प्राचीन यात्राओं का यात्री |
बहुत कम ऐसे यात्री हैं जो किसी जिज्ञासा या उत्सुकता के लिए यात्रा करते हैं. ऐसे यात्री खुद उत्खनक भी हो जाते है, किसी पुरातत्ववेत्ता की तरह. वे यात्रा के दौरान न सिर्फ अपने ज्ञान में बढ़ोतरी करते हैं बल्कि सामाजिक ज्ञान में भी बहुत कुछ जोड़ते हैं और इस कड़ी में कई पुरानी धारणाओं या मान्यताओं व पूर्वाग्रहों की परीक्षा करते हैं. इनकी पुस्तकें या वृत्तांत पढ़ने के बाद हम महसूस करते हैं कि अरे, हम जिन जगहों के बारे में जो कुछ सोचते आए थे, हकीकत कुछ उससे अलग भी है! ऐसे यात्री हमें कुछ नया सोचने की ख़ुराक भी देते हैं.
नमित अरोरा ऐसे ही यात्री हैं. वह बरसों विदेश में इंटरनेट उद्योग से संबद्ध रहे. फिर उन्होंने सब कुछ छोड़कर भारत के ऐतिहासिक स्थलों की यात्रा शुरू कर दी. यह वस्तुतः भारत प्रेम ही है जो भारतीयतावाद या राष्ट्रवाद से अलग है. भारत के उन स्थलों की यात्रा का वृत्तांत है जो हमारे देश में पुरातात्विक और ऐतिहासिक महत्त्व के हैं और जिनमें कई शताब्दियों का इतिहास छिपा और प्रकट है.
छिपा इसलिए कि जिन स्थलों का उल्लेख यहाँ है उनके बारे में हम बहुत कुछ नहीं भी जानते हैं. मिसाल के लिए हड़प्पाकालीन युग के बारे में हमारी जानकारी बहुत कम है. उस समय के लेखन में प्रयुक्त होनेवाली लिपि भी हमारे लिए अबूझ है. वह सभ्यता, जो भारत के पश्चिमी इलाके में कई सौ बरसों तक फैली थी और जिसका एक बड़ा हिस्सा आज पाकिस्तान में है, आज भी हमारे लिए पहेली सी है. और सिर्फ हड़प्पा ही क्यों, उत्तर-प्राचीन काल से लेकर पूर्व मध्यकाल व उत्तर मध्यकाल के कई कालखंडों के बारे में हमारी जानकारी आधी- अधूरी ही है.
कई किंवदंतियां, कई धारणाएँ और कई प्रश्न चिन्ह उनके बारे में हमारे बीच हैं जो देश के इतिहास बोध को पूर्वाग्रहयुक्त बनाते हैं और अधिक जानकारी के लिए उत्सुक भी.
आगे बढ़ें इसके पहले यह बता देना जरूरी होगा कि नमित अरोरा के इस यात्रा वृत्तांत में उन कई यात्रियों की यात्राओं का वृत्तांत और विश्लेषण भी है जो प्राचीन काल से लेकर मध्यकाल तक भारत आते रहे और इस बारे में लिखते भी रहे.
उनके लिखे से हमें भारतीय इतिहास के कई कालखंडों के विषय में पता चलता है. ऐसे यात्रियों में जिनका उल्लेख प्रमुखता से किया जाता है, वे हैं– ग्रीक यात्री मेगास्थनीज (300 ईसा पूर्व), तीन चीनी यात्री फाह्यान (337-422 ईस्वी), ह्वेनसांग (602- 644 ईस्वी) इत्सिंग (या इजींग) (635-713 ईस्वी) उजबेक-फारसी-अरबी यात्री अलबरूनी (1017-1030 ईस्वी), इतालवी यात्री और व्यापारी मार्को पोलो (1292 ईस्वी) मोरक्को का यात्री इब्न बतूता (1333 ईस्वी), चीनी यात्री ची हुआन, इतालवी यात्री व सौदागर निकोलो दे कोंटी (1420 ईस्वी), रूसी यात्री अफसानी निकिति, ईरानी विद्वान यात्री अब्दुर रहमान समरकंदी (1443 ईस्वी), तीन पुर्तगाली दुआर्ते बरबोसा (1515 ईस्वी) और डोमिंगो पेस (1520 ईस्वी), फर्नांदो नुनिज (1535-17 ईस्वी) और फ्रांसीसी यात्री और चिकित्सक फ्रांसुआ बर्नियार 1558- 69 ईस्वी).
