फूलों की घाटी(सिक्किम) परमेश्वर फुंकवाल |
उत्तर सिक्किम में ला चुंग के रास्ते का वह सुन्दर झरना जैसे आमंत्रित कर रहा था. एक दिन की ट्रेन यात्रा और एक दिन गंगटोक में बिताने के पश्चात् हम सत्तर मील का रास्ता तय कर फूलों की घाटी के प्रवेश द्वार ला चुंग जा पहुंचे थे. गंगटोक से ला चुंग का रास्ता बहुत बीहड़ था. कई जगह तो बस कच्चा सा. उत्तर सिक्किम हाईवे कई जगह निर्माणाधीन अवस्था में था. पर हमारा चालक तो बस उस रास्ते से अद्भुत साम्य बनाकर चल रहा था. ऊँचे पहाड़, गहरी घाटियाँ, उत्श्रंखल झरने और पहाडी मुस्कान सब कुछ था यहाँ.लखनऊ से गंगटोक तक की यात्रा के दौरान मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि सिक्किम की यात्रा सुन्दरता से साक्षात्कार का इतना अनूठा अनुभव होगा. करीब चौबीस घंटे के न्यू जलपाईगुडी तक के रेल सफ़र और फिर वहां से सड़क मार्ग द्वारा गंगटोक पहुँचने पर सिक्किम पर्यटन की ‘माउंट जोपनो’ लॉज में ठहरना एक सुखद और आरामदायक अनुभव था.
गंगटोक और चान्गू झील की यात्रा के बाद अगले दिन हमने युमथांग घाटी जाने का निर्णय किया. युमथांग उत्तर सिक्किम में स्थित एक अत्यंत सुन्दर घाटी है. चूँकि यह स्थान चीन सीमा के निकट है और सीमा सुरक्षा बल की देखरेख में है अतः यात्रा हेतु अनुमति लेने की आवश्यकता होती है. एक मित्र की सलाह पर हमने अपना परिचय पत्र और फोटो साथ में ले लिया था जिनके बिना अनुमति नहीं मिलती. मौसम अच्छा होना भी अनुमति मिलने की एक आवश्यक शर्त थी. हमारे ट्रेवल एजेंट ने आसानी से अनुमति प्राप्त कर ली और अगली सुबह हम टेक्सी से फूलों की घाटी के रास्ते पर थे.यहाँ ट्रेवल एजेंट एक पूरे पॅकेज के तौर पर सैलानियों को यात्रा हेतु वाहन, रास्ते में भोजन, नाश्ता, ला चुंग में ठहरने की व्यवस्था तथा फूलों की घाटी की यात्रा और फिर गंगटोक वापसी प्रदान करते हैं.
ला चुंग में यात्री सुविधाओं के पूरी तरह व्यावसायिक नहीं हो पाने के कारण यह एक बहुत व्यवहारिक विकल्प है जो सैलानियों को कई परेशानियों से बचाता है. हमने इसी पैकेज को लिया.रास्ते में मंगन नमक जगह दोपहर के भोजन के लिए रुके. वह एक घर था और पूरा परिवार हमें खाना परोसने को आतुर था. हमने पारंपरिक तरीके से भोजन किया. भोजन बहुत अच्छा हो ऐसा तो नहीं था, पर उसमें उनके ईमानदार प्रयास की खुशबू थी. इस दौरान हमने उनके रहन सहन के बारे में काफी जानकारी हासिल की. मुझे अनायास मलेशिया यात्रा की याद हो आई जहाँ पर पर्यटन विभाग ने पर्यटकों के लिए गाँव में स्थानीय निवासियों के साथ कुछ दिन रहने के अनुभव को संभव किया है. यह एक अच्छा प्रयोग है और सैलानियों को न केवल यहाँ के रहन सहन, संस्कृति से वाकिफ होने में मददगार होता है बल्कि उत्तर पूर्व के इस सुन्दर राज्य को राष्ट्र की मुख्य धारा के बंधन में बांधता भी है.ला चुंग पहुँचते पहुँचते शाम ढल चुकी थी और पहाड़ों के लम्बे बिम्ब रोशनी को चुनौती दे रहे थे. सामने “मिस्टिक वेली इन” थी जो रात के लिए हमारा आश्रय थी.
