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समालोचन

Home » डॉ. सूर्यनारायण रणसुभे: जीवन और स्वप्न: रवि रंजन » Page 2

डॉ. सूर्यनारायण रणसुभे: जीवन और स्वप्न: रवि रंजन

शरण कुमार लिंबाले के ‘अक्करमाशी’, और लक्ष्मण गायकवाड के ’उठाईगीर’ से हिंदी के पाठक परिचित हैं, पर इनके अनुवादक ‘सूर्यनारायण रणसुभे’ से अंजान. मराठी और हिंदी का बहुत पुराना नाता रहा है, डॉ. सूर्यनारायण रणसुभे’ इसी की अगली और मजबूत कड़ी हैं. वह हिंदी का अध्यापन करते रहे हैं, हिंदी में लिखते हैं और दोनों भाषाओँ में एक दूसरे से अनुवाद करते हैं. उनके जीवन-संघर्ष और कार्यों पर यह आलेख प्रसिद्ध आलोचक प्रो. रवि रंजन का लिखा हुआ है.

by arun dev
August 1, 2021
in आलेख
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‘दलित साहित्य: स्वरूप और संवेदना’ पुस्तक में डॉ.सूर्यनारायण रणसुभे ने भारतीय दलित साहित्य की सिद्धान्तिकी के साथ ही उसकी सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि आदि पर विचार करते हुए अनेक आत्मकथाओं और कथाकृतियों की व्यावहारिक आलोचना की है. हिन्दी में दलित साहित्य विषयक चर्चा से असंतोष व्यक्त करते हुए उन्होंने मराठी में इस विषय पर हुई बहस को अपने सैद्धांतिक विवेचन का आधार बनाया है. उल्लेखनीय है कि साहित्य-सृजन में विचारधारा की भूमिका को लेकर काफी बहस होती रही है. अनेक रचनाकार यह मानते हैं कि सृजनात्मक लेखन को सीधे-सीधे विचारधारा से जोड़कर न तो कुछ सार्थक लिखा जा सकता है और न ही उसके मर्म को समझा जा सकता है. साहित्य को विचार में घटाकर देखना किसी रचना के साथ गैर-रचनात्मक व्यवहार है, जिससे बचने की ज़रूरत है. वजह यह कि इससे साहित्य की स्वायत्ता सवालों के घेरे में आ जाती है.

ग्राम्शी ने तो यहाँ तक लिखा है कि सामाजिक यथार्थ को अभिव्यक्ति देने वाले दो तरह के रचनाकार होते हैं- एक सामाजिक यथार्थ का प्रवक्ता होता है और दूसरा कलाकार. खुद लेनिन ने भी मायकोवस्की को क्रांति का कवि मानने के बावजूद अपने प्रिय कवि के रूप में पुश्किन का नाम लिया है. वस्तुत: साहित्य-क्षेत्र में मुख्य मुद्दा विचारधारा को अपनाने या न अपनाने के बजाय विचारधारात्मक कट्टरता से बचने का है. इस सन्दर्भ में ग्राम्शी का कहना है कि “कलाकार के सम्मुख एक राजनीतिक परिदृश्य अवश्य होता है, पर वह किसी राजनीतिकर्मी की तुलना में कम नपातुला होता है. इसलिए कलाकार कम कट्टर होता है.

दलित साहित्य के विशेष सन्दर्भ में विचारधारा और साहित्य के बीच कथित अन्योन्याश्रय सम्बन्ध को लेकर इस पुस्तक की भूमिका में अपना पक्ष रखते हुए डॉ. रणसुभे ने लिखा है कि

“श्रेष्ठ सृजनात्मक साहित्य किसी न किसी दर्शन की नींव पर खड़ा होता है अथवा उस रचना के भीतर से एक नया दर्शन प्रस्फुटित होता है. भक्ति साहित्य की नींव में अद्वैतवाद तथा उसकी शाखा-प्रशाखाओं का दर्शन है. ठीक इसी प्रकार बौद्ध दर्शन दलित साहित्य के मूल में है. इस कारण इस पुस्तक में ‘बौद्ध दर्शन,सामाजिक क्रान्ति और डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर’ शीर्षक से एक स्वतंत्र आलेख मौजूद है.”

विदित है कि सृजनात्मक साहित्य को इतिहास की धारा में रखकर देखते हुए उसके विचारधारात्मक अर्थ का संधान करने पर रचना में अन्तर निहित सामाजिक यथार्थ आलोकित हो उठता है. कितु, यह प्रक्रिया ऊपर से सरल दिखाई देने के बावजूद बहुत जटिल हुआ करती है. वजह यह कि साहित्य का इतिहास-प्रक्रिया से इकहरा सम्बन्ध नहीं होता. मैनेजर पाण्डेय के शब्दों में

“शब्द का अर्थ से, अर्थ का अनुभव से, अनुभव का संवेदना से, संवेदना का यथार्थ से, यथार्थ का समाज से और समाज का इतिहास से जटिल सम्बन्ध होता है.”

