बीस साल बाद पिता
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1.
पिता का आना अचंभा की तरह घटा
जैसे कितने वर्ष बाद आता है कुंभ का समय
और यह एक ऐसा संयोग जो हजार साल बाद आता है
इस कुंभ में अतीत की बातों का मेला था
नदी की धार सा चंचल मन
किनारे की रेत पर प्रतीक्षारत बेटी थी
इसमें ग्यारह और एक सौ ग्यारह डुबकी नहीं लगानी थी
बल्कि डूबे रहना था आकंठ
बीस साल बाद पिता आए
देश दुनिया में कितनी लड़ाइयाँ शुरू हुई और खत्म
एक मेरा जरा सा बेटा इस महानगर में में रोजी रोटी में जुट गया
एक वही आखिरी बार पिता के साथ बैठा कार्टून देखता रहा था
एक बेटी जो ना जाने कितनी बार जिंदगी से ताल न मिला सकने से निराश हुई
कितना कुछ तो हुआ बीते बीस साल में
बीस साल बाद जैसे कोई अपने जनस्थान देखने आए
बीस साल बाद जैसे बीस बीते पतझड़ की उदासी दूर हो जाए
जैसे उम्र के बढ़ने को कोई रोक कहे
तुम बच्ची हो हमारी
कैसे न आते
सब भोलेनाथ ने संभव किया
2.
झुकी कमर धीमी और संयत चाल से मेरे घर में चलते रहे पिता
किताब के रैक के पास ठहरे और फिर कुर्सी खींच कर बैठ गए
सारी किताबें देखी
और कहा
कैसी लाइब्रेरी है
न भगवत गीता है
न मैथिलीशरण न अज्ञेय
बच्चन और दिनकर भी नहीं
अरे सब है पिताजी
घर छोटा है न अलग अलग जगहों पर रखा है
लेकिन अपना विचार प्रकट कर पिताजी उधर से उठ गए
पता है पिताजी
इस नए घर में भगवान का नाम लेकर हम आए और रहने लगे
आज आप आए तो लगा
गृह प्रवेश हो गया मेरा
अपना पैर आगे करिए पिताजी
मैने भीगे गमछे से उनके पैर पोंछ दिए
वो हंसते रोते बुदबुदाए
कृष्ण सुदामा का मिलन है क्या पागल
इस बार लिपटने की कोई भी कोशिश को मैंने फेल नहीं होने दिया
वो लाख अलग करने की कोशिश किए
हमें भी हक है आपसे चिपटने का
लगाइए तो गले
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एकदम लकलक घर है
मन लगेगा मेरा
मेरे बिस्तर के एक साइड पिताजी अपने झोला के साथ आसीन हो गए
तेरह दिन वहीं रहे
कौतुक से घर निहारते
बातें करते
यह बिस्तर का ठीक वह साइड था
जिधर मैं कितनी ही बार उदास देर तक पड़ी रहीं हूँ
जिधर किसी किसी घटना से बेचैन करवट बदलती रही
ठीक उसी जगह आश्वस्त पिता को देखना सुखकर रहा
एक बचपन के किसी गुलाबी चादर की याद है
आज भी बिल्कुल ठीक ठीक
जब पिता एक कमाने वाले ऑफिसर थे
जिनके बिस्तर से हमें दूर रखा गया
हमें उनकी थाली में कभी खाने नहीं दिया गया
कि हम सफ़ाई से नहीं रहते
या बदमाशी करते रहे हों
अम्मा को आदेश हो कि बच्चों को हमारे बिस्तर और थाली से दूर रखा जाए
ये वही पिता थे
हमारे बिस्तर पर आसीन
एक बच्चे की तरह
अस्सी पार की उम्र वाली बच्चों सी जिद लिए
यह खाना है वह नहीं खाना है
बाहर नहीं जाना है
अब जाइए हमें नींद आ रही
और पल भर में नींद आ जाती उन्हें
बिस्तर ठीक तो है ना पिताजी?
