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Home » सुमीता ओझा की कुछ कविताएँ

सुमीता ओझा की कुछ कविताएँ

भाषा की दुनिया अपार अनंत है, नाना तरह की चीजें उसमें घटित होती रहती हैं. साहित्य तो उसका एक हिस्सा है. इस हिस्से में भी सब कहाँ प्रत्यक्ष हो पाता है? गणितज्ञ रामानुजन की स्मृति में दिनांक 22 दिसम्बर को राष्ट्रीय गणित दिवस मनाया जाता है. सुमीता ओझा ने रामानुजन की स्मृति में गणित को केंद्र में रखकर कुछ कविताएँ लिखीं हैं. कविता के अनुशासन में गणित और काव्यतत्व का किस तरह से और कितना योग हो सका है यह देखने की बात है. प्रस्तुत हैं कविताएँ

by arun dev
December 21, 2021
in कविता, विज्ञान
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सुमीता ओझा की कुछ कविताएँ
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गणितज्ञ की कविताएँ
सुमीता ओझा

 

 

अंश और हर के बीच का डैश

1.

विभाजक रेखा नहीं थी
अंश और हर के बीच
कोई अलगाव नहीं था

अंश और हर जैसे प्रेम और मृत्यु

हर पूर्ण था, अंश जिसका एक भाग
बस सुविधा के लिए ये
नीचे और ऊपर लिखे जाते
अंश ऊपर, हर नीचे
क्रमानुगतता का परिचय देते
जैसे हों वंशवृक्ष

जाने कब किसी ने इनके बीच एक रेखा खींच दी
अभिन्नता
भिन्न में दर्शायी गयी
जबकि जानता वह भी था कि
अंश और हर विभाज्य हो ही नहीं सकते

बूँद जैसे जननी है सागर की
अंश जनक था पूर्ण का
नैसर्गिक आनन्दाकांक्षा से छलछलाता जनक
ज्यों हमेशा ही स्वयम् से बड़ा देखना चाहता
अपनी संतान
अंश ने हर को हरि बनाया, पूर्ण बनाया
और कीलित कर दिया यह कथन कि
“अंश कभी भी बड़ा नहीं हो सकता हर से/पूर्ण से”
हर और बड़ा, और बड़ा होता रहा
पीढ़ियाँ पढ़ती रही इसे ही
मानती रही सत्य

लेकिन पूर्ण का वैभव था तो अंश से ही
और यह भी कि जनक अंश बड़ा था पूर्ण से
जिसकी झलक बस आँख वालों को मिलती रही
(ऑस्पिंस्की* भी था आँख वाला एक गणितज्ञ
उसे भी दिखा था यह सत्य जिसे कहते झिझका था वह
भारतवर्ष में पैदा नहीं हुआ था शायद इसलिए)

जैसे आँखों के बीच सीधी रेख-सी दीखती नासिका
कभी विभाजित नहीं करती दृष्टि की समग्रता,
जैसे प्रेम हो या मृत्यु
बाधित नहीं करता
अनपेक्षित और अभिनव तत्व की अनन्तता,
अंश और हर के बीच विभाजक रेखा
रहे, न रहे
दुई तो नहीं.

अंश से पूर्ण, पूर्ण से अंश
अद्वैत की ज्यामिति रूप बदलती रहती है
जिससे सूत्रबद्ध
संसृति संचरित होती ही रहती है.

(*रूसी गणितज्ञ पी.डी.ऑस्पिंस्की सुप्रसिद्ध दार्शनिक गुरजिएफ के शिष्य भी थे. ऑस्पिंस्की की लिखी किताबों में ‘टर्शियम ऑर्गेनम’ सबसे अधिक ख्यात है.)

 

2.

अंश और हर के बीच
कुछ जाहिर, कुछ गोपन
झिलमिल आह्लाद की सात्विक
पवित्रानुभूति जैसे डैश का
सर्वाधिक उपयोग करने
आ पैठे कुछ
धुर चालबाज़
अति चालाक
शक्तिसम्पन्न वर्चस्वशाली
पैगम्बर, पुरोहित, आक़ा, मालिक
तरह-तरह के मध्यक
दलाल, मिडिलमैन, एजेण्ट, लाइजनर, कार्पोरेट…
अंश और हर के बीच के डैश पर
अब सज उठा है
मायाधारी छैल-छबीला, रंग-रंगीला जगमग बाज़ार.

