डॉ. सूर्यनारायण रणसुभे
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राममनोहर लोहिया ने लिखा है कि बहुजनों का नेता ऐसा होना चाहिए जिसके नेतृत्व में काम करते हुए गैर-बहुजन भी गर्व का अनुभव करें. यह बात केवल राजनीति के बजाय साहित्यिक-सांस्कृतिक एवं सामाजिक सन्दर्भ में भी सच है और जाहिर है कि इस महत कार्य के योग्य वही व्यक्ति हो सकता है जिसमें इतिहास-बोध से लैस आलोचनात्मक चेतना और दूसरों के साथ स्वयं के सन्दर्भ में भी व्यक्ति पूजा का निषेध करने का नैतिक बल हो. कहने की ज़रूरत नहीं कि तमाम तरह की संकीर्णताओं से खुद मुक्त हुए बगैर किसी विचारक द्वारा अपने समय-समाज की कमजोर नब्ज पर उंगली रख पाना लगभग असंभव है और व्यक्ति-पूजा से छुटकारा पाए बगैर सच्चे लोकतंत्र का मार्ग प्रशस्त नहीं हो सकता.
इतिहास गवाह है कि अनेकानेक विविधताओं के युक्त भारत जैसे बहुजातीय, बहुधार्मिक एवं बहुभाषिक राष्ट्र में समय-समय पर अनेक प्रकार की संकीर्ण प्रवृत्तियाँ पैदा होती रही हैं और हर तरह की संकीर्णता कालांतर में व्यक्ति के साथ ही सम्पूर्ण समाज और प्रकारांतर से राष्ट्र के लिए घातक सिद्ध हुई है. इसलिए हमारे देश में हर समय ऐसे लोगों की ज़रूरत बनी रहती है जो समाज में प्रचलित क्षयिष्णु प्रवृत्तियों के खिलाफ खड्गहस्त हों और फटकारकर सच बोलने-लिखने का साहस रखते हों. प्रसंगवश विजयदेव नारायण साही की ‘प्रार्थना: गुरु कबीरदास के लिए’ कविता की याद न आए,यह मुमकिन नहीं:
परम गुरु
दो तो ऐसी विनम्रता दो
कि अंतहीन सहानुभूति की वाणी बोल सकूँ
और यह अंतहीन सहानुभूति
पाखंड न लगे.
दो तो ऐसा कलेजा दो
कि अपमान, महत्वाकांक्षा और भूख
की गाँठों में मरोड़े हुए
उन लोगों का माथा सहला सकूँ
और इसका डर न लगे
कि कोई हाथ ही काट खाएगा.
दो तो ऐसी निरीहता दो
कि इसे दहाड़ते आतंक क बीच
फटकार कर सच बोल सकूँ
और इसकी चिन्ता न हो
कि इसे बहुमुखी युद्ध में
मेरे सच का इस्तेमाल
कौन अपने पक्ष में करेगा.
यह भी न दो
तो इतना ही दो
कि बिना मरे चुप रह सकूँ.
कहना न होगा कि हमारे समय में सतत सतर्कता से लैस जो गिने चुने मूलगामी बुद्धिजीवी बगैर किसी परिणाम की परवाह किये चीज़ों को उनके सही नाम से पुकारने का साहस रखते हैं, उनमें महाराष्ट्र के एक छोटे-से कस्बे लातूर- निवासी और दयानंद महाविद्यालय के अवकाश प्राप्त हिन्दी प्राध्यापक डॉ. सूर्यनारायण माणिकराव रणसुभे एक हैं.
अद्वितीय सत्यनिष्ठा और अगाध विद्वत्ता से परिपूर्ण मराठी और हिन्दी समेत दुनिया की श्रेष्ठ कृतियों के गंभीर अध्येता तथा विद्वान-लेखक डॉ. सूर्यनारायण रणसुभे का जन्म अगस्त 7, 1942 को पुराने हैदराबाद रियासत के गुलबर्गा जिले की एक मजदूर बस्ती में हुआ. बालक सूर्यनारायण की प्रारंभिक शिक्षा मराठी माध्यम से गुलबर्गा में ही हुई. माता-पिता और नौ भाई-बहनों के साथ दो छोटे-छोटे कमरों में रहने वाले परिवार के इस मेधावी बालक ने स्नातक की पढ़ाई अंग्रेज़ी माध्यम से पुणे स्थित शासकीय महाविद्यालय में की. अपने एक साक्षात्कार में रणसुभे जी कहते हैं कि
“बचपन खेलने के लिए होता है- इसका अनुभव हम भाई-बहनों को कभी नहीं हुआ.”
पढ़ाई के दौरान वे अनेक तरह के काम करते रहे.
“पान की दुकान के नीचे बैठकर पान काटकर देना,सुपारी काटना,गर्मी की छुट्टियों में दूसरों के घरों में रंग-सफेदी करना,फुटपाथ पर बैठकर व्यवसाय करने वालों के हाथ के नीचे काम करना, मूंगफली के बीज निकालना,इस प्रकार के काम करने में कभी संकोच नहीं हुआ. जैसे मैं ये काम करता था,वैसे स्कूल का काम भी बहुत निष्ठापूर्वक करता था, संभवतः कॉलेज जाने के बाद ही नया कपड़ा खरीदकर उसे मेरे लिए सिलाया गया, जब मैं लातूर में पहली बार साक्षात्कार के लिए आया तब मेरे बदन पर की पैंट मेरे एक मित्र की थी और शर्ट एक अन्य मित्र का.”
रणसुभे जी के हिन्दी साहित्य के अध्ययन-अध्यापन और लेखन के क्षेत्र में प्रवेश का प्रसंग बहुत ही मार्मिक,पर दिलचस्प है. बहुत ही अच्छे अंकों के साथ मैट्रिक पास करने के बाद उन्हें धारवाड़ मेडिकल कॉलेज में प्रवेश मिल रहा था जिसका खर्च उठाने ले लिए एक रिश्तेदार इस शर्त पर तैयार थे कि सत्रह वर्षीय युवा सूर्यनारायण उनकी पुत्री से सगाई करें और डॉक्टर बनने के बाद विवाह कर लें. सूर्यनारायण जी के माता-पिता और परिवार के अन्य सदस्य इसके लिए उन पर दबाव डाल रहे थे. किन्तु, तब तक युवा सूर्यनारायण दुनिया भर के बड़े रचनाकारों की अनेक कृतियों के साथ ही श्री सावे गुरूजी, बाबासाहेब अम्बेडकर और प्रेमचन्द के लेखन से परिचित हो चुके थे. इसलिए उन्होंने अपने सम्पन्न रिश्तेदार का यह प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया और उच्च शिक्षा प्राप्त करने का अरमान छोड़कर वे डाक-तार विभाग में नौकरी के लिए प्रयास करने लगे. नौकरी के लिए बुलावे का इंतज़ार करने के क्रम में सूर्यनारायण जी ने मित्रों की सहायता से बी.एससी. प्रथम वर्ष में प्रवेश ले लिया और भौतिकशास्त्र की कक्षा में अपने महाविद्यालय के प्राचार्य डॉ.डी.एस.दावर से इतने अच्छे अंक पाने के बावजूद मेडिकल कॉलेज में प्रवेश न लेने के लिए झिडकी का सामना किया.
