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Home » रुस्तम की बीस नयी कविताएँ

रुस्तम की बीस नयी कविताएँ

रुस्तम जैसे कवि की एक साथ बीस कविताओं को पढ़ना विचार और संवेदना के किसी समानांतर दुनिया में कुछ देर के लिए ठहर जाना है. जैसे हम पृथ्वी, मनुष्य और उसकी सभ्यता को कुछ दूरी से देख रहे हों. यह देखना बार-बार दिख रहे दृश्यों के अधूरेपन से हमारा मार्मिक साक्षात्कार है. ये कविताएँ कवि की आत्म-यात्रा का पता तो देती ही हैं कविता की अपनी यात्रा का भी ख़ास पड़ाव है. प्रस्तुत है.

by arun dev
August 21, 2023
in कविता
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रुस्तम की बीस नयी कविताएँ
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रुस्तम की बीस नयी कविताएँ

 

1

मैं पृथ्वी से बिछुड़ गया था.
मेरी चेतना
उसकी चेतना से भिन्न हो गयी थी.
मेरा जादू खो गया था.
मैं उसके पास पहुँचा,
उसे छूकर बैठ गया.
मैंने उस पर मनन किया.
अपने भीतर सुप्तप्रायः
तत्त्वों को जगने दिया —
मिट्टी, पानी, हवा,
आग और ख़ला.
एक बार फिर
मैं पृथ्वी था
और उसका जादू मुझमें था.

2

वह जादुई एक प्रदेश था.
वह मरूओं, जंगलों और पहाड़ियों से बना था और नदियाँ उसके बीच में से बहती थीं.
वहाँ झीलें भी थीं — वे भी जादू से भरी थीं.
जादुई पेड़, जादुई पौधे, जादुई पत्ते, जादुई हवा,
जादुई जानवर और पक्षी,
चट्टानें
और पत्थर.
वहाँ ख़ुद मैं भी जादुई एक जीव था
क्योंकि मैं उस पृथ्वी का बना था
जो विशुद्ध जादू थी और उसका स्रोत भी.

3

हम एक पत्थर बोयेंगे,
एक चट्टान को उभरने देंगे,
एक पहाड़ को बड़ा होने देंगे —
हम उसे नँगा नहीं करेंगे,
उस पर सड़कें नहीं थोपेंगे,
उसमें सुरंग नहीं खोदेंगे.
बस कुछ जड़ी-बूटी, कुछ फल-फूल, आग के लिए थोड़ी-सी लकड़ी उससे लेंगे.
उस पर मकान नहीं, झोंपड़ी बनायेंगे.
साल में एक बार हम उसे कुछ फूल, कुछ फल, कुछ पत्थर और कंकड़ चढ़ायेंगे.

4

मेरे देखते ही देखते
वह पत्थर जिसे तोड़ दिया गया था
उसके सारे टुकड़े
इक-दूजे की ओर
सरकने लगे
और आपस में जुड़ गये.
पत्थर एक बार फिर
अपने पुराने रूप में
खड़ा हो गया.
फिर वह उड़ा और दूर उस चट्टान से
जा मिला
जहाँ से उसे उखाड़ा गया था.
मैं तब भी उसे देख रहा था.

5

अब जब कि
वास्तविक से मैं ऊब गया हूँ,
मैं ड्रैगन बन जाऊँगा.
पूरी पृथ्वी पर मैं उडूँगा,
कहीं भी उतर जाऊँगा.
मेरी आँखें
लाल और पीली होंगी.
मेरे डैने विराट होंगे.
मेरी साँस में आग होगी.
जब मुझे किसी पर गुस्सा आयेगा
मैं उसकी तरफ़
आग रूपी
अपनी साँस
उछाल दूँगा
और वह भस्म हो जायेगा!!
ड्रैगन विशुद्ध जादू होता है.
वह
पृथ्वी के सारे रहस्य जानता है.
भविष्य में भी दूर तक जाती है उसकी नज़र.
अब जब कि
वास्तविक से मैं ऊब गया हूँ,
मैं ड्रैगन बन जाऊँगा !!
मैं ड्रैगन बन जाऊँगा !!

