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Home » रज़ा स्मृति: वटवृक्ष और रंगों का बिखराव: उदयन वाजपेयी

रज़ा स्मृति: वटवृक्ष और रंगों का बिखराव: उदयन वाजपेयी

सैयद हैदर रज़ा (२२ फरवरी १९२२ – २३  जुलाई २०१६) की आज  पुण्यतिथि है. एक महान चित्रकार और साहित्य का अनुरागी, हिंदी कविता से उनका रिश्ता प्रगाढ़ था. अब जब वे नहीं हैं यह रिश्ता और गाढ़ा होता चला जा रहा है.   उन्हें स्मरण कर रहें हैं कवि, लेखक और अपने तरह के अनूठे विचारक-संपादक उदयन वाजपेयी. इस आलेख में रज़ा के चित्रों पर भी कुछ ज़रूरी बातें कहीं गयीं हैं, साथ में रज़ा के अंतिम समय के बनाये कुछ चित्रों की प्रतिकृति भी दी जा रही है. प्रस्तुत है.

by arun dev
July 23, 2020
in कला, पेंटिंग
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रज़ा स्मृति: वटवृक्ष और रंगों का बिखराव: उदयन वाजपेयी
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रज़ा स्मृति

वटवृक्ष और रंगों का बिखराव                                 

उदयन वाजपेयी

काव्य समारोह के निदेशक से मैंने कह दिया था कि पेरिस पहली बार आने पर मुझे वहाँ कुछ अनोखा नहीं लग रहा है. मैं पूरी तरह ग़लत भी नहीं था. किसी नये शहर में आने पर परायापन ज़रूर महसूस होता है, पर उसका अनोखापन धीरे-धीरे आपके सामने आता है. अजनबी शहर पहुँचकर मेरे दिमाग में बहुत-सी बातें गड्ड-मड्ड हो जाती हैं. इस कारण कई काम समय पर होने से रह जाते हैं, कई को अनावश्यक महत्व मिल जाता है. उस वर्ष पेरिस के अन्तर्राष्ट्रीय काव्य समारोह में भारतीय कविता केन्द्र में थी. अनेक भारतीय भाषाओं के कवि संसार की दूसरी भाषाओं के कवियों के साथ वहाँ पहुँचे हुए थे.

यह देश से बाहर मेरी पहली यात्रा थी. पराये देश में रहने के कायदे से मेरा परिचय लगभग नहीं था. मैं उस तरह के यात्रियों में नहीं हूँ जो पूरी तैयारी से पराये देश का भ्रमण करते हैं. वहाँ जाने से पहले वहाँ के नक्शों, इमारतों, प्रसिद्ध स्थानों के बारे में खोजबीन करते हैं और फिर पूरे जानकार की तरह परायी भूमि पर कदम रखते हैं. मैंने अपने को पराये देश के पराये शहर में महज झोंक दिया था. फ्राँसीसी उपन्यासों में पेरिस की गलियों आदि के विषय में पढ़ा ज़रूर था पर मैं वैसा पाठक नहीं जो उपन्यासों में ऐसे वर्णनों पर ध्यान दे और उन्हें याद रख सके. यह पूरी तरह बेखबर झोंकना नहीं था. यहाँ ऐसे कुछ लोगों का मुझे पता था जो पेरिस में मेरे बहकाव को किसी हद तक कम कर सकते थे. इनमें एक मेरी कविताओं के फ्राँसीसी अनुवादक और कवि फ्राँक आन्द्रे जैम थे जो पूरे काव्य समारोह के दौरान मेरा सहारा बने रहे.

पेरिस में मेरी उम्मीद का दूसरा आधार सैयद हैदर रज़ा थे. भारत में उनसे एक-दो बार मिल चुका था और उनकी चित्र कृतियों से किसी हद तक वाकिफ़ था. मुझे यह पता था कि वे साठ से अधिक वर्ष के हो चुके हैं और उनसे मिलने की सिर्फ़ यही सूरत बन सकती है कि मैं उनके घर जाऊँ. शुरू के दिनों में होटल से रज़ा साहब के घर की राह घोर अनिश्चय से भरी जान पड़ रही थी. किस मैट्रो में बैठना होगा, कहाँ उतरकर दूसरी मैट्रो में बैठूँगा फिर उससे उतरकर कहाँ जाऊँगा, यह सब मेरे मन में धूल के बवण्डर की तरह घूम रहा था. उनके घर तक जाना कुछ वैसा ही था जैसा परिकथा के चरित्रों का अनजाने, ख़तरनाक रास्तों को पारकर अपने गन्तव्य तक पहुँचना. इसके बाद भी उनका पेरिस में होना मेरे लिए सहारा था.