यह भी एक आवास था जिसे पर्यटकों की सुविधा के अनुरूप ढाल दिया गया था. ‘इन’ के मालिक ने गर्मजोशी से हमारा स्वागत किया. गर्म खाना और फिर रात्रि विश्राम.ला चुंग में अप्रैल माह की वह बहुत ही सुहानी सुबह थी. बाहर हल्की सर्द हवा थी जो माहौल को और भी खुशनुमा बना रही थी. ला चुंग से युमथांग याने फूलों की घाटी का सफ़र शुरू होने को था, और हमारा उत्साह चरम पर था. नैसर्गिक सौन्दर्य जैसे घाटी में बिखरा पड़ा था. गंगटोक से ला चुंग के सफ़र में ही हम सिक्किम की अद्भुत सुन्दरता के कायल हो चुके थे और अब तो फूलों की घाटी से रूबरू होने की बारी थी.हम सात बजे फूलों की घाटी के लिए निकल पड़े. घुमावदार रास्ते के दोनों और युमथांग घाटी अपने अप्रतिम सौंदर्य के साथ हमें सम्मोहित कर रही थी. यह सचमुच अविश्वसनीय था. हमने जीवन में कभी इतने सुन्दर प्राकृतिक फूलों को रास्ते के दोनों ओर नहीं देखा था.
“फूलों की घाटी में इस बार बारिश होने से फूल कम हैं”, हमारे ड्राइवर के स्वर ने हमारा ध्यान हिमालय की वादियों में ३५७५ मीटर की ऊंचाई पर स्थित युमथांग घाटी की हिमाच्छादित चोटियों से हटाकर सर्पीली सड़क के दोनों ओर केन्द्रित कर दिया. वहां कुदरत का बगीचा था जिसे दुनिया के सबसे कर्मठ माली ने स्वयं सजाया था. यहाँ पेड़ और रोडोडेन्ड्रान की अनेकों प्रजातियाँ हैं. रोडोडेन्ड्रानएक ऐसी झाडी है जिसके रंग बिरंगे फूल फरवरी से जून तक पूरी युमथांग घाटी को अद्भुत रंगों में रंग देते हैं. यहाँ इसकी कुल मिलाकर २४ से अधिक प्रजातियाँ पाई जाती हैं. रोडोडेन्ड्रान का फूलना मई के अंत तक रहता है. मानसून में घाटी में छोटे छोटे तरह तरह के फूल जैसे प्रिम्रोसेस, कोबरा लिली, लौसवोर्ट्स आदि मिलकर एक सुन्दर कोलाज का निर्माण करते हैं. घाटी में हमने फूलों को पास से महसूस किया और उनके साथ तस्वीरें खींची.यात्रा का पहला पड़ाव नदी तीस्ता की एक सहायक नदी के किनारे था. हवा बर्फीली थी और सामने रखे मोमोस और चाय गरमा गरम. हमारे चालक ने हमारे लिए ला चुंग से साथ में नाश्ता रख लिया था और उसके साथ न्याय करने का यही वक़्त था. जब तक हम नाश्ता करते, हमारा चालक मोमोस बेच रही उस पहाडी लडकी को मोमोस बनाने में मदद करता रहा. उनकी जुगलबंदी में प्रेम की वह लय थी जिसके संगीत को नदी की कल कल के साथ सुनना अपने आप में एक जादुई अनुभव था.
