शैलेय की कविताएँ |
क्या तुम्हें पानी समझ नहीं आता
मैंने हल्के से पानी को छुआ
पानी लजा गया
साथ-साथ एक नदी भी लजा आई
मेरे भीतर
बाहर
लहरें परिधि पर पहुंच कर
शांत हो गईं
तालाब भी कुछ थिर हो आया
किंतु मेरे भीतर तो
अब बहुत कुछ लगातार उछाल ले रहा है
अंततः मुझे
अपने ही पानी में उतरना पड़ा है
गहरे
और गहरे
एक गतिमान स्थैर्य तक.
2.
और कितनी दूर होगा पानी
मेरे कहने में जैसे थकान भी शामिल थी
बस आता ही होगा
उसके कहने में जैसे प्याऊ भी शामिल था
गर्मियों की यात्रा में
अपना पानी साथ लेकर चलना चाहिए
यह हम दोनों की ही
प्यास बोल रही थी
सच भी था
रास्ते को हम कहां
प्यास ही तो नाप रही थी.
3.
मुझे आज खुद पर फिर हंसी आ गई
इतनी कि आंसू आ गये
किंतु जब आंसू थमे ही नहीं
तो मुझे सचमुच में रोना आ गया
कहते हैं
रोने से जी हल्का हो जाता है
मगर
यहां तो नीम उदासी छा गई है
हालाँकि
इस उदासी के अंतःस्तल में ही कहीं
अजन्मे सपने का पानी भी होगा.
4.
दो दिन पानी नहीं मिला
तो पौधा उदास हो आया है
एक-एक डाल-पात
गुमसुम-गुमसुम
झुका
मुरझाया हुआ
‘‘दो दिन बाद दिया हुआ पानी
केवल आज की ही प्यास बुझाएगा
या कि
दो दिनों की गई हुई रवानी भी
वापस लाएगा?‘‘
पौधे से जुड़ी मिट्टी क्या मुस्करा उठी
मेरी ही उदासी
जैसे उद्विग्न हो आई-
‘‘अब क्यों विलंब कर रहे हो भाई!
क्या तुम्हें पानी समझ नहीं आता!!‘‘
5.
मैं आइने के सामने आया
मेरी आंखों में जैसे मैं ही नहीं था
मैं
भागा-भागा चिकित्सक के पास गया
उसने बताया कि
मेरी आंखों में काफी खराबी आ गई है
नमी भी अब लगभग सूख सी गई है
मैं
भीतर तक हिल गया
क्या सचमुच मेरी आंखें
खराब हो गईं हैं
कहां चला गया मेरी आंखों का पानी
मुझे बरबस ही
जार-जार रुलाई फूट आई
अब चिकित्सक हैरान था
उसने मेरे हाथों से आईना ले लिया
देखा तो
उसे अपनी जगह
वहां मैं दिख रहा था
वह
इतना पानी-पानी हो आया कि
उसे मुझसे भी ज्यादा रुलाई फूट रही थी.
6.
कंठ में पता नहीं कुंआ उतर रहा है
नदी
या कि बांध ही लबालब छलछला रहा है
पानी कहीं का भी हो
प्यास बुझनी चाहिए
मैंने अपने आप को समझाया
किंतु हलक नहीं माना
जबकि
हर कुंअे
हर नदी
हर बांध
हर प्यास को अंततः पानी ही चाहिए
हलक भी
हर एक घूंट में शायद
हमारा अपना भगीरथ ही ढूंढ रहा है
माप रहा है हमारा अपना पानी.
7-
अब
जबकि नदियों का सारा मैल
उतर चुका है
मछलियां
किनारे तक आकर अठखेलियां कर रही हैं
क्या हमें
पानी का फैसला नहीं मान लेना चाहिए
कि हमीं गंदगी की असली जड़ हैं
कि धार पर
क्या हमीं को नहीं रख देना चाहिए
तट बंध तो पानी के लिए बने हैं.
