ही नहीं, ‘ग्राम’ को भी उन्होंने ‘आदिम साम्यवाद के आगे की मंजिल’ कहा है. आधार यह है कि वहां सम्पत्ति सामूहिक नहीं, व्यक्तिगत है. प्राचीन भारत के इतिहास को जिन्होंने ‘ग्राम समाजों’ का इतिहास माना है, उसका डॉ. शर्मा ने सप्रमाण खण्डन किया है. भारत की नगर सभ्यता को उन्होंने यूनान से ‘कहीं’ अधिक स्थायी’ माना है. ऋग्वेद में हड़प्पा और मोहनजोदड़ो जैसे नगर नहीं हैं, पर वहाँ उद्योग-धंधों का विकास है, जो कृषितंत्र की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए और स्वतंत्र रूप से भी हुआ है. अग्नि का संबंध उद्योग-धंधों के विकास से है. भाप से चलने वाले इंजन की तुलना में मानव-विकास में अग्नि का महत्व है, क्योंकि इसने मानव-विकास में ‘जबर्दस्त छलांग’ लगायी.
ऋग्वेद के देवों में ‘इन्द्र’ और ‘अग्नि’ प्रमुख हैं. ऋग्वेद में ‘अग्नि’ का उल्लेख वे केवल भोजन पकाने में ही न देख कर ‘धातु उद्योग के विकास’ में भी देखते हैं. अन्य उद्योगों के साथ वैदिक काल में ‘गृह-निर्माण और पुर-निर्माण के उद्योग का भी यथेष्ट विकास’ उन्होंने देखा है. उनकी मुख्य स्थापना यह है कि इस युग में व्यक्तिगत सम्पत्ति की स्थापना हो चुकी है. एंगेल्स ने सभ्यता के विकास में व्यक्तिगत सम्पत्ति का उद्भव आवश्यक माना है. रामविलास जी का महत्व यह है कि उन्होंने ऋग्वेद में व्यक्तिगत सम्पत्ति का चलन कई उदाहरणों से पुष्ट किया. वहाँ मनुष्य के हाथ का महत्व है, जिसे देखकर महान तुर्की कवि नाजिम हिकमत (15.1.1902-3.6.1963) की ‘हाथ’ कविता याद आती है. ऋग्वेद में मनुष्य के ‘हाथ’ को डॉ. शर्मा ने ‘भगवान’ माना है. वैदिक युग के स्वाधीन किसानों वाले समाज को समझने में उन्होंने ‘पूंजी’ के तीसरे खण्ड का यह अंश उद्धृत किया है-
‘‘भूखंडों का मालिक किसान स्वयं है. स्वाधीन रूप से वह उनका प्रबंध करता है. यह व्यवस्था सामान्य और व्यापक होती है. क्लासिकल प्राचीनता के सबसे अच्छे दौरों में वह समाज की आर्थिक बुनियाद होती है.’’
(वही, पृष्ठ 58-59)
ऋग्वेद कालीन समाज में राजा भूमि का मालिक नहीं है. सामंती व्यवस्था के राजाओं से ये भिन्न हैं. ऋग्वेद में ‘शफ’ का अर्थ मूल धन और ‘कला’ का अर्थ ब्याज भी हैं सूदखोर के लिए ‘बेकनाट’ के अलावा ‘पणि’ (वणिक) भी है, जो वाणिज्य के साथ सूदखोरी भी करते हैं
ऋग्वेद में डा. शर्मा मानसिक और शारीरिक श्रम का विभाजन नहीं देखते हैं. वहाँ ‘न तो बड़े पैमाने पर भूमि का केन्द्रीयकरण’ है, न ‘व्यापारियों के यहाँ वित्त का केन्द्रीयकरण’ है.
‘पश्चिमी एशिया और ऋग्वेद’ (1994) का 26 पृष्ठों का दूसरा अध्याय है- ‘हड़प्पा: केन्द्रबद्ध राज्यसत्ता और सुनियोजित अर्थतंत्र’.
आरंभ में ही रामविलास जी ने ब्रिटिश पुरातत्त्वविद स्टुअर्ट पिगॉट (28.5.1910-23.10.1926) की पुस्तक ‘प्रागेतिहासिक भारत’ (1949) का उल्लेख किया है, जिसमें ‘हड़प्पा सभ्यता के आर्थिक पक्ष का नया मूल्यांकन’ है. पिगॉट ने ‘भारत के पारवर्ती सामाजिक विकास’ पर हड़प्पा सभ्यता के प्रभाव की बात कही थी और ‘आर्थिक राजनीतिक संगठनों’ पर बल दिया था. हड़प्पा सभ्यता को पिगॉट ने ‘मूलतः भारतीय सभ्यता’ कहा है. हड़प्पा की केन्द्रबद्ध राज्यसत्ता और सुनियोजित अर्थतंत्र पर डॉ. शर्मा के विचार का मुख्य आधार पिगॉट हैं, यद्यपि वे पिगॉट के कुछ विचारों से असहमत भी हैं. पिगॉट ने इस समय के उद्योग को ‘कारीगर संघ के उद्याग’ से भिन्न माना था. रामविलास जी ने इसे ‘नए ढंग का संगठित उद्योग’ कहा है.
‘‘पश्चिम एशिया में प्रथम वास्तव में संगठित उद्योग का श्रेय अनुमानतः हमें हड़प्पा सभ्यता को देना चाहिए.’’
(पश्चिम एशिया और ऋग्वेद, 1994 पृष्ठ 46)
(दो )
मिस्र और सुमेर (मेसोपोटामिया) प्राचीन संसार के सर्वाधिक विकसित देश थे, पर संगठित उद्योग में हड़प्पा उद्योग उनसे आगे था. यह ‘कारीगर संघ’ से भिन्न ‘शिल्पी संघ’ था, जो ‘एक सुसंबद्ध बाजार में थोक खपत के लिए’ सामान बनाता था. व्यापारी वर्ग माल खरीदता-बेचता था. व्यापारी वर्ग के आगमन के बाद मुनाफे के लिए बिकाऊ माल पैदा किया जाता था. पिगॉट ने इस समय ‘नियोजित अर्थतंत्र’ (प्लान्ड इकॉनोमी) की बात कही है. हड़प्पा की प्रसिद्धि नगर-निर्माण को लेकर है. हड़प्पा और मोहनजोदड़ों में श्रमिकों के निवास थे. रामविलास जी ने इस अर्थतंत्र की विशेषता ‘शहर और देहात का उत्पादन एक ही योजना के अनुसार संचालित’ माना है. अर्थव्यवस्था नियंत्रित और नियोजित थी. वस्तु-निर्माण के उद्योग के साथ खानों का उद्योग था. हड़प्पा नगर का एक भाग ‘अर्धउद्योगीकृत था, धातुकर्मियों (मेटल वर्कर्स) के कारण. पिगॉट ने एक से अधिक बार सूती कपड़ों के व्यापार का उल्लेख किया है. रामविलास जी ने उसे आगे बढ़ाया.
‘‘कपास की खेती की शुरूआत भारत में हुई, सूत कपड़ा बनाने का कौशल भारत में आरंभ हुआ, फिर वह अन्य देशों में फैला… भारतीय सूती कपड़े के बदले सोना, चाँदी देने की प्रथा हड़प्पा काल में शुरू हो गई थी.’
(वही, पृष्ठ 50)
‘ठप्पा मुहर’ जैसी उस समय की मुद्राओं के आधार पर वे इस सभ्यता को ‘व्यावसायिक सभ्यता का पूर्वाभास’ देने वाली कहते हैं और हड़प्पा की सभ्यता को ‘एक लम्बे विकास का परिणाम’ के रूप में देखते हैं. सभ्यता के विकास में लौह युग को कांस्य युग से आगे माना गया है. लौह युग में ब्रिटेन और रोम दोनों थे. ब्रिटेन बर्बर था और रोम सभ्य. कांस्य युग में हड़प्पा के होने के बाद भी उसे डॉ. शर्मा ने ‘रोम के समतुल्य’ कहा है.
‘‘मनुष्य किस धातु से उपकरण बनाते हैं, सभ्यता के विकास के लिए यह तथ्य निर्णायक नहीं है. निर्णायक तथ्य यह है कि वे उन उपकरणों का प्रयोग किस काम के लिए करते हैं और इस काम के दौरान अपास में किस तरह के सामाजिक संबंध कायम करते हैं.’’
(वही, पृष्ठ – 53)
उन्होंने हड़प्पा-युग में ‘तकनीकी विकास’ और ‘विनिमय के उपकरण’ पर भी विचार किया.
हड़प्पा राज्य से मौर्य राज्य की तुलना का उनके लिए ‘असाधारण महत्व’ है. पिगॉट ने हड़प्पा सभ्यता के अवसान पर विशेष जोर नहीं दिया था.
‘‘हड़प्पा सभ्यता का ह्रास 1750 ईसा पूर्व के लगभग होता है. उस समय सरस्वती जलहीन हो रही है. कालीबंगा के उत्खनन से यह तथ्य सामने आया है. ’’
(वही पृष्ठ- 18)
कालीबंगा चार हजार ईसा पूर्व से भी अधिक प्राचीन मानी गयी है. 1952 में अमलानन्द घोष (1910-1981) ने इसकी खोज की थी. वे प्रतिष्ठित पुरातत्त्वविद और भारतीय पुरातात्त्विक सर्वेक्षण के महा निदेशक थे राजस्थान के हनुमानगढ़ जिला के इस प्राचीन ऐतिहासिक स्थल में बी.के. थापर (18.10.1921-6.9.1995) और बी.बी. लाल (2.6.1921) ने 1961-69 में यहाँ उत्खनन कार्य किया. कालीबंगा हड़प्पा समय से लगभग हजार वर्ष पहले का है. ‘ऋग्वेद’ और उसके बहुत बाद के ‘यजुर्वेद’ में सरस्वती ‘जल से भरी शक्तिशाली नदी’ है. सरस्वती को ‘भारत के प्राचीन इतिहास की काल-विभाजक रेखा’ मानकर डॉ. शर्मा ऋग्वेद की रचना को ‘‘हड़प्पा सभ्यता के ह्रास से, 1750 ई.पू. से बहुत पहले’ की मानते हैं.
