हत्यारावैभव सिंह |
उसने कभी ऐसा घृणित काम नहीं किया था. वह भीतर से इतना निर्दयी भी न था. लेकिन जिस छोटे से गैंग में वह काम करता था, उसके सदस्यों के मना करने पर भी उसके सिर पर हत्या का इरादा भूत की तरह सवार था. उसका तो बस पांच-सात अपराधियों का छोटा सा ही गैंग था जो छोटे अपराध करते थे. जैसे मोबाइल या चेन खींचकर भागना, साइकिल चुराना और कभी-कभार शराब की अवैध सप्लाई. उनमें किसी में इतनी हिम्मत भी न थी कि किसी की हत्या करें. वे डरपोक तो थे ही, साथ ही उनमें अभी इंसानियत अभी पूरी तरह से नहीं झरी थी.
सब यही मानकर चलते थे कि कुछ महीने ये छोटे-मोटे अपराध करने के बाद अगर पुलिस से बचे रहे तो हमेशा के लिए यह सब बंद कर देंगे. वे आपस में दोस्त न थे. एक दूसरे के परिवार या घर-गांव के बारे में बहुत जानते भी नहीं थे. लेकिन उन्हें एक-दूसरे की मदद की आवश्यकता पड़ती थी. वे आपस में बात करते हुए अक्सर कहते थे-
‘सबका तो नसीब खोटा या अच्छा होता है. हमारा तो नसीब ही नहीं है, उसे बनाना ही भूल गया ऊपर वाला.‘
पर जिसने हत्या जैसा गंभीर जुर्म करने की योजना बनाई थी उसने संकल्प के मुताबिक तय किया था कि वह शहर के जौहरी बाजार के एक मालदार जौहरी के बेटे की हत्या कर देगा. मसला यह था कि पिछले ही महीने, जब बाजारों में दीवाली के त्यौहार की रौनक थी, तो उसने एक भारी गलती कर दी थी. पता नहीं किस जोश में उसमें सर्राफा बाजार के एक दुकान मालिक के बेटे से कुछ फिरौती मांगने जैसी बेवकूफी भरा काम किया. इस काम के लिए जरूरी दक्षता अभी उसके पास नहीं थी. न तो उसके पास धमकाने का कोई प्रभावशाली तरीका था, और न वह ऐसा कुख्यात हिस्ट्रीशीटर ही अभी तक बना था कि कोई उससे डर जाए. एक मामूली अपराधी से दबंग गुंडा बनने की जल्दबाजी का वह कब शिकार हो गया, इसका उसे भी पता न चला.
वह अपराध के कैरियर में बड़ी छलांग लगाने का जुनून पाल बैठा. जौहरी को पता चला तो उसने फिरौती की रकम पर बातचीत के बहाने उसे बुलाया था और बुरी तरह से उसे जलील कर दिया था. अपने गार्ड को बुलाकर बुरी तरह पिटवाया था. जब वह पिटते-पिटते जमीन पर गिर पड़ा था तो उसके ऊपर थूक दिया था और उसके कान के पास लात जमा दी थी.
जौहरी के लड़के ने चिल्लाकर कहा था-
‘साले दो कौड़ी के झपटमार अब हमसे फिरौती मांगने लगे हैं. साले चोर, लतखोर.’
उसे पुलिस के हवाले इसलिए नहीं किया गया क्योंकि जौहरी को डर था कि पुलिस कहीं बाद में मनगढ़ंत केस बनाकर उसी से उगाही न करने लग जाए. पहले भी कई व्यापारियों के साथ ऐसा हुआ था. उन्होंने जब बदमाशों के खिलाफ पुलिस में शिकायत की तो पुलिस ने उन्हीं से रिश्वत वसूल ली. उस दिन अच्छी खासी मरम्मत के बाद किसी प्रकार वह लड़खड़ाते हुए घर पहुंचा था और उसी के बाद से वह बदला लेने के लिए बेचैन था. हत्या का इरादा उसने गैंग के दूसरे सदस्यों को बताया तो सब उसपर हंसने लगे थे. उन्हें लगा कि वह मजाक कर रहा है, वरना इतना गंभीर काम उसके बस का नहीं.
उसके एक साथी ने विल्स कंपनी की सिगरेट फूंकते हुए कहा था-
‘तुम रास्ता चलते हुए आवारा कुत्तों से तो डरते हो. तुम यह भूल रहे हो कि हम ये सारे गलत काम मजबूरी में कर रहे हैं. हमारी जिंदगी का रास्ता बंद हो जाएगा अगर बड़ा जुर्म कर बैठे. हम खूंखार अपराधी बनने के लायक नहीं हैं. शायद कभी होंगे भी नहीं….’
