कविता में लिपटी सरहद-गाथा और औरत-कथारवीन्द्र त्रिपाठी
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स्पानी भाषा के आर्जेटिनियाई कवि-कथाकार होर्हे लुइस बोर्खेस (बोर्हेस) ने ओसवाल्ड फेरारी को दिए गए एक साक्षात्कार में आर. एल. स्टीवेंशन के हवाले से कहा है कि जिसे हम गद्य कहते हैं वो कविता का सबसे कठिन रूप है. दूसरे शब्दों में गद्य कविता का उच्चतम रूप है. बेशक बोर्खेस और स्टीवेंशन की इस स्थापना पर कई तरह की धारणाएं होंगी. पर इस बात से इनकार करना कठिन होगा कि गद्य में कविता की उपस्थिति हो सकती है या होती है. कई बार गद्य में कविता का सघन रूप दिखता है. हालांकि हर या हर किसी का गद्य काव्यात्मक नहीं होता. लेकिन हर अच्छा गद्य शायद काव्यात्मक होता है.
गीतांजलि श्री का उपन्यास `रेत-समाधि’ भी एक ही ऐसी रचना है. वैसे तो ये ठेठ उपन्यास है और इसमें एक मुख्य कथा है जिससे जुड़ी कई आनुषंगिक कथाएं भी हैं. पर जिस तरह से ये कथाएं कही (या लिखी गई हैं) उसमें कथालोक के साथ विस्तीर्ण काव्यलोक भी है. इसमें एक नायाब किस्म की किस्सागोई भी है. घुमावदार और कुछ जगहों पर आकस्मिकताओं को समेटे हुए. इन किस्सों का भरपूर और सघन आस्वाद आप तभी ले पाएंगे जब इसे आहिस्ता आहिस्ता पढ़ें. हर लफ्ज और हर वाक्य पर ठहरें और उनका भरपूर रस ले. उपन्यास का एक उद्धरण लेकर कहें तो `हर कतरा हर तिनका हर रेशा पुर-एहसास है.‘ काव्यात्मकता के अलावा भाषिक प्रयोग की अन्य छटाएं भी यहां हैं.
(एक)
पर उपन्यास में निहित कविता के पहलू को विस्तार से रेखांकित किया जाए इसके पहले जरूरी है कि कथातत्व की बात कर ली जाए. आखिर यहां कविता तो कहानी के शरीर में विन्यस्त है और कहानी क्या है? या और जरा सटीक तरीके से पूछा जाए कि कहानी किन पात्रों और वाकयों के ढांचे पर खड़ी है? आइए. जरा इसे जानें.
एक औरत है. बूढ़ी. उसका जिक्र आने के काफी देर बाद पता चलता है उसका पूरा नाम तो चंद्रप्रभा देवी है. वरना उपन्यास में ज्यादातर तो उसे अम्मा ही कहा गया है. तो होता ये है कि अम्मा ने अपने पति के निधन के बाद बरसों से पलंग पकड़ रखा है. (अब चूंकि शहरों में मध्य वर्ग में खाट का इस्तेमाल नहीं होता इसलिए `खाट पकड़ने’ वाले मुहावरे का इस्तेमाल नहीं कर सकते न!) पूरा घर लगा रहता है कि अम्मा पलंग से उठे, थोड़ा घूमे फिरे. लेकिन अम्मा ने तो जैसे भीष्म-प्रतिज्ञा ले रखी है कि वो नहीं उठेगी. (हालांकि `भीष्म प्रतिज्ञा’ तो एक पुरुष ने ली थी. वो भी शादी को लेकर. इसलिए किसी औरत के बारे में ये कहना कि उसने भीष्म-प्रतिज्ञा ले रखी है, औचित्यपूर्ण होगा? खासकर नारीवादी तो ये आपत्ति उठाएंगी. लेकिन भाषा में तो पुरुषकेंद्रीयता भरी पड़ी हुई है इसलिए इस आपत्ति को थोड़ी देर के लिए परे रखकर आगे बढ़ जाना ही उचित होगा.)
