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समालोचन

Home » संस्कृत का अधिकार : कुशाग्र अनिकेत

संस्कृत का अधिकार : कुशाग्र अनिकेत

जीविका के लिए श्रम करना केवल मनुष्य की ही नहीं, प्रत्येक प्राणी की मूल प्रवृत्ति है. भारतीय सभ्यता संभवतः एकमात्र ऐसी सभ्यता है जिसमें उत्पादक श्रम, जो किसी भी संस्कृति का भौतिक आधार निर्मित करता है, को हीन दृष्टि से देखा गया और उससे आजीविका चलाने वाले विशाल वर्ग को ‘शूद्र’ की संज्ञा देकर सामाजिक सोपान में नीचे स्थान दे दिया गया. संस्कृत पढ़ने के उनके अधिकार को सीमित कर दिया गया. भारतीय नवजागरण की बहसों में यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रश्न रहा है. कुशाग्र अनिकेत अपने इस विद्वतापूर्ण आलेख में शूद्रों के संस्कृत अध्ययन के अधिकार के प्रश्न को पर्याप्त साक्ष्यों के साथ विवेचित कर रहे हैं. हालांकि इस आलेख को पढ़ते हुए भेदभाव और अपमान का वह अध्याय भी सामने आ ही जाता है जो आज और भी निंदनीय महसूस होता है.

by arun dev
August 3, 2025
in विशेष
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संस्कृत का अधिकार : कुशाग्र अनिकेत
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संस्कृत का अधिकार
कुशाग्र अनिकेत[1]

क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि आज के युग में वर्ग-विशेष के लिए किसी भाषा के शब्दों के उच्चारण-मात्र पर प्रतिबंध लगाया जाए? क्या प्राचीन काल में भी ऐसा करना संभव था? स्वामी करपात्री और उनके अनुयायी संस्कृत भाषा पर ऐसा ही प्रतिबंध लगाने के पक्षधर रहे हैं। करपात्री जी के अनुसार संस्कृत केवल द्विजों की भाषा है और द्विजों के अतिरिक्त अन्य को संस्कृत बोलने का अधिकार नहीं है-

“संस्कृत भाषा ही सबकी भाषा है – यह कहना प्रत्यक्ष विरुद्ध है। शास्त्र की दृष्टि से भी संस्कृत द्विजातियों की ही भाषा कही गयी है। कई लोगों के लिए तो संस्कृत शब्दों का उच्चारण भी निषिद्ध है। ‘नोच्चरेत् संस्कृतां गिरम्’ (स्कन्द-पुराण)।”[2]

करपात्री जी का कथन दुर्भाग्यपूर्ण होने के साथ-साथ शास्त्रादेश और लोकाचार के विरुद्ध है। उनके कुछ अनुयायी तो मानों इस कथन का अतिदेश कर कहते हैं कि शूद्र को विद्यार्जन का ही अधिकार नहीं है।[3] ये मान्यताएँ न केवल काल-बाह्य हैं, प्रत्युत परंपरा-बाह्य भी हैं। अत एव, करपात्री जी के कथन का शास्त्रानुसार खंडन करना आवश्यक हो जाता है। भारतीय ज्ञान परंपरा में प्रत्येक विद्या-स्थान के अंतर्गत उसके अधिकारी पर विचार किया जाता है। इस लेख में हम करपात्री जी को पूर्वपक्षी मानकर उन्हीं के द्वारा स्वीकृत विभिन्न धर्मशास्त्रों और शिष्ट-परंपरा के आधार पर संस्कृत भाषा के अधिकार पर विमर्श करेंगे।

 

 

1.
संस्कृत क्या है?

सर्वप्रथम तो हमारे लिए यह जानना आवश्यक है कि संस्कृत क्या है और वह संस्कृत भाषा कौन-सी है, जिसका करपात्री जी ने द्विजेतरों के लिए निषेध किया है। करपात्री जी के खंडन के पूर्व “संस्कृत” शब्द की विभिन्न शास्त्रीय परिभाषाओं को उपस्थापित करना महत्त्वपूर्ण है।

भाषा के रूप में “संस्कृत” का प्राचीनतम उल्लेख वाल्मीकीय-रामायण में प्राप्त होता है। कथा है कि एक इल्वल नामक असुर ब्राह्मण का रूप धरकर “संस्कृत” बोलता हुआ ब्राह्मणों को श्राद्ध के लिए आमंत्रित किया करता था।[4] आगे रामायण में लंका पहुँचकर हनुमान् विचार करते हैं कि उन्हें देवी सीता से किस भाषा में बात करनी चाहिए।[5] हनुमान् के पास दो भाषाओं का विकल्प था – मानुषी संस्कृता और द्विजाति-संस्कृता। दोनों भाषाएँ “संस्कृत” थीं, अर्थात् दोनों व्याकरण के संस्कार के युक्त थीं।[6] पहली संस्कृत भाषा मनुष्य-मात्र के द्वारा बोली जाती थी। किंतु द्वितीय भाषा को संभवतः केवल द्विजाति (ब्राह्मण अथवा त्रैवर्णिक) लोग ही बोलते थे। यह रावण की भाषा थी, जिसे सुनकर सीता भयभीत हो जातीं।

ये दो भाषाएँ कौन-सी थीं? – इसका स्पष्ट उत्तर नहीं है। कुछ विकल्प प्रस्तुत हैं-

१. मानुषी संस्कृता – कोसल प्रदेश की भाषा[7], द्विजाति-संस्कृता – ऐतिहासिक (वेदोत्तर) संस्कृत

२. मानुषी संस्कृता – सामान्य संभाषणानुकूल ऐतिहासिक संस्कृत, द्विजाति-संस्कृता – अधिक भाषा-सौष्ठव युक्त ऐतिहासिक संस्कृत[8]

३. मानुषी संस्कृता – ऐतिहासिक संस्कृत, द्विजाति-संस्कृता – वैदिक भाषा

४. मानुषी संस्कृता – तमिल (अथवा प्राचीन द्रविड़ भाषा), द्विजाति-संस्कृता – (वैदिक अथवा ऐतिहासिक) संस्कृत

वाल्मीकीय-रामायण की टीकाओं में (१) और (२) का समर्थन मिलता है, जबकि (३) और (४) अन्य अध्येताओं के द्वारा सुझाए गए हैं।

रामायण से इतर वाङ्मय में “संस्कृत” शब्द का प्रयोग तीनों अर्थों में हुआ है- वैदिक-भाषा, ऐतिहासिक संस्कृत और पाणिनि आदि वैयाकरणों द्वारा व्याकृत संस्कृत। उदाहरण-स्वरूप मनुस्मृति में “आर्यवाक्” और “म्लेच्छवाक्” का उल्लेख देखिए। मनु के अनुसार चातुर्वर्ण्य के अतिरिक्त वर्णबाह्य दस्यु भी इस “आर्यवाक्” को बोलते थे।[9] यह “आर्यवाक्” क्या है? सामान्यतः आर्यावर्त के लोगों की भाषा को आर्यभाषा कहते थे। इस भूभाग में शूद्र समेत सभी वर्णों के लोग रहते थे। अतः इस “आर्यभाषा” के वक्ता सभी वर्णों और वर्णबाह्यों में पाए जाते थे। मनुस्मृति में शूद्रों के लिए इस “आर्यवाक्” का कहीं निषेध नहीं किया है। केवल इतना कहा गया है कि शूद्र यज्ञों में वैदिक मंत्रों का प्रयोग नहीं करें।[10]

कुछ टीकाकारों ने “संस्कृत” को “आर्यवाक्” का पर्याय माना है।[11] किंतु एक अन्य मत यह है कि यह “आर्यभाषा” वैदिक भाषा थी। इसका समर्थन नाट्यशास्त्र (१७.२७) पर आचार्य अभिनवगुप्त की टीका से हो जाता है। आचार्य अभिनवगुप्त के अनुसार स्वर आदि संस्कारों से युक्त भाषा “संस्कृत” कहलाती है। इससे विलक्षण एक “आर्यभाषा” है, जिसमें वैदिक शब्दों का बाहुल्य है।[12]

वाजसनेयि-प्रातिशाख्य (१.४) के भाष्य में उवट और अनंतभट्ट लिखते हैं कि स्वर (उदात्त, अनुदात्त और स्वरित) और संस्कार (लोप आदि) के नियम केवल छांदस (वैदिक) शब्दों में होते हैं, “लौकिक” शब्दों में नहीं।[13] यदि इस प्रकार की नियम-बद्ध वैदिक भाषा को भी “संस्कृत” कह दिया जाए तो इसमें आश्चर्य नहीं है।

जहाँ एक ओर वैदिक भाषा और लौकिक संस्कृत को दो भिन्न भाषाओं के रूप में देखा जाता था, वहीं एक अन्य परंपरा इनमें आनंतर्य देखने की भी थी। आचार्य दंडी की प्रसिद्ध उक्ति “संस्कृतं नाम दैवी वागन्वाख्याता महर्षिभिः”[14] से संकेत मिलता है कि वही संस्कृत भाषा पूर्व में देवताओं की भाषा (“दैवी वाक्”) थी, जिसे कालांतर में (“अनु”) महर्षियों ने व्याकरण-बद्ध (“आख्यात”) किया। महाकवि कालिदास ने कुमारसंभव (१.२८) में “संस्कारवती” वाणी का उल्लेख किया है। मल्लिनाथ ने इसका अर्थ “व्याकरण-रूपी संस्कार से शुद्ध भाषा” किया है।[15]

१४ वीं शताब्दी में सायणाचार्य लिखते हैं कि उनके काल में पाणिनि आदि महर्षियों के द्वारा प्रकृति-प्रत्यय के रूप में व्याकृत (व्याख्यायित) संस्कृत भाषा सभी लोगों के द्वारा पढ़ी जाती थी।[16] इस कथन से भी ज्ञात होता है कि सायण के काल में वैदिक संहिताओं की भाषा और पाणिनि आदि वैयाकरणों द्वारा “व्याकृत” भाषा में आनंतर्य देखा जाता था।

संस्कृत भाषा का प्राचीनतम असंदिग्ध शिलालेखीय उल्लेख छठी शताब्दी के मैत्रक राजवंश के एक शिलालेख में प्राप्त होता है। इस शिलालेख में महाराज गुहसेन को संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश- इन तीनों भाषाओं में रचना करने में निपुण बताया गया है।[17] इस उल्लेख से सिद्ध होता है कि छठी शताब्दी तक इन तीन भाषाओं को भिन्न माना जाने लगा था।

इस प्रकार हम देख सकते हैं कि “संस्कृत” शब्द अपने-आप में वैदिक भाषा, इतिहास-पुराणों की आर्ष भाषा, पाणिनि जैसे वैयाकरणों द्वारा नियमित भाषा और महाकाव्यों और नाटकों की भाषा – इन सभी अभिप्रायों को समेटे हुए है। करपात्री जी ने शूद्रों के लिए संस्कृत के इन सभी प्रकारों का निषेध किया है। इसमें सामान्य बोलचाल की लौकिक संस्कृत भाषा भी सम्मिलित है। वे तो संस्कृत नाटकों में कुछ पात्रों द्वारा प्रयुक्त प्राकृत भाषा को इसका प्रमाण मानते हैं कि संस्कृत केवल द्विजातियों की भाषा है। किंतु इस लेख में हम आगे देखेंगे कि चाहे हम “संस्कृत” की कोई भी परिभाषा स्वीकार करें, विभिन्न वर्णों के स्त्री-पुरुष इसे बोलते रहे हैं।

 

 

2.
स्कंदपुराण के वाक्य का विवेचन

अब स्कंदपुराण के जिस श्लोकांश को करपात्री जी ने उद्धृत किया है, हम उसका ही विवेचन करेंगे। यह श्लोक इस प्रकार है-

न शिखां नोपवीतं च नोच्चरेत् संस्कृतां गिरम् ।
न पठेद्वेदवचनं त्रैरात्रं न हि सेवयेत् ॥[18]

यहाँ प्रसंग है सोमनाथ-तीर्थ की यात्रा का। अध्याय के आरंभ में देवी पार्वती भगवान् शिव से प्रश्न करती हैं कि सोमनाथ-यात्रा की विधि क्या है और उस क्षेत्र में तीर्थयात्री को कौन-कौन से नियमों का पालन करना चाहिए? [19]उत्तर में भगवान् शिव सोमनाथ-क्षेत्र में पालन करने योग्य नियमों का प्रतिपादन करते हैं। इस संवाद के अंतर्गत उपवास का प्रसंग आता है – सोमनाथ-क्षेत्र में विभिन्न वर्णों के लोगों को कितने समय तक उपवास करना चाहिए? महादेव कहते हैं कि ब्राह्मणों को यात्रा-पर्यंत अनशन करना चाहिए किंतु शूद्रों को “षष्ठकाल” अर्थात् तीसरे दिवस की संध्या तक ही उपवास करना चाहिए।[20]

इस कथन से दो बातें स्पष्ट हैं-

१. शूद्रों की अपेक्षा ब्राह्मणों से अधिक अवधि तक तपश्चर्या अपेक्षित है।

२. उपवास के ये नियम सार्वत्रिक नहीं हैं, अपितु तीर्थक्षेत्र-विशेष के लिए विहित हैं।

अन्य प्रसंगों में अनेक लोगों के लिए षष्ठकालोपवास का विधान है, केवल शूद्रों के लिए नहीं। उदाहरण-स्वरूप पुराणों के अनुसार पंचाग्नि-साधकों को ग्रीष्म में षष्ठकालोपवास करना चाहिए।[21] लोहार्गल-क्षेत्र और द्वारका-क्षेत्र में सभी तीर्थयात्रियों के लिए षष्ठकालोपवास का विधान है।[22] किंतु सोमनाथ में उपवास की अवधि वर्णानुसार भिन्न-भिन्न है। अतः केवल “षष्ठकालाशनं शूद्रे तपः प्रोक्तं परं बुधैः” के उद्धरण से शूद्रों के लिए षष्ठकालोपवास का सार्वत्रिक विधान नहीं किया जा सकता।

षष्ठकालोपवास के समय शूद्र को क्या-क्या करना चाहिए? इसके लिए आगे कहते हैं[23]–

“षष्ठकालोपवास करने वाले शूद्र को यथाशक्ति तप करना चाहिए। न उसे दर्भ उखाड़ना चाहिए, और न ही कपिला गाय का दूध पीना चाहिए। हे भामिनी! उसे ब्रह्मवृक्ष (पलाश अथवा उडुंबर) का मध्यवर्ती पत्ता नहीं खाना चाहिए। उसे प्रणवयुक्त मंत्र का उच्चारण नहीं करना चाहिए और न ही पुरोडाश का भक्षण करना चाहिए। उसे शिखा और यज्ञोपवीत नहीं धारण करना चाहिए और न ही संस्कृत भाषा का उच्चारण करना चाहिए। उसे वेद वाक्यों का पाठ नहीं करना चाहिए, और त्रैरात्र (तीन रात्रियों का व्रत) नहीं करना चाहिए। शूद्र की क्रिया-सिद्धि नमस्कार के माध्यम से ही हो जाती है— यह निश्चित बात है। यदि वह निषिद्ध आचरण करता है, तो अपने पितरों सहित नरक में गिर जाता है।”

इन श्लोकों का तात्पर्य यह है कि सोमनाथ-क्षेत्र में शूद्र के लिए केवल नमस्कार कर लेना ही पर्याप्त है, उसे किसी कठोर व्रत के पालन की आवश्यकता नहीं है। किंतु ये सभी निषेध सोमनाथ-क्षेत्र के लिए ही हैं, सार्वत्रिक नहीं हैं। यदि इन नियमों को सार्वत्रिक मान लिया जाए तो धर्मशास्त्रों में शूद्रों के लिए बताए गए अन्य नियमों का भी निषेध हो जाएगा। उदाहरणस्वरूप अनेक धर्मशास्त्रों में शूद्रों के लिए शिखा का विधान मिलता है। वसिष्ठ-धर्मसूत्र के अनुसार सभी वर्ण शिखा धारण कर सकते हैं।[24] इस सूत्र को शेषकृष्ण ने शूद्राचारशिरोमणि में उद्धृत करते हुए बताया है कि चारों वर्ण के लोग केश के साथ शिखा धारण करें अथवा शिखा के अतिरिक्त पूरा मुंडन करा लें।[25]

अतः स्कंदपुराण के उपर्युक्त निषेध को तीर्थक्षेत्र-विशेष तक सीमित मानना चाहिए। भावार्थ यह है कि कोई शूद्रवर्ण का तीर्थयात्री यदि कुछ न करे, केवल सोमनाथ को नमस्कार ही कर ले तो भी उसे तीर्थयात्रा का फल प्राप्त हो जाता है। पूर्वपक्षी की भूल है कि उन्होंने “नोच्चरेत् संस्कृतां गिरम्” को पूर्वापर प्रसंग के बिना ही उद्धृत कर शूद्रों के लिए संस्कृत-भाषा का निषेध माना है।

 

 

3.
पद्मपुराण का आदेश

यद्यपि करपात्री जी ने शूद्रों के संस्कृताधिकार का निषेध करते हुए केवल स्कंदपुराण के श्लोकांश “नोच्चरेत् संस्कृतां गिरम्”का उद्धरण दिया है, तथापि मध्यकालीन धर्मनिबंधों में उद्धृत एक अन्य श्लोकार्ध का तात्पर्य स्पष्ट कर देना आवश्यक है। इस श्लोकार्ध को निबंधकारों ने पद्मपुराण से उद्धृत बताया है, किंतु पुराण के वर्तमान में प्रकाशित संस्करणों में यह प्राप्त नहीं होता। किसी उपलब्ध पांडुलिपि में भी यह श्लोक हमें प्राप्त नहीं हुआ है। फिर भी, निबंधकारों के उद्धरण को प्रामाणिक मानकर हम इस वाक्य पर विचार करते हैं। यह वाक्य है-“न शिखी नोपवीती स्यान्नोच्चरेत् संस्कृतां गिरम्”।

उपर्युक्त वाक्य में तीन वस्तुओं का निषेध है- शिखा, उपवीत और संस्कृत वाणी। निषेध शूद्र के लिए है- यह भी हमें निबंधकारों से ही ज्ञात होता है। पद्मपुराण में वाक्य के अप्राप्य होने के कारण हम इसका पूर्वापर प्रसंग नहीं जान सकते। क्या स्कंदपुराण के श्लोकार्ध के विपरीत पद्मपुराण का यह आदेश सार्वत्रिक है? स्कंदपुराण के समान पद्मपुराण में भी अनेक तीर्थस्थलों का माहात्म्य वर्णित है। क्या इनमें से किसी तीर्थ-विशेष के प्रसंग में ही यह श्लोकार्ध आया है? यद्यपि इस प्रश्न का उत्तर हम नहीं जान सकते, तथापि धर्मनिबंधों के मत का विवेचन कर सकते हैं।

निषिद्ध वस्तुओं में प्रथम है शिखा। किंतु क्या यह सभी शूद्रों के लिए निषिद्ध है? नहीं। निर्णयसिंधु में शूद्र की शिखा पर विचार करते हुए कमलाकरभट्ट लिखते हैं-

“‘शूद्र के केश और वेश अनियमित होते हैं’- यह वसिष्ठ-धर्मसूत्र का कथन है। जो पद्मपुराण में शूद्र के संबंध में कहा गया है- ‘वह न तो शिखा धारण करे, न उपवीत और न ही संस्कृत भाषा बोले’, वह असच्छूद्र के लिए है। ऐसा कुछ लोगों का मत है। (शूद्रों को शिखा नहीं रखने का) विकल्प है – ऐसा कहना युक्तियुक्त है। अत एव हारीत ने कहा है- ‘यदि स्त्री और शूद्र क्रोध अथवा वैराग्य के कारण शिखा काट दें, तो उन्हें प्राजापत्य व्रत करना चाहिए। अन्यथा प्रायश्चित्त नहीं है।[26]’”

अतः निर्णयसिंधु का मत है कि पद्मपुराण का उद्धृत शिखा-परक आदेश (“न शिखी…स्यात्”) केवल असच्छूद्रों के लिए है, सच्छूद्रों के लिए नहीं। शेषकृष्ण द्वारा विरचित शूद्राचारशिरोमणि में भी स्कंदपुराण (प्रभासखंड, प्रभासक्षेत्र-माहात्म्य २८.७०) के वाक्य “न शिखां नोपवीतं च नोच्चरेत् संस्कृतां गिरम्” के शिखा-संबंधी निषेध को अपकृष्ट शूद्रों तक सीमित रखा गया है।

द्वितीय निषिद्ध वस्तु है उपवीत। श्री नित्यानंद पंत प्रणीत संस्कारदीपक में पद्मपुराण के इस श्लोकार्ध का उद्धरण शूद्रों के उपवीताधिकार के विषय में दिया गया है। श्री पंत का मत है कि उपवीत दो प्रकार के होते हैं- नवसूत्र और संस्थान-विशेष। शूद्र को धर्मकृत्यों के संपादन के समय इनमें से द्वितीय प्रकार का उपवीत धारण करना चाहिए। पारिजातकल्पतरु जैसे धर्मनिबंधों का मत है कि उत्तरीय वस्त्र से भी उपवीत का कार्य किया जा सकता है। प्रो॰ पांडुरंग वामन काणे के अनुसार भी वैदिक काल में उपनयन-संस्कार में यज्ञसूत्र के स्थान पर उत्तरीय वस्त्र का प्रयोग किया जाता था।[27]

अतः श्री पंत पद्मपुराण के निषेध (“नोपवीती स्यात्”) को केवल असच्छूद्रों के लिए मानते हैं।[28] शूद्राचारशिरोमणि भी इस मत का समर्थन करता है क्योंकि उसके “तर्पणप्रयोग”नामक अध्याय में शूद्र श्राद्ध-कर्ता के लिए अनेकशः “उपवीती” और “निवीती” जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया है। इन शब्दों का कोई वैकल्पिक अर्थ भी नहीं प्रदान किया गया है। अतः अन्य धर्मनिबंधों से समन्वय करने पर शूद्रों के लिए “उपवीत” का मुख्यार्थ ही स्वीकार्य है, चाहे यह उत्तरीय ही क्यों न हो।

इस प्रकार पद्मपुराण के वाक्य में निषिद्ध तीन में से दो वस्तुएँ असच्छूद्र के लिए ही निषिद्ध हैं। विकल्प से सच्छूद्रों को शिखा और यज्ञोपवीत – दोनों रखने का अधिकार है। अतः यदि अन्य शास्त्रीय प्रमाणों के आधार पर तृतीय वस्तु (संस्कृत भाषा) को भी केवल असच्छूद्रों के लिए ही निषिद्ध माना जाए तो वह धर्मनिबंधों की पद्धति के अनुरूप ही होगा। करपात्री जी और उनके अनुयायी तो सभी शूद्रों (द्विजेतरों) के लिए संस्कृत भाषण का निषेध मानते हैं – जिसका समर्थन पद्मपुराण के श्लोकार्ध से भी नहीं हो सकता।

 

 

४.
सच्छूद्र कौन है?

