भाषा के भंवर में रमते पाठक की ‘रेत समाधि’ |
रेत समाधि’ को पढ़ने का वास्तविक सुख क्या है, अगर अपने पाठ-अनुभव से कहूँ तो यह उपन्यास हमें शब्दों के नए संसार में ले जाता है. यह शब्द-संसार प्रायः हर पंक्ति में घटित होता दीखता है. हर जगह अपनी अलग और नई छटा बिखेरता. यह उपन्यास की शुरुआत से ही प्रकट होने लगता है. शुरू में तो हम सहजता से इसे पढ़ते हुए आगे बढ़ते हैं, पर जल्दी ही चकित होने लगते हैं, इन नए बनते शब्दों के सटीक प्रयोग से जो गढ़न में सहज हैं और हमें भाषिक दृष्टि से समृद्ध बनाते हैं.
शब्द ऐसे कि किसी शब्दकोश में न मिलें, पर पूरा कोश बन जाए. किताब की जिस पंक्ति में जहाँ वह है, अर्थ समझने में देर न लगे. शब्द-युग्म, वाक्यों, शब्द-क्रम में हुए नए प्रयोगों की व्याख्या करने लगें तो प्रत्येक पक्ष पर एक-एक आलेख बनता जाए. कहानी, सरहद, परिवार, हवा, दीवार, दरवाजा, मौत, इश्क, पीठ आदि का पूर्ण नया भावात्मक अर्थ देती नई भाषा यहाँ है. अपना नया व्याकरण गढ़ती किताब, व्याकरण की तय हदबंदियों से कोसों दूर. सामान्यतः गल्प कहते समय लेखक कहानी से भाव पैदा करता है. गीतांजलि श्री भाषा से कहानी और भाव पैदा करतीं हैं. नए अर्थ पैदा करतीं हैं.
एक)
इस उपन्यास में सहज प्रचलित शब्दों-वाक्यांशों को नए ढंग से ही नहीं लिखा गया है बल्कि नए-नए शब्द भी गढ़े गए हैं. भाषा के साथ चुहल करने वाले पाठकों के लिए तो यह सुखकर है ही, सरल पाठ का आनन्द लेने वाले पाठक भी इसे पढ़ते हुए भावविभोर हो उठते हैं, यह इसकी खासियत है. इन प्रयोगों को उदाहारण के रूप में हम यहाँ देने लगें तो अनेक पृष्ठ इसी से भर जायेंगे. पर कुछ उदाहरण तो देने जरूरी हैं. बल्कि इस आलेख का उद्देश्य ही ऐसे शब्दों, वाक्यों, उक्तियों को रेखांकित करना है जो ‘रेत समाधि’ को सिर्फ उपन्यास नहीं, एक रचनात्मक परियोजना बना देते हैं.
इसमें अनेक शब्द-युग्म और शब्द-प्रयोग ऐसी नई वाक्य संरचना के साथ आए हैं जो शब्दों की– युग्म और शब्द– ध्वन्यात्मक शक्ति की दृष्टि से भी लेखक को शब्दों का कुशल चितेरा सिद्ध करते हैं. वे जितना भाषा के लिखित रूपकों से काम लेती हैं उससे कहीं अधिक वे उसके उच्चरित ध्वनिसंकेतों का सहारा ले लेती हैं. उपन्यास विधा में कहने का पर्याप्त स्थान होता है. यहाँ उपन्यासकार अपने विवेक बहुत मायने में पूरी रचनात्मक मनोदशा को दर्शा सकता है. इसमें लेखक का सुस्पष्ट जीवन-विवेक बहुत मायने रखता है. ‘रेत-समाधि’ उपन्यास विधा की महत्वपूर्ण पुस्तक है, जो अपनी भाषा भी खुद गढ़ती है.

गीतांजलि श्री शब्द-चयन का हुनर रखती हैं, शब्द-गढ़न का भी. यह ‘रेत समाधि’ में अनायास दिखाई देता है. वे शब्दों का प्रयोग करते हुए उन्हें सजीव बनाती हैं. मामूली बदलावों के साथ वे प्रचलित शब्दों से मौलिक अभिव्यंजनाएँ पैदा करती हैं और उनमें नए अर्थ निरूपित कर देती हैं. इस भाषा में भावों और अर्थों में जड़ पूर्वग्रहों से पार जाने की इच्छा भी अंतर्निहित है.
यह उपन्यास कहानी है, यह गाथा और क़िस्सा भी है. भाषा-प्रयोग इसमें जादुई आलोक पैदा करते हैं. देशज रूप में अनेक शब्द यहाँ ऐसे हैं जो इस उपन्यास के लिए लोकव्यंजना प्रस्तुत करते हैं. छोटिया, बुढ़ा-बुढ़ऊ, बूढ़ी-बुढ़रिया ऐसे ही नए शब्द प्रयोग हैं. अनेक स्थानों पर बोलचाल की शैली में वह के स्थान पर वो, पर के स्थान पर पे, तय के स्थान पर तै, वहाँ के स्थान पर वां प्रयोग किया गया है. वे ‘जानबूझ’ के स्थान पर ‘जानसमझ’ शब्द का प्रयोग करती हैं, कि मालूम पड़ता है जैसे यही इस प्रसंग में उपयुक्त है. ‘जाहिल जपट’ भी ऐसा ही शब्द युग्म है. इतने प्रयोगों के साथ भी लेखक शब्दों-वाक्यों में मानवीय लयात्मकता और सहजता बनाए रखती हैं.
नए गढ़े शब्दों में अर्थ छटा की बानगी देखिए:
‘घुमावती’ (पृ.11) सीधा-सादा शब्द है. इसका प्रयोग इसे खास बना देता है जब दाएं-बाएं के साथ ऊपर नीचे, इधर-उधर, आड़े-टेढ़े जैसा कुछ ना लिखकर लेखक इसी एक शब्द से सब कह देता है.
‘पिलियाहट’ (पृ.15) इस पिलियाहट में बहुत से पीले रंग हैं. यह पूरा पीला नहीं है. बस पीलेपन का आभास है. यह ईंट सीमेंट पर सफेदी से बन गया पीलापन भी है. यह बरसों से सफेदी न होने से पीली पड़ गई दीवार भी है. यहाँ लंबे अंतराल में धूल जमने से चढ़ते-उतरते हाथों से मैली होती दीवार का पीलापन भी है. दीवारों पर अंधेरे का एहसास जैसे इतने अर्थ ‘पिलियाहट’ में ही संभव हुए, पीला या पीलापन लिख देने से यह नहीं होता.
‘लहरीला’ (पृ.20) में आवाज का सुरीलापन है. बोले जा रहे शब्दों का क्रमशः लयबद्ध उच्चारण भी हैं. मचलते हुए मटकते हुए कुछ-कुछ नाचते हुए बोलना भी है. गेय न होते हुए भी गाना है, जैसे बोलने वाला नहीं आवाज गा रही है. क्या यह बात किसी भी दूसरे शब्द में – नाचते हुए गाना, गाते हुए बोलना में आ पाती !
‘निसंसने’ (पृ.26) साँस बंद हो जाना, साँस रुक जाना, साँस उखड़ जाना, सुधबुध खो बैठना, अपने आप को भूलकर घर को सँभालते रहना. साँस लेना तक भूलकर सबका ख्याल रखना और इसमें अपना ख्याल न रख पाना. हर माँ का यही तरीका है काम करने का. ‘निसंसने’ में यह सब आ गया. क्या कोई दूसरा शब्द या वाक्य में यह कह पाता!
‘मदझूमते’ (पृ.21) धनवान, अधिकारवान, कमजोरों पर अत्याचार करने वाले, शक्ति के नशे में चूर, जिन्हें अच्छा नागरिक नहीं कहा जा सकता, अत्याचारी, सामन्ती तरीके अपनाने वाले. अधिकारों के नशे में झूमते लोगों के लिए एक ही शब्द.
‘हिलकोरता’ (पृ.37) हिलकोरे मारना. नदी का पानी हिलकोरे मारने लगा. साँसें खुशी से हिलकोरे लेने लगीं. खुशी को, आनंद को प्रकट करने के लिए ‘हिलकोरे’ का प्रयोग पढ़ा है. ‘हिलकोरता’ पहली बार देखा वह भी अंधेरे में पलकों पर.
‘चौचन्द’ (पृ.26) चारों ओर शोर, चारों तरफ चौकसी, सब तरफ निगाह रखना, सलाहें देते रहना. युवा हो रही बहन को मर्यादा का ज्ञान देते रहना. संयुक्त परिवार के अन्दर उलझते-सुलझते वातावरण में खुद को भी संभालना और बच्चों को भी. ऐसी चौतरफा चौकसी के लिए एक छोटा-सा देशज-सा शब्द.
‘टिढ़भिंगी’ (पृ.41) टिड्ढा और भंगिमा दो अलग-अलग भावों को जोड़कर बनाया गया शब्द. टिड्ढे की तरह टेढ़ी-मेढ़ी चाल और उसके चलने का तरीका. इससे पहले यह शब्द कहीं नहीं पढ़ा, किसी शब्दकोश में भी नहीं मिला. ऐसी ईजादों को ही कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, भानुमति ने कुनबा जोड़ा कहा गया होगा. भानुमति के ऐसे कुनबे के शब्द इस किताब में भरे पड़े हैं और शब्दों का यह कुनबा बढ़ता ही जाये, हम कामना करते हैं. भाषा की समृधि का यही रास्ता है.
यह उपन्यास ऐसे भावपूर्ण शब्दों से भरा हुआ है. शब्दों में अर्थ प्रचुर हैं. सभी शब्द बोलने में सहज हैं और अर्थ में स्पष्टता लिए हुए हैं. ‘रेत समाधि’ में प्रयुक्त ऐसे नए शब्दों को यहाँ एकत्र करने का प्रयास किया गया है. अजब-गजब बनावट के शब्द. इन शब्दों को इस तरह एक साथ देखना भ्रमित कर सकता है. बहुत से शब्द निरर्थक जान पड़ेंगे. लेकिन जहाँ ये प्रयुक्त हैं वहाँ इन्हें पढ़ना बरबस मुस्कान ला देता है. इनकी निराली छटा देखिए:
सुगबुगी (पृ.11) | धुलित (पृ.71) | मरायल (पृ.153) | अचुप (पृ.288) |
घुमावती (पृ.11) | रटपटिया (पृ.71) | थाक (पृ.154) | चौकोराते (पृ.291) |
छोटिया (पृ.11), | भास्कराने (पृ.71) | औंदा (पृ.157) | चींटीयाते (पृ.291) |
कंसारी (पृ.12) | उजल (पृ.71) | हरकतायी (पृ.161) | नृतियाते (पृ.291) |
अंकाव (पृ.14) | झुमावती (पृ.73) | लड़खड़वाती (पृ.162) | लिंगेमरमर (पृ.293) |
अन्दाज़ना (पृ.14) | साथियापन (पृ.79) | खखेटा (पृ.162) | फोड़ेबाज़ (पृ.300) |
कानागोसी (पृ.16) | घुरघुराके (पृ.80) | भानकर (पृ.168) | डरौआ (पृ.305) |
खफ़ाती (पृ.16) | लटालह (पृ.81) | धूपिल (पृ.169) | अस्पताली (पृ.310) |
फफांती (पृ.16) | सद्रजान (पृ.81) | पंखड़ (पृ.174) | द्विदिशात्व (पृ.323) |
लहरीला (पृ.20) | भनकार (पृ.87) | जिबरिश (पृ.177) | उगाल (पृ.339) |
धींगाधांगी (पृ.24) | मकनिया (पृ.90) | मिलामुलू (पृ.183) | गुमशुदाई (पृ.339) |
निसंसने (पृ.26) | चिंहचुह (पृ.91) | एकघोंट (पृ.183) | ग्राहकखोर (पृ.341) |
टुरियायी (पृ.27) | ललछौंआ (पृ.91) | अनछीछी (पृ.184) | विचित्रकारी (पृ.345), |
उझकती (पृ.28) | लट्टूआना (पृ.92) | लड़खड़ (पृ.190) | विकृतकारी (पृ.345), |
कपकाया (पृ.29) | प्रेमियाना (पृ.94) | कुदक्के (पृ.196) | श्रवणकुमारपन (पृ.348) |
चकचूर (पृ.31) | पुरसन्ताप (पृ.95) | अनमिल (पृ.197) | बाढ़ोंबाढ़ (पृ.348) |
खौलन (पृ.33) | मैलीआ (पृ.100) | बेकमरों (पृ.197) | प्रकटने (पृ.348) |
टिन्नाई (पृ.34) | झौराते (पृ.101) | रटपटिया (पृ.198) | दूतालय (पृ.359), |
तरेरा (पृ.34) | पुरसतर्क (पृ.102) | कंचनी (पृ.200) | भंवराती (पृ.365), |
हूंस (पृ.36) | तिड़न्ग (पृ.103) | मिरगिल्ली (पृ.201) | परचमाते (पृ.367), |
अर्रबर्र (पृ.36) | घूंटीयाती (पृ.104) | चुपटाये (पृ.203) | उचकफाँद (पृ.369), |
हिलकोरता (पृ.37) | पेड़माजरा (पृ.104) | बकरकना (पृ.211) | प्रकटती (पृ.375) |
मल्हारतीं (पृ.37) | तड़तड़ायी (पृ.105) | हगत (पृ.212) | उड़ईया (पृ.377) |
झर्राटा (पृ.37) | हँसीबोर (पृ.105) | अनजियी (पृ.213) | छुली (पृ.383) |
चीख़मदहाड़ (पृ.38) | आरबल (पृ.107) | झंझान (पृ.214) | सड़केआजम (पृ.384) |
आफतनसीबी (पृ.38) | मगजचट्टी (पृ.108) | अड़गड़ानंद (पृ.218) | फलैटीज (पृ.386) |
टिढभिंगी (पृ.41) | निराकुल (पृ.110) | मौजोगुल (पृ.220) | खताईयाँ (पृ.387) |
कचके (पृ.43) | गांधियाना (पृ.110) | ढिठा (पृ.220) | मकनिया (पृ.392), |
झूराझूर (पृ.45) | ऐलानित (पृ.112) | पार्टीइंग (पृ.226) | बबुक्का (पृ.393) |
दुराना (पृ.45) | ऐनगैन (पृ.115) | वेलकमिंगली (पृ.231) | इत्रा-ती (पृ.394) |
जोश़जनी (पृ.47) | छिछलती (पृ.120) | बौछारने (पृ.236) | अनालाप (पृ.398), |
ख़ुशबाश (पृ.53) | जिलती (पृ.123) | मल्हारती (पृ.236) | भंवराने (पृ.416) |
झपकियाते (पृ.53) | गुजीमुजी (पृ.123) | इन्तजामें (पृ.240) | पखतूनवली (पृ.427) |
भिड़ू (पृ.54) | तूफ़ानीपन (पृ.123) | जवानजोशी (पृ.248) | हरकतपन (पृ.437) |
बकवाद (पृ.55) | छुहियाते (पृ.123) | बुजुर्गनी (पृ.248) | ढलंग (पृ.442) |
थिगला (पृ.55) | लहरुआ (पृ.124) | पंखचाल (पृ.251) | फ़लसफ़ाती (पृ.442) |
ठिलठिलाहट (पृ.56) | घावित (पृ.124) | बिलफेल (पृ.259) | कुंघियाता (पृ.443) |
ठठाने (पृ.56) | आड़ित (पृ.125) | गल्पहास (पृ.262) | बकरकना (पृ.468) |
हवन्नक (पृ.56) | चीलसपट्टा (पृ.126) | धिमाती (पृ.264) | चूकरमन (पृ.471) |
हहागति (पृ.57) | मट्ठर (पृ.126) | सुझावित (पृ.270) | सरबसर (पृ.479) |
अनहँसी (पृ.60) | तोपगोला (पृ.128) | बच्चेजनी (पृ.270) | सायी (पृ.480) |
धूमपटक (पृ.65) | फटकिया (पृ.135) | खड़तलापन (पृ.273) | गुझामुझा (पृ.490) |
मेघधनुष (पृ.70) | भुल्ताव (पृ.142) | बेशादीशुदा (पृ.275) | फटाने (पृ.496) |
पीताम्ब (पृ.71) | खिड़खिड़ (पृ.143) | सगपहिता (पृ.285) | ज़िद्दियाये (पृ.502) |
ऐसे अनेक शब्द हैं जिन्हें उन्होंने या तो गढ़ा है, या नए ढंग से प्रयोग किया है, प्रचलित से आगे बढ़कर उनकी संभावनाओं को खोला है.
