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समालोचन

Home » सुंदरलाल बहुगुणा: प्रज्ञा पाठक

सुंदरलाल बहुगुणा: प्रज्ञा पाठक

प्रसिद्ध गांधीवादी और पर्यावरण संरक्षण के लिए चले चिपको आंदोलन के प्रणेता सुंदरलाल बहुगुणा (9 जनवरी सन 1927 - 21 मई 2021) को स्मरण कर रहीं हैं लेखिका प्रज्ञा पाठक.

by arun dev
January 9, 2022
in समाज
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सुंदरलाल बहुगुणा: प्रज्ञा पाठक
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सुंदरलाल बहुगुणा

प्रज्ञा पाठक

 

बहुत छुटपन की कोई स्मृति मस्तिष्क में टकी हुई है. रही होऊंगी कोई पांच-सात बरस की अबोध. बनारस में गली-गली उगे अस्पतालों की बहुलता तब नहीं थी. बीएचयू का सर सुंदरलाल चिकित्सालय बनारस का ही नहीं समूचे पूर्वांचल का बड़ा विश्वसनीय अस्पताल था. मेरे लिए वह अस्पताल मेरे मौसाजी का अस्पताल था. लिखने वाला जरूर बहुगुणा लिखना भूल गया होगा. जैसा याद पड़ता है एकाध बार अपने पड़ोसी दोस्त को इस बात की तड़ी भी दी थी. तब कहां पता था कि ये इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पहले भारतीय कुलपति और बीएचयू के पहले कुलपति रहे सर सुंदरलाल का नाम है.

बच्चों से उन्हें खूब प्यार था. उम्र जैसे-जैसे बढ़ती गई. नन्हें बच्चों और उनकी श्वेत धवल दाढ़ी का संबंध गहरा होता गया. उनके  निकट संपर्क में आए सब बच्चे  उनकी गोद में बैठकर उनकी दाढ़ी से खेले हैं. एक दिन अखबार पढ़ते हुए मैं सुखद आश्चर्य से भर गई थी. एक फोटो छपी थी जिसमें दलाई लामा और सुंदरलाल बहुगुणा दोनों थे. दोनों के चेहरे प्रफुल्लित, बाहें एक दूसरे को घेरे हुए और दलाई लामा जी का हाथ बहुगुणा जी की दाढ़ी पर और मुख मुद्रा बाल सुलभ आनंद और मोद से भरी हुई. अवसर-स्थान कुछ भी याद नहीं अब, पर चित्र दिमाग पर छप गया.

एक धुंधली सी याद वे भूमि पर पालथी मारकर बैठे भोजन कर रहे हैं और नन्हें-नन्हें उनके जुड़वां नाती-नातिन उनकी गोद में दोनों ओर बैठे हैं. निर्बाध गति से चल रही हैं दोनों बच्चों की शरारतें और उनके नानाजी का भोजन. बाएं हाथ से कभी एक को थामते कभी दूसरे को पकड़ते.

उनके व्यक्तित्व का एक पक्ष यह भी है कि वे आपको किताबों की दुनिया में जाने को विवश कर देते थे. बहुत सारे संदर्भ, उद्धरण, आंकड़े स्वयं उनको मुंहजबानी याद रहते थे. यदि पढ़ने-लिखने की दुनिया में आप हैं तो आपको कोई पुस्तक रेफ़र कर देंगे. दुबारा मिलने पर पूछ लेंगे. बकरे की मां कब तक खैर मनाएगी. अगली बार उनसे मिलने से पहले आप किताब ढूंढेंगे ही और पढ़ेंगे ही.

मेरे पति का विषय अर्थशास्त्र है तो मौसाजी ने उन्हें जे.सी.कुमारप्पा (प्रसिद्ध गांधीवादी अर्थशास्त्री) की पुस्तक ”इकोनॉमी ऑफ परमानेंस’ पढ़ने और उनके विचारों को समझने का प्रबल आग्रह किया. इसी तरह ई.एफ.शूमाकर की ‘स्माल इज ब्यूटीफुल’ पढ़े बिना भी उनकी निवृत्ति नहीं हुई. किताबों से चेतना परिष्कृत करने का उनका तरीका अनूठा था.

उनका अपना बचपन किताबों की संगति में जीवन की दिशा निर्धारित करने की प्रक्रिया से होकर गुजरा था. श्रीदेव सुमन, गांधी की अलख जगाते हुए गांव-गांव घूमने के क्रम में इनके भी गांव पहुंचे थे. उनसे खरीदी हुई दो किताबें ‘स्वराज कैसे लाएं: महात्मा गांधी’ और ‘नवयुवकों से दो बातें: प्रिंस क्रोपाटकिन’ ने बालक सुंदरलाल को बेहद प्रभावित किया.

