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Home » सैयद हैदर रज़ा : पवन करण

सैयद हैदर रज़ा : पवन करण

रज़ा की कलाकृतियों को देखना ही नहीं, उनके बारे में पढ़ना भी सम्मोहक अनुभव है. यशोधरा डालमिया की ‘सैयद हैदर रज़ा: एक अप्रतिम कलाकार की यात्रा’ ऐसी ही किताब है, जिसका हिंदी अनुवाद मदन सोनी ने किया है. इस पुस्तक की चर्चा कर रहे हैं कवि पवन करण.

by arun dev
August 13, 2025
in पेंटिंग, समीक्षा
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सैयद हैदर रज़ा : पवन करण
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रज़ा के संग
पवन करण

मैं कुछ दिन से रज़ा के साथ जी रहा था. जब भी वक्त मिलता अपने जीवन से निकलकर रज़ा के जीवन में घुस जाता. अंग्रेजी में यशोधारा डालमिया द्वारा लिखित और हिंदी में मदन सोनी द्वारा अनूदित ‘सैयद हैदर रज़ा : एक अप्रतिम कलाकार की यात्रा’ किताब पढ़कर पूरी हुई तो भाव यह बना कि जैसे प्रत्यक्ष रज़ा का साथ छूट गया और अप्रत्यक्ष उनका साथ छूट जाने की रिक्तता साथ है. यह ऐसा अनुभव है जिसे मैं बची हुई स्मृति नहीं, छूटा हुआ साथ ही मानूँगा. संभव है इस किताब को पढ़कर मेरी तरह कोई या कई और भी यह कहें. कमाल की किताब है कि पढ़ना प्रारंभ करते ही आपको आपके पाठक होने से बाहर निकलकर रज़ा के साथ, रज़ा के जीवन में खड़ा कर देती है. जहाँ आप रज़ा को रचते-बनते-मिटते-बचते देख सकते हैं. मगर रज़ा आपको नहीं देख सकते. आप रज़ा को कहते तो सुन सकते हैं मगर आप रज़ा से कुछ कह नहीं सकते. किसी बात या काम पर उन्हें टोक नहीं सकते.  कुछ कहने के लिए आपको इस किताब से बाहर आना होगा जैसे इस पुस्तक के आखिरी पृष्ठ से होता मैं बाहर आ गया और अपनी बात कह रहा हूँ. बाहर आने के अलावा कोई विकल्प भी न था. रज़ा की तरह आखिर एक दिन जीवन से बाहर सभी को आना है. किताब की तरह जीवन का आखिरी पृष्ठ आपको भी बाहर धकेल ही देगा. मगर यह रज़ा हैं जो जीवन से निकलकर पुस्तक में जीवन पा लेते हैं. वह भी अकेले नहीं हमें साथ जोड़ते हुए.

रज़ा के जीवन में पहुँचकर आप रज़ा को अपनी कलाकार प्रेमिका जानीन मोंजिला को प्रेम-पत्र लिखते हुए ही नहीं देख सकते बल्कि उनका लिखा जाता एक-एक शब्द बांच भी सकते है मगर आप उन्हें भारत विभाजन के पश्चात अपने पितृ-परिवार के साथ पाकिस्तान चली गई पहली पत्नी फातिमा से जल्द तलाक हो जाने की निजी छटपटाहट को कुछ स्वार्थी और तिरस्कार भरे उपेक्षित ढंग से पत्र में दर्ज करने से रोक नहीं सकते. हालाँकि स्त्री-पुरुष दोनों के लिए आवश्यक, एक-दूसरे से अलग होने की इस पीड़ा और बेचैनी के जायज़ को स्वीकार करने अलावा किसी के पास कोई अन्य स्वस्थ रास्ता नहीं. मगर यह पीड़ा और छटपटाहट तब और बढ़ जाती है जब एक पक्ष दूसरे को छोड़ने को तत्पर हो और दूसरा पक्ष उसे कसकर पकड़े रहने को प्रयासरत. पत्रों में इसे लिखा-पढ़ा जाते देखना, रज़ा के साथ इसे घटते देखना. न्याय होते देखना है. वैसे भी इस किताब के मूल में रज़ा के लिखे या रज़ा को लिखे पत्र और उन पर लिखे लेख हैं जिनके आधार पर रज़ा का यह पुस्तक-जीवन बनता है.