हम देख चुके हैं कि करपात्र-मत के विपरीत सच्छूद्रों को संस्कृत-भाषण का अधिकार प्राप्त है। किंतु सच्छूद्र कौन है? इनके लक्षण क्या हैं?

वस्तुतः धर्मशास्त्रों के मत में भी “सच्छूद्र” एक कर्माधारित कोटि है। किसी सज्जन शूद्र को ही सच्छूद्र कहते हैं। बृहद्धर्मपुराण के अनुसार ब्राह्मण में भक्ति, देवाराधन में आसक्ति, मात्सर्यहीनता और सुशीलता- ये सच्छूद्र के लक्षण हैं।[29] स्कंदपुराण के अनुसार जिस शूद्र की पत्नी धर्मचारिणी, समान कुल में उत्पन्न, दोषरहित और स्वस्थ हो और जिसका विवाह वेदोक्त विधि से संपन्न हुआ हो, वह “सच्छूद्र” कहलाता है।[30] उपर्युक्त लक्षणों के अतिरिक्त सच्छूद्रों के कुछ अन्य लक्षण बताए गए हैं, जैसे अपनी पत्नी में अनुरक्ति, पवित्रता, आश्रितों के पालन-पोषण में तत्परता, श्राद्ध करना और सदा इष्ट-पूर्त कर्मों का संपादन करना।[31]

पुराणों में कुछ सच्छूद्र जातियों के नाम भी दिए गए हैं। बृहद्धर्मपुराण में करणों को सच्छूद्र कहा गया है। इनके अतिरिक्त कुछ संकर जातियों को भी सच्छूद्र के समान मान्यता प्राप्त है। ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार गोप, नापित, भील, मोदक, कूबर, तांबूली, स्वर्णकार और वाणिज्य में निरत सभी जातियाँ सच्छूद्र हैं।[32] किंतु इन जातियों के नामों की उपर्युक्त सूची संकेतमात्र है। “वणिग्जातयः” के निर्देश से अनेक शूद्र जातियाँ सच्छूद्रों में सम्मिलित हो सकती हैं, क्योंकि प्रायः सभी शिल्पकार अपने कौशल के फल का विक्रय करते हैं।

दूसरी ओर यदि किसी नामोल्लेखित शूद्र जाति में उत्पन्न पुरुष मद्यप, पत्नी के प्रति दुराचारी, नौकरों को सताने वाला और धर्माचरण से विमुख हो तो क्या उसे “सच्छूद्र” कहेंगे? क्या पूर्वपक्षी जन्म से ही सभी वर्णों में सत्-असत् का निर्णय करने के लिए प्रस्तुत हैं? क्या कोई नवजात शिशु इस जन्म में किसी भी कर्म के बिना “सज्जन” अथवा “दुर्जन” कहलाएगा?

पौराणिक वचनों के अनुसार सच्छूद्रता का लक्षण किसी जाति-विशेष में जन्म नहीं, अपितु आचरण है। एक सदाचारी ब्राह्मण को “सद्ब्राह्मण”, गृहस्थ को “सद्गृहस्थ”, वैद्य को “सद्वैद्य”, और पुरुष को “सत्पुरुष” कहते हैं। यहाँ “सत्” का तात्पर्य “सदाचार” है, जाति अथवा कुल-विशेष नहीं है। जिस प्रकार ब्राह्मणों में यह नहीं कहा जा सकता कि अमुक जाति अथवा क्षेत्र के ब्राह्मण सद्ब्राह्मण हैं और अमुक के असद्ब्राह्मण, उसी प्रकार शूद्रों में भी यह पूर्वनिर्णय नहीं किया जा सकता कि अमुक जाति के शूद्र सच्छूद्र हैं और अमुक के असच्छूद्र। सत्-असत् के निर्णय में व्यक्ति का आचरण ही प्रधान है।

अतः किसी भी शूद्र जाति-कुल में उत्पन्न मनुष्य सदाचरण से सच्छूद्र बन सकता है। धर्म-निबंधों के अनुसार सच्छूद्र बनने के पश्चात् शिखा और (वैकल्पिक) उपवीत का अधिकार प्राप्त होता है और निबंधकारों की व्याख्या का पद्मपुराण के संपूर्ण श्लोकार्ध पर अतिदेश करने से सदाचारी शूद्रों को संस्कृत-भाषण का अधिकार भी प्राप्त हो जाता है। करपात्री जी और उनके अनुयायियों द्वारा जो शूद्र-मात्र के संस्कृताधिकार का निषेध किया गया है, वह सदाचारी शूद्रों के लिए अप्रासंगिक है।

 

 

5.
मंत्रोच्चारण का अधिकार 

अब हम सनातन धर्म के उन मंत्रों का सिंहावलोकन करेंगे, जिनके जप में शूद्र भी अधिकृत हैं। ये सभी मंत्र संस्कृत भाषा में निबद्ध हैं, अतः जो इनमें अधिकृत है वह संस्कृत शब्दों के उच्चारण में स्वतः अधिकृत हो जाएगा। मंत्र असंख्य हैं[33], अतः यहाँ केवल उदाहरणार्थ कतिपय मंत्रों को उद्धृत किया जाएगा।

बृहद्धर्मपुराण में स्त्रियों और शूद्रों को द्विजन्मा और त्रैवर्णिकों को त्रिजन्मा कहा गया है।[34] कारण यह है कि स्त्रियों और शूद्रों के दो जन्म होते हैं- शौक्र और दैक्ष। इनके अतिरिक्त त्रैवर्णिकों का तृतीय जन्म भी होता है – सावित्र। भागवत-महापुराण (४.३१.१०) में दैक्ष जन्म को ही “याज्ञिक” जन्म कहा गया है। श्रीधरस्वामी इन तीन जन्मों की परिभाषा देते हैं- विशुद्ध माता और पिता द्वारा उत्पत्ति से शौक्र, उपनयन से सावित्र और दीक्षा से याज्ञिक जन्म होता है।[35]

यदि शूद्रों का भी दैक्ष जन्म होता है तो उसका तात्पर्य पंचमहायज्ञ से अथवा किसी देवता की विशेष उपासना में दीक्षा से मानना चाहिए। प्रायः सभी धर्मनिबंधों में शूद्रों के लिए पंचमहायज्ञ नित्य कर्म है। इसके अतिरिक्त अनेक शूद्र साधक विशेष प्रकार की देव-दीक्षाएँ भी लेते रहे हैं।

पराशर-स्मृति (१.३७-३८) पर नंद-पंडित की टीका के अनुसार चारों वर्णों को षट्कर्म (संध्या, स्नान, जप, देवपूजन, वैश्वदेव और आतिथ्य) संपादित करने का अधिकार है। इन सब में मंत्रों का स्थान है। जिन्हें गायत्री मंत्र प्राप्त नहीं है, वे गुरुमंत्र का जप कर सकते हैं।[36] यद्यपि आज संस्कृतेतर भाषाओं में भी मंत्र प्राप्त होते हैं, किंतु प्राचीन परंपरा से गुरुमंत्र संस्कृत में ही होते रहे हैं। शूद्रों द्वारा संस्कृत मंत्रों के जप के इस विधान से करपात्री जी के मत का खंडन हो जाता है। यदि पूर्वपक्षी कहें कि संस्कृत शब्दोच्चारण केवल गुरु द्वारा दीक्षित शूद्रों के लिए है, अदीक्षित शूद्रों के लिए नहीं, तो हम सर्वसामान्य के लिए प्रदत्त कुछ मंत्रों के उदाहरण देखते हैं।

भगवान् शिव के पंचाक्षर मंत्र को कौन नहीं जानता? यह मंत्र स्वयं शिवस्वरूप है। शिवाज्ञा से इस मंत्र के लिए गुरु-दीक्षा की आवश्यकता नहीं है। स्त्रियों और शूद्रों को इसके जप का अधिकार है।[37] क्या उत्तम, क्या अधम – शिवपुराण में तो मानवमात्र को पंचाक्षर-जप का अधिकार दिया गया है।[38] इसी प्रकार भगवान् नारायण के (वैदिक प्रणवहीन) अष्टाक्षर मंत्र पर भी जन-सामान्य का अधिकार है। वराहपुराण में एक चंडाल महात्मा का वर्णन मिलता है, जो सदा इस मंत्र का जप करते थे।[39] ऋषि ऐतरेय महीदास पूर्वजन्म में शूद्र थे। उन्हें एक ब्राह्मण से द्वादशाक्षर मंत्र की प्राप्ति हुई थी, जिसे वे सदा जपते थे।[40]

यदि पूर्वपक्षी को किसी शूद्र के द्वारा जपे गए ओंकार-युक्त द्वादशाक्षर मंत्र से समस्या हो तो हम उनके संतोष के लिए कह सकते हैं कि यहाँ द्वादशाक्षर मंत्र से ओंकार-युक्त मंत्र नहीं, अपितु औंकार-युक्त मंत्र समझना चाहिए, जिसके उच्चारण में द्विजेतर भी अधिकृत हैं।[41]

यदि पूर्वपक्षी कहें कि ये लघु मंत्र तो नमस्कारात्मक हैं और शूद्रों को ऐसे मंत्रों के अतिरिक्त संस्कृत-भाषण का अधिकार नहीं है, तो हम कुछ विस्तृत संस्कृत मंत्रों के उदाहरण देखते हैं, जिनके अनुशीलन और उच्चारण में शूद्र अधिकृत हैं। अनेक पौराणिक मंत्रों पर तो कोई जातिगत बंधन नहीं है, किंतु यहाँ केवल उन्हीं मंत्रों का उल्लेख किया जा रहा है, जिनका धर्मग्रंथों में शूद्रों के द्वारा उच्चारण का स्पष्ट विधान प्राप्त होता है।

मनुस्मृति (३.६९-७९) और याज्ञवल्क्यस्मृति (१.१२१) के अनुसार पंचमहायज्ञ सभी गृहस्थों का कर्तव्य है। यहाँ शूद्रों के लिए कोई निषेध नहीं है। कैयट कुछ शूद्रों के पंचमहायज्ञ के अधिकार को स्पष्टतः स्वीकार करते हैं।[42] शूद्राचारशिरोमणि और शूद्रकमलाकर के अनुसार शूद्रों को विभिन्न मंत्रों के द्वारा पंचमहायज्ञ का अनुष्ठान करने का अधिकार है। इन धर्मनिबंधों में भूतयज्ञ के प्रकरण में शूद्रों को पंच-श्लोकात्मक पौराणिक मंत्र का उच्चारण करने का विधान दिया गया है।[43] क्या ऐसे दीर्घ मंत्रों का अर्थग्रहणपूर्वक शुद्ध उच्चारण करने के लिए संस्कृत का ज्ञान अपेक्षित नहीं है? स्मृतितत्त्व में भी रघुनंदन भट्टाचार्य स्नान आदि कतिपय प्रसंगों को छोड़कर शूद्रों के लिए पौराणिक मंत्रों के पाठ का विधान करते हैं।[44]

शूद्रधर्मतत्त्व में शूद्रों के लिए संस्कृत में निबद्ध नमस्कारात्मक मंत्रों के द्वारा ब्रह्मयज्ञ की सिद्धि का विधान है।[45] इससे आगे बढ़कर शूद्राचारशिरोमणि में पौराणिक स्तोत्रों के माध्यम से शूद्रों को ब्रह्मयज्ञ संपादित करने का निर्देश दिया गया है।[46] पराशर-स्मृति (१.३८) की टीका में माधवाचार्य तैत्तिरीय आरण्यक (२.१५.७) के वाक्य “स्वाध्यायोऽध्येतव्यः” का संदर्भ देकर ब्रह्मयज्ञ की पूर्ति स्वाध्याय से मानते हैं। स्वाध्याय के अनेक प्रकार बताए गए हैं। अर्थ-चिंतन के साथ मंत्र का जप, सूक्त और स्तोत्र आदि का पाठ, भगवान् का कीर्तन और तत्त्वोपदेशक शास्त्रों का अनुशीलन- ये पाँचों स्वाध्याय के अंग हैं।[47]

गुरुमंत्र के जप और हरिकीर्तन के अतिरिक्त शूद्रों के लिए पुराणातंर्गत स्तोत्रों का पाठ स्वाध्याय है। स्पष्ट है कि संस्कृताधिकार के बिना स्वाध्याय नहीं हो सकता है। यदि शूद्रों को संस्कृत भाषा के उच्चारण का अधिकार नहीं था तो वे इन सब मंत्रों का पाठ कैसे कर सकते थे? यदि कर सकते थे तो उन्हें संस्कृत का ज्ञान होना आवश्यक था। अतः यह सिद्ध है कि करपात्री जी का मत शूद्रों द्वारा मंत्रोच्चारण की परंपरा और विभिन्न धर्मनिबंधों के निर्णय के विपरीत है।

 

 

6.
रामायण का अधिकार

वाल्मीकीय-रामायण के प्रथम अध्याय को मूल-रामायण अथवा संक्षिप्त-रामायण कहते हैं। इस अध्याय के अंत में निम्नलिखित फलश्रुति प्राप्त होती है-

पठन् द्विजो वागृषभत्वमीयात् स्यात् क्षत्रियो भूमिपतित्वमीयात्।
वणिग्जनः पण्यफलत्वमीयाज्जनश्च शूद्रोऽपि महत्त्वमीयात्॥[48]

इस फलश्रुति में चारों वर्णों के लोगों के लिए रामायण-पाठ का फल वर्णित है-

१. ब्राह्मण- वाणी में श्रेष्ठता

२. क्षत्रिय- भूमि का राज्य

३. वैश्य- वाणिज्य में लाभ

४. शूद्र- महत्त्व अथवा ऐहिक और पारलौकिक प्रतिष्ठा

यदि “पठन्” को प्रत्येक वर्ण का विशेषण माना जाए, तब उपर्युक्त श्लोक से शूद्र द्वारा रामायण पाठ का स्पष्ट विधान प्राप्त होता है। यह पाठ वाचिक अथवा मानस हो सकता है। यदि वाचिक पाठ होता है तो “नोच्चरेत् संस्कृतां गिरम्” के कल्पित नियम का स्वतः खंडन हो जाता है। किंतु यदि मानस पाठ होता है, तब भी वाल्मीकीय-रामायण को पढ़ने के लिए संस्कृत का ज्ञान आवश्यक है। संस्कृत का ज्ञान प्राप्त करने के लिए इस भाषा को श्रवण, मनन और उच्चारण-पूर्वक सीखना अपेक्षित है। शूद्रों द्वारा संस्कृत सीखने के क्रम में संस्कृत शब्दों के उच्चारण से भी “नोच्चरेत् संस्कृतां गिरम्” का खंडन हो जाता है।

यहाँ पूर्वपक्षी यह प्रत्याक्षेप कर सकते हैं कि उपर्युक्त श्लोक में “पठन्” शब्द त्रैवर्णिकों के लिए है। शूद्र के लिए केवल श्रवण का विधान है। तदनुरूप इस श्लोक पर नागेश भट्ट की टीका में शूद्र के लिए “शृण्वन्” (“सुनता हुआ”) का अध्याहार किया गया है।[49] किंतु यदि पूर्वपक्षी का यह तर्क मान भी लिया जाए, तब भी संस्कृत में निबद्ध वाल्मीकीय-रामायण का श्रवण अभिहित है, उसके अनुवाद अथवा किसी अन्य लौकिक रामायण का नहीं।

क्या पूर्वपक्षी यह मानने के लिए प्रस्तुत हैं कि शूद्र संस्कृत से अनभिज्ञ रहकर ही वाल्मीकीय-रामायण का श्रवण करे? यदि हाँ, तब वह वाल्मीकीय-रामायण के तात्पर्य से सर्वथा अनभिज्ञ रहेगा। यदि नहीं, तब शूद्र के लिए संस्कृत-शिक्षा आवश्यक हो जाएगी। क्या पूर्वपक्षी उच्चारण के बिना ही शूद्रों को संस्कृत सिखाने के पक्षधर हैं? अंततः दोनों ही अवस्थाओं में पूर्वपक्षी की हास्यपात्रता चिंतनीय है।

किंतु सत्य तो यह है कि उपर्युक्त श्लोक के लगभग सभी टीकाकारों ने शूद्र के लिए वाल्मीकीय-रामायण के पाठ को स्वीकार किया है। अमृतकतक-टीकाकार माधव योगी ने शूद्र के श्रवणाधिकार-मात्र का कोई उल्लेख नहीं किया है, अपितु “पठन्” को शूद्र का विशेषण भी माना है।[50] महेश्वर-तीर्थ ने भी शूद्र के लिए “पठन्” शब्द का स्पष्ट प्रयोग किया है।[51]

आचार्य गोविंदराज की टीका समन्वयात्मक है। प्रथम विकल्प में वे शूद्र द्वारा रामायण-पाठ को स्वीकार करते हैं।[52] दूसरे विकल्प में वे कहते हैं कि यद्यपि स्मृति-ग्रंथों द्वारा शूद्रों को इतिहास-पुराण में केवल श्रवणाधिकार प्राप्त है, तथापि आर्षवचन के प्रमाण से शूद्रों को संक्षिप्त-रामायण के पाठ में अधिकार है।[53] संक्षिप्त-रामायण स्वयं ७९-१०० श्लोकों का एक लघु संस्कृत ग्रंथ है, जिसके सम्यक् अवबोध के लिए विभिन्न विद्यास्थानों (जैसे व्याकरण, निरुक्त, छंद, न्याय, काव्यशास्त्र आदि) का ज्ञान अपेक्षित है। अतः संक्षिप्त-रामायण के सुधी पाठकों के लिए केवल संस्कृत शब्दों के उच्चारण का अधिकार ही नहीं, संस्कृत में निबद्ध शास्त्रों का ज्ञान अपेक्षित है।

यदि तीसरे विकल्प में (संक्षिप्त-रामायण सहित) समस्त इतिहास-पुराणों के पाठ में शूद्र का अनधिकार मान लिया जाए तो भी अर्थग्रहणपूर्वक श्रवण पर उसका अधिकार सिद्ध है। इस अवस्था में भी संस्कृत ज्ञान और उसके अंगभूत संस्कृत शब्दों के उच्चारण में शूद्र का अधिकार सिद्ध होता है। अतः वाल्मीकीय-रामायण के प्रमाण से पूर्वपक्षी के मत का खंडन हो जाता है।

 

 

7.
पुराणों का अधिकार

अब रामायण के आगे सभी इतिहास-पुराणों के अध्ययन, पठन और श्रवण पर शूद्रों के अधिकार पर विचार करते हैं। धर्मशास्त्रों में “अध्ययन” एक पारिभाषिक शब्द है। जहाँ शास्त्र की पुस्तक को स्वयं पढ़ना “पठन” कहलाता है, वहीं अध्ययन का अर्थ गुरु के मुख से शास्त्र के उच्चारण को सुनकर उनके पीछे उच्चारण करना है। यह शास्त्रोपदेश की एक विशिष्ट विधि है। यद्यपि अध्ययन किसी भी शास्त्र का हो सकता है, तथापि प्रायः यहाँ “शास्त्र” का अभिप्राय वेद है। अतः “वेदाध्ययन” को “अध्ययन” भी कहते हैं, ब्राह्मणों के षट्कर्म में वर्णित “अध्ययन” का अर्थ “वेदाध्ययन” ही है।[54]

“अध्ययन” और “पठन” के अतिरिक्त शास्त्र का ज्ञान प्राप्त करने की एक अन्य विधि “श्रवण” है। इसमें केवल गुरु द्वारा उपदिष्ट शास्त्र को सुना जाता है। किंतु श्रवण का अर्थ केवल सुनना नहीं है, अपितु यह तत्त्वज्ञान तक ले जानेवाला सोपान है। इसके लिए श्रवण के साथ-साथ अर्थ का ग्रहण, धारण, तर्क-वितर्क और अर्थ का विज्ञान भी आवश्यक है।[55]

इतिहास-पुराण के श्रवण का फल पुरुषार्थ-चतुष्टय का ज्ञान है।[56] ब्रह्मसूत्र के अपशूद्राधिकरण में आचार्य शंकर लिखते हैं कि इतिहास-पुराण के ज्ञान में चारों वर्णों का अधिकार है।[57] इतिहास-पुराणों के श्रवण के द्वारा शूद्रों को ज्ञान-रूपी प्रत्यक्ष फल प्राप्त होता है।[58] इस ज्ञान के लिए श्रवण के साथ शास्त्र-वाक्यों के अर्थ का ग्रहण भी अपेक्षित है। अर्थ-ग्रहण के बिना श्रवण निष्फल है और अर्थ-ग्रहण भाषा के ज्ञान के बिना नहीं हो सकता है।  दक्षस्मृति में विप्र के द्वारा स्मृति के अध्ययन और “अधम” के द्वारा उसके पठन और श्रवण का फल बताया गया है।[59] इससे “अध्ययन”, “पठन” और “श्रवण” के अधिकार में अंतर स्पष्ट हो जाता है – दक्षस्मृति के अध्ययन का अधिकार विप्र को है, जबकि इसके श्रवण और पठन का अधिकार अवर जाति के लोगों को भी है। यदि कोई शास्त्र के अध्ययन में अनधिकृत है तो इसका यह तात्पर्य नहीं है कि वह उसके पठन और श्रवण में भी अनधिकृत होगा। अध्ययन, पठन, और श्रवण के अधिकार का अलग-अलग निर्णय किया जाता है।

सामान्यतः माना जाता है कि शूद्रों को वेदों के अध्ययन का अधिकार नहीं है। वेदाध्ययन के अंतर्गत विभिन्न नियमों का पालन करते हुए गुरुमुख से बार-बार सुनकर वेदों को कंठस्थ किया जाता है। साथ में मंत्रों के तात्पर्य का उपदेश भी दिया जाता है। इसके लिए उपनयन आवश्यक है। किंतु क्या शूद्रों को वेदों की ध्वनि के श्रवण और लिखित पुस्तक के पठन का भी अधिकार नहीं है? कम-से-कम कुछ आचार्यों का मानना है कि शूद्रों को वेदों के श्रवण से दोष नहीं लगता है। विष्णुस्मृति (५.२३-२५) की टीका में नंदपंडित लिखते हैं कि गौतम-धर्मसूत्र में शूद्र द्वारा वेद-श्रवण का निषेध केवल दर्पपूर्वक श्रवण के लिए है। यदि शूद्र ब्राह्मण को मध्य में रखकर वेद का श्रवण करे तो उसमें दोष नहीं है।[60]