सब मानते थे वह ऐसी क्रूर दिलेरी से भरा काम नहीं कर सकता. छोटी मोटी चोरी-झपटमारी और हत्या करने में बहुत फर्क है. पर वह पूरी योजना बना चुका था.
उसने अपने एक साथी को बताया भी – ‘मैंने सब पता लगा लिया है कि जौहरी का बेटा जब दुकान बंद कर लौटता है तो वह अपनी गर्लफ्रेंड के घर जाता है. बहुत कमीना है वो. साला शादीशुदा है और एक बेटी है लेकिन उस लड़की के पास भाग-भागकर जाता है. अमीर बाप की औलादें घर में बीवी रखते हैं जो उनके लिए करवाचौथ रखती हैं और खुद बाहर कमसिन लड़कियों के मजे लूटते हैं.
उसके साथी ने उसे हैरानी से देखा. उसे यकीन नहीं हो रहा था कि वह अब इतना पक्का इरादा कर चुका है कि सारी तैयारियां भी करने लग गया. अपनी रौ में बहते हुए उसने कहा-
‘हां मैंने सब पता लगा लिया है. इन दिनों जिस लड़की से उसका नाजायज संबंध है, वह मेन मार्केट के पीछे वाली गली में दो कमरे के मकान में अकेले रहती है. वो एक होटल में रिसेप्शनिस्ट है.’
उसने सचमुच सब पता लगा लिया था. कुछ दिन से वह जौहरी के लड़के का पीछा भी कर रहा था. योजना के मुताबिक उसने अपने गैंग के एक सदस्य को साथ काम करने के लिए तैयार कर लिया था. योजना यह थी कि जौहरी का बेटा जब शाम को सात बजे के आसपास उस लड़की के घर में घुसेगा, तभी काम शुरू कर देना है. उसका साथी उस लड़की को कोई कुरियर देने के बहाने बाहर बुलाएगा. उसे कम से कम दस मिनट तक उलझाए रखेगा. इस बीच वह पीछे के रास्ते से घर में घुसेगा और हत्या कर निकल जाएगा. सबकुछ फुर्ती से करना था. उसने एक लंबे फाल वाला चाकू, रस्सी, थोड़ा क्लोरोफार्म, दस्ताने, मुंह को ढंकने वाली टोपी, तेज भागने के लिए जूते, तेल आदि सबकुछ एकत्र कर लिया. जौहरी का बेटा कदकाठी में छोटा और सुकुमार सा था. उसे पता था कि वह अधिक प्रतिरोध नहीं प्रकट कर पाएगा और आसानी से चंगुल में आ जाएगा.
जिस साथी को उसने तैयार किया, उसने चेताया- ‘सोच लो… बहुत गंदा काम है. हमें मिलेगा भी क्या! पकड़े गए तो जिंदगी बरबाद.’
‘उसे पैसा नहीं देना था तो न देता. पर इतनी बुरी तरह भरे बाजार में मेरी पिटाई कराने की सजा मिलेगी उसे. तुम्हें नहीं पता कि बचपन में जब पिता ने एक बार बुरी तरह मारा था तो मैं सोते समय उनके हाथ पर गरम कोयला रखकर भाग गया था.’
अब वह यकीनन एक छटे हुए अपराधी की थोड़ी भारी आवाज में बोला जो बचपन में पिता के आतंक से लड़ते-लड़ते अपराध की तरफ मुड़ गया. या जैसे वह यकीन दिला रहा था अपने साथी को कि कोई एक गाल पर थप्पड़ मारे तब उसके दूसरे गाल पर चाकू से वार कर देना चाहिए.
हत्या के लिए मुकर्रर दिन और समय पर सबकुछ ठीक चल रहा था. जौहरी का बेटा अपनी प्रेमिका के घर पहुंचा तो वह पीछे वाले रास्ते से घर में पहले ही घुस चुका था. पीछे कमरे के दरवाजे के पास छिपा रहा. उसने कलाई घड़ी तक घर में छोड़ दी थी कि उसकी आवाज किसी को सुनाई न दे जाए. वह एक-एक पल गिन रहा था. फिर उसकी प्रेमिका के दरवाजा खोलकर जैसे ही बाहर की तरफ जाने की आवाज आई, वह उसके ऊपर टूट पड़ा जो तकिया के सहारे बिस्तर पर अधलेटा पड़ा था. वह बेड पर था और यह उसके लिए और अच्छी स्थिति थी. उसने हत्या से पहले अपने भगवान बजरंगबली को याद किया और इस बात पर ध्यान ही नहीं दिया कि हत्या करने के लिए भगवान को याद करना कितनी बेतुकी बात है. जिसकी हत्या होती है, और जो हत्या करता है भगवान को दोनों की मदद करनी पड़ती है. हल्की सी खींचतान के बाद उसके ऊपर चादर डालकर चाकू से वार करने के लिए तैयार हो गया. उसका अपना चेहरा छिपा हुआ था.
