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समालोचन

Home » ऋत्विक घटक का जीवन और उनका फिल्म-संसार : रविभूषण

ऋत्विक घटक का जीवन और उनका फिल्म-संसार : रविभूषण

ऋत्विक घटक (1925–1976) की जन्मशती के अवसर पर उनके जीवन और फिल्मों पर आधारित यह विशेष आलेख प्रस्तुत किया जा रहा है. वरिष्ठ आलोचक रविभूषण ने उनकी फ़िल्मों की विशिष्टता को गंभीर संलग्नता के साथ रेखांकित करते हुए, उनके जीवन और सामाजिक परिवेश को भी उकेरा है. ऋत्विक का जीवन स्वयं एक ट्रैजिक फ़िल्म की तरह था. इस अवसर पर उनकी फ़िल्मों को देखकर हम उन्हें स्मरण कर सकते हैं. यह आलेख भी उसी दिशा में प्रेरित करता है. प्रस्तुत है.

by arun dev
June 27, 2025
in फ़िल्म
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ऋत्विक घटक का जीवन और उनका फिल्म-संसार : रविभूषण
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ऋत्विक घटक का जीवन और उनका फिल्म-संसार
रविभूषण

यह वर्ष महाश्वेता देवी (14.1.1926-28.7.2016) और ऋत्विक घटक (4-11-1925-6.2.1976) का जन्मशती वर्ष है. एक साथ चाचा-भतीजी की जन्मशती. बहुत कम परिवार होंगे, जिनकी चार-पाँच पीढ़ि‌याँ कला-साहित्य के प्रति इतना अधिक समर्पित हों. विजन भट्टाचार्य, महाश्वेता देवी, नवारुण भट्टाचार्य और ऋत्विक घटक से वे सब अवश्य परिचित हैं, जिनको कला, साहित्य, कविता, फिल्म, संस्कृति, नाटक, रंगमंच अभिनयादि से थोड़ा भी रिश्ता होगा.

ऋत्विक घटक के पिता सुरेशचन्द्र घटक राजशाही (अब बांग्लादेश में) में जिला मजिस्ट्रेट (डीएम) थे, कविताएँ और नाटक लिखते थे. राजशाही में उन्हें केवल अधिकारी रूप में ही नहीं, साहित्यिक रूप में भी जाना जाता था. ऋत्विक घटक और प्रतीति घटक जुड़वा भाई-बहन थे. दोनों समय से पहले जन्मे थे. वजन कम था. माँ इंदुबाला देवी और पिता सुरेश चंद्र घटक दोनों इनके जन्म के समय चिंतित थे. ऋत्विक सभी भाई-बहनों में सबसे छोटे थे. मनीष घटक सबसे बड़े भाई थे, महाश्वेता देवी के पिता. ऋत्विक घटक की आरंभिक शिक्षा मैमन सिंह मिशन स्कूल में हुई. तीसरी कक्षा से मैट्रिक तक की उनकी पढ़ाई कलकत्ता के बालीगंज गवर्नमेंट स्कूल में हुई. बचपन पूर्वी बंगाल के कई शहरों में बीता. उनका दिन पद्मा नदी के तट पर बीतता था. वे दिन अवज्ञाकारी और उदण्ड बच्चों के अपने दिन थे. यात्री-नौकों पर सवार लोग कम उम्र में उन्हें दूर ग्रह के प्राणियों की तरह लगते थे. उन्होंने अपने बचपन में पटना, बाँकीपुर, मुंगेर से आने वाले विशाल माल वाहक जहाजों के नाविकों को एक अनजानी भाषा में, जो उनके लिए विचित्र थी, बातें करते देखा और सुना था. यह जाना था कि यह ‘ग्रामीण टूटी-फूटी हिन्दी और पद्मा किनारे की बोलियों से बुनी हुई’ भाषा थी.

 

1)

छोटी उम्र से ही ऋत्विक ने कविताएँ लिखना आरंभ किया. फिर कहानियाँ लिखीं. कॉलेज के दिनों में राज‌शाही जैसी छोटी जगह से ‘अभिधारा’ नामक पत्रिका भी निकाली. 1948 में बहरामपुर के कृष्णनाथ कॉलेज से प्रथम श्रेणी में उन्होंने अंग्रेजी से ऑनर्स किया. कलकत्ता विश्वविद्यालय में एम. ए. अंग्रेजी में दाखिला लिया, पर यह समय इप्टा और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से गहरे, बहुत गहरे लगाव का था. कॉलेज जीवन में ही वे मार्क्सवाद से जुड़ चुके थे. ‘अभिधारा’ पत्रिका-‘मार्क्सवादी आग्रहों’ के साथ उन्होंने निकाली थी. 1943 के बंगाल अकाल के दौरान वे कलकत्ता आ गए थे. उस सम‌य उन्होंने दहला देने वाले और विचलित करने वाले जो दृश्य देखे-रोते हुए बच्चों के बगल में मृत पड़ी माताएँ, हर जगह क्षीण और भूख से तड़पते शरीर, उसने कभी उनका साथ नहीं छोड़ा. वे जीवन भर के लिए प्रेरणा बन गये. विभाजन के बाद परिवार 1947 में कलकत्ता आ गया, जहाँ उन्हें रिफ्यूजी का दंश झेलना पड़ा था. बचपन में ऋत्विक घटक ने ‘एक सम्पूर्ण और गौरवशाली बंगाल’ देखा था, जो कहीं बिला चुका था. ‘रोज़ एँड रोज़ ऑफ फेंसेज’ में उन्होंने लिखा-

“हमारे सपने धूमिल हो गए. हम ढहते हुए बंगाल से चिपक कर मुँह के बल गिर पड़े, उसकी सारी महिमा खो बैठे.”

ऋत्विक घटक ने अपनी रचनात्मक-कलात्मक गतिविधियों का आरंभ अपनी कुछ खराब लिखी कविताओं से माना है

“मुझे एहसास हुआ कि यह मेरी चाय का प्याला नहीं है. मुझे पता था कि मैं कविता के हजार मील के घेरे के आखिरी किनारे तक को भी कभी नहीं छू पाऊँगा”
(रमण सिन्हा के सुदीर्घ लेख ऋत्विक घटक की दुनिया : परंपरा और प्रयोग (आलोचना, 67, अक्टूबर-दिसम्बर २०२१ में उद्धृत )

उन्होंने कवि को ‘सब कलाकारों का आदिस्वरूप’ और कविता को ‘सब कलाओं की कला’ कहा है. कविता से वे कहानियों की ओर मुड़े.  उनकी कहानियों की संख्या लगभग सौ है. उन्होंने दो उपन्यास भी लिखे. बांग्ला  की प्रमुख पत्र पत्रिकाओं-‘देश’, ‘शनिबारे चिट्ठी’,‘नातून साहित्य’ आदि में उनकी कहानियाँ प्रकाशित हुईं-अपने ऐसे लेखन को उन्होंने ‘एक राजनीतिक व्यक्ति का अपने आस पास फैले अन्याय, बुराई और शोषण के खिलाफ प्रचंड प्रतिरोध दर्ज कराने की उत्कट इच्छा से प्रेरित’ माना है.

सुमंत बनर्जी ने उनकी फ़िल्मों में “बौद्धिक बहस, सामाजिक बुराइयों की तीखी आलोचना, रोमाँटिक और ट्रेजिक का स्वप्नवत् मिश्रण, स्वर्ण लोक की विराटपूर्ण चाह” आदि को उन‌की पूर्व लिखित कहानियों में भी देखा है. रमण सिन्हा उनके कहानीकार के दो चरणों पर विचार करते हैं-1947 से 1950 तक का पहला चरण और 1960 से 1970-71 तक का दूसरा चरण.  “दूसरे चरण में वे गागर में सागर भरने वाले औपनिषदिक कौशल के साथ सूक्ति व लघु कथा की तरह रचनाएँ करते हैं”. उनकी कहानियाँ पंजाब विभाजन पर भी हैं.

सत्यजित रे, चिदानन्द दास गुप्ता और बंशीचन्द्र गुप्ता ने मिलकर 5 अक्टूबर 1947 को ‘कलकत्ता सिने सोसायटी’ की स्थापना की थी, जिससे ऋत्विक घटक को लाभ मिला. वे इससे जुड़े. 1947 से 1954 के बीच उन्होंने एक साथ कई कार्य किये. कहानियाँ और नाटक लिखे, फिल्मों की पटकथा लिखीं, नाटकों और फिल्मों में अभिनय किया, निर्देशन किया, इप्टा और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के लिए सांस्कृतिक दिशा-निर्देश का मसौदा भी तैयार किया. साहित्य और संस्कृति के प्रति वे छात्र-जीवन से ही जागरुक थे. उन्होंने आज़ादी के नाम पर अपने लोगों पर ‘अकथ्य जुल्म होते’ देखा था. वे आजादी को ‘फर्जी’ और ‘शर्मनाक’ कहते थे.

कला के संबंध में उन‌की धारणा स्पष्ट थी कि जब समाज वर्गहीन नहीं है तो फिर कला वर्ग हीन कैसे होगी? उनके लिए प्रत्येक “कलाकृति सापेक्षिक है और वह इंसान से जुड़ी है”. आर्ट को उन्होंने ‘इंसान की बेहतरी’ से जोड़ा है. बीए. करते समय उन्होंने एक नाटक लिखा ‘कालो सायेर’ (1948) 1948 में ही ऋत्विक इप्टा से जुड़े. वे एक ‘माध्यम’ को छोड़कर दूसरे ‘माध्यम’ की ओर जाते रहे. साहित्य को उन्होंने ‘बेजोड़ माध्यम’ माना, पर इसका प्रभाव छोटे पाठक वर्ग तक सीमित था. उन्हें लगा कि साहित्य मनुष्य की आत्मा में गहराई से प्रवेश करता है, पर यह धीरे-धीरे अपना काम करता है. पाठक के अंदर जड़ें जमाने में उसे अधिक समय लगता है. उनमें एक किशोर-अधीरता थी. वे तुरंत प्रभाव डालना चाहते थे “क्योंकि मुझे लगा कि लोगों को तुरंत जगाया जाना चाहिए” इसके लिए रंगमंच कहीं अधिक प्रभावशाली माध्यम था. कविता-कहानी के बाद वे नाटक-रंगमंच की ओर आए. नाटक को उन्होंने साहित्य की तुलना में ‘अधिक सशक्त माध्यम’ माना है.

 

2)

सांस्कृतिक जागरुकता फैलाने के लिए इप्टा की स्थापना 1943 में हुई थी. और 1943 के बंगाल पर आधारित प्रसिद्ध नाटक ‘जबानबंदी’ था, जिसका निर्देशन ख्वाजा अहमद अब्बास ने किया था. इसके बाद आया विजन भट्टाचार्य  का ‘नवान्न’. ‘कालो सायेर’ नाटक. ऋत्विक ने उसका निर्देशन किया था और उसमें अभिनय भी. विजन भट्टाचार्य द्वारा लिखित ‘नवान्न’ नाटक का मंचन 1944 में शंभू मित्रा और विजन भट्टाचार्य के संयुक्त निर्देशन में हुआ था. ‘नवान्न’ में ऋत्विक अभिनेता की भूमिका में थे.

कवि और कथाकार के बाद ऋत्विक घटक नाटककार, अभिनेता और रंग-निर्देशक के रूप में भी उपस्थित हैं. गोर्की, शेक्सपियर, टैगोर, ब्रेष्ट, बीरु मुखोपाध्याय, द्विजेंद्रलाल रे, दीनबंधु मित्र, वनफूल, पानू पॉल, सुकुमार राय के कई नाटकों का उन्होंने मंचन किया और उनमें अभिनय भी किया. टैगोर और शेक्सपियर को एक साथ रखा. ‘कोमल गांधार’ और ‘सुवर्णरेखा’ टैगोर के लेखन पर आधारित है. फिल्मकार से पहले वे रंग-निर्देशक थे. उत्पल दत्त के निर्देशन में ऋत्विक घटक ने ‘ऑफिसर’, ‘दलीत’, ‘शांको’ में अभिनय किया. नाटकों में ‘सेई मेये’ (वह लड़की) का महत्व इस अर्थ में है कि 1969 में इसका मंचन मानसिक चिकित्सालय में, सहयोगियों, डॉक्टरों और नर्सों के साथ मिल कर किया गया था. पहली बार एक मनोरोगी की कहानी का मंचन एक मनोरोगी ने अन्य मनोरोगियों के साथ किया था. लिखा ऋत्विक घटक ने ही और निर्देशक भी वहीं थे.

1950 में जादवपुर विश्वविद्यालय के एक प्रतिष्ठित प्रदर्शन में 8 हजार से अधिक दर्शक मौजूद थे. ऋत्विक घटक को लगा कि वे रंगमंच के जरिये दस हजार लोगों तक ही पहुंच सकते हैं. दूसरे, इसमें सामू‌हिक मिहनत भी अधिक होती है. उन्होंने और अधिक लोगों तक फिल्म जैसे सशक्त माध्यम के जरिए पहुंचना ठीक समझा. एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा है कि उन्हें फिल्म माध्यम से अधिक लगाव नहीं है. वे अपने आस‌पास की वास्तविकता के बारे में जो महसूस करते हैं, उसे व्यक्त करना चाहते हैं, चिल्लाना चाहते हैं और इसके लिए उन्हें सिनेमा ‘आदर्श माध्यम’ लगता है क्योंकि एक बार फिल्म बन जाने के बाद यह असंख्य लोगों तक, अरबों लोगों तक पहुंच सकता है. उन्होंने अपने लिए नहीं, अपने लोगों के लिए फिल्में बनाने की बात कही है. उस समय उन्हें लगा था कि फिल्म का स्थान बाद में टेलीविजन ले सकता है. तब वह सिनेमा को किनारे कर टीवी की ओर रुख करेंगे.

इक्यावन वर्ष की अवस्था में 1976 में ऋत्विक घटक का निधन हो गया. बम्बई में 1953 में  इप्टा के सातवें अखिल भारतीय सम्मेलन में उनकी भेंट सुरमा भट्टाचार्य से हुई. सुरमा ने बारह वर्ष की अवस्था में अपनी माँ को खोया था. पिता कुमुदरंजन भट्टाचार्य एक बैंकर और शिलांग लिटरेरी सोसायटी के संपादक थे, जिन्होंने अपनी बेटी का पालन पोषण उस समय की अन्य लड़कियों से अलग रूप में किया था. सुरमा ऋत्विक से एक वर्ष बड़ी थी. वह कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ी थी, 1949 में भूमिगत हो गई थीं और इसी वर्ष 1949 में उन्हें गिरफ्तार किया गया था. 1951 में वे जेल से रिहा हुईं. उनके पिता ने बाद में उन्हें कलकत्ता भेज दिया. सुरमा की ऋत्विक से भेंट उनकी मौसी साधना राय चौधरी के माध्यम हुई जो एक्टर और कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्य थीं.  ऋत्विक और सुरमा दोनों एक दूसरे के प्रति आकर्षित हुए और 8 मई 1955 को दोनों ने विवाह कर लिया. सुरमा को प्यार से ‘थम्मा’ कहा जाता था.

ऋत्विक घटक ने पहली बार 1950 में निमाई घोष द्वारा निर्देशित बांग्ला फिल्म ‘छिन्न मूल’ में अभिनय किया. निमाई घोष निर्देशक के साथ-साथ छायाकार भी थे. गंगापद वसु, विजन भट्टाचार्य और शोभा सेन के साथ इस फिल्म में ऋत्विक घटक ने भी अभिनय किया था. यह स्वर्ण कमल भट्टाचार्य द्वारा लिखित 117 मिनट की फिल्म थी.

Chinnamul (1950) Russian movie poster.

विभाजन से जुड़ी यह पहली भारतीय फिल्म है. इस बांग्ला फिल्म के बारे में जानकर प्रसिद्ध रुसी निर्देशक वसेवोलौंड पुडोवकिन इसे देखने कलकत्ता आये थे. कलकत्ता में उन्होंने यह फिल्म देखी और इसके प्रिंट्स रूस ले गए, रुस के 188 सिनेमा घरों में रूसी दर्शकों ने यह फिल्म देखी. इस फिल्म में ऋत्विक अभिनेता की भूमिका में थे. सहायक निर्देशक की भूमिका में भी.

दो वर्ष बाद 1952 में उनकी पहली ‘नागरिक’ आई, जो उनके निधन के बाद 20 सितंबर 1977 को कलकत्ता के न्यू अंपायर हॉल में रिलीज हुई. उन्होंने इसकी कथा, पटकथा लिखी थी, इसका निर्देशन किया.

ऋत्विक घटक ने अच्छे सिनेमा को ज़िंदगी से हमेशा जोड़ कर देखा है. सिनेमा उनके लिए कला-माध्यम नहीं था. उसे उन्होंने अपने ‘लोगों की सेवा करने का एक जरिया’ मात्र माना है. वे अपने को समाजशास्त्री नहीं मानते थे और न उन्होंने कभी ऐसा कोई भ्रम पाला कि

“मेरा सिनेमा लोगों को बदल सकता है. कोई एक फिल्म मेकर लोगों को नहीं बदल सकता है.  लोग बहुत विशाल हैं और वे अपने आप को खुद बदल रहे हैं. मैं चीजें नहीं बदल रहा हूँ, जो भी बड़े बदलाव हो रहे हैं, मैं सिर्फ उन्हें दस्तावेज कर रहा हूँ.”