6

शाम के धुँधलके  में
अकेला मैं वहाँ घूम रहा था
जब मैंने
अपने-आप को
कई मृतकों से घिरा हुआ पाया.
मैं आगे बढ़ना चाहता था,
लेकिन मैं वहाँ रुक गया.
मुझे घेर कर चुपचाप वे वहाँ खड़े थे,
कुछ कह नहीं रहे थे,
बस मुझे देख रहे थे.
मैं चाहता तो आगे बढ़ सकता था,
लेकिन मैं वहीं खड़ा रहा,
उन्हें देखता रहा,
जैसे वे भी मुझे देख रहे थे,
और मुझे देखते रहे
उस धुँधलके में
लम्बे समय तक.

7

टूटी-फूटी एक सड़क अब भी वहाँ थी,
उस उजाड़ में.
उनके होने का बस यही एक संकेत वहाँ था.
उनका अहम्, उनका लालच, उनकी क्रूरता,
उनकी आत्म-केन्द्रिता
उनमें से कुछ भी वहाँ नहीं था.
बस
परित्यक्त वह सड़क जो कहीं जा नहीं रही थी
टुकड़ों-टुकड़ों में वहाँ पड़ी थी.
वह भी कब तक बची रहेगी?
उस पर नज़र दौड़ाकर
और फिर उसी क्षण उसे भूलकर
पंख हिलाते हुए हम उड़ गये.

8

उस उजाड़ में मुझे छोड़कर हँसते हुए वे चले गये.
वहाँ कविताएँ उगीं.
वे नागफ़नी जैसी दिखती थीं,
छूने पर चुभती थीं.
बाज़ और उल्लू,
चीलें और पत्थर
वहाँ मेरे साथी थे.
मैं भी कुछ-कुछ उन जैसा ही था.
मैं सख्ता गया था,
तीखा हो गया था,
मेरा
कवित्व
खुरदरा गया था,
यूँ कि जैसे
मुझे बाँचना,
मेरे संग रहना
लहूलुहान होना था.

9

हम चार जानवर शिकार को निकले.
हम कई दिनों से भूखे थे.
दूर-दूर तक छोटी-छोटी पहाड़ियाँ थीं.
उनके बीच में हरी-सूखी झाड़ियाँ, काँटे, पत्ते, कहीं कोई फूल.
हम एक पहाड़ी पर चढ़ते, दूर तक देखते, हवा को सूँघते,
फिर से चल पड़ते.
हम कमज़ोर पड़ते जा रहे थे, गति खो रहे थे.
हमारी हड्डियाँ नज़र आने लगी थीं.
हम चार जानवर शिकार को निकले.
हम कई दिनों से भूखे थे.

 

By ENDER at Rue Villiers-de-L’Isle-Adam in Paris, France.with-Art-l

10

आओ एक उड़ान भरें.
एक द्वीप के ऊपर से निकलें,
एक मरु में उतरें
जिसकी रेत दमक रही हो.
अपनी चोंचों से वहाँ पड़े हुए मोती चुनें और उन्हें निगल जायें.
जंगल में एक झील के किनारे एक भुतहा महल में पग धरें. वहाँ एक सुन्दर जादूगरनी हमारा स्वागत करेगी. वह मुसकुरा रही होगी. हम उसे छू कर देखेंगे. वह हमें छूने देगी. वह उदार मन होगी. अपने जादू से वह हमें कई अजब संसार दिखायेगी. उसकी सुगन्ध वहाँ चहूँ ओर फैली होगी.
हम उससे विदा लेंगे. ईश्वर को गाली देंगे. स्वर्ग पर फब्तियाँ कसेंगे. मनुष्य की दुनिया पर हगेंगे.
आओ एक उड़ान भरें.

11

हवा. हवा.
मैं हवा में हूँ.
हवा में उड़ रहा हूँ, हवा में तैर रहा हूँ.
हवा मुझे खींचती है, धक्का देती है. और मैं तेजी से दौड़ता हूँ.
कभी वह स्थिर हो जाती है और मैं थम जाता हूँ.
कभी वह तूफ़ान बन उठती है, तेज़-तेज़ घूमती है, मुझे इधर-उधर फेंकती है. समुद्र को भूमि पर धकेल देती है. तब वह खिलौना होता है उसके हाथ में.
बड़े-बड़े पेड़ क्या हैं उसके सामने? और मरु?
आह ! रेत हिलती है ! रेत उड़ती है ! रेत आकाश को भर देती है जब हवा उसे उछालती है और वहीं छोड़ देती है !
हवा ! हवा !