उपन्यास के बीच-बीच में यह देखना अचंभित कर जाता है कि ‘पांच शब्द’ ‘चार शब्द’ ‘तीन शब्द’ जोड़कर शब्द-युग्म बनाया गया है. यह पाठक के लिए कौतुहल है, लेखक का रचनात्मक आनन्द है. वैरीप्राइवेटख़ून (पृ.49), क्या समझें क्या ना समझें (पृ.472), दया धर्म प्यार (पृ.488), जिस्मी आस्वाद (पृ.281)
‘रेत समाधि’ में दो या तीन शब्दों के योग से बनें चुस्त प्रयोग भी हैं. दो और तीन शब्दों के ये युग्म नए-नए के अर्थों से भरे हैं. इन शब्दों का अलग-अलग प्रयोग सामान्य है, पर साथ आते ही इनका अर्थ बदल जाता है. उपन्यास में जहाँ जैसे ये शब्द प्रयुक्त हुए हैं, वहाँ लगता है कि इसके अतिरिक्त यहाँ कुछ और सटीक नहीं हो सकता था. यदि ये दोनों शब्द साथ-साथ यहाँ नहीं होते, तो एकाधिक वाक्यों में बात कहनी पड़ती और इतनी स्पष्टता फिर भी न आती.
नए गढ़े शब्द और शब्द-युग्म कठिन नहीं हैं, संस्कृतनिष्ठ भी नहीं हैं. लोक-प्रयुक्त ये शब्द बोलचाल के लहजे में जैसे बनते चले गए हैं. शब्दों का ऐसा अर्थवान योग बनाने के लिए लोक चेतना और भाषिक सजगता से संपन्न रचनात्मकता चाहिए. वह लेखक में पर्याप्त दिखलाई पड़ती है. शब्द युग्मों के ये प्रयोग अटपटे बिलकुल नहीं हैं, इन्हें चटपटा ही कहा जा सकता है. कुछ उदाहरण –
जाहिल जपट (पृ.12) | फतेह नजर (पृ.90) | मट्टी-मुताई (पृ.250) |
किधर न भटको (पृ.12) | राम सलाम (पृ.91) | और और तो और (पृ.250) |
हँसी गरजी (पृ.12) | जलन की लाली (पृ.92) | चाल तर्ज़ (पृ.251) |
दुखी मिटी (पृ.12) | रिवायती निभान (पृ.94) | घूर घूर घूरे (पृ.253) |
बहरतौर कहानी (पृ.13) | मस्त-मंडित (पृ.95) | दर्वेशाना कास्ट्यूम (पृ.253) |
पालक-चालक (पृ.14) | हथियार पस्त (पृ.98) | लहर फहर (पृ.260) |
गोटे-ठप्पे (पृ.15) | गणेश बटोर (पृ.98) | माँ-रंज (पृ.263) |
दोमुँही चाह से ग्रसित (पृ.15) | दारुई महक (पृ.100) | थकी बुझी सुखी (पृ.274) |
लकदक संगेमरमर (पृ.15) | पर्दा पार (पृ.100) | धर्म-गर्व ज्योति (पृ.275) |
दिवारी लिफाफे (पृ.15) | भंगार हुए गुर्दे (पृ.101) | प्रेरणा बेगम (पृ.287) |
बाटी बघार दस्त (पृ.17) | चटाख पटाख दीवाली (पृ.104) | कोसा मारा (पृ.288) |
किचकिच कचायन (पृ.17) | मुँह का गफ्फा (पृ.105) | चबाऊ मण्डली (पृ.290) |
धमधम धमक्कों पे (पृ.20) | धर्म-पुन्य (पृ.105) | गुम्फन-मन (पृ.292) |
वीर्य-उपजों (पृ.21) | गहर-गम्भीर (पृ.105) | खुशमिजाज लिंगम (पृ.300) |
जिन्दा-मैय्यत (पृ.21) | भक उजबक (पृ.106) | दहकता लिंगम (पृ.300) |
बेवफ़ा के सदर (पृ.22) | रेत–प्रपात (पृ.111) | शुभशुभम लिंगम (पृ.301) |
भांपने सहारने की क़ूवत (पृ.22) | दीन हीन लीन (पृ.111) | ख़फ़गी ख़ौफ़ (पृ.305) |
जान-समझकर (पृ.22) | भगवानी रूप (पृ.111) | छंटे फिरने (पृ.310) |
कीड़े के बराबर का कीड़ा(पृ.24) | चप्पल-घड़ी (पृ.117) | मुस्कान वुस्कान हल्कान (पृ.312) |
सिटपिटाए से सिटपिटसिटपिट (पृ.24) | मल–दल रजाई (पृ.122) | जाँचते हिसाबते (पृ.312) |
मार चौचन्द (पृ.26) | घना-घटाटोप (पृ.134) | लचक मचक चीख (पृ.314) |
गलाफाड़ अन्ताक्षरी (पृ.26) | डालों–डगालों (पृ.136) | रति-रत आँखें (पृ.315) |
थमा समां (पृ.28) | झकझोरा मारा (पृ.140) | चोटीपोटी अदायें (पृ.327) |
खखानी धरती (पृ.28) | सिकुड़ी गुजड़ी (पृ.152) | खड़ताली गला (पृ.347) |
फड़क और भड़क (पृ.30) | नजर उजबक (पृ.153) | वार मार बारियों (पृ.359) |
एक मुटाया, एक छोटाया (पृ.30) | सुस्त-तन-मन प्यारी (पृ.154) | लहीमाना शाहीमाना (पृ.367) |
बोनस बरस (पृ.31) | थकी पिछाड़ी (पृ.157) | मार्शल डांस (पृ.368) |
फैल फूल (पृ.30) | दिशासत्य (पृ.158) | फियास्को नाटक (पृ.372) |
चिल्लाना टिन्नाना चुहल है (पृ.34) | रमक रौनक ररक (पृ.161) | जाँच पर पड़ताल (पृ.374) |
रुसवाई, गुस्सवाई, सुनवाई (पृ.40) | सुषुप्तावस्था इलहाम (पृ.162) | अंधड़ की मची (पृ.380) |
सरबसर अश्लील (पृ.51) | सहल सहल (पृ.165) | अन-माँ-यी (पृ.384) |
सरबसर बेखबर (पृ.53) | सिहर फहर (पृ.166) | शाहराहेआजम (पृ.384) |
बेबी–लाफ़ा (पृ.53) | धूप मुग्ध (पृ.169) | कढ़े अबा (पृ.386) |
गयी तारी (पृ.53) | झिलर झिलर (पृ.170) | बक्सबंद कैनवसबंद (पृ.393) |
प्यार-वार (पृ.54) | बैरी अवशेष (पृ.172) | खुशबू इत्रा-ती (पृ.394) |
घुजा मुजा (पृ.55) | उभरवाँ दबवाँ (पृ.175) | उलझे अनालाप (पृ.398) |
बेहँस दर्द (पृ.56) | खिल खुल (पृ.175) | न अग्गड़ न पिच्छड़ (पृ.398) |
गगनभेदी ठठाने पे (पृ.56) | चुप फहर (पृ.176) | शत्रौंजी-कलौंजी (पृ.404) |
तुड़ते चेहरे (पृ.57) | झाड़ू की घसघस (पृ.179) | धड़-समाधि (पृ.416) |
हँसी किल्लोल (पृ.57) | धूपीली चाय (पृ.179) | झलकें मारें (पृ.427) |
खक्खा मारा (पृ.58) | सुगंध गायी (पृ.179) | गोलगोल फुदकाता (पृ.438) |
पुरुषप्रधान घरचर्या (पृ.58) | लहर बहर (पृ.181) | हह हह हाँफते (पृ.441) |
गरज लगाई (पृ.67) | कला करिश्मा (पृ.181) | इखट दुखट (पृ.448) |
चुपक चुस्कियाँ (पृ.67) | मिला-मुलू के एकघोंट (पृ.183) | रेत यादें (पृ.457) |
फर्राटे सर्राटे झर्राटे (पृ.67) | पश्चिमी चुम्मे (पृ.184) | गोरख टंटे (पृ.457) |
सटैक फटैक अटैक (पृ.67) | मति-चाक (पृ.186) | हिचकी वारदात (पृ.464) |
सबखोरी, सबअन्दाजी, सबबाजी (पृ.68) | ढिलढिल (पृ.194) | संजीदा रंजीदा (पृ.466) |
कंचनी किलकारियाँ (पृ.72) | घिरी खल्कत (पृ.200) | बेयकीन लम्हात (पृ.466) |
मटक लहक (पृ.72) | शैतानी पकाती (पृ.201) | महा-विशाल चींटापर्वत (पृ.469) |
बाटी–चाँद (पृ.75) | फुस्स-चित्त (पृ.204) | जग-ठुकराई (पृ.479) |
अ-रंग, न-रंग (पृ.77) | रोजी-मुनाफा (पृ.209) | बेमेल-बेमैल (पृ.479) |
उम्रयाफ्ता झाईयाँ (पृ.77) | सुखलम जियलम (पृ.213) | दुनिया मचल (पृ.479) |
झल्ला झोला (पृ.79) | फड़कती-जिन्दगाती (पृ.213) | तोता-प्रस्थान (पृ.485) |
जग-स्वीकारी (पृ.79) | चचुआ छत (पृ.226) | तीतरी जबान (पृ.488) |
दरवज्जा पाटोंपाट खुला (पृ.80) | पौध–गच्छ (पृ.227) | बुहार बाहर (पृ.492) |
बातों के पुचके (पृ.80) | धुपैली टिमटिम टिमक (पृ.228) | जागों के जिगर (पृ.495) |
रात-तम पल (पृ.81) | खलबलाय, टूटाय (पृ.242) | गुलझी मुलझी (पृ.496) |
चैकबुक चिंता (पृ.82) | दरवेशाना फूसफास (पृ.244) | अँखुवा फुटाये (पृ.500) |
ठन्डे निहोरे (पृ.87) | कहरती परेशानियों (पृ.247) | कोहराये बादल (पृ.500) |
अर्थ बेअर्थ अनर्थ (पृ.87) | चक्षु-चाक (पृ.249) | जिद्दम जिद्दा (पृ.500) |
ठिठोलिया रुख लिया (पृ.88) | बेपंख बलि (पृ.250) |
कोई भी रचना शब्दों और वाक्यों की युति होती है, इनसे कृति बनती है. वाक्य छोटा हो या बड़ा, एक शब्द का हो या अनेक शब्दों का, जहाँ भी है वहाँ स्पष्ट अर्थ प्रकट करने वाला होना चाहिए. जिस तरह की वाक्य संरचना ‘रेत समाधि’ में हैं, इनमें से कई व्याकरण की दृष्टि से शुद्ध नहीं लग सकते. इन्हें अगर व्याकरणसम्मत ढंग से लिखा जाये तो शब्द-पसारा ही होगा. इसमें एक शब्द के भी वाक्य हैं; दो शब्द के भी और तीन पृष्ठों का भी एक वाक्य इसमें है. छोटे छोटे वाक्य एक साथ अनेक भी हैं और अकेले भी. यहाँ एकशब्दी वाक्य पीठ. चुप. दीवार. (पृ.19); बस. लौटें. (पृ.32); तो. (पृ.167); राज़दारी. (पृ.175); मिट्टी. चैक. (पृ.198) आयीं. (पृ.213) भी पूरी बात कहता है. एकशब्दी वाक्य में भी बात उतनी ही कही गई है जितनी पूरी पंक्ति में कही जाती है. अर्थ एक शब्द में भी पूर्ण है और तीन पृष्ठों के वाक्य में भी निरर्थकता कहीं नहीं है.
