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Home » महफ़ूज़:संदीप सिंह

महफ़ूज़:संदीप सिंह

दर्शनशास्त्र के अध्येता संदीप सिंह जेएनयू छात्र संघ के दो बार अध्यक्ष रह चुके हैं. यह उनकी वैचारिक सक्रियता और निरंतर संवादधर्मिता का प्रमाण भी है. संस्कृति, धर्म-दर्शन, इतिहास, साहित्य और समाज विज्ञान में उनकी गहरी रुचि उन्हें एक सजग सार्वजनिक बौद्धिक बनाती है. समालोचन के पाठकों के लिए उनका नाम अपरिचित नहीं है; दशकों से वह यहाँ अपनी उपस्थिति दर्ज कराते रहे हैं. आज जब संगठित राजनीति में स्वस्थ-दृष्टि और जन प्रतिबद्धता की कमी एक तथ्य है, तब संदीप सिंह जैसे युवाओं का होना और भी मूल्यवान हो जाता है. प्रस्तुत है उनकी नई कहानी ‘महफ़ूज़’, जो एक सच्ची घटना पर आधारित है और हमें सोचने के लिए बाध्य करती है कि क्या से क्या हो गए, हम देखते-देखते.

by arun dev
August 24, 2025
in कथा
A A
महफ़ूज़:संदीप सिंह
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म ह फ़ू ज़
संदीप सिंह

सुबह-सबेरे हैरिस रिक्शा लेकर निकला. पैडल पर पाँव धरते वक़्त उसने पैरों पर निगाह डाली. उसको ख़ुद पर भरोसा हुआ. दो रोज पहले उसका काफी समय से रुका एक काम निपटा था सो मन में छोटी सी तसल्ली और उम्मीद थी. शाम हैरिस बस्ती पहुँचा तो देखता है उसके घर के सामने चार-छह लोग जमा है. मोटरसाइकिल पर सवार दो पुलिस वाले उसके दरवाजे पर खड़े हैं . बड़े बेटे ने देखते ही पुकारा “पापा”. बड़ी तोंद वाले सिपाही ने हैरिस से पूछ-
“ये झंडा तूने लगाया है?”

“जी साब” बोलते ही ज़ोर का तमाचा उसके गाल पर पड़ा. हैरिस रिक्शे से पूरी तरह उतर भी न पाया था कि लड़खड़ाकर गिर पड़ा. दरवाजे पर खड़ी बीवी चीख पड़ी. बच्चे बिलखने लगे. पिता बच्चों के सामने पिट रहा है. बेबस माँ उनको झोपड़ी के अंदर लेकर चली गई मगर उसके कान दरवाजे से चिपके रहे.

गश खाकर वह धीरे से उठा. मेरठ शहर में रहते पंद्रह साल हो गये हैं. पुलिस वालों का रंग-ढंग उसे पता है. “क्या गलती हो गई मालिक?”-उसने बचा-खुचा साहस बटोरने की कोशिश की.

“ये तिरंगे झंडे को दरवाज़े पर तूने लगाया है?” सिपाही ने पूछा.

हैरिस की सिट्टीपिट्टी गुम. उसने सोचा चोरी पकड़ी गई! किसी ने उसे चोरी करते देख लिया क्या? शिकायत हो गई क्या? काम तो उसने बड़ी सफ़ाई से किया था. कान पकड़कर माफ़ी माँगने लगा.

“गलती हो गई हुज़ूर. गरीब आदमी हूँ. झोपड़ी में दरवाज़ा नहीं था इस मारे यह परदा लगा दिया”.

“तुझे देश का झंडा ही मिला बावली पूँछ!”, सिपाही खीझकर बोला. इलाके की बदबू उसे परेशान कर रही थी. झोपड़ी से कुछ फ़र्लांग दूर कूड़े के ढेर पर सड़ी सब्ज़ियाँ-फल, मांस मंडी से आये कचरे का फैलाव कुत्तों, चूहों और चीलों का स्थायी कुरुक्षेत्र था.

लोग जुटने लगे हैं. ‘क्या हुआ’ की फुसफुसाहट तैर रही है. हैरिस भरसक दिमाग़ चला रहा है कि बस्ती में कम से कम बेइज़्ज़ती हो. उसके मन में एक पैंतरा आया.