सिनेमा पर उनके विचार, उनके निधन के पश्चात् ऋत्विक मेमोरियल ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘सिनेमा एँड आई’ में है. वे बम्बई में लगभग साढ़े तीन वर्ष रहे थे. अपने मित्र सलिल चौधरी के आमंत्रण पर वे बम्बई गये थे. वहाँ उन्होंने फिल्मिस्तान स्टूडियो में पटकथा लेखक के रूप में कार्य किया था. फिल्मिस्तान स्टूडियो के मालिक शशिधर मुखर्जी और उनके बीच विषय-चयन को लेकर मतभेद रहता था. यहाँ उन्होंने हृषीकेश मुखर्जी की पहली फिल्म ‘मुसाफिर’ और विमल राय की फिल्म ‘मधुमती’ की पटकथा लिखी थी. ‘मुसाफिर’ में तीन कहानियाँ एक कहानी में बाँधी गयी थी और ‘मधुमती’ में पुनर्जन्म की कथा कही गयी. कलकत्ता के उनके कुछ मित्र-सलिल चौधरी, केष्टो मुखर्जी, हृषीकेश मुखर्जी बम्बई में थे, पर यहाँ बम्बई में वे अपनी इच्छा के अनुसार कुछ कर नहीं सकते थे.

वे जिस युग में पैदा हुए थे, उसे उन्होंने ‘धोखेबाज’ कहा है. विभाजन ने उन पर बहुत गहरा प्रभाव डाला था. उन्होंने कांग्रेस और मुस्लिम लीग को ‘देश को एक विनाशकारी स्वतंत्रता में विभाजित’ करने का अपराधी माना था, जिससे पद्मा और गंगा का पानी लाल हो गया. घटक ने अपने प्रिय बंगाल के खूनी विभाजन को, विभाजित इतिहास को कभी दिल से नहीं स्वीकारा. उनका जीवन कई रूपों और स्तरों पर ‘ट्रैजिक’ रहा है. वे जिस कम्युनिस्ट पार्टी से पूरी तरह जुड़े रहे, वहाँ से ही नहीं, इप्टा से भी निष्कासित किए गए.

1951 में उनके द्वारा लिखित इप्टा का पहला दस्तावेज ‘ड्रॉफ्ट ऑफ द पालिसी प्रिंसिपल्स ऑफ इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन’ कम्युनिस्ट पार्टी की वी.टी. रणदिवे समय की नीतियों से पूरी तरह मेल नहीं खाता था, जिससे इसे अस्वीकार किया गया और उन पर अनेक बेबुनियाद आरोप लगाये गये. दूसरा दस्तावेज-‘आन द कल्चरल फ्रंट’ कम्युनिस्ट पार्टी के समक्ष 1954 में प्रस्तुत किया गया था, जिसमें पार्टी की सांस्कृतिक नीतियों की आलोचना थी. यह दस्तावेज आज भी महत्वपूर्ण है. इसमें मार्क्सवाद का अध्ययन भारतीय परिस्थितियों के संदर्भ में करने पर बल दिया गया था. इप्टा से उन्हें 1954 में और पार्टी से 1955 में निकाला गया. उन्हें त्रात्स्कीवादी कहा गया. बम्बई में वे अधिक समय तक नहीं रहे. कलकत्ता वापस आ गये.

 

३)

सिनेमा उनके लिए ‘एक अभिव्यक्ति’ था, ‘अपने लोगों के कष्टों और दुःखों को लेकर अपना गुस्सा जाहिर करने का माध्यम’. पॉलिटिक्स की उनके यहाँ अधिक अहमियत थी. “क्या मैं भारत का पहला और एक‌मात्र पोलिटिकल फिल्म मेकर हूँ ? विस्तृत संद‌र्भ में कहूँ तो मेरी सारी फिल्में पॉलिटिकल हैं. जैसे कि हर आर्ट होता है, हर आर्टिस्ट होता है.” वे ‘आर्ट’ में कुछ भी ‘आधुनिक’ नहीं मानते थे. जो बहुत ‘आधुनिक’ कर देने का श्रेय लेता है, उसे उन्होंने मूर्ख कहा है. आर्ट के निरन्तर स्वरूप बदलते रहने की वे बात करते हैं और यह मानते हैं कि प्रत्येक स्वरूप के साथ प्रयोग हो चुके हैं,उन्हें लागू किया जा चुका है और खपाया भी जा चुका है. टैगोर ने आर्ट को ‘ब्यूटीफुल’ कहा है, ऋत्विक घटक उसे ‘ट्रूथ फुल’ यानी सच्चा होना कहते थे.

“हर आर्टिस्ट को एक दर्दभरी निजी प्रक्रिया से गुजरने के बाद अपना खुद का सच समझना होता है. और यही है, जो उसे अभिव्यक्त करता है.”

क्या मुक्तिबोध और ऋत्विक घटक पर एक साथ थोड़ा ही सही, हम विचार नहीं कर सकते? मुक्तिबोध ने सृजन-कला के तीन क्षणों पर विचार किया है और डेरियस कूपर (सैन डिंएँगो मेसा कॉलेज कैलिफोर्निया में मानविकी में क्रिटिकल थिंकिंग के अध्यापक) ने वेब आधारित फीचर पत्रिका-‘द बीकन’ में अपने लेख-ऋत्विक घटक की ‘मिथिक बंजर भूमि‘ में ऋत्विक के लिए कला को तीन या उससे भी अधिक स्तरों पर पारम्परिक, गहरे और अधिक गहरे स्तर पर प्रस्तुत् होने की बात कही है.

तीसरे स्तर पर गंभीर दार्शनिक स्वर और अंतर्ध्वनियों का सामना करना होता है, जिसे ऋत्विक घटक ने ‘अज्ञात की दहलीज’ कहा है. उनके सिनेमा को समझने के लिए अज्ञात की इस दहलीज तक जाना आवश्यक है. फ़िल्म देखने को उन्होंने ‘एक तरह का संस्कार’ कहा है

“जब बत्तियाँ बुझ जाती हैं, परदे जिंदा हो जाते हैं, तो सब दर्शक एक हो जाते हैं. ये एक समुदाय वाली भावना हो जाती है. हम इसकी तुलना चर्च, मस्जिद या मंदिर जाने से कर सकते है.” वे फिल्मों में पैसे कमाने नहीं गये. उनका वहाँ जाना “कष्टों में जी रहे मेरे लोगों को लेकर मेरी पीड़ा और व्यथा को जाहिर करने की इच्छा के कारण था. उनका ‘एँटरटेनमेंट’ में विश्वास नहीं था. उनके हिसाब से बम्बई के सिनेमा की कोई जड़ें नहीं है.”

बंबई से कलकत्ता आने के बाद ऋत्विक घटक ने प्रत्येक वर्ष एक फिल्म बनाई. ‘अजान्त्रिक’ (1957–58), ‘बाड़ी थेके पालिए’ (1959), ‘मेघे ढाका तारा’ (1960) ‘कोमल गांधार’ (1961) और सुवर्ण रेखा (1962). 1951 से 1976 के बीच के 25-26 वर्षों में शायद ही कोई वर्ष हो जिसमें उन्होंने कुछ नहीं किया. पचास के दशक से सत्तर के दशक के मध्य तक तमाम प्रतिकूल स्थितियों के बावजूद उनका जो रचनात्मक कर्म है, वह कम विस्मयकारी नहीं है. अनुवाद और नाट्य लेखन को छोड़कर अगर केवल फिल्मों पर ही ध्यान दें तो इस अवधि में उनका निर्देशन,पटकथा लेखन, अभिनय, लघु फिल्में एवं वृत्त-चित्र कम नहीं हैं. दो फीचर फिल्में-‘तितास एक टी नदीर नाम’ (1973) और  ‘तोक्को आर गप्पो’’ (1974) सत्तर के दशक की है.

वे मुसाफिर (1957), मधुमती (1958), ‘स्वर लिपि’ (1960), ‘कुमारी मोन’ (1962), ‘दीपेर नाम टिया रोंग’ (1963) और ‘राज कन्या’ के पटकथा लेखक हैं. उन्होंने ‘तथापि’ (1950, मनोज भट्टाचार्य द्वारा निर्देशित), ‘छिन्न मूल’ (1951)-‘कुमारी मन’ (1962), ‘सुवर्ण रेखा’ (1962)-‘तितास एक टी नदीर नाम’ (1973)  ‘जुक्ति, तोक्को आर गप्पो’,में अभिनय किया. ऋत्विक घटक की 11 लघु फिल्में और वृत्त चित्र हैं-‘ द लाइफ ऑफ दी आदिवासिस’ (1955), ‘प्लेसेस ऑफ़ हिस्टोरिक इंटरेस्ट इन बिहार’ (1955),‘सीजर’ (1962),‘फीयर’ (1965), ‘ऍन्डेयूज़’ (1965), ‘सिविल डिफेंस’ (1965), ‘कल के वैज्ञानिक’ (1967), ‘ये क्यों’ (1970), ‘अमार लेनिन’ (1970), ‘पुरुलियार छऊ’ (1970) और ‘दुर्बार घाटी पद्मा’ (1971).  उनकी कई अधूरी फिल्में और वृत-चित्र हैं-‘बेदेनी’ (1951),’कोतो आजानारे’ (1959), ‘बोंगोलार बोंगोदर्शो’ (1964-65), ‘रोंगेर गोलाम’ (1968), ‘रामकिंकर’ (1975). उनकी कई पटक‌थाएँ शूटिंग से पहले ही बंद कर दी गयीं-‘ओकाल बोसोंतो’ (1957), ‘अमृतो कुम्भेर सोंधाने’ (1957), ‘अर्जन सरदार’ (1958), ‘बोलिदान’ (1963), ‘अरोन्यक’ (1963) ‘श्याम से नेहा बागी’ (1964), ‘संसार सिमानते’ (1968),  ‘नदीर माँझी’, ‘नोतून फोसोल’, ‘राजा’, ‘सेई विष्णु प्रिया’, ‘प्रिंसेस कोलाबोती’ और ‘लोज्जा’.

ऋत्विक घटक से हिंदी के कुछ कवियों लेखकों का-गिरधर राठी, मंगलेश डबराल, आनंद स्वरूप वर्मा, विनोद भारद्वाज, विष्णु खरे, पंकज सिंह, अजय सिंह आदि का संबंध-संपर्क था. मंगलेश ने भारतीय सिनेमा में उनके गहरे और मौलिक योगदान का उल्लेख अपने लेख ‘ऋत्विक घटक की दो नई फिल्में’ में किया है. यह दो अधुरी फिल्में थीं- ‘बांग्लार  बंगदर्शन’ और ‘रेंजर गुलाम’. ‘रेंजर गुलाम’ 1968 में शुरू हुई थी, जो पूरी नहीं हो सकी. नेशनल फ़िल्म आर्काइव ऑफ इंडिया (एन एफ ए आई)  ने ‘रेंजर गुलाम’ के फुटेज को 2016 में अपने संग्रह में शामिल किया और ‘बांग्लार बंगदर्शन’ को भी. इनके उपलब्ध हिस्सों को सम्पादित कर ऋत्विक मेमोरियल ट्रस्ट ने नये प्रिंट बनाये और ‘मूल पटकथा से कहानी के सूत्र लेकर उन्हें एक तरतीब दी थी’. इन दोनों फिल्मों का ट्रस्ट ने परिष्कार और सम्पादन किया. मंगलेश ने इन दोनों फिल्मों से ऋत्विक की फिल्म-कला के नये आयाम के प्रकट होने की बात कही है-ये दोनों फिल्में इटली के पिसारो फिल्म समारोह में प्रदर्शित की गयीं.

ऋत्वान घटक (ऋत्विक घटक के पुत्र) के अनुसार वहाँ ये न सिर्फ बहुत सराही गयीं बल्कि सिनेमा की अकादमिक बहसों के केन्द्र में भी रहीं. मंगलेश ने इन दोनों फिल्मों पर विचार किया है. इन फिल्मों में ऋत्विक घटक एक भिन्न रूप में हैं-‘हास्य-व्यंग्य और विद्रूप दिखलाने वाले घटक’ ‘बांग्लार  बंगदर्शन’ 1964 की फिल्म है और ‘रंगेर गुलाम’ 1968 की. ‘बांग्लार  बंगदर्शन’ के उपलब्ध अंश मात्र पन्द्रह दिनों में फिल्माये गये थे और ‘रंगेर गुलाम’ के मात्र बीस मिनट के रशेज उपलब्ध थे. मंगलेश ऋत्विक को ‘अपना आदि फिल्मकार’ कहते हैं, जिनकी फिल्मों ने-“फिल्म-विधा में चिंतन के, काव्यात्मक संवेदना के, लोकजीवन की पहचान के और फिल्म भाषा की सैद्धांतिक समझ के रास्ते खोले.” ऋत्विक ने फिल्म की विशेषताओं को अपनी इस टिप्पणी से स्पष्ट किया है–“कच्चा माँस बिल्कुल मुगलई कबाब नहीं है. रसोइया कहीं बीच में आता है.”

‘फ़िल्म और मैं’, में ऋत्विक ने लिखा है-‘मेरी पहली फिल्म को अठारहवीं सदी के स्पेनिश उपन्यास गिल ब्लास डी सैंटिलाने की तर्ज पर एक पिकारेस्क एपिसोडिक फिल्म कहा गया था, दूसरी को वृत-चित्र दृष्टिकोण की फिल्म कहा गया था; अगली एक मेलोड्रामा थी और चौथी, कुछ भी नहीं, बस कोई फिल्म नहीं थी.’

गिल ब्लास 1715 और 1735 के बीच प्रकाशित  एलेन-रेने लेसेज का एक चित्रात्मक उपन्यास है, जिसका मूल शीर्षक ‘हिस्टोइदे डी गिल ब्लास डी सैंटिलान’ है. यह उपन्यास अधिक लोकप्रिय था, जिसका कई बार अंग्रेजी में अनुवाद हुआ था. ऋत्विक घटक के सिनेमा के संबंध में की गई ऐसी प्रतिक्रिया और टिप्पणी यह प्रमाणित करती है कि आरंभ में बंगाल के सिने समाज में उनकी फिल्में स्वीकृत नहीं थी. उन्होंने सभी प्रकार के सिनेमाई नियमों को तोड़ा और अपने समय के फैशन का विरोध किया. ‘मेघे ढाका तारा’, ‘कोमल गांधार’ और ‘सुवर्ण रेखा’ विभाजन के सामाजिक आर्थिक निहितार्थों के इर्द-गिर्द बनी एक त्रयी है. ‘सुवर्ण रेखा’ और ‘कोमल गांधार’ बॉक्स ऑफिस पर पूरी तरह असफल रही थी. आरंभ में कुछ दिनों तक ‘कोमल-गांधार’ बॉक्स ऑफिस पर सफल रही थी. पार्थ चटर्जी ने  ‘ऋत्विक घटक की स्मृति में’ लिखे लेख में यह लिखा है कि “उन्हें उनके जीवन-काल में कम बदनाम नहीं किया गया था. कलकत्ता में यह माना जाता है कि कम्युनिस्टों और कांग्रेस ने मिलकर उन्हें खत्म किया.

‘कोमल गांधार’ की बॉक्स ऑफिस क्षमता देखकर दोनों पार्टियों के गुंडों ने बड़ी संख्या में टिकट खरीदे और मजा लिया. दृश्यों के दौरान जोर-जोर से रोना और गंभीर दृश्यों पर ठहाके लगाकर दर्शकों को परेशान किया. दर्शक अलग-थलग पड़ गए और पहले हफ्ते में अच्छी कमाई के बाद दर्शकों की संख्या में नाटकीय रूप से गिरावट आई. फिल्म को वापस लेना पड़ा. सह निर्माता होने के कारण उन्हें वित्तीय नुकसान का बोझ उठाना पड़ा, जिसने उन्हें तोड़ दिया. इसके तुरंत बाद ही वे शराब की लत में पड़ गए.” ‘सेंसेज ऑफ सिनेमा’ में मेगन कैरीगी ने लिखा है-

“ऐसा लगता है कि सिनेमा को भी विभाजन के दाग उतने ही झेलने होंगे जितने किसी व्यक्ति या राष्ट्र-राज्य को.”

 

4)

ऋत्विक घटक ने आरंभ में ही फिल्म निर्माता बनने के लिए महान रुसी फिल्मकार सर्जेई आइजेंस्टाइन की फिल्म ‘बैटलशिंप पोटेमकिन’ (1925) देखी, जिसे स्टालिन ने प्रतिबंधित कर दिया था कि यह फिल्म  उनके शासन के खिलाफ दंगे भड़का सकती है. आइजेंस्टाइन का महत्व फिल्म-सम्पादन में ‘मोंटाज-सिद्धान्त’ को विकसित और लागू करने से है, जहाँ विभिन्न शॉट्स को एक साथ जोड़कर एक नया अर्थ बनाया जाता है. मोंटाज सिद्धान्त ने फिल्म निर्माण और समझ के तरीकों को आकार दिया. घटक ने पुडोवकिन्स की ‘मदर’ (1926) और चेक फिल्म निर्देशक ओटाकार वारवा की विज्ञान फिक्शन रहस्य फिल्म ‘क्रैकटिट’ (1948) और नेमा बारिक दा (1949) फिल्म देखी, जिसने उन्हें प्रेरित किया. उस समय फिल्म संबंधी प्रमुख पुस्तकें पेंगुइन सीरीज में प्रकाशित हो रही थीं, जिनमें से कुछ पुस्तकें उन्होंने खरीद कर पढ़ीं. फिल्म-संसार में प्रवेश के पहले घटक महान फिल्मकारों की फिल्में देख रहे थे और महत्त्वपूर्ण पुस्तकें पढ़ रहे थे, जिसका उन्होंने उल्लेख किया है.

