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Home » सीरियाई गृहयुद्ध की कहानियाँ : प्रो. लोई अली ख़लील : शहादत

सीरियाई गृहयुद्ध की कहानियाँ : प्रो. लोई अली ख़लील : शहादत

युद्ध चाहे गृह ही क्यों न हो, सब कुछ हमेशा के लिए बदल देता है. उसकी आग वर्षों तक जलती रहती है, धुआँ उठता रहता है, और कभी समृद्ध रहे सभ्य देश और समाज बर्बाद हो जाते हैं. अधिकतर ये बाहरी आक्रमणों से भी घातक और गहन होते हैं. पर यह भी यह ध्यान रखना चाहिए कि इनके बीज घर के अंदर ही अन्याय की मिट्टी में दबे रहते हैं. प्रस्तुत लघु-कथाएँ सीरियाई गृहयुद्ध की परिस्थितियों पर आधारित हैं. इनके लेखक प्रो. लोई अली ख़लील सीरियाई मूल के हैं और वर्तमान में क़तर यूनिवर्सिटी में अरबी भाषा के प्रोफ़ेसर हैं. इनका प्रस्तुत हिंदी अनुवाद वसीम अहमद अलीमी द्वारा मूल अरबी से किए गए उर्दू अनुवाद पर आधारित है. इन कहानियों में मारक व्यंग्य है. युवा कथाकार शहादत ने इन कहानियों का अनुवाद विशेष रूप से आपके लिए किया है.

by arun dev
November 20, 2025
in अनुवाद
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सीरियाई गृहयुद्ध की कहानियाँ : प्रो. लोई अली ख़लील : शहादत
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सीरियाई गृहयुद्ध की कहानियाँ
प्रो. लोई अली ख़लील


शहादत

  

हिलाल और सलीब

जॉर्ज के जिस्म को अब्दुल हादी के जिस्म से अलग पहचानना संभव न था, उनके हाड-मांस एक-दूसरे में यूं घुल-मिल गए थे जैसे किसी ने उन्हें एक ही भट्टी में पिघला कर दोबारा ढाला हो. धमाके ने कोई ऐसी निशानी बाक़ी नहीं छोड़ी थी, जिससे यह बताया जा सके कि कौन-सा टुकड़ा किसका है.

मरने वालों के परिवार-जन परेशान और बदहवास थे, कौन-सी मय्यत मस्जिद जाएगी और कौन-सी चर्च? आख़िर सबने तय किया कि इस मामले का फ़ैसला शेख़ महमूद, जो जामा मस्जिद-ए-ईमान के इमाम थे और पॉप योहन्ना, जो चर्च जॉर्जियों के पादरी थे, उन दोनों से सलाह-मश्वरा करके किया जाए. चुनांचे दोनों को बुलाया गया और वे नगर-पालिका की इमारत में एक साथ बैठ गए.

बातचीत लंबी होती गई, फ़ैसले का कोई सिरा हाथ न आया. आख़िरकार, गांव वालों ने थककर यह तय किया कि दोनों लाशों के बचे हुए अस्थि-पंजर को इकट्ठा करके एक ही ताबूत में रख दिया जाए. मस्जिद में नमाज़-ए-जनाज़ा हुई, चर्च में सामूहिक प्रार्थना और फिर वह ताबूत धमाके वाली जगह के क़रीब एक छोटे से वीरान बाग़ में दफ़न कर दिया गया.

वापसी पर लोगों ने देखा कि शेख़ महमूद और पॉप योहन्ना अभी तक आ रहे हैं, गंभीर चेहरे बनाए और आहिस्ता-आहिस्ता क़दम बढ़ाते हुए. पूछने पर मालूम हुआ कि वे किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सके. इसलिए यह तय हुआ है कि एक संयुक्त विचार-विमर्श एक हफ़्ते बाद दोबारा होगा.