दूसरे या तीसरे दिन सड़क किनारे के टेलीफोन बूथ से मैंने उन्हें फ़ोन लगाया. उन्होंने आत्मीयता से मुझसे सबसे पहले पूछा कि क्या मैं ठीक से ठहर गया हूँ. मैं ठहर गया था. मैंने उन्हें समारोह में आने का न्यौता दिया. वे व्यस्त थे पर वे मेरे किसी एक कविता पाठ के दिन ज़रूर आयेंगे. इसके बाद वे काव्य समारोह के बारे में विस्तार से बात करते रहे और अन्त में मुझे अपने घर आने का निमन्त्रण दिया. शायद उन्होंने मेरी आवाज़ में घबराहट महसूस कर ली थी इसीलिए उन्होंने देर तक बातें की थीं और शायद इसीलिए हमने मिलने का दिन तय नहीं किया.

(चित्र : रज़ा)

 

(दो)

शैराँ गली में उनका मकान था. वह छोटी-सी गली थी पर पराये पेरिस की हर गली मेरे लिए अन्टार्कटिक महाद्वीप के किसी हिस्से जैसी थी. मैं मैट्रो में बैठे-बैठे पूरे समय उनका मकान नम्बर दोहराता रहा कि कहीं जेब में रखी पर्ची खो गयी तब भी मैं वहाँ पहुँच जाऊँ. हर स्टेशन पर लगता कि कहीं मैं शैराँ गली को पीछे तो नहीं छोड़ आया. ध्यान ठहराने मैं बार-बार अपने हाथ की क़िताब को खोलकर पढ़ने की कोशिश करता. जल्द ही मैट्रो फिर किसी स्टेशन पर रुक जाती और मैं एक बार फिर इस सोच में पड़ जाता कि कहीं मैं शैराँ गली का स्टेशन पीछे तो नहीं छोड़ आया हूँ.

हम भारतीय नम्बरों को पढ़कर मकान खोजने में पारंगत नहीं हैं. यह शायद इसलिए है कि हमारे शहर सिलसिलेवार नहीं बसे हैं. अनेक शहरों में आज भी यदि हम केवल नम्बरों के सहारे मकान खोजने की कोशिश करें, हम कभी नहीं खोज पाएँगे. यूरोप की मकान खोजने की परिपाटी अलग है. वहाँ बहुत कम लोग इस काम में आपकी मदद करने तैयार होंगे. वह व्यक्तियों में टूटा समाज है. व्यक्ति जितनी ज़्यादा अपनी मदद खुद कर सके, करता है. इसका उस समाज में मूल्य है. न यूरोप का यह शहर अपनी परिपाटी छोड़ने में तैयार हुआ और न यह भारतीय अपनी आदत को हटा पाया. इसीलिए उस छोटी-सी शैराँ गली में भी मैट्रो स्टेशन से उनके घर पहुँचने में मुझे आधा घण्टा से ज़्यादा लग गया. मैंने चार-पाँच बार पूछा. कुछ ने मेरा यह भोला-सा सवाल (यह मकान कहाँ होगा?) सुना ही नहीं, और एकाध ने गली के एक ओर अपनी अँगुली तान दी.

जब मैं पहली मंजिल के उनके घर जाने के लिए लकड़ी की सीढ़ियाँ चढ़ रहा था, मैं इस तरह खुश था मानो सही सलामत लौटकर घर पहुँच गया हूँ. दरवाज़े की घण्टी बजाने के बाद मैं उनके आने का इन्तज़ार करने लगा. अन्दर से फ़र्श पर चप्पलों के घिसटकर चलने की आवाज़ आने लगी. आवाज़ दरवाजे़ की ओर बढ़ रही थी. हल्की-सी आवाज़ से लकड़ी का किवाड़ एक तरफ हो गया, सामने रज़ा साहब मुस्कुराते हुए खड़े थे. वे आगे चलते हुए मुझे अपने स्टूडियो ले गये जो पास के बड़े से कमरे में था. कुछ चित्र दीवारों पर लटके थे, कुछ फर्श पर रखे थे और एक ईज़ल पर रखा था. इस पर वे काम कर रहे थे. मुझे चित्रों की ओर देखते हुए देखकर वे चुप रहे आये. स्टूडियो में आकर मेरी एक तरह की घबराहट शान्त हो चुकी थी पर रज़ा साहब और उनके चित्रों को इतना पास पाकर एक नयी तरह की बेचैनी मन में फैलने लगी थी. इस बीच उन्होंने अगर कुछ कहा भी होगा, मुझे सुनायी नहीं दिया. कमरे में दो-तीन रैक्स में क़िताबें रखीं थी. उनमें जर्मन कवि रिल्के का कविता संग्रह भी था. उसे देखकर मेरे मन का ठहराव कुछ बढ़ गया. मानो मैंने रज़ा साहब के स्टूडियो में आत्मीय मित्र को देख लिया हो. उनकी पत्नी जानीन का स्टूडियो बगल के अपार्टमेण्ट में था. उसमें जाने का रास्ता रज़ा साहब के स्टूडियों से होकर नहीं जाता था.