उन्होंने सर्जेई आइजेंस्टाइन की पुस्तक ‘द फिल्म सेंस’ (1943), पुडोव किन की पुस्तक ‘फिल्म टेकनीक एँड फिल्म एक्टिंग’ (1929) पढ़ी, जो फिल्म निर्माण के विषय पर दो खंडों- ‘फिल्म तकनीक’ और ‘फिल्म अभिनय’ में विभाजित है. पेंगुइन सीरीज में अंग्रेजी फिल्म निर्माता और पटकथा लेखक आइवर मौटेंगू की पुस्तक ‘फिल्म वर्ल्ड : ए गाइड टू सिनेमा’ (चार खंडों में-विभाजित) और हगोरियन फिल्म सिद्धान्तकार बेला बालाज का प्रारंभिक फिल्म सिद्धान्त ‘विजिबलू मैन’ (1924) और ‘द स्पिरिट ऑफ फिल्म’ (1930) पढ़ी. वे जिन फिल्मों को देख रहे थे, उनमें कई फिल्में भारत में प्रतिबंधित थीं. इन फिल्मों और पुस्तकों ने उनकी आँखों के सामने एक नई दुनिया खोल दी.

भारत के पहले फिल्म महोत्सव (बम्बई, 1952) में 40 फीचर फिल्में और 100 लघु फिल्में दिखायी गयी थीं. इस पहले फिल्म महोत्सव में ऋत्विक घटक ने इतालवी नव यथार्थवादियों को देखा.  इतालवी नव यथार्थवाद द्वितीय विश्व युद्ध के बाद इटली में यथार्थवादी कहानियों और फिल्माँकन तकनीकों पर केंद्रित एक फिल्म आंदोलन था. इनमें रॉबर्ट रोसेलिनी (रोम, ओपन सिटी, 1945, पैसान, 1946, जर्मनी, ईयर जीरो, 1948), विटोरियो डी सिका (बायसाइकिल थीव्स, 1948,उम्बर्टो डी, 1952) फेडेरिको फेलिनी (ला स्ट्राडा, 1954 आई विटेलोनी) प्रमुख थे.  इन निर्देशकों के अलावा लुचिनो विस्कोंटी‌ भी इतालवी नव यथार्थवाद के एक प्रमुख व्यक्ति थे. अब ऋत्विक के सामने एक नया फिल्म संसार था.

उन्होंने रुसी फिल्मकार सर्जेई आइजेंस्टाइन और वेसेवोलोड पुडोवकिन को दुनिया के पहले फिल्म सिद्धान्तकारों में महत्त्वपूर्ण माना है. आइजेंस्टाइन ने अभिव्यक्ति का एक नया माध्यम दिया. घटक ने दुनिया भर के फिल्म निर्माताओं पर विशेष रूप से आइजेंस्टाइन का कर्ज माना है. दुनिया में जितनी महान फिल्में थीं और जितने महान् फिल्मकार थे सबको उन्होंने देखा, पढ़ा और समझा. उनकी राय में सोवियत फिल्म निर्देशक सर्गेई युक्तेविच और स्पेनिश फिल्मकार लुई बुनुएल सबसे महान हैं.फिल्म के जापानी स्कूल में उन्होंने अकीरा कुरोसावा के अलावा मिजोगुची, ओजू, तनाका जैसे निर्देशकों के साथ युवा निर्देशक नागिसा ओशिमा की प्रशंसा की है. दक्षिण अमेरिका में लियोपोल्ड टोरे निल्सन, ग्रीस के माइकल कैकोयनिस, स्वीडन के इंगमार बर्गमन उनके प्रिय रहे. ऋत्विक घटक ने ‘कीटाणु रहित यथार्थवाद’ से अधिक प्रभावित न होने की बात कही है-उन्हें अश्लील फिल्में क्रोधित करती थीं.

 जेकब लेविच का ऋत्विक घटक पर एक लेख ‘उप महाद्वीपीय विभाजन : ऋत्विक घटक’ फिल्म कमेंट’ के मार्च-प्रैल 1997 के अंक में प्रकाशित हुआ था. इसमें उन्होंने घटक को ‘एक प्रतिबद्ध मार्क्सवादी, जुंगियन, कभी-कभी उपन्यासकार और कुख्यात आत्म-विनाशकारी शराबी’ कहा है. सत्यजित रे का जहाँ भारतीय सिनमा में अन्तरराष्ट्रीय बाजार पर एक प्रकार का कब्ज़ा था, वहाँ ऋत्विक ने अपनी फ़िल्मों को वित्त पोषित करने के लिए संघर्ष किया. उनकी कोई फिल्म कभी ‘हिट’ नहीं हुई. ‘अजांत्रिक’ की सफलता मामूली थी, ‘नागरिक’ (1952) को एक कम्युनिस्ट फिल्म होने के कारण पुरस्कारों की दौड़ से बाहर होना ही था. इस फिल्म के पीछे उनका इप्टा के साथ किया गया कार्य था.

सत्यजीत रे की ‘पाथेर पांचाली’ से यह फिल्म पहले बनी थी. इस फिल्म में एक  मध्यवर्गीय बंगाली परिवार की कथा है जो विभाजन के बाद के समय में आर्थिक तंगी और सामाजिक उथल-पुथल से जूझ रहा है. ऋत्विक के निधन के बाद यह फिल्म रिलीज़ हुई थी. यह अनुमान किया जा सकता है कि  अगर यह-‘पाथेर पांचाली’ के पहले रिलीज हुई होती तो इसे अधिक महत्व प्राप्त होता. इसमें उनकी कलात्मक दृष्टि और सामाजिक प्रतिबद्धता एक साथ है. चिदानन्द दास गुप्ता ने इसमें बांग्ला-सिनेमा की रुढ़िग्रस्तता देखी, जो अधिकांश में ‘रंगमंच’ का अनुकरण था. इस पहली फिल्म में ‘विभाजन, विस्थापन और शरणार्थी’ की पीड़ा है जिससे ऋत्विक कभी मुक्त नहीं हुए. समानांतर सिनेमा के विकास में इसे एक महत्वपूर्ण फिल्म माना गया. घटक के अनुसार ‘नागरिक’ एक ‘राजनीतिक बयान’ है. उनकी जन्मशताब्दी में उनकी ‘पीड़ा भरी आत्मा और उनके समय की गहराई’ को समझने की गंभीर कोशिश हो रही है. ऋत्विक की फ़िल्में उनके समय की सत्य  गाथा हैं. उनके सामने सदैव संकटों का एक झरना था. अपने बांग्ला लेख ‘अमर छोबी’ (‘मेरी फ़िल्में’ ‘शारदीय’ फिल्म पत्रिका में प्रकाशित) में उन्होंने लिखा है-

“दूसरा विश्व युद्ध हुआ, 1943 का बंगाल का भयंकर अकाल पड़ा, 1947 में कांग्रेस पार्टी और मुस्लिम लीग ने देश को दो हिस्सों में विभाजित करके और उसे पूरी तरह बर्बाद करके खंडित स्वतंत्रता प्राप्त की. इसके बाद हिन्दुओं और मुसल‌मानों के बीच साम्प्रदायिक युद्धों का दौर शुरू हुआ. गंगा और पद्मा नदियों का पानी भाईचारे की हत्याओं के खून से लाल हो गया. हमने इसे अपनी आँखों से देखा हमारे सपने धूमिल हो गए. हम एक दयनीय और जर्जर बंगाल को पकड़कर गिर पड़े. यह बंगाल क्या है-जहाँ गरीबी,अनैतिकता, हमारे नियमित साथी हैं. जहाँ कालाबाजारी करने वाले और बेईमान राजनेता राज करते हैं,जहाँ मानवता आतंक और संकट में जीने के लिए अभिशप्त है”

इन पंक्तियों से बंगाल के स्थान पर भारत को रख कर ऋत्विक का महत्व इस समय हम देखें और समझें. सत्यजित रे ने एक बार कहा था कि यदि ‘नागरिक’ उनकी ‘पाथेर पांचाली’ से पहले रिलीज हुई होती तो ‘नागरिक’ को बंगाली सिनेमा के वैकल्पिक रूप की पहली फिल्म के रूप में स्वीकार किया जाता. ऋत्विक घटक की मृत्यु के बाद दिये गये एक स्मारक व्याख्यान में सत्यजीत रे ने यह कहा था “ ऋत्विक दिल और आत्मा से बंगाली निर्देशक थे, एक बंगाली कलाकार, जो मुझसे कहीं ज्यादा बंगाली थे. मेरे लिए उनके बारे में यही आखिरी शब्द है और यही उनकी सबसे मूल्यवान और विशिष्टता है.”  शम्पा बनर्जी ने ‘बंगाल की यादें और एक विजन’ में यह लिखा है.

 

5)

1965 ऋत्विक घटक के जीवन का एक महत्वपूर्ण वर्ष है, जब पुणे के भारतीय फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान में वे उप प्राचार्य बने और उन्हें इसके पहले एक नया जीवन साथी (मीरा जाना) मिला. इस संबंध में उन्होंने पत्नी सुरमा को पत्र लिखा. सुरमा को अपने पति का मीरा जाना से संबंध अच्छा नहीं लगा वे कलकत्ता छोड़ कर शिलांग चली गयी और ऋत्विक अकेले पुणे गए. पुणे के फिल्म संस्थान में वे लगभग दो वर्ष रहे. यह उनके जीवन का सर्वोत्तम वर्ष था. उन्होंने यहाँ नया पाठ्यक्रम बनाया और एक नयी पीढ़ी तैयार की. मणि कौल, कुमार शहानी, अदूर गोपाल कृष्णन, जॉन अब्राहम, सईद मिर्जा ऋत्विक का शिष्य होने में हमेशा गर्व करते रहे. उनके विख्यात शिष्यों ने फिल्म-संसार में अपनी छाप छोड़ी. ऋत्विक फिल्मकारों के अकेले महागुरु हैं, जो न सत्यजित रे हैं, न मृणाल सेन. शायद ऋत्विक घटक को छोड़‌कर ऐसा कोई भारतीय फिल्मकार नहीं है, जिसने फिल्म-जगत में शिष्यों के रूप में ऐसे हीरे मोती दिये हों. उनके महान शिष्यों और अन्य फिल्मकारो ने उनके संबंध में जो कहा और लिखा है, उसे इस जन्मशती वर्ष में पुस्तकाकार रूप में आना चाहिए.

मीरा जाना एक बच्चे की माँ थीं. उन्होंने ऋत्विक को परिवार के साथ रहने की सलाह दी. बाद ‌में ऋत्विक का सुरमा से विच्छेद हुआ और सुरमा अपनी तीन संतानों-पुत्र ऋत्वान घटक और दो बेटियाँ-संहिता, और सुचिस्मिता के साथ अपने पिता के घर चली गयीं. पुणे में रहते हुए घटक ने विद्यार्थियों के प्रशिक्षण के लिए दो छोटी फिल्में-फीअर, (1965, 15 मिनट की) और रेन्देवू (1965, 13 मिनट की ) बनाई. पुणे में लगभग दो वर्ष रहने के बाद वे 1967 में कलकत्ता लौटे.

यहाँ उनकी हालत और भी खराब हुई. मानसिक रूप से से वे विक्षिप्त होते गये. 1969 में उन्हें एक मानसिक चिकित्सालय में भर्ती कराया गया. यहाँ रोगियों का इलाज क्रूर ढंग से किया जाता था. प्रत्येक दिन कई इंजेक्शन दिए जाते थे, जिससे वे बेहोश होते थे. लेकिन इलेक्ट्रिक शॉक ‘थेरेपी’ का पत्नी सूरमा ने विरोध नहीं किया था. सरकारी हस्तक्षेप के बाद वैसा इलाज रुका. घर लौटने के बाद वे पहले की तरह ही जीने और रहने लगे. पत्नी का उन पर कोई वश नहीं रहा. वे उन्हें अकेले छोड़कर सैंथिया चली गयी. वहाँ उन्होंने एक स्कूल में पढ़ाना आरंभ किया. पत्नी और बच्चों से अलग हो जाने के बाद वे कल‌कत्ता के अपने साथी विश्वजीत चटर्जी के परिवार के साथ रहे. अपने परिवार से उन‌का संबंध बना रहा. सैंथिया में ही उन्होंने ‘तितास एकटि नदीर नाम’ और ‘जुम्ति, तक्को आर गप्पो’ की पटकथा पर कार्य आरंभ किया. इसके फिल्माँकन के लिए वे बांग्लादेश गये, जहाँ उनकी हालत और खराब हुई. इन्दिरा गांधी उनकी प्रशंसिका थी. उन्होंने अपना निजी  हेलीकाप्टर भेजा और वे कलकत्ता आए. कलकत्ता के मेडिकल कॉलेज अस्पताल में उन्हें भर्ती किया गया. उन्होंने रामकिंकर बैज पर डॉक्युमेंटरी बनाना आरंभ किया था, जो अधूरा रहा. कलकत्ता के मेडिकल अस्पताल में ऋत्विक घटक का निधन 6 फरवरी 1976 को हुआ.

भारत सरकार ने ऋत्विक घटक को 1970 में पद्मश्री उपाधि से सम्मानित किया था. कुछ दिनों बाद विपक्ष के कुछ सांसदों ने लोकसभा में एक तारांकित प्रश्न किया और गृह मंत्री से इसके उत्तर की माँग की-“क्या यह सच है कि श्री ऋत्विक घटक, जिन्होंने महात्मा गांधी को ‘आरंभ से अंत तक सुअर की संतान’ कहकर बदनाम किया था उन्हें गांधी शताब्दी में पद्मश्री से क्यों सम्मानित किया गया? उनके नाम की सिफारिश किसने की? क्या यह सम्मान वापस लिया जाएगा?” इस घटना के लगभग 35-36 वर्ष बाद रामचन्द्र गुहा ने ‘घटक और सरकार’ शीर्षक से ‘द टेलीग्राफ’ (18 मार्च, 2006) में इस घटना पर लिखा-ऋत्विक घटक ने मार्च 1969 में गांधी के बारे में कुछ आलोचनात्मक टिप्पणियाँ की थीं, जिसे जादवपुर विश्वविद्यालय में छात्रों के एक समूह (संभवतः नक्सली) द्वारा निकाले गये जर्नल में प्रकाशित किया गया था. वह नक्सलवादी आन्दोलन का उफनता समय था. पद्मश्री मिलने के दो सप्ताह बाद ऋत्विक ने इन टिप्पणियों के संदर्भ को स्पष्ट करते हुए उस समय एक लम्बा बयान जारी किया था कि उन्होंने मानसिक बीमारी की स्थिति में क्रूर और अपमान जनक शब्द कहे थे.

उन्होंने अपनी फिल्म ‘सुवर्णरेखा’ (1962) की ओर ध्यान आकर्षित किया कि “जैसे ही उनकी (गांधी की ) चिता की लौ बुझती है, समाज पर विनाशकारी विपत्ति शुरू हो जाती है.” गांधी के प्रति कही गयी इस बात को तब ही नहीं, आज भी समझने की जरूरत हैं. उस समय कई हिन्दी लेखकों ने राष्ट्रप‌ति से घटक को दिये गये पद्म श्री को रद्द न करने का आग्रह किया था-

“एक कलाकार को उसके काम से आँका जाना चाहिए, न कि उसके राजनीतिक बयानों से.”

उस समय भारत के राष्ट्रपति वराहगिरी वेंकट गिरि थे, गृह मंत्री यशवंत राव चव्हाण थे, प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी थी और केन्द्र में कांग्रेस की सरकार थी. गृहमंत्री यशवंत राव चव्हाण ने 6 मार्च 1970 को संसद में यह कहा था-

“श्री ऋत्विक को असाधारण मौलिकता और संवेदनशीलता वाले फिल्म निर्देशक के रूप में उनकी उत्कृष्ट प्रतिभा को मान्यता देते हुए पद्मश्री पुरस्कार दिया गया था. उस पुरस्कार को रद्द करने जैसा अभूतपूर्व कदम उठाने का कोई औचित्य नहीं होगा.”

आज के भारत में रहते हुए इसका उल्लेख अधिक जरूरी है. उस समय ऋत्विक की केवल चार फ़िल्में-‘अजान्त्रिक’ (1957-58), ‘मेघे ढाका तारा’ (1960), ‘कोमल गांधार’ (1961) और ‘सुवर्ण रेखा’ (1962) ही प्रमुख थी. ‘नागरिक’ को रिलीज होने में अभी देर थी और ‘बाडी थेके पालिए’ (1959) की चर्चा कम थी. 1970 में ही काटवक को लेनीन पर लघु फिल्म बनी थी-‘आमार लेनीन’. यह बीस मिनट की एक छोटी फिल्म थी, जिसे सेंसर बोर्ड ने रोक दिया. सेंसर बोर्ड की इस कार्रवाई से बंगाल के फिल्म समुदाय में विरोध की लहर उठी थी. जो बयान दिया गया, उस पर मृणाल सेन और चिदानन्द दास गुप्त के भी हस्ताक्षर थे. सत्यजित रे ने हस्ताक्षर न कर निर्माता को एक व्यक्तिगत पत्र भेजा कि वे सेंसर की टिप्पणी से हैरान हैं क्योंकि “फिल्म के विषय या इसके उपचार में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं है” बाद में यह साम‌ग्री एक पुस्तिका के रूप में मुद्रित भी हुई.