यह बात कॉलेज में चर्चा का विषय बनी और पंद्रह-बीस दिनों के भीतर ही महाविद्यालय के हिन्दी प्राध्यापक श्री कुलकर्णी ने पूरे राज्य में हिन्दी में सबसे ज़्यादा अंक प्राप्त करने वाले इस युवक को भारत सरकार द्वारा ‘अहिंदीभाषी छात्रों को हिन्दी छात्रवृत्ति’ नामक योजना की जानकारी देते हुए उसे अपनी आर्थिक स्थिति के मद्देनज़र आगे हिन्दी पढ़ने के लिए प्रेरित किया. परिणामत: युवा सूर्यनारायण ने बी.एससी. के बजाय बड़ी मुश्किल से बी.ए. में अपना दाखिला स्थानांतरित करवाया और इसके बाद सरकार की इस छात्रवृत्ति योजना के नियम के तहत स्नातकोत्तर हिन्दी की पढ़ाई के लिए सुप्रसिद्ध इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के छात्र बने जहाँ अश्क, लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय, कमलेश्वर, कृष्णा सोबती, दूधनाथ सिंह, मार्कंडेय, राजेन्द्र यादव, अमृतलाल आगर, यशपाल, नगेन्द्र, उदयनारायण तिवारी, रघुवंश आदि नामचीन विद्वान-शिक्षकों एवं साहित्यकारों के निरंतर सम्पर्क में रहने का सुयोग बना. चूंकि डॉ. रघुवंश सुप्रसिद्ध समाजवादी विचारक और राजनेता डॉ. राममनोहर लोहिया के मित्र थे और इलाहाबाद आने पर प्राय: विश्वविद्यालय के अतिथि गृह में ही ठहरते थे,इसलिए छात्र जीवन में सूर्यनारायण जी को लोहिया जी से भी संवाद करने के कई सुअवसर मिले.
उल्लेखनीय है कि डॉ. सूर्यनारायण रणसुभे के व्यक्तित्व-निर्माण में सावे गुरूजी और बाबासाहेब आंबेडकर के साथ ही उनके विद्वान-शिक्षकों, हिन्दी के अनेक साहित्यकारों के अलावा डॉ. लोहिया और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में आन्ध्र प्रदेश से हिन्दी पढ़ने आए अपने सहपाठी श्री माची रेड्डी की दोस्ती के कारण मार्क्सवाद के गहरे परिचय की महती भूमिका रही.
बचपन से ही घनघोर अध्यवसायी छात्र और सन 1965 में प्राध्यापक के रूप में नियुक्त श्री सूर्यनारायण रणसुभे को हिन्दी और मराठी में लेखन के क्षेत्र में प्रवृत्त करने का श्रेय दयानंद महाविद्यालय, लातूर के विद्वान प्राध्यापक तथा स्नातकोत्तर हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ. चंद्रभानु सोनवणे को है. इनके सम्पर्क में आने के पूर्व रणसुभे जी की कुछ रचनाएँ मराठी-हिन्दी राष्ट्रवाणी, लोकसत्ता आदि में प्रकाशित हो चुकी थीं,पर एक ज़माने में प्रतिष्ठित ‘ग्रंथम’(कानपुर) प्रकाशन से छपी ‘आधुनिक मराठी साहित्य का प्रवृत्तिमूलक इतिहास’ शीर्षक उनकी पहली पुस्तक का लेखन सोनवणे जी और भूदेव पाटिल की प्रेरणा से हुआ. आगे चलकर पंचशील प्रकाशन, जयपुर और राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली से रणसुभे जी की ‘कहानीकार कमलेश्वर: सन्दर्भ और प्रकृति’ तथा ‘डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर’ (जीवनी) जैसी महत्त्वपूर्ण पुस्तकें प्रकाशित हुईं.
सूर्यनारायण रणसुभे यदि प्राध्यापक न होते तो आलोचना के बजाय सृजनात्मक लेखन करते. किंतु, अपनी विडम्बनापूर्ण जीवन-स्थितियों के तहत वे कालान्तर में दलित चिंतन और अनुवाद के क्षेत्र में सक्रिय हो गए. अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने स्वीकार किया है कि
“यह एक सहज नैसर्गिक प्रक्रिया है. मैं बचपन से ही मजदूरी करता रहा. मेरे आसपास सभी जाति और धर्म के लोग उपेक्षित थे. मैं भी उनमें से एक था, मेरी प्रतिबद्धता उनसे ही होगी और है. चिंतन के केंद्र बिंदु में भी वे ही होंगे. अपनी यातना के बोझ से मुक्त होने के लिए मेरे सामने दो ही मार्ग थे-एक तो मैं खुद अपनी यातना को सृजनात्मक मार्ग देता अथवा अन्य यातनामय जीवन जीने वालों की सृजनात्मक कृतियों का अनुवाद करता. मैंने आरम्भ में दूसरा मार्ग चुन लिया था. अब अवकाश के बाद पहले मार्ग को अपनाना चाहता हूँ.”
सृजनात्मक लेखन और उसके अनुवाद के बीच जटिल सम्बन्ध की व्याख्या करते हुए डॉ. रणसुभे ‘प्रतिबद्धता’ को इन दोनों के बीच की महत्त्वपूर्ण कड़ी मानते हुए कहते हैं कि यदि सर्जक और अनुवादक की प्रतिबद्धता एक हो तो अनुवाद न केवल अधिक सहज और जीवंत हो उठता है,बल्कि अनुवाद केवल अनुवाद न होकर पुन:सृजन की ऊँचाई का स्पर्श करने लगता है.