रज़ा की कृति

इतना ही नहीं रज़ा के साथ रहते-जीते यह आपकी घनी संवेदनात्मक-सामर्थ्य होगी कि  वह आपको रज़ा के हाथ की उंगलियों में फंसी कलम में बदल दे या प्रमुखत: खुद को वृत, त्रिभुज और वर्ग में अभिव्यक्त करते, चित्र बनाते रज़ा के हाथों में कैनवस पर आघात करती तूलिका में तब्दील कर दे. आप यदि ककैया से रज़ा के साथ होंगे तो फिर आप बंबई, बर्कले, गोर्बियो होते मंडला में उनके आखिर तक साथ होंगे. और यह कितना अविश्वसनीय होगा कि आप रज़ा के उन चित्रों के रचे जाने के चाक्षुष गवाह होंगे जिन्होंने रज़ा को शिखर छू लेने दिया. आप रज़ा के बंबई में संघर्ष के साथी ही नहीं होंगे बल्कि उस प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप के उन चित्रकार मित्रों की संगत के साथ भी होंगे जिनमें रज़ा के अलावा सूजा, हुसेन, अकबर पदमसी, तैयब मेहता, गायतोंडे और अन्य महत्वपूर्ण चित्रकार साथ होते हैं. जिसमें रज़ा और हुसैन के बीच तंजभरी तनातनी बनी रहती है और यह तब और भी मिठास से भर देती है जब बंबई में आयोजित एक चित्र प्रदर्शनी में रज़ा की पेंटिंग का मूल्य एक हजार रुपये और हुसैन की पेंटिंग का मूल्य पांच सौ रुपये के निर्धारण पर हुसेन विचलित हो जाते हैं और दूसरे दिन रज़ा की उस पेंटिंग से मिलती-जुलती तीन पेंटिंग बना लाते हैं और उनमें से हरेक का मूल्य पांच रुपये रख देते हैं. अंत में पूरा प्रसंग विनोद से भर जाता है. या तब जब रज़ा को फ्रांस में पहला क्रिटिकल अवार्ड मिलता है और हुसेन रज़ा को कटाक्ष भरा मुबारक-ख़त लिखते हैं.

आप यह देखकर तड़प सकते हैं कि रज़ा को अपने प्रारंभिक संघर्ष में जल्दी ही अच्छे कला-पारखियों,  कला-आलोचकों, कला-सामर्थ्यवानों का साथ मिला तो यह हो सका  कि 1922 में जन्में रज़ा 1950 व्यतीत होते-होते फैलोशिप हासिल कर फ्रांस पहुंच गये. रज़ा को प्राप्त होने की गति हमेशा तीव्र रही है. उन्होंने अंत में हासिल होने वाला हासिल प्रारंभ मध्य और अंत में नियमित अंतराल पर हासिल किया. उन्होंने बिना दीर्घ अंतराल के अंतरराष्ट्रीय पेंटिंग की पहचान रखने, खरीदने-बेचने-सजाने वाले समाज का ध्यान अपने चित्रों की तरफ इस मासूमियत और ललक के साथ खींचा कि जब कृष्ण खन्ना फ्रांस गये तो वे उन्हें लुव्र के भीतर उनकी आँख बंद करके ले गये और उन्हें ‘पीता द ओविन्यों’ (Pietà d’Avignon) ईसामसीह के उस सुविख्यात चित्र के सामने ले जाकर खड़ा कर दिया और उनसे आँख खोलने को कहा. यह अकेला चित्र संग्रहालय के पिछले हिस्से में भूलभुलैया के पश्चात पहुंचने वाले एक शांत कक्ष में था जिसे कक्ष में बिछी बैंच पर बैठकर देखा जा सकता था. 15वीं शती का यह चित्र जिसमें ईसामसीह सलीव से उतरे हैं. कलाकार अज्ञात है. बाद में परवर्ती मध्ययुग के इस उत्कृष्ट इंगेहंजे क्व़ार्तो की रचना के रूप में स्वीकार किया गया. जो एक रेखांकन जैसा है मगर चित्र भी है. उसके बाद वे कृष्ण खन्ना को आँख बंद करके ही लुव्र से बाहर ले आये. जब रज़ा कृष्ण खन्ना के साथ इस मित्रता का निर्वहन करते हैं रज़ा के जीवन में रहते आपकी आँखें स्वयं बंद हो जाती हैं.