 

 

हवालीना व ला अलैना*

हैलीकॉप्टर ने हमारे मुहल्ले के ऊपर आहिस्ता-आहिस्ता मंडलाना शुरू किया. सब कुछ जैसे थम गया. एक भयानक-सा ठहराव था. मुझे फ़ौरन अंदाज़ा हुआ कि वह किसी भी लम्हे एक बैरल बम गिरा देगा, जैसे उसने भीड़-भरे दूसरे मुहल्लों पर गिराया था. मैं नहीं जानता था क्या करूं. गलियां स्नाइपर की गोलियों के निशाने पर थीं और घर से निकलने का कोई रास्ता नहीं था. मैंने अपनी बेटी समीरा को सीने से लगा लिया और तेज़ी से कमरों के बीच बने अंदर वाले गलियारे की तरफ़ बढ़ा. वह घर का सबसे सुरक्षित कोना था. इस दौरान मैं बुलंद आवाज़ में ख़ुदा से दुआ मांगने लगा-

(या अल्लाह इस बम को हमसे दूर रख!)

समीरा ने इस अल्फ़ाज़ को मेरे साथ दोहराया-
(या अल्लाह इस बम को हमसे दूर रख!)

उसकी आवाज़ में एक नन्ही-सी मासूम कंपकंपाहट थी और लफ़्ज़ ‘हम’ उसके नाज़ुक लहजे पर बहुत भारी लग रहा था. मैंने फिर कहा,

हवालीना व ला अलैना.
“ऐ ख़ुदा, हम पर नहीं, हमारे पड़ोसी पर!”

फिर मैंने इल्तिजा की,

ऐ ख़ुदा, हमसे यह आफ़त दूर कर.

अचानक एक ज़ोरदार धमाका हुआ. ऐसा लगा जैसे ज़मीन ने झटका खा लिया हो. आँखों के आगे अंधेरा छा गया. मैं नहीं जानता कितना वक़्त गुज़रा, जब होश में आया तो ख़ुद को ज़मीन पर गिरा हुआ पाया और समीरा मेरे पहलू में थी. मैंने उसे उठाया तो वह जाग गई और मुझसे लिपट गई. मेरे इर्द-गिर्द सब कुछ बिखरा पड़ा था. खिड़कियों के शीशे टुकड़ों में टूटे हुए ज़मीन पर बिखरे पड़े थे, अलमारियां उल्टी थीं, दरवाज़े टूटे हुए और हर चीज़ पर ग़ुबार की तह जमी हुई थी. मैंने ख़ुदा का शुक्र अदा किया कि बैरल बम हमारी इमारत पर नहीं गिरा. आहिस्ता-आहिस्ता मेरी सुनने की क्षमता लौटने लगी. इस बीच एक कर्कश शोर फ़िज़ा में बुलंद हुआ. मैं घिसटता हुआ खिड़की तक गया कि देखूं क्या हुआ है? दूर एक इमारत से आग भड़क उठ रही थी. वह इमारत अबू हबीब की थी, जो मुहल्ले का मुखिया था. औरतों की चीख़ें इतनी तेज़ थीं कि जैसे दोबारा मेरे कान बहरे कर देंगी.

मैंने जो कुछ वहां होने का अंदाज़ा किया, उसके ख़्याल से ही मेरे अंदर एक अजीब-सी रुदाली फूटने को बेताब थी. ऐसा लगा मानो जान निकल जाएगी.

समीरा ने मासूमियत से पूछा,

‘अब्बा, आप क्यों रो रहे हैं?’

मैंने धीरे से कहा,

‘बेटी, बैरल बम हमारे पड़ोसियों के घर पर गिरा है.’

उसने हैरत से पूछा,

‘क्या आपने दुआ नहीं की थी कि वो हम पर न गिरे? फिर आप रो क्यों रहे हैं?’

मैं ख़ामोश रह गया.

‘क्या आपने दुआ नहीं मांगी थी या रब, इस बम को हमसे दूर रख?’

‘हाँ, कहा था.’

‘और यह भी कहा था, हवालीना व ला अलैना.’

‘हां, वो भी कहा था.’

‘तो अगर वो हम पर नहीं गिरेगा तो फिर कहां गिरेगा अब्बा?’

‘यक़ीनन हमारे पड़ोसियों पर.’

समीरा के ये अल्फ़ाज़ मेरे दिल में ऐसे उतरे जैसे कोई तेज़ छुरी सीने में पैवस्त हो जाये. मैं लगातार एक गहरे ग़म में डूब गया, ऐसा ग़म जो आज भी मुझे बोझल किए हुए है.

*हम पर नहीं हमारे पड़ोसियों पर.

 

मैली पतलून

दरवाज़े की घंटी बजी तो मैंने बेख़्याली में जाकर दरवाज़ खोल दिया. मुझे क्या ख़बर थी

कि सामने वही होगी!