मौर्य राज्य को उन्होंने हड़प्पा राज्य का ‘उत्तराधिकारी’ माना है. टॉयनबी के इस कथन को कि ‘हड़प्पा राज्य ने मौर्यों को ‘पितृत्व प्रदान’ किया था. पिगॉट ने अतिशयोक्तिपूर्ण माना है. उन्होंने इस सभ्यता की निरन्तरता की बात कही थी. चन्द्रगुप्त मौर्य ने ‘हड़प्पा सभ्यता की असैनिक, आर्थिक और राजनीतिक धरोहर की रक्षा’ की. मौर्य राज्य की स्थापना 322 ईसा पूर्व में हुई थी. मौर्य राजवंश ईसा पूर्व 322-185 में था. इसने भारत में 137 वर्ष तक राज्य किया था जिसकी स्थापना का श्रेय चन्द्रगुप्त मौर्य और मंत्री चाणक्य (कौटिल्य) को दिया जाता है. इसकी राजधानी पाटलिपुत्र थी. पचास लाख किलोमीटर इस राज्य का क्षेत्रफल था. 24 वर्ष राज्य करने वाले चन्द्रगुप्त मौर्य पहले शासक थे और अन्तिम शासक बृहद्रथ था, जिसने मात्र दो वर्ष राज किया.
हिन्दी में कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ की विस्तारपूर्वक चर्चा डॉ. शर्मा ने ‘मार्क्स और पिछड़े हुए समाज’ (1986) के चौथे अध्याय ‘प्राचीन और मध्यकालीन’ भारत: पगारजीवी श्रम की भूमिका’ में की हैं एंगेल्स ने ‘एन्टी डूयरिंग (1877, अंग्रेजी अनुवाद 1907 में प्रकाशित) की एक पाद टिप्पणी में ‘पगार वाले श्रम में उत्पादन की सारी पूंजीवादी पद्धति भ्रूण रूप में विद्यमान’ होने की बात लिखी थी और पगार वाले श्रम को ‘बहुत प्राचीन’ कहा था. रामविलास शर्मा ने इसे उद्धृत किया. आवश्यक ऐतिहासिक शर्तें पूरी किये जाने के बाद ही ‘भ्रूण’ पूर्णतः विकसित होकर ‘उत्पादन की पूंजीवादी पद्धति’ बन सकता था. ‘इतिहास और समकालीन परिदृश्य’ श्रृंखला के अंतर्गत डॉ. शर्मा ने पहले जो कुछ पुस्तिकाएँ प्रकाशित की थीं, उनमें व्यापारिक, औद्योगिक और महाजनी पूंजीवाद की तीन पुस्तिकाएं भी थीं. ‘भारतीय इतिहास और ऐतिहासिक भौतिकवाद’ (1992) में वे सभी पुस्तिकाएं शामिल की गयीं. ‘सामंती खोल के भीतर’ उन्होंने ‘एक नए अर्थतंत्र व्यापारिक पूंजीवाद’ के विकास की बात कही है. वे कारखानेदारी को ‘व्यापारिक पूंजीवाद के अन्तर्गत’ रखते हैं. वे पगार देकर मेहनत कराने को सामंती समाज की विशेषता न मानकर पूंजीवादी समाज की विशेषता मानते हैं.
‘‘पूंजीवादी पद्धति से पगार वाले श्रम का संबंध तब दिखाई देता है, जब कारीगर से काम कराने वाला व्यक्ति स्वयं कारीगर नहीं होता, जब यह व्यक्ति कारीगर से निजी उपभोग के लिए नहीं, विनिमय के लिए माल तैयार कराता है’’
(‘मार्क्स और पिछड़े हुए समाज’, 1986, पृष्ठ – 174)
(तीन)
भारत में कौटिल्य से पहले अर्थशास्त्रीय विचारकों का अभाव नहीं था. कौटिल्य ने अपने से पहले के जिन आचार्यों का उल्लेख किया है, उनके ग्रंथ अनुपलब्ध हैं. रामविलास शर्मा का अनुमान है कि पहले की नगर-परम्परा और अर्थशास्त्र की परम्परा के आधार पर ही कौटिल्य ने ‘अर्थशास्त्र’ की रचना की. कौटिल्य का समय ईसा पूर्व 375-283 वर्ष है. मौर्य साम्राज्य की स्थापना में उनकी प्रमुख भूमिका थी. ‘अर्थशास्त्र’ में नियोजन और संगठन का विस्तृत ब्योरा है, जिसे देखकर डॉ. शर्मा संगठित-नियोजित, हड़प्पाई उद्योग को याद करते हैं. ‘अर्थशास्त्र’ में वस्तुओं का मूल्य निर्धारित करने वाले को ‘पण्याध्यक्ष’, तराजू और बाट-बटखेरा की जाँच करने वालों को ‘संस्थाध्यक्ष’, सूत कातने, कपड़ा बुनने की व्यवस्था करने वाले को ‘सूत्राध्यक्ष’, नाप-तौल के उपकरणों को बनवाने और उसकी जाँच करने वालों को ‘पौतवाध्यक्ष’, खेती की देखभाल करने वाले को ‘सीताध्यक्ष’, पशुपालन के लिए ‘गोअध्यक्ष’ और कताई के लिए ‘सूत्रशाला’ का उल्लेख है. हड़प्पाई और मौर्य राज्य सत्ता में यह समानता थी कि दोनों सत्ताओं का ‘प्रधान लक्ष्य बिकाऊ माल का उत्पादन और वितरण’ था.
कोसंबी ने ‘अर्थशास्त्र’ के ‘राजनीतिक सिद्धान्त और उसकी प्रशासनिक नीति में बुनियादी अन्तर्विरोध’ के कारण आगे के प्रगति-मार्ग को बंद किये जाने की बात कही थी. डॉ. शर्मा कोसंबी (धर्मानन्द दामोदर कोसंबी, 31.7.1907-29.6.1966) की इस स्थापना से सहमत हैं कि चन्द्रगुप्त की समाज-व्यवस्था की विशेषता ‘राज्यसत्ता के प्राधान्य में चलने वाला बिकाऊ माल का उत्पादन है.’
इस प्रधानता को वे आर्थिक प्रगति में बाधक न मानकर सहायक इसलिए मानते हैं कि ‘‘व्यापारी के मुनाफे को मर्यादित करके वह उपभोक्ताओं को ठगे जाने से बचाती हैं.’’ (‘पश्चिमी एशिया और ऋग्वेद, पृष्ठ 57) श्रम के लिए ‘पगार’ देने की प्रथा मौर्य राजवंश के पहले से थी. कौटिल्य ने ‘इति आचार्याः’ कह कर पुराने आचार्यों के मतों का उल्लेख किया था. हड़प्पा काल में भारतीय वस्त्र सुमेर में बिकने की बात कही गयी है. उन्होंने भारतीय वस्त्रों के सुमेर में बिकने के कारण यह ‘तर्कसंगत अनुमान’ लगाया है कि ‘‘उस समय भी सूत कातने और कपड़ा बुनने के लिए पगार दी जाती थी.’’ (वही पृष्ठ 58)
यह पगार एक प्रकार का वेतन था. पिगॉट ‘वेतन देकर श्रम कराने की प्रथा’ से अपरिचित थे, इसलिए उन्होंने ‘निरंकुश राज्य सत्ता की कल्पना’ की थी. कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ में ‘पगार देकर श्रम कराने की प्रथा’ पर रामविलास जी विचार करते हैं. वे इस ग्रन्थ को यूरोप का इतिहास समझने में भी सहायक मानते हैं. लिखते हैं–
‘‘इससे… ऐतिहासिक भौतिकवाद की कछ धारणाएँ अधिक स्पष्ट होंगी.’’
(मार्क्स और पिछड़े हुए समाज, पृष्ठ 176)
वह पेशगी पगार को ‘उस ददनी प्रथा की सूचक’ मानते हैं.
‘‘जिसमें उत्पादक माल तैयार करने से पहले ही उसे बेच चुका होता है. यह प्रथा पूंजीवादी उत्पादन पद्धति का आदिम रूप है.’’
(वही, पृष्ठ 177)
‘पगार’ देने की बात ‘रामायण’ में भी है. संस्कृत विद्वान राधावल्लभ त्रिपाठी ने ‘अर्थशास्त्र: हमारे पास, हमसे दूर, एक लोकोपकारी शास्त्र की विवेचना’ लेख (प्रतिमान: जनवरी-जून 2015, वर्ष 3, खण्ड 3, अंक 1) में ‘अर्थशास्त्र की प्राचीन परम्परा’ पर विचार किया है. ‘रामायण’ में राम ने भरत से यह पूछा है.
