आख़िरी ख़तसुभाष शर्मा |
‘और क़रीब दस साल तक इंतज़ार करते-करते उसकी मौत हो गयी.’
मगर मुझे अपने दोस्त कुलदीप के इस कथन पर आशंका हो रही थी. सो वह आग बबूला हो गया- ‘क्या मैं हनुमान की तरह अपना कलेजा फाड़ कर दिखाऊँ? या ‘गीता’ पर हाथ रखकर शपथपूर्वक कहूँ- जो कुछ कहूँगा, सच कहूँगा, सच के सिवाय कुछ नहीं कहूँगा. सब जानते हैं कि अदालत के कठघरे में सच के शर्बत में झूठ का पानी बेहिसाब मिलाया जाता है. उस पर अदालत प्रायः यकीन कर लेती है!’
मैंने उसकी इस खौलती प्रतिक्रिया पर बर्फ की सिल्ली धीरे से रखते हुए कहा- ‘नहीं कुलदीप भाई! यह वाकया इतना जटिल है कि मेरी मनःस्थिति कुछ विचित्र सी हो गयी है.’ फिर उसने तफ़सील से बताया कि कई वर्ष पहले औद्योगिक निवेश बढ़ाने के लिए उसे टोक्यो में भारतीय वाणिज्यिक दूतावास में प्रतिनियुक्त किया गया था. फिर वह अपने परिवार सहित वहाँ जाकर रहने लगा. वहाँ बाज़ार से लेकर रेलगाड़ी तक सर्वत्र भीड़ ही भीड़ नज़र आती थी. धीरे-धीरे वह नये परिवेश में ढलने लगा. उसे एक दुभाषिया जापानी महिला मियाको निजी सचिव के रूप में दे दी गई. वह जितनी ख़ूबसूरत थी, उतनी ही समझदार भी थी. ब्यूटी विद ब्रेन! मियाको ने उसे बताया कि जापानी लोग अपनी मातृभाषा से बेहद प्यार करते हैं. अंग्रेजी पढ़ने-लिखने में ज़्यादा समय बर्बाद किये बिना जापानी भाषा में तकनीकी बारीकियाँ जल्दी सीख लेते हैं. कुलदीप को हिंदी और अंग्रेजी आती थी, मगर जापानी नहीं. कुछ दिनों में ही हिल-मिलकर वह कुलदीप को ‘पियाको’ नाम से संबोधित करने लगी.
ख़ैर…. कई बड़े कारखानों में, पहले से समय नियत कराकर, कुलदीप को वह ले जाने लगी. वहाँ के उद्योगपति कुलदीप उर्फ़ पियाको की अगवानी, मुख्य द्वार पर आकर, सिर झुकाकर, करते थे. वह बताता कि मारुति-सुजुकी कार निर्माता कंपनी भारत में सफल है. फिर वह नया निवेश करने का अनुरोध करता. जापानी उद्योगपति विनम्रता से सिर हिलाते- ‘जी हाँ, क्यों नहीं? भारत और जापान दोस्त हैं.’
मगर उससे ज़्यादा वे हँसते. कुलदीप को लगा- हँसना दो भाषाओं के बीच की दूरी को सहर्ष पाट देता है. कुलदीप भी थोड़ा हँसोड़ था. इसलिए उनकी एक घूँट हँसी पर वह पेट भर हँसता और उन्हें हँसाता. अक्सर कई जापानी बंधु जापानी में शिकायत करते- ‘कुलदीप जी! हँसते-हँसते पेट में दर्द होने लगा है.’ फिर उधर से कुलदीप को सांस्कृतिक परम्परा के रूप में कुछ न कुछ उपहार में दिया जाता. चूँकि कुलदीप दिल्ली में विद्यालय और महाविद्यालय में पढ़ने के साथ-साथ नाटक आदि कार्यक्रम बराबर आयोजित करता रहता था, इसलिए वह अभिनय कला में माहिर था. ऐसी मुलाकातों में कभी-कभी वह कलाकार का रूप धारण कर लेता था. कुछ महीनों के संपर्क से मियाको की हिंदी बेहतर हो गई और पियाको भी जापानी भाषा से कुछ परिचित हो गया.
जब मियाको आश्वस्त हो गई कि पियाको को नाटक खेलना और देखना दोनों पसंद है, तो वह स्वेच्छया से जापानी काबुकी थियेटर में चलने वाले नाटकों की दो टिकटें अपने पैसे से ख़रीदकर लाने लगी. पियाको के साथ बैठकर तसल्ली से नाटक देखना उसे भाता था. फिर पियाको उसे नाटक की बारीकियाँ समझाता था- अमुक किरदार ने वैसा क्यों और कैसे किया? क्या दूसरा तरीक़ा बेहतर होता? हिंदी और जापानी नाटकों में प्रस्तुति, संवाद अदायगी, गीत-संगीत-नृत्य शैली, स्त्री-पात्रों की भागीदारी, नायक और नायिका के अनुरागात्मक दृश्य, सूत्रधार की शैली वग़ैरह-वग़ैरह में क्या समानताएं एवं भिन्नताएं हैं. एकमुश्त इतना मुफ़्त ज्ञान उसे आहलादित कर देता. उसके भीतर नाना प्रकार के भाव उठने लगते.