“साब झंडा रास्ते पर गिरा पड़ा था वहीं से उठा लिया”.

“तो क्या अपने पिछवाड़े में लगा लेगा झंडा?” सिपाही गुर्राया

दूसरे सिपाही को भी जैसे कोई चाल मिल गई, “रास्ते में गिरा मिलेगा झंडा तो कुछ भी करेगा के?”

“गलती हो गई हुज़ूर” हाथ जोड़ते हुए हैरिस बोला.

“जानता है तिरंगे के साथ ऐसा करना जुर्म है. चल चौकी पर बुलाया है”.

उसकी खोपड़ी नाच रही है. झोपड़ी के अंदर से बच्चों के रोने की आवाज आ रही है. दरवाज़े से झांकती बीवी को उसने झिड़का “अंदर रह”.

“गलती हो गई हुज़ूर”

“चल दरोगा जी को गलती बतइयो”

“क्या आफ़त है” बोलकर सिपाही ने झोपड़ी के दरवाजे पर लगे तिरंगे की फोटो खींची और उतारकर झोले में रख लिया. बाइक स्टार्ट कर दोनों निकल गये. हैरिस ने लोअर की जेब से रुपये निकालकर बीवी को थमाये और रिक्शा लिए फटाफट चौकी की तरफ चल पड़ा. वह जल्द से जल्द बस्ती से निकल जाना चाहता था.

 

हर साल की तरह पंद्रह अगस्त दस्तक दे चुका है. आज़ादी का उत्सव. अगले साल लोकसभा का चुनाव है सो शहर में सरकारी और सियासी प्रोग्रामों का प्रचार जरा ऊँचा है. हर घर में तिरंगा देने का अभियान चल रहा है. यात्रा-जुलूस निकल रहे हैं. हैरिस को इन सबकी कोई ख़ास खबर नहीं. वह तो शहर की सड़कों पर हुई झंडों और होर्डिंग्स की आमद से खुश है. उसका एक काम पंद्रह अगस्त के बाद पूरा हो जाएगा ऐसा उसने सोच रखा है.

बीती गर्मी बीवी ने कई बार उससे कमरे के दरवाजे में किवाड़ लगाने की जिरह की है. एक कमरे के उस झोपड़े में किवाड़ नहीं है. वह घर कैसा जिसमें एक अदद किवाड़ न हो. कबाड़ी बाज़ार की लकड़ी-फ़र्नीचर की दुकान पर हैरिस ने दो बार मोलभाव भी की है. मगर दाम सुनकर आगे बढ़ने का साहस नहीं हुआ. मियाँ बीवी के आपसी मशविरे से तय पाया गया कि अबकी ठंड आने तक किवाड़ लायक पैसे जोड़ लेने हैं. मगर इस मुई बारिश का क्या किया जाये. अबकी बारिश ने खूब हैरान किया. झोपड़ी में पानी टपकता है. रात में बल्ब की रोशनी से खिंचकर कीट-पतंगे आ जाते हैं. सबसे छोटे वाले लड़के के गले पर हफ़्ता रोज पहले कोई ज़हरीला कीड़ा चल गया. बड़े-बड़े फफोले निकल आये.

 

मुल्क में यह नये-नये शौक़ का दौर है. कुर्सियों से लेकर बसों तक का रंग बदल गया है. हर बात को एक अदृश्य तराज़ू पर तौलने का रिवाज जड़ पकड़ चुका है. बताते हैं भारत माता के हाथ में वह तराज़ू है. खाने पीने से लेकर पहनने, दिखने, पूजा करने, सौदा-सुलफ़ बेचने, घर, मकान, काम पाने तक के मामलों में तराज़ू का दखल आम बात थी. मगर ऐसे करोड़ों लोग हैं जो इन सब बातों से बेपरवाह पेट की आग बुझाने में ही जले जा रहे हैं. रोज कुँआ खोदकर पानी पीना इनके जीवन की चाल है. हैरिस वहीं से आता है.

