सोहराब सेपहरी की कविताएँ मूल फ़ारसी से अनुवाद : निशांत कौशिक |
सोहराब सेपहरी (Sohrab Sepehri, १९२८-१९८०) ईरानी कवि और चित्रकार थे. सोहराब की कविताओं में उनके समकालीनों की आधुनिकता का अमूर्त्य नहीं है. इन कविताओं में प्रयोग बहुत हैं और कई दफ़ा वह एक चित्रकार की लिखी हुयी कविताएँ भी दिखती हैं. उनके यहाँ आधुनिकता का विषाद तथा अजनबियत मौजूद है लेकिन अपने ही ढंग से. यहाँ प्रकृति बहुत मौजूद है. उसकी एक वजह उनकी यात्राएँ और भिन्न साहित्यिक परम्पराओं से उनकी वाबस्तगी भी है – दूसरी, उनका रहस्यवाद के प्रति गहरा झुकाव. वे ईरान के प्राचीनतम शहरों में से एक ‘काशान’ के थे और बीमारी के चलते कम-उम्री में उनकी मृत्यु हुयी. सोहराब की कविताएँ अक्सर लम्बी होती हैं और उद्धरणीयता उनमें कम है इसीलिए प्रतिनिधि रचनाओं का चयन कठिन काम है- फिर भी यह पाँच अनुवाद उनके व्यक्तित्व, कविताओं तथा, कला को और अधिक जानने के लिए एक आमंत्रण हैं.
निशांत कौशिक

سهراب سپهری
1.
सुनो,
दुनिया में दूर-तरीन चिड़िया के गाने को
रात, साफ़-ओ-शफ़्फ़ाफ़ है
गुल-शमादानी*
और मौसम की सबसे आवाज़दार शाख़ सुन रही है चाँद को
ईमारत के सामने की सीढ़ियाँ
हाथ में फ़ानूस लिए हैं
तेज़ है बादे-सबा
सुनो,
रास्ता आवाज़ देता है, तुम्हारे क़दमों की, दूर से
तुम्हारी आँखें, अँधेरे की सजावट नहीं हैं
पलकें झपकाओ,
पहनो जूते
आओ !
चले आओ, तब तक,
जब तक पूरा चाँद, तुम्हारी उँगलियों को आगाह न करे
जहाँ वक़्त, धरती के ढेले पर तुम्हारे साथ बैठे
और रात का गीत, तुम्हें आवाज़ के हिस्से की तरह ख़ुद में जज़्ब कर ले
पाकीज़गी है हर उस जगह, जहाँ तुम्हें कहा जाए;
“बेहतरीन है, उस नज़र तक पहुँचना, जो इश्क़ के हादसे से तर है।”
2.
ख़ूबसूरत है तुम्हारी आवाज़
वह उस अजीब हरे पौधे सी है
जो गहरी अपनाइयत के आख़िर में पैदा हुयी उदासी में फलता है
इस ख़ामोश वक़्त के पहलुओं में
एक सूनी गली में गूंजते नग़मे की मिठास से भी ज़्यादा तन्हा हूँ
आओ, बताऊँ तुम्हें !
कि कितनी बड़ी है तन्हाई मेरी
कि मेरी तन्हाई ने तुम्हारे होने के हमले का अंदाज़ा नहीं लगाया था
और यही ख़ासियत है इश्क़ की
कोई भी तो नहीं है!
