बंगाल का शाही बाघ अंग्रेजी से अनुवाद : निशिकांत ठकार |
छाले जो अब भी तड़पाते हैं
‘धधकती आग में खिलने को बेताब गुलाब’ जब भी मैं ऋत्विकदा के व्यक्तित्व, विचार और फ़िल्मों के बारे में सोचता हूँ तब मेरे मन में यही बिंब उभरता है. आग खोटी या नकली बात के लवलेश तक को जला डालती है और गुलाब कोमलतम अनुभूतियों को जीवित रखते हैं. उनके व्यक्तित्व और मूल्यों की स्मृति दिन-ब-दिन और भी दृढ़ हो जाती है.
जुक्ति तोक्को आर गोप्पो (संक्षेप में ‘जुतोगो’) ऋत्विकदा की सर्जक प्रतिभा का अंतिम विस्फोट था. भारतीय महाकाव्य के रचयिता वाल्मीकि और व्यास की तरह वह भी अपनी स्वयं की कृति में उपस्थित होते थे. इस फ़िल्म का प्रधान चरित्र नीलकंठ है, जिसका नाम भगवान शिवजी के एक आविर्भावस्वरूप पर रखा गया था. इस किरदार को ऋत्विकदा ने निभाया था. शिवजी ने सभी प्रकार के सृजन के विनाशक महाभयंकर हलाहाल का प्राशन किया और जीवन के सभी रूपों की रक्षा की. इस विष से शिवजी का गला नीला हो गया. इसलिए उनका नाम हुआ नीलकंठ .
‘जुतोगो’ प्रतिबिंब है ऋत्विकदा के जीवन और ज़माने का! ऋत्विकदा का व्यक्तित्व खंडित था. वह बेघर थे और निरंतर आवारा थे, अश्वत्थामा की तरह और सह रहे थे बंगाल के विभाजन के शाश्वत रिसते ज़ख़्म को. विश्व की विविध संस्कृतियों की गहरी समझ ने उन्हें विश्व-नागरिक बना दिया था और बंगाल के गहन प्रेम ने उन्हें विभाजित बंगाल का शरणार्थी बना दिया था. घरेलू कर्तव्य निभाते हुए निहित कर्मकांड करने वाले गृहस्थ की अपेक्षा ऋत्विकदा को ‘श्रमण’ कहना उचित होगा, जो किसी के आध्यात्मिक अधिकार को नहीं मानता था. ‘जुतोगो’ में अपनी घुमक्कड़ी में वह बंगाल के सभी स्तरों के लोगों से मिलते हैं. उनके साथ तर्क करते हैं, संवाद करते हैं, चर्चा करते हैं और विचारों-कहानियों का लेन-देन करते हैं. फ़िल्म का शीर्षक यही बताता है. लेन-देन की इस निकटता के कारण लगता है कि वह जीवित रूप में हमारे सामने मौजूद हैं. पर्दे पर दिखाई देने वाले सिर्फ़ बिंबमात्र नहीं हैं.
वह नक्सल आंदोलन के युवा स्त्री-पुरुषों से मिलते हैं. उनके मन में उनके प्रति करुणा भी है लेकिन उनके साथ गंभीर मतभेद भी हैं. फ़िल्म के अंत में हम देखते हैं कि एक तरफ़ सशस्त्र युवा क्रांतिकारी हैं और दूसरी तरफ़ राज्य के भाड़े के सिपाही है. शांति और करुणा के लिए आवाहन करता हुआ हमारा नायक सरहद पर लड़खड़ाता है और मारा जाता है.
उनके व्यंजक दृश्यश्रव्य रूपाकारों की गहराई, समृद्धि और शक्ति को फ़िल्म की पटकथा और चरित्रों से समझना मुश्किल है. घटनाएँ और चरित्र ऐहिक और रोज़मर्रा की दुनिया के हैं. निर्णायक क्षणों में वे कालमुक्त और सशक्त आदिरूपों में कायांतरित हो जाते हैं. मामूली मध्यवर्गीय महिला शक्तिरूपा देवी की ऊँचाई धारण करती है. एक साधारण-सी लोकधुन ऋत्विकदा के ध्वनिमूलक जादू से छा जानेवाली स्वरावली बन जाती है. चावल के पकने की आवाज़, अपनी चंचल बेटी के भविष्य के लिए दिल में तड़पने वाली माँ की भावना को व्यक्त करती है. कोड़े मारने की आवाज़ नायक के विवेक की टीस की व्यंजना करती है. मरणोन्मुख नायिका के आक्रोश की प्रतिध्वनियाँ मानव-अनुभूतियों के प्रति उदासीन हिमालय की कंदराओं में धीरे-धीरे विलीन हो जाती हैं.
दृश्य-बिबों और ध्वनि-संरचनाओं पर ऋत्विकदा का संपूर्ण नियंत्रण उनकी सारी फ़िल्मों में देखा जा सकता है. सिनेमा की भाषा को जिन ऊँचाइयों तक वह ले गये हैं और जो अनुभूतियों की गहराइयों की थाह उन्होंने ली है, उसे उनके सभी फ़िल्मों में अनुभव किया जा सकता है.
उनकी फ़िल्मों में द्वि-ध्रुवात्मक चलन होता है : दृश्य और श्रव्य मिलकर हमें समधातता या संवेदन समन्विति (सिनेस्थेशिया) का समृद्ध अनुभव देते हैं, जो हमें गहरे, ऐंद्रिय और भावनात्मक स्तर पर ले जाते हैं. सिनेमाई रूपाकार और बौद्धिक अंतर्वस्तु कथन की धारा के साथ ऊपर उठकर सिनेमाई रूपाकार और बौद्धिक अंतर्वस्तु को सबसे ऊँचे स्तर पर पहुँचा देती हैं. ‘जुतोगो’ ऋत्विकदा की हंसगीति है. अंतिम रचना . जैसे ही हम उनके दीर्घ होते जाते सुरों को सुनते हैं, नायक की अंतिम जयकार के किए काली होती जाती परछाइयाँ छाने लगती हैं. पर्दे पर उसकी मृत्यु भौतिक मृत्यु का भी संकेत बन जाती है. उनकी अंतिम फ़िल्म की घटनाएँ और चरित्र उनके जीवन की उस ज़मीन से लिये हुए हैं जहाँ वह जी रहे थे और अवलोकन कर रहे थे. वह बिखरे हुए हैं और उनसे कोई पटकथा नहीं उभरती . फ़िल्म में चरित्र का क्रमिक विकास नहीं है. समय और मूल्य ही है जो बड़ी तेज़ी से बदल रहे हैं.
‘जुतोगो’ में कोई सुपरिभाषित व्याकरण नहीं है और इस वेदनांकित अभिव्यक्ति में संतुलित सिनेमाई संरचनाओं के लिए कोई गुंजाइश ही नहीं है. चीख-पुकार इतने तीव्र हैं कि आप उन्हें अतिनाटकीय स्वरावली के रूप में भी नहीं सुन सकते. आप सिर्फ़ मौत की चीख सुन सकते हैं. सबकुछ उजाड़ है, मानव मूल्यों का विस्मरण हो गया है और अब सिर्फ़ ह्रास और विनाश बाक़ी है.
एक अविस्मरणीय कहानी

ऋत्विकदा ने बांगलादेश के मुक्तिसंग्राम पर एक फ़िल्म बनाई थी ‘दुर्बारगति पद्मा’. जब भी हम उनसे शुरुआती फ़िल्मों के बारे में पूछते, वह कहते,
“उनके बारे में मुझसे कुछ मत पूछो. जिस आदमी ने उन्हें बनाया, वह मर गया. जिस आदमी को तुम यहाँ देख रहे हो उस आदमी ने पद्मा नदी को ख़ून से लाल होते हुए देखा है.”
बात को जारी रखते हुए कहते,
“हम नावों में फ़िल्म शूट करने के लिए जा रहे थे. हमारी नावों के आसपास बहने वाली फूली हुई लाशों की बदबू असह्य हो रही थी. रात में उनके अंग और खोपड़ियाँ एक दूसरे से और कभी-कभी हमारी नावों से भी टकरा जाती. उस थड़थड़ की आवाज़ को सुनना मैं कभी रोक नहीं पाऊँगा. मैं कैसे सिनेमा और कला के बारे में बात कर सकता हूँ? मैंने अपनी जवानी में विभाजन के साम्प्रदायिक दंगों को देखा है और अब फिर से ख़ून का यह सैलाब!”
‘जुतोगो’ में ऋत्विकदा ने अपने समकालीन बंगाल का चित्र अंकित किया है. उनकी स्वप्न दृष्टि और दूर दृष्टि इतनी सशक्त थी कि आनेवाले वर्षों में समूचा भारत कैसा होगा, इसे दिखाने में ही उसका समापन हो गया. एक तरफ़ जीर्ण-जर्जर सड़ियल तो दूसरी तरफ़ नया अरुणोदय और महान परंपरा की बुनियाद पर नई रचना .
बांगलादेश के सिल्हट में जिंदबाजार परिक्षेत्र में ऋत्विकदा का जन्म हुआ. दो धार्मिक समुदायों के भेद पर बंगाल का विभाजन हुआ. हिंदू और मुस्लिम का विभाजन. ‘बाँटो और राज करो’ का यह चतुरतम् उदाहरण था. और कभी यह भारतीय उपमहाद्वीप में चल रहे कई अंतर्राष्ट्रीय संघर्षों का मूल कारण है.
ऋत्विकदा का हार्दिक विश्वास था कि दरारें मिट जायेंगी, बंगाल फिर से एक होगा और वह इन दो आधे बीजों को एक होते हुए नए जीवन को जन्म लेते हुए देखेंगे. तब से इस सांस्कृतिक भू- दृश्य की दरारें और भी बढ़ती जा रही हैं.
