मैं और मेरी कविताएँ (३) : रुस्तम____________________ |
मैं कविता क्यों लिखता हूँ.
इस प्रश्न में कम से कम दो धारणाएँ अंतर्निहित हैं. पहली यह कि हर कवि को पता होता है कि वह कविता क्यों लिखता है या लिखती है. और दूसरी यह कि हर कवि का कविता लिखने के पीछे कोई उद्देश्य होता है. यह दूसरी धारणा बहुत स्पष्ट रूप में इस प्रश्न में नज़र नहीं आती, पर ध्यान से देखें तो हम पाते हैं कि वह वहाँ है. परन्तु ज़रूरी नहीं कि हर कवि को पता हो कि वह कविता क्यों लिखता है.
चौदह वर्ष की उम्र में जब मैंने अपनी पहली ऐसी दो कविताएँ लिखीं जिन्हें मेरी अपनी कविताएँ कहा जा सकता था, तो मैं न तो यह जानता था कि मैं कविताएँ क्यों लिख रहा था और न ही यह कि उन्हें लिखने के पीछे मेरा क्या उद्देश्य था. मैं बस कविताएँ लिखना चाहता था. उसी तरह जैसे उन दिनों और उससे पहले भी मैं अन्य कवियों की कविताएँ पढ़ना चाहता था. हालाँकि मेरे पढ़ने के लिए कविताएँ आसानी से उपलब्ध थीं, ऐसा बिल्कुल नहीं था.
जब मैं नौ बरस का हुआ तब तक हम गाँव में रहते थे. और हम पढ़ने के लिए एक दूसरे, बड़े गाँव के सरकारी प्राइमरी स्कूल में जाते थे जहाँ चार-पाँच गाँवों से बच्चे आते थे. यह गाँव पंजाब में था. मेरी माँ अनपढ़ थीं और मेरे पिता पाकिस्तान की सरहद पर तैनात थे. इन्हीं दिनों मेरे पिता ने नौकरी छोड़ दी और हम हरियाणा के एक कस्बे या छोटे शहर में आ बसे. हमारे घर में एक भी साहित्यिक किताब नहीं थी और मेरे पिता उर्दू का अखबार पढ़ते थे. उस कस्बे में कोई भी सार्वजनिक पुस्तकालय नहीं था. हमारे सरकारी स्कूल में लाइब्रेरी के नाम पर पुस्तकों की एक अलमारी थी जिस पर हर वक्त ताला लगा रहता था. हमारे हिन्दी के अध्यापक के हाथ में कभी-कभी “धर्मयुग” या “साप्ताहिक हिन्दुस्तान” पत्रिकाएँ नज़र आती थीं. मुझे याद है जब मैं सातवीं या आठवीं कक्षा में था तो एक बार जब अध्यापक “धर्मयुग” को मेज़ पर छोड़कर बाहर गये, तो मैंने उसे उठाकर जल्दी से उसमें छपी एक कविता पढ़ी जो मुझे बहुत अच्छी लगी.
उन दिनों कविताएँ पढ़ने के दो ही स्रोत मेरे पास थे. एक तो हिन्दी तथा पंजाबी की हमारी पाठ्य पुस्तकें (आठवीं कक्षा तक मैंने पंजाबी भी पढ़ी) जिनमें कविताओं के अलावा कहानियां, संस्मरण व यात्रा-वृतान्त होते थे. दूसरा, बच्चों के लिए “चंपक”, “पराग” व “नंदन” इत्यादि पत्रिकाएँ जो हमारे अखबारवाले के पास होती थीं. मैंने निराला, महादेवी वर्मा, भवानी प्रसाद मिश्र तथा दिनकर इत्यादि की कविताएँ पहली बार स्कूल की पाठ्य पुस्तकों में ही पढ़ीं. दूसरी तरफ, “चंपक”, “पराग”, “नंदन” इत्यादि पत्रिकाओं में बच्चों के लिए लिखी गयी बहुत साधारण किस्म की कविताएँ होती थीं.