 

स्टेशन के चौराहे पर, सदर बाज़ार और घंटाघर के पास आला दर्जे के झंडे और होर्डिंग्स लगी हैं. कई दिनों से हैरिस की नज़र झंडों और बैनरों पर है. वह पढ़-लिख नहीं पाता. उसे ख्याल आया बड़े बेटे को अक्षर मिलाकर पढ़ना आ गया है. कितने पापड़ बेलकर स्कूल में उसका दाख़िला हुआ है. हैरिस का ध्यान सवारियों से गपशप पर कम, अच्छे कपड़े वाले झंडे, होर्डिंग्स और उनकी लोकेशन पर ज्यादा है. उसे अपने दरवाज़े के लिए किवाड़ का काम दे सकने वाले मज़बूत कपड़े का एक झंडा चाहिए. और टपकती छत के लिए अच्छे फ्लेक्स वाली एक छोटी होर्डिंग.

 

हाथ जोड़े हैरिस चौकी के अंदर दाखिल हुआ. दरोगा साहब अपनी कुर्सी पर बैठे थे. उनके सामने की मेज पर झोला पड़ा है. छोटी मूँछ वाले सिपाही ने झंडे को निकालकर मेज पर रख दिया. मेज़ के दूसरी तरफ चालीसेक की उमर का एक मोटा आदमी कुर्ते-पायजामें में बैठा था. गले में संतरे रंग का फटका डाले हुए. दो आदमी उसकी कुर्सी के पीछे खड़े थे. बस्ती आये दोनों सिपाही हाथ बांधकर मेज की बग़ल में खड़े हो गये. चौकी के दरोगा ने घूरकर उसे देखा.

“गलती हो गई साब. मैंने चोरी नहीं की. रास्ते में गिरा पड़ा मिला था”.

दरोगा ने अपने सामने बैठे आदमी की ओर देखा. “बोलिये गोयल साहब?”

“बोलना क्या है सिंह साहब! पेलिए साले को”

उसकी घिग्घी बंध गई. वह गोयल के चेहरे को याद करने लगा. शायद यह वही बंदा है जो पार्षदी का चुनाव लड़ा था. क्या इसने मुझे देखा! या ख़ुदा रहम! उसने सोचा गुनाह क़ुबूल लेना ही शायद बचाव का रास्ता हो जो इनके दिलों में रहम पैदा कर दे.

“हुज़ूर, गलती हो गई. मैंने गलती से झंडा चुरा लिया. घंटाघर से चुराया हुज़ूर. दुबारा कभी ऐसा नहीं होगा हुज़ूर” वह गिड़गिड़ाया.

दरोगे और गोयल की आँखें मिली. दोनों हँसने लगे.

“झंडा चोर” एक सिपाही बोला.
“तिरंगा चोर” दूसरे सिपाही ने सुधार किया.
“देशद्रोही चोर” यह गोयल की आवाज थी.

पीछे खड़ा आदमी झुककर गोयल के कान में बोला “लंबा खींचना है क्या?” वह मुसकुराया.

 

हैरिस का हाल पता मुक़ाम मेरठ है. काम है किराए पर रिक्शा चलाना. वह उत्तराखण्ड के किसी क़स्बे का रहने वाला है. माँ-बाप की उसे याद नहीं. जिम कार्बेट जंगल के पास हाथी पालने वाले किसी पीलवान की सोहबत में वह बड़ा हुआ. हाथी साधने की विद्या और भाषा उसे कुछ-कुछ पता है. सोलह-सत्रह की उमर तक आते-आते किसी बात पर पीलवान से हुई खटपट इतनी बड़ी हो गई कि एक दिन उसने पन्नी में सामान भरा और भूलते-भटकते मेरठ रेलवे स्टेशन पर उतर गया. मेरठ ने उसको जो दिया-लिया हो यहाँ लगभग पंद्रह बरस गुजारने के बाद आज वह शहर का बाशिंदा है.

