लोकगीत शंकरानंद की कविताएँ (रामज्योति देवी के लिए) |
एक
इस पृथ्वी पर लोक का संगीत सबसे अलग होता है
सबसे अलग होती है उसकी मिठास
उसकी आस जिंदगी को सूखने नहीं देती
कितना भी शोक हो
गीत उसे भूलने का साहस देते हैं
कितनी भी तकलीफ़ हो
वह नजर से ओझल हो जाती है एक पल के लिए
जब गूंजता है गीत
जब खुलते हैं ओंठ
एक साथ न जाने कितनी स्त्रियाँ
एक साथ न जाने कितना दुःख
एक साथ न जाने कितना शोक
एक साथ न जाने कितनी पीड़ा
सबकी गांठ खुलती हैं एक साथ
सब की एक चाहत कि
किसी कंठ से फूटे आवाज़
किसी कंठ से फूटे गीत और
फ़ैल जाए आसपास
फ़ैल जाए समूची पृथ्वी
फ़ैल जाए समूचा आकाश
आज के दिन
आज की रात.
दो
याद रखने की कला सबको नहीं आती
ये गीत कहीं लिखे हुए नहीं मिलते
ये किसी किताब में नहीं होते
एक कंठ से फूटता स्वर
दूसरे को बुलाता है
दूसरा बुलाता है तीसरे को
तीसरा चौथे को आवाज़ लगाता है
इस तरह पाताल में दबी आवाज़ भी
पहचान लेती है अपना हकार
वह दौड़ती है साथ उठ जाने के लिए
दबी हुई आवाज़ सबसे पहले तोड़ती है
अपने ऊपर के पत्थर.
तीन
पूरा गाँव अलग अलग टोलों में बंटा हुआ है
पूरे गाँव में अलग अलग खेमा है
सबकी अलग हालत
सबकी अलग जरूरत
हो सकता है दो टोले के लोग
एक दूसरे को देखना नहीं चाहते हों
हो सकता है उनमें झगड़ा हो गया हो
हो सकता है उनमें बंद हो बोलचाल
फिर भी जब जरूरत पड़ी तो बुलाई गई वह
घर से हाथ पकड़ कर ले जाई गई दुश्मन के भी घर
कोई दीवार नहीं थी उसके लिए
कोई बैर नहीं था उसके मन में
जब भी गई तो मन ही मन गुनगुनाती
याद दिलाती
तान उठाती मन ही मन
फिर वह बैठी और साथ में बैठ गई बाकी औरतें
फिर शुरू हुआ गीत
फिर और गीत
फिर लोकगीत ही लोकगीत देर रात तक
फिर लोग भूल गए कि उनमें कोई झगड़ा है
फिर लोग साथ में हँसने लगे
फिर लौटे लोग मन के मैल को वहीं छोड़कर घर.
चार
उसके बिना कोई काम नहीं होता था किसी का
अपनी पूरी उम्र उसने झोंक दी
उस मिट्टी के लिए
जहाँ ब्याह कर लाई गई
वह आई थी तो किसी ने सोचा नहीं था कि
एक दिन वह हर घर की चौखट लांघ जाएगी
कि उसके बिना नहीं पीले होते थे हाथ
कि उसके बिना नहीं निकलती थी बारात
कि उसके बिना बेटियाँ विदा नहीं होना चाहतीं थीं
कि उसके बिना नहीं होता था सिंदूरदान
कि उसके बिना ठप पड़ जाते थे उत्सव के सारे काम
वह रौनक थी पूरे गाँव की
वह हवा थी उत्सव की गंध वाली
जो पैर रखती थी जहाँ
वहीं मौसम बदल जाता.
पाँच
उसने कई पीढ़ियाँ देखीं
लोग आते गए
विदा होते गए
कुछ ने गाँव छोड़ दिया
कुछ ने घर
कुछ परिवार बन गए
कुछ बिखर गए ताश के पत्तों की तरह
लोग बदल गए
समय बदल गया
चीजें बदल गईं
वह लेकिन नहीं बदली जरा भी
वह अस्सी वर्ष की उम्र में भी
उतनी ही खनक आवाज़ में गाती थी
जब वह गाती तो किसी को बताना नहीं पड़ता था कि
कौन गा रही है!
छह
कौन दुःख को दूर करता है
कौन हर लेता है मन की पीड़ा के पहाड़
कौन तकलीफ़ की नदी के पार उतरवाता है
कौन झाड़ देता है पुराने पत्ते और
उगा देता है कोंपल
कौन बचा लेता है हर बार डूबने से
उसके पास हर सवाल का एक जवाब था
उसके पास हर समय थी एक आवाज़
जो वह उठाती अकेले में भी तो
दूसरी किसी चीज के लिए जगह नहीं बचती थी
शोक के लिए भी नहीं.
सात
उसका अपना घर था
अपना परिवार
उसका गाँव घर था
पूरा गाँव उसका परिवार
वह कभी एक की होकर नहीं रही
वह कभी एक घर में नहीं बंधी
वह अक्सर कहती कि
अगर नहीं गई तो कैसे पूरा होगा काम
वह अक्सर कहती कि
जब तक है सांस तभी तक है इतनी ऊंची तान!