उनकी सांस नींद की बांसुरी बजा रही
मैं हट जाती हूँ

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इस बार बीस साल के समय ने मेरे ही पिता को मेरे पास एक बच्चे की तरह भेजा
मैने खूब बेबी सीटिंग की
यह ऐतिहासिक घटना की तरह हुआ के मेरे जिद्द से मै उसी बेड के एक कोने पर रही
लगातार पिता पर नजर रखती
आखिर नए घर में
अंदाजे चूक ना जाएं
कितनी बार रात में जागते हैं पिताजी
कितनी बार बाथरूम जाते हैं
कितनी बार अपने झोले में हाथ डाल विक्स कि डब्बी निकालते
और फिर कितनी ही देर बिस्तर पर बैठ चुप चाप रात को घटते हुए देखते
रात को भय खाता है
बहुत लंबी होती है किसी बुजुर्ग की रात
भगवान से संवाद रखना पड़ता है
बार बार पेशाब को भी बरजने लगते है पिताजी
झल्लाते हैं
यही कारण है हम कहीं जाना नहीं चाहते
सबको डिस्टर्ब होता है
ये सब नॉर्मल है
आप बिल्कुल ठीक हैं पिताजी
कितनी देर से बैठे हैं
कुछ चाहिए क्या?
नहीं कुछ नहीं
सो जाइए फिर अभी ढाई बज रहा
हे भोलेनाथ सबेरा हो जाए
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पिताजी पिपलानी कटरा से बात शुरू तो करते
लेकिन न जाने कब उसमें पीलीभीत पापोरी और देवकीपुर आ जाता
यह बातों की गाड़ी है हमें बस सवार हो जाना है
अगला स्टेशन वह नहीं जो हमनें सोचा था
बल्कि वो है जहाँ पिता रुककर सुस्ताना चाहते हैं
थोड़ा पानी पी लीजिए पिताजी
बोलते बोलते गला फंस रहा आपका
वह डपट देते हैं
रोका मत करिए
बात की लय टूट जाती है
फिर जुड़ती नहीं
ठीक है बोलिए
आप कह रहे थे छाती तक पानी में हलकर पार जाना पड़ता था
समय कितना कठिन था
विकल्प नहीं था
परिवार चलाना है तो नौकरी करनी ही पड़ेगी
कितनी ही बार दो चार बस बदल कर पोस्टिंग पर गए
न खाने का ठिकाना न रहने का
सोचते नौकरी छोड़ भाग जाएं
लेकिन फिर बाबा याद आते
आखिर हमको ही काबिल समझकर बनारस लाए थे एडमिशन कराने
मेडिकल की लाइन पकड़ा दिए
अब निभाना है
कितनी बातें हैं पिताजी के पास
स्मृति जैसे साफ शीशे सी
न कोई तारीख बिसरी न लोग
हर पोस्टिंग के साथ तबके सरकार की पूरी लिस्ट जुबानी
कौन था गृह मंत्री कौन स्वास्थ्य मंत्री
चावल क्या भाव था
और महंगाई
काश कि हजार रुपया कभी जुड़ता तो आपकी अम्मा को दे देते एक भर सोना खरीद लेतीं
अच्छा सोने से याद आया
अगर रोटी बन गई हो तो हमें दूध के साथ दे दीजिए
हम खाकर सो जाएंगे
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पिता आए तो मेरी बनाई रोटी मक्खन जितनी मुलायम
और भात न ज्यादा भरभर न ज्यादा गीला एकदम ठीक
दाल और घी का स्वाद भी सरस
पिताजी को खाना खाते देखना एक लंबी फिल्म देखने जैसा था
हाथ का खाना सूख जाए इतनी बात
पिताजी अन्न का अनादर नहीं करते कभी
बनाने वाले का भी नहीं
अम्मा की स्मृतियाँ घेर लें तो कितने ही वाकया सुनाने लग जाते
अम्मा कलाकार थी आपकी
कम आय में भी बढ़िया खाना सुंदर साफ घर रखतीं
अम्मा बहुत याद आती हैं?