उसे अपने गैंग के साथियों की नसीहत याद थी. उन्होंने बताया था कि ‘उसका चेहरा मत देखना. मरने से ठीक पहले इंसान बहुत दीन-हीन दिखता है, उसकी आंख में याचना होती है जो पत्थरदिल लोगों को भी हिला देती है.‘
उसने इस नसीहत को मानकर उसके ऊपर चादर डाल दी. चाकू का मूठ पूरी ताकत से पकड़कर वह उसके ऊपर चढ़ गया. हत्या के पहले प्रयास में भी वह किसी प्रोफेशनल हत्यारे की तरह काम कर रहा था. उसे एक-एक तरीका याद था. शरीर के किस-किस हिस्से पर वार करना है, इसके बारे में वह सारा ज्ञान लेकर आया था. सबकुछ ठीक चल रहा था. हत्या आसानी से होनी थी. उसे दस मिनट में सारा काम पूरा कर वहां से निकलना था. हवा के झोंके की तरह जिसे कोई देख न सके. जैसे ही उसने चाकू से उसकी गर्दन पर वार करना चाहा, वही हो गया जो नहीं होना था. चादर को जौहरी के बेटे ने मुंह से किसी प्रकार खींचकर हटा दिया. वह अब उसी की ओर भयभीत आंखों से देख रहा था. एक असहाय चेहरा जो अपने ऊपर हुए हमले के कारण स्तब्ध है. सन्न रह जाने का भाव.
हत्यारे का कलेजा कांप गया. उसने देखा कि उसकी आंखों में एक ऐसी दीनता है जो उसने कभी अपने एक बड़े भाई की आंखों में तब देखी थी जब वह मरने वाले थे. लड़के के गालों में कोमलता थी, बाल घुंघराले थे और नाक बेहद सुंदर थी. जौहरी का बेटा ठीक उसके नीचे चित्त पड़ा था और वह उसे आसानी से मार सकता था. लेकिन अब वह काठ बन चुका था. हवा में चाकू रुका हुआ था. उसे समझ न आया कि क्या करे. केवल अपने साथी की नसीहत याद आती रही- ‘मरने वाला का चेहरा भूल से मत देखना..‘
वह उछलकर नीचे उतरा और हाथ में चाकू व हत्या के लिए इकट्ठा किए गए दूसरे सामान को बैग में भरकर बाहर की ओर भागा. पीछे जौहरी का बेटा निश्चेष्ट पड़ा था. वह सदमे में था शायद, पर पूरी तरह जिंदा था. किसी घायल हिरन की तरह हांफ रहा था. चेहरा ढंका होने के कारण वह हमलावर के चेहरे को पहचान न सका था. हत्या के असफल प्रयास के बाद वह सड़क पर तेजी से निकल गया. कोने वाली दुकान से सिगरेट सुलगाकर सड़क पर चलने लगा. जैसे उससे अधिक सभ्य नागरिक कोई नहीं जो अपराध से दूर रहने के कारण इतना बेफिक्र होकर जी रहा है. वह पूरी तरह अन्य लोगों जैसा दिखना चाहता था, एकदम मामूली और सड़क पर चलता आम इंसान. पर उसे लग रहा था कि हर इंसान को पता है कि वह अभी-अभी किसी की हत्या कर के निकला है. उसका दिल इतनी तेजी से धड़क रहा था कि जैसे अभी उछलकर बाहर आ जाएगा. हर इंसान को उसके चेहरे की घबराहट से अंदाजा लग गया है कि उसने अभी ऐसा अपराध किया है जो उसे सजा दिला सकता है.
उसका साथी पीछे आ रहा था. पास आकर फुसफुसाकर बोला- ‘वाह उस्ताद. आज तो तुम हमसे भी आगे निकल गए. लगता है सफाई से काम हो गया है.’
उसने साथी को घूरकर देखा और बोला- ‘मैंने किसी को नहीं मारा और न मारूंगा. तुम अपना रास्ता देखो.’