‘अनुवाद का समाजशास्त्र’ डॉ. सूर्यनारायण रणसुभे की विलक्षण पुस्तक है, जिसमें अनुवाद विषयक चिंतन की प्रचलित परिपाटी से हटकर अनुवाद प्रक्रिया को व्यापक ऐतिहासिक-सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्रिया का अंग मानते हुए इसके सामाजिक मूलाधारों की खोज की गयी है. जिस प्रकार साहित्य का समाजशास्त्रीय अध्ययन करते हुए साहित्य के सृजन से लेकर उसके अभिग्रहण तक की प्रक्रिया का विवेचन किया जाता है, उसी प्रकार रणसुभे जी ने इस पुस्तक में किसी समय-समाज में अनुवाद होने या न होने के कारणों की शिनाख्त करते हुए अनुवाद की प्रक्रिया और अनूदित कृतियों के अभिग्रहण में विचारधारा की भूमिका को भी रेखांकित किया है. उनके शब्दों में
“जिस समाज-व्यवस्था में सामाजिक गतिशीलता अधिक होती है,समता और बंधुता की मूल्य-व्यवस्था जहाँ दृढ़ होती है, औरों के धर्म,संस्कृति तथा ज्ञान के प्रति आदर की भावना जहाँ दृढ़ होती है,वहां अनुवाद की प्रक्रिया अधिक तेजी से चलती रहती है,अहंकार से युक्त और बंद समाज-व्यवस्था में औरों के प्रति तिरस्कार अथवा उपेक्षा की भावना होती है और ऐसी व्यवस्था में अनुवाद-प्रक्रिया करीब-करीब नहीं के बराबर होती है, एक वृहत्तर समाज या मनुष्य के साथ जुड़ने की छटपटाहट से ही अनुवाद की प्रक्रिया शुरू हो जाती है.इस प्रकार की छटपटाहट वर्ण या जाति-व्यवस्था में बंद समाज में संभव नहीं होती, ऐसी व्यवस्था में अनुवाद संभव नहीं होता,न अनुवाद के प्रति गंभीरता होती है.”
इस पुस्तक में लेखक ने विस्तार से बतलाया है कि जो जाति जितनी जनतांत्रिक स्वभाव वाली होगी, उसकी जातीय भाषा में उतना ही अधिक अनुवाद होगा. भारत में अंग्रेज़ी शिक्षा का आरम्भ होने के बाद अनुवाद की प्रक्रिया में आई गति को रेखांकित करने के पूर्व सूर्यनारायण रणसुभे ने ज्ञानेश्वर को पहला विद्रोही अनुवादक बताते हुए सवाल उठाया है कि आखिर एक लम्बे समय तक भारतीय भाषाओं में संस्कृत ग्रंथों में के और ख़ासकर उन ग्रंथों के अनुवाद क्यों नहीं हुए जिनमें तत्कालीन सामंती व्यवस्था द्वारा प्रदत्त जीवन-मूल्यों का जमकर विरोध किया गया था. उनका कहना है कि गौतम बुद्ध और उनके अनुयायियों द्वारा लिखे गए साहित्य का अनुवाद करने के बजाय तथाकथित विद्वानों द्वारा इन ग्रथों को समाप्त करने का षड्यन्त्र रचा गया. जाहिर है कि भारत में वर्ण-व्यवस्था के प्रचलन की वजह से अश्वघोष की वर्ण व्यवस्था-विरोधी पुस्तक ‘वज्रसूची’ का अनुवाद एक लम्बे अरसे के बाद संभव हो पाया. उनके शब्दों में अन्य भाषाओं में प्राप्त ज्ञान और साहित्य के अनुवाद की बात तो दूर कम से कम अपने पास जो श्रेष्ठ है, उसे विश्व की अन्य भाषाओं अथवा आधुनिक भारतीय भाषाओं में अनुवाद करने का गंभीर प्रयत्न भी दिखाई नहीं देता:
“वेदों और उपनिषदों के अनुवाद कब से प्राप्त होते हैं ? एक और बाइबिल तथा कुरान के अनुवाद की एक लम्बी परंपरा मिलती है,तो दूसरी और एक हम हैं कि न औरों को समझ लेने की कोशिश करेंगे और न खुद को औरों तक पहुंचाने की. मुक्तिबोध की भाषा में हम ‘ब्रह्मराक्षस’ ही हैं.”
इससे अलग एक और समस्या की तरफ डॉ. रणसुभे ने इंगित किया है, जहाँ नवजागरण काल में हमारे देश के बुद्धिजीवियों ने अपनी भाषाओं और उनमें रचित साहित्य की तुलना में अंग्रेज़ी भाषा और यूरोपीय चिंतन को श्रेष्ठ साबित करना आरंभ कर दिया था. भारत का पढ़ा लिखा एक तबका अंग्रेज़ी, फ्रेंच, जर्मन, इतालवी अथवा लातिनी अमेरिकी साहित्य आदि के प्रति अतिरिक्त उत्साह का परिचय देता रहा, पर भारतीय भाषाओं में रचित साहित्य के प्रति वह उदासीन बना रहा. विचित्र बात है कि रंगभेद के शिकार नीग्रो और लातिनी अमेरिका के पिछड़ो की मुक्ति के लिए रचित साहित्य को सराहने वाला यह वर्ग अपने हमवतन दलित समुदाय की मुक्ति के लिए रचित साहित्य से विमुख रहा. लेखक के अनुसार इसके मूल में हमारी हीनता ग्रंथि थी. इसलिए लेखक का यह कहना सही है कि अनुवाद की पूरी प्रक्रिया तथा अनुवाद-दर्शन पर समाज-व्यवस्था के सन्दर्भ में विचार करना ज़रूरी है.
‘प्रादेशिक भाषा और साहित्येतिहास’ नामक अपनी पुस्तक में सूर्यनारायण रणसुभे ने मराठी के साथ दक्षिण भारत में बोली जाने वाली ‘दखनी’ का जन्म मराठी के सम्पर्क से मानते हुए लिखा है कि ‘मराठी आठवीं– नवीं शती की भाषा है और ‘दखनी’ ग्यारहवीं शती की, जिसमें मराठी संस्कृति की अभिव्यक्त हुई है’. विषय की व्यापकता के मद्देनज़र लेखक ने पुस्तक के आरंभ में मराठी भाषा की उत्पत्ति का परिचय देने के बाद केवल आधुनिक साहित्य और उसमें भी विशेष तौर पर कथा साहित्य तथा अधुनातन साहित्यिक प्रवृत्तियों का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है. किन्तु, मराठी साहित्य के इतिहास में प्रख्यात ‘रविकिरण मंडल’ के कवियों पर उन्होंने डूब कर लिखा है. इतना ही नहीं, साहित्येतिहास में मुख्य धारा से विच्छिन्न रचनाकारों के अवदान को रेखांकित करते हुए लेखक ने साहित्येतिहासकार के दायित्व का बखूबी निर्वाह करते हुए ‘रविकिरण मंडल’ के बाहर के प्रमुख कवियों पर भी पर्याप्त प्रकाश डालने के उपरान्त ‘रविकिरण मंडलोत्तर’ मराठी काव्य की भी सूक्ष्म मीमांसा की है.