‘रेत समाधि’ में एक अध्याय है जिसमें केवल तीन शब्द हैं “रोजी मर गयी” (पृ.336). इसमें एक अध्याय है जिसमें छोटे-छोटे तीन वाक्य हैं और इतने में ही बात पूरी हो जाती है. “सुबह-सुबह जब माँ बैल्कनी पर चाय पीती है. काली चिड़िया लम्बी सीटी मारती है. चढ़ती उतरती लय.” (पृ.191) पढ़ते ही दृश्य दिलोदिमाग पर छा जाता है, पाठक भाव की पूर्णता पाता है. लगता है यहाँ इससे ज्यादा की जरूरत नहीं थी.
इसी उपन्यास में ऐसे उदाहरण भी हैं कि जो बात चार वाक्यों में कही जानी चाहिए उसे एक ही लम्बे वाक्य में कहा गया है. ‘रेत समाधि’ में एक ही अध्याय में अनेक बार छोटे वाक्य और लम्बे वाक्य साथ-साथ मिल जाते हैं. “मूर्ति की भी कोई क्यों सोचे, जो बचपन से आड़ित रही, गरिमामय, बहुमूल्य, पुरातन, खंडित हो तो क्या, जिसे कोई भी संग्रहालय खरीद ले बेचो तो, लाखों-करोड़ों में, इसलिए भी अन्दर रखो, कोई न देखे जाने सोचे, वही ठीक.” (पृ.125) उपन्यास अपने वाक्यांशों में भी देशज-नवता बनाए रहता है. ‘क़ानूनी इजाज़त की गल पे’, ‘जानसमझ के बरगला रही है’, ‘बात समझ आ जानी है’. यह भाषा पर लेखक की पकड़, भाषा के प्रति प्रेम और लेखकीय सामर्थ्य है और है अपने प्रिय के प्रति खिलंदड़ा अन्दाज. ‘रेत समाधि’ में ऐसे छोटे वाक्य सैकड़ों की संख्या में हैं:
बेटी. डर सकते हो. साफ दिखी अभी. एकदम गायब अब. (पृ.28) | ये बेकमरों का घर. (पृ.197) |
मेज पर जा सजा. (पृ.36) | बहन –टाइप फितरतीपन माना. (पृ.246) |
अहमकाना सूफियाना है. (पृ.38) | घोल में सयानफ़ घुसी. (पृ.338) |
दीवार पर धब्बा है. हवा हिलाती है या खुद. कीड़ा शायद. हवा है या साँस. (पृ.41) | अम्मा पक्षी. (पृ.353) |
फेंको, फुर्र फुर्र स्वर. (पृ.44) | नया बार्डर नयी लाँघ. (पृ.364) |
दरवाजा नहीं नाचता. (पृ.80) | तभी सड़क लचकी. या बलखाई. माँ डोल गयी. तभी सड़क उचकी. माँ उचक गयी. (पृ.384) |
अपना निजाम बरसा लो. (पृ.96) | भवें गोजर. मूँछ धुरंधर. (पृ.433) |
उसका दिल धुकधुक जला. (पृ.142) | कि हाँ हाँ. या माँ माँ. (पृ.444) |
वह मुस्काई वह मुस्कान. (पृ.151) | फिसल इधर फिसल उधर. (पृ.449) |
भ्रूण सी सिकुड़ी गुजड़ी. (पृ.152) | दो तप्ताये चित्त. (पृ.476) |
ओस. सुदूर सितारा. इन्द्रधनुष का एक बिंदु. हवा की छुअन. (पृ.153) | सादापन-सा क्षणभंगुर. (पृ.476) |
अम्मा की नजर उजबक. (पृ.153) |
“एक पेड़ खड़ा जड़ा”. (पृ.18) एक पेड़ जो अपनी जड़ों के साथ खड़ा है. एक पेड़ जो चेतन नहीं है जड़ है. एक पेड़ जो जड़ाऊ है, खूबसूरत है, अपनी जगह पर स्थिर खड़ा है. एक पेड़ जो खड़ा है गिरा नहीं है. पेड़ माँ की तरह है. उन्हीं की तरह सुन्दर है, स्थिर है, ऊँचा है, उम्रदराज है. माँ की तरह उसकी संतानें हैं. फुनगियाँ, डालियाँ हैं. संतानों की आवाजें हैं, उनकी ध्वनियाँ है. पेड़ की साँस उखड़ रही है, माँ की भी, दोनों ही ‘नहीं नहीं’ बुदबुदा रहे है. हवा और बारिश पेड़ पर मन्नत की गाँठ बाँध देते हैं. हर बार हर झोंके के साथ एक और नई गाँठ . माँ के भी माँ की संतानें पोते पोतियाँ प्यार के बंधन में उन्हें बांधते चलते हैं. हर बोल के साथ एक नया स्नेह बंधन. हर गाँठ का नहीं के साथ नई होते जाना, नई चाह, झंकार, प्यार की नई कौंध नयी फड़फड़ाहट. नई लहर नई उलझन. नहीं नहीं न होकर नयी नयी. वही पेड़ वही माँ. जो प्रसंग भी जहाँ चल रहा है भाषा उसमें गहरे बहुत गहरे डूबती और अपने प्रवाह में स्वाभाविक ढंग से बहने लगती है. “खुदाई में मिली थी कि खुदाई में, किसी ने ये कहानी खोदने की नहीं सोची.” (पृ.113)
ऐसा ‘रेत समाधि’ में बार बार है. यह लगभग हर पृष्ठ पर है. कथा को भाषा के ऐसे खिलंदड़े अन्दाज के साथ दौड़ाना अनूठा है. बड़ी कृतियाँ जितनी बार पढ़ी जाती हैं, नया अर्थ देती हैं. हर बार अर्थ-विस्तार पाती हैं. हमें चकित करती हैं. ‘रेत समाधि’ में यह साफ़ दीखता है.
दो)
यह उपन्यास कथा-वाक्यों से भी दार्शनिक पैठ बनाता है. अनेक स्थल ऐसे हैं कि सीधा मंचन कर लो, दास्तान कह लो. वाक्य की अर्थ-छटा, एक ही वाक्य के कितने अर्थ ‘हम कब तक ऐसे दर दर या शायद थर थर या क्या डर डर भटकेंगे?’ (पृ.404). “मौत को अन्त मानने वालों ने इसे अन्त जाना पर जो जानते थे जानते थे कि अन्त-वंत नहीं है ये, एक और सरहद लाँघ गयी है वो.” (पृ.13) यह वाक्यांश उपन्यास में माँ की दार्शनिक अंतर्गाथा ही है. लेखक ने भावों के शाब्दिक प्रयोगों से उपन्यास में मानवीयकरण की नई छटाएँ भरी हैं. ‘बाहर दांत किटकिटाती ठंड, भीतर दांत किटकिटाती माँ.’ एक और उदाहरण ‘अस्सी से कुछ कम की सारी ताक़त इसी में लगा दे कि कैसे दीवार में घुस सके.’ प्रचलित शब्दों की पुनरुक्ति के द्वारा नए अर्थों का संप्रेषण इस उपन्यास में जगह-जगह मिला है. जानते थे जानते थे (पृ.13); साँस पर साँस पर साँस (पृ.16) और और तो और (पृ.250).
उपन्यास में कहन और कथानक का मानवीकरण कर दिया गया है; ‘घरों में माल था तो घरों ने खुद खतरे बुलाये’ (पृ.499); ‘दरवाजे को कैद से छुड़ाने के लिए’ (पृ.499); ‘चोर ताले के निमंत्रण पर घुस आये’ (पृ.499); ‘हवा चल रही है हौले हौले धीमी सीटी की तरह बजती’ (पृ.503);
कुछ उदाहरणों के बिना बात पूरी नहीं हो सकती:
इस खेल में धड़ाम धड़ाम माँ गिरा किये. (पृ.13); इस बूढ़ी बुढ़रिया के क्या कहने. (पृ.13); मौत को अन्त मानने वालों ने इसे अन्त जाना पर जो जानते थे कि अन्त–वंत नहीं है ये, एक और सरहद लाँघ गयी है वो. (पृ.13); पूरे घर को दीवारी लिफाफे में तहा के सहेजने वाली. (पृ.15); चूर चूर होते जाने के चूरे में व्यस्त, जीवन्त. (पृ.16); अकूत दया उनमें गंगा जी की तरह बहती और माँ की पीठ पर लहर जाती. (पृ.16); बाटी बघार दस्त की कह कर. (पृ.17); उबा हुआ यन्त्र. अफरा हुआ तंत्र. (पृ.17); नहीं नहीं मैं नहीं उठूंगी. अब तो मैं नहीं उठूंगी. अब्ब तो मैं नई उठूंगी. अब तो मैं नइई उठूंगी. अब तो मैं नयी उठूंगी. अब तो मैं नयी ही उठूंगी. (पृ.17); कि एक पेड़ खड़ा जड़ा. पर थक तो रहा है उन्हीं उन्हीं चेहरों के साये में घिरने से, उन्हीं खुशबुओं के पत्तों से लिपटने पे, उन्हीं ध्वनियों की डालियों पे चहचह से. (पृ.18); फूंक दर फूंक दीवार गिराता. (पृ.18); दादी की नहनाह नहीं चलेगी. (पृ.20); बौत ठंड है. फुसफुसबुदबुद, थोड़ी प्यारी हारी. (पृ.20); दादी के बिस्तर पर कूद चढ़ा. (पृ.20); सबको हँसी आनी थी. माँ का दिल भी होंठ पे हल्का सा. (पृ.20);
आपके यहाँ आवास धारण करने आये हैं. (पृ.22); हवा में उठा पाँव हवा में रुका सा सवाल बन गया है – मैं इस तरफ हूँ कि उस तरफ? (पृ.23); पेड़ हवा से चकपकाया और उसके सारे के सारे पत्ते बारिश की तरह गिरने लगे. (पृ.29); गाथा की कोई मुख्य धारा जरुरी नहीं. (पृ.32); सूरज चमक रहा था और पीछे के पेड़ के पार एक सुनहरी धार चमक रही थी, जैसे परमात्मा ने धूप से हाथ मले हों और उनमें से सूरज कुछ टपक टपक पड़ा हो. (पृ.35); दोनों ने आँख न–मिली सी मिलाई और कुछ न–मुस्कराए से मुस्कराए. (पृ.36); तभी घर बाहर घर कर पाई. (पृ.40); हुंह हैं चौप कांय कांय काट कपट फिस्स्स. (पृ.41); अँधेरे में नन्हा सा जीव, एक श्वास का छोर. उसके सरकने से उड़ता मिट्टी का कण. उसकी बंद आँखों पर हल्की सी लौ पड़ती है. हवा से हवा में. (पृ.42); सुरंग से उसकी आँख की तपिश पतली सी चमक बनी बहती है और बहने का मतलब है भाप का हल्के से उठना, जिस पर लटक सकती है खोयी साँस, लेशमात्र. (पृ.43);
क्या ऐसा हो सकता है कि दीवार आगे बढती आये और पीठ पीछे तक, बिस्तर पर पड़ी औरत को घेर ले, ताकि उस पर कोई दस्तक न पड़े? (पृ.44); ऐसे ही कभी चोटी फेंक दी और सटक सटाक चाबुक से पड़ते खुले बाल उसके चलने पर सटक सटाक चलने लगे. (पृ.50); उसके दादा भी थे, यानी उसकी पलंग लगी दादी के पतिवर. (पृ.51); लहर दृश्य के एकदम करीब तक बह आती फिर लौट जाती, फिर आती जैसे कभी भी दृश्य को सशरीर उठा ले जाएगी. (पृ.53); एक बेबी–सांड तमाचा लगा देता. (पृ.53); दूसरी पे छुट्टा बेबी-सांड गश्त लगा रहा था. (पृ.53); तट की भीड़ का नाद उमड़ता है. (पृ.54); भुन भुन भुन गंभीर भुनभुनाता कमरे लौट गया. (पृ.54); पाँव को धीमे से भीज रही हैं. (पृ.54); कुर्सी हर प्यार-वार पे हल्के से उचक जाती है. (पृ.54); उसकी ही साँस में हडकंप मच जाती है और बुरी तरह हाँफता धड़धड़ाता उसका दिल है. (पृ.54); बेटे गम्भीर का शान्त अशान्त अब अशान्त अशान्त हो गया. (पृ.54);
अजीब घुजा मुजा थोबड़ा. (पृ.55); आँखें मांस में धँसती जैसे दो कीड़े खोद रहे हैं. कंधे भूकम्पी झटकों में ग्रसित और चटके टूटे चेहरे की दरारों से फूटती छोटी चीखें. (पृ.55); उसकी चिडचिड भंगिमाओं की फेरहिस्त. (पृ.57); मांसपेशियों का हिचकी नाच. (पृ.58); चेहरे को फटक फटक फटकता है. (पृ.62); उनके आगे बैठ कर आसमान में छड़ी पे बैठ के सैर करने की गाने लगा. (पृ.69); पतंग में से रंग लपके कि तितलियों से, रेनबो उछला और ग्रेनी के गिलास में डाइव करके तैर गया. (पृ.69); कीड़ी सी साँस छेनी बनी, अपनी ही घुटन को फलांगने में सरंध्र बना रही है के अँधेरा चिरे, रोशनी दिखे, झोंका मिले. (पृ.70); ऐसी खिलखिली खिलेगी, सजावट में तन होंगे. (पृ.71); कुछ मनचाहे व्यंजनों का स्वाद हम भी लेंगे. अपने भास्कराने ढंग में. हमें क्या पड़ी कि कौर कूचें, दाँत कटायें. (पृ.71); डालियों से झरने की तरह गिरता, दीवारों पे नदी की तरह कलकलाता, पत्तों के बीच मशाल सा जल जाता, डाल पर दीपक सा उजल लेता. (पृ.71); कुर्सी है तो पूछ है, पूछ है तो लम्बी पूंछ है. (पृ.73); वहाँ डाँट भी इधर उधर लुढ़क जाती है. (पृ.73); जहाँ लाँन समाप्त होकर सब्जियों की क्यारियों की तरफ लचकता था. (पृ.74); सूरज देख रहा है घी में अपना रंग. (पृ.74); बैंगन भूल जायेगा बैंगन है और सुई लगेगी चीख तो मारेगा और कद्दू हो जायेगा. (पृ.84); यहाँ बहु और बड़े का गणेश–बटोर था. (पृ.98); पीक का वहम उसे भी मैलीआ दे. (पृ.100); न बायें देखे ‘न दायें कि वो न देखे तो वो न ‘दिखे. (पृ.102); प्रिंस बवंडर बना चटाख पटाख दीवाली की चटाइयों सा सारे में फूटता भगा. (पृ.104); और वो लम्बा गांधियाना कान. (पृ.110); डायनामाइट मोगाम्बो की तरह खुश हुआ. (पृ.111);