हाँ बहुत लंबी उम्र की सजा दे दी भगवान ने
वह रहती तो रात में डर न लगता
औरत बड़ी हौसले वाली होती है
वह रहती तो बिस्तर किनारे किसी लालटेन सी जलती
कभी रोशनी तो कभी ताप
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पिताजी हमारे यहाँ रुक जाइए थोड़े और दिन
लड़कियों का क्या कोई हक़ नहीं होता
पिता मायूस हो जाते
जैसे उनका जग उनकी दुनिया ही उनसे छीनने का बात कह रही मैं
आखिरी समय बनारस मत छुड़वाइये
वहीं रहने दीजिए हमें
गंगा किनारे
बाबा के आसरे सब कट जाएगा
अब वहीं सब आदत में है
हम भी जानते हैं
पिता नहीं रुकना चाहते हमारे पास
बनारस ही लौटेंगे
उसी जगह के मोह में
जहाँ जिंदगी ज्यादा गुज़री
ये कैसा बंटवारा बेटी और पिता का
मेरे घर में पिता दिन गिन रहे
मैं तो बीस साल इस दिन का दिन गिनती रही थी
पर पिताजी लौट जाएंगे
हर दिन पहने उतारे कपड़े को तह लगा रहे
बैग में रख रहे
उनको क्या पता इन निर्जीव समान से ज्यादा
वह छूट जाएंगे इस घर में
वही रहेंगे मेरी याद में
मेरे घर की जमीन मेरे बिस्तर पर
बेटे के पास लौट जाने की धुन लिए पिता को क्या बेटी का एकांत समझ नहीं आता

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पिता से जरा जरा देर बात करने से वह उम्र से जरा बढ़ जाते हैं
हिम्मत ताकत लौट आती है
अस्सी पार पिता पुराने नियम से बंधे बच्चों को कलेजे से लगाने में संकोच करते हैं
पर अंदर से वह चाहते हैं
कि बड़ा बेटा छोटा बेटा आकर बस ऐसे ही घेर ले उन्हें बाँहों में
उसी सुरक्षा चक्र में ढलेगी उमर
भाइयों को कभी नहीं देखा मैंने ऐसा करते
कहती रहती हूँ
उनका ज़माना गया
जब बच्चे आँख से दूर रहते थे
अब आपका समय है
दुलारिए उन्हें
अब बचपन की तरफ लौट रहे पिता
धीरे बहुत धीरे हो रहे
झल्लाना बंद करिए
जरा सबर बरतिये
हाथ थाम कहिए
हम हैं न पिताजी
चलिए तो शहर घुमा लाए
देखिए आपका शहर आपके होने में ही कितना बदल गया है
पिता कहते हैं
खतरे के निशान से लग कर बह रही गंगा
भीतरी इलाका डूबा है
डूबती है पिता की आवाज़
पिता उंगली पकड़ फिर उबरना चाहते हैं
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बीस साल बाद आए पूरा वृद्ध क्या बच्चे से लगे
मेरे साथ एक किनारे पर सोए
मैं रात में उनके सांस की उनके खांसी की उनके उठ के बैठ जाने की आहट ले रही
मैं बार बार उनके सिरहाने के सामान को ठीक से रख रही
विक्स एक मरहम एक खासी की गोली एक रुमाल और उनका छोटा फोन
वह हर करवट अपने हाथ से इन चीजों को टटोल रहे
मैं उन्हें आराम से सोते हुए देख रही
मन कर रहा मूर्खता करूं
पूछूं
पिताजी एक ग्लास दूध पियेंगे
रात लंबी है भूख लग गई होगी
मन कर रहा उनसे थोड़ी लिपट जाऊं
वह अपने गमछे को तिकोना कर कान में बांधे अबोध बच्चे से सो रहे
हाथ झुर्रियों से लटका है
पीठ पर लाल तिल की जैसे पूरी सेना बिखरी हो