3.

मदहोशी का जादुई झिलमिल वितान
होश का खुरदरा यथार्थ
इन दोनों के बीच के डैश पर
नामालूम नुक़्ते सी ज़िन्दगी
जैसे जादुई यथार्थ!

अंश और हर नहीं मिल पाते एकसाथ.

इन्हें एकसाथ थामने की अदम्य महत्वाकांक्षा की
अदना-सी कोशिश करते इस डैश पर विस्मय से
हँसा भी जा सकता है
वैसे भी खुले मन हँस पाने की कितनी कम जगहें बची हैं

अंश और हर के बीच के डैश पर
अधमूँदी आँखों बैठी मैं बुध्द हुई जा रही
(आप चाहें तो बुद्धू कह लें)
जैसे डूबने के लिए सबसे मुफ़ीद होता है बीचधार
जैसे तौल के सही होने के लिए
तुला के पलड़े अडोल हो जाते हैं ठीक बीचोंबीच
काँटे के नुक़्ते पर
अडोल टिकी ज़िन्दगी
सिंक रही मद्धम आँच पर
मज्झम-मज्झम

ठीक मध्य में होना
दो छोरों की संवेदना को निर्व्याज समेट
निरपेक्ष होना है
शून्य हो जाना है
जिसे ‘कहीं का नहीं होना’
पढ़ पाने की भी पूरी गुंजाईश है

 

अविभाजित

साँसों की लय जहाँ थमती है
ताल का बन्धन कसता है
काल अपनी पैमाइश शुरू करता है
सबसे हौली, सबसे महीन अनुभूतियों की
रूपहीन दहक में सींझ-सींझ
सौन्दर्य रूपाकृति में ढलता है
छन्द स्पन्दित होता है
जिसके शिखर पर खिलखिलाता
खिल उठता काव्य
समो लेता है पूरी सृष्टि

सतता जिसकी विभाजित नहीं कहीं भी, कभी भी
मूर्त-अमूर्त
परिमित-अपरिमित
दुःख-आनन्द
कहीं नहीं कोई विभाजक तन्तु

हमारे-तुम्हारे मन का हर रंग भी
ऐसे ही घुला-मिला कि
कोई स्वर छुओ तो
अँगुली से लिपट जाए एक ही राग

नदी थमती है जहाँ
बालुका राशि थामती है
जिसे अँकवार गहे रहता है पेड़
कुछ भी तो विभाजित नहीं
न तुम, न हम, न यह, न वह,
न हममें तुममें समायी यह सृष्टि
न सृष्टि में समाये हम-तुम-यह-वह

 

शून्य

जब कुछ न था
तब तुम थे
जब कुछ न रहेगा
तुम रहोगे

न होने से न रहने के प्रपंच बीच
एक हृदय से दूसरे हृदय को घेरते
तुम विराग के कालातीत विग्रह थे

तुम रसज्ञ रहस्य थे
जादू से भी अधिक जादुई
सूक्ष्म होते तो कण भर से भी नन्हें होते
बढ़ते तो आकाश से भी अधिक विस्तृत
भव्यता के चिर ऐश्वर्य
तुम आकाश की संस्कृति थे

जब कुछ न था
तब तुम थे
जब कुछ न रहेगा
तुम रहोगे

हार्डी और रामानुजन

रामानुजन और हार्डी

एक-दूसरे के कायल
एक-दूसरे के घनघोर आलोचक
उनका सह-अस्तित्व
जटिलता का अद्वितीय समीकरण था

एक के पास उजियारा कर देने का जादू था
वह बस छपाक से रंग देना चाहता आसमान
दूसरा समझाता उसे अँधियारे से उजाला होने तक के
हर शेड को क्रम से सजाने की दरकार…

एक ब्रह्मर्षि था ऐसा
जिसके जादुई कमण्डल में
अनन्त राशियों के रहस्यमय बीजमंत्र खिलखिलाया करते
उसकी निष्काम वीतरागिता पर निछावर रहतीं
संख्याएँ हमजोली थीं
अपने सभी रहस्य
खुद बता आतीं उसके कानों में
इन रहस्यों की अपूर्व रूपछवियाँ गढ़ ब्रह्मर्षि
वापस सौंप देता उन्हें