केशवसुत नाम से प्रसिद्ध मराठी कवि कृष्णाजी केशव दामले के योगदान पर विचार करते हुए रणसुभे जी जहाँ उनकी कविता में जीवन के प्रति घोर निराशा को लक्षित करते हैं, वहीं उनकी सामाजिक चेतना सम्पन्न कविताओं की प्रशंसा करने से नहीं चूकते. इस क्रम में वे ‘अछूत जाति के बालक का पहला प्रश्न’ और ‘मजदूर पर भुखमरी का संकट’ सरीखी कविताओं में रूढ़ि ग्रस्त चातुर्वर्ण्य व्यवस्था से उत्पन्न विषमताओं तथा आर्थिक सवालों को कवित्वपूर्ण ढंग से उठाने के कारण इन्हें महत्त्वपूर्ण मानते हैं.उनके अनुसार मराठी में पहले लिखी जा रही आध्यात्मिक एवं श्रृंगार- काव्य से विलग केशवसुत ने शुद्ध लौकिक प्रेम और प्रकृति-काव्य का सृजन किया. वे मराठी में न केवल रहस्यवादी कविताओं के प्रणेता माने जाते हैं,बल्कि अंग्रेज़ी में प्रचलित सौनेट छंद को ‘सुनीत काव्य’ के रूप में मराठी में प्रचलित करने का श्रेय भी उन्हीं को प्राप्त है. बावजूद इसके, रणसुभे जी शिकायती लहजे में लिखते हैं कि ‘केशवसुत कवि को अलग दुनिया का प्राणी मानते थे. उनकी ये धारणाएँ बड़ी ही विचित्र, विवादास्पद और विक्षिप्त-सी हैं, आत्माभिव्यक्ति और आत्मतुष्टि को ही वे काव्य-हेतु मानते हैं.’
इस साहित्येतिहास ग्रन्थ में मराठी के कमोबेश तमाम महत्त्वपूर्ण रचनाकारों के अवदान का विवेचन -विश्लेषण करने वाली रणसुभे जी की इतिहास-दृष्टि भाववाद के बजाय यथार्थवाद से प्रेरित है. वैज्ञानिक चेतना से लैस हुए बगैर साहित्येतिहास ग्रन्थ में न तो जयंत नार्लीकर रचित विज्ञान गल्प पर कई पृष्ठ लिखे जा सकते हैं और न ही मराठवाड़ा में बोली जाने वाली ‘महारी’ भाषा में ई.सोनकांबले रचित ‘यादों के पंछी’ जैसी दलित आत्मकथा का गहरा विवेचन संभव है, जिसमें मराठवाड़ा क्षेत्र में तब प्रचलित सामाजिक विषमता और अकल्पनीय दरिद्रता से पीड़ित समुदायों का मार्मिक चित्रण है. डॉ.रणसुभे लिखते हैं कि मराठवाड़ा की इस भयावह सामाजिक गुलामी की वृत्ति के कारण ही डॉ. बाबासाहेब ने औरंगाबाद में मिलिंद कॉलेज की स्थापना की. मराठवाड़ा के दलितों को शिक्षित करना उनका लक्ष्य था. इस मिलिंद महाविद्यालय में अध्ययन करने महाराष्ट्र के कोने-कोने से दलित युवक इकट्ठा होने लगे. दलितों की यह नयी पीढ़ी जाति के अभिशाप से और दरिद्रता से मुक्त होना चाह रही थी. इसलिए उन्हें शिक्षा की ज़रूरत थी. विवेचन-क्रम में ‘याद़ों के पंछी’ के रचनाकार की इस बात के लिए सराहना की गयी है कि उनके अनुभव भयावह थे,पर
‘इन अनुभवों में किसी के प्रति न कोई तिरस्कार था, न किसी के प्रति उपेक्षा, न फतवेबाजी और न विद्रोह, अन्य दलित आत्मकथाओं की तुलना में इस आत्मकथा की यह विशेषता है कि इसमें कहीं पर भी सवर्णों के प्रति तिरस्कार,नफरत, गुस्सा, चिढ़ नहीं है, उनकी लेखनी का चमत्कार है कि पाठकों के मन में अलबत्ता उन व्यक्तियों के प्रति चिढ़,गुस्सा या नफरत पैदा होती है जिन्होंने उस किशोर के साथ अमानवीय व्यवहार किया था, जो बुद्धिजीवी बार-बार यह कहते हैं कि असली समस्या गरीबी की, दरिद्रता की है, वे इस आत्मकथा से अगर गुजरें तो उन्हें पता चलेगा कि इस देश में गरीबी के साथ एक और अभिशाप है और वह है दलित होने का शाप, इसलिए प्रश्न केवल आर्थिक नहीं, सामाजिक भी है.’
इस पुस्तक के अंत में ‘दखनी हिन्दी: भाषा और साहित्य का उद्भव और विकास’ अध्याय के अंतर्गत महाराष्ट्र,कर्नाटक,गुजरात एवं आन्ध्र प्रदेश आदि राज्यों के कुछ भूभागों में बोली जाने वाली भाषा और उसमें रचित साहित्य का परिचय देते हुए लेखक ने स्पष्ट शब्दों में स्वीकार किया है कि दखनी वस्तुतः हिन्दी या उर्दू के बजाय कालान्तर में एक ऐसी स्वतंत्र बोली के रूप में विकसित हुई है जो देवनागरी और फारसी,दोनों लिपियों में लिखी जाती रही है.यह दक्षिण के अधिकांश मुसलमानों के साथ ही सैकड़ों वर्षों से इन क्षेत्रों में बसे हिन्दी भाषी समाज की भी मातृभाषा है और इसके आगे हिन्दी या उर्दू जोड़ना ज़रूरी नहीं है. रणसुभे जी के अनुसार
“इसका इतिहास करीब एक हज़ार वर्ष पुराना है. कभी यह बहमनी तथा आदिलशाही दरबार की राजभाषा थी,प्रशासन की भाषा थी और दक्षिण की सम्पर्क भाषा थी. उर्दू का जन्म इसी भाषा से हुआ है, इसका जन्म अरबी और फारसी बोलने वालों के संपर्क से हुआ.”
जाहिर है कि ‘दखनी’ में मराठी संतों ने भी काव्य-सृजन किया है.
डॉ. रणसुभे ने ‘दखनी’ के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य पर विचार करने के उपरान्त इस क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान देने वाले अनेकानेक विद्वानों का हवाला देते हुए वजही, गव्वासी, नुसरती आदि मध्ययुगीन दखनी कवियों के साथ ही माणिकप्रभु, ख्वाजा बन्देनावाज़ गेसुदराज़, वली औरंगाबादी आदि की रचनाओं का जो मूल्यांकन प्रस्तुत किया है,वह उनके साहित्येतिहासकार की आलोचनात्मक चेतना का जबरदस्त उदाहरण है.