रात के किसी पहर में पिताजी को धीरे से छूती हूँ
सब ठीक है
सब ठीक रहेगा
सब है तो अशक्त देह में बल है
पिताजी को सब चाहिए
हम सबको पिता
निश्चिंत
आश्वस्त
खुश और
संतुष्ट
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और फिर अपना समान संभालते पिता ने कहा
अब जाने की बेरा हुई
मन उदास मत करना
इससे ज्यादा नहीं रह सकता
खूब सुख से रहा तुम्हारे साथ
और सुनो
लग रहा द्वारिका से सुदामा की कुटिया की ओर लौट रहा
द्वारिका ही रहा यह घर पिताजी
आपके आने से रहने से
आप क्या जाने आपके बिना किस कदर सुदामा हो जाते हैं हमें
हमारे लिए बचे रहिएगा इस धरती पर
अन्न उगता रहे
जीवन चलता रहे
बीस साल बाद आई अपनी बारी पर खुश रहूँगी
मेरे घर में पिता ने पैर धरा
लोबान की महक हुई
एक अलग चमक के साथ इन दिनों गार्ड को बाई को बिल्डिंग वालों को बताती रही
मेरे पिताजी आएं है
बहुत साल बाद
आप चले गए तो लगा
हाथ से सपोर्ट छूट गया
लड़खड़ाने से लगे
बच्चे कितने मजबूत होते हैं माँ बाप के होने से
इस महानगर में घर की बत्ती बुझा दूँ तो घर का अस्तित्व खत्म हो जाता है
मेरे रोने से विचलित थे आप
भाग कर गाड़ी में बैठ गए थे
गले लगाने से डरे थे ना
जाइए अपने घर
अपने बनारस
काशी विश्वनाथ की छत्र छाया में
सुख मिले
सुदामा की उस चार मंजिला कुटिया में
बेटियों के नाम की हिचकी आती रहे
फिर और एक बार लौटाएगा ना पिताजी
आ सकते हैं
ऐसे मत कहा करिए
कि बूढ़े हो गए हैं
लाचार
पिता को थोड़ा झूठ भी बोल देना चाहिए
आयेंगे जरूर की गूंज की उंगली थामे
हम इस महानगर में जीते रहेंगे
इस उम्मीद में.
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शैलजा पाठक शैलजा पाठक 29 जुलाई को स्याल्दे, अल्मोड़ा (उत्तराखंड) में जन्मीं. मूलतः बनारस की रहनेवाली हैं. शुरुआती पढ़ाई से लेकर स्नातकोत्तर तक की पढ़ाई उन्होंने वहीं से की है. उनकी प्रकाशित पुस्तकें हैं- ‘मैं एक देह हूँ फिर देहरी’, ‘जहाँ चुप्पी टूटती है’, ‘कमाल की औरतें’ (कविता संग्रह); ‘पूरब की बेटियाँ’ (कथेतर)। आजकल मुम्बई में रहती हैं और स्वतंत्र लेखन करती हैं. |




मैं अभी बेटी के घर हूं लगता है कविता हर पंक्ति मेरे और मेरी बेटी के लिए लिखी गयी है । बहुत ही मर्मस्पर्शी कविता है जिसका असली भाव पिता या पुत्री ही तय कर पाती है शैलजा जी आपको साधुवाद हृदय को छू गयी यह कविता
पिता केंद्रित इन कविताओं से गुज़रते हुए काफ्क़ा के ‘द ट्रायल’ उपन्यास में जोसफ के पिता समेत ज्ञानरंजन और से. रा. यात्री की पिता पर रचित कहानियों के पिता बारबार याद आते रहे.
जाहिर है कि इन कविताओं की रचनाकार की ‘अनुभूति की संरचना’ में जटिलता के बजाय सादगी है, जो संभवत: बेटी की नज़र से बाप को देखने और उनकी उपस्थिति को महसूस करने की वजह से है.
कविताएँ आम पाठक के मन को छूने में समर्थ हैं.