यह सब बताने के पीछे मेरा उद्देश्य यह था कि बचपन में जब भी और जैसी भी कविताएँ पढ़ने का अवसर मुझे मिलता था, उन्हें पढ़ने के बाद मैं ख़ुद कविताएँ लिखना चाहता था और उन्हें लिखने की कोशिश करता रहता था. पर उस उम्र में भी मैं देख पाता था कि मेरी लिखी कविताएँ लगभग वैसी ही होती थीं जैसी कविताएँ मुझे पढ़ने को मिलती थीं और उन्हें मेरी अपनी कविताएँ कहना कठिन था.
पर यहाँ लगभग वैसा ही प्रश्न उठता है जैसा मुझे पूछा गया है : बचपन से ही मैं कविताएँ क्यों लिखना चाहता था? और इससे जुड़ा हुआ इससे भी अधिक मूल प्रश्न : मुझे पढ़ना-लिखना विरासत में नहीं मिला था, तब भी मैं बचपन में ही, और किसी भी चीज़ से ज़्यादा, कविताएँ ही क्यों पढ़ना चाहता था?
मेरा ख़याल है कि इन प्रश्नों का उत्तर नहीं दिया जा सकता. यह इच्छा क्यों मुझमें थी, वह कहाँ से आयी, इस पर विचार करना फ़िज़ूल है. और जैसे कि मैं पहले भी इशारा कर चुका हूँ, हमारे परिवार, और गाँवों में रहने वाली हमारी बिरादरी में भी, साहित्य पढ़ने की कोई प्रथा नहीं थी. और अखबार भी केवल मेरे पिता ही पढ़ते थे, वो भी कस्बे में आ जाने के बाद. वे दसवीं तक पढ़े हुए थे.
चौदह से अठारह की उम्र के दौरान मैं कविता नहीं लिख पाया. परन्तु अठारह की उम्र में मैंने फिर से लिखना शुरू किया. उन दिनों मैं प्रसिद्ध अमरीकी कवि वाल्ट व्हिटमैन को बहुत पढ़ रहा था और उनकी कविताओं का प्रभाव मेरी कविताओं पर साफ़ नज़र आता था. धीरे-धीरे मैं इस प्रभाव से निकल गया, परन्तु मुझे पता था कि मैं ज़्यादा अच्छी कविताएँ नहीं लिख पा रहा था.
ये वे दिन थे जब मैं एक वर्कशॉप में मेकैनिक, वेल्डर तथा खराद चलाने का काम कर रहा था, क्योंकि मैंने दसवीं के बाद पढ़ना छोड़ दिया था. दो साल तक यह काम करने के बाद मैंने फिर से पढना शुरू किया. तब तक एक सरकारी कॉलेज हमारे कस्बे में खुल गया था. जो वर्ष मैंने कॉलेज में बिताये उस दौरान मैंने कॉलेज की लाइब्रेरी से ख़ूब पुस्तकें पढ़ीं, जिनमें कविता की पुस्तकों के अलावा उपन्यास, कहानियाँ, लेख तथा दर्शन की पुस्तकें शामिल थीं. इन सालों में अंग्रेज़ी से येट्स व इलियट तथा हिन्दी से निराला, शमशेर, मुक्तिबोध, नागार्जुन व त्रिलोचन मेरे पसन्दीदा कवियों के तौर पर उभरे. बाद के सालों में कुछ और कवि भी इस सूची में जुड़े जिनमें सेज़ार वय्याखो, बोर्ग्हेस तथा कुछ हद तक पाब्लो नेरुदा प्रमुख हैं.
इसके बाद मैं सेना में अफसर बनकर चला गया तथा छह साल जो मैंने वहाँ बिताये उस दौरान भी मैं कविताएँ लिखता रहा. लेकिन मुझे तब भी स्पष्ट नहीं था कि मैं कविताएँ क्यों लिखता था या क्यों लिखना चाहता था. मैं अभी सेना में ही था जब मैंने अपना पहला कविता संग्रह स्व-प्रकाशित किया. उसका शीर्षक था “अज्ञानता से अज्ञानता तक”. उस वक्त मैं 26 वर्ष का था. 27-28 की उम्र में, जब मैं कैप्टेन था, मैंने सेना से त्यागपत्र दे दिया और एक बार फिर से पढाई शुरू की. मैं ऍमफिल व पीएचडी करने पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़, आ गया और अगले पाँच वर्ष वहीं हॉस्टल में रहा.