दूसरा गुरु कुम्हार था
अंतर हाथ सहार था
विस्मित जिज्ञासा के सटीक उत्तरों के आगे
हथियार डालने के बावजूद
उसे आदत थी प्रमाणीकरण की
और ज़रूरत भी कि
ब्रह्मर्षि के कमण्डल के विमुग्धकारी अकथ आलोक को
आँखों पर हथेलियों की ओट से वह जो देख सका था
अब सभी देख सकें

एक पूरब था तो दूसरा पच्छिम
दोनों के बीच सूरज का शाश्वत नाता था
पश्चिम ने उदारता से समेटे रखा चार याम ताकि
पूर्वी क्षितिज पर उदित हो सूर्य

 

रामानुजन: भारत के महान गणितज्ञ एस. रामानुजन.
हार्डी: प्रसिद्ध ब्रिटिश गणितज्ञ जी. एच. हार्डी. हार्डी के ही प्रयत्नों से रामानुजन की गणितीय प्रतिभा का सूर्य दुनियाभर में चमक सका. रामानुजन को कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में दाखिला, उनकी गणितीय खोजों का प्रकाशन, रॉयल सोसायटी की फेलोशिप आदि मिलने के साथ ही संसार भर में उनकी प्रसिद्धि के पीछे हार्डी का सद्भावपूर्ण औदार्य बहुत महत्वपूर्ण है.

 

रामानुजन

अनन्त जानने वाले महानतम गणितज्ञ!
चकाचौंध से अनायास मूँद गई मेरी पलकों पर
तुम्हारी रोशनी का आह्लादकारी भार
वजनी है बहुत

बहुतों की तरह
गणित की हज़ारवें-लाखवें न जाने किस पंक्ति की
मैं एक विद्यार्थी
सतत विस्मित रहती हूँ
जबकि दैनंदिन गणित
दुनियावी मसलों-प्रपंचों का औजार ख्यात है
तुम इसकी काव्यमयता के रसज्ञ कलाविद थे
जिस (काव्यमयता) की कुछ रंगीन स्फुलिंगों की ही
एक झलक मात्र मेरी पुतलियों की स्थाई चमक हो गयी है

हज़ारों अनसुलझे प्रश्नों के उत्तर देने के बाद
प्रश्न की शक़्ल में
तुम्हारे पास भी आया था उत्तरातीत
जिसका जवाब केवल मौन हो सकता है
जैसे ईश्वर के होने के प्रश्न पर
मौन रहे थे बुद्ध
क्या है प्रतिभा के उन्मेष का कारण?
विचार किस तरह आते हैं मस्तिष्क की जद में?

सार्वकालिक गणितज्ञ से
सीधा संवाद जिस भाषा में होता है
उसका तर्जुमा दुनियावी किसी भाषा में सम्भव भी तो नहीं
लेकिन तुम्हारे नाम से प्रसिद्ध अंकों को जानने से पहले
चार बाई चार का जादुई वर्ग बना लेने पर
ख़ुश होते बच्चों की चहक में उस किस्से की टिमटिमाहट
उजियारा बालती है कि
अपने जन्मदिन वाली एक विश्वप्रसिद्ध वर्ग पहेली
तुमने भी बनायी थी
अनेक घटनाओं से परिपूर्ण दिसम्बर में ही तो
पड़ता है तुम्हारा जन्मदिन
हमारे देश का गणित दिवस
इसलिए भी दिसम्बर मुझे मुग्ध करता है.

(22 दिसम्बर 1887 को जन्मे रामानुजन की जयंती को हमारे देश में गणित दिवस के रूप में मनाया जाता है और दिसम्बर का अन्तिम पखवाड़ा, गणित पखवाड़ा के तौर पर.)