भारतवर्ष में जमीन पर ऐसा प्राकृतिक स्वर्ग होते हुए क्यों लोग विदेश जाना पसंद करते हैं यह प्रश्न मन ही मन उठता रहा.तृप्त होकर हमने युमेसमदोंग में समुद्र सतह से ४८०० मीटर की ऊंचाई पर स्थित “शून्य बिंदु” तक जाने का निर्णय किया. और इस निर्णय पर हमें पछतावा नहीं करना पड़ा. यह जगह इतनी सुन्दर थी कि स्तब्ध करती थी. युमथांग घाटी के पश्चात पेड़ पौधों का अस्तित्व न के बराबर है. यदा कदा सेना के कैंप अवश्य दिखाई पड़ जाते. प्राणवायु की कमी अब साँसों में महसूस होने लगी थी. यहाँ बच्चों ने बर्फ की परत पर चलने का अभ्यास किया, इस जगह की समुद्र सतह से ऊंचाई बताते बोर्ड के साथ तस्वीर खिंचवाई, गर्म चाय पी और फिर घाटी से उतरने का क्रम.रास्ते में प्राकृतिक सम्पदा के दोहन से उत्पन्न भू स्खलन के दृश्य देखे तो बच्चों को पुस्तकों में पढी बातें सजीव जान पडी. और लगा कि इस अनछुई जगह को अपने आनंद के लिए हम कितना नुकसान पहुंचा रहे हैं. क्या कोई विकल्प नहीं?
वापसी में उतरते समय हमारी गाडी ने गति पकड़ ली. शाम तक गंगटोक पहुँचने की चुनौती थी. धीरे धीरे शाम ढलने लगी. बादल गहराने लगे और बारिश शुरू हो गयी. चुंगथांग से निकलते ही बारिश तेज़ हो चली और पहाड़ों से उतरता पानी सड़क पर तेज़ी से बहने लगा. अँधेरा होते ही मन में एक डर सा व्याप्त होने लगा. बारिश रुकने का नाम नहीं ले रही थी और बहते पानी पर से गाड़ियाँ एक दुसरे के पीछे बस विश्वास की डोर पर चली जा रही थीं.
गंगटोक से करीब १० किलोमीटर की दूरी पर गाड़ियों का एक बहुत बड़ा समूह खड़ा था. आगे रास्ता बंद था. भूस्खलन से रास्ता कट चूका था और सिर्फ एक व्यक्ति के पैदल पार करने जितना सड़क का हिस्सा ही बाकी था. “अब यहाँ से तीन दिन तक निकलने का कोई रास्ता नहीं, पीछे भी चट्टान सड़क पर आने से दूसरा रास्ता भी बंद हो चूका है” यह हमारे ड्राईवर का स्वर था जो बरसते पानी के बहने के कोलाहल में अन्धकार के साथ मिलकर लगभग भयावह सा लग रहा था.
करीब एक घंटे तक विचार के पश्चात, यह फैसला हुआ कि अपना सामान लेकर एक एक कर पैदल उस स्थान को पार किया जाये और गंगटोक की और से सहायता पहुँचने की प्रतीक्षा की जाये. इसमें जोखिम था. लेकिन सामने कुछ यात्रियों को निकलते देख थोड़ी हिम्मत हुई (हालाँकि अब उस हिम्मत की सोच कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं!). और फिर एक एक कर हम उस बिंदु को पार कर गए. फिर हमने अपने ट्रेवल एजेंट को फोन किया. उसने भरोसा दिलाया कि वह गंगटोक से गाडी भेज रहा है.