आचार्य शंकर भी स्वीकार करते हैं कि “लौकिक” मार्ग से भी शूद्र वेदों की विद्या प्राप्त कर सकते हैं, किंतु शास्त्र के अध्ययन में शास्त्रीय मार्ग ही अपेक्षित है।[61] आनंदगिरि और वाचस्पति मिश्र के अनुसार लिखित पुस्तकों का पठन ही लौकिक मार्ग है। इससे वेदों का ज्ञान तो प्राप्त हो सकता है, किंतु उपनयन-पूर्वक वेदाध्ययन का फल नहीं प्राप्त हो सकता।[62] इन सभी उल्लेखों से सिद्ध होता है कि आचार्य शंकर के काल में ही ऐसे शूद्र विद्यमान थे जो संस्कृत भाषा का ज्ञान रखते थे।

विभिन्न पुराण और इतिहास ग्रंथों की फलश्रुति में जहाँ-जहाँ शूद्रों के द्वारा प्राप्य फल का वर्णन है, वहाँ-वहाँ टीकाकारों ने उनके द्वारा अध्ययन का निषेध किया है। विष्णुसहस्रनाम की फलश्रुति में कहा गया है – “जो भी इस स्तोत्र को नित्य सुनता है अथवा इसका कीर्तन करता है, वह इस लोक अथवा परलोक में अशुभ गति को नहीं प्राप्त होता है। ब्राह्मण वेद का पारगामी विद्वान् होता है, क्षत्रिय विजयी होता, वैश्य धन से संपन्न होता है और शूद्र सुख पाता है।”[63] यहाँ आचार्य शंकर के अनुसार त्रैवर्णिकों को विष्णुसहस्रनाम के कीर्तन और शूद्रों को श्रवण का अधिकार है।[64] कीर्तन का अर्थ उच्च (वाचिक), उपांशु, अथवा मानस विधि से किया गया जप है। यह जप यज्ञात्मक है और यज्ञ में अधिकृत नहीं होने के कारण इस जप में भी शूद्र अधिकृत नहीं है।[65] किंतु क्या विष्णुसहस्रनाम के पाठ में शूद्र अधिकृत हैं? इस पर मतभेद है। शांकर-भाष्य के विवृतिकार के अनुसार स्त्रियों और शूद्रों को इस स्तोत्र के पाठ का अधिकार नहीं है।[66] किंतु परंपरा में यह एकाकी मत नहीं है। विप्रमिश्र के अनुसार आदि शंकराचार्य का यह कथन कि शूद्रों को विष्णुसहस्रनाम के श्रवण का ही अधिकार है, केवल ब्रह्मयज्ञ के प्रसंग में है, न कि काम्य और प्रायश्चित्त आदि प्रयोगों में। ऐसे प्रसंगों में शूद्र विष्णुसहस्रनाम का पाठ कर सकते हैं।[67]

भागवत-पुराण की फलश्रुति की टीकाओं में भी प्रायः शूद्रों के लिए पुराण के श्रवण का अधिकार विहित है।[68] भविष्यपुराण की फलश्रुति में चारों वर्णों के लिए श्रवण, और केवल त्रैवर्णिकों के लिए अध्ययन का विधान किया गया है।[69] किंतु आचार्य अप्पय दीक्षित शूद्रों को इतिहास-पुराण के पठन में भी अधिकृत मानते हैं। उनके अनुसार श्रवण के बिना केवल लिखित पुस्तक पढ़ने से तत्त्व का बोध नहीं हो सकता। अतः पठन से पूर्व इन शास्त्रों का विधिवत् श्रवण करना चाहिए।[70]

इस प्रकार हम देख सकते हैं कि विभिन्न आचार्यों के मत में शूद्रों को इतिहास-पुराण के अर्थग्रहण-पूर्वक श्रवण का अधिकार है। कुछ के मत में उन्हें श्रवण के पश्चात् पठन का भी अधिकार है। चाहे श्रवण हो अथवा पठन, इस अधिकार में संस्कृत शिक्षण और संभाषण का अधिकार भी निहित है।

 

 

8.
आयुर्वेद का अधिकार

शूद्रों को आयुर्वेद पढ़ने का अधिकार है। धन्वंतरि द्वारा प्रणीत आयुर्वेद शास्त्र अष्टादश विद्याओं में अनन्य स्थान रखता है। यह अथर्ववेद का उपवेद है।[71] आयुर्वेद के सभी प्रधान प्राचीन ग्रंथ संस्कृत में निबद्ध हैं, जिनमें चरक-संहिता और सुश्रुत-संहिता प्रसिद्ध हैं। इन ग्रंथों ने स्वयं अपने अध्ययन के अधिकार का निर्णय किया है।

काश्यपसंहिता के अनुसार शूद्र समेत चारों वर्णों के द्वारा आयुर्वेद अध्येय है।[72] सुश्रुत-संहिता में प्रदत्त एक मत के अनुसार कुल और गुण से संपन्न, (गायत्री) मंत्र से रहित, और अनुपनीत शूद्र को भी आयुर्वेद का उपदेश करना चाहिए।[73] १२ वीं शताब्दी के डल्हणाचार्य की टीका में शूद्रों की अर्हत्ता पर प्रकाश डाला गया है-

१. कुलसंपन्न- आयुर्वेद के अध्येताओं के कुल में उत्पन्न

२. गुणसंपन्न- अवस्था, शौच आदि शिष्योचित गुणों से संपन्न

३. अनुपनीत- दीक्षारहित[74]

इन अर्हत्ताओं से यह ज्ञात होता है कि अनेक शूद्र परिवार परंपरा से आयुर्वेद का अध्ययन करते थे। डल्हणाचार्य सुश्रुत-वाक्य का एक पाठभेद भी स्वीकार करते हैं- “गुण से संपन्न और (गायत्री) मंत्र से रहित शूद्र का भी उपनयन कर उसे आयुर्वेद का उपदेश करना चाहिए- यह किसी का मत है”।[75] यदि यह पाठभेद स्वीकार कर लिया जाए तो शूद्र का (वैदिकेतर विधि से) उपनयन-पूर्वक आयुर्वेद-अध्ययन का विधान मान्य हो जाएगा।

११ वीं शताब्दी में चक्रपाणिदत्त नामक एक अन्य टीकाकार ने भी शूद्रों द्वारा आयुर्वेद के अध्ययन का समर्थन किया है। जो व्याख्याकार “स चाध्येतव्यो ब्राह्मणराजन्यवैश्यैः” (चरक-संहिता ३०.२९) और “वेदोपवेदत्वान्न कथञ्चिच्छूद्रैरध्येतव्यम्” (भालुकि) आदि वाक्यों से केवल त्रैवर्णिकों का आयुर्वेद में अधिकार मानते हैं, उनका खंडन करते हुए चक्रपाणिदत्त ने सच्छूद्र के अधिकार के पक्ष में चार तर्क दिए-

१. वैश्य के लिए प्राप्त विधि के अतिदेश से सच्छूद्र को आयुर्वेदाध्ययन का अधिकार प्राप्त होता है।

२. “नमस्कारेण मन्त्रेण पञ्च यज्ञान् न हापयेत्” (याज्ञवल्क्य-स्मृति १.१२१) के अनुसार सच्छूद्र को केवल नमस्कार के द्वारा पंचयज्ञों को संपादित करने का अधिकार है।

३. सच्छूद्रों को शिष्ट जनों की परंपरा से आयुर्वेद के अध्ययन में अधिकार है।

४. चक्रपाणिदत्त का चतुर्थ तर्क इस न्याय पर आधारित है कि यदि किसी व्यापक वर्ग का कोई एक उपवर्ग विशेष रूप से निषिद्ध किया गया हो, और अन्य उपवर्गों के लिए कोई निषेध न हो, तो उन्हें अनुमत माना जाता है। हारीत के अनुसार म्लेच्छों को आयुर्वेद के अध्ययन का अधिकार नहीं है। यदि शूद्र-मात्र को अनधिकारी मानना हारीत का उद्देश्य होता, तो केवल म्लेच्छों के लिए पृथक् निषेध का विधान करने की आवश्यकता नहीं थी। म्लेच्छों के निषेध से म्लेच्छेतर शूद्रों का अधिकार अप्रत्यक्ष रूप से स्वीकार किया गया है।

अतः विभिन्न आचार्यों के अनुसार आयुर्वेद की परंपरा में शूद्रों को अध्ययन का अधिकार था। यह अध्ययन संस्कृत संभाषण के बिना संभव नहीं होता। आयुर्वेदज्ञ शूद्रों के अनेक दृष्टांत भी प्रसिद्ध रहे हैं।[76] इस प्रकार आयुर्वेद शास्त्र के वचनों और व्यावहारिक दृष्टांतों से भी करपात्री जी के मत का खंडन हो जाता है।

 

 

9.
व्याकरण का अधिकार

यदि शूद्रों को संस्कृत व्याकरण पढ़ने का अधिकार है तो उनका संस्कृत बोलने का अधिकार स्वतः सिद्ध है। करपात्री जी के खंडनार्थ हम सिद्ध करेंगे कि धर्मशास्त्रों के अनुसार शूद्र व्याकरण के अध्ययन के अधिकार से संपन्न हैं।

व्याकरण एक वेदांग है। इसे वेदपुरुष का मुख कहा गया है।[77] वेदों का अर्थ समझने के लिए और सामान्य व्यवहार के लिए भी व्याकरण समेत अन्य वेदांगों का ज्ञान आवश्यक है। फिर वेदांग के अध्ययन का अधिकारी कौन है? यहाँ पहला मत यह है कि वेदांग के अध्ययन में वही अधिकृत है जो वेदाध्ययन में अधिकृत है। दूसरा मत यह है कि प्रत्येक वेदांग अपने अधिकारी का निर्णय स्वयं करता है। यदि प्रथम मत को स्वीकार किया जाए तो शूद्रों को संस्कृत व्याकरण के अध्ययन का अधिकार नहीं है।

करपात्री जी के अतिरिक्त प्रथम मत के एकमात्र समर्थक याज्ञवल्क्य-स्मृति की मिताक्षरा टीका के व्याख्याकार बालंभट्ट हैं। ये १९ वीं शताब्दी के विद्वान् थे और मेरे संज्ञान में करपात्री जी से पूर्व शूद्रों के संस्कृताधिकार का निषेध केवल इन्होंने किया था। याज्ञवल्क्य-स्मृति (१.१२१) पर बालंभट्ट लिखते हैं कि स्त्रियों और शूद्रों को अपशब्द अथवा म्लेच्छ-भाषा के शब्द के उच्चारण से दोष नहीं लगता है। यहाँ तक कि यज्ञकर्म के अतिरिक्त अपशब्द-भाषण में कोई दोष नहीं है। ध्यातव्य है कि बालंभट्ट ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन काल में लिख रहे हैं। इस समय अनेक उच्चवर्गीय परिवार फ़ारसी तो क्या अंग्रेज़ी सीखने में भी रुचि ले रहे थे। अतः म्लेच्छ-भाषा का सर्वत्र निषेध करना बालंभट्ट को अभीष्ट नहीं था।

बालंभट्ट के अनुसार यज्ञ में अधिकृत नहीं होने के कारण शूद्रों से शुद्ध भाषण कभी अपेक्षित नहीं है। अत एव स्कंदपुराण के वाक्य “न वदेत् संस्कृतां गिरम्”[78] से शूद्रों के लिए संस्कृत व्याकरण के अध्ययन का निषेध है।[79]

पिछले भागों में हम देख चुके हैं कि बालंभट्ट का तर्क उचित नहीं है। अपशब्द-भाषण का निषेध सभी शिष्टों के लिए है। केवल यज्ञकर्म में ही अपशब्द भाषण से दोष होता है- यह कहना भी उचित नहीं है। पंचमहायज्ञ समेत अनेक याज्ञिक अनुष्ठानों में शूद्र अधिकृत हैं, जिनमें उनसे संस्कृत मंत्रों का उच्चारण भी अपेक्षित है। इसके अतिरिक्त इतिहास-पुराणों के श्रवण और उसके माध्यम से पारमार्थिक ज्ञान की प्राप्ति के लिए भी संस्कृत का ज्ञान आवश्यक है। स्कंदपुराण का निषेध केवल सोमनाथ तीर्थ की यात्रा के प्रकरण में है, सार्वत्रिक नहीं।

मनुस्मृति के प्राचीनतर टीकाकार मेधातिथि भी बालंभट्ट के मत से सहमत नहीं हैं। वे उपनयन से पूर्व शिक्षा और व्याकरण जैसे वेदांगों का अध्ययन निषिद्ध नहीं मानते हैं यदि वे वेद-वाक्यों से मिश्रित नहीं हों।[80] अतः शूद्र को भी वेद वाक्यों से भिन्न ऐतिहासिक अथवा लौकिक संस्कृत के अध्ययन का अधिकार है। मनुस्मृति (८.२७२) की टीका में तो मेधातिथि ऐसे व्याकरण-निपुण शूद्रों की संस्कृत-वाणी का उदाहरण भी देते हैं, जो कभी-कभी ब्राह्मणों को भी विधि-निषेध का बोध करा देते थे।[81]

शूद्राचारशिरोमणि के प्रणेता शेषकृष्ण भी मेधातिथि के मत का समर्थन करते हैं। उनके अनुसार शूद्र को वैदिक व्याकरण का अध्ययन नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह व्याकरण वैदिक शब्दों की सिद्धि में ही प्रयुक्त होता है।[82] वैदिक भाषा से इतर लौकिक संस्कृत के व्याकरण का अध्ययन करना निषिद्ध नहीं है।[83]

यहाँ शेषकृष्ण के तर्क का विरोध करते हुए बालंभट्ट कहते हैं कि स्कंदपुराण के “नोच्चरेत् प्रणवं मन्त्रम्” और “न पठेद् वेदवचनम्” – इन पृथक् निषेधों से वैदिक व्याकरण का निषेध पहले ही हो चुका है। इसलिए “न वदेत् संस्कृतां गिरम्” के अतिरिक्त आदेश से लौकिक संस्कृत के व्याकरण का निषेध समझना चाहिए।[84]

किंतु बालंभट्ट का तर्क समीचीन नहीं है। यदि इन तीर्थ-विशेष के नियमों को सार्वत्रिक भी मान लें, तब भी “नोच्चरेत् प्रणवं मन्त्रम्” और “न पठेद् वेदवचनम्” से प्रणव और वेदमंत्रों के पाठ का निषेध ही प्राप्त होता है, वैदिक भाषा में संभाषण का नहीं। वेदमंत्रों के उच्चारण के अतिरिक्त भी वैदिक भाषा में संभाषण किया जा सकता है। इस स्थिति में “न वदेत् संस्कृतां गिरम्” में अभिहित “संस्कृत वाणी” को उदात्त आदि स्वरों से युक्त वैदिक भाषा ही समझना चाहिए। जैसा कि हम भाग ९ में देख चुके हैं, यह अर्थ “संस्कृत” शब्द की एक परंपरानुकूल परिभाषा के अनुरूप है।

यहाँ विचारणीय है कि शेषकृष्ण वैदिक अथवा आर्ष व्याकरण के अंतर्गत पाणिनीय व्याकरण की भी गणना करते हैं। अतः शूद्र विकल्प से पाणिनीय व्याकरण के छांदस भाषा संबंधी विशिष्ट सूत्रों के अतिरिक्त सभी सूत्रों का और पाणिनि से इतर चंद्रगोमी और हेमचंद्र आदि के संस्कृत व्याकरण का अध्ययन कर सकते हैं। छंद और ज्योतिष जैसे वेदांगों के लिए भी यही विधि-निषेध समझना चाहिए- शूद्रों को लौकिक छंद और ज्योतिष शास्त्र के अध्ययन का अधिकार है।

यदि व्याकरण के अधिकार पर वैयाकरणों के ही मत का अनुशीलन करें तो हम वर्ण और जाति का कोई बंधन नहीं पाते हैं। वैयाकरणों के अनुसार शब्दों का जिज्ञासु ही व्याकरण पढ़ने का अधिकारी है।[85] यह जिज्ञासा किसी में भी हो सकती है। अतः ब्रिटिश दासता के युग के टीकाकार बालंभट्ट का मत ही स्वतंत्र भारत के करपात्री जी का मत है। परंपरा में दोनों का मत अल्पमत है।

 

 

१०.
न्यायशास्त्र का अधिकार

अनेक विद्वानों के अनुसार शूद्रों को न्यायशास्त्र के अध्ययन का अधिकार है। न्यायशास्त्र के सभी प्रमुख ग्रंथ संस्कृत भाषा में निबद्ध हैं। अतः करपात्री जी के मत के विपरीत शूद्रों को इन ग्रंथों में प्रयुक्त संस्कृत शब्दों के उच्चारण का भी अधिकार है।

न्यायशास्त्र का मुख्य प्रयोजन मोक्ष है। इसका गौण प्रयोजन है पदार्थों का सम्यक् ज्ञान। अतः प्रायः सभी विद्वानों ने मुमुक्षु और जिज्ञासु को न्यायशास्त्र के अध्ययन का अधिकारी बताया है। डॉ॰ सत्यन् शर्मा ने अपने लेख में न्यायशास्त्र के आठ आचार्यों (भासर्वज्ञ, उदयन, चिन्नंभट्ट, मल्लिनाथ, यादवाचार्य, दिनकरभट्ट, गोवर्धनमिश्र, और गंगासहाय) के उद्धरणों से सिद्ध किया है कि इस शास्त्र के अध्ययन में वर्ण अथवा जाति का कोई बंधन नहीं है।[86]

उदयनाचार्य और उनके कुछ परवर्ती नैयायिक ने शूद्रों के अध्ययन के अधिकार का निषेध किया है। किंतु उदयन के पूर्व सूत्रकार गौतम, भाष्यकार वात्स्यायन, वार्त्तिककार उद्द्योत, और न्यायवार्त्तिकतात्पर्यटीका के प्रणेता वाचस्पति मिश्र प्रथम ने शूद्रों के अधिकार पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया है।

न्यायवार्त्तिक के प्रथम श्लोक में आया “जगतो शमाय” (“संसार की शांति के लिए”) इसका संकेत करता है कि न्यायशास्त्र में सभी अधिकृत हैं-

यदक्षपादः प्रवरो मुनीनां शमाय शास्त्रं जगतो जगाद ।
कुतार्किकज्ञाननिरासहेतुः करिष्यते तस्य मया प्रबन्धः ॥

किंतु वाचस्पति मिश्र प्रथम ने संपूर्ण संसार में कुछ लोगों को न्यायशास्त्र में अनधिकृत माना है। किन्हें? यह अविवक्षित है, किंतु इतना कहा गया है कि करुणा से द्रवित हुए महर्षि गौतम के द्वारा अनधिकारियों के साथ समस्त संसार को दुःख के सागर से उबारने के लिए दिए गए इस शास्त्रोपदेश में दोष नहीं है।[87]

शूद्रों के अधिकार का प्रथमतः निषेध करते हुए उदयन तर्क देते हैं कि वेदों से अविरुद्ध अनुमान ही न्यायशास्त्र में प्रमाण होता है। अतएव न्याय के अध्ययन के लिए वेदों का ज्ञान आवश्यक है। यद्यपि महर्षि गौतम ने करुणा के वशीभूत होकर इस शास्त्र का उपदेश शूद्र आदि अनधिकारियों को भी किया था। किंतु उनके तपोबल के कारण ऐसा करने का दोष उन्हें प्रभावित नहीं कर सका। किंतु परवर्ती नैयायिकों को महर्षि गौतम की परिपाटी का अनुसरण नहीं करना चाहिए।[88]

आगे चलकर उदयन की टीका के आधार पर वाचस्पति मिश्र द्वितीय केवल ब्राह्मण को ही न्यायशास्त्र का अधिकारी मानते हैं।[89] किंतु अनेक कारणों से उदयन और वाचस्पति मिश्र द्वितीय का मत सर्वमान्य नहीं है। सर्वप्रथम तो इतिहास-पुराणों में कई ब्राह्मणेतरों को न्यायशास्त्र का ज्ञाता बताया गया है, जिनके उदाहरण से “केवल ब्राह्मण ही इस शास्त्र में अधिकृत हैं” – इस वाक्य का स्वतः खंडन हो जाता है।

ध्यातव्य है कि पूर्व और उत्तर मीमांसा के अतिरिक्त अन्य चार आस्तिक दर्शनों में शूद्रानधिकाराधिकरण अथवा अपशूद्राधिकरण नहीं है। जब न्याय-दर्शन के सूत्रकार ने शूद्रों के अधिकार का निषेध नहीं किया है, प्रत्युत उन्हें इस शास्त्र का उपदेश किया है, तब क्या कोई परवर्ती नैयायिक शूद्रों के अधिकार का निराकरण कर सकता है? यदि उदयन और वाचस्पति मिश्र द्वितीय का यह तर्क स्वीकार कर लिया जाए कि तपोबल के कारण गौतम मुनि अनधिकारी को उपदेश करने के दोष से अस्पृष्ट रहे[90] तो फिर उन्होंने अपने शिष्यों को ऐसा करने से क्यों नहीं रोका? क्या किसी अपशूद्राधिकरण के अभाव में गौतम मुनि के अनुयायी उनके आचरण का अनुकरण नहीं कर बैठते?