इनमें से तीनों चीनी यात्री- फाह्यान, ह्वेनसांग और इत्सिंग तो बौद्ध भिक्षु थे और धार्मिक जिज्ञासा और ज्ञान के लिए भारत आए. इन तीनों को आज की भाषा में पहले भारतविद् भी कह सकते हैं क्योंकि तीनों के लेखन से भारत के बारे में काफी कुछ पता चलता है. हवेनसांग के यात्रावृत्त का अनुवाद जब फ्रांसीसी में 1853 में हुआ तो यह उन विदेशी पुरातत्वविदों के लिए बड़ा प्रेरणास्रोत भी रहा जो भारत में सक्रिय थे. तब भारत में सक्रिय ब्रितानी पुरातत्वविद कनिंघम भी उसी के बाद सक्रिय हुए.
यह पुस्तक सिर्फ यात्रा वृत्तांत नहीं. इतिहास भी है. आज भारत में इतिहास-लेखन काफी अकादमिक और बोझिल-सा है. पर नमित अरोरा की यह पुस्तक बड़ी रोचक है. यह अपने में एक ऐसा यात्रा वृत्तांत है जो भारत में लगभग दो हजार बरसों में आए कई महत्त्वपूर्ण यात्रियों के लेखन का परीक्षण भी करता है और भारतीय इतिहासकारों की स्थापनाओं का उल्लेख करते हुए प्रासंगिक समय के प्रामाणिक इतिहास को सामने लाने की कोशिश भी करता है.
यह खुद लेखक का आत्मान्वेषण भी है और भारत के इतिहास की खोज भी. यह खोज पंडित जवाहर लाल नेहरू के भारत की खोज से मिलती जुलती भी है और उससे अलग भी. सबसे बड़ी बात यह कि लेखक की शैली में भारत के इतिहास के किसी कालखंड के विषय में निश्चयात्मक निष्कर्ष यहाँ नहीं है. अनुमान और परिकल्पनाएँ हैं. और इसमें इतिहास के साथ-साथ भारत का वर्तमान, खासकर उन इलाकों का वर्तमान भी हैं, जहाँ-जहाँ अपनी यात्रा के सिलसिसे में लेखक गया है.
धोलावीरा से लेकर नालंदा, नागार्जन कोंडा, खजुराहो, हैंपी (विजयानगरम) और वाराणसी तक के वर्तमान यथार्थ का आंखों देखा हाल भी इसमें हैं. इस छोटे से लेख में उन सारी जगहों के बारे में यहाँ नहीं लिखा जा सकता, इसलिए कुछ बातों और स्थलों की ही चर्चा यहाँ होगी.
सबसे पहले बात करते हैं नालंदा की. यह तो भारत के इतिहास में सामान्य दिलचस्पी रखनेवाला व्यक्ति भी जानता है कि दूसरी ईस्वी से लेकर लगभग बारहवीं-तेरहवीं सदी तक नालंदा का महाविहार बौद्ध धर्म के अध्ययन और चिंतन का एक बड़ा और विश्वविख्यात केंद्र रहा है. तब के नालंदा विश्वविद्यालय में चीन और तिब्बत के बौद्ध अध्येता आते थे. कई बौद्ध महान दार्शनिक यहाँ हुए जिनका दूसरे देशों में भी नाम था और उनकी दार्शनिक मान्यताएँ और स्थापनाएँ आज भी दार्शनिकों को उद्वेलित करती हैं. पर सवाल यह है कि नालंदा का पतन कैसे हुआ?
एक सामान्य धारणा यह है कि इख्तियारुद्दीन मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी ने नालंदा का ध्वंस किया. नमित अरोरा इस धारणा को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखते हैं. उनका कहना है कि बख्तियार खिलजी यहाँ सन् 1200 के करीब आया. उसके पहले ही नालंदा एक बौद्ध केंद्र के रूप में धीरे-धीरे वीरान होने लगा था. इसके कई कारण थे. एक तो यही कि जिस पाल वंश का शासन था और जो यहाँ के केंद्रों की आर्थिक मदद करता था उसनें धन की कटौती शुरू कर दी. फिर कालक्रम में उसका भी पतन होने लगा. सेन वंश का शासन आया जो बौद्ध धर्म के प्रति उदार नहीं था और उस वक्त नालंदा के बौद्ध मठ अपने अस्तित्व के लिए जूझ रहे थे. लेकिन खिलजी के समय इस पर कोई बड़ा आक्रमण किया गया उसके सबूत नहीं हैं. हाँ, यहाँ के पास ओदंतपरी या उद्दंडपुर (आज का बिहार शरीफ) में एक मठ था जिसके बारे में कुछ इतिहासकारों का कहना है कि वहाँ खिलजी की सेना ने आक्रमण किया था.