यहाँ मैं कैंपस की राजनैतिक व बुद्धिजीवी-सांस्कृतिक गतिविधियों से जुड़ गया तथा कुछ और कवियों के साथ मिलकर कुछ साहित्यक गतिविधियाँ भी करने लगा. इस तरह एक तरफ जहाँ मैं एस.एफ.आई. और सी.पी.आई. (एम) का सदस्य बना (कुछ वर्ष बाद मैंने यह सदस्यता छोड़ दी), वहीं दूसरी तरफ लाल्टू, सत्यपाल सहगल तथा मैंने मिलकर “हमकलम” नाम की एक साइक्लोस्टाइल कविता-पत्रिका निकालनी शुरू की. यही वे दिन थे जब मैं भी उस तरह की कविताएँ लिखने लगा जिन्हें जनवादी-प्रगतिशील कविताएँ कहते हैं. और इस तरह शायद पहली बार मेरी कविताओं के लिखे जाने के पीछे कोई उद्देश्य था. और शायद इसी कारण हिमाचल के जनवादी तथा प्रगतिशील संघों ने मुझे भी कविता पाठ के लिए बुलाया. मुझे याद है कि मैं इसी सिलसिले में मंडी में था जब वहाँ त्रिलोचन जी से मेरी पहली मुलाक़ात हुई. वे भी उस कविता पाठ में आमन्त्रित थे.
इसके बाद मेरी कविता में फिर एक मोड़ आया और जो दौर तब शुरू हुआ वह काफी लम्बे समय तक चला. इस दौर में जो कविताएँ लिखी गयीं वे मेरी भावनाओं व उन पर मेरे मनन का नतीजा थीं. अब सोचने पर मैं कह सकता हूँ कि मैं ये कविताएँ क्यों लिख रहा था : उन दिनों मेरी भावनाएँ इतनी कष्टपूर्ण थीं और उन पर होने वाला मेरा मनन इतना गहरा था कि मैं उन भावनाओं व उन पर होने वाले अपने मनन को प्रकट करना चाहता था, उन्हें कहना चाहता था, आवाज़ देना चाहता था. और मेरे लिए ऐसा करने का सब से आसान तरीका कविता लिखना था — साहित्य की यह एक ऐसी विधा थी जिसे रूप देना मैं काफी हद तक सीख चुका था. जब इस दौर की शुरुआत हुई तब मैं 34-35 वर्ष का था.
मेरा ख़याल है कि मेरी सबसे इंटेंस कविताएँ इसी दौर में लिखी गयीं. लगभग 15 वर्ष बरकरार रहने के बाद यह इंटेंसिटी चली गयी, और मैंने देखा कि धीरे-धीरे मेरी कविताओं के सरोकार, एक बार फिर, मुझसे बाहर की, शुरू में मेरे आसपास की लेकिन फिर उससे परे की भी दुनिया से जुड़ने लगे. मुझे लगता है कि मैं अब भी इसी दौर में हूँ, लेकिन आजकल फिर मुझे यह पता नहीं है कि मैं कविताएँ क्यों लिख रहा हूँ या क्यों लिखना चाहता हूँ. अभी भी बस लिखना चाहता हूँ.
(02—2—2019)
रुस्तम सिंह की बारह कविताएँ
मन मर चुका है
मन मर चुका है.
पर देह अब भी ज़िंदा है.
मैं मृत्यु को पुकारता हूँ.
वह जवाब नहीं देती.
ईश्वर की मानिन्द
वह भी बहरी है.
या फिर
वह एक क्रूर तानाशाह है
जो अपनी इच्छा से उतरती है.
और मैं रोज़ उठता हूँ
तथा
जीवन और मृत्यु को —
दोनों को कोसता हूँ,
गाली देता हूँ.
एक अंधी दीवार पर
पत्थर मारता हूँ.
लावा उबल रहा है
लावा उबल रहा है,
उफ़न रहा है,
बढ़ रहा है मेरी ओर.
समुद्र हाँफ रहा है,
गरज रहा है,
खाँस रहा है,
चढ़ रहा है,
गोल-गोल घूम रहा है,
झूम रहा है इधर-
उधर.
नदियाँ, झीलें उतर गयी हैं
या बिफ़र गयी हैं.
पशु प्यासे हैं या डूब रहे हैं.
पक्षी गिर रहे हैं पेड़ों से.
पेड़ मर रहे हैं.