उसके साथी को यह व्यवहार बुरा लगा और वह सकपकाकर किसी दूसरी गली में मुड़ गया. पर उसकी अपनी हालत खराब थी. उसे लग रहा था कि सामने की सड़क, दुकानें, गाड़ियां सब उसकी आंखों के सामने गुम हो रहे हैं और वह बेहोश होने वाला है. उसे जौहरी के बेटे की बहुत डरी हुई शक्ल याद आ रही थी. फटी-फटी सहमी आंखें और उनमें दया की भीख मांगने जैसा भाव. वह प्रायश्चित में डूब रहा था कि उसने यह घृणित काम करने के बारे में सोचा ही क्यों! वह भागकर एक शराब की दुकान में घुसा. खूब शराब पीकर घर गया और बिस्तर पर गिर पड़ा. दिमाग पर हावी डर के कारण शराब का नशा नहीं चढ़ा था. दिमाग पर अधिक बोझ के कारण उसका बायां हाथ सुन्न पड़ गया था. हाथ ही नहीं उसके पूरे शरीर पर जैसा लकवा मार गया हो. इसके बाद दिन बीतते रहे. वह बीमार पड़ गया. कुछ था जो उसके मन में दहशत की तरह बैठा था. हत्या न की हो पर वह खुद को हत्यारे की तरह देख रहा था. बुखार, गूंगेपन और विषाद में वह कई हफ्ते डूबा रहा. गांव से उसकी पत्नी आई थी और उसके साथ रहने लगी. पर वह ठीक नहीं हुआ. वह अब अनजान भटकती आत्मा के शाप को अपने सिर पर लेकर घूम रहा था.
२.
फिर एक दिन उसका पुराना साथी आया जो उससे लगाव रखता था. एक बार उसने अपने इसी साथी को ट्रेन में तब बचाया था जब वह एक सूटकेस लेकर भागा था और पकड़ा गया था. तब उसने ऐन मौके पर पहुंचकर अपने को इलाके का पुलिसकर्मी बताया था और एक हथकड़ी पहनाकर उसे भीड़ से निकाल लाया था. उन दिनों वह अपने बैग में खाकी वर्दी और ऐसी नकली हथकड़ी रखा करता था.
उसी ने आज कहा- ‘कोई दूसरा काम कर लो. उस घटना के अब तीन हफ्ते बीच गए. अब हम सामान्य लोगों की तरह कोई नौकरी कर अपना जीवन काट सकते हैं. तुम्हारा पैसा भी खतम हो गया. अब काम ढूंढना होगा.’
उसकी हालत देखकर उसी के गैंग के एक और साथी ने कहा था.
कुछ पल रुककर उसने आगे कहा- ‘तुम तो पढ़े-लिखे हो. एक नया अखबार प्रकाशित होने वाला है. मैंने तुम्हारे लिए बात की है. उसमें पैसा हमारे गैंग को जानने वाले एक नेताजी का लगा है. इस कारण सिफारिश करने में आसानी हुई, हालांकि वह चाहते थे कि कोई आपराधिक पृष्ठभूमि का व्यक्ति न हो. मैंने बताया कि तुम बहुत शिक्षित और उच्च विचारों वाले इंसान हो.’ यह कहकर वह उन लोगों की तरह हंसा था जो झूठ बोलने का किस्सा सुनाकर अपने पर खुश होते हैं.’
‘मैं..और अखबार?’
बीमारी की हालत में वह नीमबेहोशी में था. पर कान में पड़े शब्दों ने उसे थोड़ा झिंझोड़ा और उसने पूछ लिया.
‘हां. बीए की डिग्री तो है ही. कल ही जाना उसके ऑफिस. वे तुम्हें शायद कोई काम दे सकें. वैसे बात पक्की है पर एक बार मिलना तो होगा. पहले लोग अपराध के बारे में अखबार में बताते थे. अब हम जैसे अपराधियों को भी अखबारों-चैनलों में आसानी से रख लेते हैं. शहर के सबसे बड़े अखबार का ब्यूरोचीफ तो दस साल पहले किसी डकैती में पकड़ा गया था. वह अब आराम से अखबार की नौकरी करता है. अपराधियों को शरीफ और शरीफों को अपराधी बनाता है.’
उसे ये बातें विषाद पैदा करने वाली लगीं. वह पिछले कई दिन से अवसाद में ऐसा फंसा था कि उसे संसार की हर बात अवसाद पैदा करती लगती थी. सुबह देर से उठता था. रात भर उसे ख्याल आते थे हत्या के बारे में. भय, दहशत, आशंका सब उसे घेरे रहते थे. रात में पागलों की तरह घर में घूमता था और कभी-कभी चिल्लाने लगता था. गले से कभी डरे हुए पिल्ले जैसी घिघियाई आवाज और कभी गुर्राने की आवाज निकालता.
साथी की बात मानकर वह तीन दिन बाद उस दफ्तर पहुंच गया. मन किसी राख की तरह बुझा पड़ा था. पर किसी तरह उसने अपनी शक्ल ठीक कर ली. सुबह दाढ़ी बनाई, साफ कपड़े पहने और बालों को संवार लिया. दफ्तर में उसे एक वरिष्ठ रिपोर्टर से मुलाकात करनी थी और उसी से अपना काम समझना था. दफ्तर के सामने वह अवसाद का टनो बोझ लिए खड़ा था और पहले से हुई बातचीत के मुताबिक वह पत्रकार उससे मिलने नीचे आया. पर वह अजीब सी जल्दी में था. उसके पूरे व्यक्तित्व पर पत्रकारों जैसी बेवकूफाना हड़बड़ी हावी थी जिसे उसके साथ के लोग डायनमिज्म कहकर अपने पेशे की इज्जत बढ़ाते थे.