महान् वास्तुशिल्पी फ्रॅन्क लॉयड राईट ने कहा था कि यदि किसी वास्तुशिल्प में महानता है तो उसे उसके खंडहरों में भी देखा जा सकता है. ऋत्विकदा की दो अंतिम फ़िल्में ‘जुतोगो’ और ‘एकटी नदीर नाम’ ऐसी ही दग्ध संरचनाएँ हैं. ऋत्विकदा के अंदर जलनेवाली आत्महंता की आग के बावजूद उनके वैभव और महत्ता को उनमें बराबर देखा जा सकता है. उनकी आरंभिक और कुछ ज़्यादा ही संरचित फ़िल्में उनकी प्रतिभा को एक तरह से सिद्ध करती हैं, तो उनकी दो अंतिम फ़िल्में, प्रतीकात्मक चरित्रों से और संयोग की घटनाओं के पूर्ण रूपक कथाओं की दिशा में जाती हुई, कुछ दूसरी तरह से सिद्ध करती हैं.
महान शक्ति की झांकियाँ
दो एक फ़िल्मों को छोड़ दें तो, ऋत्विकदा की फ़िल्मों के चरित्र, उनकी दुनिया, उनकी परिस्थितियाँ, उनके जीवन के प्रसंग; सब कुछ-कुछ निम्न मध्यवर्ग के परिक्षेत्र में बंधे हुए हैं. लेकिन उनके बिंब उनके ध्वनि प्रभाव, संगीत और लयताल – इनके बारे में ऐसा कुछ है कि वे परिचित दायरे के बाहर चले जाते हैं.
मैंने मणि कौल की फ़िल्म ‘आषाढ़ का एक दिन’ (19697) में अभिनय किया था. मणि के यूनिट का हर कोई ऋत्विकदा का छात्र था. कसौली हमारा शूटिंग का क्षेत्र था. वहाँ जाड़े की ठिठुरती ठंड में हम शूटिंग की पाली ख़त्म होने पर अलाव को घेरकर बैठते थे और बातें करते हुए रात्रि गुज़ार देते थे. इन रसरंजनी सत्रों में बहुत सारी बातें सुनते-सुनाते थे. अधिकांश बातें ऋत्विकदा की फ़िल्मों, पढ़ाई, विक्षिप्त बर्ताव और प्रतिभा के बारे में हुआ करती थीं. कुछ सच्ची, कुछ झूठी, कुछ काल्पनिक भी लेकिन सब ज़िंदादिल और स्मरणीय!
जैसे समय गुज़रता गया, इन कहानियों की पच्चीकारी ने मेरे लिए ऋत्विकदा का व्यक्ति-स्वरूप ‘पर्सोना’ बना दिया. इसके बहुत सारे अंग अंतर्विरोधी थे और वह ऐसे ही हैं. मैं जब ऋत्विकदा के बारे में सोचता हूँ या उनकी फ़िल्मों को देखता हूँ, मेरी यादों की बुनियादें डगमगाने लगती हैं. मैं क्या देख रहा हूँ, इस फ़िल्म के बारे में मेरी कौन-सी यादें हैं, मैं क्या सुन रहा हूँ, सच क्या है, बना-बनाया क्या है, मिथक क्या है और दंतकथा क्या है… मुश्किल है तय करना.
ऋत्विकदा को मैंने पहली बार फ़िल्म और टेलिविजन संस्थान, पुणे (FTII) में देखा. इसी जगह पर पहले विख्यात प्रभात फ़िल्म कंपनी का स्टूडियो था. ‘प्रभात फ़िल्म कंपनी’ प्रभात चित्र या प्रभात, भारतीय सिनेमा के इतिहास का यह एक ऊँचा शिखर था. ऋत्विकदा की प्रिय फ़िल्म ‘संत तुकाराम’ यहीं पर बनी थी. यह विदेश में प्रदर्शित होने वाली पहली भारतीय फ़िल्म थी और उसे वेनिस फ़िल्म फ़ेस्टिवल में (1937) विश्व की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म के रूप में नवाज़ा गया था .
संस्थान का परिसर बाईस एकड़ में फैला हुआ और यहाँ बनने वाली फ़िल्मों की तरह सीधा-सादा था. इसमें नए स्टूडियो की चमक-दमक नहीं थी और असुविधाओं की भी. लेकिन यहाँ की हर एक बात, यहाँ के मैदान, वृक्ष, निवासी कमरे- सब भारतीय सिनेमा इतिहास के कुछ महान क्षणों के साक्षी होने के प्रभा मंडल से घिरे हुए थे. ऋत्विकदा इस सुविख्यात परंपरा में न केवल आसानी से शामिल हो गये बल्कि सर्वोच्च भी हो गये.
बंगाल का शाही बाघ

वर्ष 1971 की बात है. संस्थान में निर्देशक पाठ्यक्रम में पहले वर्ष का छात्र था. एक दिन सुना कि ऋत्विकदा संस्थान में आनेवाले हैं और संध्या को छात्रों के साथ बातचीत करने वाले हैं.
उस दिन प्रातः हम कुछ जल्दी ही एकत्र हुए. पुराने प्रभात स्टूडियो के प्रथम फ़र्श पर मेकअप के कमरों की एक कतार थी, जिन्हें अतिथि कक्ष बनाया गया था. हमने ऋत्विकदा को कमरे से अवतरित होकर गलियारे से होते हुए हमारी तरफ़ आते देखा. वे हमेशा सफ़ेद लिबास में रहते थे. उन्होंने बंगाली शैली की धोती पहनी हुई थी और घुटनों तक लंबा कुर्ता ! अपने छरहरे कद और लंबे हाथ-पैरों के कारण वे हमसे ऊँचे लगते थे. वे आजानुबाहु थे. घुटनों तक लंबे हाथ. इससे वे उनकी चांदमारी के क्षेत्र में आनेवाले को आसानी से थप्पड़ जड़ सकते थे. हाँ, लेकिन पर्याप्त उकसाने के बाद! मैंने ऋत्विकदा की आँखों को करीब से देखा है.
बाघ रे बाघ धधकती आग
अरण्यों की है यह रात
कौन-से अमर नैनों या हाथों ने
भयानक सम्मति को तुम्हारी बाँधी है बात?
कौन-सी दूर की गहराइयों औ’ ऊँचाइयों में
जलती है तुम्हारी आँखों की आग?
कौन-से पक्ष के बल पर उसने ऐसा चाहा?
कैसा है वह हाथ जिसने इस आग पर क़ाबू कर दिया?
(विलियम ब्लेक की कविता का अंश)
यह वही आग है जिसने उन्हें सृजन की शक्ति दी और आत्महनन की भी . घातक अल्कोहोल दौड़ता था उनकी रंगों में ख़ून की तरह. पचास पार करते न करते उसने उनको भस्मवत बना डाला.
वह दुर्दम्य थे. उनमें घमंड या अहंकार नहीं था. समर्थनीय गर्व ज़रूर था. उन्हें अपने काम के ऐतिहासिक मूल्य का पता तो था लेकिन अपने काम की आत्यंतिक उपेक्षा से वह दुखी थे. अपवादात्मक सृजन शक्तियों के धनी होने के बावजूद वह विनम्र और विनयशील थे. उनकी फ़िल्मों में हम उनकी बच्चों जैसी मासूमियत और शराफ़त को महसूस कर सकते हैं.
एक दिन वह अचानक हमारी कक्षा में आ गये और हमसे पूछा, “आप में से कितने लोगों ने वृक्ष से प्यार किया है?“ एक-दो हाथ ऊपर उठे. दुखती मुस्कान के साथ उन्होंने कहा, “बाक़ी सब लोग घर जा सकते हैं. तुम लोग कभी कलाकार नहीं बन सकते!”
जब भी में इस बात को याद करता हूँ, मेरे मन में ‘मेघे ढाका तारा’ के प्रथम दृश्य के विशाल वृक्ष का बिंब जाग उठता है. उसके छतनार विस्तार के नीचे एक छोटी-सी आकृति, नायिका का भाई तानपूरा लेकर संगीत का रियाज़ कर रहा है. उसकी बहन उसे समादर भाव से देखती हुई जाती है. समूचा दृश्य प्रातःकाल की मृदुल धूप में नहाया हुआ है. वृक्ष की विशाल छतरी महाकाय हाथ की तरह नीचे की सारी सृष्टि की हिफ़ाज़त करती प्रतीत होती है. जैसे ही सिनेमा आगे बढ़ता है, नीता स्वयं उस छतरी का रूप धारण करती है, जो पूरे परिवार को आधार और सुरक्षा प्रदान करती है. वह दोनों है; आधार देनेवाला खड़ा तना और पर्याप्त सुरक्षा देनेवाली फैली हुई छतरी.
एक निमिष में मैं वृक्ष से प्रेम का कलाकार होने के संबंध को समझ गया.
ओह बीथोवन मेरे मित्र…
फि.टे. संस्थान में संगीत के हमारे अध्यापक थे भास्कर चंदावरकर, जो ऋत्विकदा से बेहद प्यार करते थे और ऋत्विकदा भी उनसे प्यार करते थे. भास्कर रविशंकर के शिष्य थे जो उस्ताद अलाउदीन खानसाहब के शिष्य थे. ऋत्विकदा भी उस्ताद के शिष्य थे. इस तरह दोनों के बीच एक समान सांगीतिक विरासत थी. भास्कर ऋत्विकदा के बारे में अनोखी कहानियाँ हमें सुनाया करते थे. विद्यार्थी उनके कमरे में ऋत्विकदा को घेरकर देर रात तक बैठा करते थे. कभी वे भास्कर को सितार पर कुछ संगीत पेश करने को कहते, जो सामने के संगीत कक्ष से भास्कर ले आते. इस कक्ष में एल.पी. रेकॉर्डों का बड़ा अच्छा संग्रह था और एक बेहतरीन स्टीरिओ सिस्टम भी था. ऋत्विकदा को विद्यार्थियों के साथ संगीत सुनना बड़ा अच्छा लगता था. बीथोवन की नौवीं सिंफनी उन्हें विशेष प्रिय थी. वह भास्कर को उसकी एल.पी. बजाने को कहते . ‘ओड टू ज्वाय’ कोरल पार्ट तक वह पहुँचती तब ऋत्विकदा अपनी खरज की आवाज़ में कहते, “मेरे मित्र, बीथोवन, कितनी दिव्य है यह! कैसे तुमने इसे सिरजा होगा !” दूसरे किसी ने ऐसा कहा होता तो वह बेहद बेतुका, अनर्गल और हास्यास्पद होता. लेकिन ऋत्विकदा ने तो दिल से बोला था. एक प्रतिभा का दूसरी प्रतिभा को किया हुआ सलाम. इनकी उत्तेजना संक्रामक थी और वहाँ उपस्थित सबको आविष्ट कर गई.