‘डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर’ नाम से लिखित कृति रणसुभे जी द्वारा हिन्दी के जीवनी साहित्य को एक अनुपम देन है. इसमें लेखक ने ‘डॉ.आम्बेडकर पूर्व महाराष्ट्र’ अध्याय में किसी असाधारण व्यक्ति के क्रांतिकारी कार्यों का विवेचन करने के लिए जिन तीन पद्धतियों का ज़िक्र किया है उनमें पहली पद्धति यह है कि उस व्यक्ति के जन्म के पूर्व जो भी सामाजिक,राजनीतिक,आर्थिक और धार्मिक परिस्थितियाँ रही हों,उनका विवेचन और उसके आधार पर उस व्यक्ति के कार्यों का मूल्यांकन किया जाये. दूसरी पद्धति है उस व्यक्ति के जीवनकाल में सामाजिक,राजनीतिक,आर्थिक और धार्मिक परिस्थितियों का विवेचन करते हुए उसके क्रांतिकारी क़दमों का विरोध करने वाली शक्तियों की शिनाख्त और ऐसी प्रतिगामी ताकतों से टकराने की उसकी क्षमता का मूल्यांकन करना. तीसरी पद्धति के तहत उस महापुरुष के देहावसान के बाद उसके शब्द और कर्म का समाज पर प्रभाव और सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया को गति प्रदान कर सकने में उसके चिंतन और क्रिया-कलापों की सक्षमता को परखना शामिल है.
डॉ. आम्बेडकर की जीवनी लिखने के दौरान इन तीनों पद्धतियों का विनियोग करते हुए डॉ. रणसुभे इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि
“उनके ग्रथों को पढ़ते समय बार-बार इस बात का एहसास होता है कि वे किसी प्रदेश विशेष के दलितों की बात नहीं कर रहे थे,अपितु इस देश के सभी शूद्रों, अछूतों, शोषितों, श्रमिकों के लिए संघर्षरत थे. उनका संघर्ष केवल इन तक ही सीमित नहीं था,वास्तव में वे एक शोषण रहित और जाति रहित विशुद्ध मानवीय मूल्यों से सम्पन्न राष्ट्र का स्वप्न देख रहे थे. इन दिनों उनके व्यक्तित्व और उनके विचारों को एक ख़ास तबके तक सीमित रखकर ही प्रस्तुत किया जा रहा है. वास्तव में यह उस तबके के लिए भी खतरनाक है और सम्पूर्ण भारतीय चिंतन की दृष्टि से भी यह घातक है.”
डॉ. आम्बेडकर की यह जीवनी वस्तुतः भारतीय समाज-व्यवस्था का इतिहास भी है, जिसमें डॉ. रणसुभे ने भारत में वर्ण व्यवस्था के उदय के कारणों और परिणामों को रेखांकित करते हुए भारतीय मनुष्य के उस सामूहिक अवचेतन को भी खंगाला है जिसकी मनोरचना में स्वयं को श्रेष्ठ और अन्य को हीन समझने की प्रवृति घर कर गयी है. लेखक का यह कहना इतिहास सम्मत है कि ‘इस देश में जो बाहरी शक्तियाँ आईं,उन्होंने कभी इस वर्ण या जाति-व्यवस्था के विरोध में ज़िहाद नहीं छेड़ा, जो विदेशी थे या सत्ता हथियाने या शोषण करने आये थे, उनका लक्ष्य व्यवस्था-परिवर्तन नहीं था.’ अपने विश्लेषण के दौरान लेखक ने दिनकर के महाग्रंथ ‘संस्कृति के चार अध्याय’ से एक प्रासंगिक उद्धरण लेकर साबित किया है कि भारत में इस्लाम धर्मावलम्बियों के बीच सामाजिक भेदभाव वस्तुत: हिन्दू धर्म के साथ उसके घात-प्रतिघात का नतीज़ा है. दिनकर ने लिखा है:
“हिन्दुओं ने मुसलमानों को जातिवाद का ज़हर पिलाया, बदले में, मुसलमानों ने हिन्दुओं को परदे का शाप दिया. हिन्दुओं की देखादेखी मुसलमानों में भी ऊँच-नीच का भेद चलाने लगा.”
इस भेदभाव के विरुद्ध समय-समय पर अनेकानेक समाज सुधारकों एवं चिंतकों द्वारा जो मुहिम चलाई जाती रही,उसका भी इस जीवनी में सप्रमाण उल्लेख मिलता है. इस सन्दर्भ में जोतिबा फुले, न्यायमूर्ति गोविन्द रानडे तथा गोपाल गणेश आगरकर आदि के योगदान पर डॉ. रणसुभे ने विस्तार से विचार करते हुए फुले के एक काव्यात्मक कथन का ख़ास तौर ज़िक्र किया है, जिससे खुद बाबासाहेब आम्बेडकर भी प्रेरित हुए थे:
‘ज्ञान के अभाव में बुद्धि गई,
बुद्धि के अभाव में नीति गई,
नीति के अभाव में गति गई,
गति के अभाव में संपत्ति गई,
संपत्ति के अभाव में शूद्र बर्बाद हुए,
केवल ज्ञान के अभाव में इतना अनर्थ हो गया.’
जीवनी-लेखन के क्रम में डॉ.रणसुभे ने बाबासाहेब आम्बेडकर के व्यक्तित्व निर्माण की पृष्ठभूमि के साथ ही उनके सामाजिक, धार्मिक एवं राजनीतिक विचारों का विस्तार से जिस प्रकार वर्णन किया है उससे यह कृति रोचक और प्रेरणादायी बन पड़ी है.
इस कृति के अंत में लेखक ने आज के सन्दर्भ में डॉ.आम्बेडकर के प्रभाव की मीमांसा करते हुए लिखा है कि जाति निर्मूलन के लिए बाबासाहेब द्वारा प्रस्तावित अंतरजातीय विवाह एक कारगर उपाय है. ऐसे विवाह अगले सौ-दो सौ वर्षों में अगर तेज़ी से होने लगे तो जातियाँ टूट सकती हैं.
“आज से पचास वर्ष पूर्व जो समाज अंतरजातीय विवाह करनेवालों का जीना मुश्किल कर देता था, जिन्हें बहिष्कृत कर देता था, वही समाज अब उन्हें सम्मान के साथ स्वीकार कर रहा है. इसे आम्बेडकर जी के स्वप्नों की पूर्ति ही कहेंगे. यह शुभ लक्षण है.”
इसी प्रकार जो दलित समुदाय पहले अपने ऊपर ढाए जाने वाले ज़ुल्म को ज़ुल्म नहीं मानता था,वह आज प्रतिरोध कर रहा है और स्पष्ट ही ‘बाबासाहेब के विचारों के कारण उन्हें उनकी संवेदनशीलता वापस मिल गयी है.’ बावजूद इसके, डॉ. आम्बेडकर की इस जीवनी में दलित चिंतन के सन्दर्भ में विवेकानंद झा की अत्यंत महत्त्वपूर्ण और प्रामाणिक कृति ‘चांडाल: अनटचैबिलिटी एंड कास्ट इन अर्ली इण्डिया’ का नामोल्लेख तक न होना अखरता है.