उस पत्रकार ने कहा- ‘हमें अभी तुरंत दो जगह चलना है रिपोर्टिंग के लिए. दो महत्त्वपूर्ण मीटिंग हैं. तुम एक घंटे पहले आते तो दफ्तर में ही बैठकर आराम से बात करते.’
‘जी…’ उसने सकुचाए स्वर में कहा.
‘चलो. तुम्हें आज से ही काम सीखने समझने का मौका मिल गया. तुम बहुत लकी हो यार. आते ही ट्रेनिंग शुरू.’
यह कहकर उन्होंने अपने पुरानी कार में साथ वाली सीट पर उसे भी बिठा लिया. वह अभी भी निर्जीव मन और देह से सब कर रहा था. उसका मन राख की तरह हवा में तैर रहा था. हत्यारा होने का अपराध-बोध कम होने के स्थान पर बढ़ चुका था. जीवन की हर सांस भयानक दर्द पैदा करती लगती थी और वह सांसों से छुटकारा पाने के बारे में सोचता रहता था. सामने की सड़क उसे काली चादर की तरह लग रही थी जिसे ओढ़कर वह कुछ देर सोना चाहता था.
पहली मीटिंग एक धार्मिक संगठन की थी. वह संगठन आज रक्तदान सप्ताह मना रहा था और उसमें कुछ बड़े धार्मिक नेता जुटने वाले थे. पंडाल में बहुत सारे लोग जमा थे. रक्तदान के लिए एक एंबुलेंस खड़ी थी. पर वहां कोई गहमागहमी न थी. असली भीड़ मंच के पास थी.
‘देखो. रिपोर्टिंग करने के लिए सबसे आगे मंच के पास पहले से जम जाना चाहिए. बाकी सारे लोग हमें पीछे धकेलेंगे पर रहना है मंच के पास. इससे जान-पहचान बनाने में भी आसानी होती है. खबर तो सब छापते हैं पर इन लोगों से संबंध बनाकर रखने के अपने फायदे है.’
वह बेजान यंत्र की तरह उनकी बातें मान रहा था. भीड़ के धक्के के बीच उनके साथ मंच के पास मजबूती से खड़ा था.
धार्मिक नेता का भाषण शुरू हो चुका था. वह बहुत कुछ सुन नहीं पा रहा था. मंच पर रक्तदान से मिलने वाले पुण्य के बारे में बातें की जा रही थीं. उसमें रक्तदान के बजाय संगठन के कामों की बड़ाई अधिक थी. वह ऊब रहा था, अकेले में बैठकर अपने हताश मन को सांत्वना देना चाहता था. पर थोड़ी देर बाद कुछ ऐसी बातें कही जा रही थीं जिनपर उसका ध्यान जाने लगा. माइक और लाउडस्पीकर जैसे उसे जगा रहे थे. पिछले दो चुनाव हार चुके एक धार्मिक नेता ने जोर से चीखकर कहा-
‘लाशें गिरती हैं तो गिरने दो. हम नहीं रुकेंगे. पांच सौ लोगों को मारने की ताकत तो हमारे पास अभी ही है. धर्म से बड़ा क्या है! हमारी सहनशीलता का फायदा उठाया जाता रहा अब तक, हम कायर नहीं हैं. इस बार दिखा देंगे कि हम कितने सिर काटकर धरती पर गिरा सकते हैं.’
उसे लगा कि वह जहरीली लहरों में तैर रहा है और उसके बदन पर भारी खुजली शुरू हो चुकी है. उसने रिपोर्टर को कुहनी मारकर कहा-
‘ये क्या कह रहे हैं. यह खुलेआम हत्या के लिए उकसाने वाली कार्रवाई है. कोई ऐसा कैसे कह सकता है.’ फिर एक सनसनाती सी, विषाक्त तीरों जैसी पंक्तियां- ‘ये धर्मयुद्ध है. इसमें बलिदान देना होगा. विधर्मियों की जान लेने से हम पीछे हटे तो हमारा अस्तित्व समाप्त कर दिया जाएगा.’
रिपोर्टर ने उसे चुप रहने का इशारा किया और डायरी में जल्दी-जल्दी कुछ लिखता रहा. जब उस भीड़ से बाहर वे दोनों निकले तो दोनों ने सांस ली. वह अभी तक मूक था..उसे भाषण सुनने के बाद एक महीने पहले बनाई गई हत्या की योजना की सारी बातें और तेजी से याद आ रही थीं और कई दिन बाद मन हल्का लग रहा था. क्यों लग रहा था, यह उसे समझ नहीं आ रहा था.