12

मैंने तुम्हें वहाँ
जँगल में देखा.
तुम मेरी ओर मुँह किए खड़ी थीं.
तुम्हारे चेहरे पर निश्छल एक मुस्कान थी.
निश्चित ही तुम मनुष्य नहीं थीं
और तुम
मेरे साथ आना चाहती थीं.
मैं तुम्हें घर ले आया,
तुम्हारे संग रहने लगा.
हम खाना बनाते थे,
बातें करते थे,
मिलकर किताबें पढ़ते थे,
फिल्में देखते थे,
बाज़ार में, प्रकृति में घूमते थे,
एक ही बिस्तर पर सोते थे
हालाँकि तुम्हें नींद नहीं आती थी.
अ-मनुष्य,
अजनबी ओ स्त्री,
तुम्हारी निश्छल मुस्कान कभी नहीं जाती थी.
कितना सुन्दर जीवन
हमने साथ-साथ बिताया !!

13

ढहे घर के पास
यूँ था जैसे
एक औरत खड़ी थी.
काले कपड़े,
सफ़ेद बाल,
हाथ में दमकती लाठी.
आँखों से चिंगारियाँ फूट रही थीं.
उसका चेहरा जादुई एक ओज से भरा था.
मैं उसकी ओर बढ़ा,
उसके पास जा पहुँचा.
उसने मुझे अपनी लाठी से छुआ.
मैं अलौकिक एक तरंग से सिहर गया.
फिर दूर से ही मुझे थामे हुए
किन्ही अदृश्य हाथों से
वह
अन्तहीन आकाश में
ऊपर,
और ऊपर
उठने लगी.

14

पत्थरों पर पत्थर पड़े हुए हैं,
पत्थरों पर पत्थर चढ़े हुए हैं,
पत्थरों में पत्थर अड़े हुए हैं.
दूर-दूर तक और कुछ नहीं,
बस पत्थर और चट्टानें हैं
जिनके दाँत और नाख़ून बढ़े हुए हैं.
सूर्य चमक रहा है.
आह यह कैसा दृश्य है !!
सूर्य
चमक रहा है.
नीचे पतली एक नदी है.
वह टेढ़ी-मेढ़ी बह रही है.
नीचे पतली एक नदी है.
अभी एक आकृति उठेगी,
धीरे-धीरे
पहाड़ी से उतरेगी,
नदी की ओर चलेगी,
थोड़ा झुककर
उसके पानी को
छुएगी.
अभी एक आकृति उठेगी.

15

रात को मैं घर के बाहर बैठा था.
सामने गली थी.
मृतक अपने ताबूत उठाये कहीं जा रहे थे.
पहले एक, फिर दूसरा, फिर वे बढ़ते गये.
धीरे-धीरे वे एक हुजूम में बदल गये.
उनके ताबूत जर्जर थे.
वे ख़ुद भी निरी हड्डियाँ थे.
चलते थे तो उनके जोड़ बजते थे.
उनमें से कभी कोई मेरी ओर देखता,
फिर आगे बढ़ जाता.
अपनी क़ब्रगाहों को छोड़कर वे कहाँ जा रहे थे?
क्या वे नयी क़ब्रों की तलाश में थे?
या फिर कोई प्रलय आने वाला था जिससे वे भाग रहे थे?

16

अन्तिम बार दूर उस उजाड़ में हम बिछुड़े.
मैं तुम्हें वहाँ अकेले ही छोड़ आया,
धरा के नीचे.
फिर मुझे सूझा तुम्हारा मन नहीं लगेगा,
वहाँ अकेले में.
मैंने तुम्हारे साथ एक और क़ब्र खोदी और उसमें अपने हृदय को रख दिया.
यूँ ख़ाली हृदय मैं वहाँ से चला आया.
मेरा हृदय अब वहीं तुम्हारे पास था.
मात्र देह लेकर मैंने पृथ्वी पर अपना बचा हुआ समय बिताया.