यदि वहाँ रहते रज़ा की इस प्रसंग पर कोई सफाई आप खोज सकें तो मुझे ज़रूर बतायें जिसे ढूंढने में रज़ा के जीवन में रहते मैं ना-कामयाब रहा कि रज़ा ने फ्रांस में रहने के दौरान बने, अपने एक घनिष्ठ पारिवारिक मित्र और उनके चित्रों के प्रारंभिक खरीददार ज्यां भाउनागेरी को अपने प्रारंभिक दिनों में बेची पेंटिंग ‘ओ दे केन्य‘ ( 1951) हिंदुस्तान में एक संग्रहालय शामिल होने देने के नाम पर वापस सस्ते दाम में ख़रीद कर अंतरराष्ट्रीय बाजार में महंगे दाम में बिकने दी. जिसने जानीन भूचाल के साथ-साथ मुझे भी विचलित कर दिया. अच्छा होता इस संबंध में रज़ा का कहना मुझे मिल पाता. रज़ा और और उसके दोस्तों के लिए रज़ा की जीवन-साथी जानीन कितनी अच्छी और फुर्तीली मेहमाननवाज थीं उसे मैंने नज़दीक से देखा. दरअसल अपने दोस्तों के साथ पार्टीबाजी तो रज़ा की जिंदगी में बंबई से प्रारंभ हो चुकीं थीं. कमतर और बेहतर दोनों ही तरह की पार्टियों का रज़ा को खासा अनुभव था. फिर रज़ा का बचपन भी कोई आवश्यकताओं से रिक्त बचपन नहीं था वह भरा-पूरा था और अभावग्रस्त होना उन्हें छूकर भी नहीं गुजरा था. उस पर प्रकृति संपन्नता तो स्वतः उनका हृदयकोष भर्ती जा रही थी जिसे रज़ा के लिए रंगों की गाढ़ी दीप्ति में बदलते रज़ा के रहते देखा मैंने. आगे चलकर कैनवस पर बढ़ते चले जाने वाला वह स्याह-वृत जिसके आगे उनके बचपन के शिक्षक ने उन्हें ले जाकर खड़ा कर दिया वह उनके लिए दीप्त-वृत है ये रज़ा मानते थे.

‘रज़ा के लिए स्त्रियों की, पैसों की ज़रूरत एक कलाकार की ज़रूरतथी.‘  रज़ा के लिए रज़ा के एक अध्येता अलीविए ज़ेग्म़े तोमां (Olivier Germain-Thomas) का यह कथन रज़ा के जीवन में रहते जब पीड़ा से भर देता है जब जानीन की मृत्यु के बाद उनकी अंतरंग हुई मोनाको की सबरीना ग़ुईलोन्दा एक अन्य व्यक्ति से विवाह कर आइसलैंड चली जाती है और देविना रुघूबार जैसी जालसाज स्त्री के अति-समर्पित-मोह में फंसकर अपना सब कुछ गंवाते जाते हुए रज़ा, अब भी अपनी कला के उज्ज्वल भविष्य और स्वयं द्वारा अर्जित प्रतिष्ठा की मृत्यु के कगार पर पहुंचने लगते हैं. फ्रांस से सदा के लिए भारत आने के पश्चात भी जो रज़ा का दोहन करने में पीछा नहीं छोड़ती. अंतत: जिसका भारत में फ्रांस के दूतावास और फ्रांस में भारत के दूतावास को लिखकर आना निषेध करवाना पड़ता है. मगर इससे पूर्व वह फ्रांस में रज़ा का अधिकांश चल-अचल हड़प चुकी होती.