सुमीता ओझा

गणित विषय में ‘गणित और हिन्दुस्तानी संगीत के अन्तर्सम्बन्ध’ पर शोध.  पत्रकारिता और जन-सम्पर्क में परास्नातक. मशहूर फिल्म पत्रिका “स्टारडस्ट’ में कुछ समय तक एसोसिएट एडिटर के पद पर कार्यरत. बिहार (डुमरांव, बक्सर) के गवई इलाके में जमीनी स्तर पर जुड़ने के लिए कुछ समय तक ‘समाधान’ नामक दीवार-पत्रिका का सम्पादन.

सम्प्रति अपने शोध से सम्बन्धित अनेकानेक विषयों पर विभिन्न संस्थानों और विश्वविद्यालयों के साथ कार्यशालाओं में भागीदारी और स्वतन्त्र लेखन. वाराणसी में निवास.

 ईमेल: sumeetauo1@gmail.com

Tags: रामानुजन
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Comments 22

  1. M P Haridev says:
    3 years ago

    कविताएँ बाद में पढ़कर टिप्पणी करूँगा । पिछले वर्ष संयोग से आज ही के दिन गणितज्ञ रामानुजम पर रजनीश के विचार लिखे थे । उन्हें कॉपी पेस्ट कर रहा हूँ । फ़ेसबुक पर एक महिला ने बताया था कि 22 दिसम्बर को पर्यावरणवादी और गांधीवादी अनुपम मिश्र का भी जन्मदिन है ।
    दो-तीन पंक्तियाँ अंग्रेज़ी भाषा में लिखकर हिंदी में रजनीश के विचार लिखूँगा । भारत में आज का दिन गणित दिवस के रूप में मनाया जाता है । Because Srinivasa Ramanujan was born on December 22, 1887 in Erode Tamilnadu. He had no formal education, but he was a genius. Unfortunately he died on 26 April 1920. He was called by professor Hardy of Cambridge University. Ramanujan became Fellow of Royal Society London.