सच्चे रूमानी की विलक्षण बात यह है कि वह एक चुटकी में एक काल से दूसरे में कूद सकता है. अपनी कल्पना से वह काल और अवकाश की बाधाओं को पार कर सकता है.
ऋत्विकदा विविध संस्कृतियों और पर्यावरणों में घुलमिल सकते थे. वह एक मिनट में वर्षों की यात्रा पार कर सकते थे और कालिदास के पास जा बैठते थे या सोफोक्लिस की तारीफ़ में तालियाँ बजा सकते थे और अरिस्टोफ़िनिस के साथ ठहाके लगा सकते थे. कभी बुद्ध विहार की यात्रा करते हुए वहाँ मौजूद भिक्षुकों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हो जाते थे या किसी प्राचीन संस्कृति के जादू में खो जाते थे. उनकी भावनाएं, उनके अनुभव, उनका विश्लेषण शील विचार और उनकी अंतर्दर्शी प्रकृति सब मिलाकर बन जाती थी ऋत्विकदा की दुनिया. इतिहास में गहरी जड़ें ज़माने के बावजूद उन्होंने इसे कभी कालातीत को पहचानने में बेड़ी नहीं बनने दिया.
बर्गमन : पक्का बदमाश
कलाकार की ख्याति से ऋत्विकदा कभी प्रभावित नहीं हुए. उनकी महत्ता को वे स्वयं परखना चाहते थे. प्रस्थापित नामों की प्रशंसा करने वालों की कतारें कितनी भी लंबी क्यों न हो. उन्हें अनुचित लगने पर वह अपशब्दों और गालियों की बौछार भी कर सकते थे.
एक दिन ढलती संध्या के समय ऋत्विकदा हमें संस्थान के मुख्य थिएटर के बाहर मिले. हम चाहते थे कि ऋत्विकदा हमें बर्गमन की फ़िल्म ‘सायलेन्स’ दिखाए और उसके बारे में अपने विचारों से अवगत करे. फ़िल्म आर्काईव संग्रहालय प्रमुख पी. के. नायर भी वहाँ उपस्थित थे. ऋत्विकदा ने कहा, “नायर, इनको उस बदमाश बर्गमन की ‘सायलेन्स’ दिखा दो.
करीब आधी रात हो चुकी थी. डूबते को तिनके का सहारा. तुरंत कुछ सोचते हुए नायर सर ने कहा, “अगर बर्गमन बदमाश है, तो उसकी फ़िल्म दिखाने में क्या तुक है?”
ऋत्विकदा ने थिएटर की तरफ़ कदम बढ़ाये ही थे. उनके फ़िल्मों की तरह उनके जीवन में भी काफी मेलोड्रामा था. वह सहसा रुक गये और नाटकीयता से पीछे मुड़ गये. बाये कंधे की तरफ़ से नायर सर की तरफ़ देखा, बाई भौंह को ऊपर चढ़ाते बोले हुए, “वह अगर बदमाश है तो यह मेरे और उसके बीच का मामला है. इन बच्चों के लिए तो वह महान् कलाकार ही है.”
ऋत्विकदा ने कभी विदेश यात्रा नहीं थी. सो इंगमार बर्गमन से कभी मुलाक़ात होने का सवाल ही नहीं था. लेकिन उनके शब्दों में इतना दृढ़ विश्वास था कि जो तथ्यों से परे जाता था. सबसे बड़ी बात यह कि वह दो प्रतिभाओं के बीच के आध्यात्मिक रिश्ते को जाहिर करता था.
मनीषी और बढ़ई
ऋत्विकदा हमसे दो बार मिले. पहली बार 1971 में आये और हमारे साथ दो हफ़्ते रहे. फिर 1974 में उनके अवसान से कुछ पहले आये और हमारे साथ फिर दो हफ़्ते रहे. लेकिन हर मुलाक़ात में, सुबह उठने से लेकर रात सो जाने तक वह अपने विद्यार्थियों के साथ रहे. मैं ‘विद्यार्थी’ कह रहा हूँ जबकि हममें से कुछ शादीशुदा थे और कुछ बालबच्चे वाले भी. ऋत्विकदा के लिए तो हम सब उनके बच्चे थे.
‘सिद्धांत’ और ‘व्यवहार’ के पारंपरिक द्विभाजन को ताक पर रखकर ऋत्विकदा कहते थे कि वह सिनेमा के वास्तुशिल्पकार हैं, सिर्फ़ विचारों और अवधारणाओं से काम रखते हैं इसलिए उन्हें नट-बोल्ट जैसे मामलों में परेशान न करें. किसी दिन कहते कि मैं सिर्फ एक बढ़ई हूँ और मुझे अमूर्त अवधारणाओं से कुछ भी लेना-देना नहीं है. लेकिन इस हर एक अवतार ने अपने-अपने ढंग से हमें ज्ञान संपन्न बना दिया. उनकी यह दृढ़ भावना भी कि वास्तुशिल्पकार और बढ़ई को एक समान भाषा में बातचीत करनी चाहिए.
ऋत्विकदा को यूनानियों से, उनकी कला, उनके दर्शन और विज्ञान तथा अरस्तू के मूर्त विचार तथा प्लेटो के आदर्शवादी विचारों के द्वंद्व से प्यार था. व्यावहारिक और सूक्ष्म मन को दर्शाने वाले तारवाद्यों के पायथागोरस के प्रयोगों की सूक्ष्मता के वह कायल थे. लघुतम और बृहतम को सितारों के दिव्य संगीत से जोड़ने वाले पायथागोरियन अनुमान भी उन्हें पसंद था.
मानव दशा के गहन सत्यों की गवेषणा और अभिव्यक्ति करने वाली वाले यूनानी त्रासदी, कामदी और महाकाव्य जैसे रूपाकारों के प्रति उनके मन में गहरा आदरभाव था. उन्हें लगता था कि अरस्तू के प्रगीतात्मक, नाट्यात्म और महाकाव्यात्मक काव्य का ‘पोएटिक्स’ हमारे साथ कई अन्य संस्कृतियों की कलाओं पर भी लागू किया जा सकता है. उन्होंने हमारे महाकाव्यों, मिथकों, संगीत नाटकों आदि को भारतीय इतिहास ही नहीं बल्कि विश्वात्मक या कालातीत अवधारणों की प्रासंगिकता में देखने का पाठ भी पढ़ाया.
ऋत्विकदा कालिदास के ‘कुमारसंभवम्’ के आधार पर एक समकालीन फ़िल्म बनाना चाहते थे. इसमें शंकर और पार्वती हिमालय में नहीं बल्कि महानगर में दस बाई दस फुट के चॉल वाले कमरे में रहनेवाले श्रमिक वर्ग के दंपति बनने थे.
ऋत्विकदा जब अपनी फ़िल्म की अवधारणा बता रहे थे, तब हमें महसूस हुआ कि हम एक महाकाव्यात्मक सृजन के गवाह बन रहे हैं.
नवजागरण का पुरुषोत्तम

ऋत्विकदा ने जब सृजन प्रक्रिया का विवेचन किया तब हमारी समझ में आया कि वह कला के रूपाकारों का कितना गहन ज्ञान रखते हैं. अभिनेता, लेखक, निदेशक सिद्धांतकार के रूप में प्राप्त अनुभवों ने उन्हें थिएटर का अंतरंगदर्शी बना दिया था. इंडियन थिएटर असोसिएशन (इप्टा) से उनका शुरू से ही संबंध होने से वह बिजोन भट्टाचार्य, शंभु और तृप्ति मित्रा, उत्पल दत्त आदि से अच्छी तरह से परिचित थे.
विश्व साहित्य के भी वह अच्छे जानकार थे. उन्होंने काफी संस्कृत, बंगला और अंग्रेजी साहित्य पढ़ा था. यूनानी, फ्रेंच, जर्मन और रूसी साहित्य भी उन्होंने अंग्रेजी अनुवादों में पढ़ा था. उन्होंने कहानियाँ, नाटक और पटकथाएँ लिखी थीं और वह सिनेमा व संस्कृति के महान सिद्धांतकार थे. मैं पहले ही कह चुका हूँ कि ऋत्विकदा ने मैहर के उस्ताद अलाउदीन खांसाहब से सरोद सीखा था. खानसाहब के पंडित रविशंकर, उस्ताद अलि अकबर खान और बहादुर खान आदि शिष्यों से उनके करीबी संबंध थे. उस्ताद कई प्रकार के वाद्य बजा सकते थे. उनकी ख़ासियतों और तबियतों को पहचानते थे. उनसे प्रेरित होकर ऋत्विकदा ने संगीत की आत्मा को पा लिया था. बंगाल में कला और संस्कृति के प्रसार का प्रवर्तन रवींद्रनाथ टागौर ने किया. उनके व्यक्तित्व, नये कलारूपाकारों का उनका आविष्कार, उनकी विश्वदृष्टि, जीवन शैली, और उनके द्वारा स्थापित विविध संस्थानों ने बंगाल के नवजागरण में निर्णायक भूमिका निभाई है.