बहुत ही नूतन सूचनाओं से लैस ज्ञानवर्धक लेख। सूर्य नारायण रणसुभे जैसे अनगिन साहित्यसेवी हमारे दृष्टि पटल से ओझल ही रह जाते हैं.ऐसे रचनाकार ,अनुवादक,आलोचकों को समालोचन पर ला कर भारतीय साहित्य की मुकम्मल तस्वीर से हिंदी भाषी पाठक को रूबरू करवाए जाने की आवश्यकता है।समृद्ध आलेख के लिए अरुण जी और रविरंजन सर को शुभाशंसाएं
अक्करमाशी पर क्या ही कहूं।ऐसी रचनाएं सामने लाने वाले अनुवादक बधाई के पात्र हैं। समालोचन उल्लेखनीय और महत्वपूर्ण कार्यों को संजोता है। अनुवादकों के कार्य और उनके जीवन संघर्षों पर भी श्रृंखला होनी चाहिए। लेख पढ़ता हूँ। समालोचन का आभार। 🙏
नयेपन के साथ विचारणीय लेख ।
डॉ. सूर्यनारायण रणसुभे जी पर लिखा आपका लेख बहुत व्यापक और सार्थक है। रणसुभे जी के अवदान को आपने बहुत गहराई से रेखांकित किया है। हिंदी और मराठी दोनों भाषाओं में समान रूप से लेखन और परस्पर अनुवाद के माध्यम से उन्होंने
दोनों भाषाओं की सेवा की है।
आपके इस लेख से पाठक बहुत लाभान्वित होंगे। साधुवाद।
आदरणीय सूर्य नारायण रणसुभेजी पर भाई रवि रंजन का आलेख देखकर बहुत अच्छा लगा। यह कार्य बहुत जरूरी था। उनके कृतित्त्व की पड़ताल बड़े परिश्रम व सदाशयता की गई है। किंचित जीवन भी आया है – बहुत प्रासंगिक। रवि रंजनजी को बधाई और अरुणजी को साधुवाद…
लेकिन उनके जीवन पर विस्तार से लिखा जाना भी बहुत प्रेरणास्पद होगा – खासकर आज के समय में…
मुम्बई-पूना-गोवा रहते हुए पूरे महाराष्ट्र के आयोजनों में पचासों बार हमारा मिलना हुआ। दर्जनाधिक बार मैंने ही बुलाया होगा। इतने सहज कि जब भी बुलाइये, वे अवश्य आते थे – दायित्त्व की तरह। पूरी तैयारी के साथ आते थे..विषय के साथ हमेशा अधिकतम न्याय करते थे। और विषय जो भी दीजिए -कोई ना-नुकुर नहीं। खास यह कि जैसे भी बुलाइये आ जाते थे। मेरा बजट हमेशा कम रहता था। ऐसे में एक बार वे एस टी बस से आ गये – हम शर्मसार होने लगे, तो बोले – पैसे के लिए शिक्षा का काम कैसे रुक सकता है। सहज इतने कि एक बार दिल्ली या शिमला से चले आये। सपत्नीक थे। दादर उतरके लोकल गाड़ी पकड़ के चर्चगेट आ गये। रात के 12 बजे। चर्चगेट पर मेल गाड़ियां नहीं आतीं। कुली न थे। मैं भी अकेले था। सब करके हार गया। सामान मुझे नहीं लेने दिया। भले रास्ता 4 मिनट का ही था, पर कंधे पे लिये हुए क्लब हाउस तक गए। बमुश्किल भाभी का बैग छीन पाया मैं। उनके अपने अंचल में उन्हीं के बुलावे पर दो बार गया और पूरे पवस्त के शिक्षितों ही नहीं, आम जन और आबालवृद्ध … सब के बीच उनकी लोकप्रियता, मान-सम्मान अद्भुत था। मुझ जैसे दुनियावी को लगा कि वे वहां से चुनाव जीत सकते थे, पर उनकी वृत्ति न थी। कितने विधायक-नेता उनके शिष्य रहे – शायद कुछ काम करने-कराने की उन्हें जरूरत न थी। यह तो छोड़िए, जिस भी विवि में चाहते, जा सकते थे। लेकिन अपने अंचल के कॉलेज में रहे और सिर्फ शिक्षक – एक मुकम्मल शिक्षक। सारा समय आने पढ़ने-लिखने को अर्पित किया। ऐसे व्यक्तित्वों की पीढ़ी अब समाप्तप्राय है। अतः आने वाली पीढ़ियों के लिए इनके अवदानों -कार्यो को लिपिबद्ध होना ही चाहिए…
आदरणीय प्रो. रविरंजन जी के इस लेख के लिए बधाई एवं हार्दिक अभिनंदन। पर मैं अत्यंत विनम्रता के साथ यह कहना चाहती हूँ कि डॉ. सूर्यनारायण रणसुभे जी के बारे में बाहर के पाठक और हिंदी के अध्येता काफी कुछ जानते हैं, उनका लेखन पढ़ते रहते हैं । परंतु हमारे आसपास की नई पीढ़ी के हिंदी प्राध्यापक उनके लेखन के बारे में कुछ नहीं जानते। इसी कारण तो मैंने उनकी समीक्षा पर *”समीक्षा की समीक्षा (डॉ. सूर्यनारायण रणसुभे की समीक्षा के विशेष संदर्भ में)”* यह पुस्तक लिखी है । यश प्रकाशन, दिल्ली से यह पुस्तक 2020 में ही प्रकाशित हो चुकी है। आप लोगों की जानकारी के लिए मैं यह दे रही हूं। यहाँ के अध्येता उनका नाम एवं उनके वक्तृत्व से बहुत अच्छी तरह से परिचित है, पर शायद उनकी रचनाओं को कम पढ़ा होगा। यह खुशी का विषय है कि रविरंजन जी ने रणसुभे जी की जिन दो किताबों का उल्लेख किया है, उनमें से एक -“आधुनिक हिंदी साहित्य का इतिहास” – जो भारतभर में केरल से लेकर आसाम नागालँड तक के विश्वविद्यालयों में भी प्रिय रही है। तथा दूसरी – “अनुवाद का समाजशास्त्र” – उनकी मौलिक उपलब्धि है। हालाँकि इस किताब के अंत में रणसुभे जी की सभी रचनाओं का परिचय पाठकों के लिए उपलब्ध है।