(अल्लाह तुम्हें माफ़ करे, अम्मा अगर तुमने बताया होता कि लैला आने वाली है इस्त्री मांगने के लिए, तो मैं यह मैली जींस बदल लेता और फटा हुआ बनियान उतारकर कोई क़मीज पहन लेता.)

मैंने जल्दी में इस्त्री लैला के हाथ में थमाई और अपना चेहरा छिपाने की कोशिश करने लगा, कहीं उसकी नज़र मेरी मैरी पतलून के दाग़ों पर न पड़ जाये. वह चली गई और मैं देर तक उसके क़दमों की हल्की, धीमी और नाज़ुक चाप सुनता रहा. उसके हर क़दम के साथ मेरा दिल जैसे धड़कने लगता था. अभी उसके क़दमों की आहट मद्धिम हुई ही थी, और मेरा दिल ज़रा ठहरा ही था कि अचानक भारी क़दमों की गूंज मेरे कानों में पड़ने लगी. ये चाप सीधी हमारे दरवाज़े तक पहुंची. दरवाज़ा एक ज़ोरदार धक्के से उखड़ गया. कई हथियारबंद आदमी अंदर घुस आए. उन्होंने मुझे चारों तरफ़ से घेर लिया और मेरे हाथों को सफ़ेद प्लास्टिक की पट्टी से बांध दिया.

अम्मा की चीख़ें और मिन्नतें उनके पत्थर जैसे चेहरों पर ज़रा भी असर नहीं डाल रही थीं. जब वे मुझे घसीट कर गली में लाए, मेरी आँखें ख़ुद-ब-ख़ुद लैला की बालकॉनी की तरफ़ उठ गईं. शायद वह वहां हो. शायद वह झांककर देख ले, मेरी वही जींस और वही फटा बनियान, जो अब कीचड़ और ख़ून से लिथड़े हुए थे, जो मैंने उस दिन पहने थे, जब मैं सड़कों पर दौड़ता हुआ आज़ादी के नारे लगा रहा था.

 

हम मर्द हैं

फ़ौजी गाड़ियां नगर पालिका की इमारत की तरफ़ से दाख़िल हुईं और क़हवा ख़ाने के मोड़ पर आकर रुक गईं. वे गाड़ियां अभी वहीं खड़ी थीं कि एकाएक उनके सामने हथियार लहराते लोगों की शहरी गाड़ियां नमूदार होने लगीं. फिर वे लोग धीरे-धीरे सड़क पर फैलने लगे. उस वक्त मैं रजब की दुकान के सामने खड़ा था. घबराकर बाक़ी मर्दों के साथ अंदर घुस गया. हमने शीशे का दरवाज़ा अंदर से बंद कर लिया और दुकान के अंदर ही से बाहर का मंज़र देखने लगे.

हमें उनके आने का सिर्फ़ गुमान था. मगर वे इतनी जल्दी आ धमकेंगे, यह नहीं सोचा था. हालांकि, इसके लक्षण तो कल ही से दिखने शुरू हो गए थे.

हथियारबंद लोग सड़क की ओर खुलने वाले घरों में घुस गए. उन घरों में से वे लोग कम के उम्र लड़कों को मारते-पीटते और रस्सियों से जकड़कर घसीटते हुए बाहर लाए. उनके पीछे-पीछे औरतें भी निकल आईं, जो अपने बेटों के बचाव में चीखों-पुकार कर रही थीं. …और हम अंदर से तमाशा देख रहे थे. इसी दौरान पच्चीस बरस की एक औरत हमारे क़रीब आई, दरवाज़ा खोला और चिल्लाकर बोली,

“यहीं रहो, हिलना मत… हराम-ज़ादे मर्दों को पकड़ रहे हैं!”

हम मर्द वहीं दुबके रहे. औरत दौड़कर किसी लड़के को छुड़ाने की कोशिश में उन हथियार-बंद लोगों के सामने डट गई. और हम मर्द.. अंदर ही से तमाशा देखते रहे.

थोड़ी देर में दो औरतें दुकान के दरवाज़े तक आईं, अंदर झांका और दोनों ने एक साथ कहा,

“बाहर ना निकलना, वरना पकड़ लिए जाओगे.”