यदि यह माना जाए कि वेदाविरुद्ध अनुमान के ज्ञान के लिए वेदाध्ययन आवश्यक है, तब यह भी स्वीकार करना होगा कि वेदाविरुद्ध आचरण के ज्ञान के लिए वेदाध्ययन आवश्यक है। तब वेदाध्ययन के अभाव में कोई स्वधर्म-पालन भी नहीं कर सकेगा क्योंकि ऐसा करने से पूर्व वेदाध्ययन करना आवश्यक होगा। इतिहास-पुराण से भी वेदार्थ का सम्यक् ज्ञान प्राप्त नहीं होगा क्योंकि वेदाविरुद्ध ज्ञान का निश्चय करने के लिए पहले वेदाध्ययन करना आवश्यक होगा। इसी प्रकार आप्त-वचन और शिष्टाचार का भी अनुसरण नहीं किया जा सकेगा। अतः उदयन और वाचस्पति मिश्र द्वितीय के मत में वेदों के अपरोक्ष अध्ययन के बिना किसी भी वेदाविरुद्ध तत्त्व का निर्णय करना असंभव हो जाएगा। सत्य तो यह है कि मीमांसा के विपरीत न्याय एक विचारशास्त्र नहीं है, क्योंकि यह वेदवाक्यों के अर्थ का निर्णय नहीं करता है। इसलिए न्यायशास्त्र के अध्ययन के लिए वेदों का अपरोक्ष अध्ययन करना आवश्यक नहीं है।

उपर्युक्त दोषों के कारण यह मत परंपरा में सर्वमान्य नहीं रहा है। एक अन्य नैयायिक यादवाचार्य ने उनके मत का खंडन किया है। न्यायसिद्धांतमंजरी की टीका में यादवाचार्य लिखते हैं कि महर्षि गौतम द्वारा संपूर्ण संसार को उद्देश्य बनाकर उसके अंगभूत शूद्रों को न्यायशास्त्र का उपदेश करने में कोई दोष नहीं है। कारण यह है कि शूद्र द्वारा उपलक्षित आत्मा के ब्राह्मण-शरीर धारण करने की दशा में उसकी उद्देश्यता होगी। इसी प्रकार कीट-पतंगों में भी उद्देश्यता है। यदि अध्यापन का उद्देश्य ब्राह्मण द्वारा उपलक्षित आत्मा है तो उसका उद्देश्य शूद्र द्वारा उपलक्षित आत्मा भी है। अतः न्याय-दर्शन के प्रणेता द्वारा सभी को इस शास्त्र का उपदेश करना दोषरहित है।[91]

इस प्रकार हम देख सकते हैं कि मेधातिथि और कुल्लूकभट्ट जैसे धर्मशास्त्र के टीकाकारों के मत के अनुरूप ही न्यायशास्त्र की अपनी परंपरा में शूद्रों को इस शास्त्र के अध्ययन वंचित नहीं किया गया। शूद्रों के इस अधिकार के कारण भी उनका संस्कृताधिकार सिद्ध होता है और करपात्री जी के मत का खंडन हो जाता है।

 

 

११.
पारमार्थिक ज्ञान के लिए संस्कृत

संस्कृत ज्ञान के व्यावहारिक पक्ष के आगे इसका एक पारमार्थिक पक्ष भी है, जिस पर प्रकाश डालना आवश्यक है। वेदों से लेकर इतिहास-पुराणों तक एक ऐसी दिव्य और कल्याणमयी वाणी का वर्णन प्राप्त होता है, जिसका विधान परमेश्वर ने मानवमात्र के लिए किया है। उदाहरणार्थ शुक्ल-यजुर्वेद (२६.२) के एक मंत्र में कहा गया है – “मैं यह कल्याणमयी वाणी लोगों के लिए कहूँगा- ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र, आर्य, अपने, और पराए के लिए।”[92] यह वाणी क्या है? उवट और महीधर के भाष्य के अनुसार यह दानकर्ता द्वारा दान देते समय “दिया जाए, भोजन किया जाए” का शब्द है।[93] किंतु यह तो रही मंत्र की यज्ञपरक व्याख्या। क्या इस मंत्र की कोई अन्य व्याख्या भी संभव है?

इतिहास और पुराणों के द्वारा वेद का उपबृंहण किया जाता है।[94] महाभारत में महर्षि भृगु और भरद्वाज का एक संवाद मिलता है, जिसके अंतर्गत महर्षि भृगु कहते हैं – “ये चार वर्ण, जिनके लिए पूर्वकाल में ब्रह्मा द्वारा ब्राह्मी सरस्वती का विधान किया गया था, लोभवश अज्ञानता को प्राप्त हो गए हैं।”[95]

महाभारत के श्लोक से ज्ञात होता है कि विधाता ने चारों वर्णों के लिए “ब्राह्मी” नामक एक विशेष प्रकार की वाणी का विधान किया था। यह “ब्राह्मी” वाणी क्या है? नीलकंठ के अनुसार यह “वेदमयी” वाणी है। इस अध्याय के अगले श्लोक में पुनः “ब्रह्म” शब्द आया है, जिसका अर्थ भी नीलकंठ ने “वेद” ही किया है।[96] महाभारत में अन्यत्र भी किसी गुरु के द्वारा शिष्य को “ब्राह्मी सरस्वती” का उपदेश देने का उल्लेख मिलता है-

यो ब्रूयाच्चापि शिष्याय धर्म्यां ब्राह्मीं सरस्वतीम् ।
पृथिवीगोप्रदानाभ्यां स तुल्यं फलमश्नुते ॥[97]

उपर्युक्त श्लोक का उद्धरण विविध धर्मनिबंधों में दिया गया है। संस्काररत्नमाला (१.७) में भट्ट गोपीनाथ दीक्षित इस श्लोक का उद्धरण देकर “ब्राह्मी सरस्वती”का अर्थ “वेदविद्या”करते हैं। कृत्यकल्पतरु के दानकाण्ड (विद्या-दान) में भट्ट लक्ष्मीधर ने “ब्राह्मी”का अर्थ “वेदार्थानुगा”किया है। इन सभी व्याख्याओं से स्पष्ट है कि “ब्राह्मी सरस्वती”का अर्थ “वेदों की वाणी”अथवा “वेदानुगामी शास्त्रों की वाणी”है। महाभारत (५.४४.१) में ऋषि सनत्सुजात के उपदेश को भी “ब्राह्मी वाक्” कहा गया है, जिसका शांकर-भाष्य के अनुसार अर्थ “ब्रह्मसम्बन्धिनी वाणी” है।

यह वाणी शूद्रों के लिए भी उपलब्ध है। यदि शूद्र के लिए वेदाध्ययन का निषेध मानें, तब भी पुराणों और अन्य शास्त्रों के द्वारा उसके लिए यह ब्राह्मी वाणी सुलभ है। धर्मशास्त्रों के अनुसार यह “ब्राह्मी वाणी” (वैदिक अथवा पौराणिक) संस्कृत में ही निबद्ध हो सकती है। कारण यह कि इस वाणी का प्रयोजन ज्ञान-दान है। चाहे अंत्यज हो अथवा ब्राह्मण, ज्ञान-रूपी नौका के बिना संसार-सागर को पार नहीं किया जा सकता है।[98] इस ज्ञानयज्ञ में “अपशब्द” बाधक है। “अपशब्द” अर्थात् “असंस्कृत शब्द” के प्रयोग से ज्ञान की उत्पत्ति नहीं हो सकती।[99]

यह “अपशब्द” क्या है? महाभाष्य के अनुसार म्लेच्छ-भाषा “अपशब्द” है।[100] ऐसी भाषा असुर बोलते हैं और उसमें “हेलयो हेलयः” जैसे शब्द सुनाई पड़ते हैं। अनेक धर्मशास्त्रों में म्लेच्छ-भाषा बोलने का निषेध दीखता है। यद्यपि प्रायः यह निषेध ब्राह्मणों के लिए ही है,[101] तथापि कुछ शास्त्रों में सभी शिष्टों के लिए म्लेच्छ-भाषा का निषेध किया गया है।[102] म्लेच्छ शब्दों के अतिरिक्त संस्कृत व्याकरण के संस्कार से हीन शब्दों को “अपभ्रंश” कहते हैं।[103] ये भी अपशब्द कहलाते हैं, जो तत्त्व के असंदिग्ध बोध में बाधक हैं।

आज भारतीय और विदेशी भाषाओं के विशेषज्ञ भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि संस्कृत के अनेक पारिभाषिक शब्दों का अन्य भाषाओं में अनुवाद संभव नहीं है। अतः कुछ मूलभूत संस्कृत शब्दों को अन्य भाषाओं में यथावत् स्वीकार कर लिया गया है, जैसे “धर्म”, “योग” और “माया”। इस संदर्भ में संस्कृत भाषा के ज्ञान के बिना मोक्ष-मार्ग दुष्कर है और यह ज्ञान संस्कृत के व्यवहार के बिना नहीं आ सकता है। एतदर्थ ब्राह्मण हो अथवा शूद्र, प्रत्येक मुमुक्षु को संस्कृत सीखने और बोलने का अधिकार है। करपात्री जी द्वारा शूद्रों के संस्कृतोच्चारण का निषेध करना उन्हें पारमार्थिक ज्ञान से वंचित रखने के समान है।

 

 

१२.
स्वप्रमाण से स्वखंडन

अब हम करपात्री जी के शब्दों से करपात्री जी का खंडन करेंगे। करपात्री जी ने अपने चातुर्वर्ण्य-संस्कृति-विमर्श (खंड १, पृ॰ ३१५) में भविष्यपुराण के निम्नलिखित श्लोकों को उद्धृत कर उनकी संस्कृत-व्याख्या की है-

सरस्वत्याज्ञया कण्वो मिश्रदेशमुपाययौ ।
म्लेच्छान् संस्कृतमाभाष्य तदा दशसहस्रकान् ।
वशीकृत्य स्वयं प्राप्तो ब्रह्मावर्ते महोत्तमे ॥
ते सर्वे तपसा देवीं तुष्टुवुश्च सरस्वतीम् ।
पञ्चवर्षान्तरे देवी प्रादुर्भूता सरस्वती ।
सपत्नीकांश्च तान् म्लेच्छाञ्छूद्रवर्णाय चाकरोत् ॥[104]

अर्थात् “देवी सरस्वती की आज्ञा से महर्षि कण्व मिश्र-देश गए। वहाँ उन्होंने दस हज़ार म्लेच्छों से संस्कृत में संवाद किया और उन्हें वश में कर लिया। इसके बाद वे श्रेष्ठ ब्रह्मावर्त क्षेत्र में आ गए। वे सभी तपस्या द्वारा देवी सरस्वती की स्तुति करने लगे। पाँच वर्षों के अंत में देवी सरस्वती प्रकट हुईं। तब उन्होंने उन म्लेच्छों को उनकी पत्नियों सहित शूद्र वर्ण में (सम्मिलित) कर दिया।”

इस पौराणिक वृत्तांत पर करपात्री जी लिखते हैं-

“इस प्रकार पुराणवचनों से यह देखा जाता है कि यवनों (विदेशियों) के लिए भी संस्कृत का पाठन और आर्यत्व की प्राप्ति संभव थी। किन्तु ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योंकि यहाँ भाव का यथार्थ बोध नहीं हुआ है। वहाँ ‘मिश्र’ शब्द से जहाँ चातुर्वर्ण्य स्पष्ट रूप से स्थापित नहीं था, उसको भारत का ही कोई प्रदेश-विशेष समझना चाहिए। चुरादि-गण की ‘म्लेच्छ्’ धातु (पाणिनीय-धातुपाठ १०.१७०) अस्पष्ट भाषण के अर्थ में और भ्वादि गण की ‘म्लेच्छ्’ धातु (पाणिनीय-धातुपाठ १.२३३) अस्फुट और अपशब्द भाषण के अर्थ में है – इस रीति से अपशब्द-भाषण ही म्लेच्छत्व का प्रयोजन है।”[105]

उपर्युक्त पौराणिक वृत्तांत की करपात्र-प्रदत्त व्याख्या के अनुसार तीन बातें प्रकट होती हैं-

१. भारत के किसी प्रदेश में चारों वर्णों का सम्मिश्रण था। उस स्थान के निवासी म्लेच्छ थे।

२. ये म्लेच्छ पूर्व में संस्कृत-भाषण नहीं करते थे। महर्षि कण्व ने उनसे संस्कृत में संवाद किया।

३. तदनंतर म्लेच्छों ने सरस्वती की आराधना की और उनकी कृपा से शूद्रत्व को प्राप्त किया।

इस वृत्तांत से यह सिद्ध होता है कि पुराणों के अनुसार म्लेच्छों को भी संस्कृत की शिक्षा देकर उनका शोधन किया जा सकता है। शोधन के फलस्वरूप वे शूद्र वर्ण में सम्मिलित होते हैं। अतः करपात्री जी के कथन का खंडन उन्हीं की लेखनी से हो जाता है।

 

 

१३,
संस्कृत बोलते शूद्र

अब हम विविध शास्त्रों से संस्कृत में संभाषण करने वाले शूद्रों के दृष्टांत देखेंगे, जिनसे करपात्री जी का मत ध्वस्त हो जाएगा। दृष्टांतों की संख्या बहुत है, अतः विस्तार भय से यहाँ कतिपय उदाहरण ही दिए जाएँगे।

विभिन्न इतिहास-पुराणों में सर्वत्र शूद्रों और अंत्यजों की वाणी संस्कृत में ही निबद्ध है, अतः उन सभी दृष्टांतों से करपात्री जी का खंडन स्वतः हो जाता है। किंतु संभवतः पूर्वपक्षी यह तर्क देंगे कि वे सभी संवाद पुराणकार के द्वारा संस्कृतेतर भाषाओं से संस्कृत में अनूदित हैं। यद्यपि यह तर्क हास्यास्पद है, तथापि हम यहाँ केवल उन उदाहरणों को लेंगे जिनमें शूद्रों द्वारा असंदिग्ध संस्कृत संभाषण देखा जा सकता है।

सर्वप्रथम पाणिनि-व्याकरण (८.२.८३) की काशिका वृत्ति में एक आचार्य और उनके शूद्र शिष्य तुषजक का संवाद देखें-

तुषजक – अभिवादये तुषजकोऽहं भोः!

आचार्य – आयुष्मानेधि तुषजक!

यहाँ तुषजक संस्कृत बोल रहा है।

दूसरा उदाहरण धर्मशास्त्र से लेते हैं। मनुस्मृति के अनुसार श्रद्धावान् होकर अवर वर्ण के लोगों से भी श्रेष्ठ विद्या को ग्रहण करना चाहिए।[106] विद्यादान के लिए संवाद अपेक्षित है। क्या यह संवाद संस्कृत में भी हो सकता है? उपर्युक्त श्लोक की टीका में मेधातिथि एक उदाहरण देते हैं जिसमें एक चंडाल द्वारा ब्रह्मचारी को लौकिक धर्म का उपदेश दिया गया है-

“अत्र प्रदेशे मा चिरं स्थाः । मा वाऽस्मिन्नम्भसि स्नासीः । एषोऽत्र ग्रामीणानां धर्मो राज्ञा कृता वा मर्यादेति।”

अर्थात् “इस प्रदेश में दीर्घकाल तक मत ठहरो। इस जल में स्नान मत करो। यह ग्रामीणों का धर्म है अथवा राजा द्वारा निर्धारित मर्यादा है।”

यहाँ चंडाल संस्कृत बोल रहा है। मेधातिथि के अनुसार चंडाल द्वारा इस प्रकार उपदिष्ट होने पर ब्रह्मचारी को यह नहीं सोचना चाहिए कि इस चंडाल ने मुझे उपदेश देने का दुःसाहस कैसे किया, अपितु उसकी हितप्रद बात को स्वीकार कर लेना चाहिए।[107]

तीसरा उदाहरण कर्मकांड से है। कमलाकर भट्ट द्वारा विरचित शूद्रधर्मतत्त्वप्रकाश में पुण्याहवाचन के प्रकरण में शूद्र यजमान और ब्राह्मण पुरोहित के मध्य का यह संवाद देखें-

शूद्रः — यं कृत्वा सर्ववेदयज्ञक्रियाकरणकर्मारम्भाः शुभाः शोभनाः प्रवर्तन्ते तमहं नत्वा भवद्भिरनुज्ञातः पुण्यं पुण्याहं वाचयिष्ये।

ब्राह्मणाः — वाच्यताम्।

शूद्रः — मा विघ्नं मा च मे पापं मा सन्तु परिपन्थिनः। सौम्या भवन्तु सुखिनः सर्वे लोकाः सुखावहाः॥

ब्राह्मणाः — तथाऽस्तु। करोतु स्वस्ति ते ब्रह्मा…। स्वस्ति तुभ्यं प्रयच्छतु॥

शूद्रः — ब्राह्मणाः! मनः समाधीयताम्।

ब्राह्मणाः — समाहितमनसः स्मः।

यहाँ भी शूद्र यजमान के द्वारा संस्कृत संभाषण का विधान किया गया है।

चौथा उदाहरण साहित्य से लेते हैं। सामान्यतः नाटकों में स्त्री और शूद्र पात्र संस्कृत के ज्ञाता होते हुए भी प्राकृत में संभाषण करते हैं। किंतु यह सार्वत्रिक नहीं है। महाकवि भास प्रणीत यज्ञफल नाटक के तृतीय अंक में निबद्ध दो दासियों का संवाद देखिए, जिसमें वे संस्कृत का आश्रय लेकर आक्षेप-प्रत्याक्षेप कर रही हैं-

चतुरिका — कहं तुंमं ण दासी। दासी विइ भसेसि

मन्थरा — हुं, दासी विअ भसेसि

(संस्कृतमाश्रित्य) न जनन्यामुभे दासी माता चेत्येकसंस्थिते ।

सेवते स्निह्यति ततो जननी दैवतं परम् ॥

मधुरिका — जइ तुमं विअ दासीकम्म करेन्ती कावि जणणी भवे। ता अम्हे सव्वाओ देईणं जणणीओ।

मन्थरा — णं अहं सक्कअं भणामि

चतुरिका — (संस्कृतमाश्रित्य) तव संस्कृतेऽप्यविनयो विकत्थना च तव दासीत्वं कथयतः। नाभिजाता विकत्थन्ते।

यहाँ भी मंथरा और चतुरिका संस्कृत बोल रही हैं।

यद्यपि ऐसे संवादों के अनेक उदाहरण हैं, तथापि करपात्री जी के खंडनार्थ इतने पर्याप्त हैं।

 

 

१४.
यज्ञानुष्ठान में शूद्र

पंचमहायज्ञ के अतिरिक्त अग्निहोत्र में भी कुछ द्विजेतरों का अधिकार है। यद्यपि निषाद एक संकर जाति है और शूद्र के धर्म से युक्त है, तथापि मीमांसा-दर्शन के निषादस्थपत्यधिकरण के अनुसार वह यज्ञ में अधिकृत है। साथ ही उसे यज्ञ के उपयुक्त अध्ययन का भी अधिकार है।[108] इसी प्रकार रथकार भी एक संकर जाति है, किंतु रथकाराधिकरण के अनुसार अग्न्याधान में अधिकृत है।[109] अतः दोनों ही जातियों के लिए संस्कृत का ज्ञान अपेक्षित है।

किंतु जो द्विजेतर वैदिक यज्ञों में अधिकृत नहीं हैं, वे भी यज्ञानुष्ठान में भाग लेते हैं और उसके अंगभूत संस्कृत भाषा का उच्चारण भी करते हैं। बौधायन-धर्मसूत्र में ऐसे शूद्रों का उल्लेख मिलता है जो आर्यों (त्रैवर्णिकों) के आश्रित होकर रहते थे।[110] गोविंदस्वामी की टीका के अनुसार कुछ शूद्र इन त्रैवर्णिकों से शास्त्र-ज्ञान भी प्राप्त करते थे।[111] मेधातिथि ने भी शूद्रों के लिए शास्त्रों की व्याख्या करने वाले लोगों का उल्लेख किया है।[112] ऐसी स्थिति में त्रैवर्णिकों और शूद्रों के मध्य संवाद किस भाषा में होता होगा? म्लेच्छ भाषा का निषेध हम पूर्व में ही देख चुके हैं। अतः हमारे पास चार विकल्प शेष हैं-

१. त्रैवर्णिक – संस्कृत, शूद्र – संस्कृत

२. त्रैवर्णिक – प्राकृत, शूद्र – प्राकृत

३. त्रैवर्णिक – संस्कृत, शूद्र – प्राकृत

४. त्रैवर्णिक – प्राकृत, शूद्र – संस्कृत

उपर्युक्त में से तृतीय विकल्प की प्रधानता संस्कृत नाटकों में देखी जा सकती है। किंतु कभी-कभी शूद्रवर्ण के पात्र नाटकों में संस्कृत बोलते भी देखे जाते हैं। सामान्य व्यवहार में द्वितीय विकल्प भी प्रचलित रहा है। तब क्या ऐसी कोई परिस्थिति है जब प्रथम विकल्प का व्यवहार होता होगा?