श्रीदेव सुमन को वे अपना गुरु मानते थे. अपनी आवश्यकता का वस्त्र चरखे के द्वारा स्वयं बनाकर मैनचेस्टर की मिलों को चुनौती देने और अंग्रेजों को देश से भगा देने का फार्मूला बालक को बहुत पसंद आया. इतना कि शाम को कब्रिस्तान में चरखा चलाने का अभ्यास किया जाने लगा. वहां कोई व्यवधान न था, दूर से लोग देखते तो सोचते अहा! बच्चे पढ़ रहे हैं. किशोरावस्था में ही अखबारों के लिए लिखने और खबरें भेजने का काम शुरू कर दिया था. राजशाही के खिलाफ खबरें लिखने के लिए छद्म नाम था- ‘नारद’.

बाद में भी लिखना उनका नियमित व्यवहार था. पत्रकारिता उनकी आजीविका थी. जहां कहीं भी लिखते थे. चलती ट्रेन में, गंगा किनारे बैठ कर. पत्र लिखना और डायरी लिखना भी उनकी दिनचर्या में शामिल था. ये गांधी के सिपाहियों के लिए स्वयं अपना मूल्यांकन करने के निमित्त बनाया गया नियमित आचरण था. सरला बहन के आश्रम में रहने के दौरान लिखी हुई अपनी मम्मी की डायरी को मैंने छुटपन में साहित्य का आस्वाद लेते हुए ही पढ़ा है.

कई सारे अखबार पढ़ना उनकी दिनचर्या का हिस्सा था. मेरे बचपन के दिनों में तो पहाड़ों में दो-तीन दिन बाद अखबार पहुंचते थे. कभी मेरे पापा ने मुझसे कहा था कि ‘डाक्युमेंटेशन’ अपने मौसाजी से सीखो. मुझे आज भी याद है कि सरला बहन की आत्मकथा- ‘व्यावहारिक वेदांत एक आत्मकथा’ बनारस के किसी प्रेस से छपी थी. आठवीं से दसवीं कक्षा के बीच कभी मैंने पढ़ी और पढ़कर अपनी मौसी, मौसा, मामा और मां सबको एक नई दृष्टि से देखने और पहचाने की शुरुआत हुई.

मैं आश्चर्य से भर गई जब मेरे विवाह पर उन्होंने अपने और मौसी जी के हस्ताक्षर एवं संदेश के साथ मुझे यह पुस्तक दी. अबकी बार इसका प्रकाशन अमृतसर से हुआ था. अनेक ऐसे लोग जो मूलतः लेखक नहीं थे, लेकिन उनका जीवन समाज के लिए उपयोगी था. ऐसे चिंतन का समाज में प्रचार-प्रसार उन्हें जरूरी लगा. उनके विचारों को प्रकाशित करवाना और उस प्रकाशन को लोगों के बीच पहुंचाना उनके सामाजिक कार्य का एक अभिन्न अंग था.

पर्यावरण से जुड़े सरोकारों से बहुत पहले ही उनके सार्वजनिक जीवन की शुरुआत हो चुकी थी. तेरह की उम्र में ‘गांधी के रास्ते पर चलने का निश्चय’ और सत्रह वर्ष की उम्र में ‘जेल’ उसी जीवन का प्रसाद था. आज साधारणतः लोग नहीं जानते कि पर्यावरण प्रहरी सुंदरलाल बहुगुणा स्वतंत्रता संग्राम सेनानी भी थे. राजशाही से बगावत (टिहरी में राजा का शासन था और देश की आजादी के बाद टिहरी 1949 में आजाद हुई थी) की कीमत पुलिस से बचने के लिए टिहरी से भाग कर चुकाई. लाहौर में बी.ए. में प्रवेश लिया लेकिन पुलिस उन्हें ढूंढते हुए वहां भी पहुंच गई. तब पंजाब के भीतरी इलाके में सिक्ख बन कर रहे. जीविकोपार्जन के निमित्त  बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाने का काम मिला. बच्चे हिंदी नहीं जानते और उन्हें पंजाबी  नहीं आती थी. धीरे-धीरे पंजाबी और उर्दू दोनों सीखीं.