गोर्बियो का वह अद्भुत मोहक घर भी जिसे रज़ा बाहर देश से आने वाले कलाकारों के रहने काम करने का ठिकाना बनाना चाहते थे.  मुझे इस प्रसंग पर भी रज़ा की कोई बुदबुदाहट सुनने नहीं मिलती. यहाँ मुझे रज़ा के साथ-साथ रज़ा का अद्यतन-अर्जन और प्रवाहमान-नेह संभालने वाली जानीन याद आती है. जिसके लिए रज़ा ने कितने प्रेम पगे ख़त लिखे. जिसके होठों में रज़ा अपने होठ डुबा देना चाहते थे. जिसे रज़ा के साथ-साथ मैंने भी कैंसर से अपने अंत की ओर बढ़ते देखा. फ्रांस में मृत्यु हो जाने पर रज़ा जिसके नज़दीक किसी कब्र में दफ़न होने की इच्छा रखते थे. मगर अपनी दूसरी इच्छा के अनुसार उन्हें भारत में मृत्यु होने पर पिता की कब्र के नज़दीक दफ़न होना नसीब हुआ.

रज़ा की कृति

मैं रंगों को इस तरह जानता हूँ कि मैं उन्हें हर वक्त  देखता, पहनता और बरतता हूँ. किसी रंग को खराब कहने की हिमाकत मैं कर नहीं सकता. रंगों के जाया होने, उनके खराब उपयोग को, उनसे की गई खराब रचना को खराब कहने मुझे कोई संकोच नहीं. रज़ा के जीवन में रहते मैंने रज़ा को रंग से रंग को जन्म देते देखा. रंग और रंग में सूत बराबर फर्क भी मुझे रज़ा को रंग गढ़ते और रंग से रचते हुए देखने के दौरान कुछ-कुछ समझ आया. ये कविता लिखने जैसा ही था और फिर रज़ा तो लगातार कविता बुदबुदाते रहते. पढ़ते रहते. अपने प्रिय कवि रिल्के को याद करते रहते. रज़ा को खूब पढ़ते और ख़ूब लिखते देखा मैंने. मेरे लिए इसमें भेद करना आसान नहीं रहा कि वे लिख-पढ़ रहे हैं या चित्र बना रहे हैं.

वह स्वयं में रंग थे. स्वयं से कई रंगों को जन्म देने वाले वे रंग जो कैनवसों पर जो दुनियाँ भर में दीवारों पर टंगे हैं. जो इतने अमूल्य हैं कि जिनका मूल्य तय करने बाजार बार-बार इकट्ठा होता है और उनका मूल्य बढ़ाने के क्रम में थककर एक तरफ बैठ जाता है. दुनिया में कुछ लोग हैं जो उन्हें ख़रीद सकते हैं. दुनिया में बहुत लोग हैं जो उन्हें देख सकते हैं इस बिंदु पर आकर खरीदना-देखना एक हो जाता है. फिर किसी चित्र का मालिक होना आपके अहंकार को संतुष्ट कर सकता है, जीवन को नहीं. जीवन की संतुष्टि चित्र के देखे और समझे और उसे व्याख्यायित किये जाने में है. यह सच है कि कलादीर्घाएं कलाओं की संरक्षक होती हैं. मगर कलाएं ( खासकर पेंटिंगें ) किसे धनी बनाती हैं. कलाकार को, उसे बेचने वाले को या उसे खरीदने वाले को या उस दीवार को जिस पर जाकर वे टंग जाती हैं और टंगे-टंगे अपने देखने और मोल-भाव करने वाले को टूटती हैं. रज़ा के वृहद-विस्तृत, संघर्षरत-सफल, रिक्त-संपन्न, कहने-सुनने-देखने के अमाप और असीम से भरे जीवन से निकलकर मैं रज़ा के चित्रों की व्याख्या में जाना चाहूँगा. जो सबके साथ-साथ उन्हें मेरे देखे और समझे जाने में निहित है.