संकट-भाव में हास्य रस का घुलाव! (पृ.118); सधी बात वोही जो झलमलाये टिमटिमाये. (पृ.120); फाख्ता हुए हवास के आकार थे. (पृ.124); दीवार की दरार में डोल की तरह उतार दोगे. (पृ.125); कोई न देखे जाने सोचे. (पृ.125); फेफड़ा डर से माथे को उछला. (पृ.134); पेट से बंदूक सी दागी गैस छूटी. (पृ.135); बचपन–समय बचपन–घर बचपन–होलिका थी. (पृ.148); सारे दुःख दर्द भटकाव अटकाव उजाड़ ठुकराव को पार करती. (पृ.152); मैं पीठ पीछे की हूँ कि पेट आगे की? (पृ.156); ट्रैफिक के जैमों मार्मलेडों में अटकना नहीं. (पृ.157); हर अंग अलग भंवर में भंवरा जाता है. (पृ.157); गर चाल गड़बड़ाई और ढाल अचकचायी. (पृ.158); बूढ़े माली की सफ़ेद भवें अभी भी गुलाबी हैं. (पृ.158); दिशासत्य और दिशा-अनुकूल कि दिशाशूल में पड़े बिना उसने अपने घर में बहावों का सुन्दर जमाव कर लिया था. (पृ.158); आँखों को नजारा भाया ही होगा और शान्त छाया भी होगा. (पृ.162); पक्षी एक संग गन-सलूट में उड़े. (पृ.162); बेटी ने माँ बनकर माँ को बेटी बनाया. (पृ.164); माँ की सुबह बड़े इतमीनान से उठी. (पृ.165); नींद इस कर भी नहीं आई. (पृ.166); झटक मारती मानो थकन को और खर्राटा और गहरा लेती. (पृ.166); बेटी की नींद उसे छोड़ अगली कक्षा में चली गयी थी. (पृ.168); माँ साँस ले तब बेटी ले, दोनों की हुए जाए साँस एक. (पृ.169); धूप भी किसी तृप्त जानवर की तरह माँ के आगे लोटें मारने लगी और पूरी बैलकनी सुनहली होने लगी. (पृ.169); धूप और छड़ी के सहारे माँ झिलर झिलर डोलती आतीं और उनकी चाल देखकर धूप को झूला सूझना मानी बात है. (पृ.170); धूप की तन में उतराई, हवा की त्वचा पर झुलाई. (पृ.170);
पस्ती से पैर फैला के फ़ैल जाती है. (पृ.173); पौधा पाँव उठा के एक और गमले में चढ़ता है तो उसकी वही अलबेली ठुमक होती है. (पृ.174); राज की बातें पेट में जोशें मारती. (पृ.175); हर तरफ से प्यार, आर पार. (पृ.180); अनाज मिलामुलू के एकघोंट पका देने वाली खिचड़ी. (पृ.183); अपनी खाल में कूद जाती. (पृ.186); शान्त को शोर नहीं तोड़ता. (पृ.190); माँ घर के कोनों कोटरों में अपने को उंडेलती है. (पृ.192); बात बात पर गिरती पड़ती बेटी हो गयी. (पृ.195); फोन, घर घंटी, पत्ते डाली, चिड़िया काली. (पृ.195); ब्याज–स्तुति वाली आवाज में जो कौन कह सकता है निंदा है? (पृ.196); अब तो हमारे जैसी हो गयी. लुढ़क गयी दरक गयी फिसल गयी चटक गयी. (पृ.198); बेटी सुन रही है भाभी को सुनते. (पृ.199); कुछ तो शैतानी पकाती रही है. (पृ.201); नाक में कुचला लहसुन भी क्या इन दुष्ट चूड़ियों ने भर दिया है? (पृ.202); माँजी बाजी हो चली हैं. (पृ.207); अब मैं भी अम्मा से छम्मा करूँ. (पृ.207); उनका कलम सुखलम जियलम. (पृ.213); फड़कती जिन्दगाती फिजा में मरीं तो वही, अगर कोई. (पृ.213); हवा लायी रात को रात में. सूरज को ले गयी बरसात की ओट में. हवा में गुदगुदाया कि सूरज और ओट हुआ, बादल हँसी से लोटपोट होके मोटे हो गये और बरसात बन के टूटे. (पृ.215); गप्पबाजी में शिरकत करते खम्बे चौखट भी टुनटुना उठते. (पृ.220); आजकल घर ढिठा गया है. हर ईट अंगड़ाई लेती है. बातें चीतें होती हैं. (पृ.220); गर्मी खिसक ली तो एक दिन रात हुई. (पृ.222); नींद के डकैत ने खाट सहित उसे उठा के कहीं और रख दिया. (पृ.223); शक्कर जामन के रिश्ते क्या जानोगी? न पौध गच्छ के. (पृ.227); आयी शिकायत करने और नाश्ता सूत के और पौधा लूट के चल दी. (पृ.227); घर में धुपैली टिमटिम टिमक. (पृ.228); कभी कोई कहता है, पत्थर, परिंदा, पेड़, पानी, कभी हम कहते हैं अपनी समझ, जबकि होती है तुम्हारी समझ और कभी तो खैर हमीं कहते हैं. (पृ.228);
आई बाऊ डीप इन अ सलाम अलविदाई. (पृ.232); बिजली चमकी चम चम, बादल गरजे घन घन, डालियाँ धसके घसघस. (पृ.233); शान्त चले, हर तरफ रमक दमक चले और गमक. (पृ.234); सुबक हाथों से मल्हारती है. (पृ.236); पीठ पीछे जुमले उठे, जो पेट आगे पहुँच लेते. (पृ.239); फल उठाना है तो झूले पे पेंग लगाओ और लहरा मार के उठाओ. (पृ.240); जाड़े में घुलामिला बसन्त. (पृ.242); दिल से बच्चे बच्चे स्वर निकले . (पृ.242); खुजलाहट में वो सिर खुज खुज करते हैं. (पृ.244); मस्तिष्क के दिमाग में ट्रैफिक जैम. (पृ.245); छुपम छुपाई और कुदम कुदाई ने बिखरा दिया. (पृ.245); पेड़ और टीले तमतमाते कौवों से फुदकने लगे. (पृ.249); पेड़ ऐसे कूदने लगा जैसे उस पर उग आये डबल सिरों को शिव-मंगल सूझ गया और पेड़-मंडल उनके तांडव से हिल रहा था. (पृ.249); कौवों की कांव कांव बनी, हम काले हैं तो क्या हुआ, हम कौवे हैं. (पृ.250); गुस्सा उनके तलवों से होकर टीलों डालों पे जलते शोलों की बुंदकियाँ बनता गया. (पृ.250); कौवा हो, गधे मत बनो, न चील, बाज,सारस. (पृ.252); गर्मी उनके पखों पंजों में क्रीड़ारत हुई. (पृ.259); माँ का एकपर्तीय लिबास. (पृ.260); सुबह भीनी भीनी थी, आसमान ने अल्कसी से पलकें झपकीं और गुलाबी आँखें खोलीं. (पृ.265) अक्स किसका और कैसा, टेढ़ा देखना न जानो तो कत्तई न भानों. (पृ.271); बड़े को आने दो और रोजी बोली काहे के बड़े, दही के बड़े. (पृ.276); औरतों में उनका संसार और चूता टप टप रस बहार. (पृ.280); फट फट झट पट अटपट सरपट कटपट लटपट. (पृ.287); धरती तन में गुम्फन मन. (पृ.292); अस्पताल का अस्पताली चलन. (पृ.295); दन दनादन ढ़ेर करके लुढ़का दिया बाजार में. (पृ.295);
दूरबीन यानी बुकशेल्फ में दरार. (पृ.318); जहाँ बालों की लाइन ख़त्म होती, वहाँ बीचोंबीच नुकीला तिकोन नाक की तरफ डाइव मारता. (पृ.321); हम भूत नहीं, हम छूत. (पृ.325); हम कितने निकृष्ट अदृश्य परिशिष्ट. (पृ.327); बेटी ने दिलासा दी कि अपनी सूझ की फेंकी? (पृ.331); झील ने जो जल कर रौला पेल दिया था. (पृ.340); प्रेस कार्ड ने अटैक किया उनके हार्ट को . (पृ.340); मौत की महक को फोर्मलीडीहाईड की तेजाबी महक ढंकने में जुटी थी. तन के भीतर जो पाचन द्रब्य खाना दाना को गलाते थे, अब कुछ न पाने पर रोजी को गला रहे थे, उसी के लुकमे पचा रहे थे. रोजी की आँतो में उनका भोज-उत्सव चल रहा है. (पृ.345); खून लटके हिस्सों में जम गया और हिस्से सड़े सूजे कुरूप हो गए. त्वचा को फोड़ कर पीब बाहर रिसने लगी. जैसे बैंगन को भरता बनाने के लिए भूना हो. (पृ.345); चित्रकारी. कि विचित्रकारी. कि विकृतकारी. (पृ.345); सारा श्रवणकुमारपन बाढ़ोंबाढ़ उमड़ा. (पृ.348); दोनों ने पुराना रोमांस सुलगाया. (पृ.348); इस बाईस जोखिम ले उठी. (पृ.348); प्यार भी दया में तराबोर उमड़ा हुआ. (पृ.348); ये दुनिया हुए के कारण की मारी है. (पृ.355); सीमान्त, जो सीमा है, अलग सीमा की, अलग सीमा पे, सीमापार. (पृ.355); जिंदगीनामा के पन्ने फड़ फड़ आवाज करते हैं. (पृ.364); उसके चकराते चक्करों के साथ मंच पर. (पृ.365); ये गर्भित भरमित पथिक चकित लेखक एक दूसरे से कहते है. (पृ.366); मुक्का आईडिया सिंह भा गया. दोनों तरफ से दैत्यों की जाँघों पे जमा के गायब कि खूंखार जाँघें लचक गयीं और वर्दियाँ हिल गयीं. (पृ.370); झन्डा आज आजाद. नीचे खींचें, ऊपर जाए, झटका दें, अटका जाए. (पृ.371);
झंडों की गिरन राह में अटकाने लगा. (पृ.371); झंडे बन्दर नाच में. गार्डों के बूते का कुछ नहीं. झंडे की एवज में उनका रंग उतरता गया और सिर्फ वर्दी रह गयी और वो दिखना बंद हो गए. (पृ.371); लम्बे तड़ंगे मेमने हुए. थुक्का फजीहत. (पृ.371); छोटी सी औरत अपनी बड़ी होती बेटी के संग चली आ रही है. (पृ.373); बेटी का हाथ हाथ में छड़ी टेकटेक. (पृ.373); घर गाँव गए जहाँ एक माँ रोज सितारों को ताकती कि कौन सी मेरी बच्ची. एक सितारा गिरता और उसे उठा के जुगनू की तरह हथेली पर रख लेती. ये ही सरबजीत कौर. ये ही मेरी बच्ची. ये मेरी बच्ची की बच्ची. (पृ.376); दृश्य बवंडर में तैरने लगा. (पृ.380);
बच्चे के नटखटपने को हँसी आ गयी. (पृ.380); जवानी ग़लत समय पे आती है? जब हम नादान होते हैं, कुछ जिया नहीं होता. आती है और निकल जाती है, हमें पता नहीं चलता. बुढ़ापे में आनी चाहिए. पूरमपूर अनुभवी होने के बाद. (पृ.383); ललकने का मतलब खुलता है. जवानी की बारीकियाँ मजा देतीं हैं. (पृ.383); लाहौर को बिछा देखा करीं. (पृ.386); जूड़े का पिन नीचे गिरा और बाल लरजा पड़े और उन्हें एक एक करके संभाल के उठाने हर तरफ से गली में लोग निकलने लगे. (पृ.392); कहानी को बक्सबंद कैनवसबंद नहीं किया जा सकता. (पृ.393); खुशबू इत्रा-ती है और उठती है लहर अक्स उठाती है. (पृ.394); प्लास्टिक लपेट में बल्ले गेंद पैड विकेट टोपियाँ. (पृ.397); लम्बे उलझे अनालाप. कभी एक शब्द, न अग्गड़ न पिच्छड़. (पृ.398); झाड़ी में जरूरत से गया था. (पृ.403);