(तीन)

वे उन बहुत थोड़े से चित्रकारों में थे जो लगभग सारा दिन या तो चित्र के पास रहते थे, उसे बनाते रहते थे या उसके बारे में सोचते रहते थे. पेरिस के उनके स्टूडियो में ईजल की ऊँचाई देखकर यही अन्दाज़ा लगता था कि वे पद्मासन में बैठकर कैनवास पर रंग लगाते हैं. बाद के वर्षों में दिल्ली के अपने स्टूडियो में वे कुर्सी पर बैठते थे. उस दिन पेरिस में वे जितनी बार किसी चित्रकार पर बोलते, उससे उनका विश्लेषण कम उस चित्रकार के प्रति उनका गहरा अनुराग और सम्मान अधिक छलकता. उन्होंने फ्राँसीसी में एक वाक्य मुझसे बोला, जिसका अर्थ था, क्या तुम फ्राँसीसी बोल लेते हो? मैंने बिना वह वाक्य समझे सिर हिला दिया, नहीं. उन्हें ग़लतफहमी हुई कि मैं कम-से-कम एक वाक्य तो समझ लेता हूँ. वे मुझे स्टूडियो में छोड़कर भीतर चले गये. मेरी बेचैनी शान्त होना शुरू हो गयी थी. मैं अजनबी शहर में जाने पहचाने बरगद की छाँव में आ गया था. रज़ा साहब ढेरों भारतीय लेखकों-कलाकारों के लिए पेरिस में यही थे: वटवृक्ष. अतुल डोडिया जब सालों पहले अध्येतावृत्ति के सहारे वहाँ गये थे, वे रज़ा से मिलने गये. उन्हें फ्राँस की सर्दियों में लिफ़ाफ़िया बने देखकर रज़ा ने उन्हें अपना ओवरकोट पहना दिया. वह ओवरकोट अतुल के पास अब भी है.

वे तैयार होकर स्टूडियो आ गये और हम दोबारा शैराँ गली (जो दरअसल शैराँ सड़क थी) में आ गये. तेज़ ठण्डी हवा बह रही थी. वह नवम्बर का महीना था, मेपल के पत्ते फुटपाथ पर जगह-जगह खून के धब्बों की तरह फैले थे. हम शैराँ गली से निकलकर एक अपेक्षाकृत चैड़ी और व्यस्त सड़क के फुटपाथ पर चलने लगे.

(चित्र : रज़ा)

 

(चार)

रज़ा के चित्रों को लगभग हमेशा से ही देख रहा हूँ. यह निबन्ध लिखने के पहले जब यह सोच रहा था कि इनके चित्रों को मैंने सबसे पहले कब देखा था, मुझे याद नहीं आया. अतीत में रज़ा के चित्रों को देखता-देखता मैं जैसे-जैसे पीछे जाता गया, मैंने पाया, मैं ऐसा कोई बिन्दु नहीं खोज पा रहा हूँ जहाँ इन चित्रों की शृंखला समाप्त हो रही हो. इसमें मेरे अतीत का कोई जादू नहीं है, न ही यह सच है कि बचपन से ही मुझे रज़ा के चित्रों को देखने के अवसर मिले हैं. यह रज़ा के चित्रों की विशेषता है कि उन्हें देखते हुए आपको यह लगता है मानो वे हमेशा ही आपके साथ रहे हैं, आपको अपने चारों ओर की प्रकृति में चमकते या छिपते, चहकते या गुमसुम रंगों के विषय में सचेत करते रहे हैं.

काव्य समारोह के आखिरी दिन समारोह के निदेशक ने कवियों से कहा कि यदि वे चाहें तो अपने किसी अतिथि को विदाई भोज के लिए आमन्त्रित कर सकते हैं. मैंने तुरन्त रज़ा साहब को फ़ोन किया. संयोग से उस शाम उनके पास कुछ समय था. वे आ गये. कुछ भारतीय कवि उनसे पहले से परिचित थे और वे उन्हें देखते ही अह्लादित हो गये. उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी कि पेरिस में उनकी मुलाकात इस महान चित्रकार से हो जायेगी. अन्य देशों के कुछ कवि भी रज़ा साहब को देखकर उनसे प्रभावित हुए बिना न रह सके और उनसे मिलने लगे. उनमें से अनेक के चेहरों पर मेरी प्रति कृतज्ञता का भाव था. 