दूसरी मीटिंग में उन्हें शाम के पांच बजे पहुंचना था. वह मीटिंग देश के एक आला मंत्री की प्रेस कान्फ्रेंस थी. उसमें वह सीमाओं पर तनाव को लेकर प्रेस वार्ता करने वाले थे. मीटिंग के शुरू होने में अभी दो घंटे थे. वह उस रिपोर्टर के साथ एक पुरानी सी चाय की दुकान में घुस गया. लगभग उसकी बांह खींचते हुए उसे दुकान की भीतर ले गया था वह रिपोर्टर. चाय पीते समय रिपोर्टर ने बताया-
‘यह तो अब शहर की आम बात हो गई है. लोग रक्तदान और महापुरुषों की पुण्यतिथियां बनाने की आड़ में अपना राजनीतिक काम करते हैं. रक्तपान की राजनीति रक्तदान की आड़ में चलती है. बड़े नेता भाषण के लिए आते हैं. बदला लेने, मारने-काटने, नरसंहार की बातें ऐसे करते हैं जैसे किसी की भी जान की इन्हें फिक्र नहीं. इंसान की जान इन लोगों के लिए गाजर-मूली जैसी है. इन्हीं के उत्तेजक भाषणों के कारण अचानक से शहर भभक उठता है, बहुत लोग अचानक एक दिन मारे जाते हैं.’
वह उनकी एक-एक बात गौर से सुन रहा था.
‘तुम पहले क्या करते थे? सक्सेना साहब बता रहे थे कि तुम बहुत शिक्षित और अच्छे विचार वाले हो.’
एक महीने में उसकी आवाज जम चुकी थी. वह कुछ बोल नहीं पाता था. उसे यह जानकर अच्छा लगा कि कोई उसे अच्छे विचार वाला कहकर परिचय मांग रहा है.
‘खैर छोड़ो. हमारी नौकरी में शिक्षा तो बस कामचलाऊ चाहिए. बाकी हर तरह के लोगों से मिलना जुलना आना चाहिए. इस देश में जुगाड़ देवता की पूजा करो, सब चलता रहता है. कल के अखबार में हम लोग इन्हीं नेता जी की तस्वीर लगाकर इन्हें समाज में रुतबा प्रदान करेंगे. मैंने तो हेडलाइन भी सोच ली है खबर की. रक्तदान से बनेगा सशक्त भारत….’ यह कहकर वह खुद ही हंस दिया था.
पांच बजे जब वे दूसरी मीटिंग वाली जगह पर प्रवेश कर रहे थे तब उसने देखा कि पुलिस का कड़ा पहरा था. पुलिस देखकर उसे आज भी बहुत डर लगने लगता था. उसे लगता था कि आज नहीं तो कल, पुलिस उसे पकड़ लेगी. भले ही उस दिन उसका मुंह पूरी तरह ढंका हुआ था पर और भी सबूत कहीं से मिल सकते हैं. हो सकता है कि जौहरी के बेटे ने उसके ऊपर शक जताया हो. या यह भी हो सकता है कि वहां कहीं कोई कैमरा लगा हो, उसके फुटेज मिल गए हों. पुलिस के सामने डर के मारे सारी बातें आसानी से उगल देगा. लेकिन डर से अधिक उसके मन में किसी को मारने का प्रायश्चित था. डर अगर कांटे की तरह गड़ता था तो पछतावा उसकी पसलियों मे धंसे फोड़े जैसा था जो दिनरात पीड़ा दे रहा था.
वह अखबार के रिपोर्टर के साथ सामने वाली कुर्सी पर बैठा था. प्रेस गैलरी में. प्रेसवार्ता आरंभ हुई तो मंत्री ने बोलना शुरू किया. थोड़ी देर तक सेना की युद्ध संबंधी तैयारी के बारे में बात करते-करते उनका पारा चढ़ गया. सामने लोगों को देख उनमें जोश पैदा होने लगा. उसी जोश में कहना आरंभ किया-
‘पिछले युद्ध में हमने उनकी सेना के तीन सौ लोग मारे थे. इस बार युद्ध हुआ तो हम तीन हजार मारेंगे. हमारे पास इतने हथियार और सैन्य तैयारी है कि हम उनकी सीमा में प्रवेश कर आसानी से सीमा के पास बसी पूरी आबादी को नष्ट कर दें. हम न सिर गिनेंगे न खून की नदियों पर बांध बनाएंगे.’
बोलते हुए मंत्री का चेहरा लाल हो गया. लगा जैसे किसी भी पल उनके दोनों हाथों में कोई भारी मशीनगन प्रकट होगी जिसका मुख दुश्मन देश की तरफ होगा. सारे कैमरे खचाखच फोटो खींच रहे थे और प्रेसवाले भी उनके बयानों पर खुश थे.