एक दिन सफ़र के दौरान तमाम बातों के सिलसिले में मियाको ने पियाको से निवेदन किया- ‘क्या आप मुझे अभिनय करना सिखा देंगे? आपसे कुछ सीखकर मैं किसी काबुकी थियेटर में कोई किरदार ज़रूर निभाऊँगी.’
‘मियाको! मैं तो आवारा किस्म का आदमी हूँ. कभी किसी से, तो कभी दूसरे से चलते-फिरते कुछ-न-कुछ सीख लेता हूँ. हर इंसान अंततः एक अभिनेता होता है इस दुनिया में- कोई कम, तो कोई बेशी.’
‘आवारा! हाँ मुझे याद आया. राजकपूर की फिल्म ‘आवारा’ मैंने कई बार देखी है, अपनी माँ के साथ या अपनी सहेलियों के साथ. उसका गाना जादुई है- मेरा जूता है जापानी, मेरा पतलून इंगलिशतानी, लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल है हिंदुस्तानी. हमारे यहाँ जूते का मोल है, आपके यहाँ दिल का. मुझे वह ‘आवारा’ बेहद पसंद है और…’ कहते-कहते उसने पियाको के हाथ पर अपना हाथ रख दिया.
‘अरे! मैं सचमुच आवारा हूँ. भारत में फक्कड़ साधु-फकीरों की बहुत पुरानी परम्परा है. उनका खुलापन, मुँहफटपन, भटकना आदि मुझे बेहद पसंद है. मैं उड़ता पंछी हूँ. मेरे पैर में शनीचर रहता है.
‘शनीचर का क्या मतलब?’ मियाको ने उत्सुकता दिखायी.
‘जो कहीं टिके नहीं. भारत में उपनिषदों में कहा गया है- चरैवेति, चरैवेति, चरैवेति – यानी चलते रहो, चलते रहो, चलते रहो. मुझे यह शिक्षा सबसे ज़्यादा पसंद है. ईश्वर, ज्ञान, धर्म, सत्य आदि की खोज वाली उनकी बातें मेरे पल्ले नहीं पड़तीं.’
‘जो आपको सूट करता है, उसे आप अपना लेते हैं?’
‘मैं बुद्धिजीवी होने का भ्रम नहीं पालता. बहुतेरे बुद्धिजीवी कहते कुछ हैं, करते कुछ और हैं. महात्मा बुद्ध और महात्मा गांधी इसके अपवाद हैं. हिंदी के फक्कड़ कवि कबीर ने ठीक ही कहा है –
कथनी मीठी खाँड़-सी, करनी विष की लोय.
कथनी तजि करनी करै, विष से अमृत होय..
‘अच्छा, अच्छा, कबीर? उनका नाम सुना है और मैं बौद्ध धर्म की अनुयायी हूँ. धन्य, आप तो बुद्ध की धरती से हैं. आपका यह बेलौसपन मुझे नायाब लगता है. आपकी खरी-खरी बातें मुझे बेहद पसंद है. मैं आपसे बेहद प्रभावित हूँ.’
‘मियाको! ओसोइ देस (देर हो गई).’
‘अच्छा, बाबा! इकी माशो (चलिये).’ मियाको को अच्छा लगा पियाको की जुबान से जापानी भाषा सुनकर. उसे लगा शायद ज़िंदगी पटरी पर आ जाये.
‘रेलगाड़ी में काफी भीड़ हो जायेगी. मुझे दूर तक जाना है. रात हमें अपने आगोश में ले रही है. आसमान में निकला चाँद मुसकुराते हुए इस चाँद का दीदार कर रहा है.’
‘दूसरा चाँद है कहाँ?’
‘मुझसे गुफ़्तगू कर रहा है. उसे नहीं मालूम कि आसमान के चाँद से बीस है वह.’
‘उन्नीस-बीस? क्या मतलब? मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है. ज़्यादा रात हो जायेगी, तो मेरी बूढ़ी माँ घबड़ाने लगेगी. किते कुदासाई (कृपया आइये).’ मियाको स्टेशन की ओर बढ़ गई और दोनों तुरन्त पहुँची रेलगाड़ी में चढ़ गये. चौथे स्टेशन पर उतरते हुए मियाको ने उसे अलविदा कहा. पियाको को सात स्टेशन आगे जाना था.