1922 में टैगोर ने कलकत्ता में पॉल क्ले, योहानेस इटन, वासिली काडिन्स्की, लायोनेल फायनिंगर आदि बाऊहाऊस कलाकारों की एक प्रदर्शनी आयोजित की थी. यह वह अवसर था जब वसुधैव कुटुंबकम् का आदर्श गूंज रहा था. यह ऐसा दर्शन था जिसने कई भारतीय कलाकारों को प्रेरित किया था. इसका अग्रगामी उदाहरण था बिनोद बिहारी मुखर्जी जैसे कलाकार का बनाया हुआ भित्तिचित्र जो कि शांति निकेतन के हिंदी भवन की दीवार पर सजा हुआ है. बिनोद बिहारी के भित्तिचित्र में प्रमुख संत और उनके परिवेश को संत साहित्य के इतिहास के रूप में चित्रित किया गया है. इसमें हर एक संत के विशिष्ट व्यक्तित्व को अंकित किया गया है. उनके चेहरे, अभिव्यक्तियाँ, अनन्य अंगरूप, चालढाल, मुद्राएँ, पोशाक, घर, काम के औजार आदि सब ब्योरा प्यार से और ध्यान देकर चित्रित किया गया है. यह कृति मुखर्जी की विविध अनुशासनों को एक दूसरे के रूबरू रखने की कलात्मक प्रवृत्ति दिखाती है. पर्शियन लघुचित्र, पल्लव उठाव चित्र, चोला कांस्य, पूर्व एशियाई सुलेखन नामावली (कलिग्राफिक स्क्रोला, जिओत्तो के फ्रेस्को, और घनवादी तत्व के कलात्मक रूपाकारों और शैलियों से बहुत कुछ ग्रहण किया हुआ है.[i]
गहरे स्तर पर बिनोद बिहारी और ऋत्विकदा की कृतियों में कई समानताएँ देखी जा सकती हैं, सतही स्तर पर नहीं; क्योंकि इसका संबंध दोनों के बिंबविधान से है. बिनोद बिहारी ने मानव शरीर पर मायावादी और यथार्थवादी अनुपात में काम किया लेकिन आध्यात्मिक और विश्वेतर आयामों से उन्हें कुछ रूपांतरित भी किया. जैसे कि उनकी भित्तिचित्रों में संतों की लंबाई उनके आध्यात्मिक बड़प्पन को व्यंजित करती है. ऐसी ही अन्य युक्तियों से बिनोद बिहारी नवजागरणपूर्व कलाकारों, बरोक रीति-वादियों, नवजागरण के यथार्थवादियों अतिपूर्व के स्क्रोल और भूदृश्य के चित्रकारों के बीच संश्लेषण कर सके.
ऋत्विकदा एक अलग माध्यम में काम कर रहे थे. परिप्रेक्ष्य के विविध रूपाकारों का समाकलन करने की समस्या का समाधान उन्हें स्वयं खोजना था. इस काम के लिए उन्होंने विशालकोणीय लेन्स की श्रेणी का प्रयोग किया और बहुत भव्य आकृतियाँ बनाई. उनके द्वारा प्रयुक्त लेन्सों की श्रेणी में केंद्रीय लंबाई (फोकल लेंग्थ) शुरू होती थी 9.8 मिमि, 12 मिमि 16 मिमि 24 मिमि 28 मिमि और 32 मिमि, जिसको वह कभी-कभार ही काम में लाते थे.
लेन्स की प्रक्रिया तकनीकी मामला लग सकता है लेकिन महान निर्देशक अपने लेन्स का चयन कैमरामन पर नहीं छोड़ते. उनके लेन्स के प्रयोग का अटूट संबंध उनकी जीवन-दृष्टि और फ़िल्म के रूपाकार के साथ होता है. रॉबर्ट ब्रेसां और ओझु यासुजिरो जैसे कुछ निर्देशक अपने आप को पूरा जीवन 50 मिमि के लेन्स पर ही सीमित रखते हैं. यह लेन्स मनुष्य की आँख से दिखाई देनेवाली दुनिया के बिंब के सबसे करीब होती है.
मोटे तौर पर कहे तो विशालकोणीय लेन्स अवकाश को तानती है, दूर की वस्तुएँ तुरंत आकार में छोटी बन जाती हैं और और भी दूर की लगने लगती हैं. इसके अलावा विशालकोणीय लेन्स की क्षेत्र की गहराई भी कम नहीं होतीं. मतलब, दृष्टि-क्षेत्र की वस्तुएँ लंबी दूरी के बावजूद अपनी स्पष्टता बरकरार रख सकती हैं. इससे एक बरोक और अतिशयोक्त परिप्रेक्ष्य बन जाता है. लेन्स के निकट होने वाली वस्तु में बड़े पैमाने पर निरूपण हो सकता है. लेकिन यदि बिंब को बहुत कम समय के लिए रखे और अचानक हटा दें तो विरूपण की ओर शायद ही ध्यान जाता है. बिंब एलिफंटा और एलोरा के गुफाशिल्पों की तरह प्रस्तर से काटकर बनाये गये चिरस्थायी प्रतीत होते हैं.
ऋत्विकदा विशालकोणीय लेन्स की श्रेणी को संगीत की स्वरावली (स्केल) की तरह प्रयुक्त करते हैं. 9.8 मिमि के बिंब का फोकस बहुत गहरा, या सर्वसार्विक फोकस होता है जिससे समूचा दृष्टि क्षेत्र तीव्र फोकस में रहता है. लेन्स के निकट होने वाली वस्तु के बिंब में गहरे मंद्र स्वर का गुरुत्वाकर्षण होता है. जैसे-जैसे हम लेन्सों की पूरी श्रेणी से कदम दर कदम गुज़रते हैं, बढ़ती केंद्रीय लंबाइयाँ स्थानीय तनाव और विरूपण को कम करती है. हर लेन्स विशिष्ट घनता, मात्रा और बिंब का ‘स्वर’ निर्माण करती है और लयताल के अनुसार संपादित करने पर कालावकाश में गीतात्म या नाट्यात्म सांगीतिक रचना बन सकती है.
ऋत्विकदा के फ़िल्मों की सांगीतिकता उन्हें आसपास की दुनिया की पुनर्रचना को मात्र यांत्रिक बनने से ऊपर उठा देती है. दृश्य यांत्रिक और अकृत्रिम लय की मोंताज रेखाएँ बन जाते हैं. दृश्यों की टोनल और ओवरटोन प्रेरकता को भी ऋत्विकदा की दृश्य-संवेदनशीलता ने अनुक्रिया देते हुए व्यंजक और संश्लिष्ट प्रतिमान बना दिया है.
ऋत्विकदा की गहरी सांगितिक समझ ने उनके फ़िल्मों के साउंड ट्रैक को यादगार सृजन बना दिया है. फ़िल्म की ध्वनि के रूढ़िबद्ध वाणी, संगीत और आवाज़ के विभाजन से अलग ऋत्विकदा ने पूरे साउंड ट्रैक को ही सांगीतिकीकरण करने की जद्दोजहद की. टूटी चपल, उबलते चावल आदि की रोज़मर्रा की साधारण आवाज़ों को इस तरह से पेश किया जाता था कि वे उनके साउंड ट्रैक की समृद्ध नक्काशी में अभिव्यंजक ध्वनिक अर्थात् ध्वनि रूपाकार बन जाते थे. ‘मेघे ढाका तारा’ की नायिका को जब आसन्न मृत्यु का भान हो जाता है, और जब वह अपने भाई को पुकार कर आक्रोश करती है कि मुझे जीना है, तो वह आवाज़ सूनी पहाड़ियों और कंदराओं में गूँजती और प्रतिध्वनित होती है जिन्हें व्यक्तिगत त्रासदी से कुछ भी लेना-देना नहीं है.
प्रगीतात्मक, नाट्यात्मक और महाकाव्यात्मक रूपाकार

अरस्तु के काव्यशास्त्र में विवेचित काव्य के इन तीन रूपाकारों में ऋत्विकदा की आस्था के बारे में मैं पहले ही कह चुका हूँ. इस वर्गीकरण को उन्होंने न सिर्फ़ काव्य के लिए बल्कि सिनेमासहित अन्य कई रूपाकारों के लिए सैद्धांतिक रूप में उपयुक्त माना. ऋत्विकदा के अनुसार प्रगीतात्म रूपाकार बहुत अल्प अवधि की घटना से संबद्ध होता है. लेकिन उसमें कई भावपूर्ण और सहानुभूतिशील कंपनों की शक्ति होती है जिसे उपमा-रूपकादि तथा अन्य अनेक युक्तियों से सक्रिय बनाया जाता है. संक्षिप्तता उसकी आत्मा है.
नाट्यात्मता प्रायः मुख्य कथावस्तु की एक महत्वपूर्ण घटना से संबंधित होती है. कभी-कभी उसमें उपकथावस्तुएँ भी होती हैं जो मुख्य संघर्ष से गौण होती हैं. आत्यंतिक हिंसा से लेकर परम शांति की भावनाओं की पूरी श्रेणी को नाट्यात्म रूपाकार व्यक्त कर सकता है. भरतमुनि के नवरस सिद्धांत में इन भावपूर्ण दशाओं की व्यापक सूचि दी गई है.
नाटक, कहानी, उपन्यास, फ्रेस्को या सांगीतिक रचना में अनेक भावदशाएँ हो सकती हैं लेकिन जैसाकि यूनानियों ने माना है, त्रासद और कामद, शोक और सुख की भावदशाएँ ही सबसे प्रबल होती हैं. इसी मान्यता के फलस्वरूप उन्होंने त्रासदी और कामदी के वार्षिक उत्सवों का आयोजन किया.
ऋत्विकदा ने अपनी फ़िल्मों में जिस विशिष्ट नाट्यात्म रूपाकार का प्रयोग किया, वह था अतिनाटक अर्थान् मेलोड्रामा. अठारहवीं शताब्दि के उत्तरार्ध में नाटक और ऑपेरा के बीच के रूप में अतिनाटक का उदय हुआ. सस्वर पठन उच्चारण को संगीत की छोटी रचनाओं से जोड़ा गया. ऐसी रचनाओं में संगीत और उच्चारित संवाद को बारी-बारी से प्रयुक्त किया जाता था. कभी कभी मूक नाट्य की भी संगीत साथ करता था.[ii] मेलडी और नाटक के इस संयुग का नाम पहले कुछ निंदात्मक अर्थ में समझा जाता था. विशिष्ट नाट्यात्म रूपाकार के लिए उसे शब्दकोशीय पद के रूप में स्वीकार किया गया था.
उन्नीसवीं शताब्दि में अतिनाटक के सांगीतिक अंश को बहुत कम कर दिया गया या पूरी तरह से निकाल दिया गया. भावप्रधानता, संयोग की या असाधारण परिवर्तन की घटनाओं के समावेश के कारण ‘अतिनाटक’ पद की ओर कुछ हेय दृष्टि से ही देखा गया. ऋत्विकदा का अतिनाटक का प्रयोग उसके मूल अर्थ मेलडी और नाटक के निकट था. हम आगे देखेंगे कि वह कैसे इस रूपाकार को महाकाव्यात्म आयामों तक ले गये.