ऋत्विक घटक के जीवन काल में भारतीय सिनेमा में उनके मौलिक अवदान को कम समझा गया. वेनिस फिल्म समारोह में 1959 में उनकी ‘अजांत्रिक’ फिल्म देखकर फ्रेंच फिल्म समीक्षक जार्जेश सादौल ने फिल्म की प्रशंसा की थी. भारतीय उपमहाद्वीप के बाहर घटक पर लिखा गया उनका आरंभिक लेख है. 1970 के दशक के अंत और 1980 के दशक के आरंभ से उनकी फिल्में विभिन्न अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में प्रदर्शित की जाने लगी, जिससे उनकी फिल्मों में अंतर्राष्ट्रीय रुचि बढ़ी. उनकी मृत्यु के बाद मद्रास फिल्म महोत्सव में पहली बार जनवरी 1978 में आलोचकों के एक समूह ने उनका काम देखा. घटक ने भारतीय फिल्म-निर्माण में एक ‘गोल्ड स्टैंडर्ड’ का निर्माण किया है.

भारतीय फिल्मकारों की वृहत्त्रयी  (सत्यजित रे, मृणाल सेन, ऋत्विक घटक) में  वे हैं, पचास और साठ के दशक में फिल्मों के लिए जब भारतीय मुहावरों की खोज हो रही थी, उन्होंने अपने छात्रों द्वारा निर्मित एक ‘नयी लहर’ (न्यू वेव) में अपनी गहरी छाप छोड़ी. ऋत्विक घटक और सत्यजित रे के अपने-अपने अनुयायी, और शिष्य (फालोअर्स) कल थे, आज भी हैं और कल भी रहेंगे. घटक और रे में कम बहसें नहीं हुई है. अपने एक लेख में घटक ने सत्यजित रे और उनकी फिल्मों पर विचार किया और अपने को रे का भक्त भी बताया. उन्होंने ‘पाथेर पांचाली’ सात बार देखी थी. इस फ़िल्म में उन्होंने मृत अवस्था में इंदिरा ठाकुरान के बैठे रहने वाले दृश्य को छोड़ कर खंडित रूप से यह माना है-

“भारतीय चलचित्र इतिहास में इससे बेहतर सिनेमा आज तक किसी ने नहीं बनाया.” घटक ने बूढ़ी ठाकुरान को ‘संपूर्ण ग्राम्य बांग्ला की आत्मा’ और ‘ग्राम्य बांग्ला की प्रतीक’ कहा है. ‘पाथेर पांचाली’ के अंत को उन्होंने-‘बेहद नासमझी पूर्ण ढंग से किया गया’ बताया है. ऋत्विक घटक का सत्यजित रे पर लेख है-‘एकमात्र सत्यजित रे’. उन्होंने उनमें एक साथ ‘प्रचण्ड ऊर्जा-शक्ति के साथ दुर्बलता’ भी देखी है. ‘रो एँड रो ऑफ फेंस’ में रे की प्रशंसा घटक ने इन शब्दों में की है-“सत्यजित रे और भारत में केवल सत्यजित रे ही, अपने अधिक प्रेरित क्षणों में, हमें सत्य, व्यक्तिगत, निजी सत्य के प्रति आश्चर्यजनक रूप से जागरुक कर सकते हैं.” घटक और रे एक दूसरे के काम के प्रशंसक थे.

 

6)

ऋत्विक घटक के कार्यों और उनकी परम्परा को आगे बढ़ाने के लिए 1982 में ऋत्विक घटक की पत्नी सुरमा घटक ने सत्यजित रे और शंख घोष के साथ मिल कर ऋत्विक मेमोरियल ट्रस्ट की स्थापना की. इसी वर्ष (1982) उन पर पहली पुस्तक आशीष राजाअध्यक्ष की आई- ‘ऋत्विक घटक : ए रिटर्न टू द एपिक’, जिसने घटक को एक प्रमुख फिल्मकार के रूप में स्थापित किया और उन्हें आइजेंशटाईन बर्गमान और फेलिमी के समक्ष रखा. ऋत्विक मेमोरियल ट्रस्ट घटक की फिल्मों को विभिन्न स्थानों पर प्रद‌र्शित करता है, रंगमंच में रुचि रखने वालों के लिए कार्यशालाओं का आयोजन करता है, युवा लेखकों को घटक की साहित्यिक परम्परा को आगे बढ़‌ाने के लिए प्रोत्साहित करता है और उनके जन्म-दिन एवं पुण्यतिथि पर कार्यक्रम आयोजित करता है. ट्रस्ट द्वारा ऋत्विक घटक की प्रकाशित पुस्तक ‘सिनेमा एँड आई’ की प्रस्तावना सत्यजित रे ने लिखी है जो ‘रो एँड रो ऑफ फेंस’ में भी प्रकाशित है. रे ने लिखा है-

“ऋत्विक इस देश के सिनेमा जगत में कुछ वास्तविक मौलिक प्रतिभाओं में से एक थे. महाकाव्यात्मक शैली में शक्तिशाली छवियों के निर्माता के रूप में वे भारतीय सिनेमा में लगभग अद्वितीय थे.”

अपने जीवन में घटक ने सिने‌मा के प्रत्येक पहलू पर विचार करते हुए फिल्म पर लगभग 50 लेख लिखे है. वी के चेरियन (इंडियाज फिल्म सोसायटी मूवमेंट : द जर्नी एँड इट्स इंपेक्ट’, 2017 के लेखक) ने घटक को ‘ए फिल्म मेकर्स फिल्म मेकर’ कहा है.  उनकी प्रतिभा केवल उनकी फिल्मों और पटकथाओं तक ही नहीं है बल्कि उन्होंने फिल्म निर्माता की एक पूरी पीढ़ी को प्रभावित किया. ऋत्विक का महत्व उन‌के निधन के बाद बढ़ता गया है और इस जन्मशती वर्ष में उनपर गंभीरता से लिखा जा रहा है. उन्हें मुख्यतः सामाजिक वास्तविकता, विभाजन एवं स्त्री के सूक्ष्म चित्रण के लिए याद किया जाता है. वे सत्यजित रे की तरह लोकप्रिय नहीं रहे. उनके जीवन काल में उनकी बहुत कम फिल्म बॉक्स ऑफिस पर प्रभावशाली रही. सत्यजित रे ने भी यह स्वीकारा है कि “ऋत्विक को अपने जीवन-काल में बंगाली फिल्म दर्शकों द्वारा बड़े पैमाने पर नज़रअंदाज़ किये जाने का दुर्भाग्य मिला.”

मेगन कैरीगी ने ‘सेंसेज ऑफ सिनेमा’ में उनपर प्रोफाइल लिखा है उसे लिखने की प्रेरणा उन्होंने आंशिक रूप से भारतीय सिनेमा के विमर्श में सत्यजित रे की प्रमुख स्थिति को पलटने, उसे पुनः संरेखित करने और उस‌का जवाब देने की इच्छा से उत्पन्न मानी है. 1990 के दशक में, विशेषतः 1997 में न्यूयार्क में घटक के काम के सफल पुनरावलोकन के बाद स्थिति पहले की तरह नहीं रही. वह बदलने लगी. वे बीसवीं सदी के सर्वश्रेष्ठ भारतीय निर्देशकों में एक कहे गए. घटक की एक अन्तरराष्ट्रीय पहचान बनी. अंग्रेजी में उन पर लिखे गये लेखों और किताबों की संख्या बढ़ती जा रही है.  सत्यजित रे और उन पर, दोनों की खूबियों पर विचार किया जाने लगा. वे फिल्म-चिंतन के केन्द्र में आने लगे. रुसी फिल्म निर्माण में अन्द्रेई तारकोव्स्की और सर्जेई आइज़ान्सटाइन के बीच जो एक प्रकार का पंथ या सम्प्रदाय (कल्ट) रहा है बहुत कुछ उसी तरह का ‘साइलेंट कल्ट’ रे और घटक के बीच भी रहा है. ऋत्विक घटक के सिनेमा के बारे में, प्रत्येक सिनेमा के बारे में, उसके एक-एक पक्ष पर विस्तार से लिखा जाने लगा. एक ‘स्वदेशी फिल्म-भाषा’ के आविष्कारक के रूप में वे प्रतिष्ठित हुए. बॉलीवुड की बात तो दूर रही, घटक के लिए हॉलीवुड का भी कोई अस्तित्व नहीं था. फिल्म-निर्माण उनके लिए लोगों की पीड़ा को दूर करने का साधन ही नहीं, अपने गुस्से को व्यक्त करने का भी साधन था. उनका नक्सली आन्दोलन के प्रति समर्थन था, पर वे उनको माँगों के तरीकों से असहमत थे.

उनकी फिल्में आन्दोलन के उद्देश्य के प्रति विचारशील रही हैं, वे वर्ग-संघर्षों को आवाज देती हैं,पर दोष-रहित वर्ग को नहीं दिखाती. वे किसी भी राजनीतिक विचारधारा से पूर्णतः सहमत नहीं रहे. दुर्भाग्यपूर्ण चरित्रों को दिखा-दिखा कर उन्होंने व्यवस्था के भीतर की दरारें दिखाई हैं. उनके यहाँ अराजकता का कोई समाधान नहीं है. ऋत्विक घटक भारत के सबसे बड़े राजनीतिक फिल्मकार हैं. ‘जुक्ति तक्को आर गप्पो’ (रीजन डीबेट एँड स्टोरी) उनकी अंतिम फिल्म (1974) है, जिसमें उन्होंने स्वयं नीलकंठ की भूमिका निभाई है. नीलकंठ ऋत्विक घटक के अपने व्यक्तित्व का प्रतिबिंब है. यह फिल्म अपने मूल में सत्ता विरोधी है. यह  फिल्म घटक की आत्मकथात्मक फिल्म है. नीलकंठ कहता है-“सब कुछ जल रहा है. दुनिया जल रही है. मैं जल रहा हूँ.”

ऋत्विक की फिल्मों में हिन्दू पौराणिक पात्र और कथाओं के साथ आदिवासी जीवन और संस्कृति का अंकन केवल फिल्म की दृष्टि से ही महत्त्व नहीं है. बिहार (अब झारखंड) और बंगाल के आदिवासियों को समझने के उन्होंने कई सार्थक प्रयास किये. 22 फरवरी 1955 को पत्नी सुरमा घटक को लिखे पत्र में उन्होंने उरॉव-मुंडा के साथ दिन के बीतने और मिट्टी की गंध मिलने की बात कही है. “इनका अपूर्व गान हमें माताल कर दे रहा है. आदिवासि‌यों के बीच बसने की इच्छा है. यहाँ की सुंदरता भी इतनी अपार है कि इसका बूंद मात्र ही कैमरे में कैद कर पा रहा हूँ.” उनकी फिल्मों में आदिवासी (बिहार-पश्चिम बंगाल सीमा-क्षेत्र में रहने वाले आदिवासी) अधिक दिखाई देते हैं. उनकी कई फिल्मों की शूटिंग झारखंड में हुई है. ‘अजांत्रिक’ और ‘सुवर्ण रेखा’ की. झारखंड से घटक के लगाव का मुख्य कारण यहाँ का प्राकृतिक परिवेश और आदिवासी जीवन समाज था. ‘अजान्त्रिक’ की शूटिंग के समय ही उन्होंने आदिवासियों पर एक लघु फिल्म (वृत्त-चित्र) बनायी-‘द लाइफ ऑफ द आदिवासिज’ (1955) ‘जुक्ति, तक्को आर गप्पो’ (1974) में आदिवासी छऊ नर्तक पंचानन हैं. घटक ने 1970 में पुरुलिया के छऊ नृत्य पर एक लघु फिल्म बनाई ‘पुरुलियार छाऊ’.उराँव पर 1955 में उन्होंने एक डॉक्यूमेंट्री बनाई थी जिसकी शूटिंग रांची,रामगढ़ और नेतरहाट में हुई थी. ‘अजांत्रिक’ की शूटिंग के लिए उन्होंने रांची, नेतरहाट और रातू का रानी खटंगा गांव को चुना था. ‘अजांत्रिक’ में रांची के लूथर तिग्गा ने काम किया था. इस फिल्म में हम सरना झंडा देखते हैं. रांची के आदिवासी फिल्मकार मेघनाथ और बीजू टोप्पो ने लगभग 14 वर्ष तक ऋत्विक घटक के ‘झारखंड कनेक्शन’ पर काम किया. उन्होंने ‘अजांत्रिक की खोज’ डॉक्यूमेंट्री बनाई. जिन स्थलों पर ‘अजांत्रिक’ की शूटिंग हुई थी, उन स्थलों पर यह फिल्मकार गए और ‘अजांत्रिक’ के दृश्यों से अपनी फिल्म के दृश्यों को मिलाया, एक संबंध-सहचार्य स्थापित कर रहे हैं, जो संभवत अपने ढंग का एक प्रयोग भी है.

ऋत्विक घटक विद्रोही फिल्मकार हैं. उन्होंने कहा है की फिल्मों में कहानी कहने का युग समाप्त हो गया है. अब फिल्मों के माध्यम से बयान देने का समय है. कविता के बारे में बयान वाली बात धूमिल ने कही है. क्या ऋत्विक के साथ मुक्तिबोध, धूमिल आदि अन्य कुछ कवियों को जोड़कर एक साथ थोड़ा ही सही विचार संभव नहीं है? 1950 के दशक से लेकर 1970 के दशक तक के बंगाली समाज की सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक चिताएँ घटक की फिल्मों में हैं, पर वे एक साथ स्थानीयता, क्षेत्रीयता और सम‌कालीनता की सीमाओं को पार कर शाश्वत चिंताओं के तारों का भी स्पर्श करती हैं.  1959 के वेनिस फिल्म फेस्टिवल में ‘अजान्त्रिक’ फ्रेंच उपशीर्षक के बिना दिखाई गई थी. जिसे देखकर प्रसिद्ध फांसीसी समीक्षक जॉर्जेस सादौल ने लिखा था- “जैसे ड्राइवर को अपनी कार जगद्द‌ल से प्यार हो गया था-चाहे वह कितनी भी लापरवाह, अजीब और सनकी  क्यों न लगे,मैं भी इस फिल्म के प्यार में पागल हो गया हूँ.” घटक की फिल्म  त्रयी-‘मेघे ढाका तारा’, ‘कोमल गांधार’ और ‘सुवर्ण रेखा’ पर काफी लिखा गया है, पर अब ‘नागरिक’ को जोड़कर एक साथ इरा भास्कर ने ‘ऋत्विक घटक के विभाजन चतुष्ट्य’ पर विचार किया है.

 

7)

इक्कीसवी सदी में, और अब कहीं अधिक २०२० से ऋत्विक पर बहुत कुछ लिखा जा रहा है. डायमंड ओबराय बहल ने ‘ऋत्विक घटक एँड द सिनेमा ऑफ प्रैक्सिस : कल्चर, एस्थेटिक्स एँड विज़न’ (स्प्रिंगर, 2020) में ऋत्विक को कलाकार के रूप में विश्व के कुछ महानतम  फिल्मकारों-सर्जेई आइजेंस्टाइन, (22.1.1898-11.2.1948), सत्यजीत रे (2.5.1921-23.4.1992), इंगमार बर्गमैन (स्वीडिश फिल्म निर्देशक, 14-7-1918-30.7.2007)  इटली के फिल्म निर्देशक फेडेरिको फेलिनी (20.1-1920-31.10.1993) और स्पेनिश फ़िल्मकार लुई बुनुएल (22-2.1900-29.7.1983) के समतुल्य माना है. ऋत्विक घटक की सभी फिल्मों पर स्वतंत्र रूप से विचार अब भी जारी है. घटक के इंटरव्यूज पर शिवादत्य दास गुप्ता और संदीपन भट्टाचार्य ने एक पुस्तक सम्पादित की-‘ ऋत्विक घटक, फेस टू फेस : कन्वरसेशन विद द मास्टर’ (1962-1977, 2003), जिसका अंग्रेजी अनुवाद चिल्का घोष ने किया है. लगभग एक महीना पहले (15 मई, 2025) एरिन ओ डानिल की किताब आई है ‘ऋत्विक घटक्स सिनेमैटिक सेंसिबिलिटी’ (ब्लुम्सबरी). पहले वर्ष  2024 में बांग्ला में विभाष मुखोपाध्याय ने घटक पर एक पुस्तक संपादित की ‘प्रसंग ऋतिक कुमार घटक’. दूसरी ओर उनके जन्मशती वर्ष में कोलकाता में दस फरवरी को ‘आमार लेनिन’ और ‘कोमल गांधार’ की स्ट्रीमिंग तृणमूल कांग्रेस के समर्थकों द्वारा राज‌नीतिक सामग्री पर आपत्ति के कारण रद्द कर दी गई. दक्षिण कोलकाता के एक सांस्कृतिक संगठन ‘नाक तला सेतु’ ने घटक की जन्मशती पर नाक तला हाई स्कूल के प्राचार्य से इस दौर की फिल्मों के प्रदर्शन की अनुमति ली थी पर 5 फरवरी को हिंसा की आशंका के कारण प्राचार्य ने यह अनुमति वापस ले ली. इसके बाद ‘नाक तला सेतु’ ने जनता के लिए सड़क के किनारे इसे प्रदर्शित किया. घटक के जन्मशती वर्ष में उनकी फिल्मों पर, उसके विविध पक्षों पर लेख लिखे जा रहे हैं. आयोजन हो रहे हैं. रांची में 28 जून को एक दिन का ‘ऋत्विक घटक शताब्दी’ समारोह होने जा रहा है, जिसमें उनकी कुछ फिल्में दिखाई जाएँगी और उनकी फिल्मों पर फिल्मकार सहित कुछ अन्य लोग अपने विचार रखेंगे.

