| अंत में हम सब सिर्फ स्मृतियाँ हैं मेरे दोस्त (कैफी हाशमी की कहानियों में एक पाठक का बिखराव) _______________________ पवन करण |
उम्र के इस दौर में आकर मेरी स्मृतियाँ गिद्ध में बदल गई हैं. कोई दिन ऐसा नहीं बीतता जिसमें मर चुकने के बाद, सड़ते हुए शरीर की हड्डियाँ तक चबा जाते, गिद्ध में बदल चुकीं मेरी स्मृतियाँ मुझे बुरी तरह नोच-खोंचकर नहीं खाती हों. मेरी वे स्मृतियाँ जिनमें मैं वैसा हूँ, जैसा मैं कभी नहीं होना चाहता था. मगर वे हैं.
मेरी स्मृतियाँ कैफ़ी हाशमी के कहानी संग्रह में शामिल कहानी ‘बंकर’ की नायिका की स्मृतियों की तरह, जिन्हें वह बंकर में सुरक्षित कर छुटकारा पाना चाहती है जैसी प्रेम-स्मृतियाँ नहीं हैं. मेरी स्मृतियाँ जाने-अनजाने में मुझसे हुए उन कार्यों से जन्मीं स्मृतियाँ हैं, जिनकी पृष्ठभूमि में दूसरों को असहनीय अपमान और कभी न उबर सकने वाली पीड़ा में धकेल देने वाले आपराधिक कृत्य हैं. मेरी स्मृतियाँ सलाखों और सजा में बदल गई हैं.
आपसी लगाव खत्म होने और सब कुछ भूल जाने के खतरे के बावजूद मुझे भी एक ऐसे बंकर की तलाश है जिसमें मैं अपनी उन स्मृतियों को जो अपनी सख्त और मजबूत चोंच से नोच-नोचकर मुझे रोज जख्मीं कर देती हैं को छोड़कर उनसे निजात पा सकूँ.
मगर कहानी का अंत मुझे वहाँ पहुँचा देता है जहाँ मुझे लगता है कि उस बंकर की तलाश की जगह एक ऐसे बंकर का निर्माण भी मुझे खुद अपने भीतर ही करना होगा. जिसमें समानांतर संसार के सीखने के लिए वह हो जिसके चलते उससे कोई गलती न हो. उसके लिए मैं उन स्मृतियों को सुरक्षित करना चाहता हूँ.
उस दुनिया में, मैं ही अपना प्रतिरूप हूँ. फिर जिस तरह स्मृतियों के दंश से बचने की इच्छा के मेरे अपने कारण है. उसी तरह कैफी हाशमी की कहानी में बंकर निर्माण के अपने कारण, अपना चरित्र और एक निरंतर गतिमान संघर्ष है.
काश; संग्रह की कहानी ‘दुनिया का पहला और आखिरी सवाल’ के नायक की तरह मुझमें भी प्रश्न पूछने वाले के दिमाग में घुसकर प्रश्न बदलने की क्षमता होती. होती तो मैं सबसे पहले अपने दिमाग के उस हिस्से में घुसता जहाँ मैं अब तक पहुँच नहीं पाया हूँ और उन सारे प्रश्नों को बदल डालता जो स्मृतियों की तरह मेरा जीना दूभर किये रहते हैं. बल्कि उन्हें दिमाग के उस अनदेखे हिस्से से बाहर खदेड़ पाना संभव होता तो मैं यही करता और भीतर से ताला डालता. उस हिस्से को जगमग करता और उसमें सुंदर वस्तुएँ करीने से जमाता.
इसके बावजूद, कि फिलहाल किसी का बेहतर होना संभव नहीं, मैं बेहतर हो जाता. खुद को बदल पाता. मगर कहानी का नायक तो दुनिया को बदल देना चाहता है. फिलहाल दुनिया बिगड़ने की ओर है? क्या दुनिया को बिगाड़ने की कोशिशें पहले से ही जारी हैं? हाँ मैं मिलने वाले सवाल के जवाब को मैं, न मैं बदल देना चाहता हूँ. हालाकि यह एक जाली आशावाद है. मगर है. खुद को कैसे समझाऊँ कि इस कैनवस से दूर रहो पाओ पाओ.