घर पहुँचने के बाद, माँ के साथ खाने के बाद वह सोने चली गई. मगर उस रात उसके मन, दिल और आत्मा में उथल-पुथल हो रही थी. वह थोड़ा-सा याद करती मगर बहुत सारी चीज़ें याद आ जातीं. कभी पियाको का सलोना चेहरा, तो कभी उसका अभिनय मन के आईने में दिख जाता. कभी साथ में देखे गए तमाम नाटकों के तमाम दृश्य गड्ड-मड्ड हो जाते. कभी रेलगाड़ी की भीड़ में उसके साथ सफ़र करना बिजली-सा कौंधता. कभी पार्क में कुछ कहे, कुछ अनकहे, और फिर दोनों के बीच अन्तराल स्मृति-पुंज पर सरकता. कभी दोनों के बीच प्रकृति द्वारा बुने गये सन्नाटे का छन्द याद आता. कभी पियाको की रसभरी बातें यादों की पिटारियों से भर-भराकर निकलतीं जैसे बरसात में पाँखियाँ अचानक बिलों से निकलती हैं. कहने को तो रात का वक़्त था, मगर रात कहाँ? कभी-कभी उसे लगता कि वह आसमान में उड़ रही है दूसरे चाँद का साथ पाने के लिए. मगर आसमान का चाँद लुका-छिपी का खेल खेल रहा था. यह सोचते-सोचते वह कल्पना के झूले पर पेंगे मारने लगती! यह क्या? अधखुली आँखों से उसने देखा भुवन भास्कर अपने स्वर्णिम रथ पर सवार होकर पधारने वाले हैं!
सप्ताहान्त होने की वज़ह से मियाको नाश्ता करके पियाको को शिबूया रेलवे स्टेशन घुमाने ले गयी. बाहर निकलते ही कुत्ते की एक अद्भुत पीतल की मूर्ति दूर से दिखाई दी. शिल्पकार ने उसे फुर्सत से बनाया था. मियाको ने उसे नमस्कार किया. असमंजस में पड़े पियाको उसके बारे में जानने के लिए बेचैन-से हो गये. फिर मियाको ने उसे विस्तार से यूँ बताया:
‘टोक्यो कृषि विश्वविद्यालय में बीसवीं सदी के पहले चतुर्थांश में एक नामी-गिरामी प्रोफेसर थे हाइचाबूरो. उन्हें कुत्ता पालने का बेहद शौक था. मगर वह सिर्फ़ और सिर्फ़ अकीता नस्ल का कुत्ता तलाश रहे थे. उस समय समूचे जापान में उस नस्ल के महज पचास कुत्ते थे. लाख कोशिश करके उन्होंने एक ऐसा कुत्ता ख़रीद लिया. उन्होंने उसका नाम रखा ‘हचीको’. वह उसे अपने साथ नहलाते-धुलाते, खिलाते-पिलाते और सुलाते भी थे. भोर में उठते ही दोनों सैर करने जाते थे. फिर व्यायाम करते थे. वह उसे अपने बेटे की तरह पालते-पोसते-मानते थे. उनके घर में और कोई नहीं था- अविवाहित थे. वह रोज़ाना हचीको के साथ घर से पैदल चलकर शिबूया स्टेशन जाते थे. जब वह स्टेशन के अंदर प्रवेश करते, तो हचीको घर वापस लौट जाता था. शाम को वह पुनः स्टेशन के बाहर खड़े-खड़े अपने मालिक का इंतज़ार करता था. फिर दोनों पैदल घर वापस जाते थे. यह सिलसिला क़रीब एक साल तक चला. एक दिन सुबह हचीको अनमना-सा था. वह हाइचाबूरो पर अनायास भौंक रहा था. प्रोफेसर उसका निहितार्थ समझने में असमर्थ थे.
वह मई का गर्म दिन था. वह घर से विश्वविद्यालय के लिए हचीको के साथ नियत समय पर निकले. स्टेशन पहुँचने पर वह और ज़ोर-ज़ोर से भौंकने लगा. मगर वह उसकी भाषा नहीं समझ सके. उन्होंने सोचा- कुत्ता इंसान की भाषा समझ लेता है मगर इंसान? उन्होंने रोज़ाना की तरह उसे चूमा. उसने उनकी हथेली चाटी. फिर वह स्टेशन के अंदर चले गये. वह बाहर भौंकता रहा. थोड़ी देर में वापस घर चला गया. शाम को हचीको पुनः स्टेशन के बाहर खड़े-खड़े अपने मालिक का बेसब्री से इंतज़ार करता रहा मगर आने-जाने वाले लोगों को लगा वह सिर्फ भौंक रहा है! देर रात तक उसने इंतज़ार किया मगर मालिक का कोई अता-पता नहीं था. अगले दिन वह फिर शिबूया स्टेशन पर गया. मगर उसके मालिक नहीं आये. वह भौंकते-भौंकते इंतज़ार करता रहा. वह नौ वर्ष, नौ माह, पंद्रह दिनों तक अपने मालिक का रोज़ाना सुबह से शाम तक इंतज़ार करता रहा. मगर मालिक के वापस न आने पर एक दिन उसने अपना प्राण त्याग दिया.