17

हम घाटी में उतरेंगे,
चहूँ ओर पत्थर, रेत और चट्टानें होंगी.
हम कन्दराओं में चलेंगे,
खोहों में घुसेंगे
पानी की तलाश में.
एक गिद्ध को मारने की कोशिश करेंगे, पर वह हमारी पकड़ में नहीं आयेगा.
सूर्य डूब रहा होगा
हरी, नीली,
लाल और पीली
चट्टानों के पीछे
उनमें से असंख्य रंग फूटेंगे.
भूरा एक साँप हमारे पास से गुज़रेगा,
हम हिलेंगे भी नहीं अपनी थकान में.

18

जिजीविषा मुझसे ले लो.
मैं जीवन के लिए लड़ना
अब बन्द करूँ.
शान्त हो जाऊँ,
मरूँ.
आह जिजीविषा,
तुम
यदि
विवशता नहीं हो मेरी तो और क्या हो?
मैं कब तक शस्त्र घुमाता रहूँ?
एक के बाद एक शत्रु आता है.
कितनों को मारूँ?
कितनों का वध करूँ?
जिजीविषा,
जिजीविषा,
तुम ही मेरी हताशा का गर्भ हो.
अब मैं
अपनी ओर तलवार घुमाता हूँ.
आओ तुम भी
मेरे साथ मरो !!

19

रुस्तम सिंह नष्ट हो गया है.
रुस्तम सिंह ख़त्म हो गया है.
रुस्तम सिंह
अब केवल एक नाम है.
न उसका कोई मन है,
न उसका कोई आत्म है
उसका स्व उसे छोड़कर चला गया है.
कल मैंने उसे सड़क पर देखा.
वहाँ गाड़ियाँ थीं, मिट्टी थी, धुआँ था,
कोलाहल था.
वह लड़खड़ाते हुए चल रहा था.
उसे नहीं पता था वह कहाँ जा रहा है.
मैं उसके पीछे-पीछे चलने लगा.

20

यह राह है.
दूर तक
दोनों तरफ़ सूखी हुई घास है.
उससे आगे जंगल है, पहाड़ हैं.
कोई नदी भी ज़रूर यहीं कहीं होगी.
यह कब से यहाँ है?
कितने जानवर और लोग
इस राह पर से गुज़रे हैं?
क्यों वे कहीं जा रहे थे?
कहाँ से वे आ रहे थे?
किस, किस चीज़ की तलाश में वे थे?
किसका पीछा कर रहे थे?
किससे भाग रहे थे, डर रहे थे?
उनमें से कई
इसी राह पर ही लड़े होंगे
और इसी पर ही मरे होंगे.
किसके पहले पाँव थे
जो उस
ज़मीन पर पड़े
जिस पर धीरे-धीरे
उभर आयी यह राह?
ज़रूर वह
अकेला कोई जानवर
ही रहा होगा.

रुस्तम   

जन्म: 30 अक्तूबर 1955. कवि और दार्शनिक. रुस्तम के हिन्दी में सात कविता संग्रह प्रकाशित हैं, जिनमें से एक संग्रह किशोरों के लिए है. उनकी “चुनी हुई कविताएँ” 2021 में सूर्य प्रकाशन मन्दिर, बीकानेर, से प्रकाशित हुईं. एक और कविता संग्रह और उनकी डायरी की इसी वर्ष प्रकाशित होने की  सम्भावना है. उनकी कविताएँ अँग्रेज़ी, तेलुगु, मराठी, मल्याली, पंजाबी, स्वीडी, नौर्वीजी, फ्रांसीसी, एस्टोनी तथा स्पेनी भाषाओं में अनूदित हुई हैं. रुस्तम सिंह नाम से अँग्रेजी में भी उनकी चार पुस्तकें प्रकाशित हैं. इसी नाम से अँग्रेजी में उनके पर्चे राष्ट्रीय व अन्तरराष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं. उन्होंने नार्वे के कवियों उलाव हाउगे व लार्श अमुन्द वोगे की चुनी हुई कविताओं के पुस्तकाकार अनुवाद हिन्दी में किये हैं जो वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, से 2008 तथा 2014 में प्रकाशित हुए. उन्होंने तेजी ग्रोवर के साथ मिलकर एस्टोनिया की प्रसिद्ध कवयित्री डोरिस कारेवा की चुनी हुई कविताओं का अनुवाद किया है जो संग्रह 2022 में राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, से प्रकाशित हुआ. उन्होंने पंजाबी के सात कवियों की कविताओं का अनुवाद किया है जो संग्रह 2022 में सूर्य प्रकाशन मन्दिर, बीकानेर, से प्रकाशित हुआ. इसके अलावा उन्होंने पाँच अन्य पुस्तकों का हिन्दी में अनुवाद किया है.