महाकाव्यात्म रूपाकार का संबंध इतिहास में किसी एक काल के कुछ विशिष्ट चरित्रों से मात्र नहीं होता बल्कि प्रायः कई पीढ़ियों से होता है. उसमें राजनीति, युद्ध, नैतिक प्रश्न, सामाजिक रीति-रिवाज, इतिहास, मिथक और जीवन के सौंदर्यवादी आधार तक जीवन के कई पहलुओं का समावेश होता है.
ऋत्विकदा की प्रतिभा ने अपने अतिनाटकों को महाकाव्यों का गौरव प्रदान किया. उनके लेन्स और कैमराकोणों ने मिथकीय आदिरूपों तक पहुँचने वाले अतिभव्य बिंबों का निर्माण किया. ‘मेघे ढाका तारा’ में उन्होंने देवी माता के बिंब को तीन चरित्रों में विभाजित किया. नीता- बड़ी बहन बलिदान का प्रतीक है, गीता- छोटी बहन चंचल विलासी चरित्र है और माँ नीता के बलिदान को तटस्थता से स्वीकार करती हुई विनाशक तत्व बन जाती है.
हॉलिवुड की महाकाव्यसंबंधी फ़िल्मों में प्राय: भव्यता के कई तत्व होते हैं, जैसे- इतर जनों की बड़ी भीड़, चमक-दमक वाले सेट और वेशभूषा तथा चकाचौंध की सीमा पर पहुँचने वाले प्रसंग. महाकाव्यात्म रूपाकार की इस तरह की प्रस्तुति में उसका शवरूप तो बचता है, लेकिन उसकी आत्मा, जो उसके नैतिक और उन्नतिकारक स्वरूप में होती है, बिल्कुल खो जाती है.
ऋत्विकदा ने शायद ही बहुकेंद्री कथन को आज़माया होगा. उन्होंने प्रायः अपनी कहानियों को जटिल, श्राव्य व दृश्य युक्तियों के स्तर पर रखा, जिससे संमिश्र संदर्भ निर्माण हो गये. ‘मेघे ढाका तारा’ और ‘सुवर्णरेखा’ के आरंभिक टायटलों में प्रयुक्त कई विषयों को फ़िल्म में आगे काम में लाया गया है. कुछ विख्यात लोकधुनें या बेहद लोकप्रिय गीत कई बार रवींद्र संगीत से लिये गये हैं, जो सब मिलकर सांगीतिक रचनाओं का एक विशाल समन्वित संग्रह बन जाता है. वह कई बार वैग्नरीय लाइटमोटीफ़ अर्थात विशिष्ट स्वर-लहरियों और उनके रूपभेदों का उपयोग करते हुए बहुगुणित संमिश्र संदर्भ निर्माण करते हैं. सुवर्णरेखा में उन्होंने ‘ला डोल्चे विटा’ के संगीत का उपयोग किया है. मध्यवर्ग की अवनति को दिखाने वाले दृश्यों के इस संगीत का उपयोग वह अपनी फ़िल्म के चरित्रों की इसी तरह की अवनति दिखाने के लिए करते हैं.

ऋत्विकदा की फ़िल्म ‘तिताश एकटी नदीर नाम’ के बृहद बिंब दरअसल मुंबई के निकट की एलिफंटा गुफा की महेश मूर्ति का संकेत करते हैं. अतिविशाल कोणीय लेन्स का निमिषमात्र के लिए उपयोग करते हुए उन्होंने अपने तीन चरित्रों को परस्परव्यापी रूप में एक फ्रेम में बांध दिया है. महेश मूर्ति की भव्यता और गुरुत्वाकर्षण जैसा ही परिणाम होता है. उनके समग्र सृजन में यही एक सबसे अविस्मरणीय बिंब है, जो क्षणभर के लिए फ़िल्म को उसकी यथार्थ प्रतीकात्मक सतह से एतिहासिक काल के चौखटे के बाहर फिर स्थायी आदिरूपात्मक बिंब की सतह पर उठाता है.
मैं पहले ही बता चुका हूँ कि किस तरह ऋत्विकदा ने ‘मेघे ढाका तारा’ में देवी माता के बिंब को तीन चरित्रों में बांटकर फ़िल्म के आदिरूप को बिल्कुल कथन में ही बुना दिया है. ऐसी ही प्रयुक्तियों से उन्होंने अतिनाटक को साधारण विधा की सतह से महाकाव्य के रूपाकार तक ऊपर उठाया है.
दो-एक फ़िल्मों का अपवाद छोड़ दे तो ऋत्विकदा की फ़िल्मों की दुनिया परिस्थतियाँ, जीवन की घटनाएँ बंगाल के निम्न मध्यवर्ग से जुडी होती हैं लेकिन उनके बिंब, ध्वनि प्रभाव, संगीत और लय-ताल आदि में ऐसा कुछ होता है कि वह जानी पहचानी दुनिया से सीमा पार हो जाते हैं.
कवाना की एक कविता में कवि दो स्थानीय गुटों में लड़ाई-झगड़ा देखता है, लड़ने वालों की भड़कीली भावनाओं की अभिव्यक्ति देखता है, लेकिन मन में संदेह होता है कि विश्व में इतना अधिक ऊपर-नीचे हो रहा है, इसकी तुलना में इस नगण्य घटना के बारे में लिखना क्या कोई अहमियत रखता है? और फिर…
…होमर का भूत आया मेरे मन में कानाफूसी करता हुआ, उसने कहा : मैंने इलियड को रचा ऐसे ही स्थानीय संघर्ष से. देवता स्वयं अपना महान रचते हैं.[iii]
अजांत्रिक : एक केस स्टडी
मैंने उन्नीस सौ छियासठ में ‘अजांत्रिक’ देखी, तब से यह मेरी बहुत प्रिय फ़िल्म रही है. उसके चित्रोपमभूदृश्य, दुस्साहसपूर्ण कथन, मनमौजी हास्य, मनोबिनोद की सजधज, असाधारण विषय, अनुभूति की गहराई और दार्शनिक अर्थपूर्णता सब मिलकर यह फ़िल्म मुझे बहुत ही प्रिय होती गई है. सौभाग्य से, यह एक ऐसी फ़िल्म है जिसकी उत्पत्ति के मूलाधार की खोज करने वाला एक सुबोध निबंध ऋत्विकदा का लिखा हुआ है.
ऋत्विकदा ने अन्य बातों के अलावा सिनेमा के बारे में काफी कुछ विस्तार से लिखा है. इनके जीवन काल में यह लेखन कई अल्पजीवी पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ था. सौभाग्य से उनकी मृत्यु के ग्यारह वर्षों पश्चात् 1987 में ‘ऋत्विकदा घटक मेमोरियल ट्रस्ट’ ने ‘सिनेमा एंड आय’ शीर्षक एक संकलन प्रकाशित किया. इसकी भूमिका सत्यजित राय ने लिखी थी जिसमें उन्होंने अपने इस सहयात्री विख्यात सिनेमाकार के विश्व सिनेमा के योगदान के बारे में विवेचना की है.
ऋत्विकदा के लेख ‘सम थॉट्स अबाउट अजांत्रिक’ में उनकी सृजन प्रक्रिया के स्वरूप के बारे में कुछ दुर्लभ अंतर्दृष्टियाँ मिल जाती हैं. पहले उन्होंने इसे एक कहानी के रूप में पढ़ा, फिर उसके बारे में दस-बारह साल सोचते रहे. जब हमारी समझ में आ जाता है कि वह क्या करना चाहते हैं, तब बारह वर्षों की अवधि सार्थक लगती है.
अब कथा के असाधारण विषय का मुआयना करेंगे. यह कहानी विमल नामक एक टैक्सी चालक के बारे में है जो अपनी जर्जर पुरानी टैक्सी से बेहद प्यार करता है. अपनी महबूबा की तरह और प्यार से उसे अपनी ‘जगद्दाल’ कहता है. भारतीय संस्कृति में प्रकृति के नदी, पेड़, भूमि या पहाडों से मनुष्य के गहरे प्रेम होने के बारे में कई कहानियाँ हैं. हमारे इतिहास और पुराणों में मनुष्य और प्राणियों के प्रेम की भी बहुत-सी कहानियाँ हैं. लेकिन मनुष्य और मशीन में प्रेम की दूसरी कोई कहानी मेरे पढ़ने में नहीं आई. लेकिन सिनेमा के साथ ऐसा नहीं है. आरंभ के कुछ अभिजात, विशेष रूप से अवाक सिनेमा में मनुष्य और मशीन के सहजीवी संबंधों को दिखाया गया है.
आयज़ेनस्टाइन की फ़िल्म ‘बैटलशिप पोटेमकिन’ यह नाम भी एक मशीन का नाम है. जब क्रांतिकारियों की युद्धनौका को विरोधी सैनिक दल घेर लेते हैं, तब आयज़ेनस्टाइन दृश्यों की एक मालिका प्रस्तुत करते हैं. नाविकों के चेहरे परेशान हैं. अंतर्कट के साथ शीघ्र गति से युद्धनौका के इंजन के पिस्टन दिखाई देते हैं जो नाविकों के तनाव और युद्धनौका के हृदय की सहानुभूतिपूर्ण तेज़ धड़कनों को भी व्यक्त करते हैं.
कैसी दिलचस्प बात है न कि एक नास्तिक मार्क्सवादी फ़िल्मकार चेतनारूपक (पैथेटिक फैलसी) जैसी रूमानी युक्ति का उपयोग करता है, जिसमें मशीन जैसी निर्जीव वस्तु को मानवीय गुणों वाली बना देता है. आयज़ेनस्टाइन की ही बात नहीं, मार्क्सवाद के संस्थापक फ्रेडरिक एंगल्स ने भी युनानियों के अपने परिसर से प्रेम के बारे में प्रशंसा की है. उन्होंने लिखा है:
“हेलास का सौभाग्य है कि उसे अपने भू-दृश्यो के स्वरूप को उसके निवासियों के धर्म में जागते हुए देखने को मिला है. हेलास सर्वेश्वरवाद की भूमि है. हर एक सुंदरता से साकार हुए विशिष्ट रूप को किसी विशेष देवता के साथ संलग्न किया हुआ है, हर एक नदी की अपनी जलपरियाँ हैं, हर उपवन के उसके अपने वनदेवता हैं- ऐसे ही हेलास के धर्म का उदय हुआ.”[iv]
चकित हो गये न? यद्यपि लगता है कि मार्क्सवाद पूरा राजकीय अर्थनीति, वर्गसंघर्ष, और वर्गयुद्ध से संबंधित है, फिर भी क्या उसके कुछ स्रोत और युटोपियन (स्वप्नदर्शी) समाजवाद, विश्वबन्धुत्व का सपना देखना या मनुष्य, प्रकृति और यंत्र का सुसंगत होना नहीं दिखाते!