दरअसल, करीब दस वर्ष पहले प्रोफेसर हाइचाबूरो की मौत कृषि विश्वविद्यालय में पढ़ाते समय सेरेब्रल हेमरेज से हो गई थी. उस प्रोफेसर के एक शिष्य हैरोकीची ने ‘सेन्सेज ऑव अकीता जापान’ नामक एक शोधपूर्ण लेख लिखा जिसमें अकीता नस्ल के हचीको की वफ़ादारी का अप्रतिम वर्णन था. जापान सरकार ने इसी स्टेशन के बाहर हचीको की यह ख़ूबसूरत मूर्ति उसकी याद में बनवा दी. इसके अलावा नेशनल म्युज़ियम और अन्य महत्वपूर्ण जगहों पर भी उसकी मूर्तियाँ स्थापित कर दी गईं. हर जापानी वफ़ादारी और पारिवारिक प्रेम के कारण इस मूर्ति को बाइज़्ज़त सलाम करता है और उसे जापान की राष्ट्रीय विरासत का अनिवार्य हिस्सा भी मानता है. पियाको, जापान में इन्सान ही नहीं, जानवर भी वफ़ादार होते हैं.’
यह सुनकर पियाको की आँखों से लोर लुढ़कने लगे. थोड़ी देर तक वह उसकी स्मृति में खोये-से रहे. फिर बोले- ‘वफ़ादारी में कुत्ते का कोई सानी नहीं. आजकल इनसान स्वार्थ में अंधा हो गया है, उसे दूसरों की फिक्र नहीं, जीव-जंतुओं की कौन कहे. मैं हचीको की स्मृति और उस प्रोफेसर की आत्मा को विनम्र श्रद्धा से प्रणाम करता हूँ.
मगर हचीको का मतलब क्या होता है?’
‘हाची’ का मतलब ‘आठ’ और ‘को’ प्रत्यय सम्मान का सूचक है जैसे हिंदी में ‘जी’.’
‘अच्छा, वाह!’
फिर दोनों बगल के साफ-सुथरे विरासत वाले रेस्तराँ में चले गये. मियाको ने दो कप ‘कोही’ (कॉफी) का आदेश दिया. वह पियाको के भावनात्मक दर्द पर मीठी-मीठी बातों का फाहा लगाने लगी. उसने उनकी मनोवस्था बदलने के लिए पिछले हफ़्ते देखे गये जापान के मशहूर नाटक ‘हँसना मना है’ की चर्चा छेड़ दी. कैसे उसका नायक, नायिका की हर बात पर फ़िदा हो जाता था, कि कैसे वह प्राकृतिक फूलों से तत्काल नाता जोड़ लेता था, कि कैसे हँसी-हँसी में खेती में बढ़ती लागत और किसान आंदोलन का उलझा हुआ सवाल समझा देता था कि कैसे वह किसानों और मज़दूरों की एका में आ रहे अवरोधों को पूँजीवादी व्यवस्था के संकट से जोड़ देता था.
थोड़ी देर बाद पियाको ने ख़ास अंदाज़ में कहना शुरू किया – ‘नाटक में कथा भी होती है, कविता भी होती है, हास्य-व्यंग्य के अलावा चाक्षुष दृश्य भी होते हैं. मगर सबसे ज़्यादा ज़रूरी है अभिनय की कला. संवाद की अदायगी नाटक का प्राणतत्व है. एक समर्थ अभिनेता अपने अभिनय से कमज़ोर कथ्य की दरारों को बेहतरीन ढंग से पाट देता है. तनाव उभारने के लिए अभिनेता का हाव-भाव बहुत कुछ कह देता है और कई अनकही चीज़ों का संकेत भी कर देता है.’
यह सुनते ही मियाको ने उसकी हथेली चूम ली- ‘वाह!’
फिर उसकी दाहिनी हथेली अपने हाथों में ले ली और सहलाने लगी. पियाको ने कुछ सोचते हुए कहा- ‘मियाको! दुनिया में सबसे ख़ूबसूरत रिश्ता मानवता का होता है. उसके आगे दुनिया की बेशक़ीमती दौलत दो कौड़ी की है. अव्वल रिश्ता इनसानियत. जिसमें इनसानियत नहीं, वह किसी काम का नहीं.’
‘आपकी सारी बातें सोलहों आने सच हैं. मैं भी हचीको हूँ.’ मियाको के मुँह से अनायास निकला.
‘मगर मेरा भरा-पूरा परिवार है. परिवार वाले बंधनों से बंधे होते हैं. वह कभी टूटता है, कभी सूखता है और कभी भूलता भी है. मगर परिवार और समाज उसे सँभालते भी हैं, दिशा भी दिखाते हैं. मैं उम्र की ढलान पर और आप उसकी चढ़ान पर हैं. क्षणिक भावुकता के सहारे ज़िंदगी का कठोर संघर्ष हल नहीं किया जा सकता. जापान के तमाम युवा आपको दिल देने के लिए बेताब होंगे.’