हालांकि भीमराव आंबेडकर और बाशम जैसे विद्वानों की राय है कि खिलजी ने नालंदा को तहस-नहस किया पर दूसरे कई इतिहासकार इसे सच नहीं मानते. बहरहाल नालंदा के ध्वंस का सच क्या है, इसे लेकर कई तरह के सिद्धांत और राय हैं.
पर नालंदा के और भी कई सच हैं. सबसे बड़ा तो यह कि नालंदा की कहानी अभी पूरी नहीं हुई. यानी उसके आस-पास के कुछ अन्य बौद्ध विहारों की या तो हाल में खुदाई हुई है और कुछ की हुई ही नहीं है, उनके बारे में भी अभी बहुत कम जानकारी है. जिसकी हाल में खुदाई हुई है वह तिलाधक या (तेलहारा) विहार जो नालंदा से कुछ ही किलोमीटर पर है. पर उससे मिले साक्ष्यों का अभी पूरी तरह विश्लेषण नहीं हुआ है. जिसकी खुदाई अभी हुई ही नहीं है वह है घरावट महाविहार जो बिहार के जहानाबाद जिले में है. फिर एक और महाविहार की बात कही जाती है- घोसियावा महाविहार जिसकी जगह भी अभी तय नहीं हुई है.
नमित अरोरा ने एक और पहलू की तरफ ध्यान खींचा है जो विचार के धरातल पर नालंदा महाविहार के महत्व को और बढ़ा देता है. लगभग हजार साल के नालंदा के परिसर में, और उससे बाहर भी, जो बौद्ध दार्शनिक हुए उन्होंने भारतीय दर्शन परंपरा को जिस उंचाई पर पहुंचाया उसे भी अभी ठीक से नापा और मापा नहीं गया है.
उन महान दार्शनिकों मे एक दिंगनाग (480- 540) थे जिन्होंने तर्क और ज्ञानमीमांसा की एक नई व्याख्यात्मक आधारशिला रखी. उन्होंने केवल अनुभव और अनुमान को ज्ञान का स्रोत बताया. उनके बौद्धिक शिष्य धर्मकीर्ति (550-610) ने उनके विचारों की टीका लिखी और उनको आगे बढ़ाया. उन दोनों के साझे काम ने गैर बौद्धों के साथ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और अच्छी दार्शनिक बहस को जन्म दिया.
दिङ्नाग के एक और बौद्धिक शिष्य धर्मपाल थे जो महायान की योगाचार शाखा के आचार्य थे. धर्मपाल का मत था कि केवल बुद्धि ही सत्य है और सारी वास्तविकताओं का अंतिम स्रोत चेतना में है. ये विचार थेरवाद के सर्वास्तिवाद पंथ के सिद्धांत `सब कुछ सत्य है’ के विपरीत है. आधुनिक काल के पश्चिमी दार्शनिकों एडमंड हर्सुल, मॉरिस मेर्लो पोंटी, और इमानुएल कांट के विचारों को इस आलोक में देखें तो यह पूछा जा सकता है कि इन बौद्ध दार्शनिकों और आधुनिक दार्शनिकों की चिंतन-सरणि के बीच अंत:सूत्र क्या हैं.
इनके अलावा शांतिदेव (उत्तर सातवीं सदी–पूर्व आठवीं सदी), शांत रक्षित (725-88), कमलशील, चंद्रपाल, गुणमति, स्थिरमति, प्रभामिल, अतिस दीपंकर जैसे दार्शनिक- भिक्षु हुए जिनके चिंतन की छाप उस समय के भारत और दक्षिण एशिया पर पड़ी.
एक और बात. नमित अरोरा ने अपेक्षाकृत विस्तार से नागार्जुनकोंडा के बारे में भी लिखा है. यह भी एक बड़ा बौद्ध केंद्र था और प्राचीन काल में विजयापुरी नगर में स्थित था जो इक्ष्वाकु राजवंश (220- 320 ईस्वी) की राजधानी हुआ करता था. इक्ष्वाकु राजवंश के लोग आज की भाषा में कहें तो हिंदू भी थे और बौद्ध धर्म को भी समान महत्व देते थे. खासकर यहाँ की रानियां बौद्ध धर्म के प्रति ज्यादा उदार थीं और उसकी संरक्षिकाएँ थीं.