क्या पानी को अपनी माशूका और नाव को माशूका की कलाइयाँ समझकर थामने वाले किसी मछुआरे से आपकी मुलाकात हुई है? मेरी हुई है. मैने उसके साथ एक कहानी भर यात्रा की है और खाने के लिए उस मछली को उसे चुनता देखा है जो सैकड़ों में एक है. जिसे कई मील की यात्रा करके सांसद खाने आता है. लकड़ी के बक्से में कैद जो दिल्ली की संसद तक पहुँचते- पहुँचते मर जाती हैं. क्या कहूँ! मैं इससे पहले, इस तरह पानी, मछली, नाव, पानी के भीतर से फूटतीं चुम्बकीय प्रकाश किरणों से नहीं मिला.
क्या पानी हार जाएगा! मछलियाँ हार जाएँगीं! जल के तल में छिपे रहस्य हार जाएँगे! एक किनारे से दूसरे किनारे तक पानी की सतह को मापकर लौटी पानी पर हिचकोले खाती नाव हार जाएगी! अभी तो इन्हें बचाने के क्रम में मनुष्य हार रहा है और उन्हें हराकर एक बार में सारा सोना हासिल करने को तत्पर लालच इन्हें हारा हुआ मान रहा है.
जो लड़ती हुई जिलियट है. वही पानी है, मछली है, नाव है, जिसकी खोज जारी है ऊर्जा का वह स्त्रोत है. पानी से निकालकर लाती और वापस पानी में ही पटक देती उस सोने का प्रतिरूप है. जिलियट के रूप में उन्होंने अपना रक्षक और योद्धा चुन लिया है. संग्रह की शीर्षक कहानी ‘शिया बटर’ पढ़ना जैसे अवतार, एपेक्लेप्टो या ऐसी अन्य फिल्मों को बिना पलक झपकाए देखने की तरह है. फंतासी जो फंतासी से अधिक हकीकत है. कहानी खत्म होती है और आप अपना सिर झुकाए, एक गंभीर आपराधिक उदासी लिए उठते हैं और चुपचाप सिनेमाघर अथवा कहानीघर से बाहर आ जाते हैं .
हाँ, आप अपराधी हैं. मैं अपराधी हूँ. मगर मेरा अपराध मेरी स्मृति के अलावा कहीं दर्ज नहीं. जिसे मैं कहीं सुरक्षित रखना चाहता हूँ. ताकि कोई और इसे और न दोहराए. मगर कोई और तो मैं स्वयं हूँ. क्या मैं मानूँगा? क्या मैं मान रहा हूँ? मैं बस आपराधिक स्मृतियों से छुटकारा चाहता हूँ. अपराध से नहीं.
मुझे नीतू चौहान की तलाश है. हालाकि वह मुझे फिर से अपने मरून होठों को काला करने के लिए बुला कर गई है. जिसे मेरी उन पेंटिंग्स को, जिन्हें मैं जला देना चाहता हूँ, उन्हें कलालोचकों, कलाक्रयकों के बीच खराब बताते नहीं हिचकती. मगर उसके होठों को तो पाओ पाओ भी काला कर देता है जिसके नाम की वजह से मेरी पत्नी मुझे छोड़कर चली गई. जिसकी पेंटिंग ने खुद को बदल लिया था. ये प्रभाव उसने खुद हासिल किया. ये मेरी कार्यवाई नहीं. वह मुझे ‘मोबियस स्ट्रिप’ में बस जरा से बदले नाम नेहा के साथ मिलेगी. जो मज़े के लिए किसी का घर तोड़ते हुए बुलडोजर को देखने की अपनी ज़िद को पूरा करने के लिए ऐसे झूठ का सहारा लेगी जो पक्षियों के घोसले में जाकर ठहरेगा.
सांप्रदायिकता, कट्टरता और धर्मान्धता की गंदगी में बजबजाते हुए, हम भी अपने घोसलों में, अपने बच्चों के साथ घर की बालकनी से दूसरों के घरों को बुलडोज़रों से टूटता देखना चाहते हैं. मगर वह केपैसिटी के घर को गिराने आकर खड़े हो गए बुलडोज़र की तरह किसी दिन हमारे भी घर को गिराने, हमारे घर के बाहर आकर खड़ा हो सकता है. भले ही आप डीजे की आतंक फैलाती धुन पर अपनी शर्ट उतारकर किसी प्रार्थना स्थल के बाहर विक्षिप्तों की तरह नाचने वाले समर्थक हों. आप तब भी सुरक्षित नहीं.