आओ, चुरा लें ज़िंदगी फिर
दो मुलाक़ातों में पूरी बाँट लें
आओ,
पत्थर की क़ुदरत के बारे में कुछ समझें
आओ, देखें और भी चीज़ें
देखो, फव्वारे के घड़ी-सुई जैसे हाथ
हौद की सतह पर
वक़्त को एक गोल-चक्कर में बदल देते हैं
आओ, पानी हो जाओ
जैसे एक लफ़्ज़, मेरी ख़ामोशी की सतर पर
आओ, मेरी हथेली पर पिघला दो
इश्क़ का रोशन जुर्म
मुझे दो, तपन
(और एक बार काशान के रेगिस्तान में घटा थी,
तेज़ बारिश हुयी
सर्दी थी
तब चट्टान के पीछे
एक बर्ग-ए-गुल ने मुझे तपन दी थी )
इन गलियों में, जो अँधेरी हैं
मैं शको-शुबहा और दियासलाई की तकरार से डरता हूँ
डरता हूँ इस सदी की सख़्त सतह से
आओ, कि मैं न डरूँ शहरों से
जहाँ की स्याह मिट्टी, चारागाह है क्रेनों की
खोलो मुझे
किसी नाशपाती जैसी नाज़ुकी में खुलते हुए दर की तरह
इस इस्पाती-फ़ौलादी वक़्त में
सोने दो, किसी शाख़ के नीचे
रात में बजती आहनी टकराहटों से दूर
जगाओ मुझे
अगर सुबह की खदान को खोजता हुआ कोई आए
मैं तुम्हारे छुअन की ओट से, चमेली-फूल सा उग आऊँगा
और तब
उस बम-बारूद के बारे में बताना, जो गिरे, जब सोया था मैं
उन रूख़सारों के बारे में, जो भीगे, जब सोया था मैं
बताना कितनी मुर्ग़ाबियाँ गयीं दरिया के पार
उस हंगामे में, जब बच्चे के ख़्वाब पर से गुज़रा बख़्तरबंद
क़नारी चिड़िया ने किस ख़ुश-अहसास के पैरों में
अपनी आवाज़ के ज़र्द तागे बांधे
बताओ
कौन सा सादगी भरा सामान उतरा
बंदरगाह पर
किस इल्मी नज़रिए ने
बारूद की बू का संगीत ढूँढा
रोज़मर्रापन की रोटी में वह कौन सी छुपी हुयी कसक थी
जो पैग़म्बरी के तजुर्बे में शामिल हो गयी
और तब मैं
धूप में तपे ईमान की तरह
तुम्हें रोपूँगा बाग़ के सिरे पर

3.
एक अजीब ख़्वाब में
लफ़्ज़ों की ओर एक दर खुलेगा
हवा कुछ फुसफुसाएगी
एक सेब गिरेगा
ज़मीन की नज़ाकत पर
लुढ़कता चला जाएगा
रात के गुम वतन की ओर
गिर जाएगी वहम की छत
आँखें, एक उदास होशमंदी देखेंगी, सब्ज़े में
बेलें उलझ जाएँगी, ख़ुदा का करम देखने के लिए
राज़ों का पर्दाफ़ाश होगा
समय की तपस्या की जड़ें सूख जाएँगी
अँधेरी राह में
पानी की सरगोशियों की कगार पर
बिजलियाँ चमकेंगी
समझ जाएगा आईना सब
अपने भीतर
आज रात
दोस्ताना हवा
छेड़ेगी मानी की जड़ों को
हैरत, पँख फड़फड़ाएगी
गहरी रात में कीड़ा लेगा तजुर्बा
तन्हाई की लज़्ज़त का
लफ़्ज़ सुबह में
दाख़िल होगी सुबह
4.
कोई अब्र नहीं है
कोई हवा नहीं
हौद की कगार पर बैठा हूँ
पानी में मछलियों की गर्दिश
ये गुले-आब मेरी रोशनी है
ज़िंदगी के पाकीज़ा गुच्छे
मेरी माँ
तुलसी तोड़ती है
नानरोटी, पत्तियाँ और चीज़
बादल नहीं आसमान में
पेटुनिया के पत्तों पर टिकी है ओस
मुक्ति नज़दीक है
सेहन और फूलों के दरमियाँ
रोशनी
किस नाज़ुकी से छूती है ताँबे के क़ासे को
दीवार की ऊँचाई से एक सीढ़ी
सुबह को ज़मीन तक लाती है
कुछ छुपा है हर मुस्कराहट के पीछे
वक़्त की दीवार में एक रोशनदान है
जिसमें मेरा चेहरा दिखाई देता है
कुछ चीज़ें हैं
जिनके बारे में
कुछ नहीं जानता
पर यह जानता हूँ
घास की महीन पत्ती भी तोड़ूँ
मर जाऊँगा
मैं चढ़ता चला जाता हूँ ऊँचाई
पर हैं और पंख हैं मेरे पास
मैं अँधेरे में देख सकता हूँ
मैं भरा हुआ हूँ चिराग़ों से
मैं रोशनी और रेत से भरा हूँ
दरख़्तों और शाख़ों से भी
मैं रास्तों, पुलों, दरियाओं, लहरों से भरा हूँ
मैं पानी पर पत्ते के साये से भी भरा हूँ
कितना ख़ाली है भीतर
5.