विजयापुरी शहर अब एक बड़े बांध के नीचे डूब चुका है और उसके डूबने के पहले छह साल तक उसकी खुदाई हुई थी जिसकी वजह से यहाँ के बारे में कई पुरातात्विक जानकारियाँ मिलीं. प्रसिद्ध बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन यहीं के थे. उन्होंने महायान बौदधमार्ग में मध्यमार्ग की धारणा सामने रखी. वह शून्यवाद के प्रवर्तक माने जाते हैं और आधुनिक युग के कुछ दार्शनिकों खासकर, लुडविग विटगेंसस्टाइन के विचारों में उनके चिंतन के अनुगूँज मिलती है.
दरअसल नमित अरोरा कि इस किताब का एक हासिल यही है कि आज के भारतीयों की नज़रें उन बौद्ध दार्शनिकों की तरफ जाती हैं जिन्होंने मनुष्य और संसार के बारे में गहन चिंतन किया. हालांकि ऐसा नहीं है कि इन दार्शनिकों के बारे में पता नहीं था.
बीसवीं सदी में भारत में बौद्ध धर्म के प्रति उत्सुकताएँ पैदा हुईं और नई जानकारियाँ मिलीं. हिंदी में भी महापंडित राहुल सांकृत्यायन जैसे अध्येताओं ने इन दार्शनिकों के बारे में काफी कुछ लिखा. भीमराव अंबेडकर द्वारा बौद्ध धर्म स्वीकार करने से भी इसके बारे में एक बड़े समुदाय की उत्कंठाएँ जन्मीं. पर इक्कीसवीं सदी के आरंभिक दौर में नमित अरोरा की इस पुस्तक पढ़ते हुए बौद्ध परिप्रेक्ष्य न सिर्फ और विस्तारित हो जाते हैं बल्कि भारतीय दर्शन और विश्व दर्शन के रिश्तों को समझने की दिशा में एक वातावरण तैयार होता है.
और यह किताब सिर्फ बौद्ध धर्म के बारे में ही नहीं बल्कि खजुराहो जैसे (यहाँ कोणार्क की चर्चा नहीं है जो खजुराहो की कला दृष्टि का ही विस्तार है) ऐतिहासिक स्थल के बारे में बहुत कुछ कहती है. खजुराहो के मंदिरों और उस पर उत्कीर्ण इरोटिक कलाकृतियाँ (अनुवाद में उनको कामोत्तेजक कलाकृतियाँ कहा गया है, जो मेरे मुताबिक सटीक नहीं है. लेकिन मेरे पास भी ‘इरोटिक’ के लिए हिंदी में सही शब्द नहीं है) भारतीय मंदिरों और कलाकृतियों की किसी बड़ी कही जानेवाली धार्मिक परंपरा यानी हिंदू-बौद्ध-जैन की नहीं है. अधिक से अधिक वे तंत्र साधना की परंपरा में कही जा सकती हैं. पर यहाँ भी दो समस्याएँ हैं. एक तो ये कि वह तंत्र परंपरा सिर्फ हिंदू परंपरा नहीं है. महायान का आगे चलकर जिस वज्रयान धारा में विकास हुआ वह भी तंत्र परंपरा से ही जुड़ी है.
जैन में भी तंत्र पूजा रही है और हिंदूओं में शाक्तों आदि संप्रदायों में भी. और खजुराहो में इन सभी परंपराओं से जुड़ी मूर्तियाँ हैं. हालांकि बुद्ध की सिर्फ एक मूर्ति है. यानी खजुराहो के मंदिर किसी एक या खास धार्मिक परंपरा के नहीं हैं.
जिन चंदेल शासकों के समय यहाँ के मंदिर बने वे शुरू में वैष्णव थे और बाद में शैव हो गए थे. पर खजुराहो के मंदिरों और उनमें निहित कलाकृतियों के पीछे कौन से धार्मिक या कलात्मक सिद्धांत थे उनके बारे में ठीक-ठीक कुछ भी नहीं कहा जा सकता है.
इस पर जितनी भी किताबें लिखी गई हैं उनमें भी इसे लेकर अनुमान ही अधिक है.
दूसरी बात यह है कि खजुराहो के मंदिर के पीछे वात्स्यायन के कामसूत्र की प्रेरणा रही है ऐसा कहा जा सकता है. पर मंदिरों में उत्कीर्ण कलाकृतियां सिर्फ इरोटिक नहीं हैं. मिसाल के लिए यहाँ के परिसर में एक सूर्य मंदिर भी है और इसमें सूर्य के पैर में जूते हैं. कोणार्क का मंदिर भी सूर्य मंदिर ही है. इस लिए खजुराहों के मंदिरों से जुड़े प्रश्नों में एक प्रश्न यह भी जुड़ जाता है कि क्या सूर्योपासना की धारा भी उस कालखंड में मन्दिरों में जगह पा रही है. बिहार में आज की तारीख में कई ऐसे मंदिर हैं जहाँ सूर्य की पूजा की जाती है. नमित अरोरा वहाँ नहीं गए हैं. कम से कम इस किताब से तो यही पता चलता है. क्या वे वहाँ की यात्राएँ भी करेंगे?