    तिलक-टीके : तृतीय नेत्र की अभिव्यंजना
    प निवेदन है कि तिलक, टीके और माला के संबंध में आज इस चर्चा को आरंभ करें ।
    तिलक के संबंध में समझने से पहले दो छोटी सी घटनाएँ आपसे कहूँगा, फिर आसान हो सकेगा । दो ऐतिहासिक तथ्य ।
    1888 में दक्षिण के एक छोटे से परिवार में एक व्यक्ति पैदा हुआ—-फिर पीछे तो वह विश्वविख्यात हुआ, रामानुजम—-बहुत ग़रीब ब्राह्मण के घर में, बहुत थोड़ी सी शिक्षा मिली । लेकिन उस छोटे से गाँव में ही बिना किसी विशेष शिक्षा के रामानुजम की प्रतिभा गणित के साथ अनूठी थी । जो लोग गणित जानते हैं, उनका कहना है कि मनुष्य-जाति के इतिहास में रामानुजम से बड़ा और विशिष्ट गणितज्ञ नहीं हुआ । बहुत बड़े-बड़े गणितज्ञ हुए हैं, पर वे सब सुशिक्षित थे, उन्हें गणित का प्रशिक्षण मिला था, बड़े गणितज्ञों का साथ-सत्संग मिला था, वर्षों की उनकी तैयारी थी । रामानुजम की न कोई तैयारी थी, न कोई साथ मिला, न कोई शिक्षा मिली, मैट्रिक भी रामानुजम पास नहीं हुआ । और एक छोटे से दफ़्तर में मुश्किल से क्लर्की का काम मिला ।
    लेकिन अचानक ख़बर लोगों में फैलने लगी कि उसकी गणित के संबंध में कुशलता अद्भुत है । और किसी ने सुझाव दिया कि कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में उस समय विश्व के बड़े से बड़े गणितज्ञों में एक हार्डी प्रोफ़ेसर थे, उनको लिखो । उसने पत्र तो नहीं लिखा, ज्यामिति की डेढ़ सौ थ्योरम बनाकर भेज दीं । हार्डी तो चकित रह गया । उतनी कम उम्र के व्यक्ति से उस तरह के ज्यामिति के सिद्धांतों का अनुमान भी नहीं लग सकता था । उसने तत्काल रामानुजम को यूरोप बुलाया । और जब रामानुजम कैम्ब्रिज पहुँचा तो हार्डी, जो कि बड़े से बड़ा गणितज्ञ था उस समय विश्व का, वह अपने को बच्चा समझने लगा रामानुजम के सामने ।
    रामानुजम की क्षमता ऐसी थी जिसका मस्तिष्क से संबंध नहीं मालूम पड़ता । अगर आपको कोई गणित करने को कहा जाए तो समय लगेगा । बुद्धि ऐसा कोई काम नहीं कर सकती जिसमें समय न लगे । बुद्धि सोचेगी, हल करेगी, समय व्यतीत होगा । लेकिन रामानुजम को समय ही नहीं लगता था । यहाँ आप तख़्ते पर सवाल लिखेंगे, वहाँ रामानुजम उत्तर देना शुरू कर देगा । आप बोल भी न पाएँगे पूरा, और उत्तर आ जाएगा । बीच में समय का कोई व्यवधान न होगा ।
    बड़ी कठिनाई खड़ी हो गई थी । क्योंकि जिस सवाल को हल करने में बड़े से बड़े गणितज्ञ को छह घंटे लगेंगे ही, फिर भी ज़रूरी कि सही हो, उत्तर सही है या नहीं उसे जाँचने में फिर छह घंटे गुज़ारने पड़ेंगे । रामानुजम को सवाल दिया गया और वह उत्तर देगा, जैसे सवाल में और उत्तर के बीच में कोई समय का क्षण भी व्यतीत नहीं होता है ।
    इससे एक बात तो सिद्ध हो गई थी कि रामानुजम बुद्धि के माध्यम से उत्तर नहीं दे रहा है । बुद्धि बहुत बड़ी थी भी नहीं उसके पास, मैट्रिक में वह फेल हुआ था, कोई बुद्धिमत्ता का और लक्षण भी न था । सामान्य जीवन में किसी चीज़ में भी कोई ऐसी बुद्धिमत्ता नहीं मालूम पड़ती थी । लेकिन बस गणित के संबंध में वह एकदम अतिमानवीय, मनुष्य से बहुत पार की घटना उसके जीवन में घटती थी ।
    जल्दी मर गया रामानुजम । उसे क्षय रोग हो गया, वह 36 साल की उम्र में मर गया । जब वह बीमार होकर अस्पताल में पड़ा था तो हार्डी और दो-तीन गणितज्ञ मित्रों के साथ उसे देखने गया था । उसके दरवाज़े पर ही हार्डी ने कार रोकी और भीतर गया । कार के पीछे का नंबर रामानुजम को दिखाई पड़ा । उसने हार्डी से कहा, आश्चर्यजनक है ! आपकी कार का जो नंबर है, ऐसा कोई आँकड़ा ही नहीं है मनुष्य की गणित की व्यवस्था में । यह आँकड़ा बड़ी ख़ूबी का है । उसने चार विशेषताएँ उस आँकड़े की बताईं ।
    रामानुजम तो मर गया । हार्डी को छह महीने लगे वह पूरी विशेषता सिद्ध करने में । वो जो चार विशेषताएँ उस आँकड़े की बताई थीं—-आकस्मिक नज़र पड़ गई थी—-हार्डी को छह महीने लगे, तब भी वह तीन ही सिद्ध कर पाया, चौथी असिद्ध रह गई बात । हार्डी वसीयत छोड़कर मरा कि मेरे मरने के बाद वह चौथी की खोज जारी रखी जाए, क्योंकि रामानुजम ने कहा था तो वह ठीक तो होगी ही ।
    हार्डी के मर जाने के बाईस साल बाद वह चौथी घटना सही सिद्ध हो पाई कि उसने ठीक कहा था, उस आँकड़े में यह ख़ूबी है ।
    रामानुजम को जब भी यह स्थिति घटती थी, तब उसकी दोनों आँखों के बीच में कुछ होना शुरू हो जाता था । उसकी दोनों आँखों की पुतलियाँ ऊपर चढ़ जाती थीं । योग, जिस जगह रामानुजम की आँखें चढ़ जाती थीं, उसको तृतीय नेत्र कहता है । और अगर यह तीसरी आँख शुरू हो जाए—-तीसरी आँख सिर्फ़ उपमा की दृष्टि से, सिर्फ़ इस ख़याल से कि वहाँ से भी कुछ दिखाई पड़ना शुरू होता है—-कोई दूसरा ही जगत शुरू हो जाता है । जैसे कि किसी आदमी के मकान में एक छोटा सा छेद हो, वह खुल जाए, और आकाश दिखाई पड़ने लगे । और जब वह छेद न खुला हो तो आकाश दिखाई न पड़ रहा हो । क़रीब-क़रीब हमारी आँखों के बीच में जो भ्रू-मध्य जगह है, वहाँ वह छेद है जहाँ से हम इस लोक के बाहर देखना शुरू कर देते हैं । एक बात तय थी कि जब भी रामानुजम को कुछ ऐसा होता था, तो उसकी दोनों पुतलियाँ चढ़ जाती थीं । हार्डी नहीं समझ पाया, पश्चिम के गणितज्ञ नहीं समझ पाए, और गणितज्ञ आगे भी नहीं समझ पाएँगे ।
    _______बाकी अगली किस्त में ।