मार्कण्डेय-स्मृति में ऐसे द्विजों पर आश्रित रहनेवाले शूद्रों का उल्लेख आया है जो विविध नित्य-नैमित्तिक कर्मों में उनका सहयोग करते थे। वैश्वदेव-यज्ञ के प्रकरण में त्रैवर्णिकों की देख-रेख में शूद्र पाचक अन्न का संस्कार कर सकता है।[113] ऐसे शूद्र पाचक द्वारा संस्कृत बोलने का विधान है। अन्न के सिद्ध हो जाने पर पाचक “भूतम्” (अथवा “सिद्धम्”) कहकर गृहस्वामी को सूचित करता है। तब गृहस्वामी “तन्माक्षायि” इत्यादि वचनों से इसका प्रत्युत्तर देता है।[114]

अन्य प्रसंगों में शूद्रों के द्वारा वैदिक भाषा का उच्चारण अपेक्षित है। तैत्तिरीय-ब्राह्मण (१.२.६.५०) में महाव्रत के अन्तर्गत ब्राह्मण और शूद्र के मध्य एक चर्मखंड के लिए कलह का अभिनय किया जाता है। ब्राह्मण कहता है- “ये यजमान धान्य-संपन्न हैं, इन्होंने उत्तम कार्य किया” (“इमेऽरात्सुरिमे सुभूतमकन्”)।[115] इसके उत्तर में शूद्र बोलता है- “ये यजमान प्रजाओं का उद्वासन (निष्कासन) कराने वाले हैं, इन्होंने दुर्व्यापार किया (“इमे उद्वासीकारिण इमे दुर्भूतमक्रन्”)।[116]

मार्कण्डेय-स्मृति के इसी प्रकरण में द्विजों पर आश्रित रहनेवाले शूद्रों के लिए एक विलक्षण विधान किया गया है। स्मृतिकार का निर्देश है कि ऐसे शूद्रों को प्राकृत भाषा का नहीं, अपितु संस्कृत का व्यवहार करना चाहिए। उन्हें प्राकृत में लिखे शास्त्रों का अध्ययन नहीं करना चाहिए क्योंकि ऐसा करने से किसी (वैश्वदेव आदि) सत्कर्म के अनुष्ठान के समय उनके द्वारा प्रमाद-वश प्राकृत शब्दों के उच्चारण का भय रहता है।[117]

मार्कण्डेय-स्मृति के इन वचनों से सिद्ध होता है कि शूद्रों का एक वर्ग न केवल संस्कृत जानता था, अपितु उनसे संस्कृत में व्यवहार करने की अपेक्षा भी की जाती थी। निषेध तो दूर, यहाँ शूद्रों के लिए संस्कृत-भाषण का ही विधान है। करपात्री जी के पक्ष और शास्त्र के आदेश के मध्य यही अंतर है।

 

 

१५.
शूद्रों द्वारा विद्यार्जन

करपात्री जी के मत के विपरीत शूद्रों के लिए विद्यार्जन का विधान है, जिसमें संस्कृत-शिक्षा भी सम्मिलित है। धर्मनिबंधों में शूद्रों के लिए विद्यारंभ संस्कार का वर्णन है। प्रायः पाँच वर्ष की आयु के बालकों का विद्यारंभ संस्कार किया जाता है। कमलाकर भट्ट द्वारा विरचित शूद्रधर्मतत्त्व में शूद्रों के विद्यारंभ की पद्धति बताई गई है।

शूद्राचारशिरोमणि के प्रणेता शेषकृष्ण महाभारत के आधार पर शूद्रों के लिए ब्रह्मचर्य आश्रम को भी स्वीकार करते हैं।[118] महाभारत के अनुसार शूद्रों के लिए चार में से तीन आश्रमों का विधान है- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ और वानप्रस्थ। बंधन यह है कि उन्हें ब्रह्मचर्य और वानप्रस्थ आश्रमों के लिए राजा की आज्ञा की आवश्यकता है। ब्रह्मचर्य आश्रम में शूद्रों के लिए भिक्षाटन भी निषिद्ध है।[119] योगयाज्ञवल्क्य में कहा गया है कि कुछ विद्वान् शूद्रों के लिए ब्रह्मचर्य आश्रम स्वीकार करते हैं।[120] ब्रह्मचर्य आश्रम का प्रमुख उद्देश्य ज्ञानार्जन ही है। संस्कृत के व्यवहार के बिना विद्यारंभ (और तत्पश्चात् विद्यार्जन) तथा ब्रह्मचर्य आश्रम की कल्पना नहीं की जा सकती है।

यह तो रहा शास्त्रीय पक्ष, किंतु क्या शूद्रों द्वारा गुरु से संस्कृत सीखने के कोई व्यावहारिक दृष्टांत भी हैं? अवश्य हैं। भारत में ब्रिटिश राज की स्थापना से पूर्व पारंपरिक पाठशालाओं और गुरुकुलों में शूद्र-वर्ग के छात्र-छात्राओं को संस्कृत की शिक्षा दी जाती थी। इसके पक्ष में अनेक ऐतिहासिक साक्ष्य मिलते हैं।

१. सन् १८३८ – विलियम एडम पाते हैं कि बंगाल में शूद्रों को संस्कृत व्याकरण, कोशविद्या, काव्य, नाटक, अलंकारशास्त्र, ज्योतिष और आयुर्वेद की शिक्षा दी जाती थी।[121]

२. सन् १८४९ – रॉबर्ट मोंटगोमरी लिखते हैं कि केवल कानपुर जनपद में ५८ संस्कृत विद्यालय थे, जिनमें मराठा छात्र पढ़ते थे। इन छात्रों के माता-पिता पेशवा की जागीर में रहते थे अथवा वहाँ सेवक थे।[122]

३. सन् १८८२ – जी. डब्ल्यू. लाइटनर लिखते हैं कि पंजाब प्रांत में शूद्रों को संस्कृत व्याकरण, कोशविद्या, अलंकारशास्त्र, नाटक और अन्य सभी लौकिक साहित्य का अध्ययन करने की अनुमति थी।[123]

४. सन् १८८४ – बंगाल में संस्कृत के क्षेत्र में शूद्र ब्राह्मणों से भी स्पर्धा कर लेते थे। व्याकरण, कोशविद्या, काव्य और नाट्य साहित्य, अलंकारशास्त्र, ज्योतिष और आयुर्वेद जैसे विषयों में शूद्र जातियों के छात्रों का वर्चस्व था।[124]

जब करपात्री जी शूद्रों के द्वारा संस्कृत शब्दों के उच्चारण का निषेध करते हैं तो वे परोक्षतः इस समृद्ध शिक्षण परंपरा का भी निषेध कर बैठते हैं।

 

16.
शूद्रों द्वारा विद्यादान

शूद्रों द्वारा संस्कृत में निबद्ध शास्त्रों के अध्ययन के उदाहरणों के पश्चात् हम उनके द्वारा विद्यादान के कुछ उदाहरण देखते हैं। यदि शूद्र इन शास्त्रों का उपदेश कर सकते हैं तो संस्कृत शब्दों का उच्चारण भी कर सकते हैं।

आपस्तंब-धर्मसूत्र के अनुसार स्त्रियों और शूद्रों में जो विद्या निहित है, वह विद्याओं की “निष्ठा” (परिसमाप्ति) है।[125] हरदत्त की टीका के अनुसार इस सूत्र में “निष्ठा” का तात्पर्य यह है कि स्त्रियों और शूद्रों में निहित विद्या का अध्ययन अन्य सभी विद्याओं के अध्ययन के पश्चात् करना चाहिए।[126] ये विद्याएँ कौन-सी हैं? अगले सूत्र में इसका उत्तर दिया गया है कि ये विद्याएँ अथर्ववेद से संबद्ध हैं (अथवा अथर्ववेद के परिशिष्ट भाग के समान हैं)।[127] महाभारत के अनुसार अर्थशास्त्र अथर्ववेद का उपवेद है।[128] भागवत-पुराण में स्थापत्य[129] को और शुक्रनीति में तंत्र[130] को अथर्ववेद का उपवेद माना गया है।

इन तीन उपवेदों के अतिरिक्त भी शूद्रों के पास कुछ विद्याएँ हैं, जिन्हें उनसे सीखा जा सकता है। मनुस्मृति (२.२३८) की टीका में मेधातिथि उन विद्याओं के उदाहरण देते हैं जो अवर वर्ण के लोगों से प्राप्त की जा सकती हैं- न्यायशास्त्र, तर्कविद्या, काव्य, भरत मुनि द्वारा प्रणीत विद्या (नाट्यशास्त्र), और मंत्रविद्या (संभवतः मंत्र-चिकित्सा)। अन्य टीकाकारों ने यहाँ गारुड-विद्या का भी समावेश किया है। किंतु कुल्लूकभट्ट इन विद्याओं में आत्मविद्या को भी सम्मिलित करते हैं- यदि पूर्वजन्म के संस्कारों के कारण किसी अंत्यज को मोक्ष के उपाय का ज्ञान हो तो उससे वह भी ग्रहण करना चाहिए। इसका साक्ष्य महाभारत में प्राप्त हो जाता है जहाँ धर्मव्याध ने ब्राह्मण कौशिक को ब्रह्मविद्या का उपदेश दिया है।[131]

मनुस्मृति में शूद्र गुरु के शिष्य का उल्लेख है।[132] मेधातिथि और कुल्लूकभट्ट के मत में शूद्र व्याकरण आदि विषयों के गुरु हो सकते हैं। मनुस्मृति (८.३३५) की टीका में भी मेधातिथि शूद्रों के पास तर्कशास्त्र का ज्ञान होने की संभावना व्यक्त करते हैं। आपत्काल में जीविकोपार्जन के दस साधनों में विद्यादान भी सम्मिलित है। यहाँ मेधातिथि लिखते हैं कि वेदों के अतिरिक्त वैद्यक, तर्क, भूत, और विषासन आदि शास्त्रों का अध्यापन सभी लोगों के जीवन का साधन हो सकता है।[133]

याज्ञवल्क्य-स्मृति के अनुसार विद्या से संपन्न शूद्र सम्माननीय होता है।[134] इसी स्मृति में पहले (१.३) चतुर्दश विद्याओं का उल्लेख है।[135] यदि दोनों बातों को जोड़कर देखें तो शूद्र को १४ अथवा १८ विद्याओं में से कम-से-कम कुछ विद्याओं को सीखने का अधिकार अवश्य है। टीकाकार देवणभट्ट के अनुसार यहाँ “विद्या” का अर्थ श्रुति और स्मृति है। वे शूद्र के लिए विद्या की परिभाषा को परिवर्तित अथवा सीमित नहीं करते हैं, जिससे यही तात्पर्य निकलता है कि शूद्रों को स्मृति-शास्त्रों का ज्ञान था और स्मृतियों के द्वारा वे श्रुति के तत्त्व से भी अवगत हो सकते थे।

बौद्ध आचार्य अश्वघोष बताते हैं कि उनके काल (प्रथम शताब्दी ई॰) में कहीं-कहीं शूद्र भी वेद, व्याकरण, मीमांसा, सांख्य, वैशेषिक, ज्योतिष और जीवक (आयुर्वेद) आदि शास्त्रों में निपुण होते थे।[136] शूद्रों के पास ज्योतिष का ज्ञान हो सकता है- इसमें भी संशय नहीं है, क्योंकि आचार्य वराहमिहिर के अनुसार यह ज्ञान म्लेच्छों के पास भी देखा जाता है।[137] अश्वघोष के काल में शूद्र वर्ण के लोग इन विद्याओं का अध्यापन भी करते थे।[138] इतिहास के निर्धारण में अनेक साक्ष्यों के मध्य अश्वघोष का वचन भी स्वीकार्य होना चाहिए।

अतः अर्थशास्त्र, स्थापत्य, तंत्र, न्यायशास्त्र, काव्य, नाट्यशास्त्र, मंत्रविद्या, गारुड-विद्या, आयुर्वेद, ज्योतिष, व्याकरण और आत्मविद्या समेत अनेक विद्याओं का ज्ञान शूद्रों के पास होता था। इनमें से प्रत्येक विद्यास्थान की संस्कृत भाषा में निबद्ध महनीय शास्त्र-परंपरा है। यदि जातिस्मर के कारण प्राप्त आत्मविद्या को छोड़ भी दें तो अन्य सभी विद्याओं के लिए संस्कृत का ज्ञान आवश्यक है। कोई जिज्ञासु इन विद्याओं का ज्ञान शूद्रों से प्राप्त कर सकता था। इस प्रकार करपात्री जी का मत कि शूद्रों के लिए “संस्कृत शब्दों का उच्चारण भी निषिद्ध है” इस समृद्ध शास्त्र-परंपरा के विरुद्ध है।

 

 

17.
संस्कृतज्ञ शूद्र

शूद्रों के संस्कृताधिकार के विषय में शास्त्र-प्रमाण का अवलोकन करने के पश्चात् हम पूर्व काल के कुछ संस्कृतज्ञ शूद्रों और अंत्यजों के उदाहरण देखते हैं। निम्नलिखित सूची के निर्माण में डॉ॰ सत्यन् शर्मा के शोध से सहायता प्राप्त हुई है।[139]

१. भर्तृमेण्ठ (५ वीं शताब्दी) – ये जन्मतः महावत-समाज से थे और अपनी प्रतिभा के कारण कश्मीर नरेश मातृगुप्त के सभा पंडित नियुक्त हुए थे (राजतरंगिणी ३.२६०-२६३)। “मेण्ठ” का अर्थ “महावत” होता है और भर्तृमेण्ठ का एक नाम “हस्तिपक” (अर्थात् हाथी-पालक) भी मिलता है। इन्हें “हयग्रीववध” नामक महाकाव्य का प्रणेता माना गया है, जो अब पूर्ण रूप में लुप्त है। भर्तृमेण्ठ के अनेक पद्य सुभाषित-संग्रहों में संगृहीत हैं। इनकी प्रशस्ति में धनपाल का कथन है कि भर्तृमेण्ठ की गज-अंकुश के समान वक्रोक्ति से बँधे कवि-रूपी गजराज (सम्मति में) सिर हिलाते हैं।[140] राजशेखर के अनुसार भर्तृमेण्ठ आदिकवि वाल्मीकि और महाकवि भवभूति की परंपरा के कवि हैं।[141]

२. मातंग दिवाकर (७ वीं शताब्दी) – ये चंडाल जाति में उत्पन्न हुए थे और सम्राट् हर्षवर्धन की सभा में कवि थे। इनके विषय में महाकवि राजशेखर की उक्ति प्रसिद्ध है कि वाग्देवी की कृपा से मातंग दिवाकर महाकवि बाण और मयूर के समान यशस्वी हुए।[142]

३. अमरु / अमरुक (८ वीं शताब्दी) – कुछ टीकाकारों के मतानुसार अमरुशतक के प्रणेता अमरु (अथवा अमरुक) स्वर्णकार जाति में जन्मे थे। अमरुशतक की एक टीका में अमरु को नाडिन्धम अर्थात् स्वर्णकार कुल का तिलक कहा गया है।[143] मान्यता है कि अमरु किसी क्षेत्र के शासक भी हुए थे।

४. शाबर राम (११ वीं शताब्दी) – खजुराहो के विश्वनाथ मंदिर में राजा धंगदेव के शिलालेख में अभिलिखित प्रशस्ति के रचयिता ने अपना नाम “राम” बताया है और लिखा है कि वे “शाबर” कुल में उत्पन्न हुए थे। यह प्राचीन शबर जाति (वर्तमान भील अथवा किसी अन्य जाति) का अभिधान है।

५. विजयसिंह (१४ वीं शताब्दी) – ये प्राग्वाट वंश में उत्पन्न विद्वान् थे और चालुक्य राजाओं के मंत्री रहे थे। अपने पुत्र तेजःसिंह के अनुसार ये शास्त्रों के ज्ञाता थे।

६. तेजःसिंह (१४ वीं शताब्दी) – ये दैवज्ञालंकृति नामक ज्योतिष ग्रंथ के रचयिता थे। ग्रंथ के अंत में इन्होंने स्वयं को शूद्र बताया है।

७. समरसिंह (१४ वीं शताब्दी) – ये ताजिकतंत्रसार नामक ज्योतिषीय ग्रंथ के रचयिता थे।

८. काटय वेम (१४-१५ वीं शताब्दी) – ये रेड्डी वंश के राजा थे। इन्होंने अभिज्ञानशाकुंतल पर टीका लिखी थी।

९. कुमारगिरि (१४-१५ वीं शताब्दी) – ये नाट्यशास्त्र पर संस्कृत ग्रंथ वसंतराजीय के प्रणेता थे।

१०. कोमटीवेम / पेदकोमटीवेम  (१४-१५ वीं शताब्दी) – इनकी दो टीकाएँ प्रसिद्ध हैं – अमरुशतक पर शृंगारदीपिका और गाथा-सतसई पर भावदीपिका।

११. वेम (१४-१५ वीं शताब्दी) – ये कोमटीवेम के पुत्र थे और संस्कृत भाषा में इनके शिलालेख प्राप्त हुए हैं, जिनमें उन्होंने स्वयं को शूद्रजातीय बताया है।

१२. शुभराज (१५ वीं शताब्दी) – ये नेपाल के संस्कृत कवि थे। इन्होंने स्वयं को शूद्रकुल में जन्मा बताया है। इनके दो काव्य प्राप्त होते हैं – रूपमंजरीपरिणय और पांडवविजय।

१३. अभयराज (१५ वीं शताब्दी) – ये शुभराज के पिता थे। शुभराज के अनुसार ये भी कवि थे।

१४. शङ्कर वारियर (१५-१६ वीं शताब्दी) – ये पारशव जाति में उत्पन्न गणितज्ञ थे। ये क्रियाक्रमकरी (भास्कराचार्य की लीलावती पर टीका), युक्ति-दीपिका और लघुविवृति के प्रणेता थे।

१५. अच्युत पिषारति (१५-१६ वीं शताब्दी) – ये संस्कृत के प्रख्यात विद्वान् और व्याकरण, खगोल और दर्शन पर अनेक ग्रंथों के प्रणेता थे। ये केरलीय गणित संप्रदाय के गणितज्ञ थे और नारायणीय के रचयिता नारायण भट्टतिरि के गुरु थे।

१६. मुम्मुडि चिक्कपगौड़ा (१६ वीं शताब्दी) – ये शूद्र जाति में उत्पन्न हुए थे और मधुगिरि (मैसूर के समीप क्षेत्र) के शासक थे। इन्होंने “अभिनवभरतसारसंग्रह” नामक नाट्यशास्त्रीय ग्रंथ की रचना की थीं।

१७. कविचन्द्र (१६ वीं शताब्दी) – ये लिपिकार थे और इन्होंने सन् १५८८ में भट्ट लक्ष्मीधर द्वारा प्रणीत कृत्यकल्पतरु की एक प्रतिकृति बनाई थी। ग्रंथ के समापन श्लोक में इन्होंने स्वयं को शूद्र बताया है।[144]

१८. राधाकान्त देव (१८ वीं शताब्दी) – ये संस्कृत के विशाल शब्दकोश शब्दकल्पद्रुम के संपादक और सूत्रधार थे। ईश्वरचंद्र विद्यासागर जैसे विद्वानों के मत में ये शूद्र जाति में जन्मे थे।

१९. श्री नारायण गुरु (१९ वीं शताब्दी) – केरल के महान् संत श्री नारायण गुरु का जन्म एझावा समाज में हुआ था। इन्होंने संस्कृत और मलयालम में अनेक ग्रंथों की रचना की थी।

२०. पञ्चानन कर्मकार (१९ वीं शताब्दी) – ये लोहार जाति के प्रतिभावान् लिपिज्ञ थे जिन्होंने देवनागरी मुद्राक्षर का निर्माण किया था।

२१. मनोहर कर्मकार (१९ वीं शताब्दी) – ये पंचानन कर्मकार के सहयोगी थे।

२२. कैक्कुलंगर राम वारियर (२० वीं शताब्दी) – केरल के परंपरागत संस्कृत विद्वान् कैक्कुलंगर राम वारियर का जन्म पारशव जाति के शैव परिवार में हुआ था। वे आयुर्वेद-समेत अनेक प्राच्य-विद्याओं में निष्णात थे।

२३. डॉ. कुमुद पावडे (२०-२१ वीं शताब्दी) – ये हमारी समकालीन संस्कृत विदुषी हैं। इनका जन्म दलित समाज में हुआ था। इन्होंने अपनी संस्कृत यात्रा के विषय में लिखा है।[145]

उपर्युक्त ऐतिहासिक संस्कृतज्ञों के अतिरिक्त हमें ऐसे अनेक वैदिक और पौराणिक मनीषियों के नाम प्राप्त होते हैं जो द्विजेतर समुदाय में जन्मे थे अथवा शूद्रा माता के पुत्र थे। ये सभी महापुरुष संस्कृतज्ञ नहीं थे- ऐसा कहना दुराग्रह होगा। जहाँ शास्त्र में शूद्रों को संस्कृत पढ़ने का अधिकार प्राप्त है, वहीं लोकाचार में भी उनके योगदान का स्थान है।

 

18.
उपसंहार

आपस्तंब-धर्मसूत्र का कथन है कि जिस विषय में संशय हो उसमें निश्चित रूप से नहीं बोलना चाहिए।[146] ऐसा प्रतीत होता है कि शूद्रों के संस्कृताधिकार के पक्ष में उपलब्ध सैकड़ों प्रमाणों का अनुशीलन किए बिना ही करपात्री जी ने अपना वक्तव्य दे दिया और उनके आज्ञा को सर्वोपरि मानकर उनके कुछ अनुयायी शूद्रों के विद्यार्जन का ही निषेध करने लगे। किंतु यह भारतीय ज्ञान परंपरा के विरुद्ध है, जहाँ कहा गया है कि यदि ब्रह्मा अथवा बृहस्पति भी युक्ति से हीन बात कहें तो उस बात को त्याग देना चाहिए।[147]

शूद्रों के संस्कृताधिकार के निषेध की धारणा कहाँ से आई – यह कहना भी कठिन है। मनु, याज्ञवल्क्य आदि प्रतिष्ठित स्मृतिकारों ने शूद्रों अथवा अवर्णों के लिए संस्कृत भाषा का कहीं निषेध नहीं किया है। प्रत्युत मनु ने वेदमंत्रों से साध्य कर्मों के अतिरिक्त द्विजों के समस्त आचरण का शूद्रों के लिए अतिदेश किया है।[148] यदि संस्कृत-संभाषण भी द्विजों का आचरण है, तब उसपर भी प्रतिबंध नहीं है। यहाँ तक कि मनु ने आर्यभाषा बोलने वाले शूद्रों और अवर्णों का भी उल्लेख किया है। यदि परंपरा में प्राप्त सबसे व्यापक निषेध को स्वीकार करें तो भी इतिहास-पुराण के श्रवण और लौकिक संस्कृत व्याकरण, ज्योतिष, आयुर्वेद, तर्कशास्त्र, नाट्यशास्त्र, और साहित्यशास्त्र समेत अनेक शास्त्रों के अध्ययन में शूद्र अधिकृत हैं। संस्कृत शब्दों के उच्चारण में उनका अधिकार तो स्वतः सिद्ध है। विभिन्न शास्त्रों में शूद्र-वर्ग के लोग शिक्षा प्राप्त करते रहे हैं और इतिहास में अनेक शूद्र संस्कृतज्ञ भी हो चुके हैं। अतः करपात्री जी का मत न केवल शास्त्र और लोक के विरुद्ध है, अपितु संस्कृत शिक्षण में बाधक होने के कारण उपेक्षणीय है।

सन्दर्भ:

[1] विशेष – इस आलेख के लेखन में डॉ॰ सत्यन् शर्मा के शोध से बहुमूल्य सहायता प्राप्त हुई है, जिसके लिए मैं उनका आभारी हूँ। Email: ka337@cornell.edu
[2] विचार पीयूष, पृ॰ ४७५
[3] “[शूद्र] पढ़ ही नहीं सकता है, उसको अधिकार ही नहीं है। पढ़ेगा ही नहीं। पढ़ नहीं सकता है। उसके समझ में नहीं आ सकता है। विद्वान् नहीं हो सकता है।” (“India Untouched: Stories of a People Apart” (२००७) में बटुकप्रसाद शर्मा का साक्षात्कार)
[4] धारयन्ब्राह्मणं रूपमिल्वलः संस्कृतं वदन् ।
आमन्त्रयति विप्रान्स श्राद्धमुद्दिश्य निर्घृणः ॥
(वाल्मीकीय-रामायण ३.१०.५४)
[5] अहं ह्यतितनुश्चैव वानरश्च विशेषतः ।
वाचं चोदाहरिष्यामि मानुषीमिह संस्कृताम् ॥
यदि वाचं प्रदास्यामि द्विजातिरिव संस्कृताम् ।
रावणं मन्यमाना मां सीता भीता भविष्यति ॥
अवश्यमेव वक्तव्यं मानुषं वाक्यमर्थवत् ।
मया सान्त्वयितुं शक्या नान्यथेयमनिन्दिता ॥
(वाल्मीकीय-रामायण ५.२८.१७-१९)
[6] “संस्कृतं व्याकरणसंस्कारवतीं वाचम् वदन्” (वाल्मीकीय-रामायण ३.१०.५४ पर गोविंदराज); “संस्कृतां व्याकरणसंस्कारयुक्तां वाचम्” (वाल्मीकीय-रामायण ५.२८.१७-१८ पर शिवसहाय); “संस्कृतां व्याकरणसंस्कारवतीम्” (वाल्मीकीय-रामायण ५.२८.१७-१८ पर नागेशभट्ट)
[7] “वाक्यस्य मानुषत्वं कोसलदेशवर्तिमनुष्यसम्बन्धित्वं विवक्षितम्, तादृग्वाक्यस्यैव देवीपरिचितत्वात्” (गोविंदराज)
[8] “संस्कृतां प्रयोगसौष्ठवलक्षणसंस्कारयुक्ताम्” (गोविंदराज)
[9] मुखबाहूरुपज्जानां या लोके जातयो बहिः।
म्लेच्छवाचश्चार्यवाचः सर्वे ते दस्यवः स्मृताः॥
(मनुस्मृति १०.४५)
[10] धर्मेप्सवस्तु धर्मज्ञाः सतां वृत्तमनुष्ठिताः।
मन्त्रवर्जं न दुष्यन्ति प्रशंसां प्राप्नुवन्ति च॥
(मनुस्मृति १०.१२७)
[11] “आर्यवाचः संस्कृतवाचः” (नन्दन)
[12] “संस्कृतप्राकृतरूपैव भाषा वक्तृभेदाच्चतुर्धा संपन्नेति दर्शयति संस्कृतं प्राकृतं च पाठ्यमिति। संस्कृतैव भाषा स्वरभेदादिपूर्णसंस्कारोपेता। संस्कृतभाषा भाषाभेदानां (मध्ये) उक्ता। वैदिकशब्दबाहुल्यादार्यभाषातो विलक्षणत्वमस्या इति।”
[13] “स्याद्वाम्नायधर्मित्वाच्छन्दसि नियमः” (वाजसनेयिप्रातिशाख्य १.४)
उवट – “आम्नायो वेदः, तस्य धर्मः आम्नायधर्मः, आम्नायधर्मो विद्यते यस्य शब्दमात्रस्य स आम्नायधर्मी, तस्य भावः आम्नायधर्मित्वम्, तस्मादाम्नायधर्मित्वाद् भवेद्वा छन्दसि शब्दानां स्वरसंस्कारनियमोऽभ्युदयाय महते स्यात्…मन्त्रस्तु यदि मनागपि स्वरतो वर्णतो वा हीनो भवति अथ कर्मासमृद्धिः…न तु लौकिकशब्दविषयमिदं किञ्चिदुपलभ्यते। अतः स्वरसंस्कारयोश्छन्दसि नियमो महोदयः।”
अनंतभट्ट – “आम्नायो वेदः। तद्धर्मित्वात् स्वरसंस्कारयोः तत्रैवायं नियमो नान्यत्र…मन्त्रस्तु यदि मनागपि स्वरतो वर्णतो वा हीनो भवति अथ कर्मासमृद्धिः…न तु लौकिकशब्दविषये ईदृङ्नियमः क्वचिदुपलभ्यते। अतः स्वरसंस्कारनियमो वेदविषय एव इति सिद्धम्।”
[14] काव्यादर्श १.३३
[15] “संस्कारवत्येव गिरा मनीषी तया स पूतश्च विभूषितश्च” (कुमारसंभव १.२८); “संस्कारो व्याकरणजन्या शुद्धिस्तद्वत्या गिरा वाचा” (मल्लिनाथ)
[16] “तस्मादियं वाक् इदानीमपि पाणिन्यादिमहर्षिभिर्व्याकृता सर्वैः पठ्यते इत्यर्थः।” (ऋग्वेदभाष्यभूमिका में तैत्तिरीय-संहिता ६.४.७३ पर भाष्य)
[17] “संस्कृतप्राकृतापभ्रंशभाषात्रयप्रतिबद्धप्रबन्धरचनानिपुणतरान्तःकरणः”, The Indian Antiquary Vol 10 (pp. 277-286)
[18] स्कंदपुराण, प्रभासखंड, प्रभासक्षेत्र-माहात्म्य २८.७०
[19] इत्याश्चर्यमिदं देव त्वत्तः सर्वं मया श्रुतम् ।
महिमानं महेशस्य विस्तरेण समुद्भवम् ।
साम्प्रतं सोमनाथस्य यथावद् वक्तुमर्हसि ॥
विधिना केन दृश्योसौ यात्रा कार्या कथं नृभिः ।
कस्मिन्काले महादेव नियमाश्चैव कीदृशाः ॥
(स्कंदपुराण, प्रभासखंड, प्रभासक्षेत्र-माहात्म्य २८.१-२)
[20] ब्राह्मणस्य त्वनशनं तपः परमिहोच्यते ।
षष्ठकालाशनं शूद्रे तपः प्रोक्तं परं बुधैः ।
वर्णसङ्करजातानां दिनमेकं प्रकीर्तितम् ॥
(स्कंदपुराण, प्रभासखंड, प्रभासक्षेत्र-माहात्म्य २८.६५-६६)
[21] वर्षास्वाकाशशायी च हेमन्ते सलिलाश्रयः ।
पञ्चाग्निसाधको ग्रीष्मे षष्ठकालकृताशनः ॥
(स्कंदपुराण, नागरखंड २०९.६८)
[22] वराहपुराण, अध्याय १४९, १५१
[23] शूद्रस्तु षष्ठकालाशी यथाशक्त्या तपश्चरेत् ।
न दर्भानुद्धरेच्छूद्रो न पिबेत्कापिलं पयः ॥
मध्यपत्रे न भुञ्जीत ब्रह्मवृक्षस्य भामिनि ।
नोच्चरेत्प्रणवं मन्त्रं पुरोडाशं न भक्षयेत् ॥
न शिखां नोपवीतं च नोच्चरेत्संस्कृतां गिरम् ।
न पठेद्वेदवचनं त्रैरात्रं न हि सेवयेत् ॥
नमस्कारेण शूद्रस्य क्रियासिद्धिर्भवेद् ध्रुवम् ।
निषिद्धाचरणं कुर्वन् पितृभिः सह मज्जति ॥
(स्कंदपुराण, प्रभासखंड, प्रभासक्षेत्र-माहात्म्य २८.६८-७९)
[24] “नियतकेशवेषाः सर्वे वा मुक्तकेशाः शिखावर्जम्” (वसिष्ठधर्मसूत्र २.२१)
[25] “अनियताः केशवेषाः सर्वेषां चामुक्तशिखावर्जमिति। सर्वमुण्डनं शिखातिरिक्तकेशमुण्डनं वेति।” (शूद्राचारशिरोमणि)
[26] “‘शूद्रस्यानियताः केशवेशा’ इति वसिष्ठोक्तेः। यत्तु पाद्मे – ‘न शिखी नोपवीती स्यान्नोच्चरेत् संस्कृतां गिरम्’ इति शूद्रमुपक्रम्योक्तम्। तदसच्छूद्रस्येति केचित्। विकल्प इति तु युक्तम्। अत एव हारीतः – ‘स्त्रीशूद्रौ तु शिखां छित्त्वा क्रोधाद् वैराग्यतोऽपि वा। प्राजापत्यं प्रकुर्यात्तां निष्कृतिर्नान्यथा भवेत् ॥’ एतत् परिग्रहपक्षे।”(निर्णयसिंधु, परिच्छेद ३, शिखाधारण-विद्यारम्भनिरूपण, पृष्ठ ३९३)
[27] “यह उल्लेखनीय है कि अनेक गृह्यसूत्रों में उपनयन संस्कार में यज्ञोपवीत के प्रदान या धारण करने का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है, और वैदिक साहित्य में यज्ञोपवीत देने की क्रिया के लिए कोई भी मंत्र उद्धृत नहीं किया गया है, जबकि उपनयन संस्कार के अन्य अवयवों हेतु अनेक वैदिक मंत्रों का निर्देश मिलता है। इससे यह संभावित ही नहीं, अपितु प्रायः सुनिश्चित प्रतीत होता है कि प्राचीन काल में—परवर्ती स्मृतियों तथा आधुनिक परंपराओं के विपरीत—यज्ञोपवीत का प्रयोग अनिवार्य नहीं था। संभवतः आरंभिक समय में उत्तरीय का उपयोग विशेष अवसरों पर विभिन्न रूपों में किया जाता था, कभी-कभी उसे पूर्णतः त्याग भी दिया जाता था। तदनुसार, धागों से बने सूत्र का प्रयोग सर्वप्रथम एक विकल्प के रूप में हुआ और आगे चलकर वह विशेष रूप से उत्तरीय का प्रतीक बन गया।” (पी. वी. काणे, धर्मशास्त्र का इतिहास, खण्ड २, भाग १, अध्याय ७, पृष्ठ २९१, अनुवाद मेरा)
[28] “उपवीतं द्विधा – नवसूत्रं, संस्थानविशेषश्च। तत्राद्यं शूद्रस्य नेत्युक्तं मिताक्षरायाम्। अन्त्यं तु शूद्रस्यापि भवति। उपवीतिना कर्म कर्तव्यमित्यस्य सर्वकर्मशेषत्वेन शूद्रस्याप्यदृष्टार्थे कर्मणा उपवीतित्वावश्यम्भवात्। उपवीतादि उत्तरीयवस्त्रेणापीति पारिजातकल्पतरुः। न शिखी नोपवीती स्यान्नोच्चरेत् संस्कृतां गिरम्। इति पाद्मं वचनं तु असच्छूद्रपरम् अकर्मकालपरं नवसूत्रपरं वा।”
[29] ब्राह्मणे भक्तिमत्त्वं तु देवताराधने रतिः।
अमात्सर्यं सुशीलत्वमेतत् सच्छूद्रलक्षणम्॥
(बृहद्धर्मपुराण, उत्तरखंड १४.३६)
[30] धर्मोढा यस्य पत्नी स्यात्स सच्छूद्र उदाहृतः ।
समानकुलरूपा च दशदोषविवर्जिता ॥
उद्वोढा वेदविधिना स सच्छूद्रः प्रकीर्तितः ।
अक्लीवाऽव्यङ्गिनी शस्ता महारोगाद्यदूषिता ॥
अनिन्दिता शुभकला चक्षूरोगविवर्जिता ।
बाधिर्यहीना चपला कन्या मधुरभाषिणी ॥
दूषणैर्दशभिर्हीना वेदोक्तविधिना नरैः ।
विवाहिता च सा पत्नी गृहिणी यस्य सर्वदा ॥
सच्छूद्रः स तु विज्ञेयो देवादीनां विभागकृत् ।
पुण्यकार्येषु सर्वेषु प्रथमं सा प्रकीर्तिता ॥
(स्कन्दपुराण, नागरखण्ड, हाटकेश्वरक्षेत्रमाहात्म्य, २४१.७-११)
[31] भार्यारतिः शुचिर्भृत्यादीनां पोषणतत्परः ।
श्राद्धादिकारको नित्यमिष्टापूर्त्तप्रसाधकः ॥
(स्कन्दपुराण, नागरखण्ड, हाटकेश्वरक्षेत्रमाहात्म्य २४१.१३)
[32] गोपनापितभिल्लाश्च तथा मोदककूबरौ ।
ताम्बूलिस्वर्णकारौ च वणिग्जातय एव च ॥
इत्येवमाद्या विप्रेन्द्र सच्छूद्राः परिकीर्त्तिताः ॥
(ब्रह्मवैवर्तपुराण, ब्रह्मखंड १०.१७-१८)
[33] “अमन्त्रमक्षरं नास्ति”
[34] शौक्रं तथा च सावित्रं दैक्षं च जन्म सम्मतम्।
जन्मत्रयं ब्राह्मणानां स्त्रीशूद्राणां द्विजन्मता॥
(बृहद्धर्मपुराण ४.२१)
[35] “शौक्रं शुक्रसम्बन्धि जन्म विशुद्धमातापितृभ्यामुत्पत्तिः, सावित्रमुपनयनेन, याज्ञिकं दीक्षया” (भागवत-महापुराण ४.३१.१० पर श्रीधर), “याज्ञिकं यज्ञदीक्षया जन्म” (वीरराघव), “याज्ञीयमग्न्याधानलक्षणं जन्म” (विजयध्वजतीर्थ), “दैक्ष्यं देवदीक्षारूपम्” (वंशीधर)
[36] “यद्वा जपो गुरूपदिष्टमन्त्रस्य”
[37] तस्मात्सर्वप्रदो मन्त्रः सोऽयं पञ्चाक्षरः स्मृतः ।
स्त्रीभिः शूद्रैश्च सङ्कीर्णैर्धार्यते मुक्तिकाङ्क्षिभिः ॥
नास्य दीक्षा न होमश्च न संस्कारो न तर्पणम् ⁠।
न कालो नोपदेशश्च सदा शुचिरयं मनुः ॥
(स्कंदपुराण, ब्रह्मखण्ड, ब्रह्मोत्तर खण्ड १.२०-२१)
[38] अन्त्यजो वाधमो वापि मूर्खो वा पण्डितोऽपि वा ।
पञ्चाक्षरजपे निष्ठो मुच्यते पापपञ्जरात्॥
(शिवपुराण, रुद्रसंहिता १२.३७)
नारी वाऽथ नरो वाऽथ ब्राह्मणो वाऽन्य एव वा ।
नमोऽन्तं वा नमःपूर्वमातुरः सर्वदा जपेत् ॥
(शिवपुराण, विश्वेश्वरसंहिता १७.१२८-१२९)
[39] अथ प्रभाते विमले गीते नृत्ये च जागरे ।
नमो नारायणायेति श्वपाकः परिवर्त्तते ॥
(वराहपुराण १३९.५३)
[40] पुराहमभवं शूद्रो भीतः संसारदोषतः ।
परिनिष्ठागतं धर्मं ब्राह्मणं शरणं गतः ॥
स कृपालुर्मम प्राह मन्त्रं वै द्वादशाक्षरम् ।
सदेमं जप चेत्युक्त्वा तमहं जप्तवान्सदा ॥
(स्कंदपुराण, माहेश्वरखंड, कौमारिकाखंड ४२.२४०-२४१)
[41] तत्र स्त्रीशूद्रयोस्तु प्रगणं वैदिकमन्त्रं च विना मन्त्रान्तरमुपदिशेत्। तत् प्रणवस्थाने चतुर्दशस्वराक्षरमौङ्कारं योजयेत्।
(प्रपंचसारसारसंग्रह, उपदेशग्रहणविधि, पृ॰ ५७)
चतुर्दशस्वरो योऽसौ शेष औकारसंज्ञकः ।
स चानुस्वारचन्द्राभ्यां शूद्राणां सेतुरुच्यते ॥
(कालिकापुराण ५६.७६)
[42] “शूद्राणां पञ्चयज्ञानुष्ठानेऽधिकारोऽस्ति” (महाभाष्य २.४.१ पर टीका)
[43] देवा मनुष्याः पशवो वयांसि सिद्धाः सयक्षोरगदैत्यसङ्घाः ।
प्रेताः पिशाचास्तरवः समस्ता ये चान्नमिच्छन्ति मयात्र दत्तम् ॥
पिपीलिकाः कीटपतङ्गकाद्या बुभुक्षिताः कर्मनिबन्धबद्धाः ।
प्रयान्ति ते तृप्तिमिदं मयान्नं तेभ्यो विसृष्टं सुखिनो भवन्तु ॥
येषां न माता न पिता न बन्धुर्नैवान्नसिद्धिर्न तथान्नमस्ति ।
तत्तृप्तयेऽन्नं भुवि दत्तमेव ते यान्तु तृप्तिं मुदिता भवन्तु ॥
भूतानि सर्वाणि तथान्नमेतदहं च विष्णुर्न यतोन्यदस्ति ।
तस्मादहं भूतनिकायभूतमन्नं प्रयच्छामि भवाय तेषाम् ॥
चतुर्दशो भूतगणो य एष तत्र स्थिता येऽखिलभूतसङ्घाः ।
तृप्त्यर्थमन्नं हि मया निसृष्टं तेषामिदं ते मुदिता भवन्तु ॥
(विष्णुपुराण ३.११.५१-५५)
[44] “ततश्च स्नानश्राद्धतर्पणपञ्चयज्ञेतरः शूद्रस्य पौराणिकमन्त्रपाठः प्रतीयते” (स्मृतितत्त्व)
[45]“ऋग्वेदाय नमः। यजुर्वेदाय नमः। … व्याकरणाय नमः। निरुक्ताय नमः। …  अध्यात्मविद्यायै नमः। इतिहासपुराणाभ्यां नमः। तर्कविद्यायै नमः। पूर्वमीमांसायै नमः। उत्तरमीमांसायै नमः…” (शूद्रधर्मतत्त्व)
[46] “किञ्च येषु स्तोत्रादिषु साक्षाच्छूद्रस्य पाठाभ्यनुज्ञानं पुराणे दृश्यते तत्पाठेन वा ब्रह्मयज्ञं निवर्त्तयेदिति” (शूद्राचारशिरोमणि, भाग १, पृ॰ ११३)
[47] स्वाध्यायो नाम मन्त्रार्थसन्धानपूर्वको जपः ।
सूक्तस्तोत्रादिपाठश्च हरेः सङ्कीर्तनं तथा ॥
तत्त्वादिशास्त्राभ्यासश्च स्वाध्यायः परिकीर्तितः॥
(पद्मपुराण ४.७८.१३-१४)
“स्वाध्यायः स्यान्मन्त्रजापः” (गरुडपुराण आचारकांड ४९.३२), “स्वाध्यायः स्याज्जपः” (अमरकोश २.७.५१), “स्वाध्यायो जपवेदयोः” (वैजयंतीकोश २.२.८३); “स्वाध्यायो मोक्षशास्त्राणामध्ययनं प्रणवजपो वा” (पातंजल योगसूत्र २.३२ पर व्यास-भाष्य)
[48] वाल्मीकीय-रामायण १.१.७९
[49] “शूद्रोऽपि जनस्त्रैवर्णिकदासः। अत्र शृण्वन्नित्यध्याहारः। महत्त्वं द्विजेतरसर्वप्रजाभ्यः श्रैष्ठ्यं महत्त्वं देहान्ते स्वोपरितनवर्णप्राप्तिलक्षणं च महत्त्वं प्राप्नुयात्।” (नागेशभट्ट)
[50] “शूद्रजनः द्विजदासोऽपि तदितरसर्वप्रजाभ्यो महत्वं श्रैष्ठ्यं ईयात् देहान्तरे स्वोपरिवर्णप्राप्तिलक्षणं महत्वमीयात्।” (अमृतकतक)
[51] “यद्वा पठन् शूद्रो जनः स्यात् महत्त्वं सजातीयेषु सर्वोत्तमत्वे पूज्यत्वमीयात्। चकारादवान्तरजातिस्समुच्चीयते।” (महेश्वरतीर्थ)
[52] “पठन् शूद्रोऽपि जनो यदि महत्त्वं स्वजातिश्रेष्ठत्वमीयात्” (गोविंदराज)
[53] “यद्यपि ‘श्रावयेच्चतुरो वर्णान् कृत्वा ब्राह्मणमग्रतः’ इति शूद्रस्येतिहासपुराणयोः श्रवणमात्रं स्मृतिभिरनुज्ञातं न तु पठनम्। तथापि ‘पठन्’ इत्यादिऋषिवचनप्रामाण्याद् ‘वचनाद् रथकारस्य’ इति न्यायेनास्मिन् सङ्क्षेपपाठमात्रेऽधिकारोऽस्तीति सिद्धम्।” (गोविंदराज)
[54] अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा ।
दानं प्रतिग्रहं चैव ब्राह्मणानामकल्पयत् ॥
(मनुस्मृति १.८८)
[55] शुश्रूषा श्रवणं चैव ग्रहणं धारणां तथा ।
ऊहापोहोऽर्थविज्ञानं तत्त्वज्ञानं च धीगुणाः ॥
(महाभारत दाक्षिणात्य-पाठ ३.२.१९)
[56] तंत्रवार्त्तिक १.२.७
[57] “‘श्रावयेच्चतुरो वर्णान्’ इति चेतिहासपुराणाधिगमे चातुर्वर्ण्यस्याधिकारस्मरणात्। वेदपूर्वकस्तु नास्त्यधिकारः शूद्राणामिति स्थितम्।” (ब्रह्मसूत्र १.३.३८ पर शांकर-भाष्य)
[58] “पुराणाद्यध्ययनश्रवणयोर्द्वयोर्विधानेप्यध्ययनं ज्ञानद्वारा कर्मार्थत्वाद् दृष्टार्थं श्रवणं त्वदृष्टार्थमेव शूद्राणां तु विपरीतं श्रवणं ज्ञानद्वारा कर्मत्वाद् दृष्टार्थं फलार्थत्वाददृष्टार्थं च अध्ययनं तु नास्त्येव श्रोतव्यमेव शूद्रेण नाध्येतव्यं कदाचनेति वचनाद् यद्यपि वार्तिके राणके च। धर्मे चार्थे च कामे च मोक्षे च भरतर्षभेति भारतोक्तेर् धर्मादेश्चकारैरधर्मादेश्च ज्ञानमुपादानपरित्यागाङ्गभूतं फलं तेन दृष्टार्थमेव श्रवणमित्युक्तं तदपि शूद्रमात्रपरं ज्ञेयम्।” (कमलाकर भट्ट)
[59] दक्षशास्त्रं यथा प्रोक्तमशेषाश्रममुत्तमम् ।
अधीयन्ते तु ये विप्रास्ते यान्त्यमरलोकताम् ॥
इदन्तु यः पठेद्भक्त्या शृणुयादधमोऽपिवा ।
स पुत्रपौत्रपशुमान् कीर्तिं च समवाप्नुयात् ॥
(दक्षस्मृति ७.५२-५३)
[60] “अथ हास्य वेदमुपशृण्वतस्रपुजतुभ्यां श्रोत्रप्रपूरणम्’ इति गौतमीयात्। एतच्च दर्पेण साक्षात् श्रवणे। ब्राह्मणमन्तरा कृत्वा श्रवणे तु न दोषः।” (नंदपंडित)
[61] “यत्तु अर्थित्वम्, न तदसति सामर्थ्येऽधिकारकारणं भवति। सामर्थ्यादपि न लौकिकं केवलमधिकारकारणं भवति, शास्त्रीयेऽर्थे शास्त्रीयस्य सामर्थ्यस्यापेक्षितत्वात्।” (ब्रह्मसूत्र १.३.३४ पर शांकरभाष्य)
[62] “यदुक्तमर्थित्वसामर्थ्ययोः सम्भवादिति, तत्रार्थित्वमुपेत्य सामर्थ्यं प्रत्याहार – यत्त्विति। सामर्थ्यमपि तस्य सम्भवतीत्याशङ्का लौकिकं वैदिकं वेति विकल्प्याद्यं निराह – सामर्थ्यमिति। ननु लिखितपाठादिना प्राप्तस्वाध्यादर्थधीयोगादस्ति तस्य वैदिकमपि सामर्थ्यम्। न च निषिद्धाध्ययनाद् दुरितोदयभयान्न प्रवर्तते लिखितपाठादिजनितविद्यया तन्निबर्हणात् तत्राह – शास्त्रीयस्येति। लिखितपाठजन्यविद्यया दुरितनिवृत्तावध्ययनविध्यानर्थक्यान्मैवमित्यर्थः।” (आनंदगिरि-टीका)
“यदा चाध्ययनसंस्कृतेन स्वाध्यायेन फलवत्कर्मब्रह्मावबोधो भाव्यमानोऽभ्युदयनिःश्रेयसप्रयोजन इति स्थापितं तदा यस्याध्ययनं तस्यैव कर्मब्रह्मावबोधोऽभ्युदयनिःश्रेयसप्रयोजनो नान्यस्य, यस्य चोपनयनसंस्कारतस्तस्यैवाध्ययनं स च द्विजातीनामेवेत्युपनयनाभावेनाध्ययनसंस्काराभावात् पुस्तकादिपठितस्वाध्यायजन्योऽर्थावबोधः शूद्राणां न फलाय कल्पत इति शास्त्रीयसामर्थ्याभावान्न शूद्रो ब्रह्मविद्यायामधिक्रियत इति सिद्धम्।” (वाचस्पतिमिश्र-टीका)
[63] य इदं शृणुयान्नित्यं यश्चापि परिकीर्तयेत् ।
नाशुभं प्राप्नुयात् किञ्चित्सोऽमुत्रेह च मानवः ॥
वेदान्तगो ब्राह्मणः स्यात्क्षत्रियो विजयी भवेत् ।
वैश्यो धनसमृद्धः स्याच्छूद्रः सुखमवाप्नुयात् ॥
(महाभारत १३.१३५.१२२-२३)
[64] “शूद्रः सुखमवाप्नुयात् श्रवणेनैव न तु जपयज्ञेन, ‘तस्माच्छूद्रो यज्ञेऽनवक्लृप्तः’ (तैत्तिरीय-संहिता ७.१.१.६) इति श्रुतेः। ‘श्रावयेच्चतुरो वर्णान् कृत्वा ब्राह्मणमग्रतः’ इति महाभारते (१२.३१४.४५-४६) श्रवणमनुज्ञायते। ‘सुगतिमियाच्छ्रवणाच्च शूद्रयोनिः’ इति हरिवंशे (३.६.१०) यः शूद्रः शृणुयात् स सुखमवाप्नुयाद् इति व्यवहितेन सम्बन्धः, त्रैवर्णिकानां कीर्तयेदित्यनेन।” (शांकर-भाष्य)
[65] “कीर्तनस्योच्चोपांशुमानसरूपजपात्मकत्वेन जपस्य च यज्ञरूपत्वात् तत्र शूद्रस्याधिकाराभावादित्यभिप्रेत्याह – श्रवणेनैवेति” (विवृति)
[66] “तथा च स्त्रीशूद्राणामितिहासपुराणगतस्तवपठने नाधिकार इति भावः” (शांकर-भाष्य पर विवृति)
[67] “यत्तु सहस्रनामभाष्ये आचार्यैः ‘शूद्रो यज्ञे नावक्लृप्त’ इति श्रुतेः, ‘शूद्रः सुखमवाप्नुयात्’ इति शूद्रस्य श्रवणेनैव इत्युक्तं तद् ब्रह्मयज्ञाभिप्रायं, न तु काम्यप्रायश्चित्तप्रयोगाद्यभिप्रायं वार्त्तिकविरोधात्।” (श्राद्धप्रदीप)
[68] विप्रोऽधीत्याप्नुयात् प्रज्ञां राजन्योदधिमेखलाम् ।
वैश्यो निधिपतित्वं च शूद्र: शुध्येत पातकात् ॥
(भागवत-पुराण १२.१२.६४)
[69] शिष्येभ्यश्चैव वक्तव्यं चातुर्वर्ण्येभ्य एव हि ।
अध्येतव्यं न चान्येन ब्राह्मणं क्षत्रियं विना ।
(पाठभेद – अध्येतव्यं ब्राह्मणेन वैश्येन क्षत्रियेण च)
श्रोतव्यमेव शूद्रेण नाध्येतव्यं कदाचन ॥
(भविष्यपुराण ब्राह्मपर्व १.७२)
[70] “तथा च ‘श्रावयेच्चतुरो वर्णान् कृत्वा ब्राह्मणमग्रतः’, ‘शूद्रः सुखमवाप्नुयात्’ इत्यादिवचनैरितिहासपुराणश्रवणपठनाधिकापित्वेनावगतस्य शूद्रस्य तच्छ्रवणनियमसंपाद्यमदृष्टं विना लिखितपाठगृहीतवेदान्तादिभिः कथमप्रतिबद्धब्रह्मावगतिसम्भवः। सन्ति हि पुराणेतिहासश्रवणसामान्ये केचन नियमा विशिष्य च पुराणभेदेन भारतपर्वादिभेदेन चान्ये नियमाः।” (न्यायरक्षामणि)
[71] विधाताऽथर्वसर्वस्वमायुर्वेदं प्रकाशयन् ।
स्वनाम्ना संहितां चक्रे लक्षश्लोकमयीमृजुम् ॥
(भावप्रकाश १.१.१.५)
[72] “केन चाधेयय इति ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्रैरायुर्वेदोऽध्येयः।”(काश्यपसंहिता, विमानस्थान १)
[73] “शूद्रमपि कुलगुणसम्पन्नं मन्त्रवर्जमनुपनीतमध्यापयेद् इत्येके।”(सुश्रुतसंहिता, सूत्रस्थान १.२.५)
[74] “शूद्रमपि कुलगुणसंपन्नमित्यादि कुलगुणसंपन्नमिति संपन्नशब्दः कुलगुणाभ्यां प्रत्येकं सवध्यते, कुलसंपन्नमायुर्वेदाध्यायिकुलयुक्तं, गुणसंपन्नं वयःशौचादिशिष्यगुणसंयुक्तम् अनुपनीतं दीक्षारहितम्।”
[75] “शूद्रमपि गुणसंपन्नं मन्त्रवर्जमुपनीयाध्यापयेद् इत्येके”
[76] सन् १७९४ में प्रकाशित जेन्टलमैन्‍स मैगज़ीन (खंड ६४) में रोचक विवरण मिलता है कि एक कुम्हार जाति के वैद्य ने शल्यचिकित्सा के द्वारा अंग्रेज़ों की सेना में किसी बैलगाड़ी चालक की कटी नाक को पुनः जोड़ दिया था। उस समय यह शल्य-प्रक्रिया भारत के शूद्र समुदायों में प्रसिद्ध थी, जबकि यूरोप के लिए यह सर्वथा नवीन खोज थी। २० वीं शताब्दी के केरल के परंपरागत संस्कृत विद्वान् कैक्कुलंगर राम वारियर पारशव जाति के शैव थे। वे आयुर्वेद-समेत अनेक प्राच्य-विद्याओं में निष्णात थे।
[77] “मुखं व्याकरणं स्मृतम्” (पाणिनीय-शिक्षा ४२), “मुखं व्याकरणं प्रोक्तम्” (गर्गसंहिता ७.४४.२३), “मुखं वेदस्य साम्प्रतम्” (नारदपुराण ५२.१)
[78] स्कंदपुराण, प्रभासखंड, प्रभासक्षेत्र-माहात्म्य २८.७०