ज़ाहिद सेठ के अड्डे से सवा सैकड़ा रोज पर रिक्शा मिल जाता है. रिक्शा कोल्हू है और हैरिस गन्ना. ख़ुद को उसमें पेर देता है. न जाने कब और कैसे एक औरत उसे मिल गई. दोनों के तीन बच्चे हैं. बीवी को हमल जल्दी-जल्दी ठहरा तो बच्चों की उम्र में फर्क कुछ कम ही है. शहर के उत्तरी छोर पर बड़े कचराघर से क़रीब बस्ती के बाहरी किनारे पर ईंट, टिन, प्लास्टिक, लकड़ी और फ्लेक्स की जोड़तोड़ से मियाँ-बीवी ने एक कमरा सा बना लिया है. रसोई बाहर खुले में है जिसके ऊपर पतले टिन की चादर है.

 

झंडे और होर्डिंग से शहर को पाट देने का चलन नया पैदा हुए शौक़ में से एक है. हर पखवाड़े कोई नया कारनामा आ जाता है. सत्ताधारी पार्टी के फ्लेक्स सबसे ज्यादा फिर विपक्ष की र्टियों के. इसमें हैरिस जैसों का जरा- सा फ़ायदा भी है. पार्टियों को शायद यह पता न हो कि अगली सुबह उनके कई फ्लेक्स बाक़ायदा किसी गरीब की छत बन जाते हैं. शहर में नशेबाज़ छोकरों का एक गिरोह है जो रातोंरात होर्डिंग्स को साफ कर नशेपत्ती का जुगाड़ करता है. हैरिस की छत के फ्लेक्स भी इसी रास्ते से आये थे. अगर आप उसके कमरे में लेटें तो सभी राजनीतिक दलों के चिह्न छत में दिखेंगे.

 

पंद्रह अगस्त की दोपहर भर शहर में गहमागहमी रही. वैसे आज छुट्टी है मगर हैरिस जैसों की छुट्टी सिर्फ बीमार पड़ने या कर्फ्यू लगने पर होती है. वह सुबह से घंटाघर के आसपास रहा. सवारियाँ कम थीं. ज़िले के अधिकारियों की गाड़ियाँ उधर से निकलीं. पुलिस लाइन में बजी धुन की आवाज़ उसे महसूस हुई. ग्यारह बजे के आसपास सत्ताधारी दल का जुलूस आया. जवान लड़के बाइकों पर सवार दुनिया जीतने वाले अन्दाज से निकले. सड़क पर खड़े ठेलेवालों और रिक्शावालों को सीटी बजाकर ट्रैफ़िक पुलिस का सिपाही पीछे होने के इशारे र रहा था. न जाने क्यों आज उसको जरा-सा डर लगा. चोरी तो चोरी है. उसने भीड़ और शोर-शराबे के छँटने का इंतजार किया. दोपहर पूरी होते-होते बाजार शांत होने लगा.

हैरिस ने चारों ओर तेज निगाह दौड़ाई. मैदान साफ़ देखकर वह धीरे से रिक्शे से उतरा और खंभे पर चढ़कर फटाफट झंडा उतार लिया. एक फ्लेक्स भी उसने उतारा और मिनटों में तहाकर रिक्शे की सीट के नीचे रख लिया. जुलूस की गाड़ी से एक छोटा-सा तिरंगा खंभे के पास गिरा पड़ा था. उसे उठाकर रिक्शे की हैंडल में बांधा और तेज पैडल से घर की ओर चल पड़ा. हैंडल में बंधे तिरंगे से फड़-फड़ की आवाज आती थी. उसके मन में एक उमंग-सी पैदा हुई. चलो दो-चार महीने का जुगाड़ हो गया. अबकी दशहरे और दिवाली में वह ज़्यादा ज़ोर मारेगा और किवाड़ भर के लिए पैसे बचा लेगा.

 

रास्ते में वह लालकुर्ती बाज़ार के पास नरेश दर्ज़ी की दुकान पर रुका. झंडे-होर्डिंग्स-बोरी-तिरपाल आदि से गरीब परिवारों के काम आने लायक चीजें बना देना उसकी दुकान का मुख्य कारोबार था. साइकिल और सिलाई मशीन के मालिक नरेश दर्जी से बस्ती वालों का काम के अलावा बोलचाल का भी अच्छा रिश्ता है.