आप बुलडोज़र के कितने भी हिंसक समर्थक हों और खुद पर समर्थक होने का आपको प्राचीन गर्व हो. जिसकी उद्घोषणा आप गर्व से करते हैं. आप तब भी सुरक्षित नहीं. आप मात्र उनके ऐसे टूल्स हैं जिनका मनमाना उपयोग किया जा रहा है. फिर हम जैसे बुलडोज़र के समर्थक न होने पर तो आप बुलडोज़र के शत्रु हो ही जाते हैं. ये भारत का बुलडोज़र काल है. जिसमें सब असुरक्षित हैं. सुरक्षा में बस खुद को सुरक्षित मानता बुलडोज़र है? कुर्सी पर बैठा वह बुलडोज़र जो हर वक्त़ किस न किसी घर को गिराने की ताक में रहता है और अपने भीतर के अंधेरे में हँसता है.
ठीक दस साल बाद मैं सत्तर साल का हो जाऊँगा. मगर ‘सत्तर साल’; इस शब्द युग्म से मैं इतनी घृणा करता हूँ कि मैं उनहत्तरवे साल से सीधे इकहत्तरवे साल में प्रवेश करना चाहता हूँ. आखिर उन सत्तर सालों से मैं कैसे प्यार कर सकता हूँ जिसमें देश में कुछ नहीं हुआ. जिन्हें मेरा नेता, जिस को मैं अपना हृदय सम्राट मानता हूँ, बार-बार देश की बर्बादी के बुरे साल बताता है. इसके बावजूद भी मुझे उन सालों से नफरत है कि उनमें से ही एक साल मैं पैदा हुआ.
मैं इन सत्तर सालों के पहले के सालों और उसके बाद के सालों, ज़ाहिर है उन्नीस सौ सैंतालीस के बाद के सालों को अपने और राष्ट्र के साल मानता हूँ. मैं सत्तर सालों की किसी गतिविधि से वास्ता नहीं रखना चाहता. और अब तो मेरे पास सनातन काल है. जहाँ से मैं अपनी शुरुआत करता हूँ. मगर क्या किया जाए कि दुनिया और हमारे ये सत्तर साल एक से हैं, जो मिटाये नहीं मिटते. यदि ये बस हमारे, बस हमारे हुए होते, तब तुम मज़ा देखते. हम ऐसा मैटापौंछी करते कि अपने हिंदू होने में मजा ही आ जाता. ज़्यादा से ज़्यादा क्या होता ‘चक्कू, पिस्तौल और हत्या’. बस!
इस तरह ‘शिया बटर’ पढ़ने के बाद जो कहा जाना आवश्यक है वह यह कि कैफ़ी हाशमी हमारी भाषा के ऐसे भारतीय नौजवान कहानीकार हैं जिन्हें अपनी कहानियों में अदेखा-अनसुना जादू भरना आता है. मैनें उनकी कहानियों से कुछ उजास खरोंचकर आपके ज़ेहन में रोपने की कोशिश की है. यह अनोखा है कि कुत्ता, बिल्ली, बिल्ला, कछुआ, सीगल उनकी कहानियों में वैसे ही होते हैं जैसे कोई जादूगर अपने काले थैले में से कबूतर प्रकट करता हैं. मनुष्य और पशु-पक्षियों का साहचर्य उनकी कहानियों में मानवीय अपरिहार्यता है. मगर सबसे महत्वपूर्ण है उनकी बदलते भारत पर गहरी और बारीक दृष्टि और उसे कहानियों में विन्यस्त करने की नव-आधुनिक गंभीर सामर्थ्यवान समझ.
उनकी कहानियों में जीने की चाहत नहीं जिसके लिए वह समय के आगे गिड़गिड़ाते हों. बस जिये जाने में उनका भरोसा है. कहानियों में रूदन नहीं. न कोई आँसूओं का सैलाब कि जिसमें पाठक भीग जाए और पात्र के सिर पर अपना हाथ फेरने लगे. उसे झूठा आश्वासन देने लगे. वैसे अधिकतर आश्वासन झूठे और तात्कालिक ही होते हैं.
उम्मीद करता हूँ कि कहानीकार के पास जब वह इतना मज़बूत, गंभीर और अकल्पनीय-कल्पनाशील दिमाग हैं तो जीवन में भी वह वैसा ही होगा. इस दुनिया को कैफ़ी हाशमी जैसे समाजपेक्षी युवा लेखकों की कितनी जरूरत है. उसकी कहानियाँ पढ़कर इस बात का अंदाज़ा लगाया जा सकता है.