‘‘ढलती रात में तुम अर्थ की व्यवस्था को लेकर सोच-विचार तो करते हो न? तुम अकेले तो मंत्रणा नहीं करते?… तुम अपनी सेना के सैनिकों को समय पर पगार तो दे देते हो न? इसमें विलंब तो नहीं करते? सैनिकों को पगार देने में विलम्ब होने पर वे अपने मालिक से चिढ़ जाते हैं और यही महान अर्थ होता है.’’ (पृष्ठ 70)
स्पष्ट है कि ईसा पूर्व की पहली शताब्दी में ‘पगार’ का चलन था. रामायण कालीन अर्थशास्त्र की और कौटिल्य के अर्थशास्त्र में अंतर है. डॉ. त्रिपाठी रामायण और महाभारत कालीन अर्थशास्त्र की तुलना में कौटिल्य के अर्थशास्त्र में एक ‘अनोखापन’ देखते हैं-
‘‘रामायण और महाभारत में राम और भीष्म के द्वारा प्रतिपादित अर्थशास्त्रों से कौटिल्य के अर्थशास्त्र का अनोखापन लोक को वरीयता देने के साथ ही आनवीशिक्षकी (तर्कपूर्वक परीक्षण) पर बल देने के कारण है. ’’
(वही पृष्ठ 73)
अब रामविलास शर्मा के व्यापारिक पूंजीवाद, ‘पगार’ आदि पर विचार के क्रम में डॉ. त्रिपाठी के इस लेख का उल्लेख अत्यावश्यक है. रामविलास शर्मा ने रामायण और महाभारत कालीन अर्थशास्त्र पर विस्तारपूर्वक विचार नहीं किया था. डॉ. त्रिपाठी पहले विद्वान हैं, जिन्होंने अपने इस लेख में ईसा के हजार वर्ष पहले के ‘अर्थशास्त्रा के विकास का एक खाका’ प्रस्तुत किया है. वे राम द्वारा प्रस्तुत अर्थशास्त्र की रूपरेखा को कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ से ‘बहुत अलग’ मानते हैं ‘‘क्योंकि कौटिल्य का अर्थशास्त्र तो आनवीशिक्षकी को बहुत महत्व देता है और राम आनवीशिक्षकी के आधार पर बात करने वाले लोकायतिकों के खिलाफ मन्तव्य प्रकट करते हैं’’
(वही पृष्ठ 71)
‘रामायण’, ‘महाभारत’ और ‘अर्थशास्त्र’ पर पहली बार व्यापक, गंभीर, शोधपरक अध्ययन-विवेचन डॉ. त्रिपाठी के यहाँ है. रामायण और महाभारत में अर्थशास्त्र ‘धर्मशास्त्र के पासंग बनकर विकसित हुए’ थे. कौटिल्य ने पहली बार अर्थशास्त्र को धर्मशास्त्र से अलग किया. ‘‘धर्मशास्त्र के समानान्तर तथा इनके पूरक के रूप में अर्थशास्त्र को रखा.’’
(वही, पृष्ठ 74)
भारत में अर्थशास्त्रीय चिन्तन-विवेचन की प्राचीन परम्परा है.
‘‘कौटिल्य ने अपने से पहले के अर्थशास्त्र को कम से कम दस आचार्यों या उनके सम्प्रदायों का उल्लेख किया है. ये हैं :मानव (मनु का सम्प्रदाय), बार्हस्पत्य (बृहस्पति का सम्प्रदाय), औशनस (उशना का या शुक्राचार्य का सम्प्रदाय), भारद्वाज या द्रोणाचार्य, विशालाक्ष, पराशर, पिशुन (नारद) कौणपदन्त (भीष्म), वातव्याधि (उद्भव) तथा बाहुदंतीपुत्र (इन्द्र)’’
डॉ. त्रिपाठी ने कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ में ‘पगार’ लेकर काम न करने पर बारह पण दण्ड देने का उल्लेख किया है. कौटिल्य ने शुल्क या टैक्स के पचीसो प्रकार बताए हैं.
‘‘परिघ, रूपिक, षड्भाग, सेनाभक्त, बलि, कार, उत्संग, पार्श्व, कौष्ठेयक, गुल्मदेय, तारदेय, वर्तनी, अतिवाहिक, शुल्क, क्लृप्त- ये सब अलग-अलग तरह के टैक्स हैं. ’’
(वही, पृष्ठ 87)
‘पगार’ की प्रथा भारत में प्राचीन थी. ‘पगार’ देकर श्रम कराया जाता था और ‘पगार’ एक प्रकार का ‘वेतन’ भी था. भारत में ‘निरंकुश राज्य सत्ता’ की बात करनेवाले इस पगार-प्रथा से अपरिचित थे. जिस स्टुअर्ट पिगॉट का उल्लेख ‘हड़प्पा केन्द्रबद्ध राज्य सत्ता और सुनियोजित अर्थतंत्र’ में डॉ. शर्मा ने 76 बार (कुल 95 रेफरेंसेज में) किया है, वे ‘वेतन देकर श्रम कराने की प्रथा’ से अपरिचित थे. इसी कारण उन्होंने ‘निरंकुश राज्य-सत्ता की कल्पना की. डॉ. शर्मा निरंकुश राज्य-शासन की धारणा को ‘पश्चिमी विद्वानों की धारणा’ कहते हैं. जिसका उन्होंने काफी प्रचार किया. पिगॉट पर मौर्टिमर व्हीलर (10.9.1890-22.7.1976) का प्रभाव था. पिगॉट की यह धारणा डॉ. शर्मा ने व्हीलर में देखी है. उनके अनुसार पगार देकर श्रम कराने की प्रथा ने ‘संगठित उद्योग को स्थायित्व प्रदान किया. ’ उनका तर्क है कि ‘घरेलू बाजार का निर्माण’ और ‘विश्व व्यापार का संगठन’ निरंकुशता के बल पर संभव नहीं है.
औद्योगिक क्रान्ति (1760-1840) के पहले व्यापारी वर्ग की भूमिका थी और ‘एशियाई-अफ्रीकी बाजार के गठन’ में भारत की अग्रणी भूमिका थी. औद्योगिक क्रान्ति से पहले की सभ्यता विभिन्न युगों और देशों की नगर-सभ्यता को डॉ. शर्मा ‘व्यापारिक पूंजीवाद की देन’ कहते हैं. वे एंगेल्स को उद्धृत करते हैं कि उन्होंने ‘विनिमय और सौदागर वर्ग के निर्माण की प्रक्रिया’ की बात जहाँ कही है, वहाँ ‘सभ्यता’ शब्द का व्यवहार किया है.’’
(भारतीय इतिहास और ऐतिहासिक भौतिकवाद पृष्ठ 64)
‘सांस्कृतिक विकास तथा आधुनिक जातियों की निर्माण-प्रक्रिया’ में व्यापारिक पूंजीवाद की भूमिका है. व्यापारिक पूंजीवाद का कोई एक स्तर नहीं है. ‘व्यापारिक पूंजीवाद स्वयं अनेक प्रकार का होता है. उसमें अनेक भेद होते हैं… जहाँ नगर होंगे, वहाँ नगर को अन्न देने का काम गाँव करते होंगे. वहाँ की सभ्यता व्यापारिक पूंजीवाद पर आधारित होगी. ’’
(वही, पृष्ठ 65)
व्यापारिक पूंजीवाद की कालावधि औद्योगिक पूंजीवाद की कालावधि से कहीं अधिक है. डॉ. शर्मा ‘‘भारत की पुरानी सिंधु घाटी की सभ्यता, भारत के पड़ोस में सुमेर और बाबुल की सभ्यता, उत्तरी अफ्रीका में मिस्र की सभ्यता, उसके बाद भारत में मौर्य काल की सभ्यता, आगे-चलकर अकबर के समय की सभ्यता, इन सबको व्यापारिक पूंजीवाद की देन’ कहते हैं. (वही) वे यूरोप के पुनर्जागरण काल, इटली, फ्रांस, ब्रिटेन में आधुनिक जातियों के निर्माण के समय की विकसित सभ्यता को भी ‘व्यापारिक पूंजीवाद की देन’ मानते हैं.
एंगेल्स (28.11.1820-5.8.1895) ने ‘ऐन्टी ड्यूरिंग’ (1878 में जर्मन में और 1907 में अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित) में ‘‘पगार वाले श्रम में उत्पादन की सारी पूंजीवादी पद्धति भ्रूण रूप में विद्यमान’’ होने की बात कही थी और यह लिखा था कि ‘इस तरह का श्रम बहुत प्राचीन है’. उन्होंने यह भी लिखा था कि ‘‘किन्तु, भ्रूण, पूर्ण विकसित होकर, उत्पादन की पूंजीवादी पद्धति बने, यह तभी संभव था. जब आवश्यक ऐतिहासिक शर्तें पूरी हो जायें’’ (मार्क्स और पिछड़े हुए समाज’ में उद्धृत, पृष्ठ 173-74)
औद्योगिक पूंजीवाद में मशीनों से बड़े पैमाने पर उत्पादन और वितरण प्रमुख है और व्यापारिक पूंजीवाद में विनिमय. पगार देकर मेहनत कराने को डॉ. शर्मा सामन्ती समाज की विशेषता न मान कर पूंजीवादी समाज की विशेषता मानते हैं. उनकी यह धारणा एक साथ अब तक के इतिहास-लेखन और इतिहास-विवेचन पर भी प्रश्न खड़ा करती है. और अर्थशास्त्रीय चिन्तन में भी एक हस्तक्षेप करती है. कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ में जो ‘पेशगी पगार’ है, उसे डॉ. शर्मा ने ‘ददनी प्रथा की सूचक’ माना है,
‘‘जिसमें उत्पादक माल तैयार करने से पहले ही उसे बेच चुका होता हैं यह प्रथा पूंजीवादी उत्पादन पद्धति का आदिम रूप है,’’
(वही, पृष्ठ 177)
‘अर्थशास्त्र’ में ‘पेशगी पगार लेने वाले को गृहीत वेतन कहा गया है.’’
(वही)
डॉ. शर्मा ने यह बताया है कि
‘‘पगारजीवी श्रमिकों से काम कराने वाला सबसे बड़ा भर्ता राज्य है. वह अनेक धन्धों में, उद्योग और कृषि में, उनसे काम कराता है और सामान्यतः उन्हें द्रव्य रूप में पगार देता है.’’