पर उसका सिर घूम रहा था. आत्मभर्त्सना को ढोते हुए सुबह से वह हत्याओं के महत्त्व और आवश्यकता पर लोगों के विचार सुन रहा था. धार्मिक संगठन के कार्यक्रम के बाद अब सरकारी प्रेसवार्ता तक में राष्ट्र की आड़ में हत्या के बारे में बहुत जोश प्रकट किया गया था. उसे सीने पर अजीब दबाव महसूस हो रहा था. वह और अधिक बातें सुने बगैर वहां से निकलकर बाहर आ गया. रिपोर्टर ने उसके जाने पर ध्यान नहीं दिया, वह अखबार में छापने के लिए सामग्री के नोट्स ले रहा था.
बाहर आकर उसने फेफड़े फुलाकर पूरी सांस ली जैसे वह कई दिनों बाद सोकर उठा है. तेज कदमों से सड़क पर चल रहा था और रास्ते में एक भिखारी, एक रिक्शेवाले और एक खोमचेवाले से रुककर बेवजह बात कर चुका था. उसे महीने भर बाद लगा कि उसका रुंधा गला, ठिठकी जबान और जमे हुए होंठ कांप रहे हैं और उनमें हरकत हो रही है. सड़क पर चलते-चलते एक पार्क में पहुंच गया. वहां देर तक बेंच पर बैठा रहा. उसे धार्मिक नेता और सरकारी मंत्री की बातें बार-बार याद आती रहीं. उनमें निर्दोषों की हत्या का आह्वान था पर उन्हें अपराधी नहीं माना जा सकता था. उन्हें अपराधी बताना अपने में अपराध था. इंसान को मार डालने की अपील पर ऐसा उल्लास. धर्म और देश दोनों की रक्षा के लिए हत्याओं की ऐसी खुल्लमखुल्ला बातें. कहीं कोई पछतावा नहीं, कोई सजा नहीं. किसी नैतिकता या कानून की जंजीर तक नहीं. लोग हत्याओं की कल्पनाएं कर संतुष्ट हो रहे हैं.
सोचते-सोचते सिर पकड़कर बैठ गया और उसके चेहरे पर हल्की सी हंसी की रेखा फूटी. होठों पर मंद स्मिति लिए वह सड़कर पर चलता रहा और घर पहुंचकर बिस्तर पर बैठ गया. पत्नी ने कमरे में झांककर देखा. वह उसे आधा पागल और बीमार आदमी समझती थी और खाना इत्यादि देने के अलावा उससे दूर ही रहती थी. उससे विवाह होने को लेकर अपनी किस्मत को कोसती थी. वह अब उसकी ओर देखता तक नहीं था ध्यान से. पत्नी का मन करता था कि वह गांव वापस लौट जाए और वहां स्कूल में पढ़ाने वाले मास्टर के साथ भाग जाए. उस मास्टर के साथ जिसने एक दिन उसकी बांह पकड़कर कहा था कि जब चाहो तब मेरे घर आ जाना. पर उस दिन वह हत्यारा अचानक जोर से हंसने लगा. हंसते-हंसते कमरे से बाहर आया और अपनी पत्नी, जो रस्सी से कपड़े उतार रही थी, उसे जोर से पीछे से पकड़ लिया. उसे कमरे में खींचकर ले गया. कई दिनों तक यह अफवाह उड़ती रही कि उसका दिमाग फिर गया था और अचानक से कोई बूटी मिलने से ठीक हो गया.
हत्यारा अब हत्या के पछतावे से मुक्त हो चुका था. पसलियों में धंसा फोड़ा अब ठीक हो रहा था. अब कभी कभार अपने पुराने साथियों से कहता था–
‘किसी धार्मिक संगठन या राष्ट्रवादी नेता की गोष्ठियों में जाया करो. पाप धुल जाने का अहसास गंगा नहाने में नहीं इन गोष्ठियों में जाने से मिलता है.’
यह कहकर वह अखबार निकालता और उसपर छपी तस्वीरों पर अजीब-अजीब ढंग से मुंह बनाते हुए लाल पेन से गोले बनाने लग जाता था.