इस बात को भी परखा जा सकता कि ऐसे समय में जब राजनीति तरह-तरह से उसकी पहचान पर संकट पैदा करने में जुटी हो, वह किस तरह अपना मानसिक संतुलन बनाए रखने में कामयाब रहता है. भड़कने और भड़काने से दूर, फिर ऐसे कहानीकार लेखक को मेरा प्रिय होने में कितनी देर लग सकती थी.
कहानियाँ पढ़ने के दौरान, कहानियों में आपकी इन पंक्तियों से मुलाकात होगी-
*
मैं नहीं चाहता यह दरवाजा इसलिए खत्म हो क्योंकि किसी आदमज़ात ने इसकी देखभाल नहीं की बल्कि इसलिए खत्म हो क्योंकि इसने अपनी जिंदगी मुकम्मल कर ली है.
*
उसकी आवाज़ में किसी गुल्लक में अकेले बजते सिक्के की खनक थी.
*
खामोशी शायद दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत आदिम प्रवृति है. शायद दुनिया तब ज्यादा बेहतर रही होगी जब मनुष्य ने भाषा ईजाद नहीं की थी.
*
उसने मुझसे वादा किया है वह मुझे घर गिराते बुलडोजर देखना सिखाएगी.
*
जब आप प्यार में होते हैं तब आपके पास हामी भरने के सौ कारण होते हैं और नकारने का एक भी नहीं.
*
पीड़ा को सिर्फ़ कुछ समय के लिए कम किया जा सकता है या ज्य़ादा-से-ज्य़ादा इसे भटकाया जा सकता है. इस पीड़ा का कोई इलाज नहीं है.
*
जितना समय उसने मेरे साथ बिताया उससे कई गुना ज्य़ादा समय उसने अपनी याद में तड़पने के लिए मुझे छोड़ दिया.
*
यहाँ लोगों के पास स्मृतियाँ सालों में थी – सत्तर साल, हजार साल और सनातन काल की स्मृतियाँ!
*
विज्ञान की तरह प्यार भी कभी न खत्म होने वाला रिसर्च एलिमेंट है.
*
विज्ञान की सबसे बड़ी खासियत यह है कि जो आज फैंटेसी है कल सच बन जाता है और जो आज सच है वह कल फैंटेसी बनकर अपना म़ज़ाक उड़वाता है.
*
सपने कीमत चुकवाते हैं पूरे हो पाएँ तब भी, पूरे न हो पाएँ तब भी
*
आदिवासियों के मूतने से दिल्ली में बाढ़ आ रही है.
*
इस डर से कि फिर से कहीं किसी फ़ेक या हेट न्यूज के पैरों के नीचे कुचलकर मारे न जाये
*
वह हर चीज़ जो आईने की तरह साफ़ नज़र हमें एक न एक दिन धोखा देती है
*
अभिनय संवाद में नहीं संवाद के बीच उपस्थित मौन में है.
*
पेंटिंग खुद को वैसा ही बनाती है जैसा उसे बनना होता है.
*
अब तक आपकी ही की तरह मुझे भी लग रहा था इस कहानी का नायक मैं हूँ.
*
पुस्तक यहाँ से प्राप्त करें
| पवन करण ( 18 जून, 1964; ग्वालियर,म.प्र.) प्रकाशित काव्य-संग्रह : ‘इस तरह मैं’, ‘स्त्री मेरे भीतर’, ‘अस्पताल के बाहर टेलीफ़ोन’, ‘कहना नहीं आता’, ‘कोट के बाज़ू पर बटन’, ‘कल की थकान’ और ‘स्त्रीशतक’ खंड–एक एवं ‘स्त्रीशतक’ खंड–दो प्रकाशित.सम्मान : ‘रामविलास शर्मा पुरस्कार’, ‘रज़ा पुरस्कार’, ‘वागीश्वरी सम्मान’, ‘शीला सिद्धांतकर स्मृति सम्मान’, ‘परम्परा ऋतुराज सम्मान’, ‘केदार सम्मान’, ‘स्पंदन सम्मान आदि से सम्मानित. pawankaran64@rediffmail.com |

प्रकाशित काव्य-संग्रह : ‘इस तरह मैं’, ‘स्त्री मेरे भीतर’, ‘अस्पताल के बाहर टेलीफ़ोन’, ‘कहना नहीं आता’, ‘कोट के बाज़ू पर बटन’, ‘कल की थकान’ और ‘स्त्रीशतक’ खंड–एक एवं ‘स्त्रीशतक’ खंड–दो प्रकाशित.