हां, तो अम्मा ने लंबे वक्त से पलंग पकड़ रखा है और बेटा, बहू, बेटी, पोते- सब कहते रहते हैं कि अम्मा उठ. मगर ना जी ना. वो नहीं उठती है. गठरी की तरह पड़ी रहती हैं. फिर अचानक एक दिन वो होता है जिसकी कल्पना घर के किसी सदस्य ने नहीं की थी. अम्मा उठती है और बिना किसी को बताए एक छड़ी के सहारे घर से बाहर निकल जाती है. पूरा परिवार सकते में. खोज खबर होती है. फिर अम्मा मिलती है एक थाने में. अम्मा घर लौटती है और उसके बाद बेटी के पास रहने चली जाती है. बेटी जो शादीशुदा नहीं है किंतु किसी के साथ सहजीवन बिताती है. उसके बाद तो अम्मा में कायाकल्प होने लगता है. और ये होता है रोज़ी नाम की उभयलिंगी यानी ट्रांसजेंडर, जिसे आम बोलचाल में हिजड़ा कहा जाता है, के कारण. रोज़ी कभी कभी वेश बदलकर रज़ा मास्टर हो जाती है. दो अदाओं में एक ही शख्स. (अर्थात तीसरे लिंग या थर्ड जेंडर की चर्चा है यहां.) रोज़ी के सानिध्य में अम्मा अपने पहनावे ओढ़ावे से लेकर हर दैनिक दिनचर्या में बिल्कुल बदल जाती है. ऊर्जा से लबालब हो जाती है. उसमें नई हसरतें जागने लगती हैं. `कौऩ से बदन वाली रोज़ी के संग मां भी नई नवेली बदन हो गई.’ बेटी को भी समझ में ना आए कि ऐसा कैसे हो रहा है. वो थोड़ी घबराती भी है. लेकिन अम्मा तो आत्मविश्वास की जीवित मूर्ति बनती जाती है.
और उसके बाद जो होता है वो तो सबके लिए अकल्पनीय है. होता ये है कि ये अम्मा अपनी बेटी के साथ पाकिस्तान जाती है. बाजाप्ता पासपोर्ट वीसा के साथ. बेटे, बहू-पोतों की सहमति है लेकिन उनको मालूम नहीं कि अम्मा के मंसूबे क्या हैं. पाकिस्तान जाने के बाद ये राज़ खुलता है अम्मा यानी चंद्रप्रभा देवी का अतीत तो ये रहा है कि वो कभी चंदा हुआ करती थी और अनवर नाम के एक मुस्लिम शख्स के साथ अविभाजित भारत में उसकी शादी हुई थी. अम्मा यानी चंदा का जन्म पाकिस्तान में एक हिंदू परिवार में हुआ था लेकिन भारत-विभाजन के बाद मचे हफड़ धफड़ में कई अन्य हिंदू औरतों के साथ वो भी सरहद के इस पार चली आई. यानी हिंदुस्तान में. और हिंदुस्तान आकर यही चंदा चंद्रप्रभा देवी नाम से नई और दूसरी जिंदगी शुरू करती है.
पर क्यों गई थी अम्मा, ऊर्फ चंद्रप्रभा देवी उर्फ चंदा इस उम्र में पाकिस्तान? धीरे-धीरे ये रहस्य खुलता है कि वो अपने पहले पति की खोज में वहां गई थी. और वहीं मरने भी. और खास तरीके से मरने. पाकिस्तान जाकर और वहां सुरक्षाकर्मियों द्वारा गिरफ्तार किए जाने के बाद वो अपनी बेटी और पुलिस वाले से कहती है कि उसे पीछे से दौड़ते हुए आएं और जोर से धक्का दें. क्यों? इसलिए कि वो धक्का खाकर पीठ के बल गिरने का अभ्यास करना चाहती है. और आखिर में जब वो गोली खाकर मरती है तो मुंह के बल नहीं बल्कि पीठ के बल ही गिरती है.