मुझे यह सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि यह लेख मूलतः समकालीन भारतीय साहित्य की पत्रिका में छप चुका है। आपको विदित ही होगा कि भारतीय साहित्य की यह पत्रिका साहित्य अकादमी दिल्ली द्वारा निकाली जाती है और साहित्य अकादमी राष्ट्रीय स्तर पर के लेखको, समीक्षकों पर ही लेख छापती हैं। इस क्रम में हमारे सर का आना हम सबके लिए , महाराष्ट्र के लिए अभिमान की बात है। मुझे यह भी सूचित करते हुए और अधिक प्रसन्नता हो रही है कि मेरा एक अन्य शोधालेख – *”महाराष्ट्र के हिंदी आलोचक डॉ. सूर्यनारायण रणसुभे”* – केंद्रीय हिंदी निदेशालय, दिल्ली से निकलनेवाली त्रैमासिक पत्रिका *’भाषा’* में करीब दस साल पहले प्रकाशित हो चुका है।
उनके साहित्यिक योगदान पर प्रा. शेख माजिद द्वारा शोध कार्य भी किया जा चुका है।
आदरणीय रणसुभे सर का अभिनंदन और विशेष कर प्रो. रविरंजन जी का विशेष अभिनंदन। जिनके लेख के कारण यह सब याद करने का अवसर मिला।
रमा बुलबुले-नवले
9890350325
आदरणीय प्रो. रवि रंजन जी द्वारा लिखा लेख पढ़ा, पढ़कर बहुत हर्ष हुआ के आपने हमारे परम आदरणीय सभी के स्नेही महाराष्ट्र की गरिमा बढ़ानेवाले वरिष्ठ हिन्दी साहित्यकार डॉ. सूर्य नारायण रणसुभे सर पर गौरवशाली लेख लिखा जिसके लिए आपका हृदय से आभार और अभिनंदन। अपने इस लेख में सर के जीवन परिचय में उनका व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों पर प्रकाश डाला हैं, जो की सराहनिय है। क्योंकि आज की युवा पीढ़ी के लिए यह अत्यंत अवश्यक और उपयुक्त हैं। साथ ही साथ सर के व्यक्तित्व का भी प्रभाव पड़ेगा। यह आज की पीढ़ी तक पहुँचाने का अमूल्य कार्य आपने किया हैं। जहाँ आपने सर के व्यक्तित्व के माध्यम बताया के विपरित परिस्थितियों में भी व्यक्ति अगर ठाण ले तो अपने लक्ष्य या उद्देश को पा सकता हैं। यह डॉ. सूर्य नारायण रणसुभे सर से अच्छा और क्या उदाहरण हों सकता है। आपने सर के द्वारा लिखे पुस्तकों के बारें में संक्षिप्त परंतु महत्वपूर्ण और उपयुक्त जानकारी दी है, वह भी प्रशंसनीय है। सर एक महान साहित्यकार होते हुए भी उनकी सादगी से भरा जीवन सभी को प्रेरणा देता हैं और सभी को प्रिय है। सर का व्यक्तित्व ही ऐसा हैं कि जिसने भी उनको सुन लिया वह अपने आप उनकी ओर खिंचा चला जाता हैं, मैं भी उनमें से एक हूँ। सर का अपनापन हर एक के लिए समान है। सर की विशेषता है की इतने बड़े विद्वान होने के बावजूद हम जैसे साधारणजन को भी महत्व देते है। मैं भी अपने आपको ध्यन्य और भाग्यशाली मानती हूँ की मैं अद्वितीय सत्यनिष्ठा और अगाध विद्वत्ता से परिपूर्ण मराठी और हिन्दी समेत दुनिया की श्रेष्ठ कृतियों के गंभीर अध्येता डॉ. सूर्यनारायण रणसुभे जी के संपर्क में आई हूँ।
सर जी के लिए कहे मेरे चंद शब्द ‘सूर्य को दिया दिखाने’ के बराबर है। सर जी आपके व्यक्तित्व और कृतित्व को मैं ‘सलाम’ करती हूँ और मेरी यह दो पक्तियाँ आपके लिए समर्पित है –
“हिन्दी साहित्य जगत के जगमगाते सूर्य है आप,
तो हम उसकी मात्रा एक किरण हैं।“
शेख रज़िया शहेनाज़ शेख अब्दुल्ला
9850602786 Email ID: drskraziya@gmail.com
साहित्य के संदर्भ में भाषाओ के बीच अंतर्संबंधों का एक सशक्त एवं मुख्य माध्यम अनुवाद है। इस दृष्टि से सूर्य नरायण जी का योगदान बहुमूल्य है।मराठी और हिन्दी के बीच वे एक महत्वपूर्ण संपर्क-सूत्र रहे हैं।यह आलेख उनके कृतित्व और व्यक्तित्व के कई अछूते पहलुओं पर प्रकाश डालता है। इस आलेख के बहाने दलित साहित्य के अनेक पक्षों पर भी अनेक विचारकों की गंभीर मीमांसा है। सभी को हार्दिक बधाई !
सभी मित्रों को धन्यवाद ।
प्रसिद्ध समीक्षक डॉ रवि रंजन जी द्वारा गुरुदेव रणसुभे जी पर लिखा हुआ अध्ययन पूर्ण लेख पढ़ने को मिला। रणसुभे जी के जीवन और लेखन कार्य पर रवि रंजन जी ने विस्तृत प्रकाश डाला है। रवि रंजन जी का धन्यवाद। देश के जाने-माने समीक्षक एवं अनुवादक डॉ सूर्यनारायण रणसुभे जी ने अपनी लेखनी के माध्यम से समाज व्यवस्था द्वारा नकारे हुए वर्ग को इंसाफ दिला कर उनमें आत्म सम्मान , एवं स्वाभिमान जगा कर उन्हें प्रस्थापित करने का प्रयास किया है। सूर्य जिस प्रकार अंधेरे को समाप्त कर धरती को प्रकाशमान बनाता है वैसे ही अपने नाम को सार्थक करते हुए साहित्य क्षेत्र के इस सूर्यनारायण ने अपने समीक्षात्मक, वैचारिक , सृजनात्मक लेखन एवं अनुवाद के माध्यम से मराठी हिंदी भाषी क्षेत्र के पद दलित ,शोषित एवं मेहनतकश वर्ग के दुख ,पीड़ा एवं यातना पर प्रकाश डाल कर उसे दुनिया के सामने रखा।
रणसुभे जी ने पूरी निष्ठा ,प्रतिबद्धता एवं परिश्रम से मराठी साहित्य का हिंदी में अनुवाद किया। सही अर्थों में वह हिंदी मराठी भाषा के सेतु एवं सांस्कृतिक, साहित्यिक , वैचारिक दूत है। अपने व्यक्तिगत जीवन में जिन यातनाओं एवं पीड़ा को उन्होंने भोगा था उस बोझ से मुक्ति पाने के लिए वह अनुवाद की ओर मुड़े। बचपन से ही आर्थिक विषमता को स्वयंम भोगने और देखने के कारण स्वाभाविक रूप से इन पर मार्क्सवादी विचारों का प्रभाव पड़ा, लेकिन यह पोथीनिष्ट मार्क्सवादी नहीं है। इसी मार्क्सवादी जीवन दृष्टि के कारण इन्होंने मनुष्य को केंद्र बिंदु में रखकर अपना लेखन किया है। संवेदनशील मन के रणसुभे जी एक कठोर साधक है। हमारा सौभाग्य है कि हमें गुरुदेव रणसुभे जी जैसा गुरु मिला।