हम कब तक ऐसे दर दर या शायद थर थर या क्या डर डर भटकेंगे? (पृ.404); तारपोलिन फड़फड़ फड़ के नीचे लड़कियाँ. (पृ.411); लड़की सोचे तो क्या सोचे अगर सोचे? (पृ.412); चीख पुकार पैर हाथ मार. (पृ.413); प्रश्नसूचक परों से निहारती. (पृ.414); हम रेत रेत, हम डूब डूब. (पृ.416); हमारे फूटे टुकड़े भंवराने लगे. (पृ.416); सूरज मर गया था. (पृ.418); लहू सूखा लुहान. (पृ.418); जबाबी सीटी आई. रेगिस्तान के शान्त पर लहरायी. (पृ.419); दूर आवाज देखते हैं. उसमें चुप सुनते हैं. (पृ.421); एक लम्बी कूद, सर के बल, तल ऊपर. कभी एक पेंग लगायी, हर पेंग पे कोई याद उड़ी, हर याद में कोई रोक नया जोड़ और मोड़. (पृ.422); जब मन बैठी, जब मन खड़ी. (पृ.423); रास्ता रोक के रुक गयी. (पृ.426); मुँह पर चिड़िया और बाहर होती जाती है. (पृ.427); अपनी गूंज उठाती है. (पृ.428); बार बार बस वो जी सामने. (पृ.432); भवें गोजर. मूँछ धुरंधर. (पृ.433); काला धुआँ मूक जानवर-सा लपकता है. (पृ.437); माहौल को मसहरी पहनाती है. (पृ.438); आजीवन का जीवन खैबर के हवाले. (पृ.438); सवाल उकता चुके हैं. (पृ.438);
चिड़िया को गोलगोल फुदकाता. (पृ.438); दूसरी औरत की नित नयी फरमाइश में नयी. (पृ.439); माचिस की डिबिया में क्यारी बना दी. (पृ.439); कुछ कलाबाजी में पलटता हवा में. (पृ.441); उसे हह हह हांफते सुना. (पृ.441); वहीँ से कांव कांव कर देता है. जैसे रामराम. (पृ.441); एक पंख गौर से सुनने के लिए एक गाल पर रख लिया हो और अपलक सुन रहा हो. (पृ.447); सब आँख ऊपर किये एक हाथ गाल पर दिए सुन रहे हैं. (पृ.447); कौवे ने आदत के विपरीत बहुत बेआवाज उड़ान ली और ऊपर दीवार पर खड़ा हो गया. उसने पंख जैसे ही गाल पर रखा बाकियों को क्यू मिला और वे भी गाल हाथ में सुस्ताने की मुद्रा में ले आये. (पृ.451);
एक साँस उसकी पकड़ से छूटकर निकली और पटाखे की तरह नीचे गिरी. (पृ.452); कलैशनिकोव ने खूनियों को मुश्किल से सम्भाला. (पृ.453); हम सब के बीच उछल उछल काँव काँव. (पृ.465); दीवार पे बैठ कर खूब ग़दर मचाता जैसे काँव काँव करके तालियाँ पीटता हो. (पृ.465); आपकी समझ कालीन की तरह आपके नीचे से खिंच जाए, आपको मुँह के बल गिराती. (पृ.466); वो उछल कर शानदार कलाबाजी मारता पिच पर गिरा पर ऐसे कि गिरा नहीं, बस लेट गया है आसमान को उल्फत से देखता. (पृ.467); इनकी भाषा में, इनकी फाइलों में. (पृ.468); एक डंडी थी जो उसने हवा में घुमाई जैसे खेलने को और जुगनू उड़े जो तितलियों से लगे. (पृ.470); वो उठ गया, अपनी जिज्ञासा को कोसता. (पृ.470); अपनी नस्ल के पहरेदारी गौरव का कुछ भूला भूला ख्याल जरुर उठा. (पृ.471); आसमान सितारों में खो खो गया हुआ. (पृ.471); अनिश्चय अनिश्चय के साथ कि खैर कि बैर? (पृ.472); काहे करत हो मान काहे पे इतना गुमान. (पृ.473); सजग रहने में भलाई सबको भली लगी. (पृ.476); सादापन-सा क्षणभंगुर कोई एहसास नहीं. (पृ.476);
भूले बिसरे कोनों में पड़ों की किसे फुर्सत? (पृ.478); अलग इतर स्वाभिमानी अभिमानी उनकी चाल साहित्यिक. (पृ.479); आँख ने इस खबर को सूंघना सीख लिया. (पृ.482); जो उन्होंने पंख में पंख लपेट के साथ साथ देखी. (पृ.486); जश्ने-दुश्मनी जोशे-दरार. (पृ.486); प्यार में लालच छलकता. दुःख भूल में सुख आ बहता. (पृ.487); दुःख भूल हो खुश कांव कांव गाता. (पृ.487); बड़े तक खबरी उड़ाए कैसे? (पृ.491); उनका जिगरी, कौवा, खिड़की पर दस्तक दे रहा था. (पृ.502); परिवार, कभी बंद नहीं होता और कहीं टिकता नही. (पृ.502); कहानियाँ घूमती हों कि किस पर अपना जाल फेंके.(पृ.503);
उपन्यास में लोक मान्यताओं के रूपक पुनरुक्ति के साथ प्रयुक्त हुए है; जैसे – बोया बीज खजूर का, खिला वहाँ गुड़हल (पृ.17) और चिल्ला जाड़ा दिन चालीस, पूस के पन्द्रह, माघ पचीस (पृ.25) पुरानी कहावतें और मुहावरे पुनर्नवा हुए हैं. लेखक ने नए अर्थ-संस्कारों से इन्हें भर दिया हैं. “सीसीटीवी भी क्या जाने दरवाजे का स्वाद”! (पृ.23); “आप कीड़े को टापते रहे और हाथी चुग गया खेत”. (पृ.45); “ठीक जैसे ने उसे देख लिया”. (पृ.53);
“नरसिंह नरभेड़िया मत्स्यकन्या कीड़ादिमाग तितलीहृदय कछुआमन रंगीलापतन चीरहरण सीमावतन सब जोड़ बेजोड़ व्यक्तित्व हैं, चाहे पूरे या अधूरे. और सब अनंत हैं, चाहे बुलबुले.” (पृ.308) यह जीवन प्रसंग में सांसारिकता है. एक पुनरुक्ति वाक्य “मैं कब मैं हुई और मैं मैं कि माँ हुई?” (पृ.312) यह बात उल्लेखनीय बन गई है “जैसे जब इस कथा की दो औरतें ख़ैबर पहुँची तो वो ख़ैबर वही था जो पहले भी था पर एकदम नया नया और ख़तरे भी नए, जबकि खतरनाक पहले भी कहते थे था.” (पृ.316)
इसी तरह “यह हवा स्मृति है, सवाल है. स्मृति ज़रूर करनी चाहिए. सवाल भी ज़रूर.” (पृ.316) माँ अपने अनुभव संसार से बाहर “कहती है मुझे पासपोर्ट से क्या? न होने के फ़ायदे हैं. हमारी गिनती न मुसलमीन किरस्तान में न यहूदी पारसी हिन्दू में न आदमी में, हमारा नाम नहीं लेना, हमें पहचानना नहीं.” (पृ.325) यह सब सरहद लांघ चुकी माँ की मनोदशा है. अब “हमारी किसे पड़ी, हम हैं ही नहीं, और हैं नहीं तो अपने हक हुकूक क्या, और हैं नहीं तो पासपोर्ट क्यूँ, ऐसे ही बॉर्डर पार और आर.” (पृ.327) शब्द यहाँ जैसे जादुई ढ़ंग से अर्थों का एक नया जाल बुनते हैं जिससे हमें ठहरकर, समझकर, और जो यह भाषा हमें देना चाहती है, उसे लेकर निकलना होता है.
तीन)
महान कृतियाँ सूक्त वाक्यों के लिए भी जानी जाती हैं. सूक्तियाँ किसी भी कृति को समाज की स्मृति में लम्बे समय की सुदूर यात्रा कराती हैं. कम शब्दों में सार्थक कहा जाना जो सार्वभौम और सरस हो, रचना को श्रेष्ठ बनाता है. ‘रेत समाधि’ इस कसौटी पर भी खरा उतरने वाली रचना है. इसमें ऐसे उद्धरणीय वाक्य भरे पड़े हैं जो एक तरफ तो जीवन के सत्य को चित्र की तरह सामने साकार कर देते हैं और दूसरी तरफ यह भी बताते चलते हैं कि बताते-बताते अगर शब्दों के चेहरे मुरझा जाएँ तो उनसे कैसे बतवाया जाए कि हमारे कानों तक पहुँचे. आप इन्हें पूरा पढ़ें. आप देखेंगे कि उपन्यास जैसे आपको वापस बुला रहा है :
शब्द. शब्द होते क्या हैं जी? ध्वनि जो अपने मतलब बना लेती है. (पृ.17); शब्द की एक पौध. अपनी उसकी लहराहट. उसमें लुकी मुरादें. (पृ.18); ‘नहीं’ के अपने राज. ‘नहीं’ के अपने ख्वाब. (पृ.18); दरवाजा बैल है जो घर की दीवारों को गाड़ी की तरह खींचता है. (पृ.21); भारतीय शैली भी स्वार्थी शैली हो चुकी है. (पृ.22); किसी के बीच से निकलना एक तरह से उसे चीरने की बात हुई. (पृ.22); कीड़ों का कीड़ा होना ठीक है, मगर इंसानों का कीड़ा होना, हाय, दिल कलौंस जाता है. (पृ.24); रिश्ता प्यार का है जिसमें एक दूसरे को मुटाया खाया भी जाता है. (पृ.26); बेटियाँ हवा से बनती हैं. निस्पंद पलों में वे दिखाई नहीं पड़तीं और बेहद बारीक एहसास कर पाने वाले ही उनकी भनक पाते हैं. (पृ.28); बेटी. प्यार कर सकते हो. डर सकते हो. साफ दिखी अभी. एकदम गायब अब. (पृ.28); सब औरतें, मत भूलना, बेटियाँ हैं. (पृ.28); प्यार की बात कभी भी की जा सकती है क्योंकि प्यार प्यारा होता है. (पृ.30);
माँ बाप और बच्चे का प्यार ऐसा हो सकता है कि भगवान ओट हो ले और प्यार धूमधड़ाके से सांसों की इधर से उधर दौड़ लगवाये, एक बिन साँस पिचक पिचक जाये, दूजा दोनों की साँसों से फ़ैल फूल जाये. (पृ.30); एक थी माँ. माओं जैसी. जिसने बेटे से कहा तुम भगवान और बेटे ने उससे कहा तुम सबका दुःख हरने वाली महासतायी देवी. दोनों खुद को दूसरे पर लपेटने लगे और एक बना अजगर, एक महबूब. एक की साँसें फूलीं, एक की घुटी. एक मुटाया, एक छोटाया. इतना प्यार कि दोनों का जीवन एक हो चला. (पृ.30); बड़े शहरों में घर छोटे होने लगे. लेकिन वहाँ भी, जहाँ इमारत अब पेड़ थे और सूखे ढेले फूल, अफसरों के घर मरुभूमि में नखलिस्तान थे. (पृ.35); ‘नहीं’ से राह खुलती है. ‘नहीं’ से आजादी बनती है. ‘नहीं’ से मजा आता है. ‘नहीं’ अहमकाना है. अहमकाना सूफ़ियाना है. (पृ.38); दीवार पर धब्बा है. हवा हिलाती है या खुद. कीड़ा शायद. हवा है या साँस. (पृ.41); रेत में समाधि हिली है. (पृ.42);
आपदा में खानदान साथ देता है, कुछ भगवन, बाक़ी निर्धन जो होते हैं. (पृ.45); ऐसे ही इश्क होते हैं, मौत होती है, हँसी आती है, हँसी जाती है. (पृ.52); न इधर के न उधर के न किधर के, फरफरे छिछले उथले सिलबिले लोग. (पृ.52); जागने का पल बड़ा मासूम होता है. जागा बेकवच होता है. सपना क्या भूलूँ क्या याद करूँ शशोपंज में होता है. जागे का दिल धड़धड़ करता है और वाक्य मूक उसे ताकता है. (पृ.54);
शक जेहन में अटक जाये तो अच्छे अच्छों की हँसी मिट जाये. (पृ.55); हँस नहीं सकते, हँसी नहीं आती क्योंकि हँसता नहीं कि हँसना आता ही नहीं, ये भला कैसे हो सकता है. (पृ.56); कहानी को एक जीव जानो (पृ.59); खाना पीना अपच हाल तो क्यों न लगे कब्ज और दस्त की गश्त? (पृ.60); जाते अफसरों के निमंत्रण सूरज कम ठुकराता है. (पृ.71); राम हममें रमा रहता है इसीलिए उसे राम कहते हैं. (पृ.90); ऐसी ताने उठायीं कि बाकी शोर चुप का पर्याय लगने लगा. (पृ.90); गाँधी की इस वक्त में कोई वकत नहीं. (पृ.95); घर खाली किया जाता है तो दिल जो झूमने लगता है वो है धूल का. (पृ.96); खुदाई तो खुदाई है. खुदा भी, खोदना भी. (पृ.111); खुदाई की जगह खुदी आई और उसने दुकान सजाई. (पृ.112); अनचाही अनसोची समाधि–गर्दिश में नाच रहा है. (पृ.112);
जीवन जीवन है और मृत्यु मृत्यु, जो मौत है, और गया गया है, और व्यस्त व्यस्त. (पृ.114); अब फिंकाऊ सब बिकाऊ है. (पृ.115); भगवान अपने प्यारे को बुलाते बुलाते उसी में घुलमिल गये. (पृ.115); अकेले का भी तन और मन और धन एक जगह संकलित करना असंभव. (पृ.119); राहें उलझती हैं तभी नए क्षितिज खुलते हैं. (पृ.120); समझ बड़ा छिजाया हुआ, गाली खाया हुआ, शब्द बन गया है. (पृ.120); हर कथा गाथा गल्प गप्प में है अबूझ और बुझौवल का पुट पक्ष और हर कहानी है जिंदगानी का नंदन चाहे क्रन्दन कक्ष. (पृ.121);