रज़ा के जीवन में रहने के दौरान मैंने रज़ा को नियमित मंदिर मस्जिद गिरज़ाघर जाते देखा. उन्हें स्वयं के बारे में यह स्पष्टीकरण देते हुए भी सुना कि वह तांत्रिकता के प्रति आस्थावान नहीं तांत्रिकता के प्रति ज्ञानवान हैं. जब उनसे पूछा गया कि वे इसके बावजूद कि विभाजन के दौरान उनका पूरा परिवार भारत छोड़कर चला गया मगर वे भारतीय ही बने रहे, भारत छोड़कर नहीं गये. उनका यह कहना मुझे मनुष्य और भारतीय होने के गहरे विश्वास और आत्मबोध से भर गया ‘कि आखिर गांधी के देश को छोड़कर मैं कैसे जा सकता था‘. रज़ा का बार-बार भारत आना और बापू की समाधि पर राजघाट जाना और ‘हे राम’ जैसा चिरस्मृत चित्र बनाना इस बात का संवेदनात्मक-प्रतीक है. सोचता हूँ काश कि रज़ा के जीवन में मैं इस पुस्तक में नहीं, रज़ा के साथ उनके वास्तविक जीवन में रहा होता और गोर्बियो के स्टुडियो के बाहर बिछे बड़े पत्थरों पर रज़ा के साथ बैठकर चाय पीते, उनकी पेंटिंगों को देखते हुए ललचाती मेरी निगाह को पकड़ते हुए, रज़ा ने मुझसे भी कहा होता. अच्छा चलो तुम मेरी इन पेंटिंगों में से अपने लिए कोई एक पेंटिंग चुन लो. जैसा कि उन्होंने फ्रांसीसी फोटोग्राफर आँहॄ काग़ती-ब्रेसाँ से कहा था.

मगर रज़ा के जाने और रज़ा के जीवन से बाहर आने के बाद सफदरजंग में रज़ा के घर के सामने चोरमीनार में से किसी चोर की तरह झांकती मेरी निगाह रज़ा की पेंटिंगों पर टिकी है, जिस दिन मौका मिलेगा मैं उनमें से एक पेंटिंग चुराकर ले जाऊँगा.

__________________________

यह पुस्तक यहाँ से प्राप्त करें 

पवन करण ( 18 जून, 1964; ग्वालियर,म.प्र.)

प्रकाशित काव्य-संग्रह : ‘इस तरह मैं’, ‘स्त्री मेरे भीतर’, ‘अस्पताल के बाहर टेलीफ़ोन’, ‘कहना नहीं आता’, ‘कोट के बाज़ू पर बटन’, ‘कल की थकान’ और ‘स्त्रीशतक’ खंड–एक एवं ‘स्त्रीशतक’ खंड–दो प्रकाशित.
सम्मान : ‘रामविलास शर्मा पुरस्कार’, ‘रज़ा पुरस्कार’, ‘वागीश्वरी सम्मान’, ‘शीला सिद्धांतकर स्मृति सम्मान’, ‘परम्परा ऋतुराज सम्मान’, ‘केदार सम्मान’, ‘स्पंदन सम्मान आदि से सम्मानित.
pawankaran64@rediffmail.com

Tags: 20252025 समीक्षापवन करणरज़ा
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