सच्चा क्रांतिकारी कवि हदय का होता है, बेहद प्यार करने में सक्षम; फिर वह चाहे गांधी हो, चैपलीन हो या माओ हो. सिर्फ़ कवि ही नये और बेहतर विश्व का सपना देख सकता है. बाक़ी सब तो प्रयास करनेवाले या मरम्मत करने वाले व्यवसायी होंगे!
कुछ लोगों को यह सूची बेतुकी लग सकती है. मैं अभी इसे तर्कपूर्ण बता सकता हूँ. जो कोई मानव जाति की आध्यात्मिक, संकल्पनात्मक व भौतिक स्थिति में आमूलाग्र परिवर्तन लाता है और बड़े पैमाने पर लोगों के जीवन को प्रभावित करता है, वह मेरे लिये क्रांतिकारी है. तो यह सूची युक्तियुक्त है. और वैसे भी यह व्यक्तिगत चयन है. हर कोई अपनी सूची बनाने के लिए स्वतंत्र है.
बस्टर कीटन और चैपलीन सिनेमा के महान कवि हैं. उन्होंने माध्यम में क्रांतिकारी बदलाव किये और लाखों लोगों को हँसाया (और रुलाया भी). कीटन की फ़िल्म ‘द जनरल’ का नामकरण भी एक यंत्र, इंजन के नाम पर हुआ है. उसका नायक जॉन्नी ग्रे एक ट्रेन इंजिनियर है. उसके जीवन की दो प्रियतम बातें हैं. एक है ‘द जनरल’ और दूसरी है एक युवती अन्ना बेले. इसका प्रेम युवती की अपेक्षा ‘द जनरल’ से कुछ ज़्यादा ही है. जॉन्नी ग्रे का काम कीटन ने ही किया है. वह ‘द जनरल’ के लिए अपनी ही नहीं बल्कि अपनी प्रियतमा अन्ना बेले की जान को भी दाँव पर लगा देता है.
हमें नहीं भूलना चाहिए कि चैपलीन का ट्रँप (आवारा) बिंब उन लोगों ने भी देखा है जिन्होंने क्रूसमूर्ति को कभी देखा नहीं था. बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में उसने अनेक लोगों के जीवन को प्रभावित किया था, उन्हें ईसाइयत का आनंद दिया था. ऊपर से देखने पर लग सकता है कि चैपलीन यंत्र के उपयोग के विरोधी थे.’ मॉडर्न टाइम्स’ फ़िल्म में उन्होंने यंत्र के अमानुषीकरण की कठोरता से निंदा भी की है, जिसे देखते हुए ऐसा ही लगता है. लेकिन इसके बारे में कुछ देर बाद.
डोवज़ेंको की फ़िल्म ‘अर्थ’ (भूमि) ने मानव-मशीन रिश्ते को बहुत आत्मीय स्तर तक पहुँचा दिया है. फ़िल्म का नायक बासिल अपने सामूहिक कृषि केंद्र पर ट्रैक्टर से आता है. वहाँ पानी का अकाल है और आसपास भी कहीं पानी मिलने की संभावना नहीं है. तो वह ट्रैक्टर में ही लघुशंका करते हुए उसे शुरु करता है! पेशाब और वीर्य दोनों पुरुष लिंग से निकले हैं. दिलचस्प बात है कि नायक पुरुष होने पर यंत्र को प्रायः स्त्रीरूप में देखता है.
“अजांत्रिक’ बिहार के पठार छोटा नागपुर की पृष्ठभूमि पर खुलती है जहाँ पशुपालक/कृषिवल जाति ओराओन रहती है, जिसका अपने परिवेश के साथ तीव्र भावात्मक लगाव है, जो उनके सुंदर अनुष्ठानों में व्यक्त हुआ है. इनमें से कुछ फ़िल्म में गूंथे हुए हैं. उनका प्रेम से किया हुआ चित्रकरण फ़िल्म को और ज़्यादा चित्रात्मक बनाने की युक्ति नहीं है बल्कि आत्मीय रूप से इसका संबंध विशेष रूप से फ़िल्मकार के विषय से है, और सामान्य रूप में सारी दुनिया से है.
‘अजांत्रिक’ का स्थान निर्धारण बहुत सही हुआ है. पहली बात यह कि फ़िल्मकार की ओराओं की विश्व-दृष्टि, उनका प्रकृति प्रेम और इसे अनुष्ठानों में अभिव्यक्त करने की उनकी क्षमता के प्रति समानानुभूति का होना है. क्या एक सच्ची फ़िल्म की दृश्यसज्जा (मीजांसेन: mise-en-Scene) को उसके निर्देशक के अपने विषय, स्थान और चरित्र के प्रति प्रेम को अनुष्ठानपरक और सिनेमाई प्रक्षेपण नहीं कहा जा सकता? ‘अजांत्रिक’ की मीजांसेन अर्थात दृश्यसज्जा भूपृष्ठों की विविधता को कई कोणों से उपयोग में लाती है, जो फ़िल्मकार के लिए दृश्मात्मक संभावनाओं का खजाना ही बन जाती है. ऋत्विकदा का स्थान निर्धारण उसे विषयपरक अर्थपूर्ण और दृश्यपरक उत्तेजनापूर्ण बना देता है. फ़िल्म की नायिका जगद्दाल मानवीय चरित्र नहीं है. वह एक टैक्सी है, ऑटोमोबाइल है. सिनेमा के अवाक दिनों में पहले ऑटोमोबाइल का चयन सिनेमा के लिए आश्चर्यजनक रूप से उपयुक्त पाया गया. रेखीय वर्तुलाकार, सर्पिल, लहरदार, टेढ़ी-मेढी, मंद, तेज़, अतितेज़ जैसी उनकी असीम संभावनाओं की विविध गतिविधियों के कारण वह फिल्मी रोमांच, उत्तेजना और हास्य के बेहद लोकप्रिय स्रोत बना हुआ है.
अवाक सिनेमा के महागुरू डी.डब्ल्यू. ग्रिफिथ ने पीछा करने के सिलसिले को प्रधान रूप से घोडों के लिए प्रयुक्त कर इस तकनीक को परिपूर्ण बना दिया था. कार का पीछा करने की पूरी हास्य क्षमताओं का मैक सेन्नेट, और उसकी कीस्टोन पुलिस ने उपयोग किया. उसके स्टूडियो में कुछ समय शिक्षा प्राप्त कर चार्ली चैपलीन, बस्टर कीटन और हैरोल्ड लॉईड जैसे महान हास्य कलाकारों की पंक्ति ने यथाक्रम उसे आगे बढ़ाया.
ऋत्विकदा ने नायिका जगद्दाल के चरित्र का चित्रण करने के किए ऑटोमोबाइल की दृश्य्-क्षमताओं का पूरा लाभ उठाया और टैक्सी के अवर्णनीय ध्वनिरूपों का अपनी उर्वर ध्वनिक कल्पनाशक्ति ने उपयोग किया- सुखद समय के लिए हॉर्न का प्रतिध्वनित होने से उसकी मृत्यु पर खड़ खड़ आवाज़ तक. नायिका के मर जाने पर उसे कबाड़ के रूप में बेचा जाता है, तब उसके नायक बिमल को जो आवाज़ प्रिय थी, उसे एक विस्फोट की तरह सुनकर सदमा पहुँचता है. फिर वह देखता है कि एक बच्चे ने हॉर्न को कबाड़ से बचाया है और वह बड़े मजे से उसे बजा रहा है. ‘नायिका’ का मर जाना और एक मुस्कुराते बच्चे से उसका ‘पुनरुज्जीवित’ होना पूरी तरह से एक ईसाई क्षण है- मुस्कुराहट और आँसू को मिलाने वाला. बहुत कम भारतीय या अन्य फ़िल्मों में इस तरह सिर्फ़ एक ही स्रोत से इतना समृद्ध साउंड ट्रैक बनाया होगा: एक छकड़ा छाप जीर्ण-शीर्ण कार से निकलने वाली आवाजों से.
हास्य की इस मनोवृत्ति का उपयोग ऋत्विकदा ने भारतीय सभ्यता के यंत्र के प्रति दृष्टिकोण को लेकर एक गंभीर विधान करने के लिए किया है. भारत में यंत्रयुग का उदय ब्रिटिशों भारत के गुलाम होने के साथ हुआ इसलिए राष्ट्रवादी नेता, विशेष रूप से बड़े महात्मा यंत्र विरोधी हो गये थे.
हमारे साहित्य, दरअसल हमारी संस्कृति (मतलब, मध्यवर्ग की शहरों में रहने वाली संस्कृति) ने यंत्रयुग की ओर विशेष ध्यान ही नहीं दिया. यंत्र की हमारी अवधारणा विरूपता से जुड़ी रही. जो भी अच्छा है, चिंतनशील और आध्यात्मिक है, उसे निगल जानेवाली. हमारी प्राचीन भारतीय परमादरणीय संस्कृति के प्राणों के लिए जो परायी है. वह संघर्ष और टकराहट, तुरंत विनाशक परिवर्तन और असंतोष को हवा देने वाली है.