“नरेश भाई, इससे दरवाजे की माप बराबर परदा निकाल द्यो और इसमें यहाँ से कट देके सिलाई मार द्यो”, सामान देते हुए हैरिस ने अपनी जरूरत समझा दी.

“कहाँ से हाथ मारा बे” नरेश ने चुहल की. झेंपते हुए हैरिस ने खीस निपोर दी.

“अरे कोई बात नहीं लौंडे. दो रोज में यह सब गिर ही जाता है न. निगम की गाड़ी बटोरकर कूड़े में ही ले जाती है”. जवाब भी ख़ुद नरेश ने दे दिया. उसको राहत-सी महसूस हुई. नरेश दर्जी ने उसके कहे मुताबिक झंडे पर कैंची लगायी और दरवाज़े की नाप बराबर परदा काट लिया. अच्छी क्वालिटी का कड़कदार सूती कपड़ा था. वह गौर से परदे का बनना देख रहा था. जरा सी देर में एक बड़ी अच्छी चीज़ निकल आई. दर्जी ने ब्रैकेट सिलकर परदा उसे थमा दिया. बीस की बात पंद्रह में छूटी. वह बहुत खुश था.

घर पहुँचने पर बीवी ने परदा देखा और आँखों से तारीफ की. हैरिस ने परदे के ब्रैकेट में बांस के टुकड़े डाले और परिवार द्वारा परदे को किवाड़ रहित दरवाज़े पर टांग दिया गया. परिवार का सुख-संतोष झोपड़ी में लौट आया. परदे ने अपना फ़र्ज़ निभाने में देर न की और झोपड़ी की इज्जत-आबरू को अपने तीन रंगों से ढँक लिया.

 

दो दिन बाद लोकल पार्षद और ठेकेदार विक्की गोयल मज़दूरों के बयाने की नियत से हैरिस की बस्ती की ओर आया. दरवाज़े का परदा बने तिरंगे को देखकर वह ठिठका. झंडे के बारे में कुछ-कुछ क़ानून उसने सुन रखा था. उसकी महत्वाकांक्षा और राष्ट्रभक्ति एक साथ जागी. उसने दरोगा को फोन करके राष्ट्रीय झंडे के अपमान की शिकायत की और फेसबुक पर पोस्ट लिखकर अपने साथियों से पुलिस चौकी पहुँचने की अपील की.

 

“दफ़ा तो झंडा संहिता की धारा दो बनती है, मगर जैसा आपने कहा देशद्रोह में भी ठोंक सकते हैं गोयल साहब”, दरोगा बोल रहा था.

“उसमें सजा कितनी है?”

“उम्र क़ैद”! दरोगा ने जवाब दिया और दोनों ठठाकर हंस पड़े.

“जे चूतिया टट्टी कर देगा. झंडा वाली दफ़ा ही लगाओ”, गोयल का जवाब आया.

“क्या नाम है तेरा”, दरोगा ने पूछा.

“हैरिस है साहब”

“बता तूने क्या किया है?”

“अब कभी झंडे की चोरी नहीं करूँगा हुज़ूर. झोपड़ी में किवाड़ नहीं था”.

“अबे भैंस की आँख, तूने तिरंगे झंडे का अपमान किया है. भारतीय झंडा संहिता का क़ानून तोड़ा है. पता है तीन साल की सजा है”, झल्लाते हुए दरोगा बोल पड़ा.

हैरिस के पल्ले कुछ न पड़ा. झंडे के अपमान की बात उसके सिर के ऊपर से निकल गई. मगर कोई गंभीर गलती उसे मालूम पड़ी. “मेरे छोटे-छोटे बच्चे हैं साब. बारिश का पानी टपकता है झोपड़ी में. लालच में पड़ गया हुज़ूर. दरवाज़े पर परदा डालने के लिए चुरा लिया. आगे ऐसा कभी नहीं होगा माईबाप”.

“साला नौटंकी, जेल में डालो इसे दरोगा जी”, गोयल अचानक ऊँची आवाज में बोला.