‘मैं जानती हूँ कि आप परिवार वाले हैं. बस, आप ‘हाँ’ कह दीजिए. कोई वैवाहिक कर्मकांड नहीं होगा. मंदिर में जाने या लिखा-पढ़ी की ज़रूरत नहीं. मुझे कोई दौलत नहीं चाहिए. मुझे आपका निश्छल प्यार चाहिए. मैं आपसे तन-मन से जुड़ना चाहती हूँ.’
‘मियाको! ओसोइ देस (देरी हो गई)! फिर कभी इत्मीनान से गपशप होगी. अभी मैं यहीं हूँ.’
‘गपशप कहकर इसे आप टाल रहे हैं. मेरी भावनाओं की कद्र न कर के मेरा अपमान कर रहे हैं पियाको!’
तभी गाड़ी की आवाज़ सुनकर दोनों सरपट भागे. गाड़ी में तिल रखने की जगह नहीं थी. मगर मियाको चिरौरी-विनती करके उसके लिए थोड़ी जगह बनाने में कामयाब हो गई. चार स्टेशनों के बाद मियाको का स्टेशन आ गया. उसने उसे ‘आरीगातो’ (धन्यवाद) कहा और उस प्लेटफार्म पर उतर गई. सात स्टेशनों के बाद जब पियाको का स्टेशन आया, तो विशाल भीड़ में उसका ब्रीफकेस गुम हो गया. तेज़ कदमों से चलकर अपने आवास से उन्होंने मियाको को फोन लगाया- ‘मेरा ब्रीफकेस गाड़ी में कहीं गुम हो गया. उसमें पासपोर्ट और अन्य ज़रूरी कागज़ात थे. अब मैं क्या करूँ?’
‘घबड़ाइये नहीं, पियाको! खोयी हुई चीज़ों को खोजना और उसके असली मालिक तक पहुँचाना जापान सरकार का काम है. आप बेफिक्र होकर, खा-पीकर गहरी नींद लीजिए और सुहाने सपने देखिये.’
‘मगर कोई उसका दुरुपयोग भी कर सकता है.’
‘नहीं, बिल्कुल नहीं! यह जापान सरकार की समस्या है. उसे पाने वाला ख़ुद आपसे संपर्क करेगा.’ मियाको की बातों से लगा कि ये भारत नहीं, जापान है.
अगले दिन सुबह नौ बजे पियाको नाश्ता कर रहे थे. तभी उनके फोन की घण्टी बजी. किसी ने अंग्रेजी में कहा- ‘हेलो, मिस्टर कुलदीप! आपका ब्रीफकेस मुझे मिला है. मैं इसे आपके स्टेशन पर स्टेशन मास्टर के पास भेज रहा हूँ.’
‘आरीगातो (धन्यवाद)! मैं आपसे मिलना चाहता हूँ.’
‘नहीं, आने की ज़रूरत नहीं है. आपका सामान आपको पहुँचाना मेरा फर्ज़ है.’
कुलदीप उर्फ़ पियाको ने थोड़ी देर में स्टेशन जाकर अपनी पहचान दिखाकर, हस्ताक्षर करके अपना ब्रीफकेस सही सलामत ले लिया. तब तक मियाको भी वहाँ पहुँच गई थी. उसने उसे बताया- ‘हमारे देश की पुरानी परम्परा है- खोया सामान उसके मालिक को लौटाना. मालिक स्वेच्छया से खोयी वस्तु की क़ीमत का दस फ़ीसद उसे इनाम के रूप में देता है. जापानी सरकार, समाज और नागरिक काफ़ी जागरूक और ज़िम्मेदार हैं.’
यह सुनकर वह भारतीय सरकार, समाज और नागरिकों की ज़िम्मेदारी के बाबत सोचने लगे. तभी मियाको ने उसकी हथेली अपने हाथों में ले ली. काफ़ी गर्माहट थी. फिर वे दोनों रेस्तराँ में कोही (कॉफी) पीने चले गये. मियाको की आँखों में अभी भी एक अनमोल सपना था. मगर पियाको अपना कदम पीछे हटाते रहे अपने परिवार के प्रति वफ़ादारी और ज़िम्मेदारी के कारण.
बमुश्किल एक हफ़्ता बीता था. कुलदीप को सरकार का एक पत्र मिला. उसे वापस बुलाया गया था. शायद सरकार का मक़सद पूरा हो गया था. दूसरे के मक़सद से क्या वास्ता? मियाको उसे छोड़ने हवाई अड्डे पर गयी. उसने एक ख़ूबसूरत ‘इकेबाना’ (जीवन्त गुलदस्ता) और हचीको की एक मूर्ति उसे भेंट में दी. उसकी आँखें नम थीं. कुलदीप उसे कॉफी पिलाने रेस्तराँ में ले गया और उससे माफ़ी माँगी. मियाको बार-बार दोहरा रही थी- ‘ मैं आपकी हचीको हूं. मैं आजीवन आपकी हां का इंतज़ार करूंगी.’
‘मियाको! मैं आपको, अपने परिवार को और स्वयं को धोखा नहीं देना चाहता. आगे भगवान की जो इच्छा.’