आठ
दिन बीतते गए
समय बीतता गया
गीत की तान तो नहीं टूटी
उसकी सांस टूटने लगी
उसके प्राण सूखने लगे
वह बीमार रहने लगी
लोग फिर भी आते
लोग फिर भी बुला कर ले जाते
लोग फिर भी उसके साथ सुर मिलाते
स्त्रियाँ गाती रही
साथ में आवाज़ मिलाती रहीं
वे जानती थीं कि
यह सब जो कुछ हो रहा है अब अंतिम बार है
वे जानती थीं कि न वैसा गला है किसी के पास
न वैसी तान
न उतना बड़ा दिल है किसी के पास
न वैसी जान
अब कौन दूसरे के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगाता है!
नौ
अब वह इस दुनिया में नहीं रही
बीमार पड़ कर गिरी तो
उठ नहीं पाई फिर
जो गीत के साथ जीने वाली थी
उसी गीत ने साथ छोड़ दिया उसका
वह अकेली पड़ी तो
उम्र भर की तकलीफ़ ने बदला लिया
वह अकेली पड़ी तो
उम्र भर के दुःख के बीच घिर गई
फिर टूटने लगी धीरे धीरे
जिसके कंठ में बसता था लोकगीत
उसके कंठ की आवाज़ गुम हो गई
अब वह आवाज़ कहीं सुनाई नहीं देगी
अब वह संगीत कहीं नहीं गूंजेगा
अब वह तान फिर नहीं उठ पाएगी
अब सूना पड़ जाएगा गाँव
अब सूना पड़ जाएगा घर
वे स्त्रियाँ जो साथ में गाती थीं
उनका क्या होगा
कोई नहीं जानता
उसके गीत किसी को याद भी हैं कि नहीं
कोई नहीं जानता
कितना मुश्किल होता है बचाना कुछ
जबकि मिटने में तो वक्त ही कितना लगता है
बस एक तीली जलती है और
सबकुछ राख में बदल जाता है!
शंकरानंद
(८ अक्टूबर १९८३ को खगडिया जिले के एक गाँव हरिपुर में जन्म)
अब तक तीन कविता संग्रह ‘दूसरे दिन के लिए’, ‘पदचाप के साथ’ और ‘इंकार की भाषा’ प्रकाशित. पंजाबी, मराठी, नेपाली और अंग्रेजी भाषाओं में कविताओं के अनुवाद . कविता के लिए विद्यापति पुरस्कार, राजस्थान पत्रिका का सृजनात्मक पुरस्कार, मलखान सिंह सिसौदिया कविता पुरस्कार.
संपर्क: क्राति भवन, कृष्णा नगर, खगरिया ८५१२०४ (बिहार)
बहुत अच्छी कविताएँ! इन कविताओं के साथ एक कहानी भी चलती है जो लुप्त होते ग्रामीण यथार्थ को संजोती चलती है। था और है के बीच के सांस्कृतिक उच्छवास को शब्द देने की यह कोशिश सराहनीय है।
नरेश चन्द्रकर
कवि शंकरानन्द जी ने यह अति महत्वपूर्ण कार्य किया है। लोक गीतों में लोक अपने को गाता तो है परन्तु शंकरानन्द ने भावनात्मक निगाह से लोक जीवन की संवेदनाओं को बखूबी कविता में जिया है जैसे कि इन प्रतियों को दिखाए
एक साथ न जाने कितना शोक
एक साथ न जाने कितनी पीड़ा
सबकी गांठ खुलती हैं एक साथ
कवि शंकरानन्द बधाई। अभिनन्दन।
सचमुच लोकगीत का जितना महत्व है उतना इनको गाने वाले मनुष्यों का भी। यह विडंबना ही है कि स्त्रियों ने ही सबसे अधिक लोकगीत गाए। ‘ उनके आने से मौसम बदल जाता है ’ या ‘ जब वे गाती हैं तो कोई नहीं पूछता कि कौन गा रही है ’ जैसी मार्मिक पंक्तियां भीतर तक उतरती हैं। इससे सुंदर याद क्या होगी उनके लिए।
सचमुच लोकगीत का जितना महत्व है उतना इनको गाने वाले मनुष्यों का भी। यह विडंबना ही है कि स्त्रियों ने ही सबसे अधिक लोकगीत गाए। ‘ उनके आने से मौसम बदल जाता है ’ या ‘ जब वे गाती हैं तो कोई नहीं पूछता कि कौन गा रही है ’ जैसी मार्मिक पंक्तियां भीतर तक उतरती हैं। इससे सुंदर याद क्या होगी उनके लिए।
शंकरानंद बेहद उम्दा व हटकर लिख रहे हैं। लोकगीतों के सहारे गाँव देहात में गायन की परंपरा को जीवित रखने वाली उन सभी स्त्रियों का सजीव चित्रण शब्दों के माध्यम से अनूठा प्रयोग है।
बधाई
यह लोकगीत गाने वाली नायिका के जीवन की बेहद मार्मिक लंबी कविता है जो सीधे दिल में उतरती है। आंतरिक छंद से सुगठित, गीत की लय को समाहित किए ऐसी रचना के सृजन के लिए कवि शंकरानन्द को हार्दिक बधाई।