(वही पृष्ठ 178)
उस समय इस्पात बनाने की प्रक्रिया विशेषज्ञ जानते थे. उत्पादन और विनिमय दोनों में ‘निजी व्यवसाय और राज्यसत्ता’ दोनों की भागीदारी थी, पर राज्यसत्ता की भूमिका सूत्रधार की थी. इस व्यापार को ‘विकासमान व्यापार’ कहा गया है. राज्यसत्ता के लाभ के लिए व्यापार-क्षेत्र का व्यापक होना आवश्यक था. राज्यसत्ता स्वयं व्यापार कर रही थी.
‘‘कौटिल्य की राज्यसत्ता विशुद्ध खेतिहर राज्यसत्ता नहीं है; वह उत्पादन और वाणिज्य से लाभ उठाने वाली राज्यसत्ता भी है. वह उत्पादन और विनिमय पर नियंत्रण ही नहीं रखती उनका संचालन भी करती है. ’’
(वही, पृष्ठ 189)
कौटिल्य ने ‘एकमुखी राज्यतंत्र’ की हिमायत’ की हैं डॉ. शर्मा इसे ‘चालू अर्थ में सर्वसत्तावादी’ (सर्वशक्तिमान’) नहीं मानते. कौटिल्य को उन्होंने ‘गतिशील यथार्थ की दिशा पहचानने वाला अर्थशास्त्रीय ’ कहा है. वे इस ‘सुनियोजित अर्थव्यवस्था’ के प्रमाण के अनेक उदाहरण देते हैं. लिखते हैं
‘‘पूरे समाज की आवश्यकताओं का हिसाब लगाकर उत्पादन की योजना बनाना समाजवादी अर्थतन्त्र की विशेषता है. उल्लेखनीय यह है कि कौटिल्य की सुनियोजित अर्थव्यवस्था की अनेक विशेषताएँ पूंजीवादी राज्यों ने अब भी नहीं अपनायीं… कौटिल्य की राज्य सत्ता समाज को पूंजीवादी विकास की दिशा में आगे बढ़ानेवाली किन्तु पूंजीवादी विकास की अराजकता को नियंत्रित रखने वाली राज्य सत्ता है.’’
(वही पृष्ठ 196)
एकतंत्रीय प्रणाली के पक्षधर के रूप में आज भी कौटिल्य को याद किया जाता है, पर राधावल्लभ त्रिपाठी ने उन्हें ‘प्रजा का हित करने वाली प्रणाली के पक्षधर’ भी कहा है. उन्होंने कौटिल्य के संदर्भ में ‘अर्थ’ का आशय मात्र सम्पत्ति न मान कर उनके ‘अर्थशास्त्र’ को ‘इन्द्रियों पर विजय का शास्त्र’ कहा है- ‘‘कौटिल्य का इन्द्रियजय का अर्थशास्त्र आज के भोगवादी अर्थशास्त्र का प्रतिवाद है.’’ (प्रतिमान, वही, पृष्ठ 81) यह ‘लोकोपकार का शास्त्र’ है.
व्यापारिक पूंजीवाद का यह समाज सामंती व्यवस्था से मुक्त नहीं है. सामन्ती व्यवस्था को रोमन समाज, जो व्यापारिक पूंजीवाद के युग का समाज था, तोड़ने में विफल रहा था. पगार देकर श्रमिकों से श्रम कराने के कारण डॉ. शर्मा कौटिल्य के समाज को ‘आधुनिक पूंजीवादी समाज के अधिक निकट’ मानते हैं. भारत के विनिमय-केन्द्रों के बार-ध्वस्त होने के बाद भी पनपते रहने का मुख्य कारण डॉ. शर्मा ‘पगार देने की श्रम की प्रथा’ समझते हैं. सामंती समाज से कौटिल्य का समाज भिन्न इस अर्थ में है कि वहाँ वस्तुओं का उत्पादन ‘आवश्यकताओं की पूर्ति’ के लिए न होकर ‘विनिमय के लिए’ है. वस्तुओं का उत्पादन देश-विदेश में व्यापार के लिए बिकाऊ माल को तैयार करने के लिए है. सामंती व्यवस्था में उत्पादन छोटे पैमाने पर होता है, वहाँ विनिमय सीमित होता है. वहाँ ऐसी बात नहीं है. कहीं-कहीं अतिरेक में डॉ. शर्मा ने कौटिल्य के समय की राज्यसत्ता को ‘आधुनिक’ पूंजीवादी राज्यसत्ता से बढ़कर’ माना है, जिस पर आपत्तियाँ भी की गयी हैं. उस समय ‘सामन्ती अर्थतंत्र समाप्त नहीं हुआ था. ‘उत्पादन और विनिमय का विकास ‘सामन्ती अर्थतन्त्र की सीमाएँ लांघ रहा था.
कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ का राज्य गणराज्य और ‘वर्ण व्यवस्था वाले छोटे राज्य’ के बीच था. अंतर यह था कि इस राज्य में ‘विनिमय केन्द्रों की प्रधानता’ और ‘नगर की प्रधानता’ है. व्यापारिक पूंजीवाद के समय का रोमन समाज जिस प्रकार सामन्ती व्यवस्था को तोड़ नहीं पाया उसी प्रकर कौटिल्य के समय के व्यापारिक पूंजीवाद का समाज भी सामन्ती व्यवस्था को तोड़ नहीं सका. ‘‘सामंती व्यवस्था छोटे पैमाने के उत्पादन की व्यवस्था है, कौटिल्य की समाज व्यवस्था में बड़े पैमाने के उत्पादन की व्यवस्था’
(मार्क्स और पिछड़े हुए समाज), (वही, पृष्ठ 209) महत्वपूर्ण है.
डॉ. शर्मा ‘पगारजीवी श्रम की प्रथा के अध्ययन के लिए… ‘बय चकड़ा’ नाम की पोथी बहुत महत्वपूर्ण’ बताते हैं. ‘जयकृष्णदास-कृष्णदास प्राच्यविद् ग्रन्थमाला’ की छठी पुस्तक ‘न्यू लाइट ऑफ द सन टेम्पल ऑफ कोणार्क’ चौखंभा से 1972 में प्रकाशित हुई थी. इस पुस्तक के लेखक एलिस मोनर, सदाशिव रथ शर्मा और राजेन्द्र प्रसाद दास है. जिन्होंने चार हस्तलिखित पोथियों का पता लगाया था. ‘इनमें से एक ‘बय चकड़ा’ थी. रामविलास जी इस पुस्तक के अध्ययन से इस नतीजे पर पहुंचे कि
‘‘कोणार्क का मंदिर गुलामों से या बेगार के लिए बटोरे हुए मजदूरों से न बनवाया गया था.’’
(वही, पृष्ठ 243)
मंदिर के व्यय का हिसाब-किताब ‘बय चकड़ा’ में सुरक्षित है. इसमें पगार संबंधी विवरण है. पगार देने का यह चलन बाद में भी बना रहा है. ‘आईने अकबरी’ में ‘सीमित’ ही सही ‘पगार संबंधी सूचना’ है. श्रमिक कुशल हों या अकुशल, उन्हें मेहनताना दिया जाता था. व्यापारिक पूंजीवाद के विकास में इस प्रथा के महत्व की वे विस्तारपूर्वक चर्चा करते हैं जिस समाज में, राज्यसत्ता में पगार देने की व्यवस्था रही हो, वह समाज और राज्यव्यवस्था अर्थतंत्र की दृष्टि से पिछड़ी नहीं थी.
‘‘भारत के पिछड़ेपन पर जिन ‘देशी-विदेशी विद्वानों ने लिखा है, उन्होंने पगारजीवी श्रम की परम्परा पर विचार नहीं किया. इस परम्परा से भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक इतिहास के लिए जो निष्कर्ष निकलते हैं, उनकी वे कलपना नहीं कर सकते.’’
(वही, पृष्ठ 248)
(चार)
रामविलास शर्मा के मत और मान्यताओं पर कइयों को आपत्ति रही है. उनकी अध्ययन-पद्धति, चिन्तन-पद्धति और विवेचन-पद्धति पर भी कइयों को एतराज है. ‘रामविलास शर्मा की विवेचन पद्धति और मार्क्सवाद’ पर जिस श्रम से वीरभारत तलवार ने विचार किया है, उस पर समग्रता में विचार यहाँ संभव नहीं है. वे ‘वैज्ञानिक भौतिकवाद’, ‘मार्क्स का दर्शन और हेगेलीय द्वन्द्व वाद’, ‘व्यापारिक पूंजी और पूंजीवाद’ तथा ‘नई जनवादी क्रान्ति’ संबंधी डॉ. शर्मा के विचारों की समीक्षा करते हैं. उनके ‘व्यापारिक पूंजी और पूंजीवाद’ संबंधी मान्यताओं से तलवार सहमत नहीं है. रामविलास जी ने पगार देने की प्रथा से मगध-राज्य में व्यापारिक पूंजीवाद की बात कही है.
वे हजार वर्ष पहले की इस पगार-प्रथा पर लिख चुके हैं. मगध राज्य के व्यापारिक पूंजीवाद में उन्होंने आधुनिक पूंजीवाद की भी कुछ विशेषताएँ देखी है. दूसरे डॉ. शर्मा ने कौटिल्य कालीन राज्य सत्ता में वर्ग-संतुलन कायम किये जाने की ओर भी ध्यान दिलाया. तलवार उनके इन ‘निष्कर्षों’ से सहमत नहीं हैं. इस लेख में थोड़ा-सा उल्लेख भर किया जा सकता है क्योंकि यह लेख डॉ. शर्मा के लगभग समस्त अर्थशास्त्रीय चिंतन को एक स्थान पर संक्षेप में समेटकर भविष्य में व्यापक और समग्र दृष्टि से गंभीर अध्ययन-मनन की आवश्यकता के तहत लिखा जा रहा है.