कुलदीप के आँसुओं ने शेष जवाब दे दिया. मियाको ने उसे ‘माते ने’ (फिर मिलेंगे ) कहा.
थोड़ी देर में कुलदीप का ‘एयर इंडिया’ का जहाज टोक्यो से दिल्ली के लिए उड़ गया. अचानक विमान तल पर एक चिड़िया लहूलुहान होकर गिर पड़ी थी.
दोनों के बीच पत्राचार होता रहा. बीच-बीच में मियाको उसे फोन भी करती थी. कुछ महीने पहले उसने छाती के कैंसर की बात लिखी थी. उसे कुलदीप ने भरोसा दिलाया कि वह जल्द ठीक हो जाएगी. अब कैंसर लाइलाज नहीं है. मगर पिछले हफ़्ते एक और ख़त मिला. उसमें काँपते हाथों से लिखा था- ‘मुझे कोविड-19 ने अपने क्रूर पंजों से जकड़ लिया है. मेरे फेफड़े का आधा हिस्सा संक्रमण से ख़राब हो गया है. शायद यह मेरा आख़िरी ख़त है. आपकी ‘हचीको’ अब आपके इंतज़ार में दम तोड़ने वाली है. मुझे माफ़ कर देना. मैं आपका साथ नहीं दे सकी. शायद मैं आपके क़ाबिल नहीं थी. ‘आरीगातो ओजाइमास (बहुत-बहुत धन्यवाद), सायोनारा…. अलविदा, मेरे पियाको!’
कुलदीप ने उसे तत्काल फोन लगाया. मगर घंटी बजती रही. उसने फिर फोन लगाया. फिर घण्टी बजती रही. फिर उसने फोन किया. फिर घण्टी बजते-बजते रुक-सी गई. उसकी आँखों से आँसुओं के झरने बहने लगे. वह अपने को गुनहगार मानने लगा मियाको की ज़िंदगी के दस बरस खोने के लिए. क्या मियाको की आत्मा उसे माफ़ कर देगी? वह यही बार-बार सोचने लगा.
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सुभाष शर्मा 20 अगस्त, 1959, सुल्तानपुर (उ. प्र.) एम.ए., एम.फिल (समाजशास्त्र), जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से. एम.ए. (विकास प्रशासन एवं प्रबन्धन) मैनचेस्टर विश्वविद्यालय, इंग्लैंड से. पटना विश्वविद्यालय से पी-एच.डी. (समाजशास्त्र).प्रकाशित कृतियाँ : ‘जिन्दगी का गद्य’, ‘अंगारे पर बैठा आदमी’, ‘दुश्चक्र’, ‘बेजुबान’, ‘भारत में बाल मजदूर’, ‘भारत में शिक्षा व्यवस्था’, ‘भारतीय महिलाओं की दशा’, ‘हिन्दी समाज : परम्परा एवं आधुनिकता’, ‘शिक्षा और समाज’, ‘विकास का समाजशास्त्र’, ‘भूख तथा अन्य कहानियाँ’, ‘खर्रा एवं अन्य कहानियाँ’, ‘कुँअर सिंह और 1857 की क्रान्ति’, ‘भारत में मानवाधिकार’, ‘संस्कृति और समाज’, ‘शिक्षा का समाजशास्त्र’, ‘हम भारत के लोग’, ‘डायलेक्टिक्स ऑव अग्रेरियन डेवलपमेन्ट’, ‘व्हाइ पीपल प्रोटेस्ट’, ‘सोशियोलॉजी ऑव लिटरेचर’, ‘डेवलपमेन्ट एंड इट्स डिस्कान्टेन्ट्स’, ‘ह्यूमन राइट्स’, ‘द स्पीचलेस एंड अदर स्टोरीज’, ‘मवेशीवाड़ा’ (जॉर्ज ऑर्वेल के उपन्यास ‘द एनिमल फार्म’ का अनुवाद), ‘कायान्तरण तथा अन्य कहानियाँ’ (फ्रांज काफ़्का की कहानियों का अनुवाद), ‘अँधेरा भी, उजाला भी’ (विश्व की चुनिन्दा कहानियों का अनुवाद). संस्कृति , राजसत्ता और समाज सहित अनेक पुस्तकें प्रकाशित. प्रमुख पत्रिकाओं में कहानियां, कविताएँ एवं लेख प्रकाशित. कहानियों का अंग्रेजी, ओडिया, बांग्ला, मराठी आदि में अनुवाद.पुरस्कार : राजभाषा विभाग, बिहार सरकार से अनुवाद के लिए पुरस्कार; बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना से कहानी के लिए साहित्य साधना पुरस्कार; ‘भारत में मानवाधिकार’ पुस्तक पर राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग (नयी दिल्ली) से प्रथम पुरस्कार (2011). सम्प्रति: भारत सरकार एवं बिहार सरकार की सेवा में उच्च पदों पर ई-मेल : sush84br@yahoo.com |