वैभव सिंह 4 सितम्बर 1974, उन्नाव (उ.प्र.) उच्च शिक्षा जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नयी दिल्ली प्रकाशित पुस्तकें: इतिहास और राष्ट्रवाद, शताब्दी का प्रतिपक्ष, भारतीय उपन्यास और आधुनिकता, भारत: एक आत्मसंघर्ष.अनुवाद: मार्क्सवाद और साहित्यालोचन (टेरी ईगलटन), भारतीयता की ओर (पवन वर्मा) सम्पादन : अरुण कमल : सृजनात्मकता के आयामसम्मान : देवीशंकर अवस्थी आलोचना सम्मान, शिवकुमार मिश्र स्मृति आलोचना सम्मान, स्पन्दन आलोचना सम्मान, साहित्य सेवा सम्मान (भोपाल) सम्प्रति: अम्बेडकर यूनिवर्सिटी दिल्ली में अध्यापन |
बाक़ी साथियों के साथ छोटी लूट को अंजाम देने वाले युवक पर जौहरी के पुत्र का क़त्ल करने का भूत सवार हो जाता है । जौहरी की ग़लती है कि इस भावुक व्यक्ति की मन:स्थिति नहीं समझ पाता । वैसे भी सामान्य जीवन में कोई किसी को कहाँ समझ पाता है । इस कहानी के उतार और चढ़ाव के साथ मेरा हृदय भी धक-धक कर रहा था । भावुक युवक जौहरी के क़त्ल के इरादे से जौहरी की प्रेमिका के घर गया था । लेकिन क़त्ल नहीं किया । प्रेमिका का आर्थिक अभाव उससे रिसेप्शनिस्ट की नौकरी कराता है । भीड़ भरी दुनिया में उसे अकेलापन खलता है ।
क़त्ल न करने के बावजूद भी युवक अपराध बोध से ग्रस्त है । पगला गया है । किसी की सलाह पर रिपोर्टर बनना चाहता है । पहली सभा में ही रक्तदान करने के लिए भाषण देने वाले नेता की बातों में रक्त-पिपासु की वृत्ति देखकर, इस रिपोर्टर बने भावुक युवक का उद्विग्न मन परेशान हो जाता है । राजनीतिक दलों के नेता नागरिकों में धार्मिक उन्माद जगाकर वोट प्राप्त करते हैं ।
मनोवैज्ञानिक कहानी है। अवचेतन में धंसी हुई अपराध स्वीकारोक्ति तब खत्म होती है जब उसे बड़े नेता और धार्मिक आचार्य भी हत्या की बात खुले आम कहते है,वर्तमान राजनीति पर शानदार कहानी है यह।
हिंसा और युद्धोन्माद आज राजनीति में खुले आम सबके सामने परोसा जा रहा है। मानो यही वीरता की कसौटी हो। छोटे मोटे अपराध या हत्या की कोशिश करने वाले जब इनको देखते सुनते हैं तो उन्हें अपनी अपराध वृत्ति इनके सामने हल्की लगने लगती है। इस बदलते परिदृश्य को कहानी में अच्छे से उकेरा गया है। – – हरिमोहन शर्मा
वैभव सर को कमाल के आलोचक, वक्ता और शिक्षक के रूप में जानता था, वे गजब के कहानीकार भी हैं, ‘हत्यारा’ से जाना। उन्हें हार्दिक बधाई और समालोचन को इसे उपलब्ध कराने के लिए धन्यवाद
वैभव जी की यह कहानी अमरकांत के ‘हत्यारे’ से आगे के यथार्थ को सामने लाती है जहां धर्मध्वजियों और राजनीतिक नेताओं की हिंसा की राजनीति को बेनकाब किया गया है।
इस क्रम में पत्रकारिता से जुड़े लोगों की भूमिका को उजागर करते हुए कहानीकार ने अपराध जगत से उनकी साठगांठ को जिस आज़ाद में उकेरा है,वह काबिल-ए-तारीफ है।
कहानी वर्तमान व्यवस्था पर एक प्रकार की आक्रामक टिप्पणी है। अपराधी या हत्यारे कैसे बनते हैं लोग, इस पर भी सोच विचार किया गया है।
कहानी में कुछ मोड़ हैं जहां से अच्छी कहानी के बारे में सोचा जा सकता है। शुरू में एक युवक का हत्यारा बनने की प्रक्रिया और हत्यारे से अच्छा इंसान बनने के लक्षण स्पष्ट हैं, पर जहां कमजोर पडती है कहानी उस पक्ष को भी देखा जाना चाहिए।
कहानी की मूल संवेदना को समझना आसान है, मगर मन के जटिल सवालों से जितना ज़्यादा जूझा जाता, कहानी उतनी ही अच्छी बनती।
बहरहाल, वैभव सिंह जी का कहानी में यह सर्वांगीण योग्य कदम है।
हीरालाल नागर
बहुत ही उम्दा कहानी। सामूहिक उन्माद जगाने वालों पर करारा व्यंग्य है। व्यंग्य, ट्रैजडी, यथार्थ सभी को एक कहानी में पिरोना मुश्किल है पर वैभव जी ने पूरी कुशलता से इस कला को व्यक्त किया है। मुबारक हो।
भाई, दमदार कहानी। (अ)धर्मसंसद के बाद इसे पढ़ना तो और तीखा अनुभव देता है।
उम्दा कहानी।