 ऋत्विक घटक की दुनिया एकदम अलग थी. उन्होंने लिखा है कि वे ‘ब्रह्माँड, इस दुनिया, अन्तरराष्ट्रीय स्थितियों, मेरे देश और अन्त में मेरे अपने बारे में गहराई से सोचने में यकीन’ रखते हैं. इस समय सोचने वाले कम है, गहराई से सोचने वाले और कम जो ऐसे नहीं है वे ऋत्विक घटक को, उनकी फिल्मों को नहीं समझ पायेंगे. ‘भारतीय संस्कृति’ के कट्टर रूढ़िवादी और ‘मुनाफा कमाने वाले समाज’ से वे हरदम अलग-थलग रहे. उनके समय में ऐसे तत्व, जितने थे, लगभग प‌चास वर्ष बाद वे कहीं अधिक है, हमारे चारों ओर हैं. उन्होंने लिखा है-“दोनों ही पक्षों के लोग अपना-अपना स्वार्थ पूरा करना चाहते हैं. इनमें से कोई भी स्वार्थ रहित आलोचक या कला का सच्चा प्रेमी नहीं है. इसलिए मैं इस चूहा दौड़ में शामिल ही नहीं होना चाहता.” घटक मनुष्य की निराशा और जिजीविषा के फिल्मकार हैं. उनके यहाँ परम्परा और प्रयोग एक साथ है. मेरी जानकारी में उनकी फिल्मों पर लिखा गया रमण सिंहा का लेख  ‘ऋत्विक घटक की दुनिया : परंपरा और प्रयोग’ हिंदी में सर्वोत्तम लेख है जिसमें बड़ी गहनता,सघनता एवं विस्तार से घटक की फिल्मों के लगभग प्रत्येक पक्ष पर ध्यान दिया गया है.

यह लेख उनकी पुस्तक ‘भारतीय कला सिनेमा की प्रस्थान त्रयी : सत्यजीत राय, मृणाल सेन, ऋत्विक घटक’ (प्रकाशन विभाग,2024) में है. घटक की चर्चा में उनकी जीवन-शैली, शराब, अराजकता, निहिलिज्म ही अधिक प्रमुख रहा है उनमें एक प्रकार का-‘रिवेंज’ है. उनका सिनेमा जीवन से जुड़ा है. “अच्छे सिनेमा को जिंदगी से अलग नहीं किया जा सकता. इसे लोगों की आकांक्षाओं और घबराहटों का प्रतिनिधित्व करना ही होता है. इसे समय के साथ कदम बढ़ाने होते हैं. इसकी जड़ें लोगों में होनी होती है. मेरे हिसाब से बंबई के सिनेमा की कोई जड़ें नहीं हैं.” 

घटक जीनियस हैं. उनकी फिल्में आज कहीं अधिक अर्थवान और प्रासंगिक हैं. फिल्म का उन्होंने एक नया व्याकरण रचा, एक नयी भाषा दी, जो पूरी तरह भारतीय है. वे हमेशा मुझे रे और मृणाल सेन से भिन्न और विशिष्ट लगे हैं. उनकी फिल्में देखकर हम बहुत भीतर से हिल जाते हैं, खामोश हो जाते हैं और कभी-कभार ही क्षोभ और गुस्सा भी आ जाता है. उनकी सिनेमा-भाषा-शैली, एकदम नयी, निजी भिन्न और मौलिक है. वहाँ कथ्य और घटनाएँ प्रमुख नहीं हैं. वे हमें संवेदित करती हैं. उनकी फिल्में देख कर हम ‘मनुष्य’ होने लगते हैं. प्रकाश, संगीत, इमेज का वहाँ जो ‘कम्पोजीशन’है, संयोजन है, वह अद्भुत है. उनके सिनेमा के व्याकरण और भाषा पर, उसके विविध पक्षों पर विचार हुआ है और उसकी आज भी जरूरत है. घटक का कवि-हृदय  और प्रेमी हृदय उनकी फिल्मों में अनेक स्थलों पर हम देख सकते हैं. घटक के सिनेमा का अपना मुहावरा है. कैमरे और प्रकाश (ब्लैक एँड व्हाइट ) का इस्तेमाल देखें, ध्वनि देखें, इन सबका संयोजन देखें,दर्शक डूबता चला जाता है.

‘पाथेर पांचाली’ से पहले, तीन साल पहले ‘नागरिक’ बन चुकी थी. वे सत्यजीत रे के पहले के भारतीय फिल्मकार हैं. सत्यजीत रे की कुल 29 फीचर फिल्में हैं, मृणाल सेन की 27 और घटक की मात्र 8. संख्या का महत्व नहीं है. वे हमारे लिए, हमारे समय के लिए और फिल्मों के लिए ‘एसेंसिएल’ हैं-‘एसेंसिएल ऋत्विक’. उनकी फिल्में केवल उनके समय की कथा और दस्तावेज नहीं हैं,वे एक विचारधारा से जुड़ी हैं. वे वैसे मार्क्सवादी हैं जिन्होंने कभी समझौता नहीं किया.  उनके विचार मार्क्स और लेनिन के साथ जुंग की ‘सामूहिक चेतना’ से जुड़े हैं. सुरमा घटक ने उनकी प्रिय पुस्तकों में जुंग के ‘कलेक्टेड वर्क्स’ को रखा है.

ऋत्विक घटक ने फिल्मों में जो प्रयोग किये हैं, वे मात्र प्रयोग नहीं हैं. प्रयोगात्मक फिल्मों के दर्शकों के पास, इंसानों के पास पहुंचने के लिए हैं. उनकी सर्वाधिक लोकप्रिय फिल्म-‘मेघे ढाका तारा’ (बादल से ढका तारा) का अंत फिल्म की नायिका नीता की इस चीख से होता है-

“भाई, मैं जीना चाहती हूँ, भाई मैं जीना चाहती हूँ.” यह दृश्य पहाड़ के एक सेनेटोरियम का है, जहाँ संगीतकार भाई उससे मिलने आया है. क्या हमने सचमुच नीता की चीख सुनी है? नीता की चीख एक पात्र की चीख न होकर, सम्पूर्ण स्त्री-समाज की चीख है. और सेनेटोरियम ?  क्या स्त्रियाँ एक सेने‌टोरियम में नहीं हैं? यह ठीक कहा गया है कि घटक “पात्रों और स्थितियों को दर्शकों की कल्पना को जगाने वाले बिंदु तक ले जाने के बाद आपकी कल्पना पर छोड़ देते हैं.”

घटक ने फिल्मों और अपनी फिल्मों के बारे में जो लिखा है, ” वह सब उनकी पुस्तक-‘सिनेमा एँड, आई’ (लेखों और साक्षात्कारों का संग्रह) में है.

“मैं अपनी फ़िल्मों के साथ प्रयोग करता रहा हूँ. मेरे लिए, मेरी सभी फिल्में बस पूर्ण अभ्यास हैं. मैं उनके बारे में कोई राय नहीं रख सकता. लेकिन जब मैं सुनता हूँ,उदाहरण के लिए एक तपेदिक लड़की की वास्तविक चीख ‘मैं जीना चाहती हूँ”, जब वह मरने के कगार पर होती है, तो उसे संदर्भ में बुरी तरह थोपा जाता है, तो मैं वास्तव में आश्चर्य चकित होता हूँ. मुझे लगता है कि मैं उम्म-विनाश के देवता की पत्नी, जो सदियों से सभी बंगाली घरों की सभी बेटियों और दुल्हनों का आदर्श है-के नायक के साथ सम्पूर्ण रूपक संबंध को व्यक्त करने में सक्षम नहीं हूँ या उदाहरण के लिए जब मैं सुनता हूँ कि मैं अपनी नवीनतम फिल्म में अभिव्यक्तिवाद का दोषी हूँ, और अभिव्यक्तिवाद और प्रतीकवाद वास्तविकता के साथ-साथ नहीं चलते हैं, तो मैं सोचने की कोशिश करता हूँ, फिर वे कौन-सी चीजें हैं, जिन पर अभिव्यक्तिवाद पनपता है ?”

यह लम्बा उद्धरण केवल इसलिए है कि हम घटक की चिन्तनशीलता एवं विचारशीलता से भी परिचित हों. सिनेमा का कोई ऐसा पक्ष नहीं है, जिस पर उन्होंने विचार नहीं किया हो. उनके लेख फिल्म के संबंध में हमें एक नई दृष्टि देते हैं. वह फिल्म और फिल्मों पर लेखन के जरिए हमें एक साथ उस अनुभव संसार और विचार संसार में ले जाते हैं जहाँ गए बगैर ना हम उन्हें समझ सकते हैं ना उनकी फिल्मों को. वह हमें शिक्षित करते हैं, समृद्ध करते हैं. केवल फिल्म हीं नहीं, सभी कलाओं को ‘अंतिम विश्लेषण’ में ‘व्यक्तिगत बयान’ का विषय कहते थे. फिल्म को उन्होंने एक ‘सामूहिक कला’ कहा है. उनका विश्वास ‘प्रतिबद्ध सिनेमा’ में था. “मेरा मतलब है शब्द के व्यापक अर्थ में प्रतिबद्ध.” जिन्होंने उनकी फिल्मों के प्रयोग पक्ष पर ध्यान दिया उन्होंने संभवत इस पर कम ध्यान दिया कि वह सारे प्रयोग मनुष्य और उसके समाज के संबंध में हैं.उन्होंने घोषणा की “प्रयोग शून्य पर नहीं लटक सकते. यह मनुष्य का होना चाहिए. मनुष्य का होना चाहिए.”

 

8)

घटक के यहाँ विचारों की कई परतें हैं. जब वे सीधे नैरेटिव (कम स्थलों पर ही) अपनाते हैं, तब भी.  घटक के सुप्रसिद्ध छात्र मलयाली फिल्मों के निर्देशक जॉन अब्राहम ने घटक की फिल्मों के ‘अंतर्दृष्टि के बहुस्तरीकरण और भावनाओं तथा सामाजिक, राजनीतिक एवं वैयक्तिक आयामों (पात्रों, चरित्रों एवं सिचुएशंस के) से प्रभावित होना’ स्वीकारा है. फिल्मकार अपर्णा सेन ने वी. के. चेरियन को एक इंटरव्यू में कुछ वर्ष पहले यह कहा था कि सत्यजित रे की तरह ऋत्विक की फिल्मों को संपूर्णता में एक सुसंगत रूप में कम देखा गया है. ‘नागरिक’ से लेकर ‘जुक्ति, तोको आर गप्पो’ फ़िल्म को एक साथ रखकर देखने पर यह ज्ञात होगा कि उनकी तमाम फिल्मों में एक अन्तर्धारा है. उनके यहाँ विस्थापन भौगोलिक विस्थापन मात्र न होकर सांस्कृतिक विस्थापन है. संगीत एवं ध्वनियाँ सभी फिल्मों में अपने प्रभावकारी एवं विविध अर्थकारी रूपों में हैं.

‘नागरिक’ पहली कला फिल्म है. इस पहली फ़िल्म में ही वे सिनेमा की पारंपरिक शैली से प्रस्थान कर एक नए मार्ग की ओर बढ़ते हैं. ‘नागरिक’ की कहानी भी घटक ने हीं लिखी. कई फिल्मों के प्रमुख पात्रों में हम स्वयं उन्हें देखते हैं. ‘नागरिक’ में विभाजन के पश्चात बंगाली मध्य वर्ग की दुर्दशा है. रामू अपने सपनों को पूरा करने के लिए संघर्ष करता है. बेहतर जीवन की खोज का रिश्ता भविष्य से है. वर्तमान के दारुण और दिल दहला देने वाले चित्र उनके यहाँ हैं. घटक की फिल्में का यथार्थ पर अधिक बल है. प्रतीक और रूपक उनके यहाँ है. रामू केवल एक व्यक्ति नहीं है वह पूरा बंगाली मध्यवर्ग का प्रतीक भी है.

आशीष राजाध्यक्ष ने अपनी पुस्तक ‘ए रिटर्न टू द एपिक’ में घटक को ‘अनकट डायमंड’ कहा है. समय बढ़ने के साथ इस हीरे की चमक निरन्तर बढ़ रही है. बांग्ला भाषा से जो अपरिचित हैं. उन्हें भी उनकी फिल्में बहुत कुछ प्रेषित कर जाती है. ‘अजांत्रिक’ (1958) 28 मिनट की फिल्म जो 23 मई 1958 को रिलीज हुई थी. फिल्म सुबोध घोष की एक बांग्ला कहानी पर आधारित है. घटक ने लिखा है कि वे इस कहानी को पढ़कर कई दिनों तक सोचते रहे थे और लगभग बारह वर्ष तक उन्होंने इस पर विचार किया था. वेनिस फिल्म समारोह में फ्रांसीसी फिल्म समीक्षक जॉर्जेस सादौल (4-2-1904-13-10-1967) ने इस फिल्म को देख कर कहा था-“अजांत्रिक का क्या मतलब है, मुझे नहीं पता और मेरा मानना है कि वेनिस फिल्म फेस्टिवल में किसी को भी नहीं पता था …मैं फिल्म की पूरी कहानी नहीं बता सकता. फिल्म के लिए कोई उपशीर्षक नहीं था. लेकिन मैंने फिल्म को अंत तक मंत्र मुग्ध होकर देखा.”

मोंताज या कोलाज शैली कि इस फिल्म को समझने के लिए महान रुसी फिल्म निर्देशक आइजेंस्ताइन के ‘मोंताज सिद्धांत’ से परिचित होना चाहिए. मनुष्य और यंत्र (मशीन) के बीच के संबंध को 1958 में जिस तरह घटक समझ रहे थे, क्या पैंसठ वर्ष बाद आज भी हम उसे समझने में पूर्णतः समर्थ हैं. बिमल एक टैक्सी चालक है, जो एक छोटे से शहर में अकेला रहता है उसने अपनी 1920 की एक पुरानी टैक्सी शेवरले जलोपी का नाम जगद्दल रखा है, जो उसका अकेला साथी है. टैक्सी टूटी हुई है.  फिल्म बिमल के जीवन-प्रसंगों को, औद्योगिक बंजर भूमि को दिखाती है, जहाँ बिमल एक स्थान से दूसरे स्थान पर लोगों को पहुंचाता है. जगद्दल मनुष्य ही है, जिसे दर्शकों को समझना आज भी कठिन है. गाड़ी एक स्वतंत्र पात्र है.  केवल गाड़ी का ही नहीं, फिल्म में सड़क का भी अपना एक स्वतंत्र अस्तित्व है. बांग्ला कवि और जर्मन विद्वान आलोक रंजन दास गुप्ता ‘विमल और उसके दयनीय वाहन जगद्दल के माध्यम से अलौकिक प्रकृति और मशीनी सभ्यता के बीच निर्दय संघर्ष’ देखते हैं.

द्वितीय पंचवर्षीय योजना (1957) में उद्योग पर विशेष ध्यान दिया गया था. फिल्म का नैरेटिव अपारम्परिक है, जिसे गंभीर दर्शक भी तुरंत समझ नहीं पाता. इस फिल्म की विशेष स्क्रीनिंग में फ्रांसीसी निर्देशक सादौल भी थे. मार्क्सवादी समीक्षक होने के कारण वे घटक के सामाजिक-राजनीतिक आयाम को फोकस में लाने से प्रभावित थे. सत्यजीत रे की ढाई घंटे की फिल्म ‘अभियान’ इस फिल्म के चार वर्ष बाद 28 सितम्बर 1962 को रिलीज हुई थी. रे ने लिखा है कि अपनी इस फिल्म में उन्होंने एक कार को एक ‘प्राण’ के रूप में इस्तेमाल किया है. मेघनाद की फिल्म ‘अजांत्रिक की खोज में’ (2023) 46 मिनट 48 सेकेंड की हैं-इस फिल्म में ‘अजांत्रिक’ के संदर्भ में आदि‌वासी संस्कृति और उनके जीवन की खोज की गयी है. घटक की फिल्म ‘अजांत्रिक’ में पहली बार ओरांव भाषा का इस्तेमाल भी किया गया है. इसमें उनके झूमर, कुडुख गीत, माँडर,  ढोल, तुरही सब है और है शालवन की सड़कों की शान्ति और सन्नाटा. कलकत्ता जिस रूप में रे और सेन (मृणाल) के यहाँ है, उस रूप में घटक के यहाँ नहीं. संभव है, किसी फ़िल्म आलोचक ने रे-सेन-घटक की फिल्मों में वर्णित-चित्रित कलकत्ता पर स्वतंत्र रूप से विचार भी किया हो. कैमरे की आंख और घटक की आंख हमेशा एक साथ रहती है.