कितना अजब दृश्य है !
जीवन सिमट रहा है अन्तत: !
कल फिर एक दिन होगा
कल फिर एक दिन होगा.
कल फिर मैं चाहूँगा कि डूब जाये सूरज
अंतिम बार.
पृथ्वी थम जाये
और धमनियों में बहता हुआ खून
जम जाये अचानक.
गिर पड़े यह जीवन
जैसे गिर पड़ती है ऊँची एक बिल्डिंग
जब प्रलय की शुरुआत होती है
और समाप्ति भी उसी क्षण.
कल फिर एक दिन होगा.
कल फिर मैं चाहूँगा कि डूब जाये सूरज
अंतिम बार.
यह वक्त नहीं जो चलता था
यह वक्त नहीं जो चलता था.
ये हम थे जो चलते थे, जो बूढ़े हो जाते थे, फिर मर जाते थे;
ये चीज़ें थीं जो चलती थीं, जो घिस-पिट जाती थीं, फिर ख़त्म हो जाती थीं.
वक्त नहीं, हम गुज़र जाते थे.
वक्त को किसने देखा था ?
क्या पता वह था भी कि नहीं.
तुम देखना चाहते हो
तुम देखना चाहते हो
वास्तव में कुछ सुन्दर?
तो चट्टान को देखो.
भूचाल आते हैं.
पानी बरसता है उसके ऊपर.
सूर्य पड़ता है.
वह तिड़क जाती है,
ज़रा सरक जाती है,
या खड़ी रहती है माथा तानकर.
उसके सहस्र रंग
चमकते हैं
आसमान में.
जो मेरे लिए घृणित है
जो मेरे लिए घृणित है,
वही तुम्हें प्रिय है-
दुःख क्यों है ?
इसलिए नहीं कि इच्छा है,
बल्कि इसलिए कि जीवन है.
मैं चाहता हूँ कि जीवन ख़त्म हो जाये.
सिर्फ मिट्टी और चट्टानें और पत्थर यहाँ हों.
तथा पर्वत. और बर्फ़.
और–
उफनता लावा.
मैं चाहता हूँ कि पृथ्वी अपने उद्गम की तरफ लौट जाये.
आग का
घुमन्तू गोला.
फिर बिखर जाये आसमान में.
फिर,
आसमान भी न रहे.
जीवन, जीवन
जीवन, जीवन,
यह तुमने ही किया है.
लहू का यह प्याला
जो उम्र भर मैंने पिया है.
क्षत-विक्षत
यह जो मेरा हिया है.
यह किसने मुझे दिया है ?
किसने ?
ओ शैतान !
तुम्हीं तो रहते हो
मेरे भीतर !
मेरी धमनियों में तुम्हीं बहते हो.
और मैं
निर्बल यह जीव
नाचता हूँ
तुम्हारे ही
इशारों पर.
लो मैं फेंकता हूँ तुम्हें
उसी अन्धकार में
जहाँ से आये थे तुम
मुझे बनाने !
जाओ !
और फिर लौटकर नहीं आओ !
शहर के जानवर
1.
सड़क पर बैठी हैं गायें
सहज आकार में,
इक-दूजे को छुए हुए.
जुगाली कर रही हैं
और कितनी शान्त हैं !
दोनों ओर
गुज़र रही हैं गाड़ियाँ.
2.
गर्मी के दिनों में
सबसे ज़्यादा मरती हैं
गली की गायें.
कचरा खा-खा कर
कैसे ऊबड़-खाबड़
हो गये हैं उनके पेट.
3.
खाना माँगते हैं
मार्किट के कुत्ते.
मैं फेंकता हूँ बिस्किट,
वे होड़ते हैं आपस में.
फिर आपस में ही
खेलने लगते हैं.
4.
बिल्लियाँ ढूंढती हैं
बच्चे जनने के स्थान.
कभी-कभी
मैं भगा देता हूँ उन्हें.
वे शिकायत भरी आँखों से
देखती हैं
मेरी आँखों में.
5.
बिल्ली
बैठी होती है
छत की मुँडेर पर.
वहाँ तक पहुँचता है
आम का पेड़.
अक्सर वहाँ
पड़े मिलते हैं
किसी पक्षी के पंख.
छूती नहीं मुझे कोई हवा
छूती नहीं
मुझे कोई हवा.