अपने बचपन का एक प्रसंग याद आ रहा है. ये बांध आंदोलन से पहले की बात है. कश्मीर से कोहिमा की पदयात्रा के दिनों में मौसाजी धुआंधार बोलते और लिखते थे. सभी प्रमुख अखबारों में उनसे संबंधित खबरें और उनके लेख छपते थे. हिंदी में भी और अंग्रेजी में भी. हमारे एक संबंधी हम बच्चों के समूह पर बहुगुणा जी के बढ़ते प्रभाव से बेचैन होकर हम लोगों को रोज यह बताते- ‘अरेऽ आज से पंद्रह-एक बरस पहले ये इतनी अंग्रेजी नहीं जानते थे. जाने कैसे सीखी होगी अंग्रेजी? पहले तो ये बिलकुल हमारे जैसे ही थे’.

बहरहाल लाहौर से बी.ए. आनर्स की परीक्षा देकर सैंतालीस के उथल-पुथल भरे दौर में टिहरी लौटे. नगर के द्वार पर पुलिस तैनात थी. इनको प्रवेश नहीं दिया गया तो वहीं धरने पर बैठ रहे, उपवास कर लिया. नगर में प्रवेश के बाद शरणार्थियों के पुनर्वास के कार्यों से जुड़े. ‘टिहरी प्रजामंडल’ समूह के साथ टिहरी की आजादी के लिए काम किया. इस टिहरी रियासत के खिलाफ आंदोलन में हमारे परिवार के कई लोग सक्रिय थे. मेरे बड़े मामा बुद्धि सागर नौटियाल और छोटे मामा विद्यासागर नौटियाल  दोनों सक्रिय विद्रोही थे. नाना जी सरकारी नौकरी करते थे. वे वन विभाग में रेंजर थे. मम्मी एक किस्सा सुनाती हैं. एक बार राजदरबार से नानाजी को आदेश हुआ- ‘अपने लड़कों को कंट्रोल कर लो’. नानाजी का जवाब था- ‘महाराज मैं आपका नौकर हूं मेरे बेटे नहीं’.

आजाद टिहरी में प्रजामंडल का कांग्रेस में विलय हुआ और बहुगुणाजी  टिहरी जिला कांग्रेस के मंत्री बने. सिल्यारा आश्रम में  मैंने एक बार किसी बुजुर्ग को ‘मंत्री जी’ कहते सुना था. हम वयस्क  भाई बहनों से जानना चाहा था पर इस सम्बोधन का राज किसी को पता नहीं था. बड़ों से पूछने का साहस नहीं हुआ. सालों बाद खड्ग सिंह वल्दिया की पुस्तक ‘हिमालय में महात्मा गांधी के सिपाही सुंदरलाल बहुगुणा’ पढ़ते हुए यह गुत्थी खुद-ब-खुद सुलझ गई. उस बुजुर्ग ने  वह कालखंड देखा होगा जब बहुगुणा जी मंत्री थे. समय के उस दौर में दलित छात्र सामान्य छात्रावासों में सभी छात्रों के साथ नहीं रह पाते थे.

विद्यासागर नौटियाल जी ने इस समस्या की ओर ध्यान आकर्षित किया. बहुगुणा जी के प्रयासों से गांधी जी के अनुयाई और उनके अस्पृश्यता निवारण कार्यक्रमों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले ठक्कर बापा जी के नाम पर टिहरी में एक नया छात्रावास बना ‘ठक्कर बापा छात्रावास’ जहां समाज के सभी वर्गों के विद्यार्थी मिलजुल कर रहने लगे. वहां रसोई बनाने का काम एक दलित व्यक्ति को दिया गया और सभी लोग भोजन ग्रहण करते थे. उस छात्रावास का निर्माण बहुत परिश्रम और दृढ़ संकल्प के बलबूते हुआ था. एक-एक पत्थर हाथों से ढ़ोया गया. उन्होंने सब को कहा हुआ था जो भी इधर आए नदी किनारे से एक पत्थर लेता आए.

यहां  बहुगुणाजी के निकट संपर्क में रहने वाले लोग भी इस संकल्प को सनक करार देते थे और उनका मन रखने को पत्थर लेकर उनसे मिलने जाते रहे. वर्षों बाद मेरे माता-पिता का विवाह इसी ठक्कर बापा छात्रावास के प्रांगण में हुआ था. बिलकुल सादा. पापा को मौसाजी का पत्र मिला था,फलां दिन फलां तारीख को विवाह निश्चित हुआ है, उम्मीद है आप पहुंच जाएंगे. बनारस में रहते थे तो एक बनारसी साड़ी और तीन मित्रों के साथ मेरे पिता शादी करने पहुंचे थे.