‘रे-सेन-घटक’ की त्रयी विश्वविख्यात है. इनमें एक साथ समानता और भिन्नता है. घटक ने अर्थच्छटाओं के पीछे अपने भागने की बात लिखी है क्योंकि उनमें ही “जीवन की चिन‌गारियाँ छिपी होती हैं.”  वे उनमें ‘रचनात्मक तत्व’ देखते हैं और-‘अनगिनत संभावनाएँ’ भी. ‘बाड़ी थेके पालिए’ (1958) की चर्चा कम होती है. शिबरन चटर्जी के एक उपन्यास पर आधारित यह एक ‘एडवेंचर’ फिल्म है. इसके कथानक को 1959 में बनी फ्रांस्वा त्रुफो (प्रसिद्ध फ्रांसीसी फिल्मकार, 6.2.1932-21.10.1984) की फिल्म 400 ब्लोज समान माना गया है, पर यह अस्पष्ट है. इस फिल्म में घर से भागकर कलकत्ता आने वाला एक लड़‌का फिर अपने गाँव लौट जाता है. फिल्म में हरिदास एक स्थल पर कहता है ‘इस देश में शिक्षकों की जरूरत नहीं है.’ क्या सचमुच आज के भारत में शिक्षकों की कोई जरुरत है. घटक के यहाँ केवल वर्तमान नहीं है. वे वर्तमान के आधार पर भविष्य का एक संकेत-चित्र भी प्रस्तुत कर देते हैं, पुराना कलकत्ता खो चुका है. फिल्म में पचास के दशक के कलकत्ता का चित्र है. फिल्म में एक पंक्ति बार-बार गूंजती है ‘यहाँ इतना दुःख क्यों है?’ यह प्रश्न कंचन का हरिदास से है. पुराने समय में कलकत्ता का जो जादू था, वह खो चुका है. फिल्म बदले हुए कलकत्ता पर है. ‘नागरिक’ में फोटोग्राफी रामानन्द सेन गुप्त की थी, पर ‘अजांत्रिक’ और ‘बाडी थाका पालिए’ की ही नहीं ‘मेघे ढाका तारा’ की भी फोटोग्राफी दिनेन गुप्ता की हैं. घटक की फिल्मों में ध्वनिकार, छायाकार एवं संगीतकार बदलते रहे हैं. ‘नागरिक’से लेकर ‘सुवर्ण रेखा’  तक की छह फिल्म में ध्वनि सत्येन चटर्जी की है और ‘अजांत्रिक’, से ‘कोमल गांधार’ तक की चार फिल्मों में सत्येन चटर्जी के साथ मृणाल गुहा ठाकुरता भी हैं.

‘मेघे ढाका तारा’ 2 घंटे 14 मिनट की फ़िल्म है, जो 14 अप्रैल 1960 को रिलीज हुई थी. भारत-विभाजन (1947) के बाद शरणार्थियों के जीवन और संघर्ष पर आधारित यह फिल्म परिवार के लिए त्याग करने वाली नीता के इर्द-गिर्द चलती है. बांग्ला लेखक शक्ति पाद राजगुरु के एक सामाजिक उपन्यास पर आधारित यह फिल्म विस्थापन त्रयी (‘मेघे ढाका तारा’, ‘कोमल गांधार’ और ‘सुवर्ण रेखा’) की पहली फिल्म है-नीता आत्म त्यागी है जिसका जीवन केवल त्रासद है. ऋत्विक घटक ने लिखा है कि जब उन्होंने यह फिल्म बनाना आरंभ किया, वे राजनीतिक एकीकरण के बारे में नहीं बोले. राजनीति और अर्थशास्त्र द्वारा निर्मित सांस्कृतिक पृथक्करण को घटक ने कभी नहीं स्वीकारा, उन्होंने लिखा है कि वे हमेशा सांस्कृतिक एकीकरण के बारे में सोचते रहे हैं. केवल इस बिन्दु को ही हम सामने रखें और देखें कि आज के सांस्कृतिक पृथ‌क्करण के दौरे में हमारे लिए ऋत्विक घटक कितने अर्थवान और मूल्यवान है.

इस फिल्म में मिथ एवं रिच्युअल्स पर इरा भास्कर ने विस्तार पूर्वक विचार किया है. नीता के पिता तारण कृष्ण चक्रवती शिक्षक हैं, जिनके दो बेटे-शंकर और मोंटू एवं दो बेटियाँ नीता और गीता हैं. नीता ट्यूशन करती है. ‘मेघे ढाका तारा’ छह व्यक्तियों की पारिवारिक कथा भर नहीं है, जगदात्री पूजा के दिन जन्मी नीता के अपने जीवन के साथ परिवार भी बिखरता है. घटक यहाँ टूटन दिखाते हैं-नीता का टूटन और परिवार जैसी संस्था का टूटन. यह फिल्म व्यवसायिक रूप से थोड़ी सफल रही थी. फिल्म के महाकाव्यात्मक स्वरूप पर, जो मेलोड्रामा के सहारे खड़ा है प्रायः सभी फिल्म समीक्षकों ने ध्यान दिया है. घटक ने स्वयं ‘क्या’ पर ध्यान न देकर ‘क्यों’ और ‘कैसे’ पर ध्यान देने और सोचने की बात कही है और इसे महाकाव्यात्मक रवैया माना है. महाकाव्यात्मक उपन्यास (एपिक नोबेल) की तरह महाकाव्यात्मक सिनेमा की बात कही गई है. घटक की फिल्में भारतीय और महाकाव्यात्मक दोनों है. मेलोड्रामा भावनात्मक होते हैं पर सभी भावनात्मक फिल्में मेलोड्रामा नहीं होतीं. घटक मेलोड्रामा को चरित्रांकन से नहीं जोड़ते. उनके अनुसार मेलोड्रामा की मुख्य दिलचस्पी कार्य व्यापार को खोलने और फैलाने में होती है.‘मेघे ढाका तारा’ और ‘सुवर्ण रेखा’ में स्त्री आत्मनिष्ठता, पितृसत्ता और मेलोड्रामा पर ध्यान दिया गया है. घटक के अनुसार “अगर भारत में कोई सचमुच राष्ट्रीय सिनेमा कभी उभरेगा तो वह बहुघृणित मेलोड्रामा से ही उत्पन्न होगा.” 

‘मेघे ढाका तारा’ के समीक्षकों ने दुर्गा को नीति की माँ से और काली को बहन सीता से जोड़कर देखा है और शक्ति के तीन आयामों की चर्चा की है. इस फिल्म में ध्वनि और संगीत का अधिक महत्व है. घटक ने ‘हंसध्वनि राग’ का उपयोग कर एक उदास और भावनात्मक दृश्य रचा है. फिल्म में केतली की उबलती ध्वनि पर सबका ध्यान जाता है. ध्वनि के प्रति घटक सदैव प्रयोगशील रहे हैं. इस फिल्म में पहली बार घटक ने ज्योतिरीन्द्र मोइत्रा का संगीत दिया है, जिनका संगीत ‘कोमल गांधार’ में भी है. घटक की कई फिल्मों में मृत्यु है. ‘मेघे ढाका तारा’ में नीता की तपेदिक से मृत्यु, ‘सुवर्ण रेखा’ में सीता की आत्महत्या,  ‘जुक्ति ताको आर गप्पो’ में नीलकंठ की शराब से मृत्यु और ‘अजांत्रिक’ में जगद्दल की याँत्रिक मृत्यु को एक साथ रखकर डेरियस कूपर ने बेब आधारित साहित्यिक पत्रिका ‘द बीकन’ में इन चारों फिल्मों पर ‘मॉर्निंग एँड मेलैनकोलिया : ऋत्विक घटक का सिनेमा’ पर विचार किया है. घटक का लोकेशंस और लेंस का चयन मंत्रमुग्ध करता है. वह अपने फिल्मों में जिन कुछ सुंदर भावुक क्षणों को निर्मित करते हैं वह हमें मंत्रमुग्ध करते हैं. उनकी फिल्मों का एक दृश्य व्याकरण है. ‘मेघे ढाका तारा’ में नीता की फटी चप्पल को समीक्षकों ने ‘परिवार की नैतिक और सामाजिक प्रतिष्ठा में गिरावट का एक प्रतीकात्मक संकेत’ के रूप में देखा है.

 

9)

घटक के निधन के बाद वैश्विक स्तर पर उनकी पहचान हुई, प्रतिष्ठा बढी. मद्रास के फिल्म समारोह (1978) में पश्चिमी फिल्म समीक्षकों द्वारा उनकी फिल्मों का उत्साहपूर्ण स्वागत किया गया था. उनकी फिल्मों के विदेशी समीक्षकों में ब्रिटिश फिल्म समीक्षक डेरेक मैलकॉम, फ्रांसीसी फिल्म समीक्षक जॉर्ज सादौल के साथ डेरियस कूपर, रिचार्ड टी. जेम्सन और जैकब लेनिच के नाम अधिक महत्वपूर्ण हैं. डेरेक मैलकॉम ने बी एफ आई (ब्रिटिश फिल्म इंस्टीट्यूट) की पत्रिका ‘साइट एँड साउंड’ के 1982 के ग्रीष्म अंक में ‘भारत के सबसे प्रतिभाशाली फिल्म निर्माताओं में से एक’ कहा था, उनकी फिल्म के नाजुक पक्ष का उल्लेख किया था, जिससे फिल्म  अधिक मार्मिक बनती है. ‘मेघे ढाका तारा’ में नीता अपने परिवार की एक मात्र कमाऊ सदस्य है जो अपना जीवन कलकत्ता के रिफ्यूजी परिवार के कल्याण हेतु उत्सर्ग करती है. असंतोष और विरक्ति में अपने घर में रह रही है. फिल्म में हम दुर्गा प्रतिमा की सुस्पष्ट ध्वनियाँ सुनते हैं, मानो उसने अपने रहने की स्थिति से एक देवत्व प्राप्त कर लिया है.

 ऋत्विक घटक की फिल्मों में विभाजन का एक गहरा सदमा है. विभाजन विस्थापन त्रयी में वे इस विभाजन-विस्थापन को व्यापक व्यापक अर्थों, अर्थाशयों में प्रस्तुत करते हैं.  ‘कोमल गांधार’ 2 घंटे 14 मिनट की फिल्म है. फिल्म का शीर्षक टैगोर की एक कविता पंक्ति:-‘नाम रेखेछी कोमल गांधार मोने मोने’  से लिया गया है. ‘मेघे ढाका तारा’ की तरह इस फिल्म का प्रमुख पात्र भी पूर्वी बंगाल से आया हुआ शरणार्थी है. फिल्म का निर्देशक ही नहीं, अभिनेता भी पूर्वी बंगाल से है. ‘मेघे ढाका तारा’ और ‘सुवर्ण रेखा’ की तरह इस फिल्म में भी मनोवैज्ञानिक रूप से विभाजन को ताजा किया गया है. फिल्म में लोक संगीत के साथ शास्त्रीय संगीत का भी उपयोग है. ध्वनि और संगीत घटक के यहाँ कहानी कहने का एक सशक्त उपकरण है. यह उनकी फिल्मों का वह प्रमुख तत्व है, जो कहानी को गहन भावनात्मक एवं प्रतीकात्मक अर्थ प्रदान करता है. इस फिल्म का संगीत ज्योतिरींद्र मोइत्रा का है और गीत रवींद्रनाथ ठाकुर, ज्योतिरींद्र मोइत्रा, सलिल चौधरी, विजन भट्टाचार्य और सुकांत भट्टाचार्य का है. व्यावसायिक रूप से यह फिल्म असफल रही थी. फिल्म के मुख्य विषय तीन हैं-प्रमुख पात्र अनुसूया की दुविधा, इप्टा का विभाजित नेतृत्व और भारत विभाजन के परिणाम. व्यावसायिक असफलता से घटक टूट गए. पत्नी सुरमा ने जादवपुर विश्वविद्यालय से एम ए की पढ़ाई छोड़ दी. एरिन ओ डॉनेल के अनुसार यह फिल्म ‘बंगाली नाट्य परिदृश्य में स्मृति और इतिहास का परीक्षण है’. उनके अनुसार “फिल्म रंगमंच की प्रमुख भूमिका स्मृति को उत्साहित करने और 1947 के विभाजन के आसपास के विवादास्पद, दर्दनाक घटनाओं के इतिहास पर बहस करने का एक साधन है.” विभाजित भारत में जो सांस्कृतिक एकता खो गई है उसके लिए घटक की ‘पुरातनं लालसा’यहाँ प्रतिध्वनित है. फिल्म में हम एक साथ विभाजन की निरर्थकता और विस्थापन की ट्रेजेडी देखते हैं.

विभाजन विस्थापन को लेकर बनी घटक की तीनों फिल्में एक-एक कर प्रतिवर्ष बनी. ‘मेघे ढाका तारा’ 14 अप्रैल 1960 को,  ‘कोमल गांधार’ 31 मार्च 1961 को और ‘सुवर्ण रेखा’  1962 में बनने के बाद  1 अक्टूबर 1965 को रीलीज हुई. ‘मेघे ढाका तारा’127 मिनट की,’कोमल गांधार’ 134 मिनट की और ‘सुवर्ण रेखा’ 143 मिनट की फिल्म है. ‘कोमल गांधार’ की तरह ‘सुवर्ण रेखा’ भी बॉक्स ऑफिस पर पूरी तरह असफल रही थी.

उदयन वाजपेय ने कुमार शहानी से जो लम्बी बातचीत की है, उसमें शहानी ने पहली महान फिल्म ‘सुवर्ण रेखा’ के घटक के साथ बम्बई में देखने का जिक्र किया है. “मुझे सिर्फ इतना पता था कि ऋत्विक घटक नामक फिल्मकार अपनी फिल्म को दिखाने की इच्छा से आ रहे हैं. उस फिल्म को बम्बई में ऋत्विक घटक के साथ हम दो या तीन लोगों ने देखा… उसके लिए न आवश्यक शब्द थे, न छवियाँ.” इस फिल्म में मुख्य पात्र ईश्वर, हरिप्रसाद, सीता, अभिराम और कौशल्या जीवन भर शरणार्थी बने रहते हैं. ‘सुवर्ण रेखा’ में संयोगों को लेकर घटक की आलोचना हुई थी.  बांग्ला पत्रिका ‘चित्राभिषेक’ में इस पर ऋत्विक घटक के विचार प्रकाशित हुए थे-“मुझ पर ‘सुवर्ण रेखा’ में संयोगों का आरोप अक्सर लगाया जाता रहा है. यह सच है कि उस फिल्म में संयोगों की संख्या अधिक है.” फिल्म की मुख्य घटना वेश्यालय जाने का इरादा रखने वाले भाई का अपनी बहन के कमरे में ठोकर खाकर गिरना एक बड़ा संयोग है. यह “इतना बड़ा संयोग है कि मैंने संयोग को ही एक रूप के रूप में प्रयोग करने की कोशिश की है. आप इसे महाकाव्य शैली की परम्पार के रूप में वर्णित कर सकते हैं. साथ ही इन संयोगों को बड़े विचारोत्तेजक आयामों से निवेशित करके, मैंने उन्हें अर्थ से भरपूर बनाने का कोशिश की है.” घटक की फिल्मों में केवल पूर्वी बंगाल से उजड़‌ना भर नहीं है, अपितु यहाँ जड़ों से उखडे हुए मनुष्य हैं. विनोद कुमार शुक्ल का नया कविता-संग्रह है-‘केवल जड़े हैं’. ‘सुवर्ण रेखा’ फिल्म में एक पात्र कहता है-‘यहाँ कौन शरणार्थी नहीं है?’ घटक के यहाँ विभाजन और विस्थापन केवल ऐतिहासिक घटना नहीं है,वह भावनात्मक एवं मनोवैज्ञानिक आघात है.

घटक ने अपनी फिल्मी भाषा का स्वयं आविष्कार किया है. उनकी सिनेमा भाषा और शैली एकदम नयी, भिन्न और मौलिक है. प्रकाश, ध्वनि, संगीत सबका उनके फिल्मों में एक अद्भुत कंपोजिशन है. उनकी फिल्मों को संगीत और ध्वनि की समझ के बिना नहीं समझा जा सकता. उनकी विस्थापन त्रयी की फिल्मों का संगीत पात्रों के प्रेम और दुख के साथ हमारे भीतर लंबे समय तक ठहर जाता है. मेगन केरीगी ने ‘सेंसस ऑफ़ सिनेमा’ में ‘सुवर्ण रेखा’ के एक पल के वर्णन के पीछे ऋत्विक के विभाजन की सिनेमाई अभिव्यक्ति के सौंदर्यात्मक पक्ष की ओर ध्यान दिलाया है, “जब कैमरा अचानक रेलवे ट्रैक के उस छोर पर जाकर रुक जाता है, जहाँ पूर्वी बंगाल की ओर जाने वाली पुरानी सड़क टूट गई है, और फिल्म के अंत में अनुसूया के हृदय में एक तीखी चीख उठती है.” ‘नागरिक’ को ‘मेघे ढाका तारा’, ‘कोमल गांधार’ और ‘सुवर्ण रेखा’ के साथ जोड़ दें तो यह भारतीय सिनेमा का चर्चित विभाजन ‘चतुष्टय’ है.

 

10)

उनकी जन्म शती पर अभी सुमंत बनर्जी ने 19 अप्रैल 2025 के ‘काउंटर करेंट’ में प्रकाशित अपने लेख ‘ऋत्विक घटक : रिचिंग आउट टू ए लोनली रिबेल’ (‘एक अकेले विद्रोही तक पहुंचने की कोशिश’) में लिखा है कि उनकी फिल्मों को हम यूरो केंद्रित मानदंड से क्यों देखें? “हमें उनकी फिल्मी भाषा को उनकी अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक परंपरा के हिस्से में स्वीकार करना क्यों नहीं सीखना चाहिए? उन्होंने खुद की फिल्मी भाषा का आविष्कार किया. जात्रा नामक बंगाली लोक नाट्य शैली, 1930-40 की अवधि के भारतीय सिनेमा, आदिवासी अनुष्ठान और नृत्य और हिंदू पौराणिक कथाओं सहित अन्य चीजों से तकनीक, रूपांकनों और विचारों का इस्तेमाल किया.”