सिद्धांत हो न हो, ये मंदिर और कलाकृतियाँ यहाँ हैं इनके बारे में सटीक तौर पर सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि भारत जैसे देश की धार्मिक या कला परंपरा के बारे में कोई सरल रैखिक स्थापना नहीं की जा सकती है कि यह यहाँ से शुरू हुई और वहाँ पहुंची. वैसे यह माना जाता है कि वैदिक काल के बाद भारत में बौद्ध और जैन धर्म के अलावा पांच सौ से अधिक धार्मिक संप्रदाय थे. इनमें आगे चलकर किनका किस तरह विस्तार हुआ, कौन सी परम्परा किसी दूसरी या तीसरी परम्परा से मिली और इस क्रम में क्या-क्या नया बना यह कहना बहुत मुश्किल है.
फिर कला परंपराएँ भी सिर्फ धार्मिक या वैचारिक परम्परा से नहीं निकलती. उनकी की अपनी स्वायत्तता या स्वतंत्रता होती है. और हर कलाकार की भी निजी दृष्टि होती है. मध्यकाल के कलाकारों में ये निजता रही होगी भले ही हम मानें कि उस काल में वैयक्तिकता का उदय नहीं हुआ था.
नमित अरोरा की यह पुस्तक अपने में एक उपलब्धि है जो भारतीय सभ्यता के लंबे इतिहास को जानने ओर समझने के लिए प्रश्नाकुल करती है. हड़प्पाकालीन दौर से लेकर विजयापुरी, नालंदा और विजयानगरम और आज के वाराणसी के इतिहास के बारे में जांच पड़ताल करती है और साथ ही उन पूर्वाग्रहों का भी परीक्षण करती है जो समय-समय पर इनको लेकर बने और आज भी इनका बनना जारी है. पर साथ ही यह पुस्तक एक शुरुआत भी है इस मायने में कि यह कई नई जिज्ञासाएँ भी पैदा करती है.
हजारों बरसों के प्राचीन इतिहास के विषय में निश्चित निष्कर्ष नहीं निकाले जा सकते हैं. कुछ परिकल्पनाएँ होती हैं, कुछ सवाल होते हैं और कुछ तथ्य होते हैं. तथ्य पुराने भी होते हैं और नए भी. इनके आलोक में ही किसी सभ्यता के इतिहास का अवलोकन होता है. इस पुस्तक में वह सब कुछ है जो आगे की यात्राओं के लिए प्रेरित करती है. यह यात्रा या यात्राएँ नमित अरोरा की भी हो सकती है और किसी और की भी. गालिब का एक शेर याद आता है-
क्या फ़र्ज़ है कि सब को मिले एक सा जवाब
आओ न हम भी सैर करें कोह-ए-तूर की
यह पुस्तक यहाँ से प्राप्त करें.
रवीन्द्र त्रिपाठी, टीवी और प्रिट मीडिया के वरिष्ठ पत्रकार, फिल्म-,साहित्य-रंगमंच और कला के आलोचक, व्यंग्यकार हैं. व्यंग्य की पुस्तक `मन मोबाइलिया गया है’ प्रकाशित. राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की पत्रिका `रंग प्रसंग‘ और और केंद्रीय हिंदी संस्थान की पत्रिका `मीडिया ‘ का संपादन किया है. कई नाट्यालेख लिखे हैं. जनसत्ता के फिल्म समीक्षक और राष्ट्रीय सहारा के कला समीक्षक. वृतचित्र- निर्देशक. साहित्य अकादेमी और साहित्य कला परिषद के लिए वृतचित्रों का निर्माण. आदि tripathi.ravindra@gmail.com |
बहुत अच्छी समीक्षा।
सभ्यताएं नष्ट हो सकती है पर उनकी उपलब्धियां नष्ट नही होती। नालंदा नष्ट नही हुआ सिर्फ उस दौर की उसकी उपलब्धियों में बिखराव ही हुआ। उसकी उपलब्धि की निरन्तरता और अग्रवर्तिता हर काल मे दृष्टिगोचर होती रहेगी। अतीत का प्रत्येक आकलन इतिहास नही होता बल्कि यात्रा भी होती है, पढ़कर महसूस हुआ। जीवंत यात्रा की बधाई लेखक व अनुवादक को।