उनकी राजनीतिक संलग्नता को मौसी जी के आग्रह ने एक दूसरी दिशा दे दी थी.  मौसी जी के दिमाग में भविष्य का जो खाका था वह गांधी जी के आदर्शों से उपजा था- आजादी का अहसास  गांवों तक,  आम आदमी तक पहुंचाना है. उनको उनके अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति जागरूक बनाना है. इन लक्ष्यों के लिए वे पूरी तरह प्रशिक्षित थीं. लक्ष्मी आश्रम कौसानी में सरला बहन की शिष्या के रूप में उन्होंने समाज बदलने की दीक्षा पाई थी. बाबा विनोबा भावे के भूदान आंदोलन में हिस्सा ले चुकीं थीं. कहते हैं गांव-गांव भूदान के लिए घूमते हुए वे और उनके साथी बिहार के किसी गांव में रुके हुए थे. वहां बाढ़ का प्रकोप था और उस रात गांव में पानी पहुंच जाने की सूचना आई. साथ के लोगों ने कहा, चलो दूसरे किसी गांव में चलते हैं. उनका जवाब था- हम यहां उनसे भूदान मांग रहे हैं. जब प्राण दान देने की बात आई तो हम भाग जाएं? मैं यहीं रहूंगी और उनके भाग्य में शामिल होऊंगी. इस प्रसंग का जिक्र स्वयं सरला बहन ने अपनी आत्मकथा में किया है. उन्होंने अपनी प्रतिभाशाली विद्यार्थी विमला की क्षमताओं की भरपूर प्रशंसा की है. सरला बहन का कौसानी स्थित यह आश्रम पहाड़ी बच्चियों और महिलाओं के जीवन को बदलने में और उनका भाग्य गढ़ने में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका रखता है. शिक्षा, स्वच्छता और स्वास्थ्य की बुनियादी आवश्यकताओं के प्रति उनकी  लड़कियों के माध्यम से गांव-गांव जागरूकता फैली.

‘पर्वतीय नवजीवन आश्रम सिल्यारा’ के साथ जीवन की नई यात्रा इस युगल ने शुरू की थी. धीरे-धीरे एक संस्था के रूप में गांधीवादी मॉडल की यह इकाई उस क्षेत्र के लिए नज़ीर बन गई. इस बीच बूढ़ा केदार के मंदिर में दलितों को प्रवेश कराने को लेकर स्थानीय लोगों के द्वारा बहुगुणा जी के साथ हिंसक व्यवहार की घटना भी हुई. भूदान आंदोलन अब भी चल रहा था. विनोबा जी के संदेश पर अब बहुगुणा जी निकल पड़े गांव-गांव, लोगों के बीच सर्वोदय और भूदान का संदेश देने. लम्बी यात्राओं के बाद लौटे तो नशाबंदी के लिए सत्याग्रह किया. मद्यनिषेध का आंदोलन पूरे उत्तरांचल में जोर शोर से हुआ. महिलाओं और परिवार से जुड़ा मुद्दा होने के कारण जोर-शोर से महिलाओं ने इसमें भागीदारी की.

उनकी पत्नी मेरी मौसी अपनी बहनों में सबसे बड़ी थीं. मौसा जी का रिश्ता मेरे नाना जी ने चुना था. जिसमें मौसी जी ने स्वयं हस्तक्षेप करके रिश्ते को अपने अनुकूल बनाया. लेकिन इससे भी ज्यादा जोरदार बात यह हुई कि मेरी मां और अन्य दो मौसियों का विवाह बड़े मौसा जी के उद्योग से ही हुआ. सिर्फ एक मौसी का विवाह नाना जी के हिसाब से  परंपरागत तरीके से  संपन्न हुआ. मेरी मां और मौसियों की एक घनिष्ठ मित्र जब अपनी बेटी के लिए रिश्ता तलाश रहीं थीं. तब एक धनपशु ने बहुत हिकारत के साथ उनसे कहा था- ‘आश्रम में? आपके घर में कोई नहीं था जो आप आश्रम में रहीं’?  मैं अब समझ पाती हूं उस जमाने में पढ़ी-लिखी, आत्मनिर्भर लड़कियों के लिए रिश्ता खोज पाना कोई आसान काम नहीं रहा होगा. ऐसे परिवारों में उनका सम्बन्ध जोड़ना जहां उन्हें अपने सामाजिक सरोकारों से समझौता न करना पड़े, उनके लिए शर्मिंदा न होना पड़े वाकई चुनौती पूर्ण रहा होगा. मैंने अपने पापा को हमेशा मम्मी जो जीवन पीछे छोड़ कर उनके साथ आईं थीं उसका गर्व से ज़िक्र करते पाया था. मेरी मां और मौसियों को सरला बहन के आश्रम से जो दीक्षा मिली थी उसके माध्यम से अपनी सामर्थ्य भर उन लोगों ने अपने आसपास की दुनिया को आलोकित करने का प्रयास किया.