बांग्लादेश की तितास नदी एक महत्वपूर्ण नदी है जो सुरमा, मेघना नदी का हिस्सा है. मणि कॉल ‘तितास एकटि नदीर नाम’ (1973) फिल्म में तितास में नावों, बारिश, प्रकृति और माँ के आदर्शों के दृश्य पर विचार करते हैं. घटक ने इस फिल्म में महाकाव्य रूप का इस्तेमाल किया है. यह फीचर फिल्म 10 12 वर्ष के अंतराल पर बनी. इसका कथानक विशुद्ध रूप से मेलोड्रामा है, जिसे भारतीय संदर्भ में घटक कुछ गर्व के साथ अपना जन्मसिद्ध अधिकार बताते हैं. यह फिल्म एक नदी के जीवन और मृत्यु की कथा कहती है. तितास नदी मेघना और पद्मा से भिन्न नदी है, जिसके दोनों किनारों के बीच जल ही जल है. अद्वैत के एक प्रसिद्ध उपन्यास ‘तितास एक नदी का नाम’ (1956) पर बनी यह फिल्म 159 मिनट की है, जो 27 जुलाई 1973 को रिलीज हुई थी. बांग्लादेश मुक्ति के बाद यह फिल्म भारत और बांग्लादेश के संयुक्त उद्यम से बनी थी. यह नदी पर निर्भर मालो मछुआरों की जीवन कथा है. फिल्म के केंद्र में दो स्त्रियाँ हैं.

मणि कॉल इस फिल्म को समझाना कठिन मानते हैं क्योंकि “कथा का धागा बेहद ढीला है और संवाद बहुत रहस्यपूर्ण है… संवाद वास्तव में प्रकृति और संस्कृति के खत्म होने के बारे में है.” उन्होंने तितास में घटक द्वारा कही गई एक अद्भुत बात का उल्लेख किया है कि सभ्यता कभी नहीं मरती. “अगर तितास नदी के सूखे तल पर धान का खेत है तो दूसरी सभ्यता जन्म लेगी.” घटक के लिए सभ्यता शाश्वत है, वह परंपरा से अधिक मजबूत है. इस फिल्म को एक ‘महाकाव्यात्मक फिल्म’ के रूप में देखा गया है. तितास अंचल का पूरा परिवेश यहाँ महाकाव्यात्मक फलक पर है. इसकी फोटोग्राफी बेबो इस्लाम की, ध्वनि अमजद हुसैन की और संगीत उस्ताद बहादुर खान का है.

ऋत्विक एक असंतुष्ट आत्मा थे, दुखी और संतप्त.  उनकी अंतिम फिल्म ‘जुक्ति, तोक्को आर गप्पो’ 20 मिनट की एक आत्मकथात्मक फिल्म है. यह फिल्म भी बांग्लादेश के साथ मिलकर बनाई गई. इस फिल्म में बिजन भट्टाचार्य जगन्नाथ के रूप में एक विशिष्ट भूमिका में हैं. नीलकंठ बागची की भूमिका में स्वयं ऋत्विक घटक हैं. फिल्म 30 सितंबर 1977 को रिलीज हुई थी. नीलकंठ बागची एक ‘शराबी, मोहभंग बुद्धिजीवी’ है, अपने ही शब्दों में ‘एक टूटा हुआ बुद्धिजीवी’. बागची खुद को ‘बांग्लादेश की आत्मा’ बताता है. घटक इस फिल्म के लेखक, निर्देशक और नायक तीनों हैं.

फिल्म में बौद्धिकों की शराब पार्टी में सीपीआई,‌ सीपीएम, चित्रकार चित्तो प्रसाद, मूर्तिकार रामकिंकर, यूथ कांग्रेस, विश्व सिनेमा सब पर बात होती है. नीलकंठ बागची को गंभीरता से लोग नहीं लेते. यह फिल्म विभिन्न विचारों एवं विषयों से संबंधित है. घटक अपने आसपास नैतिक मूल्यों का पतन देख रहे थे. फिल्म के आरंभ में मानव-जीवन और मृत्यु दोनों एक साथ है. उनके यहाँ सामाजिक-राजनीतिक पक्ष के अतिरिक्त एक मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक पक्ष भी है. इस फिल्म के बारे में ऋत्विक ने लिखा है-

“इसमें (‘जुक्ति तक्को आर गप्पो’) 1971 से 1972 तक पश्चिम बंगाल की राजनीतिक पृष्ठभूमि को जैसा मैंने देखा, उसे चित्रित किया गया है. कोई विचारधारा नहीं है. मुझे किसी राजनीतिक विचारधारा को खुश नहीं करना चाहिए.”

फिल्म में नीलकंठ बागची की परमी दुर्गा उसे छोड़ कर उसकी एक मात्र बची सम्पति किताबें और रिकॉर्ड ले जाती है, जिससे उसका बेटा इन किताबों और संगीत के साथ खड़ा हो. ‘नागरिक’ में ‘निर्वासन’ का जो प्रश्न है, वह घटक की इस अंतिम फिल्म में अपनी परिणति-‘पूर्ण उन्मूलन’ तक पहुंच जाता है. घटक की फिल्मों में हम एक अन्तः सूत्रता देख सकते हैं. इस फिल्म में ऋत्विक अपने पुत्र ऋत्बन के साथ भूमिका में हैं. रवीन्द्र के गीत उनके कई फिल्मों में है, जो दृश्य, परिवेश और वातावरण से जुड़े हैं. इस फिल्म में नीलकंठ ने टैगोर का एकगीत याद किया है. माना जाता है कि टैगोर के गीतों का उपयोग कर उन्होंने ‘टैगोर का पुनराविष्कार’ भी किया.

एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा है कि वे टैगोर के बिना बोल नहीं सकते. “उसने मेरे जन्म के बहुत पहले मेरे सभी भावों को चुन लिया था. उन्होंने समझा कि मैं क्या हूँ, और उस सब को शब्दों में रख दिया. मैं उन्हें पढ़ता और यह पाता हूँ कि सब कुछ कह दिया गया है और मुझे नया कहने को कुछ भी नहीं है.”

उनके ‘सुवर्ण रेखा’ में रवीन्द्र संगीत तीन बार से अधिक है. वहाँ ‘आज धानार खेते’ का उपयोग है. भाई ईश्वर के साथ सीता जब शहर के पड़ोस (उपनगर) में जाती है, वहाँ यह संगीत है, जिसे उसने संगीत शिक्षक से सीखा था. सीता का बचपन इस गीत के साथ बीता है और वह हमेशा के लिए उसके साथ हैं. ‘सुवर्ण रेखा’ में बाद में वह इस गीत को कलकत्ता में अपने बेटे के लिए गाती है.

‘जुक्ति ताक्को आर गप्पो’ का प्रदर्शन, घटक की मृत्यु के बाद हुआ. यह फ़िल्म अपने मूल में सत्ता-विरोधी है. नीलकंठ कहता है-मैं जल रहा हूँ, सब जल रहा है, ब्रह्माँड जल रहा है. इस फिल्म की सिने‌मेटोग्राफी को अपने समय से कहीं आगे की माना गया है. 1974 में इसे सर्वश्रेष्ठ कहानी के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार का रजत कमल पुरस्कार प्राप्त हुआ था. नीलकंठ अपने दोस्त सत्यजीत बसु से कहता है ‘सोचो सोचो अभ्यास करो’. घटक की फिल्मों के कलात्मक पक्ष और चिंतन-पक्ष पर स्वतंत्र रूप से अलग-अलग विचार न कर एक साथ विचार की जरुरत है. वहाँ फिल्म-कला-सौन्दर्य के साथ दार्शनिक पक्ष भी हैं. उन‌की फिल्में कई दृष्टियों से हमें सोचने-विचारने को विवश करती हैं. इस फिल्म में नीलकंठ की भेंट एक गाँव के संस्कृत स्कूल शिक्षक जगन्नाथ भट्टाचार्य से होती है. जगन्नाथ हमेशा बहस करता है. राजनीतिक हत्याओं के बाद स्कूल बंद हो जाने पर जगन्नाथ नौकरी को खोज की तलाश में कलकत्ता आता है, जहाँ बच्चे उसे परेशान करते हैं. फिल्म में पंचानन उस्ताद और जगन्नाथ के बीच वैदिक और लोक दृष्टिकोण को लेकर बहस होती है.

जगन्नाथ भट्टाचार्य प्राचीन वैदिक सभ्यता के प्रतिनिधि के रूप में हैं और लोक संस्कृति और विरासत से समृद्ध  पंचानन उस्ताद ग्रामीण लोगों का प्रतिनिधि हैं. छऊ निर्माता पंचानन उस्ताद की समृद्ध कला और हाशिए पर पड़े अस्तित्व को उन्होंने काफी स्थान दिया है. घटक के यहाँ लोक और शास्त्र दोनों का महत्व है. वहाँ दुर्गा है तो लोक नर्तक पंचानन उस्ताद भी हैं. संस्कृत श्लोक बोलने वाले संस्कृत शिक्षक जगन्नाथ भट्टाचार्य हैं तो संस्कृत को विदेशी भाषा कहने वाले पंचानन भी हैं क्योंकि संस्कृत न कोई बोलता है, न समझता है, ‘जुक्ति ताक्को आर गप्पो’ फिल्म “एक क्रम में आदिवासी मानस और हिन्दू पौराणिक कथाओं की उच्च जाति की ब्राह्मणवादी व्याख्या के बीच मुठभेड़” प्रस्तुत करती है.

इस फिल्म की कहानी, पटकथा, संगीत और कार्यकारी निर्माता सब ऋत्विक घटक ही हैं. फिल्म के साउंड ट्रैक में उस्ताद बहादुर खान द्वारा रचित गीत, ‘केनो चेए अच्छो गो मा’ और रवींद्र संगीत ‘अमर ओंगे ओंगे के बजाए बंशी’ शामिल हैं. नीलकंठ बागची की भूमिका में ऋत्विक घटक, नचिकेता की भूमिका में सुगाता बर्मन, दुर्गा की भूमिका में तृप्ति मित्रा, सत्या की भूमिका में ऋतबान घटक (ऋत्विक घटक के पुत्र), जगन्नाथ भट्टाचार्य की भूमिका में बिजोन भट्टाचार्य, सत्यजीत बसु की भूमिका में उत्पल दत्त, उस्ताद पंचानन की भूमिका में ज्ञानेश मुखर्जी और नक्सलियों के नेता की भूमिका में अनन्या रे हैं. ‘अजांत्रिक’ की तरह इस फिल्म में भी आदिवासी आनुष्ठानिक नृत्यों के दृश्य हैं. सुमंत बनर्जी ने लिखा है कि कथा की दृष्टि से ये अप्रासंगिक लगेंगे, पर ऋत्विक ने एक संदेश देने के लिए एक सिनेमाई रुप में इनका इस्तेमाल किया है. यह कहानी के बीच में शाश्वत तत्व को पेश करना है.

उराँव जनजाति के नृत्य के बारे में घटक ने ‘सिनेमा और मैं’ में लिखा है-” ये नृत्य एक ऐसा माहौल बनाते हैं, जो आपको अचानक यह एहसास कराता है कि आप एक ऐसा दृश्य देख रहे रहे हैं, जो भारत में मनुष्य के इतिहास जैसा पुराना है. धुनें, ध्वनि, तमाशा आपको एहसास कराते हैं कि जीवन का जोश और आनन्द क्या है. वे अनमोल हैं क्योंकि वे आपके अंदर प्राथमिक भावनाओं को जगाते हैं.” आदिवासी नृत्यों में महिलाओं की प्रधानता है, पुरुष संगत कार हैं. ऋत्विक ‘प्रतिभागियों की दोहरी यौन भूमिकाओं के रूपक के रूप में भी पढ़ने’ की बात कहते हैं. लम्बे समय तक ‘कोमल एकता’ में महिलाओं का नृत्य, ढोल बजाने वाले पुरुष का ढोल को तेज‌ गति से बजाने में वे ढोलक की थाप को पुरुषों के उन प्रहारों का प्रतीक कहते हैं “जो उनकी महिलाओं को एक नये जीवन को जन्म देने के लिए प्रेरित करते हैं.” फिल्म में छऊ नृत्य के दृश्य हैं. आदिवासी छऊ नर्तक पंचानन और पुरुष और महिलाओं सिद्धांतों को घटक के ‘एक दिलचस्प क्रम’ में प्रस्तुत करते हैं.

घटक की फिल्मों में आदिवासी बिहार-पश्चिम बंगाल के सीमा क्षेत्र के हैं. उन्होंने 1950 के दशक के मध्य में झारखंड  के ओरांव जनजाति समुदाय पर फोकस किया. उनके नृत्य, संस्कृति एवं रिचुअल्स उन्होंने प्रस्तुत किए. भूमि और प्राचीन परस्परा से उनके संबंधों पर ध्यान दिया, आधुनिकता और औद्योगिक विकास ने आदिवासियों के सामने जो संकट उपस्थित किया, जो चुनौतियाँ प्रस्तुत की, उसका उन्होंने चित्रण किया. विस्थापन, सांस्कृतिक क्षति और अपनी अस्मिता को सुरक्षित करने के उनके संघर्ष को अपनी फिल्मों में प्रस्तुत किया. आदिवासी चरित्रों को उन्होंने काफी गहराई और जटिलता में देखा. घटक की फिल्मों में आदिवासी पात्र, परिवेश, स्थान, अस्मिता, संस्कृति आदि पर विस्तार से विचार की जरूरत है, जिसे मेघनाथ जैसे फिल्मकार पूरा कर सकते हैं.

 

११)

सत्यजित रे और ऋत्विक घटक के जीवन एवं शैली में ही नहीं, फिल्मों में भी कुछ अंतर है, कहानियों में भी. दोनो कहानीकार भी थे, जिनकी कुछ कहानियों का अनुवाद चन्द्र‌किरण राठी ने किया है. चन्द्रकिरण राठी सत्यजित रे की कहानियों के अधिकांश पात्रों को असफल मानती हैं. वे कहानियाँ पात्रों के मानोजगत से पाठकों को परिचित कराती हैं, पाठकों को सोचने को विवश करती है, “लेकिन घटक की कहानियाँ साधारण जन के संघर्ष की कहानियाँ हैं जो पाठक को स्तब्ध करती हैं… उनके पात्र अत्याचार सहन करते हुए इस कदर अपना आपा खो बैठते हैं कि हिंसक होकर हत्या तक कर डालते हैं.”

घटक का ध्यान सत्य पर अधिक रहा. साहित्य और फिल्म का उनके लिए एक प्रयोजन था. वे किसी परम्परा से जुड़े नहीं थे, पर उनकी एक परंपरा बनी, शिष्य बने और बढ़े. घटक के फिल्मों का अपना एक व्याकरण है. वह क्षणांश में एक पूरे भाव,मनोभाव को रख देते हैं, रच देते हैं. एक समय विशेष में निर्मित होने के बाद भी उनकी फिल्में समयातीत और कालातीत हैं. घटक समय से परे हैं. संगीत की उन्हें बड़ी गहरी समझ थी. कुछ समय के लिए उन्होंने उस्ताद बहादूर खान से सरोदे बजाना सीखा था. बीथोबन उनके प्रिय थे, जिसके संघटक/ संयोजन (कम्पोजीशन) को उन्होंने अपनी कुछ फिल्मों की पृष्ठभूमि में डाला था.

कलाएँ घटक के लिए एक दूसरे से विच्छिन्न नहीं है. घटक सभी प्रकार के विभाजन के विरुद्ध हैं. उनके समय से कहीं अधिक आज केवल अपने देश में ही नहीं, पूरे विश्व में भी यह विभाजन कहीं अधिक बढ़ा है. इस दृष्टि से आज ऋत्विक घटक एक अधिक मूल्यवान, अर्थवान एवं प्रासंगिक फिल्मकार हैं. सरोद वादक अलाउद्दीन खान पर उन्होंने एक डॉक्यूमेंट्री बनाई, रामकिंकर बैज पर भी. घटक ने लिखा है कि अलाउद्दीन खान “ मेरे गुरु थे, फिर भी बहुत पागल थे. संगीत नाटक अकादमी की ओर से उनके जीवन पर एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाने के लिए मुझे नियुक्त किया गया और मुझे उनके बारे में बहुत सारी बातें पता चलीं…अलाउद्दीन साहब ने खुद मेरे साथ कहानियाँ साझा कीं, वह मुझसे बहुत प्यार करते थे.” घटक के लिए वृत्तचित्र का कम महत्व नहीं था. डॉक्युमेंट्री एक प्रवृत्ति थी. उनके जीवन को देखकर कुछ लोगों को महान् चित्रकार वॉन गाँग की याद आती है. दोनों में भावनात्मक तीव्रता थी, निजी संघर्ष था, गंभीर उपेक्षा थी और दोनों का महत्व इन‌की मृत्यु के बाद समझा गया. ऋत्विक घटक को जानने और समझने के लिए केवल उनकी फिल्में पर्याप्त नहीं हैं. उनकी मृत्यु के पश्चात उनके लेखों, इंटरव्यूज आदि की पुस्तकें-‘सिनेमा एँड आई’, ‘रोज ऑफ फेंसेज’ और ‘आई स्ट्रॉड माई रोड : मौंटेज ऑफ ए माइंड’ भी पढ़ी जानी चाहिए. उन्हें ‘रिबेल’ के रूप में कइयों ने देखा है. इंडिया इंटरनेशनल सेंटर क्वार्टली, वॉल्यूम 27 संख्या 3 में सुमंत बनर्जी का प्रकाशित लेख है-‘द ऑटो पोर्टेट ऑफ ए रिबेल’. शोमा ए. चटर्जी की पुस्तक है ‘ऋत्विक घटक : द सेल्यूलाइड रिबेल’ (रूपा, 2004) घटक ने अपनी फिल्मों के बारे में यह कहा है-“मेरी फिल्में लोगों के दिमाग में कुछ जगाने के लिए हैं, एक फिल्म फूल नहीं है, यह एक हथियार है.”