हैरिस की बड़बड़ाहट बंद हो गई. वह सन्न रह गया. सन्नाटे ने घबराहट का रूप ले लिया. बीवी-बच्चों का चेहरा उसके दिमाग़ में घूम रहा था. वे क्या खाएँगे. सौ ख्याल उसके मन में आये और चक्कर खाकर वह ज़मीन पर गिर पड़ा.

 

थोड़ी देर बाद गोयल चौकी से बाहर आया. उसके एक चमचे ने दो-चार मीडिया वालों और लोकल यूट्यूबरों को वहाँ बुला लिया था. विजयी भाव से वह उनकी तरफ बढ़ा. बोला “मैंने तो बस अपना फ़र्ज़ निभाया”. तिरंगे की शान में कोई आँच न आने की उपलब्धि पर, शहर के अख़बारों की हेडलाइन उसके दिमाग़ में नाची.

राष्ट्रीय झंडे के अपमान का आरोप है. पुलिस ने अपना फ़र्ज़ निभाया. हैरिस पर ऍफ़आईआर दर्ज हुई. चोरी की शिकायत भी उसमें जुड़ गई. उसे हवालात में बंद कर गया. काग़जी लिखा पढ़ी के बाद दरवाज़े पर लगे उस तिरंगे को डिब्बे में बंदकर थाने के मालखाने में महफ़ूज रख दिया गया.

 

सुबह के आठ बजने को हैं. रात परिवार के लिए घमासान रही. बस्ती की कई झोपड़ियों से रातोंरात तिरंगे के फ्लेक्स उतार लिए गए हैं.
हैरिस की झोपड़ी के सामने आठ-दस साल के दो बच्चे बोरा लिये खड़े हैं. माँ बच्चों के साथ कमरे से बाहर निकली. बड़ा बेटा उन दो लड़कों के साथ निकल जाता है. वह उन्हें जाता हुआ देख रही है. बेटे की पीठ पर खाली बोरी है. उसकी आँख से एक बूँद आंसू टपक पड़ता है. वह रसोई की तरफ देखने लगती है. स्कूल बस्ता चूल्हे के पास पड़ा है. सूरज की रोशनी चुभने लायक़ हो रही है. बच्चों के मुँह में कुछ डालकर उसे निकलना है. बारह बजे ज़ाहिद सेठ ने अड्डे पर वकील को बुलाया है.

तभी एक जुलूस नारे लगाता हुआ बस्ती में दाखिल हुआ. उनके पास तिरंगे झंडों का गट्ठर है. वे हर घर में झंडा बाँट रहे हैं. झंडा लिए एक लड़का उसकी तरफ बढ़ता है. माँ एक कदम पीछे हट जाती है. कुछ क्षणों के लिए वह ठिठकी रही. किसी अनहोनी की आशंका में उसके हाथ काँपे. फिर हैरिस और बच्चों का चेहरा उसकी आँखों में घूम गया. मन में जैसे कोई संकल्प उभरा. आगे बढ़कर सहमते हुए हाथों से उसने झंडा थामा और अपनी बिखरी-बेपर्दा झोपड़ी के माथे पर टांग दिया. कहीं से हवा का एक झोंका आया और झंडा खिलखिला उठा.

पंद्रह अगस्त बीत चुका है.

 

संदीप सिंह
10 जुलाई,1982 ( प्रतापगढ़)
संस्कृति, धर्म दर्शन, इतिहास, साहित्य, सामाजिकी में  रुचि
जेएनयू से दर्शनशास्त्र में शोध और दो बार जेएनयू छात्र संघ अध्यक्ष.
कुछ लेख और  कविताएँ  प्रकाशित.  पिछले 12 वर्षों से अपने उपन्यास “पता पुराण” पर कार्य कर रहे हैं

इन दिनों कांग्रेस से संबद्ध.
संपर्क – sandeep.gullak@gmail.com

Tags: 20252025 कथामहफ़ूज़संदीप सिंह
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Comments 2

  1. RAGHUVENDRA KUMAR says:
    2 hours ago

    बहुत ही मार्मिक कहानी। जो वर्तमान राजनीति परिदृश्यों को प्रकट कर रहा है।

    Reply
  2. Abhishek Singh Rana says:
    1 hour ago

    दिल को छूने वाली कहानी है यह भैया

    Reply

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समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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