    Reply
  2. Vinod Padraj says:
    3 years ago

    बेहतरीन कविताएं अहा यह अनुशासनों की आवाजाही कितनी आह्लादकारी, किसने कहा था और कितना सही कहा था कि
    सभी अनुशासन अंततः एक ही जगह पहुंचते है बधाई कवयित्री को

    Reply
  3. Rahul Jha says:
    3 years ago

    अद्भुत कविताएँ हैं…
    कमाल का बिंब-विधान… जिसमें भाषा का स्थापत्य एक अद्भुत वेदांत की उजेलिका लिए हुए है…
    सुमीताजी…इन कविताओं के लिए आपको बहुत बहुत बधाई…!
    और समालोचन को बहुत बहुत आभार…!!!

    Reply
  4. सुदीप सोहनी says:
    3 years ago

    वाह मुझे उदयन जी की पुस्तक का शीर्षक याद आया ‘पागल गणितज्ञ की कविताएँ’। सुमीता जी की उपस्थिति यहाँ एक चुप्पे मगर सजग रचनाकार की तरह रही है। कविताओं में यकीनन विचार और भाषा का संतुलन सुंदर है। बधाई सुमीता जी इन कविताओं के लिए

    Reply
  5. प्रियंका नारायण says:
    3 years ago

    सुमीता दी, जबसे आपके शोध के बारे में जाना था, तब से आपकी बड़ी प्रशंसक रही हूं। आपका शोध एक साथ स्त्री विमर्श की परिभाषाओं को गढ़ता भी है और तोड़ता भी। इन्हीं बीच आपकी कविताओं से भी परिचय हुआ था। कभी ‘रावण’ को सुनते हुए सूर्य और पृथ्वी के बीच मृत्यु- रथ को भी जाना- सुना लेकिन आपकी आज की कविताएं अद्भुत हैं। ‘अंश और हर जैसे प्रेम और मृत्यु’, या फ़िर रामानुजन की काव्यात्मक स्थापना, अनुभूतियों की स्पष्टता के बीच बिम्बों का सुंदर संयोजन… विस्तार से बात होगी आपसे💐💐
    अभी तो Arun Dev सर और समालोचन को विशेष बधाई, जिन्होंने इन दुर्लभ कविताओं को पाठकों के सामने रखा।💐🙏

    Reply
  6. अजामिल व्यास says:
    3 years ago

    वाह । एक नया प्रयोग । ये कविताएं चलते चलते नहीं पढ़ी जा सकती । इन्हें कविता के गम्भीर पाठक की तलाश भी होगी। । ये समय भी चाहेंगी। मैं समय निकालकर इन्हें पूरे मन से पढ़ूंगा । तभी इसपर कोई टिप्पणी का अधिकारी हो पाऊंगा । समालोचन मेरे लिए अब ज़रूरी हो गया । हाँ पोस्टर लाजवाब है ।बढिया कम्पोजिशन ।

    Reply
  7. कौशलेंद्र सिंह says:
    3 years ago

    कुछ न था तो ख़ुदा था, न कुछ होता तो ख़ुदा होता,
    डुबोया मुझको होने ने ,न मैं होता तो क्या होता,