कुछ जिज्ञासु ये पूछ सकते हैं कि चंदा-अनवर की शादी किस तरह की थी? क्या ये प्रेम विवाह था या अदालती. ऐसे जिज्ञासुओं को बता देना जरूरी होगा कि ये दोनों की परिवारों की सहमति से हुआ अरेंज्ड मैरिज था क्योंकि तब अविभाजित भारत में 1870 में बना एक कानून इसकी इजाजत देता था. इस कानून के तहत ऐसी शादी हो सकती थी बशर्ते परिवार रजामंद हों
क्या `रेत समाधि’ एक प्रेम कथा है? क्या इसमें प्रेम का वो अक्स मौजूद है जिसे साहित्य के पाठकों ने गाब्रिएल गार्सिया मार्केस के उपन्यास `लव इन टाइम ऑफ कॉलेरा’ में महसूस किया था और जिसमे फ्लोरेंतीनों अरिजा नाम का चरित्र फेरमीना दाजा नाम की अपनी प्रेमिका के लिए पचास साल तक इंतजार करता है, हालांकि इस बीच फरमीना की शादी हो गई और फ्लोरेंतीनो के भी कई औरतें से संबंध बने. “रेत- समाधि’ का प्रेम कुछ कुछ वैसा है लेकिन पूरी तरह से नहीं. दोनों अलग तरह की रचनाएं हैं लेकिन उनमें प्रेम की लौ लंबे समय तक जलते रहने का वृतांत है.
प्रश्नाकुलता को आगे बढ़ाए तो क्या ये भी कहा जा सकता है कि क्या ये उपन्यास मनोवैज्ञानिक प्रक्रियायों की एक ऐसी गाथा है जिसमें बीता समय मनुष्य के मन में बना रहता है; दबाए नहीं दबता; और वो आगे चलकर अचानक उबलकर बाहर आता है तथा बहुत कुछ अस्तव्यस्त कर देता है. अम्मा के साथ तो यही होता है. भारत-विभाजन के बाद हिंदुस्तान आने पर उसकी फिर शादी हुई, बच्चे हुए और बेटे के भी बच्चे हो गए. वो जीवन के आखिरी चरण में है और अचानक ही जो बीता कल था, उसके भीतर जमा हुआ, बैठा हुआ, वो छलक कर बाहर आता है और परिवार के भीतर तूफान मचा देता है और दोनों देशों- भारत और पाकिस्तान- के राजनयिक संबंधों में हलचल जैसा भी कुछ पैदा कर देता है. इस लिहाज से ये कह सकते हैं कि `रेत समाधि’ मनोविज्ञान के गह्वर में प्रवेश करने और कराने वाला उपन्यास भी है. मानव मन एक अजीब पहेली है और ये सुलझाए नहीं सुलझती. अम्मा के अजीबोगरीब कारनामे यही बताते हैं.
पर ये दोनों पहलू अपनी जगह हैं. लेकिन मुख्य बात तो शायद ये है कि ये उपन्यास सरहद की धारणा को बीच बहस में लाता है. आखिर क्यों बनती हैं सरहदें? और होती क्या हैं सरहदें? क्या दो देशों के बीच विभाजन रेखा खींचकर सरहदें बनाई जाती हैं जैसे भारत और पाकिस्तान के बीच बनीं? या जैसे पुराने यूगोस्लाविया के हिंसक विघटन के बाद बाद कई नए देश बन गए? या सरहद का मतलब कुछ और होता है? उपन्यास में एक जगह अम्मा कहती है- “सरहद? जानते हो सरहद क्या होती है? बॉर्डर? वजूद का घेरा होता है, किसी शख्सियत की टेक होता है. कितनी ही बड़ी, कितनी ही छोटी. रूमाल की किनारी, मेज़पोश का बॉर्डर, मेरी दोहर की समेटती कढ़ाई. आसमान की सरहद. इस बगिया की क्यारी. खेतों की मेड़. तस्वीर का फ्रेम. सरहद तो हर चीज की है.
अरे लेकिन सरहद निकालने के लिए नहीं होती. दोनों तरफ को और उजालने के लिए होती है.