यह उदासीनता इसलिए भी हो सकती है कि सारे परिर्वतन और यंत्रयुग का प्रवेश विदेशी मालिकों का कारनामा था. पश्चिमी सभ्यता की पीड़ा जैसे अन्य भी व्यापक कारण हो सकते हैं. लेकिन अंततोगत्वा इन सब कारणों के अलावा अवधारणात्मक प्रवृत्ति ही है जो हमारे जीवन के सभी क्षेत्रों में बहुत बड़ी हानि पहुँचा रही है. इस प्रकृति को वर्तमान भारत में पाये जाने वाले वस्तु-सत्य के साथ शायद ही संगतिपूर्ण कहा जा सकता है. और हमारे भविष्य के लिए भी. हमने जो नयी तकनीकी प्राप्त की है, उसे हमारी विरासत के भविष्य के साथ समन्वित करने के मार्ग अभी हमें ढूंढने हैं. यंत्रयुग के साथ साथ भावात्मक रूप से एकात्म होना आज की ज़रूरत है. और बिल्कुल इसी बात को ‘अजांत्रिक’ कहानी ने हमारे साहित्य में पहली बार हासिल किया है. उसने इसे अनन्य रूप से और मेरे विचार से खास भारतीय रीति से प्राप्त किया है. उसमें उसकी अपनी विशेष देशीय गंध है. वह उसकी कथावस्तु-संरचना, चरित्र चित्रण और कथन की उसकी विशिष्ट शैली में है.
“उसमें सच्चाई का स्पर्श है. उसकी प्रत्येक पंक्ति में सच्चाई की आवाज़ गूंजती है. मैंने ऐसे लोगों को देखा है. यथार्थ जीवन में मुझे बिमल जैसे मनुष्य को देखने का संदेहपूर्ण आनंद मिला है और मैंने उनकी भावनाओं पर विश्वास किया है. कहानी की शक्ति का स्रोत इसी में है. मुझे अवसर मिल गया और मैंने फ़िल्म बना दी. हर तरह से यह मजेदार बात थी.”[v]
हम यंत्र और सिनेमा पर बात कर रहे हैं तो मुझे आपको सिनेमा के श्रेष्ठ विदूषक चार्ली चैपलीन की फ़िल्म ‘मॉडर्न टाइम्स’ की याद दिलानी होगी जिसमें उन्होंने यंत्र युग की अमानुषीकरण की प्रवृत्ति की कठोर समीक्षा की है.
‘मॉडर्न टाइम्स’ बनाने से कुछ समय पहले चैपलीन यूरोप के दौरे से लौटे थे. पहले विश्वयुद्ध के बाद युरोपीय सभ्यता के हालात देखकर वह बहुत विचलित हुए थे. इसके बारे में उन्होंने गहराई सोचा. अपनी प्रगतिशील अवधारणा के लेकर उन्होंने उस ज़माने की मशहूर एच. जी. वेल्स, जॉर्ज बर्नार्ड शॉ जैसी कई हस्तियों से चर्चा की. वह गांधी से भी मिले. चैपलीन को लगा कि यंत्र की जो बुराइयाँ है, वह जन्मजात नहीं हैं, परिस्थितिवश हैं. उन्होंने गांधीजी को समझाने की कोशिश की. अपनी आत्मकथा में उन्होंने इस मुलाक़ात के बारे में इस प्रकार लिखा है:
“ठसाठस भरा कमरा सहसा ख़ामोश हो गया. मुखौटा-जैसा भाव महात्मा के चेहरे पर प्रतीक्षा कर रहा था. तो मुझे लगा कि सारा भारत मेरे शब्दों को सुनने की प्रतीक्षा कर रहा है. मैंने गला साफ़ करते हुए कहा, “भारत की स्वतंत्रता के लिए आकांक्षा और संघर्ष के प्रति मुझे स्वाभाविक ही सहानुभूति है फिर भी यंत्र के प्रति आपकी नफ़रत से मैं कुछ उलझन में पड़ा हुआ हूँ… यंत्रों को यदि परोपकारार्थ रूप में प्रयुक्त किया तो आदमी को गुलामी के बंधनों से मुक्ति मिल सकती है, उसके श्रम की अवधि कम हो सकती है, उसे अपने मन के सुधार के लिए समय मिल सकता है और वह जीवन का आनंद ले सकता है.
तथापि गांधीजी पर कुछ प्रभाव नहीं हुआ. शांति के साथ उन्होंने कहा, “मैं समझ सकता हूँ, लेकिन इन आदर्शों को प्राप्त करने से पहले भारत को अंग्रेजी सत्ता से मुक्त होना चाहिए. यंत्रों ने पहले हमें इंग्लंड पर निर्भर बनाया और इस गुलामी से मुक्त होने का एकमात्र उपाय है कि हम यंत्रों से बनने वाली चीजों का बहिष्कार करे. इसीलिए हमने हर एक भारतीय के लिए सूत कातने और अपना कपड़ा बुनने के कार्य को एक देशभक्ति का कर्तव्य बना दिया है. इंग्लंड जैसे बहुत शक्तिशाली देश पर हमला करने हमारा यही तरीका है.”[vi]
सर्वेश्वरवाद और जीववाद

टैगोर और ऋत्विकदा के पास प्रेम करने की अबाध क्षमता थी, जो सिर्फ़ मनुष्यमात्र तक सीमित नहीं थी. टैगोर का नजरिया सर्वेश्वरवादी था और वह सहज ही अपने स्रष्टा को शबनम, विशाल समुद्र या आकाशगंगा में देख सकते थे.
ऋत्विकदा की फ़िल्में विशालकोणीय लेन्स का उपयोग करके सावधानी के साथ चित्रित भूदृश्यों से भरपूर हैं. उनमें सौंदर्य और दहशत दोनों हैं, जिनकी परिणति ‘तिताश’ में हो जाती है. इस फ़िल्म का विषय ही है नदी के बदलते रूप और समूची बस्ती को मिटा देना. तिताश काली माता जैसी है, जो जीवन ले भी जाती है और हिमालय कन्या गौरी की तरह जीवन देती तथा सभ्यताओं को निर्माण भी करती है.
भारतीय संस्कृति समन्वयी है जिसमें प्राक् वैदिक जीववादी व्यवहारों और अनार्यों की विश्व-दृष्टि का समावेश भी होता है.
ऋत्विकदा महान इतिहासकार और वैज्ञानिक डी.डी. कोसंबी के करीबी मित्र थे जिन्होंने पहली बार इन श्रद्धाओं और व्यवहारों का उपयोग भारतीय इतिहास की भौतिकतावादी दृष्टि की गवेषणा के लिए किया. कोसंबी ऋत्विकदा और विद्यार्थियों के साथ फ़िल्में देखने के लिए एफ.टी.आय. आया करते थे.
ऋत्विकदा हमारे इतिहास की जीववादी अवस्था को जानते थे जो उनकी फ़िल्म ‘अजांत्रिक’ से सीधे हम तक पहुँचती है. नायक की ही नहीं, निर्देशक की भी प्रेम करने की क्षमता यंत्र/टैक्सी को प्रेमिका बना देती है और जैसे-जैसे हम फ़िल्म को अनुभव करने लगते हैं, हम भावात्मक प्रतिक्रियाओं की एक विस्तीर्ण श्रेणी देखते जाते हैं. बिमल जब एक साधारण महिला की ओर ध्यान देता है, जिसे उसके प्रेमी ने त्याग दिया है, तब यह टैक्सी जिद्दी बन जाती है और उसके हुक़्म की तामिल नहीं करती. ‘अजांत्रिक’ जीववादी विश्वासों का चित्रण करने वाली उत्तम फ़िल्मों में से एक है. उसके शीर्षक का मतलब ही है यांत्रिक न होना. वह कहना चाहता है कि अनिमा अर्थात् यांत्रिक वस्तुओं की आत्मा दरअसल उन्हें सचेतन विषय बना देती है.
ज़माने से यह समझा जाता है और पिष्टोक्ति भी बनी हुई है कि सिनेमा दृश्य माध्यम है. आज का सिनेमा डॉल्बी और तत्सम तकनीक के कारण तकनीकी तौर पर दृश्य-श्राव्य माध्यम है. लेकिन हमें भूलना नहीं चाहिए कि इकहरी (मोनोफोनिक) ध्वनि के ज़माने में भी ऋत्विकदा, ब्रेसां, हिचकॉक और अन्यों के लिए ध्वनि का महत्व दृश्य जितना ही था.
यू.एस्. एस. आर. में ‘अजांत्रिक‘

मास्को के आयज़ेनस्टाइन सेंटर के तत्कालीन निदेशक नाऊम क्लेइमन की सक्रिय सहायता के कारण 1986 में रूस में पहली बार ‘अजांत्रिक’ को दिखाया गया. होभी भाभा फेलोशिप के रूप में मेरी मास्को भेंट में ऑल युनियन अडवान्स्ड स्कूल ऑफ फ़िल्ममेकिंग एंड डिरेक्शन के तत्त्वावधान में नाऊम ने मेरा व्याख्यान आयोजित किया था.
अप्रैल 20, 1986 को चेर्नोबिल पॉवर प्लांट नंबर 4 में विस्फोट हुआ. यह एक असाधारण दुर्घटना थी. प्राकृतिक शक्तियों पर मानव नियंत्रण की दुर्बलता दिखाने वाली. इस संबंध के बारे में हम यदि बेफिक्र रहेंगे तो क्या हो सकता है, इसका कटुतम पाठ रूसी जनता ने सीखा. न्यूक्लियर-आण्विक विज्ञान के प्रयोग करने में अत्यंत विघातक संभावना का सामना करना पड़ सकता है, जिसे मनुष्य ने साक्षात देख लिया.
हिरोशिमा-नागासाकी अभी प्राचीन इतिहास नहीं बने थे. अभी भी जापानी ‘दूसरे’ थे. चेर्नोबिल से प्रभावित सोवियत नागरिक ‘हम’ थे. ‘हम’ और ‘दूसरे’ का विभाजन जो भी हो, यह बात साफ़ थी कि जिन्हें जनसेवा करनी चाहिए, उन राजनेता और वैज्ञानिकों की जोड़ी को अहंकार नहीं होता तो चेर्नोबिल नहीं होता. इस पृष्ठभूमि पर मैने रूस में ‘अजांत्रिक’ दिखाई. कुछ चुनिंदा लोग निर्दयतापूर्वक मासूम लोगों और प्राकृतिक शक्तियों पर कब्ज़ा कर ज़बरदस्ती कर रहे हैं तो मनुष्य को निर्णय करना होगा. इस विधान के परिप्रेक्ष्य में ‘अजांत्रिक’ फ़िल्म के द्वारा एक बिल्कुल नयी विश्वदृष्टि सामने आयी. फ़िल्म को जो उत्स्फूर्त दाद मिली, उससे ऋत्विकदा के काम की विश्वात्मक अपील को मैं समझ गया.