बहुत सुंदर कहानी।अपर्णा सेन की खूबसूरत फिल्म ’जापानिज वाइफ’ की स्मृति जगाने वाली अद्भुत और मार्मिक कहानी । बहुत बहुत बधाई सुभाष शर्मा और ’समालोचन’ दोनों को । क्या कहानी है ,क्या उम्दा कथानक और उम्दा शिल्प। किस्सागोई ऐसी कि बहते चले जाइए । गजब की भाषा, जापानी भाषा की मिठास में घुली हुई ,जापानी संस्कृति और परंपरा में पगी हुई ।अद्भुत चरित्र । सब कुछ प्रीतिकर और मार्मिक ।
बहुत अच्छी कहानी
कितने दिनों बाद एक प्यारी कहानी पढ़ने को मिली। यह कहानी अपनी तरह की एकदम अलग और अनोखी कहानी है। भाषा ऐसी जिसे पढ़ते हुए लगता है जैसे आंखों के सामने कोई चलचित्र चल रहा हो। कहानी ने ‘ द जैपनीज वाइफ ‘ की याद तो दिलाई ही साथ ही हचीको जैसे ईमानदार कुत्ते की कहानी से भी रु-ब-रु होने का अवसर प्रदान किया। यह कहानी ऐसे कहानियों में शामिल है जिसे कभी भी विस्मृत कर पाना किसी भी पाठक के लिए संभव नहीं होगा। एक अलग प्रेम, समर्पण और विश्वास से भरे दो अलग देशों के होने के बाद भी उसे हमेशा जोड़े रखने की उम्मीद इस कहानी की बड़ी खूबी है।
इस बहुत सुंदर कहानी के लिए कथाकार सुभाष शर्मा और ‘ समालोचन ‘ को बहुत बधाई💐
एक सांस में ही पूरी कहानी पढ़ गया . लम्बी अवधि के उपरांत एक अनूठी कहानी पढ़ने का सुअवसर प्राप्त हुआ. कहानी ने मन को छू लिया . जापान की पृष्ठभूमि में चरित्रों एवं घटनाओं का अदभुत संयोजन है जो पाठकों को अंत तक बांधे रहता है . जापान की आर्थिक सामाजिक, महानगरीय व्यवस्था आदि का जो विवरण प्रस्तुत किया गया है वह सजीव तो है ही मस्तिष्क में भी साथ साथ चलते रहने जैसा ही है नायिका को पारिवारिक सामाजिक दायित्यों का हवाला दे कर छोड़ना एक दुखद घटना है परंतु शायद कहानी की यही मांग है जो इसे उत्कृष्ट बनाती है . सुभाष शर्मा जी को इस कहानी के लिए बहुत-बहुत साधुवाद
एक लंबी अवधि के अंतराल पर एक अनोखी कहानी पढ़ने का सुअवसर प्राप्त हुआ . एक ही सांस में पढ़ गया . प्रेम समर्पण एवं विश्वास पर आधारित यह कहानी अद्भुत है . जापानी पृष्ठभूमि पर लिखी गई इस कहानी कहानी में चरित्रों एवं घटनाओं का काफी सुंदर संयोजन है जापान के आर्थिक सामाजिक एवं महानगरीय संस्कृति की सजीवता भी मस्तिष्क में सरलता से अंकित हो जाते हैं. कहानी अविस्मरणीय है सुभाष शर्मा जी को इस कहानी के लिए बहुत बहुत साधुवाद.
प्रेम शायद भाषा और अभिव्यक्ति से परे है,परे है भौगोलिक सीमाओं से,परे है उम्र की सीमाओं से, वह जानवर और इंसान के भेद को भी पाट देता है ।वह केवल प्रतिदान की अपेक्षा रखता है जिसे कथाकार डॉ सुभाष शर्मा ने अपनी कहानी’ आख़री ख़त’ द्वारा परिभाषित किया है।कुल मिलाकर प्रेम एक अलौकिक कृत्य है।
प्रेम त्याग की अपेक्षा करता है।प्रेम की यात्रा में कोई एक प्रतिदान में चूक जाता है तब प्रेम गहरा विषाद बन कर सालता रहता है ।
जापानी युवती कुलदीप को निःस्वार्थ भाव से हृदय का दान करती है,उसका यह त्याग केवल व्यक्तिगत सम्वेदना नहीं,लेखक ने इसे जापानी संस्कृति के उत्कर्ष के साथ जोड़कर दिखाया है।सच यह है कि उदार संस्कृति के उदर में ही उच्च प्रेम के तत्व अंतरनिहित होते हैं।हचिको(जापानी कुत्ता)की मूर्ति को जापानी लोग प्रेम का प्रतीक मान कर सम्मान देते हों वहां की हवा में ही प्रेम का तत्व विचरण कर रहा हो तो क्या आश्चर्य?प्रेम के लिये इच्छा मात्रा अपेक्षित नही होती उसके लिए पर्याप्त ईमानदारी की भी अपेक्षा होती है जो जापान की भूमि में सर्वत्र फैली हुई है।लेखक ने ठोस उदाहरण के साथ प्रमाण दिया है,अवश्य वह देश धन्य है जहां के लोग और सरकार किसी की खोई हुई वस्तु को उस व्यक्ति के पास पहुंचा देने के लिए संकल्पित हो।इस सच्चाई के भीतर ही सच्चे प्रेम का निवास संभव है।