कुछ आश्वस्त हुए ही थे कि पता चला कि आगे एक बहुत बड़ी चट्टान खिसक कर गंगटोक से आने वाले रास्ते को बाधित कर चुकी है और कोई वाहन उसे पार नहीं कर सकता. यदि वहां तक जाना है तो २ किलोमीटर का सर्पीला रास्ता पैदल पार करना होगा. रात का सन्नाटा, बरसते और बहते पानी के प्रलाप से विखंडित हो रहा था. साथ में पत्नी कविता और दो बच्चे और तेज़ बहते पानी और किसी भी समय किसी चट्टान के लुढ़क आने का भय. इस बीच पता चला कि पीछे पैदल पार करने वाली जगह भी धंस गयी. इत्तफाक से कोई उस समय उसे पार नहीं कर रहा था. अब लगने लगा गाडी में उस किनारे पर प्रतीक्षा ही कर लेते तो ठीक था. फिर भी हिम्मत कर सामान और बच्चों के साथ घुमावदार रास्ते पर हम अन्धकार और बारिश में चल पड़े.
बारिश और तेज़ हो चली थी. थोड़ी देर एक झोंपड़ी में प्रतीक्षा की. तभी सामने गंगटोक की ओर से रोशनी के दो बिम्ब दृष्टिगोचर हुए. लगा ईश्वर मदद के लिए आ गए हैं. वह एक मारुती वेन थी जो चट्टान सड़क पर गिरने के बाद घाटी और चट्टान के बीच की जगह से बस किसी तरह निकल कर आई थी (यह सुन कर हमारे रोंगटे दुगुनी ताक़त से खड़े हो गए थे!!).
उस गाडी का चालक एक बेहद हिम्मतवाला व्यक्ति था (आपने ठीक अंदाजा लगाया सरदारजी ही थे!). उसने कहा कि महिलाऐं एवं बच्चे मेरे साथ आ सकते हैं. चट्टान तक मैं उन्हें पहुंचा दूंगा और फिर उस पार कई गाड़ियाँ प्रतीक्षा कर रही हैं. एक गाडी और प्रतीक्षारत व्यक्तियों की संख्या एक अनार सौ बीमार कहावत का जीता जागता उदाहरण प्रस्तुत कर रही थी. छोटे बच्चों और उनकी माताओं को पहले बिठाया गया. दोनों बच्चे और कविता भी किसी तरह बैठ गए. लगा किसी मेट्रो शहर में ऑटो वाला जिस तरह सवारी बिठाता है वही दिव्य दृष्टी ईश्वर इन सरदारजी को भी दे. ऐसा हुआ भी. उस गाडी में न न करते २० व्यक्ति सवार हो गए. पहाडी रास्ते पर जवाब देने की बारी अब गाडी के इंजन की थी. गाडी चढ़ाई चढ़ने के बजाय पीछे लुढ़कने लगी. मुसीबतें थमने का नाम नहीं ले रही थीं (ठीक ‘मालामाल वीकली’ फिल्म की तरह!!). फिर तीन व्यक्तियों को उतारा गया. उनमें एक हमारी धर्म पत्नी भी थीं.
बच्चे गाडी में ही थे और श्रीमती जी के उतरते ही गाडी चल पडी और फिर रुकी नहीं. (यह बात मैं अब भी कभी कभी उनके वजन पर चुहल करते हुए कविता से कह देता हूँ!) अब हम सामान के साथ सड़क पर थे और बच्चों की चिंता सर पर सवार हो गयी थी. क्या वे सुरक्षित पहुंचेंगे? वे कहाँ प्रतीक्षा करेंगे? उन्हें कौन गाइड करेगा? एक पल को लगा जैसे सब कुछ हाथ से निकल गया है. फिर भी अपना सामान उठाये हम दोनों सड़क पर निकल पड़े.
हमारी टोर्च जवाब दे चुकी थी. बीच रास्ते में पीछे चलते एक व्यक्ति ने अपनी टोर्च से हमें भी रास्ता दिखाना शुरू किया. चलते चलते हम फोन पर उस पार प्रतीक्षारत ट्रेवल एजेंट और उसके द्वारा भेजे अपने नए चालक से संपर्क स्थापित करने का प्रयास कर रहे थे. उसने हमें भरोसा दिया और कहा कि वह बच्चों को खोज लेगा और वे सुरक्षित रहेंगे. फिर भी मन आशंकाओं के जाल में था. ऊपर बिजली चमकती तो डर गहरा जाता. किसी तरह भीगे-भागे से सड़क पर लुढ़क आयी अवरोधी चट्टान के समीप पहुंचे. पर ऑंखें तो बच्चों को खोज रही थी. चट्टान के उस पार गाड़ियों की एक लम्बी कतार थी. अब उनमें बच्चों को ढूँढने की कठिन चुनौती थी.