प्रियजन गुम जाते हैं तो दिल का सारा लुत्फ़ गम हो जाता है. (पृ.121); पहाड़ में जैसे चुहिया, वैसे रजाई में बुढ़िया. (पृ.122); खोज गहराती है, इन्द्रियाँ बेसब्र हुई जाती हैं. (पृ.123); लौटता घर है, घरवाले तो जगह बदलते हैं. (पृ.131); कहना चाहिए परिवार को जबकि कहते हैं महाभारत को कि जो दुनिया में वो उसमें, और जो उसमें नहीं, वो कहीं नहीं. (पृ.144); दिमाग फिसल कर एड़ी में और पाँव उछलकर सिर में. (पृ.147); चौखट लाँघने वाले का मनहरपन मनचलापन औघड़ता महबूबियत कराहियत खुशमन अनर्गल रुदन रमक रौनक ररक. (पृ.161); धूप के मुलायम कण गाढे होते पेड़ों में कोमल कोमल टिमक रहे. (पृ.162); सत्य और कला के सौंदर्य में दो रंगों का घोर महत्व. (पृ.162); थकन भी सुषुप्तावस्था है, समाधि मन है, जहाँ इल्हाम उग आते हैं. (पृ.162); कमरे में और महफ़िल में घुसते ही जो प्रकृति कारगर होती है, वही व्यक्तित्व रच देती है. (पृ.164); थकन को अपनी बोरी में भरकर नींद ने वारेन्यारे के हवाले कर दिया है. (पृ.165); दुनिया सोती है तो कायनात आनेवाला वक्त कुम्हार की तरह गढ़ता है. (पृ.166); धूप के साथ माँ उठने लगी और पहले आँखों से, फिर पूरे से धूप ही के साथ घर में फैलने लगी. (पृ.169); चुप के मायने बेस्वर होना नहीं है, उसके मायने स्वर के घेरे में चुप का बसेरा है. (पृ.176); ये सब शान्त के स्वर हैं वो समझ जाती है. कौन कहता है आवाजों से शोर होता है? (पृ.178); बेटी का रंग माँ के पुलकित होते रंग में. (पृ.181); माँ और प्रेमिका एक खाल में नहीं रहते. खाल में माँ उग आये तो बड़ी आसानी से प्रेमिका की केंचुली उतर जाती है. (पृ.182); पश्चिमी चुम्मे देख कर सकपकाई सी हँसी दोनों हँस देतीं हैं. (पृ.184);
हाजिरजवाबी हाजिरदिमागी माँगती है. (पृ.196); ये वो सेहर तो नहीं जिसकी आरजू लेकर, चले थे यार कि मिल जाएगी कहीं न कहीं. (पृ.198); ये मर्जी और जानकारी हैं जो कभी कभी उसमें उखड़ा उखड़ा भव जगा देते हैं, वर्ना उसे किसी बात से गुरेज नहीं. (पृ.214); हवा बहुरूपिया है. (पृ.215); स्मृति दर्द इच्छा यकीन जलवा हसीन कल्पना अम्बरीन. (पृ.215); तन भी घर है. (पृ.216); दीवारें वाद्य बन के बजतीं हैं. (पृ.216); उँगलियों की टीप पे सप्तस्वर निकलते हैं. पैर की थाप से पंचताल बजता है. (पृ.220); शोरशराबे का गुणगान करने वाले चुप-शान्त को मकबरा कहते हैं. (पृ.233); दुःख–राग. विलंबित, अति विलंबित, हताश आलाप. (पृ.242); कोई नहीं समझता पत्तों से पैदा होते हवा-राग और इन रागों का दिल पे इशारा. (पृ.243); दिमाग, जिसका माथे वाले के विपरीत दिल जिगर सब है. (पृ.243); साड़ी-स्मृतियों में सोता पुरुष साड़ी-व्यापारी से कम नहीं. (पृ.253); चमकता चूरा उड़ा जैसे जगमगाता पसीना. (पृ.261);
पेट स्वादिष्ट ग्रास को सामने देखकर गुड़गुड़ाने लगा है. (पृ.262); जवानी ऐसी ही होती है. जज्बात उछलते हैं. जान दे सकते हैं. जान ले सकते हैं . (पृ.263); खुली पलक में झूठा गुस्सा बंद पलक में प्यार का दिखावा. (पृ.264); कान उधर, जिगर कहीं, दिल इधर, और आँख इधर उधर. (पृ.264); अन्तहीन वैसे हर बात होती है और कोई प्रसंग पूरा नहीं होता, जीवन भी नहीं. (पृ.265); दुश्मनी जवानी से नहीं, हमेशा से थी, क्योकि हमेशा हो तो उसकी हस्ती मिट जाती है. (पृ.265); प्रसंग चलते रहते हैं, बंद होकर भी बंद नहीं होते, समाधिस्थ रहते हैं, और कोई झोंका उन्हें फिर हरियाता है. (पृ.265); ताकत झूठ है पर जो उसे अपनी गुमान ले, उसे सच जानने लगता है. (पृ.266);
दिल कौवा बन उछले और पाँव कछुवा बने तो बुड्ढ़े गिरेंगे कि नहीं? (पृ.267); एक दिन मरने के लिए बहुत दिन जीना पड़ता है. (पृ.275); बच्ची नहाती है तो बदन निहारती है, सीने पर कलियाँ, नाभि पर गोलाई, जांघों पर बालियाँ, चहरे पर रिझाई. (पृ.278); खाने को भी साथियों की तलब होती है. दाल बना दो तो वो रोटी और सब्जी का साथ चाहती है, फिर वो घी, चटनी, सलाद, रायता और थोड़े चावल की संगत माँगते हैं. सब साथ मिलके मीठे की गुहार करते हैं. (पृ.285); वो शान्त था आवाज पाने से, ये बेस्वर है आवाज खोने से. (पृ.287); लबादा उर्फ़ मैक्सी उर्फ़ कफ्तान उर्फ़ अबा उर्फ़ अबाया उर्फ़ तम्बू. (पृ.288); फैला लो तो उड़ो, उठा लो तो खुजाओ, गिरा लो तो मसहरी बन जाये, रुका न जाता हो तो तम्बू बना के बैठ लो कहीं भी हल्की हो लो. (पृ.289); तजुर्मा ऐसी खीर जो जलेबी से टेढ़ी. (पृ.289); ध्वनि का तजुर्मा सबसे मुश्किल. (पृ.290); धूपहवा के भेस में जंतु दौड़ते हैं. (पृ.290); दृश्य गुजर जाता है और देख कर भी कोई नहीं देखता, न प्रलय को आते, न प्यारे को जाते, न बिंदु को चौकोराते, न चीता को चींटीयाते, न लकवे को नृतियाते, न बहाव को थम जाते. (पृ.291); तन को हेय सोचने वाले नादान हैं. तन दर्पण है घर है भीनी चदरिया है. (पृ.292); वकील, दरोगा, डॉक्टर, कसाई. वो इसी फेर में कि किस पर कब केस और किस पर कब चाक़ू. (पृ.300); कोई सुन्न हो जाता है, कोई हार मान लेता है, कोई आगबबूला, कोई आस्थावान, कोई बेफ़िक्रा, कोई कामतमाम. (पृ.301); दिल की खफगी खौफ बनके लहराई. (पृ.305);
गाँधी जी के तीन बन्दर बनो जो असल में मिजारू, किकाजारु, और इवाजारु थे जापान में निक्को के तोशोगू मंदिर के निवासी. (पृ.307); सब जोड़ बेजोड़ व्यक्तित्व हैं, चाहे पूरे या अधूरे और सब अनंत हैं, चाहे बुलबुले. (पृ.308); माथे पर बालों का त्रिकोण बनता है न, ये खूबसूरती की निशानी है. (पृ.321); शान्ति से ज्यादा क्रांति मगन करती है, शील से अधिक अश्लील, आराधना से ज्यादा दहाड़ना, बनाने से ज्यादा बिगाड़ना, धीर से ज्यादा अधीर, चुपचाप से ज्यादा मारधाप. (पृ.335); आग के शोर में गुल और गुल रहे. (पृ.339); मरता एक है, बेजान दूसरा हो जाता है. बिजली रूकती है तो पेड़ भूसा होता है. आंधी थमती है तो छप्पर टूटा होता है. गाना खोता है तो गले में खांसी बस जाती है. (पृ.347); नाप का माप से सम्बन्ध नहीं रहता. बरगद बेला की झाड़ जितना हो तो छोटा लगता है, तितली कौवा बराबर हो तो बड़ी लगती है. (पृ.347);
देश बंटे तो दुश्मनी निभती है दोस्ती के साथ, और वीजा और बार्डर मूडपेडिपेंड रहता है. (पृ.360); एक किरदार विस्मृत होके उनके संग संग चलती है. (पृ.364); ये लेखकगण हैं जो आज भी हैं और हमेशा रहेंगे बाघा के जाने के बाद भी, जिनकी कुर्सियां आये दिन खींच ली जातीं हैं और वो बिसरी नजरों से ताकते रहते हैं. (पृ.366); जो घटता है वो तो हद है, हद की इन्तहा है, हद के पार है. (पृ.370); दंगाईयों का ये है कि वो मार काट चीख चिल्लाहट त्यौहार की तरह मनाते हैं जिसे त्यौहार मचाना कहते हैं. (पृ.379); सब तरफ धोखे थे और बड़े संदूक खाली थे, छोटी पोटलियाँ हीरे मोती छिपाए थीं. (पृ.380);
अचानक जो चलीं तो उनके कदम चलना भूल गए, ऐसे बौराए. कि एक पहले, फिर दूसरा रखें, ये न कर, एक संग दोनों उठ गए, एक संग आगे बढ़ने. डर हो कि एक पीछे न छूट जाये. प्रण हो कि आपस का साथ न टूटे पल भर को भी और जो एक जाने वो दूसरा भी तो जाने. जैसे दो जिस्म एक जान. (पृ.391); कट्टरतंत्र और शासनतंत्र को समाधियाँ रास नहीं आतीं. (पृ.393); कट्टर ढ़क्कन नहीं खिसकाते क्योंकि खुशबू का इत्रा-ना उन्हें स्वीकार नहीं. (पृ.393); रेत से सरहदें मिट जाती हैं. (पृ.394); तितली सुनती है जैसे कान नहीं जान की जरुरत होती है सुनने को और इसलिए हर बीच में पर फर फर कर देती है. (पृ.406); जान बचानी है कि आन, दिल बियाबान. (पृ.411); साँस टूटती हुई, रेत भरती हुई, गला रेतता हुआ, साँस चोटों की तरह निकल पड़ती. बस किसी तरह हाथ पाँव चलाती रहो, हाथ में बच्ची का हाथ खींचती रहो, ये मान के, मना के, कि बच्ची है अभी तक उस हाथ से लगी, और मूर्ति, है मेरी मूर्ति, है न साथ, चिपकी. (पृ.416); जो पास होता है तब वो याद क्यों नहीं आता? (पृ.433); हम अलग अलग वक्त में क्यों एक दूसरे को छूना चाहते हैं? (पृ.433); खोया प्यार सच्चा होता है. (पृ.443); कौवे का स्वर आया काँ काँ. कि हाँ हाँ. या माँ माँ. (पृ.444); सरकारी केस ही खेल होता है बेमतलब बेगैरत. बदनसीब बदगुमान. बेशऊर बेईमान. (पृ.453); जो होता है सोच के होता है कि भूलकर? जो हुआ सोचने वालों ने किया कि सोच बंद कर देने वालों ने? भूलना मर जाना है. (पृ.457); हँसी खेल में रास्ते बन जाते हैं. प्यार को देर सबेर सब मान लेते हैं. (पृ.459);
किसी सदी में किसी और को लगी गोली उस सदी में नहीं रह जाती. गोली बाद वालों को लगती रहती है और वो ढेर होते रहते हैं. (पृ.467); सबकी भन भन सुननी है तो मच्छर बन जाओ, नम हो जाना है तो बदरा, सींग मारने हैं तो देश का सरदार, नाचना है तो हवा, रोना है तो दुम, नदी होना है तो माँ, चक्कर काटता बंदी जानवर तो बेटी. (पृ.468); इन्हें तो भाषा भी नहीं पता कि क्या होती है. ये हिंदी बोलते है तो सिर्फ हिंदी समझते है, दूसरी भाषाएँ इन्हें गलबल और कंकड़ बरसना लगाती हैं. (पृ.468); इसे दोराहा कहते हैं. साये की राह या भकभक गाढ़ी आकृतियों की? पहली पे राजी तो आओ हमसफ़र, दूसरी तो ठप्प करो. (पृ.469); किस्से कहानियाँ और गाथाएँ दुनिया में अपने को घोक के नहीं चलते, उससे अपने को अलग करके चलते हैं. उन्हें दुनिया से न संक्रामिक न समकालिक न एकमेल न तालमेल न निर्विघ्न साथ बनाना है. (पृ.479);
किसी भावनात्मक अनुभव को इत्तफाकन भी किसी के संग अनुभव कर लिया तो दोस्ती का बीज पड़ जाता है. (पृ.486); अलगाव जताना कुछ लोगों के लिए जशन बन गया है? (पृ.486); छोटी होती बूढ़ी औरत ढीले झब्बा में मिट्टी में कोहनियों तक सनी, बूढी होती उसकी बेटी सर चुन्नी से ढके और दहशत और पीड़ा की झुर्रियों से भरी. (पृ.489); अपनापे से एक बात खुली कि सम्पर्क और सम्प्रेषण कोई सीधे समझ लेने का कायल नहीं. कि आपस में डोर हो और स्नेह और अपनत्व तो साथ पौधों को निहारना, साथ हरे हरे होना, साथ चुप रहना, सब संवाद हैं. (पृ.490); खैबर में मासूम खिलौना है. (पृ.495); कार नहीं जार की जरूरत होती है मुझ को.