वे भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला, तथा विकासशील समाज अध्ययन केन्द्र, दिल्ली, में फ़ेलो रहे हैं. वे “इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली”, मुंबई, के सहायक-सम्पादक तथा श्री अशोक वाजपेयी के साथ महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा, की अँग्रेजी पत्रिका “हिन्दी : लैंग्वेज, डिस्कोर्स, राइटिंग” के संस्थापक सम्पादक रहे हैं. वे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नयी दिल्ली, में विजिटिंग फ़ेलो भी रहे हैं. इस सबसे पहले वे भारतीय सेना में अफसर (कैप्टन) भी रहे हैं.

ईमेल : rustamsingh1@gmail.com 

 

Tags: 20232023 कवितातेजी ग्रोवररुस्तमरुस्तम सिंह
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Comments 12

  1. mamta kalia says:
    2 years ago

    रुस्तम सिंह की कविताएं सघन प्रभाव छोड़ती हैं लेकिन वे बीस नहीं,एक ही कविता के बीस पहलू हैं

    Reply
    • विनीता बाडमेरा says:
      2 years ago

      रुस्तम जी की ये अनूठी कविताएं हैं ।

      Reply
  2. विजय बहादुर सिंह says:
    2 years ago

    इनका जीवन -बोध अत्यंत सूक्ष्म और मार्मिक तथा कल्पनाएँ चमत्कारी हैं।इन्हें पढ़ते हुए हमारे मन में कविता और और कवि की उपस्थिति को लेकर एक आश्वस्ति नए सिरे से जन्म लेती है।

    Reply
  3. Ashutosh Dube says:
    2 years ago

    इन कविताओं में निसर्ग का जादू है , उसकी अभीप्सा है, उसका संधान है। जादू की यह उत्कंठा सभ्यता के घटाटोप छद्म और बनावट की क्लान्ति से उपजी प्रतीत होती है।

    Reply
  4. Annie Deveaux Berthelot says:
    2 years ago

    Merci à Rustam Singh grand poète de travailler pour la poésie et aussi merci à lui de partager nos poésies et de permettre qu’elles soient connues dans un grand pays comme le vôtre. Merci à vous Rustam

    Reply
  5. Krishna Mohan says:
    2 years ago

    बुनियादी संवेगों के शब्दचित्र। कुछ बहुत ही आदिम और प्राकृतिक। सामाजिक सरोकारों के साथ, और उनके बावजूद अत्यंत वैयक्तिक अभिव्यक्तियां। समर्थ कवि की कविताएं।

    Reply
  6. मनोज मोहन says:
    2 years ago

    रुस्तम जी की कविताओं की आत्म केंद्रीयता आज के समय में पसरती जा रही है, समाज व्यक्ति को इंगेज नहीं करता…और हम अपनी-अपनी चुप्पियों से घिरते जा रहे है. कविताएँ बेचैन कर जाती हैं….

    Reply
  7. Hiralal Nagar says:
    2 years ago

    रुस्तम सिंह जी रुस्तमे साहित्य की तरह चर्चित रहे हैं । और आज भी वे आकर्षण का केन्द्र बने हुए हैं, विशेषकर अपनी कविताओं के कारण । इन 20 बीस कविताओं में भी उनकी काव्य क्षमता का जादू बोलता है। इनमें प्रेम अपने अक्ष की ओर लौट रहा है।