जब रज़ा साहब के साथ मैं अकेला हुआ, वे मुझसे बोले कि उन्हें इतने सारे कवियों के बीच आकर बहुत अच्छा लग रहा है. हर थोड़ी देर में कभी अमरीकी, कभी रूसी, कभी कन्नड़ कवि आकर रज़ा साहब से मिल रहा था. हॉल के एक हिस्से में कई कवि बेढंगा नाच रहे थे और रह-रहकर मुझे उसमें शामिल करने का प्रयास कर रहे थे. मैं रज़ा साहब को छोड़कर जाने में संकोच कर रहा था. वे मेरी ओर झुके और बोले, आपको इन कवियों के साथ जाना चाहिए, मेरी चिन्ता मत कीजिए.

उस रात कवियों की महफ़िल से रज़ा रात के तीन बजे घर गये.

(चित्र : रज़ा)

 

(पांच)

इसके बाद से जब भी मैं पेरिस गया, रज़ा साहब से ज़रूर मिला. एक बार उनके साथ ठहरा भी. वे हमेशा वहाँ मेरे अभिभावक बने रहे. एक बार फ्राँस के प्रसिद्ध कवि और दार्शनिक मिशेल दुगी के आमन्त्रण पर मैं फ्राँस के राष्ट्रीय पुस्तकालय में व्याख्यान देने गया. मेरे अलावा वहाँ एक रूसी और एक ईरानी कवि भी व्याख्यान दे रहे थे. फ्राँस का राष्ट्रीय पुस्तकालय सेन नदी के किनारे है. सर्दियों की रातों में सेन नदी के पानी को छूकर आती ठण्डी हवाएँ पुस्तकालय की सीढ़ियों पर आपको घेर लेती हैं. रज़ा साहब व्याख्यान सुनने आये. मुझे देखते ही इशारे में संकेत किया कि मेरा गला ढँका नहीं है, मुझे सर्दी हो जायेगी. पुस्तकालय से लौटते समय मैंने तय किया कि मैं औपचारिक भोज में जाने के स्थान पर रज़ा साहब और फ्राँक आन्द्रे जैम के साथ जाऊँगा. मिशेल दुगी को इसमें कोई आपत्ति नहीं थी, उनका रज़ा साहब से परिचय हो चुका था. रज़ा साहब की ओर इशारा करते हुए वे मुझसे धीरे से बोले, ये कितने गरिमामय व्यक्ति हैं. इन्हें देखकर तुम आत्मा के विषय में कही मेरी बात याद कर सकते हो, आत्मा तभी तक अमर है, जब तक व्यक्ति जीवित है. सीढ़ियों पर जब बर्फीली हवा ने घेरा, मैंने रज़ा साहब की तरफ देखा. वे मुस्करा दिये और बोले, आपने इस व्याख्यान में मृत्यु के बारे में इतना अधिक क्यों बोला. मैं उन्हें क्या जवाब देता, लेकिन इस प्रश्न से मुझे यह बात और साफ हो गयी कि रज़ा जीवन को गाने के चित्रकार हैं. 

उनके चित्रों में जीवन का उत्सव भरपूर है. मानो उनके कैनवास के रंग-विधानों से उसी तरह जीवन प्रस्फुटित हो रहा हो जैसा लोकनृत्यों से होता है. सम्भवतः रज़ा पर आदिवासी बहुल मण्डला और लोक संस्कृति से भरपूर दमोह का गहरा असर बचपन में हुआ होगा. वे उन कलाकारों में है जिनके चित्रों में रंग आकारों को रचने का उतना कार्य नहीं करते जितना आकार रंगों को अपना स्वभाव प्रकट करने देने का. उनके चित्रों के रंग आकारों का सहारा लेकर बहुत हद तक स्वतन्त्र हो जाते हैं और वे हमारे मन में तरह-तरह के भाव उत्पन्न करने लगते हैं. उन्होंने कुछ ऐसे चित्र बनाये हैं जिनमें उनके अनेक चित्रों जैसी ज्यामिति प्रभावी नहीं है. इनमें एक चित्र मुझे याद है जिसका शीर्षक ‘राजस्थान’ था. इसे देखकर यह सहज ही अनुभव होता है कि रज़ा साहब ने इस चित्र में राजस्थान को कुछ रंगों और गतियों में आयत्त कर लिया है. इस चित्र में, जहाँ तक मुझे याद है, राजस्थानी स्त्रियों की चुनरियों के चटख रंग उतने नहीं है जितने राजस्थानी लोगों के जीवन के धूसर रंग. इस चित्र में मानो रज़ा साहब ने राजस्थान के मन को, रंगों से घिरे धूसर मन को कैनवास पर लाकर रख दिया है.