चार)
‘रेत समाधि’ सुन्दर वाक्य प्रयोगों से अटा पड़ा है. इसके कलेवर की प्रायः हर पंक्ति में कुछ है. वह कुछ कुछ भी हो सकता है- नए अर्थ देता शब्द, अष्टावक्र-सा वाक्य, उलटबाँसी-सी अभिव्यक्ति, विपरीत शब्द प्रयोग से बना असमान्य अर्थ, कहानी, दरवाजा, हवा, परिवार आदि को समग्रता में परिभाषित करती व्यंजना-– यह न ख़त्म होने वाली सूची है जो शायद इतनी ही बड़ी हो सकती है, जितना बड़ा यह उपन्यास है. इसके सभी पक्षों पर एक साथ बात करना असम्भव है. ‘मिस्टर हैं न जिनकी हम मिसेज हैं’ (पृ.107) ग्रामीण समाज की सहज शर्मीली अभिव्यक्ति, उस महिला की बात जो परम्परागत रूप से पति का नाम नहीं ले सकती. नए शब्द, सुन्दर प्रयोग, अर्थवान वाक्य ‘उसकी चौखट लाँघने वाले का मनहरपन मनचलापन औघड़ता महबूबियत कराहियत ख़ुशमन अनर्गल रुदन रमक रौनक ररक’,(पृ.161) ‘बेटी का रंग माँ के पुलकित होते रंग में’(पृ.181) माँ स्वस्थ हो रही है. सहज हो रही है, अपने पुराने ढंग में लौट रही है. जैसे जैसे माँ बदल रही है, बेटी भी बदल रही है, गृहस्थिन बन रही है, माँ बन रही है, प्रेमिका छूट रही है. पर माँ के प्यार का रंग गहरा रहा है.
अन्त्योक्ति के रूप में ‘सा’ का प्रयोग ‘रेत समाधि’ में सब्जी बाजार के बीच से शास्त्रीय संगीत तक ले जाता है. “आप सब्ज़ी की रेढ़ीयों के बीच हैं, कान में पड़े ‘भला उनका सा लगता कहाँ है’, जो अपने में ख़ासा दिलचस्प सवाल है, अगर सुर के बारे में है और किसी के गले में किस जगह सा सुर बैठा है के बारे में, चूँकि उसी से तय होगा उसका गाना कि वो तार सप्तक में चलता है, जैसे ओंकारनाथ ठाकुर या कुमार गन्धर्व का” (पृ.130)
काव्य उक्तियों, गजलों, पदों और गीतों का इस्तेमाल उपन्यास के पाठ-रस को बढाता है. ‘रेत समाधि’ में भी ऐसा बार-बार दिखता है. लेकिन एक बात यहाँ उल्लेखनीय है, वह है सिनेमाई गीतों का उपयोग. फ़िल्मी गीतों का रचनात्मक उपयोग करके पाठ में एक नई अर्थ-भंगिमा पैदा की गई है. “शाख पर कौवा बैठा था” (पृ.254) “उन्हें छोड़ के जाँए कैसे, उन्हें बचाएँ कैसे, और बड़े तक खबरी उड़ाएँ कैसे?” (पृ.491)
लोक की जुबान पर चढ़े विज्ञापन जब समर्थ कथाकार अपनी जुबान में बरतता है “दो औरतें, एक मौत, क्या खूब जमेगी मिल बैठेंगे जब साथ हम और वे!” (पृ.11) तब इसका अर्थ और भाव नए हो जाते हैं. रचनाकार की भाषा के साथ आत्मीयता से भी यह संभव होता है.
यहाँ हम केवल कुछ यादगार मनभावन अभिव्यक्तियाँ दे रहे हैं:
वो आदमी इसी माँ के पति थे और पिता इसी बेटी के. यों लगा कि मरणोपरांत भी पालक चालक वही हैं. (पृ.14)
प्यार प्यारा होता है. (पृ.30)
जब प्यार अपार होता है तो कायनात में मच जाती है. (पृ.30)
हवाई अड्डे जा रही है या से आ रही है. (पृ.46)
कोई दूर से देखता तो मनभावन पेंटिंग बनती — विशाल आकाश, विशाल समुद्र, और उनसे सटा हुआ छोटासा दृश्य-टुकड़ा जिसमें एक कुर्सी पर युवक बैठा है और मेज़ पर बियर है और गोद में किताब. लहर दृश्य के एकदम क़रीब तक बह आती फिर लौट जाती, फिर आती जैसे कभी भी दृश्य को सशरीर उठा ले जाएगी. दृश्य भी किसी सम्मोहन में उसी में बढ़ रहा है. (पृ.52-53)
पतंग में से रंग लपके कि तितलियों से, रेनबो उछला और ग्रेनी के गिलास में डाइव करके तैर गया. (पृ.69)
सारे रंग बाकियों से आये – काले, भूरे, पीले – मगर केंद्र का अ-रंग, न-रंग असल रंग मान लिया गया. (पृ.77)
क्या इशारा है? से इट खुलकर. (पृ.90)
आइनों में अपने से गपशप करती है और कभी बात बढ़ जाती है तो अपना ही सर पीटती है कि अपने को पीटूंगी, तभी तू पिटेगी, जिसमें शीशा भी बीचबचाव करते करते लहूलुहान हो जाता है. (पृ.92-93)
सबसे खुशकिस्मत खुद बाबू मिजाजीलाल जी जो इक्केवाले थे तब मिजाजी रहे एमएलए होकर बाबू और जी हो गए. (पृ.100)
मिस्टर हैं न जिनकी हम मिसेज हैं. (पृ.107)
घर मंदिर, और मवेशी देवप्राणी. (पृ.112)
पत्तियाँ टूट जायेंगी, एकदम मुन्नियाँ हैं. (पृ.135)
दिशा-सत्य और दिशा-अनुकूल कि दिशाशूल में पड़े बिना उसने अपने घर में बहावों का सुन्दर जमाव कर लिया था. (पृ.158)
ऐसा हुआ है कि उनकी सारी इच्छाएँ वहीं घिर आई हैं. (पृ.163)
माँ चलते चलते धूप के टुकड़े में रुक जाती है, छड़ी गमले पे टिका के, हाथ उठा के अंगड़ाई लेती है. (पृ.174)
हर तरफ से प्यार. आर पार. (पृ.180)
कुकर चीखा और गरम चाय छलक पड़ी. (पृ.195)
माँजी बाजी हो चली हैं. (पृ.207)
आसपास टप टप टपकने लगा. बड़े बड़े फूल उसके पट पट गिरने लगे. (पृ.212)
उनका कलम सुखलम जियलम. (पृ.213)
फड़कती जिन्दगाती फिजा में मरीं. (पृ.213)
प्रकृति से प्यार गया तेल बेचने. (पृ.213)
प्रश्नसूचक परों से निहारती. (पृ.414)
हाथ पुराने, मगर पहले, मगर नए. (पृ.477)
पाँच)
‘रेत समाधि’ मानवेतर भाषाओँ और ध्वनियों का अलग संसार रचता है. इसे भाषा और अभिव्यक्ति का मानवीकरण भर कह देना लेखक के साथ न्याय नहीं होगा. लेखक ने कौवों, चिड़ियों, कीड़ों, तितलियों का भाषामय संसार यहाँ प्रस्तुत किया है. कौवों की कानोंकान बातों के लिए ‘कागाफूसी’, ‘कौवा मजलिस’ जो महारैली या महारैला से किसी तरह कम नही जान पड़ती. चिड़िया अपनी बात ‘फुदक फुदक जश्न’ से तो करती है पर उस जैसा एक आदमी भी है. चिड़िया ‘चिड़िया मुँह’ जैसी नहीं है आदमी उस जैसा है. ‘प्रश्नसूचक परों से निहारती’ (पृ.414) तितली. गहरी बड़ी आँखें, रंगबिरंगे पंख, दोनों प्रश्नाकुल. तितली कौवा तीतर चिड़िया सभी का मानवीय रूपांकन. पक्षियों की दुनिया हमारी दुनिया से अलग दुनिया है. आदमियों की दुनिया से अलग, हमारी दुनिया का हिस्सा नहीं. यहाँ हम केवल इसके भाषा पक्ष के कुछ उदाहरण देंगे :
- कौवा: कौवा–जामा (पृ.247), कौवा मजलिस (पृ.248), बेपरोंवाला बेपरवाह जीव (पृ.248), चक्षु-चाकवार (पृ.249), कांव कांव दहाड़ (पृ.250), बेपंख बली का जानवर (पृ.250), कौवी सित्कार (पृ.250), निडर पंखचाल (पृ.251), कौवितामय गुंजान (पृ.251), कौवीहृदय (पृ.251), कौवानियत (पृ.251), कौवाकाहिली (पृ.251), कौवाधिकार (पृ.252), कागाफूसी (पृ.254), कागा सिसकार (पृ.255), कौवानी चमक (पृ.267), कांव कांव जैसे राम राम (पृ.441),
- कौवा हो गधे मत बनो न चील न बाज न सारस (पृ.252)
- कौवी ने बच्चों को समझाया. तुम्हारे चारों ओर जो भाषा बजती है वो तुम्हारे अनजाने तुम्हारे मन में भरती है और तुम हैरान होते हो कि ये सब मैंने कब सीख लिया. इसीलिए, अच्छी बोली के बीच विचरो. (पृ.258)
- कौवे का स्वर आया काँ काँ. कि हाँ हाँ. या माँ माँ. (पृ.444)
- अपनी नस्ल के पहरेदारी का गौरव. (पृ.471)
- जब उसके पंख में लिपटा कौवे का पंख भावविभोर हो थरथराने लगा तो उसे एक अजीब अनुभव हुआ. कि उसकी भी रुलाई फूट रही है एक बार उसने पंख हटाने की कोशिश की मगर कौवे ने और कस के अपनी उसमें लपेट दी. दोनों रो दिए. (पृ.486)
- फिर भी ये सत्य तो था ही जिसका क्या तोड़ निकलना था, कि कौवा पक्षी नस्ल, उसे कोई मातृभाषा समझने में मुश्किल नहीं होनी थी, मगर इन्सान ने अपने बनाये इतिहास से अपनी नस्ल बिगाड़ ली थी और न मातृ, न पितृ, न मात्र भाषा उनकी पहुँच में. गैर-इंसानी हेराफेरी हर किस्म की जबान से अलगा देती है. (पृ.490)
कीड़ा – फेंको, फर्र फर्र स्वर. कीड़े का स्वर कोई स्वर है जो कान पर रेंग जाए? फर्र फर्र, भीतर कबाड़ है. खुली खिड़की से उछाल दो. चीला, फुटबॉल, पानी, बटन, चाट मसाला, पावदान, मंजन, जीरा, कलौंजी. चाभी, पोस्ता, सुई, खाँसी, बलगम, नेटा, पित्त, साँसें, फँसावे. फेंक दो. (पृ.44)
तितली –
“उनके परों की फरफर कह रही थी ओहो ऐसे बुरे वक़्त के अच्छे लोग, लड़कियों को अपनी नस्ल के वहशियों से बचाते. सुशान्त फरफर में उनमें से कुछ एक दूसरे के परों पे पर छुआ देतीं कि देखो कभी भी, कितना भी बुरा वक़्त क्यों न हो, अच्छाई की उम्मीद मत छोड़ो. उसी को अपने पंखों में रचाओ बसाओ, उसी से अपने पंखों में उड़ान भरो.”