[79] “यच्च व्याकरणमार्षं पाणिनीयादि तत्स्मृतित्वाद् वेदाङ्गत्वाच्च निषिध्यते। यच्चावैदिकं तन्त्रादि तत्रैव प्राप्नोति वेदानुपकारकत्वेन तत्र विधेरभावात्। ननु साधुभिर्भाषेत न म्लेच्छितवै नापभाषितवै म्लेच्छोह वा एष यदपशब्ज इत्यादिविधिनिषेधार्थवादैः साधुप्रयोगे विहितैतद्विवेकोपायतया विहितं व्याकरणं तदर्थिनं शूद्रमप्यधिकरिष्यतीति चेन्न। यर्वाणस्तर्वाणो नाम बभूवुरिति महाभाष्योक्तेः। ‘स वाग्वज्रो यजमानं हिनस्ती’त्यादिश्रुतेश्च तेषां यज्ञकर्मतोऽन्यत्रापभाषणे दोषाभावात्। न च नमस्कारेण मन्त्रेणेति मूलोक्तेरस्ति तेषामपि यज्ञकर्मेति तत्र साधुभाषणमपेक्षितमिति चेन्न। न दर्भानिति प्रागुक्तस्कान्दप्रभासखण्डस्थवाक्येन शूद्रस्यापि विशेषेण संस्कृतशब्दोच्चारणनिषेधात्। न च संस्कृता गीर्वेद इति वाच्यम्।” (याज्ञवल्क्य-स्मृति १.१२१ की मिताक्षरा टीका पर बालंभट्टी)
[80] “प्राक्चोपनयनादङ्गाध्ययनमनिषिद्धं शिक्षाव्याकरणादि यद् वेदवाक्यैर्न मिश्रितम्। ‘ननु च स्वाध्यायविधिनाऽङ्गान्याक्षिप्यन्ते। तं च विधिमाचार्यप्रयुक्तो माणवकोऽनुतिष्छति। प्रायुपनयनादसत्याचार्ये कुतोऽङ्गाध्ययनसम्भवः?’ नैष दोषः। ‘तस्मादनुशिष्टं पुत्रं लोक्यमाहुरिति’ (बृहदारण्यकोपनिषद् १.५.१७)। पित्राऽयं संस्कर्तव्यः। स एव प्रागुपनयनाद् व्याकरणाद्यध्यापयिष्यति।” (मनुस्मृति २.१६८ पर मेधातिथि); “…वेदमिश्रवेदाङ्गाध्ययने अनुपनीतस्य निषेधः” (मनुस्मृति २.१६८ पर गोविंदराज)
[81] “‘अयं ते स्वधर्मः’, ‘इयं वेति कर्तव्यता’, ‘मैवं कार्षीः छान्दसोऽसि’ इति एवमादिव्याकरणलेशज्ञानतया दुन्दुकत्वेन शूद्रा उपदिशन्ति।… ‘पूर्वाह्नकालं नातिक्रामय’ इति ‘क्रियतां दैवं कर्म देवांस्तर्पयोपवीती भव, मा प्राचीनावीतं कार्षीः’  इति… (मनुस्मृति ८.२७२ की टीका में मेधातिथि)
[82] “अत एव वैदिकस्य व्याकरणस्य संस्कृतशब्दात्मकत्वात्सिद्धमनध्येयत्वम्” (शूद्राचारशिरोमणि)
[83] “यच्चावैदिकं तत् तु नित्यमेवाप्राप्तं वेदानुपकारकत्वेन तत्र विधेरभावात्” (शूद्राचारशिरोमणि)
[84] “‘नोच्चरेत् प्रणवं मन्त्रं न पठेद् वेदवचनमिति’ पृथक् निषेधात्। एवं च नापभाषितवा इति निषेधः स्त्रीशूद्रेतरविषयः। अत एवावैदिकस्यापि व्याकरणस्य संस्कृतशब्दात्मकत्वात् सिद्धमध्येयत्वम्।” (याज्ञवल्क्य-स्मृति १.१२१ की मिताक्षरा टीका पर बालंभट्टी)
[85] “तत्र शब्दज्ञानरूपे प्रयोजन उक्ते विषयोऽप्युक्त एव शास्त्रजन्यज्ञानविषयस्यैव शास्त्रविषयत्वाद् इति बोध्यम्। तज्जिज्ञासुरधिकारी…।”(महाभाष्य १.१.१ पर नागोजिभट्ट-प्रणीत उद्द्योत टीका); “शब्दाश्चात्र विषयीभूताः…व्युत्पित्सुरधिकारी” (सारस्वतव्याकरण पर वासुदेव की टीका)
[86] “अधिकारिणश्च सन्त्येव न्यायकाङ्क्षिणः सन्दिग्धादिविशेषाः येषामप्युक्तिमात्रादध्यात्मशास्त्रार्थनिश्चये सति विप्रतिपत्तिं शृण्वतामपि कुतश्चिन्निमित्तात् सन्देहो न भवति तेषामपीदं शास्त्रं श्रोतुं युक्तं परानुग्रहार्थं स्वनिश्चयपालनार्थं च।” (भासर्वज्ञ, न्यायभूषण); “अथवा यतः शुश्रूषवः श्रेयोऽर्थिनः श्रवणादिपटवोऽनसूयकाश्चान्तेवासिन उपसेदुः -।” (उदयन, पदार्थधर्मसंग्रह-टीका); “तत्त्वज्ञानं मोक्षसाधनं प्रयोजनम्। तत्कामोऽधिकारी।” (चिन्नम्भट्ट, तर्कभाषाटीका); “एतेन पदार्थतत्त्वं विषयः। तत्त्वज्ञानं प्रयोजनम्। साध्यसाधनभावः सम्बन्धः। मुमुक्षुरधिकारीति-।” (मल्लिनाथ, तार्किकरक्षाटीका); “अत्र मोक्षो मुख्यं प्रयोजनं। व्युत्पत्तिरवन्तरप्रयोजनं। प्रयोजनकामो मुमुक्षुः परमोऽधिकारी। अवान्तरो व्युत्पिसुरित्यनुबन्धचतुष्टयो बोध्याः।” (यादवाचार्य, न्यायसिद्धांतमंजरी-टीका); “पदार्थतत्त्वावधारणकामोऽधिकारी।” (दिनकरभट्ट, न्यायसिद्धांतमुक्तावली-टीका); “अधिकारी चात्रावान्तरो व्युत्पित्सुः परमो मुमुक्षुः।” (गोवर्धनमिश्र, तर्कभाषा-टीका); “यमर्थमधिकृत्य पुरुषः प्रवर्त्तते तत्प्रयोजनम्। तच्च मुख्यं गौणं चेति द्विधा। इतरेच्छानधीनेच्छाविषयः मुख्यम्। यथात्र मोक्षः। मुख्यप्रयोजनेच्छाधीनेच्छाविषयः गौणम्। यथा पदार्थज्ञानम्। द्विविधप्रयोजनप्राप्तिकामः अधिकारी।” (गंगासहाय, न्यायप्रदीप);
https://satyan-sharma.medium.com/who-is-eligible-to-study-the-ny%C4%81ya-and-vai%C5%9Be%E1%B9%A3ika-%C5%9B%C4%81stras-a-look-into-the-textual-sources-c7ec9bbd8682
[87] “परमकारुणिको हि मुनिर्जगदेव दुःखपङ्कमग्नमुद्दिधीर्षुः शास्त्रं प्रणीतवान्। तत्र यदि कश्चिन्न प्रवर्तेत किमायातं शास्त्रस्य। न वाऽनधिकृतव्युत्पादनेनास्य तपोनिधेः कश्चिद् दोषः।” (वाचस्पति मिश्र प्रथम, न्यायवार्त्तिकतात्पर्यटीका)
[88] “सत्यं किन्त्वनुमानमप्यागमविरोधेनानुसन्धीयमानमर्थनिश्चायकं न तु विरुद्धमपि। यदाह “यत्तु प्रत्यक्षागमविरुद्धं न्यायाभासः स” इति। स चागमविरोधादविरोधनिश्चयस्तदर्थनिश्चयाधीनः, तत्र चानधिकृत एवायम्…तस्मादगमैकवाक्यतया प्रवृत्ते शास्त्रे तदधिकार्येवाऽधिकारीति शूद्रादयोऽनधिकृता एव, अतो यावदधिकारिपरोऽयं जगच्छब्द इति केचित् तत्राह परमकारुणिको हीत्यादि। सन्त्येव केचित् करुणार्द्रमनसो येषां जगदेव मित्रम्, अन्यथा “भूतेभ्योऽभयं दत्त्वेति” विधिवैयर्थ्यप्रसङ्गः, निष्कारणमेव हि परदुःखप्रहाणेच्छा कारुण्यं, सा च यथैकं दुःखितं पश्यतो भवति तथा जगदपि दुःखितं पश्यतः किं न स्यात्। भवति चेत् तत्प्रहाणोपायप्रवृत्तौ का नामानुपपत्तिः।…। तत्र यदि कश्चिदिति। न हि रोगी मन्दभाग्यतया चरकाद्युपदेशे न प्रवर्तेत इति तदर्थता तस्य निवर्तत इत्यर्थः। तर्हि महाजनो येन गतः स पन्था इति न्यायेन वयमप्यनधिकृतान् व्युत्पादयाम इत्यत आह। न चेति।” (उदयन, न्यायवार्त्तिकतात्पर्यपरिशुद्धि-टीका, त्रिसूत्रीप्रकरण, सुत्र १)
[89] “तथापि प्रतिसन्धीयमानमपि मननलक्षणमनुमानमागमाविरोधेन पारमार्थिकेनार्थनिश्चायकम्। स चात्र नास्ति, प्रत्यक्षश्रुतिविरोधात्। तस्मादत्र ब्राह्मण एवाधिक्रियते।” (वाचस्पति मिश्र द्वितीय, न्यायतत्त्वालोक, अधिकारिनिर्णय)
[90] “करुणार्द्रान्तःकरणतया मुनिरनधिकारिण्याप्युपदिशति चिकित्सापराङ्मुखानिव चरकादिरिति सर्वं सुस्थम्। न चानधिकृतान् शूद्रादीन् व्युत्पादयन् मुनिः प्रत्यवेयात्। तस्य क्षीणदोषतया तदनुत्पादात्। उत्पादेऽपि वा तपःप्रभावेण तदपगमात्। (वाचस्पति मिश्र द्वितीय, न्यायतत्त्वालोक, अधिकारिनिर्णय)
[91] “ननु निखिललोकान्तर्गतानां शूद्राणामध्यापने ग्रन्थकर्त्तुर्मुनेश्च प्रत्यवायः स्याद् गुरुनिगदितशब्दप्रयोज्यार्थज्ञानमध्ययनं तत्प्रयोजकत्वं चोभयोरस्त्येवेति चेन्न। अध्यापकत्वस्य तच्छरीरावच्छिन्नोद्देश्यकशब्दप्रयोक्तृत्वरूपत्वात्। अत एव चैत्रमुद्दिश्य गुरुणा अध्यापने विधीयमाने उदासीनमैत्रेण श्रवणे मैत्रस्य नाध्ययनकर्तृत्वव्यवहारः। न च ग्रन्थस्य निखिलोद्देश्यत्वे शूद्रोद्देश्यता केन वार्येति वाच्यम्। शूद्रोपलक्षितात्मनोऽपि ब्राह्मणशरीरपरिग्रहदशायामुदेश्यतायाः सत्त्वात् इति सङ्क्षेपः। तदुक्तं प्रत्यक्षदीधितौ शिरोमणिभट्टाचार्य्यैः उद्देश्यता तु कीटपतङ्गानामपीति।” (यादवाचार्य, न्यायसिद्धांतमंजरी-टीका)
[92] “यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः। ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय च।” (शुक्ल-यजुर्वेद २६.२)
[93] “दीयतां भुज्यताम्”
[94] इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपबृंहयेत्।
बिभेत्यल्पश्रुताद्वेदो मामयं प्रहरिष्यति॥
(पद्मपुराण १.२.५२)
[95] वर्णाश्चत्वार एते हि येषां ब्राह्मी सरस्वती ।
विहिता ब्रह्मणा पूर्वं लोभात्त्वज्ञानतां गताः ॥
(महाभारत १२.१८१.१५)
[96] ब्राह्मणा ब्रह्मतन्त्रस्थास्तपस्तेषां न नश्यति।
ब्रह्म धारयतां नित्यं व्रतानि नियमांस्तथा॥
(महाभारत दाक्षिणात्य-पाठ १२.१८६.१६)
समीक्षित संस्करण में “ब्राह्मणा धर्मतन्त्रस्थाः” पाठ है।
[97] महाभारत १३.६८.५
[98] ज्ञानयज्ञोडुपेनैव ब्राह्मणो वाऽन्त्यजोऽपि वा ।
संसारसागरं तीर्त्वा मुक्तिपारं हि गच्छति ॥
(सूतसंहिता ४.१०.६६)
[99] “अपशब्दप्रयोगश्च ज्ञानानुत्पत्तिकारणम्” (सूतसंहिता ३.६.२२)
[100] “म्लेच्छो ह वा एष यदपशब्दः” (महाभाष्य १.२.७)
[101] “न ब्राह्मणो म्लेच्छेत्” (माध्यन्दिन-शतपथब्राह्मण ३.२.१.२४), “ब्राह्मणेन न म्लेच्छितव्यम्” (काण्व-शतपथब्राह्मण ४.२.१.१८), “ब्राह्मणो न म्लेच्छितवै नापभाषितवै” (महाभाष्य १.२.७)
[102] “न म्लेच्छभाषां शिक्षेत” (वसिष्ठधर्मसूत्र ६.४१)
न वदेद्यावनीं भाषां प्राणैः कण्ठगतैरपि ।
गजैरापीडयमानोऽपि न गच्छेज्जैनमन्दिरम् ॥
(भविष्यपुराण, प्रतिसर्गपर्व, ३.२८.५३)
[103] शब्दः संस्कारहीनो यो गौरिति प्रयुयुक्षिते ।
तमपभ्रंशमिच्छन्ति विशिष्टार्थनिवेशिनम् ॥
(वाक्यपदीय १.१४८)
महाभाष्य (१.१.१) के काल में एक ही संस्कृत शब्द “गो” के “गावी”, “गोणी”, “गोता”, और “गोपोतलिका” जैसे अनेक अपभ्रंश शब्द प्रचलित थे।
[104] भविष्यपुराण, प्रतिसर्ग पर्व २१.१५-१६
[105] “इति पुराणवचनैर्यवनानामपि संस्कृतपाठनमार्य्यत्वनिर्माणं च दृश्यते इति, तदपि न, भावानवबोधात्। तत्र हि मिश्रशब्देन यत्र चातुर्वर्ण्यं स्पष्टं नासीत् तस्य भारतीयप्रदेशविशेषस्यैव ग्रहणम्। म्लेच्छशब्देन चाव्यक्तवाचो भारतीया एव। कण्वादिभिस्तेषामेव शोधनं कृतम्। ‘म्लेच्छ् अव्यक्तायां वाचि’ (चुरादि) अस्फुटे अपशब्दे च (भ्वादि) इति रीत्या अपशब्दभाषणमेव म्लेच्छत्वप्रयोजनम्।” (हिंदी अनुवाद मेरा)
[106] श्रद्दधानः शुभां विद्यामाददीतावरादपि ।
अन्यादपि परं धर्मं स्त्रीरत्नं दुष्कुलादपि ॥
(मनुस्मृति २.२३८)
[107] “न चैवं मन्तव्यमुपाध्यायवचनं मया कर्तव्यं धिक् चाण्डालं यो मां नियुङ्क्त इति”
[108] ऊर्जाद उत यज्ञियासः पञ्च जना मम होत्रं जुषध्वम् (ऋग्वेद १०.५३.४); “हे पञ्चजनाः मनुष्याः निषादपञ्चमा वर्णा मम इदं होत्रं जुषध्वम् अनुगृहीध्वम्” (निरुक्त ३.२.२ पर देवराजयज्वा की टीका); “एतयैवावृता निषादस्थपतिं याजयेत्” (आपस्तंब-श्रौतसूत्र ९.१२); “स्थपतिर् निषादः स्याच् छब्दसामर्थ्यात्” (मीमांसा-सूत्र ६.१.५१)
[109] “वसन्ते ब्राह्मणोऽग्निमादधीत ग्रीष्मे राजन्यः शरदि वैश्यो वर्षासु रथकारः” (बौधायन-श्रौतसूत्र २४.१६); “वचनाद् रथकारस्याधानेऽस्य सर्वशेषत्वात्” (मीमांसा-सूत्र ६.१.४४)
[110] “शूद्राणामार्याधिष्ठितानामर्धमासि मासि वा वपनम्” (बौधायन-धर्मसूत्र १.५.१०.२०)
[111] “आर्याधिष्ठिता आर्याच्छास्त्रादिशुश्रूषवः” (गोविंदस्वामी)
[112] “शूद्रेभ्यः शास्त्रव्याख्यानम्” (मनुस्मृति १२.३६ पर मेधातिथि की टीका)
[113] “आर्याधिष्ठिता वा शूद्राः संस्कर्तारः स्युः” (आपस्तंब-धर्मसूत्र २.२.३)
[114] न तु प्राकृतभाषा सा विहिता वा कदाचन ।
शूद्रशब्देनात्र परं ये सन्तो द्विजसंश्रयाः ॥
तेषामपि विशेषेण महनीयमपूर्वकम् ।
नित्यक्षुरविधानेन तत्कालस्नानचोदनात् ॥
सिद्धादिमन्त्रविधिना प्रत्युक्तिप्रतिपादने ।
तन्माक्षायीत्यस्य परं परिज्ञानस्य तस्य वै ॥
अत्यन्तावश्यकत्वेन न गृह्यन्तेऽत्र तादृशाः ॥
(मार्कण्डेय-स्मृति, आहिताग्निपत्नीनां प्राकृतभाषानिषेधः)
[115] “इमेऽरात्सुरित्यादि। इमे सत्रिणः अरात्सुः ऋद्धा अभूवन्। यत एव इमे सुभूतं सुभिक्षं शोभनान्नं अक्रन् अकार्षुः अत एव इमेऽरात्सुरिति। अक्रन्निति कृञो लुङि ‘मन्त्रे घस’ इति च्लेर्लुक्। इति एवं अन्यतरो ब्राह्मणो ब्रूयात् प्रशंसेत्।” (भट्टभास्कर); “इमे यजमानाः समृद्धिं गताः शोभनं कर्म कृतवन्त इति।” (सायण)
[116] “अथ अन्यतरः शूद्रजातीयः इमे उद्वासीकारिणः उद्वासनमुद्वासिः ‘इजादिभ्यः’ इतीन्प्रत्ययः। तस्य कर्तारः प्रजानां स्वदेशादुद्वासयितारः। छान्दसं दीर्घत्वम्। यत एव इमे दुर्भूतं दुर्भिक्षं दुर्लभान्नं अक्रन् तस्मादिमे उद्वासीकारिण इत्यन्यतरः शूद्रो ब्रूयात् आक्रोशेत्। निरुदकादित्वात् सुभूतदुर्भूतयोरुत्तरपदान्तोदात्तत्वम्। यद्वा – गतिसमासे कृदुत्तरपदप्रकृतिस्वरत्वम्।” (भट्टभास्कर); “इमे यजमाना कर्मव्याजेन धनहानिं कृत्वा देशमेतमुद्वासं निवासशून्यं कुर्वन्ति। तस्मादिमे दुर्व्यापारं कृतवन्त इति।” (सायण)
[117] तद्भिन्ना अत्र सङ्ग्राह्यास्तादृशानां विशेषतः ।
भाषाकृतं तदाभासशास्त्रं तच्छिल्पिभिः कृतम् ॥
विनियुक्तनृत्तगीतपटुचाटुसमं यथा ।
तच्छास्त्रवाक्यमवशात्सत्कर्मणि परस्य वा ॥
स्वस्य वा गलितं वेत्तु मुखतो नाशमेति तत् ।
एवं सत्यस्य तु च्छायाः प्राकृतायास्तथाविधे ॥
(मार्कण्डेय-स्मृति, आहिताग्निपत्नीनां प्राकृतभाषानिषेधः)
[118] “निराशिषमिति संन्यासं विहाय त्रयोऽप्याश्रमा भवन्तीत्यर्थः। ब्रह्मचारित्वे च भैक्षचर्या न कार्या। अन्ये त्वपि तु शुद्धा आश्रमान्तरधर्मा अनुष्ठेयाः।” (शूद्राचारशिरोमणि)
[119] शुश्रूषाकृतकृत्यस्य कृतसंतानकर्मणः ।
अभ्यनुज्ञाप्य राजानं शूद्रस्य जगतीपते ॥
अल्पान्तरगतस्यापि दशधर्मगतस्य वा ।
आश्रमा विहिताः सर्वे वर्जयित्वा निराशिषम् ॥
भैक्षचर्यां न तु प्राहुस्तस्य तद्धर्मचारिणः ।
तथा वैश्यस्य राजेन्द्र राजपुत्रस्य चैव हि ॥
(महाभारत १२.६३.१२-१४)
[120] “शूद्रस्य ब्रह्मचर्यं च मुनिभिः कैश्चिदिष्यते” (योगयाज्ञवल्क्य १.३६)
[121] “संस्कृत की शिक्षा, एक सीमा तक, स्थानीय समाज के उन सभी वर्गों के लिए खुली थी जिनमें रुचि, अवकाश और पर्याप्त साधन हों। परंतु उस सीमा से आगे यह केवल ब्राह्मणों तक ही सीमित थी। निम्न जातियों को व्याकरण और कोशविद्या, काव्य और नाट्य साहित्य, अलंकारशास्त्र, ज्योतिष और आयुर्वेद का अध्ययन करने की अनुमति थी; किंतु न्याय, षड् दर्शन, और धार्मिक पौराणिक काव्य केवल ब्राह्मण जाति की विशिष्ट धरोहर मानी जाती थीं।” (बंगाल में शिक्षा की स्थिति पर तीसरी रिपोर्ट, कलकत्ता, १८३८, पृष्ठ ५९–६०, अनुवाद मेरा)
[122] “इस जनपद में कुल ५८ विद्यालय हैं, जिनमें ४०९ बालक अध्ययनरत हैं; केवल परगना बिठूर में १८ विद्यालय हैं, जिनमें से १३ बिठूर नगर में स्थित हैं। ये विद्यालय मराठा बच्चों के शिक्षण हेतु हैं, जिनके माता-पिता या तो पेशवा की जागीर में रहते हैं या वहाँ के सेवक हैं।” (कानपुर जनपद की सांख्यिकीय रिपोर्ट, जून १८४८, (परिशिष्ट संख्या ८, कानपुर जिले में शिक्षा की स्थिति पर प्रतिवेदन), अनुवाद मेरा)
[123] “जहाँ तक व्याकरण, शब्दकोशविज्ञान, अलंकारशास्त्र, नाटक और अन्य सभी लौकिक साहित्य (विधि और दर्शन नहीं) का प्रश्न है, शूद्रों को इन विषयों का अध्ययन करने की अनुमति सदा रही है।”(विलय के बाद और १८८२ में पंजाब में देशी शिक्षा का इतिहास, पृष्ठ ८०, अनुवाद मेरा)
[124] “विधि और षड् दर्शनों का अध्ययन, जो ब्राह्मण जाति की विशिष्ट धरोहर मानी जाती थी, अब उपेक्षित हो गया है, जबकि व्याकरण, शब्दकोश-विज्ञान, काव्य और नाट्य साहित्य, अलंकारशास्त्र, ज्योतिष और आयुर्वेद, जिनका शूद्रों को भी अध्ययन करने की अनुमति थी, अब उसी जाति द्वारा एकाधिकार में ले लिए गए हैं।” (बंगाल प्रेसीडेंसी के उत्तर-पश्चिमी प्रांतों में सार्वजनिक शिक्षा पर सामान्य रिपोर्ट, परिशिष्ट १, पृष्ठ ६८, अनुवाद मेरा)
[125] “सा निष्ठा या विद्या स्त्रीषु शूद्रेषु च” (आपस्तंब-धर्मसूत्र २.११.२९.११)
[126] “स्त्रीषु शूद्रेषु च या विद्या सा निष्ठा समाप्तिस्तस्यामप्यधिगतायां विद्याकर्म परितिष्ठतीति” (हरदत्त-टीका)। मनुस्मृति (२.१६८) के अनुसार वेदों का अध्ययन करने के पश्चात् ही किसी द्विज को अन्य शास्त्रों में परिश्रम करना चाहिए-
योऽनधीत्य द्विजो वेदमन्यत्र कुरुते श्रमम् ।
स जीवन्नेव शूद्रत्वमाशु गच्छति सान्वयः ॥
[127] “आथर्वणस्य वेदस्य शेष इत्युपदिशन्ति” (आपस्तंब-धर्मसूत्र २.११.२९.१२); “अथर्वणा प्रोक्तमधीयते ये ते आथर्वणिकाः। वसन्तादिभ्यष्ठक्। तेषां समाम्नायः। ‘आथर्वणिकस्येकलोपश्च’ आथर्वणः। तस्य वेदस्य शेष इत्युपदिशन्ति धर्मज्ञाः – या विद्या स्त्रीषु शूद्रेषु चेति।” (हरदत्त-टीका)
[128] अङ्गानि वेदाश्चत्वारो मीमांसा न्यायविस्तरः।
पुराणं धर्मशास्त्रं च विद्या ह्येताश्चतुर्दश॥
आयुर्वेदो धनुर्वेदो गान्धर्वश्चेति ते त्रयः।
अर्थशास्त्रं चतुर्थं च विद्या ह्यष्टादशैव ताः॥
(महाभारत १२.१२२.३१-३२)
[129] आयुर्वेदं धनुर्वेदं गान्धर्वं वेदमात्मनः ।
स्थापत्यं चासृजद्वेदं क्रमात्पूर्वादिभिर्मुखैः ॥
(भागवत-पुराण ३.१२.३८)
[130] विविधोपास्यमन्त्राणां प्रयोगाः सुविभेदतः ।
कथिताः सोपसंहारास्तद्धर्मनियमैश्च षट्‍ ॥
अथर्वणां चोपवेदस्तन्त्ररुपः स एव हि ।
(शुक्रनीति ४.३.३९-४०)
[131] यत् तेषां च प्रियं तत् ते वक्ष्यामि द्विजसत्तम ।
नमस्कृत्वा ब्राह्मणेभ्यो ब्राह्मीं विद्यां निबोध मे ॥
(महाभारत ३.२०१.१४)
[132] भृतकाध्यापको यश्च भृतकाध्यापितस्तथा ।
शूद्रशिष्यो गुरुश्चैव वाग्दुष्टः कुण्डगोलकौ ॥
(मनुस्मृति ३.१५६)
[133] विद्या शिल्पं भृतिः सेवा गोरक्ष्यं विपणिः कृषिः ।
धृतिर्भैक्षं कुसीदं च दश जीवनहेतवः ॥
(मनुस्मृति १०.११६)
कृषिः शिल्पं भृतिर्विद्या कुसीदं शकटं गिरिः ।
सेवानूपं नृपो भैक्षमापत्तौ जीवनानि तु ॥
(याज्ञवल्क्य-स्मृति ३.४२)
“सर्वपुरुषाणामापदि वृत्तिरियमनुज्ञायते तत्र विद्या वेदविद्याव्यतिरेकेण वैद्यकतर्कभूतविषासनविद्या सर्वेषां जीवनार्था न दुष्यति…” (मेधातिथि)
[134] विद्याकर्मवयोबन्धुवित्तैर्मान्या यथाक्रमम् ।
एतैः प्रभूतैः शूद्रोऽपि वार्धके मानमर्हति ॥
(याज्ञवल्क्य-स्मृति १.११३)
अर्थात् “विद्या, कर्म, वय, परिवार और धन — क्रमशः इन पाँचों के कारण मनुष्य सम्मान के योग्य होता है। यदि ये सभी गुण प्रचुर मात्रा में किसी शूद्र में भी हों, तो वृद्धावस्था में वह सम्मान पाने का अधिकारी होता है।”
[135] पुराणन्यायमीमांसाधर्मशास्त्राङ्गमिश्रिताः ।
वेदाः स्थानानि विद्यानां धर्मस्य च चतुर्दश ॥
(याज्ञवल्क्य-स्मृति १.३)
अङ्गानि वेदाश्चत्वारो मीमांसा न्यायविस्तरः।
पुराणं धर्मशास्त्रं च विद्या ह्येताश्चतुर्दश॥
आयुर्वेदो धनुर्वेदो गान्धर्वश्चेति ते त्रयः।
अर्थशास्त्रं चतुर्थं च विद्या ह्यष्टादशैव ताः॥
(महाभारत, १२.१२२.३१-३२)
चतुर्दश विद्याओं में चार वेद, छह वेदांग (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष, छंद), मीमांसा, न्याय, पुराण, और धर्मशास्त्र सम्मिलित हैं। इनमें चार उपवेद (आयुर्वेद, धनुर्वेद, गांधर्ववेद, अर्थशास्त्र) जोड़ देने से अष्टादश विद्याएँ प्राप्त होती हैं।
[136] “दृश्यन्ते च क्वचित् शूद्रा अपि वेदव्याकरणमीमांसासांख्यवैशेषिकलग्नाजीवकादिसर्वशास्त्रविदः। न च ते ब्राह्मणाः स्युः।” (वज्रसूची १३)
[137] म्लेच्छा हि यवनास्तेषु सम्यक् शास्त्रमिदं स्थितम् ।
ऋषिवत् तेऽपि पूज्यन्ते किं पुनर्दैवविद् द्विजः ॥
(बृहत्संहिता २.१४)
[138] “दृश्यन्ते हि क्षत्रियवैश्यशूद्रा यजनयाजनाध्यापनदानप्रतिग्रहप्रसङ्गविविधानि कर्माणि कुर्वन्तो न च ते ब्राह्मणा भवतां सम्मताः” (वज्रसूची १५)
[139] https://satyan-sharma.medium.com/lest-we-forget-sanskritists-situated-at-the-bottom-of-caste-hierarchy-ac2c29159da9
[140] वक्रोक्त्या भर्तृमेण्ठस्य वहन्त्या सृणिरूपताम्।
आविद्धा इव धून्वन्ति मूर्धानं कविकुञ्जराः॥
[141] बभूव वल्मीकभवः कविः पुरा
ततः प्रपेदे भुवि भर्तृमेण्ठताम्।
स्थितः पुनर्यो भवभूतिरेखया
स वर्तते सम्प्रति राजशेखरः॥
(बालरामायण १.१६)
[142] अहो प्रभावो वाग्देव्या यन्मातङ्गदिवाकरः ।
श्रीहर्षस्याभवत् सभ्यः समो बाणमयूरयोः ॥|
पाठभेद – “यच्चण्डालदिवाकरः”
[143] “विश्वप्रख्यातनाडिन्धमकुलतिलको विश्वकर्मा द्वितीयः” (पीटर पीटर्सन और पंडित दुर्गाप्रसाद द्वारा संपादित सुभाषितावलि की भूमिका में उद्धृत)
[144] “शूद्रेण कविचन्द्रेण विलिख्य परिशोधितम्”
[145] Pawde, Kumud. “The Story of My ‘Sanskrit.’” In Subject to Change: Teaching Literature in the Nineties, edited by Susie J. Tharu, 85–97. Bombay: Orient Longman, 1992. Originally from Poisoned Bread, edited by Arjun Dangle.
[146] “न संशये प्रत्यक्षवद् ब्रूयात्” (आपस्तंब-धर्मसूत्र २.५.१२.१)
[147] ‪युक्तियुक्तं वचो ग्राह्यं बालादपि शुकादपि ।
‪अयुक्तमपि न ग्राह्यं साक्षादपि बृहस्पतेः ॥
पाठभेद – “युक्तिहीनं वचस्त्याज्यं वृद्धादपि शुकादपि”, “अयौक्तिकं तु सन्त्याज्यमप्युक्तं पद्मयोनिना”
148] धर्मेप्सवस्तु धर्मज्ञाः सतां वृत्तमनुष्ठिताः।
मन्त्रवर्जं न दुष्यन्ति प्रशंसां प्राप्नुवन्ति च॥
(मनुस्मृति १०.४५)