तुमने मुझे निकाल दिया. मैं निकल जाऊं? नहीं
(दो)
सरहद क्षितिज. जहां दो लोग मिलते हैं, गलबहियां करते हैं’’
सरहद को लेकर ये प्रसंग लंबा है जहां अम्मा पाकिस्तानी सुरक्षाकर्मियों से सरहद की अवधारणा को लेकर बातें करती हैं. यहां अम्मा सरहद की संकल्पना की व्याप्ति बताती है. भारत-पाकिस्तान के बंटवारे ने सरहद का अर्थ-संकोच कर दिया और उसे एक देश से दो दुश्मनों में तबदील कर दिया. `रेत-समाधि’ की मूल प्रस्तावना यही त्रासदी है. और 1947 में हुआ भारत का बंटवारा ही नहीं, दुनिया में जब और जहां भी किसी तरह का भौगोलिक बंटवारा होता है वह मानवीय सरोकारों से रहित होता है- ये उस उपन्यास की व्यंजना है.
भारत-पाक विभाजन के प्रसंग और त्रासदी को और अधिक रेखांकित करने के लिए गीतांजलि श्री ने इस उपन्यास में इस विषय पर लिखनेवाले लेखकों और उनकी रचनाओं और चरित्रों पर आधारित एक फैंटेसीनुमा नाटकीय वृतांत भी रचा है जो दोनों देशों के वाघा-अटारी बॉर्डर पर खेला जा रहा है और जिसमें मंटो, भीष्म साहनी, इंतजार हुसैन, मोहन राकेश, कृष्णा सोबती, कृष्ण बलदेव वैद, मंजूर एहतेशाम, राजिंदर सिंह बेदी, जोगिंदर पाल, बलवंत सिंह जैसे हिंदी-उर्दू-पंजाबी के कई लेखक मौजूद हैं और अपनी भूमिकाएं निभा रहे हैं. इस नाटकीय वृतांत में इन लेखकों द्वारा रचे गए चरित्र भी उपन्यास में हैं. जैसे मंटो के टोबा टेक सिंह का बिशन सिंह. वो अपनी भूमिका निभाते हुए क्या करता है, ये देखिए-
“लेकिन टोबा टेक सिंह का सिंह तो मूड में है. लाल सलाम से गार्डों के दांव पेंच मुश्किल में डालने में लगा ही है, अब और खुराफाती हो रहा है. अब तक मामला फिर भी संभला रहा चूंकि राष्ट्रभक्ति ऐसी पुख्ता, मगर सिंह नए नए हथकंडे अपनाता है. गगन तक उठते राष्ट्रीयता के अंतर्नाद को कहीं छिपे से पटखनी देने में तुला हुआ है. तो नारे हिल जाते हैं और सारी कड़क मुस्तैदी एक त्रस्त तन्नाई सुगबुगाहट भर रही है कि चौकन्ने रहो, पकड़ो, खेल ढेर न हो जाए. क्योंकि कभी भी परिंदे या जो भी फड़ फड़ करते हैं और कभी भी लाल धारे उड़ती हैं और कभी भी क्रिकेट मैच में उठती बोलियों से ऊंची हिंदुस्तान जिंदाबाद, पाकिस्तान ज़िंदाबाद क़ायदेआजम ज़िंदाबाद भारतमाता जयजयकार को काटती आवाज़ गूंज जाती है……”
ये वाकया विभाजन के बाद भारत- पाकिस्तान में उभरे उस नफरत के उस क्रूर रूप की ओर इशारा करता है जो अक्सर ही दोनों देशों में हमें दिखता है. दंगों में भी और क्रिकेट मैंचों में भी. हालांकि यहां ये प्रश्न भी उठाया जा सकता है कि तीन भारतीय भाषाओं के कथाकारों के विभाजन संबंधी लेखन और चरित्रों की याद किस लिए? ऐसे में चेक उपन्यासकर मिलान कुंदेरा के उपन्यास `द बुक ऑफ लॉफ्टर एंड फोरगेटिंग’ के प्रमुख चरित्र मिरेक का एक कथन याद आता है-
‘ताकत के खिलाफ मनुष्य का संघर्ष विस्मृति के खिलाफ स्मृति का संघर्ष है.’