सुंदरलाल बहुगुणा जी के जीवन के इस हिस्से पर बात करना इसलिए जरूरी लगता है कि आज उनकी विश्वव्यापी पहचान और उनको मिले देशी-विदेशी पुरस्कारों की चमक-दमक की चकाचौंध में उनके संघर्षों और उनके सरोकारों को भुला न दिया जाए. परस्पर विरोधी  से दिखने वाले लोक और शास्त्र का सामंजस्य उनके यहां था. पर्यावरण के क्षेत्र में दुनिया भर से ज्ञान से अपडेट रहना. चिंतन-मनन के माध्यम से वैकल्पिक संसाधनों का नक्शा सामने रखना. साथ ही साथ पर्वतीय क्षेत्र के गांव-गांव, घर-घर की समस्याओं की समझ होना. लोगों से गहन संवेदना भरा परिचय और उनकी लड़ाई लड़ने के लिए हर समय तैयार रहने का जज्बा उनको ख़ास बनाता है.
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prajnanas@gmail.com

Tags: 20222022 समाजगांधीवादचिपको आंदोलनपर्यावरण संरक्षणसुंदरलाल बहुगुणा
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Comments 2

  1. ललिता यादव says:
    1 year ago

    बहुगुणा जी के व्यक्तित्व के विविध आयाम प्रस्तुत करती। उनकी स्मृति में लिखे जा रहे प्रज्ञा पाठक के संस्मरण की यह द्वितीय किस्त- रोचक और पठनीय है। बधाई दोस्त!
    अरुण जी का आभार इसे ‘समालोचन’ के पटल पर पढ़वाने के लिए।

    Reply
  2. M P Haridev says:
    1 year ago

    पर्यावरणवादियों के लिये सुंदरलाल बहुगुणा अपरिचित नाम नहीं है । प्रज्ञा पाठक के अपने इस लेख में बहुगुणा जी के जीवन यात्रा की संक्षिप्त, परंतु महत्वपूर्ण जानकारी प्रस्तुत की है । प्रोफ़ेसर अरुण देव जी, आप सदैव सुखी रहें, कि सुंदरलाल बहुगुणा के व्यक्तित्व से पाठकों को परिचित कराया । सरला बहन की आत्मकथा-‘व्यावहारिक वेदांत एक आत्मकथा’ प्रेरक नाम है । यह नाम बहुगुणा जी के जीवन की यात्रा का पटाक्षेप करती है । बहुगुणा ने ने लाहौर में जाकर बी.ए. किया । वहाँ रहते हुए पंजाबी भाषा सीखी । श्रीदेव सुमन ने उन्हें गांधी नाम से परिचय कराया । सुंदरलाल बहुगुणा गांधीवादी बन गये । His Holiness दलाई लामा के साथ बहुगुणा जी की मुलाक़ात का प्रसंग उल्लेखनीय है । बहुगुणा जी का चरखा चलाकर मैन्चेस्टर के वस्त्र उद्योग को चुनौती देने की पंक्ति व्यापक अर्थ लिये हुए है । बप्पा ठक्कर छात्रावास बनाना और वहाँ हरिजन कुक को काम देना अस्पृश्यता को समाप्त करने का अनूठा क़दम है । एक पंक्ति में सुंदरलाल बहुगुणा द्वारा धाराप्रवाह अंग्रेज़ी भाषा बोलने का प्रसंग है । मुझे योगेन्द्र यादव की यादव की याद आ गयी । संसद के आम चुनाव में योगेन्द्र यादव psephologist के रूप में टेलिविज़न पर आते थे । हिन्दी भाषा में बोलते । मुझे अचरज होता है कि वे इतनी जल्दी किस प्रकार धाराप्रवाह अंग्रेज़ी बोलना सीख गये । कल सुबह व्यस्त था । दोपहर को सो गया । फिर घर में होने वाले दैनिक कार्यों में व्यस्त रहा । थक गया । रात्रि में सोते समय दर्द की गोली फाँकनी पड़ी । दिन में सोने के कारण अब से एक घंटा पहले नींद खुल गयी । सुंदरलाल बहुगुणा के जीवन पर आधारित इस लेख पर टिप्पणी न करता तो ग्लानि का अनुभव होता । बहुगुणा द्वारा कश्मीर से कोहिमा तक की पदयात्रा रोमांचक अनुभव रहा होगा ।

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