    ग़ालिब साहब का ये शेर याद आया एक कविता पढ़ते हुए। कविताएँ अच्छी हैं पर गूढ़ हैं, कदाचित आम पाठक को समझने में गणित की तरह ही पेचीदा लगें, पर काव्य जगत के लिए अनूठी हैं, एक अलग छाप छोड़ती हैं। बहुत बधाई सुमीता जी और समालोचन को।

    Reply
  8. M P Haridev says:
    3 years ago

    1. कवयित्री ने अंश और हर अंकों की अनूठी कविता लिखी है । अंश और हर हमेशा अविभाज्य रहेंगे । इसका भावात्मक पहलू यह है कि अनंत तक इनका साथ बना रहेगा । यदि इन अंकों को स्त्री और पुरुष मान लिया जाये तो इन दोनों में लुका-छिपी का खेल बना रहेगा । यह कविता का अभीष्ट है । Integers are the numbers that they are non-divisible. This is the beauty. Loving one another upto infinite time. To choose mathematics in poems is interesting. This will last till death. I have read about philosopher Gurdjieff of Austria. He could make impossible possible. 3-4 years ago I read an article in The Indian Express about mathematics on editorial page. Three squares were drawn in the article. Writer says that if a force is applied on a particle in square, particle will start rotating in circular path. In my opinion to lovers begin to adapt each other. The writer reached the conclusion by observing through microscope that particle will choose square path. WOW, even non-living particle becomes living species and will begun like a human being.

    Reply
    • Anonymous says:
      3 years ago

      बेहतरीन कविता 👍🙏

      Reply
    • डॉ. सुमीता says:
      3 years ago

      अंश और हर से मेरा मंतव्य पिण्ड और ब्रह्माण्ड अथवा आत्मा और परमात्मा से ही है. ‘केवल परमात्मा ही पुरुष है, बाकी सभी जीवात्माएं स्त्री’ इस संदर्भ से स्त्री-पुरुष की उपमा दी जा सकती है अन्यथा अंश और हर की उपमा स्त्री-पुरुष भी दी जा सकती है, यह विचार मुझे नहीं आया था. यह एक नया कोण है.

      Reply
  9. Mod says:
    3 years ago

    अति अद्भुत, एकदम नवीन प्रयोग
    कविता और गणित का ये अद्भुत संगम है आपके उद्गार
    अत्यंत गूढ़
    हर कविता एक कहानी कहती है और एक चित्रकार की तरह पृष्ठभूमि बनती है

    Reply
  10. Anonymous says:
    3 years ago

    अद्भुत… अविरल… सारी कविताएं निर्झर नदी सी बतियाती हुई हैं.. हरफ दर हरफ एक दूसरे के साथ विलीन होती… जैसे नदी की धार बह रही हो… आपकी मेधा को देख हतप्रभ हूं… दुआएं और शुभकामनाएं…

    Reply
  11. शिवानी जयपुर says:
    3 years ago

    बहुत ही दुर्लभ बिंब लिए हुए बेहद अनूठी कविताएं हैं। मेरे जैसे अति साधारण पाठक के दो-चार बार पढ़ने के बाद ही भीतर उतरेंगी।
    शीघ्र ही इत्मीनान से पढ़ती हूँ