    Reply
  8. सुमित त्रिपाठी says:
    2 years ago

    जैसे मेघ बरसता है वैसे ही ये कविताएँ बरस रही हैं। जैसे रेगिस्तान एकाकी होता है वैसी ही ये एकाकी हैं। जैसे जंगल अपनी सघनता में स्धिर होता है वैसी ही ये स्थिर हैं। कवि का व्यक्तित्व शब्दों मे खंडित होता हुआ प्रकृति में बहता है जैसे कोई क्लांत नदी अपना उदास संगीत उँड़ेल रही हो। हमारे मृत शरीरों को धो कर धवल करती हुई ये कविताएँ गुज़र जाती हैं और हम चाह कर भी इन्हें थाम नहीं पाते।

    Reply
  9. निशांत उपाध्याय says:
    2 years ago

    रुस्तम सर की कविता एक साथ कई समय में घटित हो रही होती है।

    कवि की पत्थरों-चट्टानों के प्रति जो दृष्टि है वो इस सत्य के करीब होने से है कि चट्टानों की चेतना एक प्रकृति-सम्मत गंभीरता से लबालब है। इस गंभीरता में जो गति है, वह न्यूनतम के इर्द-गिर्द रहती है; इस गंभीरता की ध्वनि, किसी गूँज के आखिरी झंकृत फाहे सरी की। कवि स्वयं अपने काव्य-लोक में तो गतिमान है लेकिन यथार्थ (अगर जो जी रहे वह यथार्थ मान लें) में वह जीवन में तेज़ गति के विरुद्ध है और निरंतर इस निरंकुश गति के प्रति सचेत कर रहा है। उसके भयानक वज़न से एक कराह भी कहीं जमा कोहरे में रिसती रहती है।

    दूसरा एक दर्शन इन कविताओं का कभी-कभी ये भी होता है कि इनमें पृथ्वी , सृष्टि के तत्व और सृष्टि के प्रचंड एकांत को जीते नागरिक-कवि एकमेव होते हैं और उसी क्षण में विलगते भी हैं। यहाँ कविता आपको एक अल्टरनेट टाइम-स्पेस अपने अंदर बनाने और उसके लेंस से अभी इस ग्रह पर मचे हाहाकार को देखने पर बाध्य करती है।

    Reply
  10. तेजी ग्रोवर says:
    2 years ago

    भोपाल से मीलों दूर लम्बी यात्रा के पश्चात किसी जगह पहुंची हूँ कुछ समय पहले। एकान्त मिलने पर उन्हीं कविताओं को समालोचन पर पढ़ा जो मैंने रुस्तम की लिखावट में एक मोटी जिल्द वाली नोटबुक में पढ़ी थीं।

    जब किसी एक भाषा विशेष की कविता में ही नहीं अपितु कविता की भूमि पर कुछ एकदम नया देखने को मिलता है तो पाठक का थोड़ा disorient हो जाना स्वाभाविक होता है। रुस्तम की कविता को लेकर मैं लम्बे समय से disoriented रही आयी हूँ।

    मानुस की बनाई हुई इस दुनिया से घनघोर ख़फ़गी हो जाने की ज़ेहनी स्थिति में एक सर्वथा अलग मानचित्र पर निसर्ग के ऐसे बिम्ब उकेरे जा रहे हैं इन कविताओं में कि वे पहचान में नहीं आते। वे आपको निसर्ग की प्रतीति कुछ इस तरह से करवाते हैं मानो निसर्ग का एक बार्दो संसार शिल्पित किया जा रहा हो. (बार्दो तिब्बती मरण ग्रन्थ के संदर्भ में). इस निसर्ग में *सड़क* तक जज़्ब हो जाती है, और वह कुछ ऐसी शै में रूपांतरित हो जाती है जो उस मानचित्र में किसी क़ायनाती इकाई सी भासने लगती है।

    इसी तरह कुर्सी और दीवार भी।

    कवि के किसी persona ने इस ओर संकेत किया भी है कि इस विचित्र ज़हनियत के कवि के संग जीवन बिताना कितना disorienting अनुभव हो सकता है।

    इसलिए ऐसी कविता की भूमि केवल आपके निजी भावबोध और अनुभवों/अनुभूतियों की पुष्टि करने का स्थल नहीं है।

    The disorientation brought about by this poetry is nearly irreversible and will keep the reader in a state of disorientaion for a long time…

    Reply
  11. Anonymous says:
    2 years ago

    Aj ki haqiqat ko likha hai

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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