“तितलियाँ जानती थीं वो चन्द दिनों की मेहमान हैं, रेत पर चाँदनी की तरह बिखरी. छह सात दिन में पूरी हो जाएँगी. हद से हद कोई कर गयी तो बारह पार कर लेगी.”
“दुनिया में भरोसा-सन्देश उन्हीं के द्वारा फैलता है और पीढ़ी दर पीढ़ी फैलता है. जैसे वो फूलों का पराग लेते हुए पुष्प-रेणु उठा लेती हैं कि दूसरी जगहों में उनके मार्फ़त पहुँचे, वहाँ भी अँकुराए और वो फूल वहाँ भी खिले और उसकी सुगन्ध फैले”,
तितली की कहानी चन्द दिनों की लहरानी, मक्खी की चार हफ़्तों की भनभन, चूहे की साल भर माल पर राल, कुत्ता बीस बरस गर लम्बा जीवन सरस, हाँ तोता, कछुआ, हाथी तो शती तुम्हारी बाज़ी. और निकृष्ट कॉकरोच तो तोप चले तो भी सलामत, ये है मलामत. सर्प की कहने लगो तो कहानी सर्पीली कमाल, कि शिख जाए, नख जाए, पूँछ तब भी नचाय. (पृ.59)
इस पृथ्वी पर मनुष्य सबसे विकसित प्राणी इसीलिए है कि उसके पास भाषा है. भाषा न होती तो वह अन्य सभी जीवों के बराबर होता. भाषा आई तो साहित्य भी आया, आना ही था. भावनाओं की अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त माध्यम साहित्य ही है. कविता, गीत, गजल, उपन्यास, कहानी आदि सभी अभिव्यक्ति के माध्यम हैं और हमारे जीवन यथार्थ और कल्पनाशीलता को व्यक्त करते हैं. ‘साहित्य’ शब्द में ये सभी विधायें निहित हैं. भाषा की शब्दों-वाक्यों की बात हो और साहित्य की चर्चा छूट जाय, यह सम्भव नहीं जान पड़ता. गीतांजलि श्री ‘रेत समाधि’ में दुनिया को साहित्य की जरूरत बताते हुए कहती हैं —
“ये तो दुनिया है जो पीछा नहीं छोड़ती. दुनिया को साहित्य की सख़्त ज़रूरत है क्योंकि वो उम्मीद और जीवन का द्योतक है. तो दुनिया आड़े तिरछे छिपे खुले रास्तों से साहित्य में घुलने चली आती है. दबे पाँव उसमें जज़्ब हो जाती है. उसकी चाल बेमिसाल जग-ठुकराई में अपनी निराशा को मिटाना चाहती है. उसकी कोशिश सार्थक हो जाती है जब मरती औरत का क़िस्सा उसके लहलह जीने का हो जाता है और ख़ैबर बेमेल बेमैल पहला प्यार निखारता है. दुनियामचल के ख़ैबर की हिंसा और इन्तकाम के बीच से पहाड़ियों से नगीने और आसमान से धूप बटोर लाती है. दुनिया को मिल जाती है तबाही के बीच उगती दूब हरी घास.” (पृ.479)
‘रेत समाधि’ सरहद को बेमानी बताने वाला ऐसा उपन्यास है जो सिर्फ़ अपने कथ्य के स्तर पर ऐसी छाप नहीं छोड़ता, बल्कि कहन शैली के स्तर पर भी हर सरहद को तोड़ता हुआ बढ़ता है. लम्बे समय बाद एक ऐसा उपन्यास हिंदी को मिला है जो न केवल हिंदी शब्दकोश के बिसरे-बिसराये शब्दों को सामने ले आता है, बल्कि शब्दकोश के लिए नए शब्दों की भी झड़ी लगा देता है. अब यह हिंदी पाठक समाज पर है कि वह शब्दों की इस जीवंत दुनिया की सैर कैसे करता है.
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1994 में हिन्दी साहित्य के सर्वाधिक प्रतिष्ठित प्रकाशन संस्थान ‘राजकमल प्रकाशन’ के प्रबन्ध निदेशक बने. ‘राजकमल’ और ‘राधाकृष्ण प्रकाशन’ को प्रगति-पथ पर आगे बढ़ाते हुए 2005 में ‘लोकभारती प्रकाशन’ का भी कार्यभार सँभाला. फ़िलहाल वे हिन्दी के तीन प्रमुख साहित्यिक प्रकाशनों के समूह ‘राजकमल प्रकाशन समूह’ के अध्यक्ष हैं. कुछ बालोपयोगी पुस्तकें प्रकाशित हैं. |
क्या शानदार आलेख है। रेत समाधि की दुनिया में बुलाता हुआ। भाषा के खिलंदड़ेपन और उसके मौलिक रचनात्मक उपयोगों की कितनी ही छटाएं यहां मिलती हैं। कोई भी नई बात कहने के लिए शब्दों की पुरानी कोठरियां काम नहीं आती। रचनाकार किस तरह उनके धूल जाले झाड़ कर उनके भीतर के स्पेस को दूसरी कोठरियों के साथ मिलाकर एक नए संयोजन के साथ उनमें अर्थों का नया स्पेस रच देता है । इस नए स्पेस में नई ध्वनियां सुनी जा सकती हैं।।यह प्रक्रिया आलेख में चर्चित बिंदुओं और दिए गए उदाहरणों से साफ दिखती है।
भाषा का खिलन्दड़ापन इस उपन्यास को विशिष्ट बनता है l डेज़ी रॉकवेल का अनुवाद इस विशेषता को बचाये रखता है l
यह लेख उतना ही महत्वपूर्ण हो उठा है, जितना उपन्यास। भाषा गढ़ना सभी को नहीं आता। जो लेखक गढ़ ले जाये, वही नवाचारी भाषा-विज्ञानी।
इस लेख ने गहरी दिलचस्पी पैदा की है- रेत समाधि में। लगता है इसे पढ़ ही लेना चाहिए, इसके भाषा प्रयोग के लिए नहीं कथा के लिए भी। भाषा तो खास है ही जिसमें रीझे हुए हैं हम। पुरस्कार तो उसकी कथा-सिद्धि के लिए मिला है। भाषा अलंकार से विरचित इस कृति का आकर्षण कभी कम न होगा। यह हमें स्वीकार कर लेना चाहिए।
हीरालाल नागर
काश! कि यह लेख उपन्यास पढ़ने से पहले पढ़ा होता। इस उपन्यास की भाषा को लेकर ऊब और असमंजस की स्थिति बनी रही। किंतु इस लेख को पढ़ कर भाषा के बर्ताव का महत्वपूर्ण खुलासा हुआ।
मैं हिंदी का एक सामान्य पाठक हूँ। बुकर पुरस्कार मिला तो मैंने बहुत जिज्ञासा और उत्साह से रेत समाधि उपन्यास ऑन लाइन बुलवाया। कुछ पृष्ठ ही पढ़ सका फिर धीरज खो गया सो छोड़ दिया। मेरा दुर्भाग्य !!
पुरस्कार तो अंगरेजी अनुवाद को मिला है और मुझे पूरा विश्वास है कि उन्होंने अंगरेजी शब्दों के साथ ऐसी मनमानी नहीं की होगी जैसी गीतांजलि ने हिन्दी शब्दों के साथ की है फणीश्वरनाथ रेणु की मिमिक्री करने के प्रयास में। आपने भी इस पुस्तक को पढ़ने की जहमत तभी उठाई जब इसके अंगरेजी अनुवाद को पुरस्कार मिला। स्वयं गीतांजलि स्वीकारती है कि उनकी अंगरेजी अच्छी नहीं है तो कह सकते है की उनकी यह भाषायी दरिद्रता किसी महिमामंडन की अपेक्षा नहीं रखती। इस पुस्तक को लोगों ने तब नहीं पढ़ा जब यह हिन्दी में छपी थी तो साफ है कि यह एक अत्यंत साधारण रचना है।
जब रेत समाधि आई, तो सबसे चौंकाने वाली बात यह थी कि बड़े-बड़े लेखक भी इसे सहजता से पूरा नहीं पढ़ पा रहे थे—कोई पंद्रह पन्नों बाद ठहर जाता, कोई तीस-चालीस पन्नों के बाद हार मान लेता। मेरे लिए यह अनुभव बिल्कुल उलट था। मैंने इसे एक ही बैठ में पढ़ डाला और तुरंत लिख भी डाला कि इस उपन्यास को कैसे पढ़ना चाहिए।
इस आलेख में बहुत कुछ भाषा के संदर्भ में लिखा गया है, और सच यह है कि इसकी भाषा व संदर्भ साधारण पाठक के लिए आसान नहीं हैं। लेखिका का गहरा अध्ययन, विभिन्न साहित्यिक संदर्भों का प्रयोग और हिन्दी के साथ-साथ उर्दू व पंजाबी की सांस्कृतिक परतें इसे एक अलग ऊँचाई देते हैं। यदि आपने पर्याप्त और विविध पठन नहीं किया है, तो इस रचना के कई आयाम आपके सामने नहीं खुल पाएंगे।
लेखिका को पूरी तरह पता है कि वे क्या कर रही हैं। सरहद पार जाने से पहले कथा में कोई बड़ी त्रासदी नहीं दिखती, लेकिन पार करते ही दुख-दर्द की बाढ़-सी आ जाती है। सीमा के इस पार और उस पार, दोनों जगह, भाषा और सांस्कृतिक संकेतों की गहराई सिर्फ एक तैयार पाठक ही आत्मसात कर सकता है।
मेरे लिए यह उपन्यास इतना प्रभावशाली रहा कि पढ़ने के तुरंत बाद मैं राजकमल के दफ़्तर पहुँचा और लेखिका की लगभग सारी किताबें खरीद लीं। एक साहित्यिक कार्यक्रम में उनसे इस पर बातचीत भी हुई। बाद में, जयपुर में डैजी के कहने पर इसे अंग्रेज़ी में पढ़ने का अनुभव भी अनोखा रहा। डैजी से मिलना भी खास रहा—वे भले विदेश से हों, लेकिन उनका भारतीय परिवेश और हिन्दी साहित्य से जुड़ाव बेहद आत्मीय है। उन्होंने उपेंद्रनाथ अश्क पर शोध किया है, जो उनकी साहित्यिक गंभीरता का प्रमाण है।
रेत समाधि सिर्फ पढ़ी नहीं जाती, बल्कि जी जाती है—शब्द, संदर्भ और अनुभव मिलकर इसे एक बहुपरत साहित्यिक यात्रा बना देते हैं।
‘ रेत समाधि ‘ पर राजकमल समूह के प्रबंध निदेशक श्री अशोक महेश्वरी का आलेख किसी विस्मय से कम नहीं है। हमने पहली बार विस्तार से उपन्यास में प्रयुक्त नए शब्दों, मुहावरों और वाक्य संरचनाओं को उनके बहुलार्थ के वितान में उदाहरणों के साथ रखा देखा। आश्चर्य है कि जिन प्रयोगों को अटपटा, अबूझ और जटिल कहकर लोगों ने इसे अपठनीय बताया है, उसे अशोक जी ने उसकी वास्तविक शक्ति और नई भाषिक पद्धति के रूप में देखा है। यह देखना निश्चय ही बहुत महत्वपूर्ण है और उपन्यास को नए सिरे से समझने में उपयोगी भी। इस आलेख के लिए अशोक महेश्वरी सहित समालोचन को बहुत बधाई।
अशोक माहेश्वरी ने किताब की तारीफ में कोई कसर नहीं छोड़ी। आलेख एक नया शब्दाकाश गढता है जिसमें आलोचना की नई ध्वनियां सुनी जा सकती हैं। लेकिन यह पुस्तक की कमजोरी को ढंकने में असफल रहा है। उपन्यास की भाषा बोझिल और उबाऊ है।
सबसे बड़ी बात तो यह है की रेत समाधि को अंतरराष्ट्रीय मानकों पर वैश्विक पाठकों के अनुकूल पाने के कारण ही बुकर सम्मान से प्रशिक्षित किया गया था। इस उपन्यास को मैंने भी हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में ही पलटा घोटा और इसकी चबा चा कर जुगाली की है। पत्तल के अंत तक चाटा है। यह बेखटक कह सकता हूं कि लश्करी ज़ुबान के हिंदवी बनने से लेकर हिंदी बनने तक के सफ़र में, आज तक देवनागरी लिपि में जितनी भी शब्दार्थों की क्रांतियां हुई है यह पुस्तक उन सबसे आगे की रचना है। सबसे बड़ी बात यह है कि विश्व की सबसे समर्थ भाषा के रूप में महिमा मंडित अंग्रेजी में जितने प्रयोग शेक्सपियर ने अपने समग्र साहित्य में किए, उतने से तो गीतांजलि श्री ने हिंदी पाठकों को इसी एक साहित्य रत्न से नवाज़ दिया।
निसंदेह यह पुस्तक नए साहित्यकारों को शब्द शिल्प में पारंगतता देने के साथ ही इसी प्रकार के नए प्रयोग की प्रेरणा भी देगी। मैं भी इसे कुछ आवश्यक सीखूंगा।