वे दौड़ती हुईं उस हथियार-बंद फ़ौज तक जा पहुंचीं और गिड़गिड़ाकर उन्हें समझाने लगीं कि लड़कों को छोड़ दें. इतने में दुकान के सामने वाले मकान से एक हथियार-बंद शख़्स निकला. हथियार लहराता वह शख़्स उस मकान से एक चौदह बरस के एक लड़के को घसीटकर बाहर ला रहा था. उसके पीछे-पीछे रोती-चिल्लाती उस लड़के की माँ भी आ रही. वह गिड़गिड़ा रही थी. हम चंद मर्द शीशे से मुँह चिपकाए इस मंज़र को अच्छी तरह देखने की कोशिश करने लगे. औरतों ने हाथ के इशारे से हमें पीछे हटने को कहा, सो हम हट गए और फिर भी अंदर ही से देखते रहे.

वह माँ लगातार अपने बेटे को छुड़ाने की कोशिश कर थी. उन्होंने लड़के की आँखों पर एक पट्टी बांधी और उसे एक बड़ी जीप में ठूंस दिया. जीप में ठुसे उस लड़के की एक टांग दरवाज़े से बाहर लटक रही थी. माँ ने उसकी वही टांग पकड़ ली. जीप एकाएक चल दी और माँ बेटे की टांग से लिपटी-लिपटी गाड़ी के साथ घिसटती हुई चली गई. यहां तक कि वह नज़रों से ओझल हो गई. यह एक ख़ौफनाक मंज़र था.

और हम.. हम अंदर से ही उसे देखते रहे. हम यानी मर्द लोग.

 

झुंड

सरकार के जहाज़ों के आने और दरिया पर बमबारी होने की ख़बर फैली तो बदहवास लोग पनाह-गाहों की तरफ़ दौड़ने लगे. और मैं.. मैं भाग कर छत पर जा पहुंचा.

बुर्ज़ से कबूतर निकाले और उनको आसमान में आज़ाद कर दिया. वे सभी एक साथ इकट्ठा होकर एक झुंड बनाते हुए ऊपर उड़ने लगे और फ़िज़ा में इस तरह झूमने लगे जैसे कोई सूफ़ी दायरा बांधकर ख़ामोशी से झूम रहा हो. कभी दाएं तो कभी बाएं. फिर नीले आसमान ने उन्हें अपनी आग़ोश में ले लिया और उन सबको किसी बच्चे की सूरत अपने आंचल में छुपा लिया.

इसके कुछ ही लम्हे बाद क्षितिज के आख़िरी सिरे पर एक और चिड़ियों की ही तरह का झुंड नज़र आया. मगर क्षितिज के आख़िरी सिरे पर उभरा यह दायरा-नुमा झुंड लोहे के अजीबो-ग़रीब ढांचों से बना था. वे तेज़ी से क़रीब आए, उनकी हरकत में किसी प्रकार की सुस्ती या सामान्य भाव नज़र नहीं आ रहा था. वे सीधी और किसी कांटेदार लकीर की तरह आगे बढ़ते गए. फिर उन्होंने आसमान का सीना-चाक कर डाला… और आसमान लहू-लुहान हो गया.

 

 

टैक्सी

रात के अंधेरे में शहर में एक ख़बर सरसराने लगी कि फ़ौजी अचानक शहर से निकल गए हैं. किसी ने गुमान भी नहीं किया था कि बग़ावत इस क़द्र सख़्त प्रतिरोध करेगी. फ़ौज जाते-जाते तीन टैंक और कुछ हथियार पीछे छोड़ गई थी. अफ़वाहें (अबू कमाल जैसे) छोटे से शहर में जल्द नहीं मरतीं. सुबह की पहली किरण के साथ बच्चे गलियों में निकल आए थे कि वे तीन टैंक ढूंढ सकें, और उनके पीछे-पीछे पूरा मुहल्ला भी इसी तलाश में था. मुझे ख़ुद में कोई दिलचस्पी महसूस न हुई कि मैं भी जाकर टैंक तलाश करूं.

अगर वाक़ई कहीं होंगे तो अबू कमाल की तंग-गलियों और छोटे घरों के बीच छिपे होंगे.