साधुवाद.
बहुत उम्दा कविताएँ जुड़ गई सीधे दिल से पिता के साथ बेटी के अद्भुत रिश्ते को अद्भुत मगर सादगी भरे तरीके से आपने बना रचा रखा। बहुत बधाई 💐
आंसू नहीं रुक रहे शैलजा…..मेरे पापा भी आखिरी बार (आखिरी लिखने में कलेजा निचुड़ जा रहा है) २००२ में आए थे हमारे पास एक हफ्ता रुके थे ……तभी की कुछ फोटोज हैं मेरे पास …..उसके बाद उनकी फोटो लेने का मौका नहीं आया …उस समय कोई मोबाइल,वाट्सैप नही था….आ ज होते तो जुलाई मे नवासी साल के हो जाते ….
पिता अक्सर हमारी यादों से छूट जाते हैं। बेटियों में सामाजिक चलन के कारण। और बेटों में आधुनिक चलन के कारण। इस मामलें में माँयें थोड़ी भाग्यशाली होती हैं। जीवन में और कविता में भी।
पिता के लम्बे सानिध्य से यह बात पता चली कि हमारे और उनके बीच रिश्तों की सिर्फ तनी हुई रस्सी ही नहीं रहती। आखिरी समय में पिता और पुत्र के रिश्तों की अदलाबदली भी होती है। उस समय में हम दो पीढ़ियों के पिता हो जाते हैं। अपने बेटे बेटी के। और अपने माँ पिता के भी। ओह… कमाल का अनुभव है वह।
मगर अफसोस कि आज की पीढी उस अनुभव को बोझ की तरह लेने लगी है। उसने शायद पिता को पुत्र के रूप में बदलते हुए देखा ही नहीं।
बेटियां इस मसलें में और भी विस्तारित भूमिका निभाती रही हैं। अपने पिता अम्मा की। और अपने पति के पिता और अम्मा की भी। गर्व से कह सकता हूँ कि इस दौर में भी मैं कुछ ऐसी बेटियों को जानता हूँ। शैलजा उनमें से एक है। कविता में भी। और जीवन में भी।
आमीन।
पिता पर लिखी ये कविताएं दिल से लिखी गयी हैं
इन्हें पढ़ते हुए मुझे अपने पिता की याद आयी.
यहीं तो कविताओं की सफलता है जिससे हमारी संवेदना जुड़ जाती है
आपकी कविताएं पढ़ना बार–बार स्थगित कर देता हूँ– आप जानती ही हैं क्यों. इस बार एकदम से पढ़ना ज़रूरी हो गया– आप जानती ही हैं क्यों! फ़िलहाल कुछ कहना बहुत मुश्किल है. आपको खूब प्यार.
Bahut hi umda! Mere 80 saal ke pita yaad aa gaye! Pata nahi kaha se itni sundar frock aur sandal laate they
Lajawab likha aapne
चश्मा पोंछता रहा । नहीं पढ़ पाया पूरा । तुम जानती हो क्यों ।
शैलजा जी! क्या लिखती हैं आप, कैसे लिखा होगा आपने, आपकी आंखों मे आये आंसुओं ने आपको कितना परेशान किया होगा इसका अनुमान लगाना बहुत सहज है ।काश! सभी बेटे भी आपकी तरह सोचने की क्षमता रखते।
आपको बहुत बहुत साधुवाद। ईश्वर आपकी इस भावनात्मक लेखनी की प्रतिभा को और निखारने की प्रेरणा दे।
आमीन
शानदार कविताएं। इन कविताओं को पढ़कर मुझे भी अपने पिता जी की स्मृति हो आई। वास्तव में अक्सर पिता का योगदान कहीं छूट ही जाता है।
संवेदना की इतनी गहनता है इन कविताओं में कि पाठक इनसे एकसार हुए बिना रह नहीं सकता। आँखों में भी इनका प्रभाव झलककर आ गया। बहुत मार्मिक कविताएँ है।