साहित्य स्मृति का एक माध्यम भी है स्मृतियां हमारे लिए एक आईने का काम भी करती है. वैसे इस उपन्यास में सिर्फ अन्य लेखकों और कथाकारों की ही उपस्थिति नही है भूपेन खक्खर और जगदीश स्वामीनाथन जैसे कलाकार भी हैं. यानी साहित्यास्वाद भी और कलास्वाद भी.
(तीन)
यहां. ये निष्कर्ष निकाल लेना भी भूल होगी कि `रेत समाधि’ में सिर्फ सरहद-विमर्श और विभाजन गाथा ही है. दरअसल ये उपन्यास में कई स्थलों पर कौतुक–कथाएं (फेबल) भी हैं. उन कौतुक कथाओं की तरह जिसमें पशुपक्षी भी किरदार होते रहे हैं. हालांकि इस उपन्यास में पशु तो नहीं है लेकिन पक्षी हैं. खासकर कौवे. और कौवियां भी. वैसे तो तीतर भी है लेकिन कौवे और कौवियों की उपस्थिति अधिक है. जब अम्मा कुछ दिनों के लिए जब अपनी बेटी के घर चली जाती है तो उसका पुत्र, जिसका पूरे उपन्यास में बड़े नाम से उल्लेख किया गया है, एक दिन देखने जाता है कि बहन के घर कि उसकी मां कैसी है. बहन ने ठीक से मां को रखा भी या नहीं-ये जांचने. बड़े के वहां पहुंचने के पहले ही वहां कौवों की सभा चल रही है और जिसमें मादा कौवे यानी कौवियां भी शामिल हैं. बड़े इस बात से बेखबर कि वहां कौवों की सभा चला रही है. आखिर खबर कैसे हो, मनुष्य नाम का जो जीव है वो अन्य जीवों के प्रति अक्सर बेखबर ही रहता है जब तक कि ये दूसरे जीव उसके लिए किसी तरह के खतरा न हों. और कौवों से कैसा खतरा?
बहरहाल, जैसा कि फेबल स्टोरीज या कौतुक कथाओं में होता है वहां अभिधा भी महत्त्वपूर्ण है और व्यंजना भी. इस अपन्यास में भी यही होता है. इस काग-प्रसंग में हास्य भी हैं और विडंबना भी. विचार भी है विमर्श भी. जरा और खोलकर कहें तो नारीवादी विमर्श दमदार तरीके से उभरा है. इस तरह-
“एक बुजुर्ग कौवी, जो अपने नाम को अपने कौवीहृदय से साकार कर रही थीं, वहां कौवानियत का पाठ याद दिलाने लगीं. वो अपने वक्त की दबंग फेमिनिस्ट में, जिन्होंने ये हक अपनी बहनों को दिलाया कि हम मादाएं भी हर मीटिंग में आएंगी और पूरी बिरादरी के निर्णय में हमारी भी साझीदारी होगी. ये भी कि कोई अपना अंडा दूसरे को घोसले में कौवाकाहिली में नहीं छोड़ेंगा, और न सींक तिनका फेंकफांक कर घरौंदा बनेगा- हम भी करीने से रहेंगी और कौवा भी अंडे सेंएगा क्योंकि जो बच्चे होंगे वे उसके भी हैं. अभी भी वो मुंहफट थीं और सुंदरता से अपनी बात रखतीं. वो दस के ऊपर की हो चुकी थीं तो वृद्ध ही हो रही थीं. उनकी आंखें गाय माफ़िक शांत थीं और पंख बरगद की जड़ों जैसी दानिशमंद. वो धीरे धीरे फुदकतीं और कम लोग जानते कि वो ऐसा धूप के दिनों में इसलिए भी कि किया करतीं थीं ताकि भरपूर विटामीन डी उनके जोड़ों को मिले और आदतन नतीजतन ये उनकी चाल-तर्ज़ बन गई. जहां बाकी हड़बोंग मचाते कूदते उड़ने लगते, वहां ये गौरवमय क़दमों से बढ़तीं. किसी भागाभागी में नहीं, बम फटता है पहाड़ टूटता है ऐसा कोई संकटग्रस्त भाव उनके चेहरे पे नहीं, बल्कि इतमीनान से.”