 

बिहार में जन्मे कुशाग्र अनिकेत न्यू यॉर्क, अमेरिका में अर्थशास्त्र और प्रबंधन-विशेषज्ञ के रूप में कार्यरत हैं। कुशाग्र ने अर्थशास्त्र, गणित, और सांख्यिकी में स्नातक की शिक्षा न्यू यॉर्क के कॉर्नेल विश्वविद्यालय से पूरी की, जहाँ उन्हें विश्वविद्यालय के सर्वोच्च अकादमीय सम्मान से पुरस्कृत किया गया। तत्पश्चात् वे कोलंबिया विश्वविद्यालय से प्रबंधन-शास्त्र (MBA) में सर्वोच्च सम्मान से उत्तीर्ण हुए।

कुशाग्र तीन भाषाओं (अंग्रेज़ी, हिंदी, एवं संस्कृत) में अपने गद्य और पद्य लेखन के लिए भारत और सयुंक्त-राज्य में अनेक पुरस्कारों से सम्मानित हो चुके हैं। उन्होंने नित्यानंद मिश्र के सह-लेखन में Krishna-Niti: Timeless Strategic Wisdom (२०२४) नाम की चर्चित पुस्तक लिखी है। सम्प्रति वे भारतीय शिलालेखीय साहित्य पर शोध कर रहे हैं।
ka337@cornell.edu

Tags: 2025कुशाग्र अनिकेतक्या शूद्रों को संस्कृत पढ़ने का अधिकार थासंस्कृत के शूद्र विद्वान
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Comments 9

  1. PRAVEEN PANDYA says:
    2 months ago

    अनिकेत जी का सारस्वत श्रम और अभिनिवेश अभिनंदनीय हैं। धर्मशास्त्र के हृदय को जानने हेतु जिस प्रकार की दृष्टि और जिस तरह का अध्यवसाय चाहिए, वे दोनों इस निबंध में हैं। जो वैदुष्य सत्यानुसंधान के साथ शास्त्रार्थ करें, उसीमें साधुत्व प्रतिष्ठित होता है। वही मनुष्य का सर्वविध उत्कर्ष साध सकता है।

    Reply
  2. Sawai Singh Shekhawat says:
    2 months ago

    सांगोपांग अध्ययन-मनन के बाद लिखा तथ्यात्मक और तार्किक आलेख।हर उस शख़्श को इसे अवश्य पढ़ना चाहिए जो अन्त्यजों को संस्कृत शिक्षा के न पढ़ने के प्रबल पैरोकार रहे हैं।साहित्य और संस्क्रति के कुहासे को विच्छिन्न करने वाले ऐसे लेख और लिखे जाने चाहिएँ।

    Reply
  3. Rakesh Mishra says:
    2 months ago

    विस्तृत आलेख है । धर्मग्रंथों से शूद्रों के द्वारा व्यवहारित संस्कृत निष्ट आचरण के भरपूर उद्धरण हैं । परंतु स्वामी करपात्री जी के कथन का उल्लेख स्रोत सहित सर्वप्रथम करना चाहिए था । वैसे भी मेरे मत में शास्त्रों की बातों का तत्कालीन देश समाज से अलग करके नहीं देखा जाना चाहिए । वैसे ही जैसे इस बात पर आश्चर्य होता है कि मताधिकार कैसे वर्ण और लिंग आधारित था । आलेख के लिए साधुवाद ।

    Reply
  4. Ravi Pratap says:
    2 months ago

    This is a very well written article. I too had noticed these issues with Karpatri ji’s references and arguments before as well.

    Reply
  5. Rudra Srivastava says:
    2 months ago

    Congratulations for a good theme well presented in the article with copious illustrations and references addressing an important and contentious issue!

    Reply
  6. Prakhar Bhatnagar says:
    2 months ago

    Very well written

    Reply
  7. Yuvraj Bhogaonkar says:
    2 months ago

    नमस्कार अनिकेत जी ,
    आपका संपूर्ण लेख बहुत अभ्यासपूर्ण है । यह बातें शायद ही बहुत कम लोगों को पता हो और यदि पता भी हो तो भी वे इन बातों को उजागर करना पसंद नहीं करते । यह विषय बहुत ही संवेदनशील होने के साथ साथ जिन लोगों को हजारों वर्षों तक संस्कृत से वंचित रखा गया उन लोगों के लिये यह लेख प्रेरक मात्र है । जो शूद्र कुल में उत्पन्न संस्कृत विद्वान् है उनके नाम अब तक किसी को पता भी नहीं थे । पर आपके कारण इतनी दुर्लभ जानकारी समाज को मिली है । इस के लिये सारा संस्कृत सीखने वला वर्ग और मैं आपके सदैव ऋणी रहेंगे । आपको अनेकानेक साधुवाद और अग्रिम संशोधन के लिये शुभकामनायें ।

    Reply
  8. Satyan Sharma says:
    2 months ago

    संस्कृत भाषा और शिक्षा का अधिकार सीमित था या विस्तृत, इस प्रश्न पर यह शोध पर्याप्त प्रकाश डाल चुका है। बड़े बड़े तथाकथित विद्वान्, जिनकी पुस्तकें विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती हैं, उनकी इन तथ्यों पर चुप्पी और विपरीत-कथनों से बहुत हानि हुई है। शूद्र वर्ण से सम्बन्ध रखने वाले कितने ही विद्वानों के योगदान की बात तक नहीं की गई, या करने नहीं दी गई, सम्भवतः इस भय से कि कहीं उन सुनी सुनाई बातों की सच्चाई बाहर न आ जाए। इस शोध के प्रकाशित होने से, ये तथ्य जानने सुलभ हो गए हैं। शोध और संकलन के लिए श्री कुशाग्र अनिकेत को साधुवाद।

    Reply
  9. प्रीतम कुमार says:
    2 months ago

    बहुत विस्तृत आलेख है। मैं अभी पूरा नहीं पढ़ पाया हूं। प्राचीन भारतीय समाज और समकालीन साहित्य का बहुत की गहन अध्ययन व विश्लेषण के बाद इसे तैयार किया है। कुशाग्र अनिकेत सर को इस हेतु बहुत ही आभार व प्रणाम।

    Reply

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