मास्को के कुछ महत्वपूर्ण कलाकार और विद्वान फ़िल्म देखने आये थे. बाद में हुई चर्चा में उन्होंने हिस्सा लिया. उस समय ऋत्विकदा को भारत के बाहर बहुत कम लोग जानते थे. जब फ़िल्म समाप्त हुई और सभागार में उजाला हुआ, तब पूरी शांति और सन्नाटा छाया हुआ था. फिर दर्शकों की प्रतिक्रियाओं का सिलसिला शुरू हुआ जो ऋत्विकदा की प्रतिभा की शक्ति से सम्मोहित हो चुके थे. एक प्रश्न बार- बार पूछा जाता था कि ऐसी सशक्त फ़िल्म और उसके ऐसे महान निर्देशक के बारे में रूस में जानकारी क्यों नहीं है! कइयों ने नाऊम क्लेइमन से ऋत्विकदा के फ़िल्मों का रेट्रोस्पेक्टिव आयोजित करने के लिए अनुरोध किया, कुछ उनके बारे में अध्ययन और लेखन करना चाहते थे, और कुछ ने उनके फ़िल्मों का रूस में व्यापार के बारे में सुझाव दिया.
इस अनुभव ने मुझे अभिजात कला के सारतत्व का पाठ पढ़ाया. मेरी समझ में आ गया कि ऐसी कृतियों में निहित सत्य नई परिस्थितियों में नये अर्थ की रोशनी डाल सकते हैं. और उनकी शक्ति हमें दीपगृह की तरह वह सबकुछ दिखा देती है, जितना हम देख सकते हैं और जो नहीं दिखाई देता उसके बारे में चेतावनी दे सकती है.
हम इस वर्ष ऋत्विकदा की जन्मशती मना रहे हैं: सिनेमा के श्रेष्ठ इतिहासों में अब ऋत्विकदा का समावेश एक महान निर्देशक और अग्रदूत के रूप रूप में हो चुका है. इन सौ वर्षों में इस सर्जक प्रतिभा की देन धुंधली नहीं हुई है, उनकी फ़िल्में और लेखन के अलावा वह उनके द्वारा प्रेरित अनेकों की कृतियों में आज भी जीवित हैं. फिर वह चाहे मणि कौल हो, कुमार शाहनी हो, जॉन अब्राहम, सईद मिर्झा या कुंदन शाह हो या फिर छायाचित्रकार (सिनेमाटोग्राफर) के.के. महाजन या ध्वनिलेखक नरिंदर सिंह हो. उन सबको पता है कि उनकी कला वैसी नहीं होती जैसी आज है. यदि उन्हें उस प्रधान प्रवर्तक से प्रेरणा नहीं मिली होती जिसका नाम है… ऋत्विकदा.!
संदर्भ:
[i] MAP academy.https/mapacademy/article/binod-behari-mukharji
[ii] https//www.britanica.com/art/melodrama.
[iii] p. 136 Epic Collected Poems, Patria Kavanagh, Penguin Modern Classics, 2005.
[iv] Landscapes, Friedrich Engels July Lado. First published in Telegraph fur Deutschland Nos.122-123 July/Aug. 1840
[v] p.72, Cinema and I Ritwik Ghatak. R.G. memorial Trust 1ABY
[vi] chaplin Charles, My Auto biography. Penguin Modern Classics (P.412)
अरुण खोपकर मणि कौल निर्देशित ‘आषाढ़ का एक दिन’ में कालिदास की प्रमुख भूमिका. सिने निर्देशक, सिने विद् और सिने अध्यापक. फिल्म निर्माण और निर्देशन के लिए तीन बार सर्वोच्च राष्ट्रीय पुरस्कारों के सहित पंद्रह राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित. होमी भाभा फेलोशिप से सन्मानित.‘गुरू दत्त : तीन अंकी शोकांतिका’ को सिनेमा पर सर्वोत्कृष्ट पुस्तक का राष्ट्रीय ॲवॉर्ड और किताब अंग्रेजी, फ्रेंच, इटालिअन, बांगला, कन्नड, गुजराती और मलयाळम और हिंदी मे भाषांतरित. ‘चलत् चित्रव्यूह’ के लिए साहित्य अकादेमी ॲवार्ड व महाराष्ट्र फाउंडेशन (यू. एस. ए.) ॲवार्ड, ‘अनुनाद’ और ‘प्राक् सिनेमा’ के लिए लिए महाराष्ट्र राज्य पुरस्कार. अंतरराष्ट्रीय चर्चा सत्रों में सहभाग और प्रबंधों का अंग्रेजी, रशियन और इटालियन में प्रकाशन. सत्यजित राय जीवनगौरव पुरस्कार व पद्मपाणी जीवनगौरव पुरस्कार. चार भारतीय और छह यूरोपीय भाषाओं का अध्ययन. महाराष्ट्र सरकार द्वारा सम्मानित ‘प्राक्-सिनेमा’ सेतु प्रकाशन द्वारा प्रकाशित है. |
निशिकांत ठकार मराठी और हिन्दी के आलोचक तथा सुविख्यात अनुवादक हैं. अब तक उनकी हिन्दी-मराठी में 58 पुस्तकें प्रकाशित हैं जिनमें हिन्दी में 20 अनूदित, 6 स्वतन्त्र आलोचनात्मक पुस्तकें हैं. उन्हें बिनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास ‘नौकर की कमीज’ के अनुवाद के लिए साहित्य अकादेमी का पुरस्कार प्राप्त हुआ है. उनके द्वारा किये गये अरुण कोलटकर के ‘जेजुरी’ और ‘द्रोण’ के हिन्दी अनुवाद काफी चर्चित रहे हैं. निशिकांत जी फ़िल्म सोसाइटी तथा विविध रंग मण्डलियों के साथ कार्यरत रहे हैं और अब तक उन्हें 15 राष्ट्रीय तथा राज्य स्तरीय पुरस्कारों और जीवन गौरव सम्मानों से नवाजा गया है. |
ऋत्विक घटक पर केंद्रित ‘समालोचन’ का यह एक महत्त्वपूर्ण अंक है, जो इनके फिल्म-कर्म की बारीकियों को उद्घाटिक करता है। ऋत्विक घटक भारतीय सिनेमा के उन विरल निर्देशकों में हैं, जिनका फिल्म-कर्म केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि गहरी सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना का संवाहक था। उनकी फिल्में इस विश्वास को सिद्ध करती हैं कि सिनेमा समाज का सिर्फ आईना नहीं, बल्कि सार्थक हस्तक्षेप का माध्यम भी है।
इस तरह किसी पर लिखना अरुण खोपकर की ही बस की बात है क्योंकि वह सिनेमा भीतर बाहर से जानता है। मैं इस लिए ये कह रहा हूं क्योंकि मैं ने उसे सन तिहत्तर से देखा है, थोड़ा-बहुत जाना है जब मुझे फिल्म इंस्टीट्यूट में दाखिला मिला था। वह भी छात्र था पर उस की विद्वता कमाल की थी।
ऋत्विक घटक सर एक बेहतरीन फ़िल्म निर्देशक थे।नागरिक , मेघे डाका तारा , असाधारण फिल्में बनाए। ऋत्विक घटक सर पुणे फ़िल्म के डिरेक्टर भी थे। सुभाष घई, विधु विनोद चोपड़ा उनके छात्र थे। बहुत सुंदर लेख।
ऋत्विक घटक पर विहंगम दृष्टि के साथ लिखा गया यह अविस्मरणीय आलेख है। सब्जेक्टिवटी और ओब्जेक्टिवटी का मेल भी। ऋत्विक पर इस तरह लिख सकने वाले
दुर्लभ हैं और अरुण खोपकर जी उनमें अग्रगण्य हैं।
बेहद समृद्धकारी आलेख!
एक साथ तीन स्तरों पर सक्रिय!
पहले स्तर पर जाना, महान फिल्मकार ऋत्विक घटक की गझिन-संश्लिष्ट दृष्टि के वितान को रचती प्रगतिशील प्रयोगधर्मी चेतना कैसे प्रकृति, मनुष्य और समय की अंतर्गुम्फित लय को सुनने के लिए साँस बनती है और फिर समन्वयात्मकता में नर्तनशील ध्वनि का काव्यात्मक बिंब!
दूसरे स्तर पर यह आलेख एक स्वप्नदर्शी आवेग के साथ स्वयं लेखक की बृहद् सांस्कृतिक चेतना और विश्व-दृष्टि के अछोर तल का अवगहन कराने हेतु विचार की गहराइयों में ले चलता है जहाँ बौद्धिकता और संवेदना, स्वप्न और यथार्थ, क्षण और कालातीत समय गहरी संपृक्ति में संवादरत हैं।
तीसरे स्तर पर यह आलेख कला की सृजन-प्रक्रिया के बारीक रेशों की सम्हाल भरी जाँच करते हुए चेतना और स्वप्न के बीच फैली कितनी ही घुमावदार पगडंडियों की यात्रा करने के बाद दो सृजनात्मक अर्हताओं को रेखांकित करता है – मनुष्य-अस्मिता और लोचशील स्वप्नाकुलता!
दार्शनिक चेतना से संपन्न इस शानदार आलेख के लिए अरुण खोपकर जी और अरुण देव जी का बहुत-बहुत आभार!
मुद्दत बाद इतना स्वप्नगर्भी सृजनात्मक लेख पढ़ने को मिला।
ऋत्विक घटक के बारे में पिछला लेख भी बहुत गहरा था और यह भी उतने ही श्रम और स्नेह से लिखा जान पड़ता है। घटक की फ़िल्में सिने-संसार में अपना सानी नहीं रखतीं। व्यक्तिगत पीडा़, राजनैतिक चेतना और सामाजिक संकट का एक निचोड़ उनकी फ़िल्मों में दिखाई पड़ता है जो दर्शकों के अंतर को मथ कर रख देता है। समालोचन का यह प्रयास बेहद महत्वपूर्ण है।