अगर मुझे ढूँढ़ रहे हो
तो मैं एक गुमनाम जगह में हूँ
वीरानी के पार इस जगह
हवा की नसों में हरकारे हैं
जो दूर खिले फूलों की ख़बरें लाते हैं
रेत पर भी घुड़सवारों के खुरों के नाज़ुक नक़्श हैं
वे अलसुबह पोस्ता के टीलों तक गए थे
गुमनाम इस जगह पर
तमन्नाओं का छाता खुला हुआ है
कि जब प्यासी हवा पत्तों की सतह पर पहुँचे
बारिश शुरू हो जाए
इंसान यहाँ तन्हा है
और इस अकेलेपन में,
दरख़्त का साया, अनंत तक जाता है
अगर तुम मुझ तक आ रहे हो
नर्मी और आहिस्तगी से आना
कि मेरी तन्हाई का नाज़ुक शीशा न तिड़के.
अनुवाद के बारे में : यह कविताएँ मूल फ़ारसी से किया हुआ मेरा पहला अनुवाद हैं और इसमें किसी अन्य भाषा का सहारा नहीं लिया गया है. सारी कविताओं में प्रयास किया गया है कि उन्हें मूल फ़ारसी से क़रीबतर रखा जा सके इसीलिए इसमें ‘हिन्दुस्तानी’ अधिक दिखाई देगी और कभी-कभी ‘तपस्या’ और ‘अनंत’ जैसे शब्द भी दिखाई देंगे. सोहराब सेपहरी के यहाँ फूल, पौधे और दरख़्त आदि के नाम अक्सर आते हैं- जिनका हिंदी/उर्दू समतुल्य चुनना कविता के वज़न और गति को नष्ट करता है. इसी क्रम में आप ‘बर्ग-ए-गुल’ देखेंगे न कि शब्दशः “खसखस का चूल्हा” या फिर ‘गेरेनियम्स’ की जगह ‘गुल-शमादानी’ न कि ‘क्रेन’स बिल’.
सोहराब सेपेहरी (7 अक्टूबर 1928 – 21 अप्रैल 1980) प्रसिद्ध आधुनिक ईरानी कवि और चित्रकार. आठ कविता संग्रह प्रकाशित. कविताओं के अंग्रेजी , फ्रेंच , स्पेनिश , इतालवी , लिथुआनियाई और कुर्द आदि कई भाषाओं में अनुवाद. भारत की यात्रा. |
![]() (1991, जबलपुर, मध्य प्रदेश)जामिया मिल्लिया इस्लामिया, दिल्ली स्नातक, तुर्की भाषा एवं साहित्य मुंबई विश्वविद्यालय, महाराष्ट्र : डिप्लोमा, फ़ारसी तुर्की, उर्दू, अज़रबैजानी और अंग्रेज़ी से हिंदी में अनुवाद पत्रिकाओं में प्रकाशित. विश्व साहित्य पर टिप्पणी, डायरी, अनुवाद, यात्रा एवं कविता लेखन में रुचि. फ़िलहाल पुणे में नौकरी एवं रिहाइश. |
बेहतरीन कविताएं, शानदार अनुवाद।
एक टिप्पणी, कि कोई टिप्पणी नहीं। कुछ न कहा जाए, बस महसूस किया जाए।
सोहराब सेपेहरी और निशांत कौशिक से वाक़िफ़ कराने का शुक्रिया । मुर्ग़ाबियाँ मुरग़ाबियाँ लफ़्ज़ बरसों बाद पढ़ा । ‘नसों में हरकारे ग़ज़ब की उपमा है । आरंभ में एक जगह सतर लिखा है । जाँच लें ।
एक ईरानियत जिससे हम कुछ-कुछ मानूस रहे हैं, उसकी गूँज बचा लेना बड़ी बात। हर ज़मीन की अपनी आवाज़ सलामत रहे। न सियासत रौंदे न मजहब और न ही हथियारों की बेलगाम तिज़ारत।
क़माल है फ़ारसी से हिन्दी में अनुवाद !!! यह अपने आप में हैरतअंगेज है।
कविताएं और तर्जुमा दोनों बेहतरीन। उम्मीद है और अनुवाद भी पढ़ने को मिलेंगे। एक बार पढ़कर छोड़ देने वाली कविताएं नहीं हैं यह। इन्हें बार बार पढ़ना होगा। फूलों, दरख्तों आदि के नामों के लिए गति, लय और वज़न में ख़लल पैदा करने वाले शब्दों का चुनाव न करना अनुवादक की समझ का परिचायक है।