मैं तो शहर के किनारे वाले तंदूर की तरफ़ चल पड़ा कि इंक़लाब के शुरू होने के बाद से रोटी बहुत कम मिलने लगी थी. वापसी के रास्ते में अचानक एक गरजदार आवाज़ सुनाई दी. कुछ भारी-सा, जैसे फ़ौलाद का कोई देव, आहिस्ता-आहिस्ता क़रीब आता जा रहा हो. मैं रुक गया. नज़र दौड़ाई तो देखा कि सड़क के बीच एक बड़ा-सा लोहे का जानवर धीरे-धीरे रेंग रहा है. उसके गिर्द दर्जनों लड़के और उसके ऊपर चंद नौजवान बैठे थे. जब वे मेरे बराबर आए तो रुक गए.

अंदर से किसी ने मेरा नाम पुकारा. पहले तो पहचान न सका. फिर टैंक के ऊपर एक छोटा-सा दरवाज़ा खुला और उसमें से मेरा दोस्त अब्दुल हमीद सफ़र ने अपना सिर ऊपर निकाला. वह जोश से बोला,

‘आओ तुम्हें घर छोड़ देता हूं.’

मैंने हैरत से पूछा,

‘तुम टैंक के अंदर क्या कर रहे हो?’

बोला,

‘ये माल-ए-ग़नीमत है.’

मैंने कहा,

‘और तुम्हें इसे चलाना आता है?’

वह हँसते हुए बोला,

‘बिल्कुल आसान, गाड़ी से भी आसान. आओ, ज़्यादा बातें न करो!’

मैंने हँसते हुए कहा,

‘तो क्या अब टैंक टैक्सी का काम भी करने लगे हैं?’

ऊपर बैठे दो और लड़के ज़ोर से हँसने लगे.

अब्दुल हमीद बोला,

‘हाँ, और आम टैक्सी से सस्ती है, आओ बैठो!’

मैं ऊपर चढ़ गया.

अब्दुल हमीद ने टैंक को शहर की गलियों से गुज़ारा.

गर्द उड़ती जा रही थी, लोग हमें देखकर ख़ुशी से नारे लगाने लगे. जब हम घर के सामने पहुंचे तो मैं उतरा, उसका शुक्रिया अदा किया और जाने लगा तो पीछे से उसकी आवाज़ आई,

‘पैसे कहां हैं?’

मैं रुक गया,

‘कौन से पैसे?’

‘गाड़ी का किराया!’

उसके लहजे की सख़्ती ने मुझे चौंका दिया. वह मज़ाक़ नहीं कर रहा था. मैंने जेब से पचास लीरा निकाले और उसे दे दिए.

उसने पच्चीस लीरा वापस किए और टैंक धीरे-धीरे धूल के बादल में ग़ायब हो गया.

________________________

 

सीरिया मूल के प्रो. लोई अली ख़लील वर्तमान में क़तर यूनिवर्सिटी में अरबी भाषा विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर के रूप में कार्यरत हैं. उनके अब तक पांच उपन्यास, दो कहानी संग्रह, चार लघुकथा संग्रह और आलोचना-शास्त्र पर दर्जन भर पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं. अपने विपुल साहित्यिक कार्यों के लिए वह सुआद अल-सबा पुरस्कार, अरब लेखक संघ पुरस्कार, अल-बत्तानी पुरस्कार, ख़लीफा शैक्षिक पुरस्कार और क़तर फाउंडेशन वैज्ञानिक पोस्टर पुरस्कारों सहित विभिन्न सम्मानों से सम्मानित हो चुके हैं.

शहादत युवा कथाकार और अनुवादक हैं. अब तक उनके दो कहानी संग्रह ‘आधे सफ़र का हमसफ़र’ और ‘कर्फ़्यू की रात’ प्रकाशित हो चुके हैं. अनुवाद की उनकी दो पुस्तकों में ज़हीर देहलवी की आत्मकथा ‘दास्तान-ए-1857’ और मकरंद परांजपे की लिखी महात्मा गांधी की जीवनी ‘मृत्यु और पुनरुत्थान’ प्रकाशित हो चुकी हैं. उनका पहला उपन्यास ‘मुहल्ले का आख़िरी हिंदू घर’ प्रकाशय है.

संपर्क- 786shahadatkhan@Gmail.com

  

Tags: प्रो. लोई अली ख़लीलशहादतसीरियाई गृहयुद्ध की कहानियाँ
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विकल्प : अखिलेश सिंह

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