मुझे देखते ही
पानी
खौलने लगता है.
मुझमें से फूटती हैं
असंख्य
चिंगारियाँ.
एक आग है मेरे भीतर,
मेरे भीतर.
ओह मैं जल रहा हूँ,
मैं जल रहा हूँ !
ओह मैं जल रहा हूँ !
स्पेन के एक गाँव में
दो बूढ़े होते लोग
घर के छोटे-से लॉन में
कुर्सियों पर बैठे थे.
मुझे नहीं लगा कि वे आपस में कोई बातचीत कर रहे थे,
न ही वे कुछ पढ़ रहे थे.
वे बस
पश्चिम में
सूरज की ओर
मुँह किये बैठे थे,
धूप सेंक रहे थे,
गर्मियों की शाम की हल्की गर्म, मीठी, दुर्लभ धूप.
उन्हें देखकर बस इतना समझ आता था
कि वे लम्बे समय से आपस में परिचित थे.
वहाँ बैठे हुए वे असहज नहीं लग रहे थे, बल्कि यूँ कि जैसे वाकिफ़ थे उस जगह के कोनों-खूंजों से; एक-दूसरे की अच्छी-बुरी आदतें भी ख़ूब जानते थे और उन्हें सहते थे.
फिर भी वे मुझे दो क्षण-भंगुर मूर्तियों-से लगे
जो कभी भी ढह सकती थीं.
कभी भी गिर सकता था उनका करीने से सहेजा हुआ घर.
उनकी दुनिया
किसी भी क्षण
ग़ायब हो सकती थी.
घर वैसे ही खड़ा है
घर वैसे ही खड़ा है जैसे कि वह कई साल पहले भी यहीं खड़ा होगा.
खिड़कियाँ खुली हुई हैं. धूप अन्दर आ रही है.
चीज़ें
अपनी-अपनी जगह पर उसी तरह से पड़ी हैं
जैसे कई साल पहले भी वे पड़ी होंगी.
अलमारियाँ, पुस्तकें, शेल्फ. और भी बहुत कुछ.
बैठक के एक कोने में दो कुर्सियाँ हैं.उनमें से एक पर एक बूढ़ा व्यक्ति बैठा है. दूसरी ख़ाली है.
लगता नहीं कोई आयेगा.
कुछ ही समय पहले
कुछ ही समय पहले दो लोग यहाँ रहते थे.
मैंने सुना है कि वे अजनबी थे इस संसार में.
“उन्होंने कुछ नहीं सीखा. कुछ भी नहीं कमाया.
जैसे आये थे, वैसे ही चले गये.
इसीलिए यह घर इतना ख़ाली है.
उनका चिन्ह, कोई संकेत इसमें नहीं.
न ही उनका साया.”
रुस्तम सिंह जी की ये कविताएँ अनुभूति के एक ख़ास, अंतिम अरण्य के दौर की कविताएँ हैं जब सिवाय थम जाने, सब उलट-पुलट कर नष्ट हो जाने, प्रलय के झंझावातों में फँस असीम अतल में पहुँच जाने, मृत्यु को देखने अपनी ही आग में दहक जाने के सिवाय अब और किसी का कोई इंतज़ार शेष नहीं रहता है । ये सारी कविताएँ ऐसे ही एक अनंत असीम में विलीन होकर अदृश्य हो जाने के एक ही भाव बोध की अलग-अलग छवियाँ हैं । यें बिखराव की, विनाश और विध्वंस की, मृत्यु की कविताएँ हैं । सिर्फ़ वे चंद शहरों में विचरतें निर्बोध पशुओं के चित्र, उनकी आत्म-निमग्न खिलंदड़ियों की बातें अलग है ।उनमें अंतिम अरण्य के निर्विकार मनुष्य की मौज की छवियाँ मिलती है ।
कुल मिला कर सब काफ़ी अच्छा लगा । अपनी कविताओं के कथित उद्देश्य वाले उनके कथन में जो अनेक सूचनाएँ हैं, वे किसी भी पाठक के लिए काफ़ी दिलचस्प है । कविता के पीछे के उद्देश्य के बारे में कहा ही क्या जा सकता है कि उसके बारे में रुस्तम सिंह जी से कोई अपेक्षा की जाए !