रामविलास जी ने जातीय गठन की प्रक्रिया को व्यापारिक पूंजीवाद से जोड़ा है. तलवार का कथन है कि मगध के राज्य में व्यापारिक पूंजीवाद के विकास के बाद भी
‘‘जातियों के गठन के मामले में मगध का व्यापारिक पूंजीवाद बाँझ ही साबित हुआ.”
(सामना : रामविलास शर्मा की विवेचन-पद्धति और मार्क्सवाद’, 2005, पृष्ठ 79)
“वे यह नहीं मानते कि ‘कौटिल्य का राज्य व्यापारियों के पक्ष में था.’’
(वही, पृष्ठ 81)
चूंकि व्यापारी राज्य द्वारा तय मूल्य पर ही अपना माल बेच सकता था, इसलिए वहाँ ‘समाजवादी अर्थतंत्र की विशेषता’ नहीं देखी जा सकती. तलवार मगध राज्य का वर्ग-आधार स्वयं राज्य’ को मानते हैं. राज्य का अपना हित ही सर्वोपरि था. कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ के डॉ. शर्मा गंभीर अध्येता हैं. संस्कृत विद्वान राधा वल्लभ त्रिपाठी ने कौटिल्य को ‘प्रजा का हित करने वाली प्रणाली का पक्षधर’ और अर्थशास्त्र’ को ‘आज के भोगवादी अर्थशास्त्र का प्रतिवाद’ माना है. संभव है, इस मान्यता पर वीर भारत तलवार को आपत्ति हो.
‘अर्थशास्त्र’ पर कोसंबी, रामविलास शर्मा और राधावल्लभ त्रिपाठी ने जो मत व्यक्त किये हैं उन सब पर विचार किये जाने की अधिक आवश्यकता है. कौटिल्य की तुलना आज भी मैकियावेली (3.5.1469-21.6.1527) से करने वाले कम नहीं हैं, पर राधावल्लभ त्रिपाठी यह ‘पूरा सत्य’ नहीं मानते कि वह ‘एकतंत्रीय प्रणाली के पक्षधर’ हैं. तलवार ने ‘बय चकड़ा’ की प्रमाणिक्ता की जाँच की भी बात कही है. तलवार की शिकायत है कि ‘पगार-प्रथा पहले भ्रूण- फिर प्रमुख विशेषता- फिर स्वयं पद्धति बन गई.’
(वही पृष्ठ 88)
व्यापारिक पूंजीवाद का महत्व डॉ. शर्मा के यहाँ सर्वाधिक है. वे इसी दौर में जाति का गठन और जातीय भाषा का जन्म और विकास देखते हैं. अर्थशास्त्र, इतिहास, जाति, भाषा, साहित्य सब का इस दौर के साथ जब तक सर्वांगीण अध्ययन नहीं किया जाता, किसी एक पक्ष विशेष को लेकर किया गया विवेचन अधूरा ही रहेगा. इस व्यापारिक पूंजीवाद के संबंध में उनकी धारणा और स्थापना पर कम विवाद नहीं हुए हैं. मुरली मनोहर प्रसाद सिंह ने यह प्रश्न किया है कि
‘‘रामविलास जी जिसे पूंजीवाद कह रहे हैं, क्या वस्तुतः वह पूंजीवाद था या सिर्फ सौदागरी पूंजी द्वारा किया जाने वाला व्यापार मात्र था?’’
(‘उद्भावना’, रामविलास शर्मा महाविशेषांक, दिसम्बर 2012, पृष्ठ 28)
वे इरफान हबीब के तीन आलेखों (पाक-औपनिवेशिक भारत में पूंजी संचय की प्रक्रिया, मुगल अर्थ-व्यवस्था में पूंजीवादी विकास की संभावनाएँ और 1757 से 1900 के बीच की अर्थव्यवस्था का उपनिवेशीकरण) के जरिए ‘इस मुद्दे पर गंभीर विचार-विमर्श’ के होने की जरूरत बताते हैं, पर स्वयं गंभीर विचार नहीं करते. उन्होंने अमिय कुमार बागची के एक शोध-आलेख ‘सेलेब्रेटींग इरफान हबीब ऐट एट्टी’ से अठारहवीं सदी में ‘सौदागरी पूंजी का संचय पूंजीवाद की दिशाओं में’ होने की बात कही है और यह लिखा है कि
‘‘उसे औपनिवेशिक सत्ता ने अंकुरण काल में ही विनष्ट कर दिया’’ (वही)
डॉ. शर्मा इस समय को व्यापारिक और सौदागरी पूंजी का ‘अंकुरण काल’ नहीं मानते. यह ‘अंकुरण काल’ से कुछ अधिक था.
डॉ. रामविलास शर्मा के उपनिवेशवाद विरोधी और साम्राज्यवाद विरोधी चिंतन पर सवाल खड़ा नहीं किया जा सकता. इसे चिन्तन में व्यापारिक पूंजीवाद की उनकी धारणा-अवधारणा का विशेष महत्व है उनका यह लेखन अकादमिक नहीं है. वे अपनी स्थापनाओं से एक बड़ी चुनौती देते हैं, जिसे हल्के ढंग से नहीं लिया जा सकता. उन्होंने ‘मार्क्सवाद के रूढ़ि, मुक्त अध्ययन’ की बात कही है. वे यह मानते हैं कि अंग्रेजों के आगमन के पहले भारत में जो पूंजीवाद उभर रहा था, उसका विनाश अंग्रेजों ने यहाँ के प्रतिक्रियावादी सामंतों से मिल कर किया. साम्राज्यवादी इतिहासकारों ने भारत की ‘उत्पादन शक्तियों’ के पिछड़े होने की बात कही है. कई पुस्तकों में डॉ. शर्मा ने सप्रमाण यह साबित किया है कि भारत इंग्लैण्ड की तुलना में कहीं आगे बढ़ा हुआ देश था. अंग्रेजों ने यहां के आर्थिक और औद्योगिक विकास में रूकावट डाली. अंग्रेजों का आगमन अगर न हुआ होता तो भारत उसके राज में जिस अधोगति को पहुंचा, वह कभी नहीं होता. औद्योगिक पूंजीवाद के बाद केवल इंग्लैण्ड ही नहीं बदला, पूरी दुनिया भी बदली. मार्क्स ने जिस पूंजीवाद का गहन अध्ययन किया था, वह यही था. रामविलास शर्मा ने पूंजीवाद के विवेचन में व्यापारिक पूंजीवाद को सामने रखा. संभवतः किसी अर्थशास्त्री ने शायद ही व्यापारिक पूंजीवाद को इतना अधिक महत्व दिया हो.
मार्क्स ने पूंजी, खण्ड 1 में मध्यकाल से प्राप्त पूंजी के जिन दो रूपों की बात कही है, वे पूंजीवादी उत्पादन पद्धति से पहले की है. ये स्वयं पूंजीवादी उत्पादन-पद्धति में नहीं बदलते. मार्क्स ने सौदागरी और सूदखोरी पूंजी को पूंजी के दो रूप माना है, जो सामंती मध्यकाल में विकसित होते हैं, पर अपने-आप औद्योगिक पूंजी में परिणत नहीं हो जाते. डॉ. शर्मा का अर्थशास्त्रीय दृष्टिकोण उनके इतिहास-संबंधी दृष्टिकोण से जुड़ा है. व्यापारिक पूंजीवाद पर उनका विशेष बल उनके इतिहास-संबंधी दृष्टिकोण से भी जुड़ा है. वे समग्रता में रखकर अध्ययन, चिंतन-मनन करते थे. उन पर विचार भी समग्रता में ही किया जाना चाहिए.
वे आधुनिक काल की शुरूआत जातीय गठन के समय देखते हैं और यह बताते हैं कि आधुनिक काल के भी कई चरण हैं.
‘‘जिसे लोग मध्य काल कहते हैं , वह वास्तव में आधुनिक काल का प्रथम चरण है जब समाज में उद्योग और व्यापार के विकास और प्रसार के साथ समाज में नये संबंध कायम होते हैं. साहित्य के इतिहास में काल-विभाजन का आधार समाज-व्यवस्था होनी चाहिए. पुरानी संस्कृति के अवशेष बहुत दिनों तक कायम रहते हैं. इससे यह सिद्ध नहीं होता कि नये युग का सूत्रपात नहीं हुआ.’’
(‘भारतीय साहित्य के इतिहास की समस्याएँ’, 1986, पृष्ठ 146)
निजी सम्पत्ति पर आधारित एक अर्थव्यवस्था के रूप में ‘पूंजीवाद’ पद का प्रयोग ‘दास कैपिटल’ के प्रकाशन (1867) के समय से होने के बाद उत्पादन के एक साधन के रूप में व्यापक रूप से इसका प्रयोग आरंभ हुआ. जहाँ तक ‘कैपिटलिज्म’ के प्रथम प्रयोग की बात है, ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी के अनुसार 1854 में अंग्रेजी उपन्यासकार विलियम मेकपीस थैकरे (18.7.1811-24.12.1863) के उपन्यास ‘द न्यूकम्स’ में इसे हम देखते हैं. यहाँ यह उल्लेख आवश्यक है कि विलियम मैकपीस थैकरे का जन्म कलकत्ता में हुआ था. 1854-55 में प्रकाशित इस उपन्यास का पूरा नाम था- ‘द न्यू कम्स: मेम्वायर्स ऑफ ए मोस्ट रेस्पेक्टेबल फेमिली.’