कौवा-कौवी केंद्रित इस कौतुक कथा में साड़ी ज्ञान भी जुड़ जाता है. यानी कई तरह की साड़ियों का विवरण भी यहां है. इस साड़ी कथा बड़े की अपनी साड़ी-यादें भी हैं. जैसे कि अपनी पत्नी के लिए कौन सी साड़ी कब लाई और अम्मा के लिए किस तरह की- ये सब भी यहां दर्ज है. फंतासी कथा की तरह कौवियां किसिम किसम की साडियों का अध्ययन करती हैं. और क्रम में बांधनी, जरदोशी, बंधेज, तन्चोई, इकत, अजरख़, जामदानी, चिकनकरी, चंदेरी, मधुबनी, महेश्वरी, मूगा, कोसा, बालूचरी, ढाकई, शांतिपूरी, पैदली, तनचोई, टंगाइल, गडवाल, बनारसी, कांथा, पोचमपल्ली, कांजीवरम और अन्य साड़ियों का एक ज्ञानकोश खुलता जाता है.
(चार)
`रेत- समाधि’ में एक वाक्य है- `बातों का सच ये है कि सारे पहलू एक संग नहीं खुलते’. ये इस उपन्यास के बारे में भी सही है. इसमें जीवन और जगत के, राष्ट्रीयता और परिवार के, संस्कृति और पंरपरा के, भाषा और कलाओं के कई पहलू हैं औऱ ये एक संग नहीं खुलते हैं. अलग अलग संदर्भों में खुलते हैं. विभिन्न स्थलों पर भिन्न-भिन्न वैचारिक पक्ष सामने आते हैं. जैसे रिवायत या परंपरा कैसे बनती है?
परंपरा निर्माण एक जटिल प्रक्रिया है इसमें सिर्फ सर्वस्वीकृति ही नहीं दमन भी शामिल है- इसे एक किस्से से समझाया गया है. किस्सा संक्षेप में इस प्रकार है- एक गौरेया थी जो जग भर में निडर घूमती थी. घरों में घरौंदा बनाती थी और कंधों पे और पैरों के पास रस्सी कूदती चली आती थी. सूरज उसपर फिदा था और उसके कारण वन गुलजार था. एक दिन एक घुड़सवार ने, जो शिकारी भी था, नाचते नाचते मस्ती में गौरेया पर गोली चलाई. इसके बाद तो गौरैया डर गई. इतनी डर गई की पक्षीप्रेमी सालिम अली से भी डरने लगी.
स्पष्ट है कि ये एक रूपक-कथा है जिसका नारीवादी अर्थ भी है और वे ये कि पुरुषसत्ताक समाज ने औरतों को डराकर परंपरा बनाई है. एक मानीखेज वाक्य उपन्यास मे है- ‘मर्दानगी लगभग हर रिवायत की तह में छिपी है.’ और आगे चलकर दूसरा वाक्य आता है- ‘आदत ही रिवायत है’. ये इस तरफ संकेत है कि हम अपनी आदत को परंपरा मान लेते हैं.