पर ईश्वर है भी और सहायता को आता भी है. हमारे ट्रेवल एजेंट ने टोर्च और गाडी की हेड लाइटस की रोशनी के मिले जुले प्रयास से हमें पहचाना और तुरंत कहा “बच्चे गाडी मैं हैं, चिंता न करें”. दुनिया में उस समय तक सुने सभी वाक्यों में यह सबसे मीठे जान पड़े. हम दोनों तुरंत गाडी की और भागे. अंशुमान अपने पाँव पर हुए एक घाव से निकलते रक्त को रोकने के लिए उसे दबाये बैठा था और नन्ही नुपुर उसके पास आश्वस्त बैठी थी. वह बहुत आश्वस्त करने वाला दृश्य था. हमें लगा बच्चे जीवन में किसी भी संघर्ष के लिए तैयार हैं. हम ही शायद कमजोर हो जाते हैं.
अंशुमान के पैर में एक जोंक चिपट गयी थी जिसे उसने निकाल फेंका था. तुरंत सामान से डीटोल निकालकर पट्टी की. बच्चों को छुआ और पाया कि वे हैं और सुरक्षित हैं.
हमारी गाडी हमें लेकर गंगटोक की ओर चल पडी. बारिश अब धीमी हो चली थी और सड़क पर धुंध बिछ रही थी. हम अपने ट्रेवल एजेंट को धन्यवाद दे रहे थे और वह कह रहा था केवल ५०० रूपये मुझे एक्स्ट्रा दे दीजीयेगा यह टेक्सी मैं किराये पर लाया हूँ. उस समय वह यदि ५००० भी मांगता तो शायद देने में हिचकिचाहट नहीं होती. ऐसे समय में करीब-करीब सभी यात्रियों के ट्रेवल एजेंट अपने यात्रियों को इसी तरह की सहायता दे रहे थे. यह एक अनूठी अतिथ भक्ति ही कही जायेगी. मुझे लगता है शायद इसीलिये सिक्किम की यात्रा हमेशा सैलानियों को अपनी और खींचती रहेगी.
रात को बारह बजे हम वापस ‘माउन्ट जोपनो’ पहुंचे. उन्हें सूचना मिल चुकी थी कि हम किस मुसीबत में थे. हमें गर्म खाना परोसा गया. बच्चे शीघ्र ही सो गए, उन्हें शायद यह अहसास नहीं था कि वे किस विपत्ति से निकल कर आ रहे हैं. मुझे अब भी बेचैनी थी. खिड़की का पर्दा हटाकर मैंने कोशिश की कि कंचनजंगा की त्रिशूलनुमा चोटियों को देख सकूँ जो सुबह स्पष्ट दिखाई देती हैं. वहां गहन अन्धकार था. ऊपर आसमान में घटाएं विदा हो रही थीं और चाँद अब उनके बीच से झाँक रहा था. और मैं उसके ठीक नीचे चोटियों की और देखता हुआ चाँद और त्रिशूल के साथ अदृश्य खड़े शिव को मन ही मन नमन कर रहा था.
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परमेश्वर फुंकवाल (16 अगस्त 1967, नीमच (म.प्र) आई आई टी कानपुर से सिविल इंजीनियरिंग में स्नातकोत्तरसाहित्य और अनुसन्धान में गहन रूचि. राष्ट्रीय/अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दस से अधिक शोध पत्र प्रकाशित. |