‘कैपिटलिज्म’ पद ‘दास कैपिटल’ के प्रकाशन के बाद ही प्रसिद्ध हुआ. यह औद्योगिक पूंजीवाद का समय था. बड़े पैमाने पर मशीनी उत्पादन से औद्योगिक पूंजीवाद का संबंध है. जेथ्रे टूल (1674-1741), जेम्सवाट (1736-1819), रिचर्ड आर्कराइट (1732-1792), रौबर्ट फल्टन (1765-1815), एझमुंड कार्टराइट (1743-1823), जॉन के (1704-1780), सिमुएल क्रॉम्प्टन (1753-1827), जॉर्ज स्टीफेंसन (1781-1848), एली व्हिटनी (1765-1825) और हेनरी बेसमर (1813-1898) औद्योगिक क्रान्ति से संबंधित प्रमुख व्यक्ति हैं. उस समय के प्रमुख आविष्कार वाष्प इंजन, टेलीग्राफ, स्पिनिंग जेनि, रेल मार्ग, इस्पात निर्माण, फोटोग्राफी, विद्युत और वायुयान हैं.
1757 की पलासी की लड़ाई के पहले इंग्लैण्ड में वैसे आविष्कार नहीं हुए थे, जिनसे वहाँ औद्योगिक क्रान्ति सम्पन्न होती. ‘आविष्कारक प्रतिभा’ अकारण और अचानक नहीं फूट पड़ी थी. आविष्कारों का पूंजी के इकट्ठे होने से संबंध था. 1757 के बाद बड़े-बड़े आविष्कारों का सिलसिला आरंभ हुआ जिससे औद्योगिक क्रान्ति संभव हुई. पलासी की लड़ाई के बाद भारत की दौलत बेशुमार मात्रा में इंग्लैण्ड जाने लगी, जिसे रजनी पाम दत्त ने ‘बरसाती नदी की तरह विलायत की तरफ बहना’ कहा है. 1757 के बाद ही 1764 में हारग्रीब्स द्वारा नये करघे (स्पिनिंग जेनी) का आविष्कार, 1765 में वाट द्वारा भाप के इंजन का निर्माण, 1769 में आर्कराइट द्वारा जल-ढाँचा (वाटर फ्रेम) बनाना, 1775 में ‘रूई की सफाई, खिंचाई और कताई की मशीनों का पेटेंट कराना, 1779 में क्रॉम्प्टन द्वारा खच्चर-कर्घा (म्यूल), 1785 में कार्टराइट द्वारा मशीन का करघा (पावर-लूम) बनाना और 1788 में लोहा गलाने की भट्ठियों में भाप का इंजन लगाना संभव हुआ.
रामविलास शर्मा ने इंग्लैण्ड की औद्योगिक क्रान्ति से हुए विकास को ‘निरपेक्ष रूप में मानव जाति के लिए आगे बढ़ा हुआ कदम नहीं’ माना है.
‘‘उसके साथ ह्रास वाला पक्ष जुड़ा हुआ है.’’
(‘मार्क्स और पिछड़े हुए समाज’ भूमिका पृष्ठ 4)
(पाँच)
वे इंग्लैण्ड की औद्योगिक क्रान्ति के बाद संसार के देशों को ‘मोटे तौर से दो भागों में’ विभाजित देखते हैं- ‘आगे बढ़े हुए देश और पिछड़े हुए देश’. आज जिन देशों को विकसित अर्द्धविकसित या विकासशील और अविकसित देश कहा जाता है, उसका संबंध औद्योगिक क्रान्ति से है, जो लूट से संभव हुई. अंग्रेजों के प्रति भारतीय बौद्धिकों में पहले भी एक सहानुभूति रही है, आज भी है. बड़े पैमाने पर मशीनी उत्पादन मुनाफा कमाने के लिए है. मार्क्स ने दुनिया में आने वाले पैसों पर ‘खून के दाग’ देखे थे. ‘‘अगर पैसे का यह हाल है, तो पूंजी सर से पैर तक रत्ती-रत्ती खून और गंदगी में सराबोर होकर आती है. ’’
(पूंजी, खण्ड 1, अध्याय 31)
औद्योगिक क्रान्ति का आरंभ 1760 ई. से माना जाता है क्योंकि इसी वर्ष फ्लाइंग-शटल आई और लोहा गलाने के लिए लकड़ी के स्थान पर कोयला से काम लिया जाने लगा. औद्योगिक पूंजीवाद पूरी तरह से पुरानी व्यव्स्था को नष्ट नहीं करता है. ‘‘इंग्लैण्ड समेत किसी भी देश में उद्योगपतियों ने सामंतवाद को पूरी तरह खत्म नहीं किया.’’ (‘भारत में अंग्रेजी राज और मार्क्सवाद’ खण्ड 1, 1982, पृष्ठ 21)
डॉ. शर्मा ‘सूदखोरी’ को ‘पहला अवशेष’ मानते हैं. 1694 में इंग्लैण्ड का बैंक बना, पर वहाँ 1850 ई. तक बैंक पूंजी और चालू पूंजी कम थी. 60 साल तक उसका सबसे छोटा नोट 20 पौंड का था. पूंजीपतियों ने अपने लिए बैंक-व्यवस्था बनाई थी, पर साधारण लोग सूदखोरों से पैसा उधार लिया करते थे. क्या शहर, क्या देहात दोनों ही जगहों में इन सूदखोरों की अपनी दुकानें थीं.
‘‘इस तरह की सिर्फ लंदन में ही दो सौ चालीस दुकानें थीं. इन्हीं में से किसी दुकान से मार्क्स को भी साबिका पड़ा था. देहात में इन लोगों की ढाई हजार दुकानें थीं. इन्हें गिरवी रखने वाला (पौन ब्रोकर) कहा जाता था. उस समय के एक लेखक ने हिसाब लगाया था कि ये लोग साल में दस लाख पाउंड सूद के रूप में कमाते हैं.’’
(‘भारतीय इतिहास और ऐतिहासिक भौतिकवाद’, पृष्ठ 96)
सूदखोरी के साथ-साथ ‘घटिया किस्म की सौदागरी’ भी कायम थी. अवशेषों में जमींदार-वर्ग अधिक महत्वपूर्ण था. इंग्लैंड के दो राजनीतिक दलों में टोरी दल जमींदारों का था और प्रगतिशील माने जाने वाले व्हिग दल में भी जमींदारों के प्रतिनिधि अधिक संख्या में थे. जमींदार राज्यसत्ता के अलावा ‘फौज और चर्च के ऊपर भी हावी थे.’ पूंजीपति वर्ग वहाँ अभिजात वर्ग पर निर्भर था.
डॉ. शर्मा ने इंग्लैण्ड की औद्योगिक क्रान्ति को ‘मानव इतिहास में अब तक की सबसे बड़ी क्रान्ति’ मानने के बाद भी ‘पुराने तामझाम’ के बरकरार रहने की बात कही है.
‘‘यह पूंजीवादी क्रान्ति अधूरी थी, आर्थिक क्षेत्र में अधूरी थी, राजनीतिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में भी अधूरी थी, औद्योगिक क्रान्ति के बाद सामाजिक प्रगति के लिए पश्चिमी यूरोप में अभिजात वर्ग के प्रभुत्व को खत्म करना जरूरी था.’’
(वही, पृष्ठ 99)
ब्रिटेन में मजदूर वर्ग की श्रम शक्ति का शोषण करने वाला पूंजीपति वर्ग, राज्य सत्ता पर हावी अभिजात वर्ग और मजदूरों के बीच उत्पन्न एक ऊपरी स्तर को डॉ. शर्मा ने ‘मजदूर वर्ग के तीन शत्रु’ कहा है और यह लिखा है कि
‘‘भारत जैसे पराधीन देशों के भी यही तीन शत्रु थे.’’
(वही, पृष्ठ 104)
आधुनिक रूप में भारत का औद्योगीकरण 1850 ई. से आरंभ हुआ. 1853-54 में यहाँ रेल और तार-प्रणाली बहाल हुई. बाद में इन उद्योगों की उन्नति हुई. 1908 में पहली बार भारत में लौह-इस्पात का कारखाना आरंभ हुआ. इंग्लैण्ड में मजदूरों के शोषण के साथ ‘पूंजी का केन्द्रीयकरण’ हुआ. पूंजी के केन्द्रीयकरण से छोटे पूंजीपतियों का बड़े पूंजीपतियों ने भक्षण किया. मार्क्स ने इस समय ‘श्रम की प्रक्रिया में सहकारिता बढ़ने’ की बात लिखी है. विज्ञान से प्राप्त तकनीक उत्पादन में लगाया गया. उत्पादन के औजारों का सब मिलकर उपयोग करने लगे.
‘‘श्रम के औजारों का समाजीकरण हुआ.’’
विश्व बाजार का जाल फैला, जिसमें दुनिया के लोग सिमटने लगे. ‘पूंजीवादी व्यवस्था का अन्तरराष्ट्रीय चरित्र निर्मित’ हुआ. ’ बड़े पूंजीपयिों ने उत्पादन पर इजारा कायम करना आरंभ किया.
‘‘इजारे की यह प्रवृत्ति औद्योगिक पूंजीवाद के जमाने में देखी जाती है.’’