(पांच)
अब जरा फिर `रेत-समाधि’ में निहित कविता की बात करें. इसमें कई ऐसे स्थल हैं जहां आप पूरे उपन्यास को भूल कर उनपर पर रीझ जाएं. उसी तरह जिस प्रकार किसी विस्तृत वन प्रांतर को देखते समय किसी खास वृक्ष या पुष्प की खूबसूरती पर ही इस तरह मोहित हो जाएं उसे ही देखते रह जाएं. वैसे बड़े उपन्यास की एक पहचान ये भी है कि उसके कुछ खंड भी विशिष्ट तरह की संपूर्णता लिए होते है. ‘रेत-समाधि’ में ये भाषा के स्तर पर लगातार होता है. बेहतर होगा कि इसे एक उदाहरण से समझाया जाए. उपन्यास के आरंभिक हिस्से का एक अंश यहां पेश है-
“बेटी. बेटियां हवा से बनती हैं. निष्पंद पलों में वे दिखाई नहीं पड़तीं और बेहद बारीक़ एहसास कर पाने वाले ही उनकी भनक पाते हैं. पर थमा समां न हो और वे हिल रही हो…. हाय कैसे तो वे हिलती हैं.. तो आकाश नीचे को झुकने लगता है इतना कि हाथ उठा के छू लो. खखानी धरती फटती है और बुलबुले उठते हैं और फिल कलकलाते हुए झरने निकल आते हैं. पहाड़ियां उझकती हैं. चारों ओर प्रकृति का अनोखा विस्तार खुलता है और अचानक आप समझ लेते हैं कि दूरी और गहराई, दोनों की आपकी समझ गड़बड़ा गई है. जिसकी सांस बालों पर आ गिरी नर्म पंखुड़ी थी, समुंदर में दहाड़ती चट्टान सी मारती है. जिसे आप हिम पर्वत समझ रहे हैं वो तो एकदम पास उसकी उंगली है जो नहीं पिघलेगी. आपकी अक्ल का चिराग गुल हो जाता है और अंधाकुप्प जो छाया है छाता ही रहता है. जैसे रात हो जाए तो रात ही चलती जाए. या दिन है तो दिन ही अविरत. और हवा चलती है जैसे रूह आह भरती, सारे में लहराती, करवट बदलती तो चुड़ैल हो जाती, इस पर, उस पर टूटती गिरती.”
इस तरह की कविताएं उपन्यास मे विन्यस्त हैं. हालांकि ऐसी पंक्तियां सिर्फ कविता नहीं हैं और इनमें एक सामाजिक सार भी मौजूद है. यानी सिर्फ भाषा नहीं है बल्कि सामाजिक बनावट की व्याख्या भी है. वैसे अगर सिर्फ कविता की बात करें तो वो भी यहां कई अक्स में दिखती है. जैसे जापानी हाइकू की तरह कुछ वाक्य दृश्यात्मक-दार्शनिक अर्थ की प्रतीति भी कराते हैं. मिसाल के लिए-
“सुबह सुबह जब मां बैल्कनी पर चाय पीती है काली चिड़िया लंबी सीटी मारती है. चढ़ती उतरती लय’’.
(छह)
उपन्यास के साथ एक मान्यता जुड़ी हुई है कि ये समय बिताने के काम आता है क्योंकि मनोरंजक होता है. ये धारणा पूरी तरह गलत भी नहीं है. पर पूरी तरह सच भी नहीं है. उपन्यास जीवन दृष्टि भी देता है. हमारी समझ को और विस्तृत और व्यापक करता है. पर समझ क्या है? इसे भी समझने की आवश्यकता है. `रेत-समाधि’ मे एक जगह कहा गया है-
“समझ बड़ा छिजाया हुआ, गाली खाया, शब्द बन गया है. कि उसके मायने हैं मतलब को स्थापित करना, जबकि मायने उसके हैं मतलब को विस्थापित करना. ऐसे हिलाना कि बिंजली कौंध उठे.‘’
क्या ये उपन्यास ऐसा करता है? क्या ये हमारी किसी पूर्व समझ या समझों को नए सिरे से ढालता-जांचता है? ऐसा कहा जा सकता है. गीतांजलि श्री की ये रचना उपन्यास के बारे में, उसकी भाषा के बारे में, परिवार में औरतों की स्थिति के बारे में, परंपरा- निर्मिति की प्रक्रिया के बारे में, राष्ट्रवाद के बारे में, वैश्विक स्तर पर सांस्कृतिक-बौद्धिक पूर्वग्रहों को समझने में और उनके बारे में सही प्रश्न पूछने में हमारी मदद करता है. जैसे ये पंक्तियां पश्चिम बनाम पूर्व की बहस के बारे में एक वैचारिक परिप्रेक्ष्य देती हैं-
“वे गोरे हैं. उनकी ले बैठो तो तो फिर वो ही वो, क्योंकि दुनिया उनकी हो चुकी है. उसे वे बना रहे हैं, बिगाड़ वे रहे हैं, और बनाने के पर्याय वे हैं, बिगाड़ने का बाकी, क्योंकि केंद्र वो हैं और केंद्र से मूल कथा तय होती है. बाकी बाकी हैं. पतंग,दशमलव, चाय, शून्य, टंकण, बारूद सब इधर से आये, पर जब `केंद्र’ में पहुंचे तभी से दुनिया में आए माने गए. सारे रंग बाकियों से आए-काले भूरे, पीले- मगर केंद्र का अ-रंग न-रंग असल रंग मान लिया गया. केंद्र और बाकी, वे यथार्थ, ये बेमजा. स्मृति वहीं से विस्मृति वहीं से. प्राचीन यूनान को जिन्होंने अपनी सोच का धरोहर मान रखा थ, वे भूल गए उसे, सदियों सदियों, और अरब थे जिन्होंने अपने खजाने में उसकी याद संजोयी, वर्ना कौन सा पुनर्जागरण पश्चिम में कहीं होता? पर हुआ और वो केंद्र में था. पर हुआ और वो केंद्र में था इसलिए अरब भी बाकी हुए.”