नायक अपनी मजबूरियों के हवाले प्रेम के महान आदर्श की यात्रा में बहुत दूर पीछे छूट जाता है और कहानी त्रासद बन जाती है पर लेखक ने जिस आदर्श प्रेम और सच्चाई को इस कथा का उद्देश्य बनाया है उसे नायिका के महान चरित्र और जापानी संस्कृति के अनेक आयामों की सहज अभिव्यक्ति से पूर्णता को प्राप्त होती।
लघु कथानक के बावजूद कथा की गहराई आसक्त करती है। भारतीय नायक और जापानी नायिका के बीच शब्दों के आदान प्रदान से सांस्कृतिक स्तर पर आत्मीयता का बोध बना रहता है।
देश की सीमाओं से पार जाकर लेखक ने बहुत अच्छी कहानी लिखी है।साधुवाद।
“आखिरी खत” अलग तरह की एक अनोखी एवं मार्मिक कहानी है जिसमे दो देशों का प्यार और रीति – रिवाज समाहित है उक्त कहानी के माध्यम से “हचिको” जैसे वफादार कुत्ते की कहानी पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । प्रेम , समर्पण और विश्वास की झलक कहानी की खुबसूरती है । उक्त कहानी लेखन के लिए डा० सुभाष शर्मा जी कोटिशः प्रणाम🙏🙏
मर्मस्पर्शी कथा। मानवीय रिश्तों के बीच का पुल इतना मजबूत है कि ये जाति-नस्ल-धर्म की दीवारें आड़े नहीं आतीं। पढ़कर लगा कि दुनिया अब भी बहुत सुंदर है।
It is a nice story.
कहानी बहुत पसंद आई सर।
कुलदीप (नायक) का चरित्र काफ़ी अच्छा लगा । कहानी का नायक अपने आस पास के वातावरण का बहुत अच्छे अन्वेषक के रूप में नज़र आ रहा है । साथ ही नायक अपने आस पास के लोगों से सीखते रहने में यकीन रखता है । नायक काफी विवेकवान है और अपने नैतिक मूल्यों से कोई समझौता नहीं करता। साथ ही वो मियाको को भ्रम में नहीं रखता न ही उसे कोई झूठी उम्मीद देता है। और ऐसा भी नहीं है कि नायक के हृदय में प्रेम नहीं है जिस तरह मियाको और नायक का संवाद है उस से यह साफ परिलक्षित होता है की नायक का भी मियाको पर अनुराग है।
जापान के नागरिकों का अपनी भाषा और संस्कृति के प्रति प्रेम उनके व्यवहार में साफ दिखाई देता है जिसका जिक्र इस कहानी में भी किया गया है। हमें इन सब बातों को इस तरह से भी समझ सकते हैं कि हमारा धर्म, हमारी संस्कृति का विकास तभी हो सकता है जब हम उसमें के नैतिक मूल्यों को अपने व्यवहार में लेके आयें न कि उसका नफरत फैलाने के काम में लाकर।
मियाको के बारे में शुरू में ही लेखक ने कहा है “ब्यूटी विथ ब्रेन” वो सुंदर होने के बुद्धिमान भी है। साथ ही ज्ञान उसे आकर्षित भी करता है। मियाको कुलदीप के ज्ञान पर उसके सीखने की ललक पर मोहित है। उसे उसका धन नहीं चाहिए,रूप नहीं चाहिए। पर जब कुलदीप उससे अपनी मजबूरियों का ज़िक्र करता है तो उसे समझती भी है।
कुल मिला के अपने आप मे कई बातों को समेटती हुई एक सुंदर प्रेम कहानी है।जो आखिर में आते आते मार्मिक हो गयी है।
हाचिको की कहानी बहुत प्रेरक लगी। इस कहानी को केंद्र में रखकर 2009 में Lasse Hallstrom की एक फ़िल्म Hachi : A Dog’s Tale आई थी। जिसे लोगों ने काफी पसंद किया। ये फ़िल्म यूट्यूब पर मुफ्त में देखी जा सकती है।
सुभाष शर्मा जी को साधुवाद इतनी मार्मिक कहानी लिखने के लिए।
अभिषेक तिवारी
छात्र, परास्नातक(हिंदी)
दिल्ली विश्वविद्यालय।
डेली सोप्स देख देख कर चीज़ी कहानियां देखने की आदि हो गयी हूँ…. मुझे लगा शायद, पियाको जब मियाको से मिलने जायेगा तो वो उसे जीवित पायेगा…means happy ending, पर यहाँ वही लिखा गया है… जो रील नहीं, रियल है….एकदम बेहतरीन कहानी थी!