दुःख
आज फिर एक दुःख मिला है
मुझे
जीवन एक स्मृति ही तो है
दुःख की स्मृति ज्यादा सघन होती है
ज्यादा कारगर भी
मैं सुख को
कहीं भी नकार नहीं रहा हूं
सारा जतन इसी के लिए तो है
किंतु
वह सहेज कर रखा हुआ
दुख ही होगा
ओस की तरह सूख जाने से पहले
जो पत्तियों को पर्याप्त नम कर गया होगा
जो किसी की आंख में
इतना तरल होगा कि
दूसरे के चेहरे का मैल भी धो सके।
2.
आज मैंने फिर बहुत देर तक अपने
दुःख से बात की
आज भी उसने फिर वही कहा कि
आदमी जो कुछ भी करता है
सब कुछ तो बुद्धिमत्ता नहीं हो जाता
सब कुछ तो नहीं होता सौभाग्य
उसने मुझे
मेरी लघुता का बोध कराया
लेकिन कहा कि
सपनों को आकार देना कब कहां मना है
कि जिंदगी
कागज का टुकड़ा नहीं
तो नदी किनारे का पत्थर भी नहीं है
मुझे दुख का शुक्रगुजार होना ही था
जाड़ा
बसंत के लिए रास्ता जो बना रहा था।
3.
आजकल किसी को भी पुकारो
प्रायः एक मौन से
निरुत्तर कर दे रहा है
थरथराता हुआ एक डर
सब कुछ नितांत जड़-पाथर कर रहा है
फिर भी
मैंने जोर देकर कहा-
‘‘तुम मित्र ही हो.‘‘
तो वह ठठा-ठठा कर ऐसे हंस पड़ा
मानो मेरी मूढ़ता पहचान ली गई हो
मुझे
बरबस ही रोना आ गया
तभी जाने क्या हुआ
वह तपाक से मुझसे अप्रत्याशित चिपट गया
उसे
मुझसे भी अधिक रुलाई फूट रही थी.
___________
शैलेय
(06/06/1961)
जैंती (रानीखेत), जनपद अल्मोड़ा, उत्तराखण्ड.
कविता संग्रह
‘या ‘(2008), ‘तो’ (2010), ‘कुढब कुबेला’ (2020), ‘बीच दिसंबर’ (2020)
उपन्यास
हलफ़नामा
संपादन: ‘द्वार‘ तथा ‘इन दिनों‘ (साहित्यिक-सांस्कृतिक पत्रिकाएँ).
सम्मान: परम्परा सम्मान , शब्द साधक सम्मान, आचार्य निरंजन नाथ सम्मान, परिवेश सम्मान, अम्बिका प्रसाद दिव्य सम्मान, वर्तमान साहित्य सिसौदिया सम्मान.
पताः- इजायन, जी-2, मेट्रोपोलिस सिटी, रूद्रपुर, जिला- ऊधमसिंहनगर, उत्तराखण्ड, पिन कोड- 263153
मोबाइल नं- 9760971225
पानी पर बेहतरीन कविताएं पढ़ने को मिलीं। बहुत शुक्रिया समालोचन का।
जीवन मे नमक और आंखों का पानी ही बचाएगा इस मनुष्यता को। शुक्रिया।
पानी के रूपक पर लिखी कवितायें…… अद्भुत हैं। इन कविताओं में गहरी निराशा और लोटा-डोरी सी उम्मीद एक साथ आती हैं. कविता में कुंआ के रूपक में श्रम की संस्कृति, स्थानीयता का स्वाद और स्मृतियां सन्निहित हैं। बहुत बहुत बधाई शैलेय जी को. समालोचना और अरुण जी का आभार इन कविताओं को पढ़वाने के लिये.
बेहद अर्थगर्भित कविताएं।बहुत दिन के बाद इतनी सहज कविताएं पढ़ने को मिलीं जो आतंकित नहीं करती अपनी गंभीरता में भीतर गहरे उतर जाती हैं।
वह इतना पानी-पानी हो आया कि
उसे मुझसे भी ज्यादा रुलाई फूट रही थी. कवि और समालोचन को बधाई।
अंतर्मन को छूती हुई कविताएं। प्रभावशाली सृजन के लिए बहुत-बहुत बधाई।
बेहतरीन कविताएं । शैलेय जी को बहुत बधाई।