नवरूपा भट्टाचार्जी ने घटक की पत्नी सुरमा घटक के साथ मिलकर एक फोटो बुक 2016 में प्रकाशित की-‘लाइफ़ आफ्टर ऋत्विक घटक’ यह घटक का एक चित्रात्मक ‘नेरेटिव’ है. सुरमा घटक ने ऋत्विक घटक के बारे में कहा और लिखा है. बांग्ला में उनकी पुस्तक है ‘ऋत्विक  पोड्डा थेके तितास’ सुरमा घटक के अनुसार उन्होंने “हमारे समाज का विच्छेदन किया और उसे अपनी फ़िल्मों में दिखाया.” उनके यहाँ ‘सांस्कृतिक विच्छेदन और निर्वासन’ प्रमुख है. विभाजन एवं जड़ों से विच्छिन्नता ने घटक के जीवन को बुरी तरह प्रभावित किया. बचपन पूर्वी बंगाल में बीता था, नदियों, नाविकों के गीतों और हरी घास के मैदानों के बीच. उनके पात्र शहर में घुटन महसूस करते हैं, वहाँ खो चुके बचपन और घर की ही खोज नहीं, एक देश की भी खोज है. इसलिए उनकी फिल्में हमें खालीपन के एक ‘सेंस’ से भर देती हैं जहाँ गरीबी, दुःख और संघर्ष के साथ कुछ समय के लिए ही सही आशा और प्यार भी है. उनका सिनेमा ‘पोएटिक’ है.

कविता, चित्र, संगीत, नृत्य सभी कलाएँ यहाँ एक साथ हैं, जो केवल फिल्म निर्माण के लिए ही नहीं, जीवन के लिए, हम सबके लिए, एक बड़ा संदेश भी है. वह संदेश हमारे एक साथ होने का है. उनकी फिल्मों को देखते हुए हमारी इन्द्रियाँ-मुख्यतः नेत्रेन्द्रिय और श्रवणेन्द्रिय सजग हो जाती हैं. आंख और कान अलग नहीं नहीं रहते, पास आ जाते हैं. ‘इतने पास अपने’. घटक ने अपनी विशिष्ट शैली में ध्वनि निर्माण किया है. उनकी फिल्म-भाषा एकसाथ मुग्धकारी और क्रान्तिकारी है. फिल्मकारों द्वारा पाँच प्रकार की ध्वनियों की चर्चा की गयी है, उन पर विचार किया गया है. ध्वनियों का संगीत से अभिन्न रिश्ता है. मिशेल चिओन की किताब ‘म्यूजिक इन सिनेमा’ (कोलम्बिया यूनिवर्सिटी, 2021) का अनुवाद ‘अनहर्ड मेलोडीजः नैरेटिव फ़िल्म म्यूजिक’ (1987) की लेखक फिल्म विदुषी क्लाउडिया बुर्मैन ने किया है.

संगीत सिनेमा का एक शक्तिशाली उपकरण है. फिल्मों में भावनात्मक जुड़ाव, कथा वाचन, वातावरण-निर्माण, चरित्र-चित्रण, दृश्य संवर्धन आदि के लिए संगीत का उपयोग किया जाता है. संभवतः अभी तक घटक की फिल्मों के संगीत-पक्ष पर न कोई पुस्तक है और न विस्तृत सुदीर्घ आलेख. उनके मेलोड्रामा और फेमिनिज्म पर विचार हुआ है. अनीक चौधरी ने उनके सिनेमा में फेमिनिज्म और मेलोड्रामा पर लिखा है. ‘नोइंग घटक : अनालिसिस ऑफ लाइफ, फेमिनिज्म एँड मेलोड्रामा इन ऋत्विकस घटक्स सिनेमा’ घटक ने विभाजन के बाद के संसार के ‘मेलोड्रामा’ का निर्माण किया. उनकी फिल्मों के विविध पक्षों पर देश-विदेश के फिल्म समीक्षकों ने 1980 के दशक से जो विचार करना आरंभ किया था वह आज भी जारी है. घटक ध्वनियों के मास्टर हैं. उनके छोटे शॉर्ट्स अपने में पूर्ण हैं, पर वे मिलकर भी एक होते हैं. फिल्म निर्माता अपनी फिल्मों में जिन पांच प्रकार की ध्वनियों-भाषा, संवाद, संगीत, ध्वनि-प्रभाव, दृश्य-प्रभाव और मौन का उपयोग करते हैं वह सब घटक के यहाँ शीर्ष पर हैं. उनके यहाँ भव्य चीजें टूटती हैं, जिसे वे ध्वनि के माध्यम टूटने की प्रतिध्वनि उत्पन्न करते हैं. अमूर्त तत्व (दिल का टूटना) के लिए वहाँ कोई ध्वनि नहीं है. उनकी फिल्म भाषा क्रांतिकारी है.

दो वर्ष पहले सबरीना स्वर्ण का लेख उनकी 49वीं पुण्यतिथि पर ‘द डेली स्टार’ में प्रकाशित हुआ था-‘ रित्विक घटक्स रिवॉल्यूशनरी फिल्म लैंग्वेज’. पहली बार उनकी फिल्मों का गंभीर विस्तृत अध्ययन अपनी पुस्तक ‘ऋत्विक घटक : ए रिटर्न टू द एपिक’ (1982) में आशीष राजाध्यक्ष ने किया, जो घटक की आलोचना का आधार है. इसके एक अध्याय में उन्होंने ‘आर्केटाइप की स्वतंत्रता’ (द फ्रीडम ऑफ़ ‘आर्केटाइप) पर विचार किया है. 21वीं सदी के तीसरे दशक में घटक कई अर्थों में हमारे लिए जरूरी हैं :-‘एसेंसियल ऋत्विक’ विभाजन-विस्थापन उनके यहाँ विषय नहीं जीवन है, सांस है. दो वर्ष पहले आशीष राजध्यक्ष की नई किताब आई-‘जॉन-घटक-तारकोवस्की : नागरिक, फिल्म निर्माता, हैकर्स’.

भारतीय और अंतरराष्ट्रीय फिल्मों पर घटक का गहरा प्रभाव है. उनके यहाँ विभाजन, विस्थापन, सामाजिक मुद्दे, मानवीय भावनाएँ, शरणार्थी संकट, सामाजिक न्याय, गरीबी,असमानता, मार्क्सवादी विचारधारा, दुःख,निराशा, आशा सब एक नई फिल्म शैली में प्रस्तुत है. घटक के जीवन को आरंभिक एवं उत्तर जीवन में बांट कर देखने की कोशिश की गई है. सुमंत बनर्जी की पुस्तक है ‘ऋत्विक घटक : द अर्ली ईयर्स’. ‘टेलीग्राफ’, ‘हिंदू’ सहित कई अंग्रेजी अखबार उनके जन्म शती वर्ष पर लेख प्रकाशित कर रहे हैं. आवश्यक है ऋत्विक के निबंधों को पढ़ना भी. अपने एक निबंध ‘बंगाली सिनेमा : साहित्यिक प्रभाव’ में वह आंसू के समय में वर्ग वाद विवाद को जोड़ते हैं. ‘द एपिक अप्रोच’ में रोने को एक महाकाव्य लोगों के एक महत्वपूर्ण गुण के रूप में संदर्भित करते हैं.

आज जब पूरी दुनिया में विनाशकारी शक्तियाँ नग्न नृत्य कर रही हैं, ‘सुवर्ण रेखा’ के संबंध में डेरियस कूपर का यह कथन याद करना चाहिए-“ चाहे वह हिरोशिमा और नागासाकी पर गिराए गए घातक बम हों या सत्ता के दीवाने नेताओं के हाथों में आज की परमाणु मिसाइलें या फिर दुनिया के कई हिस्सों में अल्पसंख्यकों का नरसंहार, विनाश करने की इस शक्ति का सीता सामना करती है और उसे डराती है.” ऋत्विक घटक ‘पॉलिटिकल फिल्ममेकर हैं’. ‘मेघे ढाका तारा’ का अंत नीता की इस चीख से होता है-“भाई मैं जीना चाहती हूँ, भाई मैं जीना चाहती हूँ” क्या हम नीता की चीख सुन रहे हैं? क्या नीता की चीख केवल एक पात्र की चीख है, या स्त्री समाज की चीख है या उससे आगे कहीं हम इस चीख को पूरे वैश्विक परिवेश और संदर्भ में भी देखना चाहेंगे? एक सभ्यता की चीख के रूप में भी?

घटक की अब प्रायः सभी फिल्में सुलभ हैं. कलकत्ता के भीड़ वाले चेतला बाजार में सरकार द्वारा आबंटित फ्लैट (‘ऋत्विक घटक मेमोरियल ट्रस्ट’) का  में जो आठ फीचर फिल्में और उपेक्षित वृत्त  चित्र थे, उनका उद्धार हो चुका है. घटक की पत्नी और दो बेटियों का निधन हो चुका है. पुत्र ऋतबान घटक फिल्म निर्माता हैं और कई वर्षों से चिकित्सा के अधीन हैं. उनके बाद की पीढ़ी में परमव्रत चटर्जी एक अभिनेता और फिल्म निर्माता हैं. ऋत्विक मेमोरियल ट्रस्ट ने घटक के कार्यों को बढ़ाया. अपने जीवन में सुरमा घटक ने ऋत्विक की फिल्मों और अधूरे कार्यों का अधिकार ‘लाइफ आफ्टर ऋत्विक घटक’ की लेखिका नबारूपा भट्टाचार्य को सौंप दिया था. अब वे ऋत्विक मेमोरियल ट्रस्ट की प्रमुख हैं. यह ट्रस्ट घटक के जन्मशती वर्ष में कई कार्य कर रहा है. कोलकाता में कई आयोजन हो रहे हैं. कोलकाता के ‘द भवानीपुर एजुकेशन सोसायटी कॉलेज’ ने जनशताब्दी के अवसर पर पूरे वर्ष भर ‘ऋत्विक इन रेट्रोस्पेक्ट इवेंट’ रखा है, जिसकी शुरुआत 8 जनवरी 2025 से हो चुकी है. ऋत्विक घटक की फिल्में देखनी-दिखानी चाहिए.

हिंदी प्रदेश में संभवतः एक दिन का पहला आयोजन कथाकार रणेंद्र के संयोजकत्व में 28 जून को रांची में हो रहा है. ऋत्विक घटक की जीवनी पर आधारित फिल्म कमलेश्वर मुखर्जी की ‘मेघे ढाका तारा’ यूट्यूब पर उपलब्ध है.

ऋत्विक घटक इस समय हमारे लिए जरूरी हैं. उनकी फिल्मों का केवल कलात्मक पक्ष नहीं है, एक सामाजिक-सांस्कृतिक पक्ष भी है. ‘जुक्ति तोक्को आर गोप्पो’ में नीलकंठ बागची ने कहा है-|

“मैं जल रहा हूँ, हर कोई जल रहा है, सारा ब्रह्मांड जल रहा है.”

___________

17 दिसम्बर 1946 को बिहार प्रान्त के मुज़फ्फ़रपुर जिले के गाँव चैनपुर-धरहरवा के एक सामान्य परिवार में जन्मे रविभूषण की प्रारम्भिक शिक्षा गाँव के आसपास हुई. बिहार विश्वविद्यालय के लंगट सिंह कॉलेज से हिन्दी ऑनर्स (1965) और हिन्दी भाषा-साहित्य में एम.ए. (1967-68) किया. भागलपुर विश्वविद्यालय से डॉ. बच्चन सिंह के निर्देशन में छायावाद में रंग-तत्व पर पी-एच.डी. (1985) की. नवम्बर अक्टूबर 2008 में राँची विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में नियमित लेखन. समय और समाज को केन्द्र में रखकर साहित्य एवं साहित्येतर विषयों पर विपुल लेखन.

‘फ़ासीवाद की दस्तक’, ‘बुद्धिजीवियों की जिम्मेदारी’ ‘वैकल्पिक भारत की तलाश’, ‘कहाँ आ गये हम ओट देते-देते’ और ‘रामविलास शर्मा का महत्व’ पुस्तकें आदि अभी तक ९ पुस्तकें प्रकाशित.
ravibhushan1408@gmail.com

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Comments 5

  1. जयशंकर says:
    2 months ago

    नमस्कार। आप अच्छे होंगे। आपकी कुशलता की कामना करता हूँ। आज समालोचन पर ऋत्विक घटक पर पढ़कर बहुत अच्छा लगा। आपने अपने पोर्टल के माध्यम से हिंदी के पाठकों को कितना कुछ जरूरी और महत्वपूर्ण दिया है। आपके प्रति मन में कृतज्ञता बनी रहती है। गाड़ी भर भर शुभकामनाएं। आपकी सर्जनात्मकता बनी रहे, बढ़ती रहे, ऐसी कामनाएं साथ रहेंगी।

    Reply
  2. हीरालाल नागर says:
    2 months ago

    ऋत्विक घटक के जीवन पर पहली बार विस्तार से जाना।पचास साल की उम्र में ही उन्होंने ढेर सारा काम किया, जो अक्षुण्य है।
    इस वृतांत को पुस्तक रूप में जल्द आना चाहिए, ताकि सभी लोग ऋत्विक घटक के कालजयी व्यक्तित्व को विस्तार से जान-समझ सकें।।

    Reply
  3. डॉ उर्वशी says:
    2 months ago

    घटक पर यह लेख केवल एक फिल्मकार के कलात्मक पक्ष को नहीं खोलता, बल्कि एक समूचे सांस्कृतिक समय को समझने की दृष्टि प्रदान करता है। डॉ. रविभूषण की विश्लेषण दृष्टि ने ऋत्विक घटक के सिनेमाई कैनवस को जिस तरह से विचार और संवेदना की भूमि पर रखकर पढ़ा है, वह दुर्लभ है। यह लेख बताता है कि घटक का सिनेमा केवल दृश्य माध्यम नहीं, एक सामाजिक दस्तावेज़, एक व्यक्तिगत त्रासदी, और एक सांस्कृतिक अन्वेषण भी है। लेख की भाषा, अंतर्दृष्टि और ऐतिहासिक गहराई पाठक को बार-बार लौटकर पढ़ने के लिए बाध्य करती है। यह निःसंदेह समालोचन की सबसे महत्वपूर्ण प्रस्तुतियों में से एक है।

    Reply
  4. नरेश गोस्वामी says:
    2 months ago

    ‘ऋत्विक घटक का जीवन और उनका फिल्म-संसार’ पढ़ने के बाद दो बातों पर लगातार ध्यान जाता रहा‌। एक तो यह कि इसकी प्रस्तुति में संपादक को कितना बौद्धिक और कलात्मक परिश्रम करना पड़ा होगा! मुझे ठीक अंदाज़ा नहीं है लेकिन फ़िल्म के पोस्टरों को संदर्भ और स्थान के अनुसार प्लेस करना ख़ासा कसाले का काम रहा होगा। इस काम के लिए कृतज्ञता एक कमतर शब्द है!
    दूसरे, इस लेख को पढ़ना एक पुस्तिका पढ़ने के बराबर था। ज़ाहिर है कि इतने संदर्भों, ब्योरों और उद्धरणों से लैस ऐसे लेख को एक बैठकी में नहीं पढ़ा जा सकता था। इसलिए, पढ़ते हुए यह ख़याल उभरता रहा कि इतने लंबे लेख को दो या तीन क़िस्तों में दिया जाना चाहिए।
    ख़ैर, रविभूषण जी ने ऋत्विक घटक के जीवन, उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धताओं और उनके कला-बोध को जिस घनिष्ठ अंतर्सूत्रता में रखकर देखा है, वह किसी भी फ़िल्म निर्देशक के समग्र मूल्यांकन का एक संभावित प्रतिमान हो सकता है।
    इसकी लिखत या बुनाई में एक ख़ास चीज़ घटित हुई है : यहां ऋत्विक घटक अपनी फ़िल्मों के निर्देशक ही नहीं बल्कि व्यथा, टूटन, विफलताओं, मोहभंग और बेहतर दुनिया की चाहत में लहू-लुहान होते अपने तमाम पात्रों के मेटा-नैरेटिव तथा विस्थापन, राजनीतिक अवसरवाद और सामूहिक महास्वप्नों के मिश्रित आर्कटाइप से उपजी त्रासदियों के रूपक बनकर उभरते हैं।

    Reply
  5. आनंद स्वरूप वर्मा says:
    2 months ago

    ऋत्विक घटक पर मैंने बहुत सामग्री जुटायी है और पढ़ी है पर इतना विश्लेशणात्मक लेख पहली बार देखने को मिला। रविभूषण जी को बधाई।

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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