(वही, पृष्ठ 108)
पूंजी के ऊपर बड़े पूंजीपतियों के इस इजारे को उत्पादन की पद्धति पर एक बंधन के रूप में देखा गया है. कुछ पूंजीपतियों का उत्पादन के साधन पर स्वामित्व हुआ और इस उत्पादन-संबंध से उत्पादक शक्तियाँ (करोड़ों मजदूर) टकराने लगीं. डॉ. शर्मा ने विस्तार से ‘औद्योगिक पूंजीवाद: वैज्ञानिक समाजवाद और रूस की समाजवादी क्रान्ति’ पर विचार किया है. वे ‘वैज्ञानिक समाजवाद को सही ढंग से समझने के लिए मार्क्स और एंगेल्स के विचारों को उनकी विकासमानता के संदर्भ में’ देखते हैं. मार्क्स और एंगेल्स के विचार बदलते रहे हैं. ‘‘वैज्ञानिक समाजवाद के बारे में मार्क्स और एंगेल्स की विचारधारा विकासमान है, यह न समझने के कारण बहुत से मार्क्सवादियों ने आपसी विवाद में अनगिनत पृष्ठ लिखे हैं.’’ (वही, पृष्ठ 115)
समाजवाद की ओर संक्रमण के लिए पूंजीवाद को निरस्त करना ही आवश्यक नहीं है. उसे नियंत्रित करके ही रूस में ‘समाजवाद की ओर संक्रमण’ हुआ. लेनिन ने रूसी अर्थतंत्र के पाँच अंगों में एक अंग ‘राजकीय पूंजीवाद’ (स्टेट कैपिटलिज्म) माना है जिसे डॉ. शर्मा ने ‘सबसे महत्वपूर्ण’ कहा है. वे यह मानते हैं कि बड़े उद्योग-धंधों की बुनियाद के बिना ‘समाजवाद की रचना’ संभव नहीं है. राजकीय पूंजीवाद इसी कारण अधिक महत्वपूर्ण है. डॉ. शर्मा ‘औद्योगिक पूंजीवाद’ पर लेखन के क्रम में ‘राजकीय पूंजीवाद’ पर विचार करते हैं. ‘मार्क्स और पिछड़े हुए समाज’ में भी उन्होंने ‘नया जनतंत्र और राजकीय पूंजीवाद’ पर लिखा है. वे राजकीय पूंजीवाद के एक पक्ष में जहाँ ‘पूंजीपतियों के सहयोग से बड़े पैमाने के उद्योग-धंधों का संगठन’ रखते हैं वहाँ दूसरे पक्ष को किसानों से जोड़ते हैं. एक पक्ष औद्योगिक विकास का है और दूसरा पक्ष व्यापार का है. उनके इस अध्ययन के केन्द्र में सोवियत रूस है.
रामविलास शर्मा तीन प्रकार की पूंजी मानते हैं- सूदखोर, व्यापारिक और औद्योगिक. ‘‘इसी के अनुरूप पूंजीवाद तीन तरह का होता है- व्यापारिक, औद्योगिक, सूदखोर. ऐतिहासिक विकास-क्रम में सूदखोर पूंजी का जन्म पहले होता है, सूदखोर पूंजीवाद का जन्म सबसे पीछे होता है.’’
(वही, पृष्ठ 138)
मुनाफा देनेवाली पूंजी और सूद देने वाली पूंजी में अंतर है. उद्योगपति मुनाफा देनेवाली पूंजी का मालिक है और महाजन सूद देने वाली पूंजी का मालिक. मार्क्स के जीवन काल में ही इस महाजनी व्यवस्था का आरंभ हो चुका था. ‘महाजन’ आसानी से समझ में आने वाला शब्द है. इसी कारण प्रेमचन्द ने पूंजीवादी सभ्यता को ‘महाजनी सभ्यता’ कहा था. डॉ. शर्मा ने पूंजी की इस ‘उन्नत’ अवस्था को, जो औद्योगिक पूंजीवाद के बाद की है, ‘महाजनी पूंजीवाद’ कहा है. ‘उद्योगपति’ और ‘पूंजीपति’ में अंतर है. उद्योगपति उद्योग-धंधों का मालिक होता है, जो बाद में पूंजी का प्रबन्धक और प्रशासक भर रह जाता है. डॉ. शर्मा ने ‘पूंजी’ के तीसरे खण्ड (1894) से, जिसे एंगेल्स ने मार्क्स द्वारा छोड़े गये नोट्स से तैयार किया था, यह अंश उद्धृत किया है
‘‘पूंजी का मालिक, महज मालिक, महज पैसे वाला पूंजीपति रह गया है’’
(वही, पृष्ठ 140 पर उद्धृत)
उद्योगपति अब महाजन का कारिन्दा, उद्योगधंधों का प्रबंधक मात्र रह जाता है. माल की बिक्री से प्राप्त मुनाफे का एक भाग महाजन का होता है. औद्योगिक पूंजीवाद के बाद का यह युग महाजनी पूंजी या इजारेदार पूंजी का युग है. औद्योगिक पूंजीवाद की तुलना में इस ‘अधिक प्रतिक्रियावादी’ कहा गया है. 1875 से इस महाजनी पूंजी का युग आरम्भ हुआ. अब उद्योगपति की तुलना में बैंक पति प्रमुख हुआ.
‘‘1914 के विश्व महायुद्ध के समय तक इंग्लैण्ड का महाजनी पूंजीवाद राज्यसत्ता पर हावी हो चुका था…. रूस में यह औद्योगिक पूंजीवाद का विकास काल था. विश्व पैमाने पर यह महाजनी पूजीवाद का विकास काल था.’’
(‘भारत में अंग्रेजी राज और मार्क्सवाद’, खण्ड 1, 1982, पृष्ठ 22)
पूंजीवाद की सभी अवस्थाओं में भारत का इंग्लैण्ड से संबंध था. विश्व बाजार में पूंजीवादी शक्तियों की आपसी टकराहट का भारत पर भी प्रभाव पड़ा.
महाजनी पूंजीवाद में पूंजी उत्पादन से अलग हो जाती है.
‘‘सूदखोर पूंजी अपने आरंभिक रूप में उत्पादन से विलग थी, अपने आधुनिक रूप में वह उससे फिर विलग है. उत्पादन से विलग होने के कारण वह पहले भी परजीवी थी, अब भी परजीवी है. अंतर यह है कि तब उत्पादन अविकसित था, अब वह असाधारण रूप से विकसित है. इससे परजीवीपन मे वृद्धि होती है, पूंजीवादी सट्टेबाजी और धोखाधड़ी में वृद्धि होती है. ’’
(‘भारतीय इतिहास और ऐतिहासिक भौतिकवाद’, पृष्ठ 140)
महाजनी पूंजीवाद में मुनाफा सूद के रूप में प्राप्त होता है. पूंजी के केन्द्रीयकरण से इजारेदार गुटों में प्रतिद्वंद्विता बढ़ती है. प्रथम विश्व युद्ध के पहले पूंजी के केन्द्रीयकरण से इजारेदार गुटों में प्रतिद्वंद्विता बढ़ी थी. 1913 में लेनिन ने ‘पूंजीवादी विकास का शान्तिपूर्ण दौर’ समाप्त होने की बात कही थी. ब्रिटेन की इजारेदारी को चुनौतियाँ मिल रही थीं. महाजनी पूंजीवाद, जिसे डॉ. शर्मा ‘इजारेदार पूंजीवाद’ भी कहते हैं, पूंजीवाद का एक नया दौर है. इस इजारेदार पूंजीवाद को लेनिन ने ‘पूंजीवाद की सबसे ऊँची मंजिल’ कहा है, जो ‘साम्राज्यवाद’ है. औद्योगिक पूंजीवाद, जिसे गैर इजारेदार पूंजीवाद भी कहा जाता है, का दौर 1870 के दशक में समाप्त हो रहा था और उन्नीसवीं सदी के अंत में इसका संक्रमण महाजनी पूंजीवाद की ओर हुआ. यह पूंजीवाद का एक नया रूप था, जिसकी मार्क्स और एगेल्स ने केवल पहचान ही नहीं की, उसकी विशेषताएँ भी, बताईं. मार्क्स ने ‘ग्रुंदिसे‘ (प्रकाशन 1939) और ‘पूंजी’ में ‘आधुनिक विज्ञान और तकनीक’ के जिन उन्नत रूपों की व्याख्या की है वह आज की पूंजी को समझने में हमारी मदद करती है.
‘‘महाजनी पूंजीवाद कृषि-प्रधान देशों को ही नहीं, उद्योग-प्रधान देशों को भी अपने अधिकार में ले आना चाहता है. बड़ी ताकतों की आपसी होड़ तेज होती है और पहले से बँटी हुई दुनिया को वे फिर से बाँटने की कोशिश करती हैं. उपनिवेशों, अर्ध-उपनिवेशों, पराधीन देशों, अर्ध-स्वाधीन देशों और प्रभाव क्षेत्रों के द्वारा वे सारी दुनिया को अपने जाल में फाँस लेती हैं’’
(वही, पृष्ठ 143)
लेनिन ने प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी के साथ अमरीका को भी बड़ा इजारेदार माना था. उन्होंने इन चारों को ‘विश्व की महाजन पूंजी का चार ‘स्तंभ’ कहा था, जिनके पास दुनिया की महाजनी पूंजी का अस्सी प्रतिशत था. इजारेदारी और युद्ध में एक रिश्ता है. इजारेदारी युद्ध को जन्म देती है और युद्ध इजारेदारी को और शक्तिवान बनाता है. दूसरे महायुद्ध के बाद विश्व-परिदृश्य बदल गया. पहले जिस स्थान पर ब्रिटेन था अब उस स्थान पर अमरीका आ गया. दूसरे विश्वयुद्ध के अंतिम समय में ही ब्रेटन वुडस ने दो संतानें- विश्व बैंक और अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष पैदा कीं. इन पंक्तियों के लेखक ने पचीस वर्ष पहले 1995 में ‘विश्व बैंक, अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, गैट, विश्व व्यापार संगठन और अमरीका
(भारतीय संदर्भ में)’ पर विचार किया था (‘वैकल्पिक भारत की तलाश’, 2018 में संकलित)
लेनिन ने 1916 में इजारेदार पूंजीवाद की विशेषता मानी थी- ‘जनतंत्र को समाप्त करने वाले प्रतिक्रियावाद में परिवर्तन’’. आज सौ वर्ष बाद दुनिया के लोकतांत्रिक देशों में लोकतंत्र की कराहें सुनी जा सकती हैं. द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अमरीका का अर्थतंत्र अन्य देशों की तुलना में कहीं अधिक सुदृढ़ था. ब्रिटेन पीछे हुआ और अमरीका आगे बढ़ा. महाजनी पूंजीवाद को डॉ. शर्मा ‘इजारेदारी पूंजीवाद’ भी कहते हैं. अमरीकी राजनीति में इजारेदारी और सट्टेबाजी दोनों का वे ‘सह अस्तित्व’ देखते हैं. एंगेल्स ने अमरीका में ‘राजनीतिक सट्टेबाजों के दो बड़े गिरोह’ को ‘राजनीतिज्ञों के दो बड़े कार्टेल’ कहा था. डॉ. शर्मा इस आधार पर यह लिखते हैं
‘‘जहाँ कार्टेल है, वहाँ सट्टेबाजी भी हैं, चाहे राजनीति हो, चाहे अर्थतंत्र हो.’’