(छह)

अपने जीवन के अन्तिम कुछ वर्ष रज़ा ने दिल्ली में बिताये. यहाँ भी उनका बहुत-सा समय स्टूडियो में बीतता था. उन्होंने एक दिन मुझे बताया था कि रात में उन्हें बहुत मुश्किल से नींद आती है. उन पर बुढ़ापे का ज़ोर बढ़ रहा था पर इसके बावजूद उन्होंने चित्र बनाना छोड़ा नहीं. इन अन्तिम वर्षों के चित्रों में कुछ विशेष घट रहा था, कुछ ऐसा अनूठा जो ‘राजस्थान’ जैसे चित्र में आंशिक रूप से हुआ था. जीवन के इस सोपान पर आकर इनके चित्रों की ज्यामिति शिथिल हो गयी थी, निर्मितिवाद (कन्स्ट्रक्टिविज़म) कैनवास के किन्ही हिस्सों में दुबक गया था, रंगों पर उसका प्रभाव कमज़ोर पड़ गया था. ब्रश स्ट्रोक्स अब किसी वृत्त या किसी अन्य आकार को रचने के स्थान पर अपने शुद्धतम रूप में कैनवास पर आने लगे थे. मानो उनके कैनवास बिना किसी व्यवस्था के सहारे रंगों के मिलने का स्थान बन गये हों. उनके कैनवासों पर रंगों का मेला लग गया हो जिसमें अनेक रंग एक-दूसरे से संवाद में जुटे हुए हों. शायद इसे ही कामसूत्र में चित्रकला के छह अंगों में से एक ‘वर्णिका-भंग’ कहा गया है. रज़ा के इन चित्रों में वर्ण एक-दूसरे से अलग-अलग भंगिमाओं में संवादरत हैं. मुझे ये चित्र इसलिए भी मूल्यवान लगते हैं क्योंकि यह एक विलक्षण चित्रकार के जीवन की अन्तिम भंगिमाएँ हैं जिसमें उसने बिना किसी शैलीगत सहारे के अपने सत्य को काँपते हुए महसूस किया था और हमें इस दुर्लभ घटना का साक्षी बनाया था.

इन चित्रों को देखकर मुझे लगातार फ्रेंज़ काफ़्का के अन्तिम लेखन की याद आती रही. उन्हें तपेदिक हो गया था और वे बिस्तर पर पड़े रहने को मजबूर थे. इन दिनों वे कभी एक वाक्य, कभी आधा पास रखे काग़ज़ पर लिख देते थे. कहने को ये एक या आधे वाक्य हैं पर इनके पीछे काफ़्का का सृजन की संक्षिप्तता को टटोलने का अद्वितीय प्रयास है. ये वाक्य मानो महाकाव्य के कागज उभर आये हिस्से हों जिसके नीचे विराट पर्वत सा उस पीड़ा का महाकाव्य थरथरा रहा हो जो वे उम्र भर भोगते रहे थे.

रज़ा के अन्तिम चित्रों के एक-एक ब्रश स्ट्रोक के पीछे उनके संघर्ष, उनके प्रवास, उनके वियोग और जीवन से उनके लगाव का विराट भू दृश्य फैला है. यह सच है कि उनमें रज़ा के अन्य चित्रों जैसा ज्यामिति का जादू नहीं, पर रंगों का जो मेला इन चित्रों में दिखायी देता है, उसमें हम न जाने कितनी तरह की फुसफुसाहटों सुन सकते हैं. उनकी जिजीविषा की थरथराहट सुन सकते हैं, जीवित मनुष्य में आत्मा की अमरता को महसूस कर सकते हैं. उनके इन विदाई-गीतों में हम अपने निरन्तर आगमन की पदचापें सुन सकते हैं.

इन चित्रों में रंग उसी तरह बिखर रहे हैं जैसे हम सब अन्तिम समय में देश और काल में बिखर जाते हैं. ये जीवन की भंगुरता में मनुष्य के सृजन की अन्तहीनता का शान्त उद्घोष हैं.
________________



उदयन वाजपेयी
udayanvajpeyi@gmail.com

Tags: आलेखरज़ासंस्मरण
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