    Reply
  12. M P Haridev says:
    3 years ago

    रामानुजन और हार्डी
    गणित के संदर्भ में, पूर्व और पश्चिम का यह अखंड रूप से एकटक यथार्थ मिलन था । रामानुजन जन्मजात प्रतिभावान गणितज्ञ थे और हार्डी अपने युग के विख्यात प्रोफ़ेसर । पहले संत थे । नि:संग और नि:स्पृह । इक्वेशनों को जादुई तरीक़े से हल कर देने वाले ऋषि सदृश । हार्डी विख्यात गणितज्ञ । प्रोफ़ेसरों के प्रोफ़ेसर । सुमिता जी जानती होंगी कि ब्राह्मणों का इहलौकिक और पारलौकिक जगत का अध्ययन समृद्ध होता है । गणित को विषय बनाकर कविताओं की रचना करना अविश्वसनीय लगता है । कवयित्री अपनी प्रतिभा को कैनवास पर विविध रंगों से कविताएँ लिख सकीं । इन्हें मालूम होगा कि वेदों और उपनिषदों में जीवन के विनियमन के अनेक सूत्र लिखे हुए हैं । और विद्वान ब्राह्मण दैनिक जीवन में आने वाली कठिनाइयों का अध्यापक के रूप में निवारण करते हैं । ठीक इसी प्रकार रामानुजन और हार्डी ने कठिन प्रमेयों के हल ढूँढे । गणित भौतिक विज्ञान की आधार भूमि है । कुशल पायलट बनने के लिए, उड़ान में आ गयी उलझनों को हल करने के लिए गणित का उपयोग करना जानना आवश्यक होता है । सुमिता जी ओझा ने दोनों के सह-अस्तित्व जटिलता का अद्वितीय मिलन माना है । आगे का वर्णन सहज तरीक़े से किया गया है मानो नदी का सहज प्रवाह बह रहा हो । इनके स्वस्थ और सुदीर्घ जीवन की मंगल कामना कर रहा हूँ ।

    Reply
    • डॉ. सुमीता says:
      3 years ago

      जिस अपनेपन के साथ आपने इन कविताओं की व्याख्या की है, मैं हर्षविस्मित हूँ. आपका आशीर्वाद बना रहे.

      Reply
  13. M P Haridev says:
    3 years ago

    सुमिता ओझा के कविता-संग्रह का नाम लिखें । मैं पढ़ना चाहता हूँ ।

    Reply
    • डॉ. सुमीता says:
      3 years ago

      जल्द ही प्रकाशित होगा…

      Reply
  14. Anonymous says:
    3 years ago

    Awesome….sumita well written…keep it up…

    Reply
  15. गिरधर राठी says:
    3 years ago

    सुमीता ओझा की अनोखी कविताएं एक बार फिर एहसास कराती हैं कि काश हमारा पढ़ा लिखा वर्ग जहरीली या आत्म मुग्ध बहसों या हिंसक हमलों की बजाय,मन और मस्तिष्क के अन्वेषक, वैचारिक , सर्जनात्मक सरोकार अपनाता! —। हमारे बीच विदुषी गणितज्ञ भी हैं,यह पल्लवी त्रिपाठी जी बता रही हैं। सच,कहीं और यह खबर आई?? गणित शास्त्र में अभी हाल तक यह हाल था कि गणितज्ञ नरपुंगव स्त्रियों को अपने क्षेत्र में नहीं आने देते थे। एक अनोखी महिला गणितज्ञ फ्रांस में अपने ही दम शिखर पर पहुंची, कोई उनकी कथा भी सुनाए! और हां, लीलावती नामक कोई ग्रंथ–?

    Reply
    • डॉ. सुमीता says:
      3 years ago

      आदरणीय, आपके ये शब्द आत्मबल बढ़ने वाले हैं. आपका बहुत आभार.
      ‘लीलावती’ व गणित विषयक कुछ अन्य कविताएँ ‘समालोचन’ के इसी मंच पर कुछ समय पूर्व प्रकाशित हो चुकी हैं. निजी प्रयत्न जारी हैं.

      Reply
  16. विजया सिंह says:
    3 years ago

    जैसा सोचा था, वैसी ही निकलीं ये कविताएँ, अनूठी और जबरदस्त. सुमिता के विषय हमेशा मुझे में एक उत्साह जगाते हैं. वे गणित को जिस प्रेम और मज़े की नजर से देखती हैं, उससे अंक सजीव हो उठते हैं. लगता ही नहीं कि यह कोई जटिल और न समझ आने वाला संसार है.
    मुझ जैसे गणित के प्रति खौफ रखने वाले के लिए के लिए भी ये कविताएँ गणित के प्रति एक विस्मय का बोध जगाती हैं. अभिनंदन प्यारी दोस्त.

    Reply
  17. डॉ. सुमीता says:
    3 years ago

    मेरी कविताओं को इस मंच पर स्थान देने के लिए अरुण देव जी को बहुत धन्यवाद. साथ ही, सभी विद्वान व सहृदय पाठकों, मित्रों का भी हार्दिक धन्यवाद जिन्होंने इन कविताओं पर अपने सार्थक विचारों द्वारा मुझे समृद्ध किया.

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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