(भारतीय इतिहास और ऐतिहासिक भौतिकवाद’, पृष्ठ 146)
महाजनी पूंजी के विकास के साथ बैंक सट्टा बाजार बना. महाजनी पूंजीवाद जुगारी पूंजीवाद बना. अर्थशास्त्री और अर्थशास्त्र के विशेषज्ञ ऐसे ‘पद’ या ‘टर्म’ का प्रयोग नहीं करते, पर सामान्य रूप से समझने के लिए ये उपयोगी ही नहीं, आवश्यक भी है. ‘गोदान’ में प्रेमचन्द ने ‘स्पेकुलेशन’ की बात कही है. स्पेकुलेटिव कैपिटल की चर्चा अब सामान्य है.
‘‘सट्टा एक तरह का जुआ है. इस जुए की छाप समसस्त महाजनी संस्कृति पर है. घुड़दौड़ में लोग घोड़ों पर पैसा लगाते हैं, चुनाव में राजनीतिज्ञों पर लगाते है.’’
(वही, पृष्ठ 147)
आज जिसे हम ‘वित्तीय पूंजी’ (फाईनेंस कैपिटल) कहते हैं, उसने पहले के सब कुछ को नष्ट कर डाला है. यह पूंजी बड़े अन्तरराष्ट्रीय बैंकों और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा संचालित होती है. डॉ. शर्मा ने बार-बार यह कहा है कि व्यापारिक पूंजीवाद के दौर में और महाजनी पूंजीवाद के दौर में भी सूदखोरी की प्रवृत्ति बढ़ती रही है. सूद कमाने के तरीके अब पहले से बदले हुए हैं. पिछली सदी के सत्तर के दशक से जो कुछ परिवर्तन हुए, विश्व बैंक और अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष जिस प्रकार तीसरी दुनिया के देशों पर हावी हुए, उसकी चर्चा कम की जाती है.
उत्तरी अमरीका और यूरोप के चारित्रिक अन्तर को समझने के लिए मार्क्स-एंगेल्स के एक निबंध ‘बास्तियत एण्ड कैरे’ को पढ़ना आज अधिक जरूरी है क्योंकि सत्तर के दशक से मुख्य रूप से अमरीकी अर्थतंत्र दुनिया में प्रभावी हुआ. हिन्दी में अभी तक राजेश्वर सक्सेना को छोड़कर शायद ही किसी ने ‘बास्तियत एण्ड कैरे’ निबंध की विस्तार से चर्चा की है. बास्तियत फ्रेंच अर्थशास्त्री (30.6.1801-24.12.1850) थे और हेनरी चार्ल्स कैरे (15.12.1793-13.10.1879) अमरीकी अर्थशास्त्री थे. मार्क्स-एंगेल्स के इस निबंध को पढ़कर यह साफ हो जाता है कि
‘‘उत्तरी अमरीका की राजनीत्यार्थिकी (पालिटिकल इकोनॉमी) का उन्मुक्त चरित्र यूरोप की राजनीतित्यार्थिकी जैसा नहीं है’’ (राजेश्वर सक्सेना, ‘वित्तीय पूंजी और उत्तर आधुनिक’, 2001 पृष्ठ 60)
डॉ. सक्सेना इस वित्तीय पूंजी का ‘नव्य फासीवाद’ से रिश्ता देखते हैं.
(छह)
रामविलास शर्मा ने जीवन के अंतिम वर्षों में बार-बार ‘विदेशी पूंजी’ की बात कही है. आजादी के समय केवल ब्रिटिश फौज यहाँ से गयी, विदेशी पूंजी नहीं गयी. ‘भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश’, भाग 2 (1999) में वे आज के भारत को ‘कल के इतिहास की देन’ कहते हैं. विदेश से कर्ज लेकर देश के विकास के वे विरोधी हैं. नरसिंह राव और मनमोहन सिंह की सरकार ने जो नयी आर्थिक नीति लागू की, वह नव उदारवादी अर्थव्यवस्था के तहत थी.
‘‘लेनिन ने कर्ज लेकर माल खरीदने की क्रिया की तुलना बैल की खाल दो बार उतारने से की थी. महाजनी पूंजी पहले उधार दी हुई रकम का मुनाफा गाँठ में करती है, उसके बाद उसी रकम से वह दूसरे मुनाफे भी गाँठ में करती है जब लेनदार उसका उपयोग क्रुप (जर्मन पूंजीपति) से माल खरीदने को करता है.’’
(‘भारतीय इतिहास और ऐतिहासिक भौतिकवाद पृष्ठ 162)
देशी-विदेशी पूंजी का गठबंधन ‘चौमुखी संकट’ बढ़ाता है.
‘‘भाषा, साहित्य और संस्कृति से ले कर पर्यावरण तक भारतीय जीवन को हर स्तर पर विदेशी पूंजी प्रभावित करती है”.
(भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश, खण्ड 2, पृष्ठ 635)
सोवियत संघ के विघटन के बाद भारत में जिस तीव्र गति से ‘जाति-बिरादरीवाद’ और ‘सम्प्रदायवाद’ बढ़ा है, उसका विदेशी पूंजी से सीधा संबंध है. विदेशी पूंजी अपने साथ एक भाषा, एक मूल्य और एक संस्कृति भी लाती है. आज जिसे ‘मार्केट कैपिटल’ कहा जाता है, वह मात्र अर्थ-जगत के दायरे में ही संचरण नहीं करती.
डॉ. शर्मा के के व्यापक अर्थशास्त्रीय अध्ययन-चिंतन और विचार-दृष्टि पर अभी तक कम विचार हुआ है. उनका लेखन मात्र अकादमिक नहीं है. केवल अकादमिक चश्मे और नजरिये से न तो उसे देखा-समझा जा सकता है और न उस पर सही तरीके से विचार किया जा सकता है. बेनेडिक्ट एंडरसन (26.8.1936-13.12.2015) ने ‘प्रिंट कैपिटलिज्म’ की बात की, व्यापारिक और औद्योगिक पूंजीवाद का भेद मिटाया, जिसकी डॉ. शर्मा ने आलोचना की. बड़ी बात यह है कि वे पूंजी के इस खेल और विश्वव्यापी प्रसार में ‘इलेक्ट्रानिक्स’ की भी एक बड़ी भूमिका देखते हैं, इजारेदार पूंजीवाद पर अमरीकी वर्चस्व को समाप्त करने का मार्ग भी बताते हैं. अमरीका पूंजीवाद का गढ़ है. वहाँ से पूंजी के निर्यात के साथ संस्कृति का भी निर्यात होता है. किसिंजर ने वर्षों पहले यह कहा था कि भूमंडलीकरण अमरीकीकरण है.
जहाँ तक उधार देकर सूद कमाने का धंधा है, वह अब अनेक नये तरीकों से जारी है. इसके विशाल रूप को समझने के लिए यह उल्लेख आवश्यक है कि (एक स्रोत के अनुसार)-
भारत प्रति सेकंड 1 लाख 46 हजार 990 रुपये, प्रति मिनट 88 लाख 94 हजार रुपये, प्रत्येक घंटे 52.9 करोड़ रुपये, प्रतिदिन 1270 करोड़ रुपये और प्रत्येक वर्ष 4 लाख 63 हजार करोड़ रुपये पुराने कर्ज के ब्याज के रूप में चुका रहा है. भारत विदेशी कज के जाल में फँसा देश है. प्रति व्यक्ति यह कर्ज 53 हजार 544 रुपये है. कर्ज लेकर ब्याज दिया जा रहा है.
एक ओर भारत प्रति घंटे 52.9 करोड़ रपये ब्याज दे रहा है, दूसरी ओर मुकेश अम्बानी ने पिछले 6 महीने में प्रति घंटा 90 करोड़ रुपया कमाया. कर्ज पर ब्याज चुकाने में प्रत्येक वर्ष सरकार लाखों करोड़ रुपये खर्च करती है. विदेशी कर्ज जिस अनुपात में बढ़ता गया है, उसी अनुपात में ब्याज भी बढ़ता गया. नव उदारवादी अर्थव्यवस्था के दौर में यह कर्ज काफी बढ़ा है. मार्च 1999 में जो विदेशी कर्ज 98.2 अरब डालर था, वह जून 2019 में बढ़ कर 557.4 अरब डॉलर हो गया है.
डॉ. शर्मा के गंभीर अध्येताओं को उनके अर्थशास्त्रीय अध्ययन-चिंतन पर भी विचार करना चाहिए. औद्योगिक पूंजी का सम्बन्ध मानव-श्रम से था. आज की वैश्विक पूंजी श्रम-निरपेक्ष है. इस पूंजी की लपेट में सब है- भाषा, संस्कृति, लोकतंत्र, घर, परिवार, संबंध, शिक्षा, मूल्य आदि. डॉ. शर्मा ने इस पूंजी की सदैव आलोचना की है. पारम्परिक अर्थ में वे अर्थशास्त्री नहीं हैं, पर उनका यह अर्थशास्त्रीय अध्ययन-चिंतन अधिक महत्वपूर्ण है.
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