प्रा डॉ रणजीत जाधव, लातूर
वर्ण-जाति विहीन समाज निर्माण के लिए प्रतिबद्ध रचनाकारों को प्रायः अनदेखा किया जाता रहा है। डॉ. रणसुभे जी का लेखन भी इसी धारा का है। आपका आलेख रणसुभे जी के जीवन के साथ ही उनके लेखन को सूक्ष्म रूप में विवेचित करता है। साथ ही यह आलेख मराठी-हिंदी साहित्य के सेतु बने सृजनकर्ता के साहित्य की ओर उन्मुख होने की आवश्यकता को चिन्हित करता है।
यह आलेख अपने आप में बड़े साहस का काम है। आपके इस व्यापक एवं सार्थक आलेख के लिए आपका आभार सर 🙏
प्रो.रवी रजन जी द्वारा लिखे इस लेख में डा. सूर्यनारायण रणसुभे जी के व्यक्तित्व एवं रचनाधर्मिता पर बहुत विस्तारसे आपने प्रकाश डाला है । आदरणीय रणसुभे जी देश के जाने माने अनुवादको में से एक है।अनुवाद विधा को नया आयाम देने में उनकी महती भूमिका रही है। अवकाश ग्रहण करने बाद भी उनका लेखन कर्म रुका नहीं ,आज भी वे नुतन विषयों को लेकर अपनी कलम चलाते है । यह आज के युवाओं के लिए प्रेरणादाई है।
आपके इस व्यापक और चिंतनशील आलेख के लिए आपको हार्दिक बधाई।
माफ कीजिएगा, लेख पढा़ मगर बता नहीं पाई, अभी दुबारा पढ़ा. बहुत परिश्रम और आत्मीयता से लिखा हुआ सर्जनात्मक लेख है. यह रणसुभे जी के कृतित्व के साथ न्याय तो करता ही है उससे अधिक हिन्दी साहित्य जगत की ओर से रृणशोधन का भी पुनीत प्रयास है. वाक़ ई रणसुभे जी का कर्तृत्व लोगोें के ध्यान में लाए जाने की ज़रूरत है जिसे आप का लेखन निभा रहा है. इस लेख में पूरी किताब बनने की संभावना है, आशा है आप इस दिशा में सोच रहे होंगे.. शुभमस्तु.
प्रोफेसर शशि मुदीराज, हैदराबाद।
आदरणीय प्रोफेसर रवी रंजन जी का मेरे गुरूवर्य डॉ सूर्यनारायण रणसुभे जी पर लिखा गया यह लेख ज्ञानवर्धक जानकारी के साथ साथ हमारी साहित्यिक एवं सांस्कृतिक पहचान को रेखांकित भी करता है।
आदरणीय प्रोफेसर रवी रंजन जी का हार्दिक हार्दिक आभार।
एक सूर्य का दर्शन रवि ने कराया। नये आलोक में आदरणीय रणसुभे जी को आपने उद्घाटित किया। आपका आभार
प्रकाश कोपार्डे
सबसे प्रथम अरुण देव और रविरंजन जी को मौलिक लेख के लिए बधाई ! मात्र दक्षिण ही नहीं उत्तर में भी अपनी लेखनी और वाणी से हिंदी साहित्य और समीक्षा को समृद्ध करनेवाले श्रेष्ठ लेखक एवं आलोचक रणसुभे जी एक उल्लेखनीय नाम हैं l उनके पूरे रचनाकर्म और व्यक्तित्त्व को इस आलेख के द्वारा पाठकों को परिचित होने का अवसर मिला l रणसुभे जी से मेरा व्यक्तिगत परिचय रहा हैं, कभी भी कोई अकादमिक समस्या आनेपर उनका सदैव मार्गदर्शन लेता रहा हूँ l मैंने उनको पढ़ा,सुना और साथ रहा इस बात के लिए मैं अपने आपको गौरवान्वित महसूस करता हूँ l
हाल ही मेरे द्वारा अनूदित (प्रकाशनाधीन) एक कृति की भूमिका उन्हीं के कर कमलोंद्वारा लिखी हैं l
लेख सर्जक और रणसुभे जी की दीर्घायु की कामना के साथ …………………………………..
आदरणीय गुरूवर्य डॉ सूर्यनारायण रणसुभे जी पर प्रकाशित लेख हमेशा के लिए साहित्य के क्षेत्र में सराहनीय रहेगा। डॉ रवि रंजन सर जी मैं लातूर जिले का निवासी और डॉ सूर्यनारायण रणसुभे जी का शोध छात्र होने के कारण आपका हार्दिक आभार व्यक्त करता हूं। अपने बहुत ही सटीक अभिव्यक्ति की है।
मौलिक आलेख💐💐
गुरुदेव जी हार्दिक बधाई 💐💐
प्रोफेसला रवि रंजन जी का लेख पढकर बहुत खुशी हुयी l परम आदरणीय डॉ . सूर्यनारायण रणसुभे जी का व्यक्तित्व का ये सच्चा आलेख है l मेरी किताब गैर दलितों केभी है डॉ . बाबासाहेब अम्बेडकर उन्हो ने अनुवाद किया है l
डॉ . सूर्यनारायण रणसुभे जी इहवादी /भौतिकवादी भूमिका के साथ जीवन जिते है और वही भूमिका के साथ लेखन करते है l जीवन जिना और लेखन इसमे कोई अंतर नही है l अनुवाद के समाजशास्त्र ये उनकी किताब अमूल्य है l उनका सब लेखन के साथ भूमिका मौलिक है l
यह लेख पढकर आनंद हुआ ..
आदरणीय प्रोफेसर सूर्यनारायण रणसुभे सर को जन्मदिवस की बधाई एवं शुभकामनाएं आज 7 अगस्त 2024 को यह लेख पढ़ने का मुझे अवसर मिला है। आज़ गुरु रणसुभे जी का जन्मदिन है। यह लेख पढ़ने के बाद रणसुभे सर के व्यक्तित्व से जितना मैं परिचित था उससे कई गुना अधिक इस लेख ने मुझे उनका परिचय दिया है। उनकी साहित्यिक कृतियों को लेकर पढ़ने का अवसर छात्र जीवन से ही मिला है किंतु आपके इस आलेख में उनके समग्र साहित्य का सार पढ़ने को मिला है। रवि रंजन सर आपका चिंतन एवं विश्लेषण बेहद स्तरीय है। पुनः गुरुदेव को जन्मदिवस की शुभकामनाएं।