और सौंदर्यबोध के लेकर कुछ अप्रत्याशित नवीन स्थापनाएं भी यहां हैं. मरीचिका के बारे में यही हमारी एक सामान्य समक्ष है कि वो रेगिस्तान में धोखे की तरह होती है.. पर उपन्यासकर उस समझ के आगे की बात करती हैं जब वे कहती हैं- ‘पूछ खुद से, मूरखमन, कि मरीचिका से ज्यादा चमक कहां और वो क्या झूठा, उसके नीचे पृथ्वी ठोस नही है क्या उसके ऊपर हवा नहीं गुंजान?और हम जब उसे देखे हैं, उम्मीद, लालसा और कविता हममें नहीं अंखुआए क्या?’
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रवीन्द्र त्रिपाठी, टीवी और प्रिट मीडिया के वरिष्ठ पत्रकार, फिल्म-,साहित्य-रंगमंच और कला के आलोचक, व्यंग्यकार हैं. व्यंग्य की पुस्तक `मन मोबाइलिया गया है’ प्रकाशित. राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की पत्रिका `रंग प्रसंग‘ और और केंद्रीय हिंदी संस्थान की पत्रिका `मीडिया ‘ का संपादन किया है. कई नाट्यालेख लिखे हैं. जनसत्ता के फिल्म समीक्षक और राष्ट्रीय सहारा के कला समीक्षक. वृतचित्र- निर्देशक. साहित्य अकादेमी और साहित्य कला परिषद के लिए वृतचित्रों का निर्माण. आदि |
यह आलेख बेहद उम्दा है।
संभवतः यह आलेख पढ़कर ही उस दिन किताब मंगाकर पढ़ी थी।
आलेख के आलोक में ‘रेत समाधि’ की चमक बढ़ जाती है।
शुभकामनाएँ
मेरी बिटिया ने मुझे ‘रेत समाधि’ की प्रति भेजी है. 376 पृष्ठ के इस उपन्यास के अभी मैंने मात्र 50 पृष्ठ पढ़े हैं. इस उपन्यास को पढ़ने में कविता का आनंद आ रहा है. अब श्री रवीन्द्र त्रिपाठी का इस उपन्यास पर विश्लेष्णात्मक आलेख पढ़ कर, इस उपन्यास को बहुत ध्यान से पूरा पढ़ने का मन कर रहा है.
समीक्षा का एक उद्देश्य पाठक को मूल कृतिं की ओर उन्मुख करना भी है। यह समीक्षा रेत समाधि पढ़ने की ललक जगाती है और इसे समझने के कई सूत्र भी देती है।
इस श्रेष्ठ समीक्षा के लिए त्रिपाठी जी को साधुवाद।
समीक्षा या आलोचना जहां मूल कृति को साहित्यिक दृष्टि परखती है वही उसे पाठक से जोड़ती भी है । रवीन्द्र त्रिपाठी जी का यह विस्तृत आलेख इस दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। बधाई