रणसुभे जी की आलोचना-पद्धति प्रकारांतर से ऐतिहासिक-समाजशास्त्रीय पद्धति है. इसलिए उसमें दलित साहित्य समेत तमाम कलाकृतियों एवं वैचारिक साहित्य को इतिहास की धारा में रखकर मूल्यांकित करने के पेशकश है. इसीलिए वे दलित साहित्य पर लिखने के पूर्व भारतीय चित्त के निर्माण में ‘मनुस्मृति’ की भूमिका को रेखांकित करते हैं:

“मनुस्मृति की व्यवस्था धीरे-धीरे इस देश की मानसिकता में घर करने लगी. शिक्षित हों या अशिक्षित, बकी मानसिकता के निर्माण में मनुस्मृति की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही है…आर्यसमाजी मनुस्मृति पर लगाए गए आरोपों का खण्डन करने का प्रयत्न करते हैं. उनके अनुसार मनुस्मृति के जो श्लोक आपत्तिजनक हैं,वे प्रक्षिप्त हैं. सवाल यह नहीं है कि कौन- से श्लोक शुद्ध और कौन-से प्रक्षिप्त हैं. सवाल है कि मनु स्मृति में रूपायित समाज-व्यवस्था से, वर्ण-व्यवस्था से यहाँ की मानसिकता बनी है कि नहीं…मनु ने अमानवीय समाज-व्यवस्था का अर्थात वर्ण-व्यवस्था का केवल समर्थन ही नहीं किया अपितु उसे धर्म, दर्शन, तथा आचरण के नियमों के अंतर्गत ला रखा, आग्रह से उसका प्रतिपादन किया, ऐसी व्यवस्था को बनाए रखने के लिए शास्त्र का निर्माण किया. इसलिए इसको न केवल नकारना ज़रूरी है, बल्कि नए मानवीय समाज-निर्माण के लिए इस शास्त्र को नष्ट करना भी आवश्यक है.”

वर्ण-व्यवस्था के विरुद्ध स्वामी दयानंद सरस्वती और आर्य समाज की भूमिका को एक सीमा तक स्वीकार करने के बावजूद डॉ.रणसुभे उनके समकालीन जोतिबा फुले को दयानंद की तुलना में कहीं ज़्यादा महत्त्वपूर्ण और मानते हैं.

ऊपर उद्धृत लम्बे उद्धरण से गुजरते हुए लेखक की साफगोई और दो-टूकपन से दो-चार हुआ जा सकता है. कहना यह है कि डॉ. रणसुभे सुविधाजीवी बुद्धिजीवियों की तरह दुविधा की भाषा के बजाय चीज़ों को उनके सही नाम से पुराने में विश्वास रखते है. उनके अनुसार दलित साहित्य में जो नकारवादी स्वर है उसके पीछे मनुवादी व्यवस्था से घृणा और रचनात्मकता की पृष्ठभूमि में बुद्ध की समतावादी व्यवस्था है. कहने की ज़रूरत नहीं है कि दलित रचनाकार जब वर्ण-व्यवस्था के कारण अपने निजी जीवन या सामुदायिक जीवन के भोगे हुए तेजाबी यथार्थ को व्यक्त करने लगते हैं तो कई बार इस जीवन की जय के दौरान कला की पराजय दिखाई पडती है. मिर्ज़ा ग़ालिब ने सही लिखा है:

फ़रियाद की कोई लय नहीं है नाला पाबन्द-ए-नय नहीं है
क्यूं रद्दे क़दह करे है जाहिद मय है मगस की क़य नहीं है.

समकालीनता के आत्यन्तिक दबाव में अपनी ज़मीन से उखड़े हुए लोगों की तरह मध्यकालीन काव्य से अनभिज्ञ आलोचकों से विलग डॉ. रणसुभे संत-भक्त कवियों की क्रांतिकारी भूमिका का ज़िक्र करना नहीं भूलते. सच तो यह है कि उनके भीतर की गहरी संवेदनशीलता का श्रोत भक्तिकाव्य के उनके अगाध ज्ञान में निहित है. संत ज्ञानेश्वर, तुकाराम, बसवेश्वर, कबीर, रैदास आदि कवियों पर उनको सुनना एक अनोखा अनुभव हुआ करता है. वे दलित साहित्य के सन्दर्भ में भी इन संत-भक्त कवियों की भूमिका को स्वीकार करते हैं. यह सही है कि इन मध्य युगीन रचनाकारों के लेखन के बावजूद दलित समाज की स्थिति में कोई ख़ास बेहतरी नहीं आई, पर इनको नज़रअंदाज़ करना रणसुभे जी की दृष्टि में विवेकसम्मत नहीं है. इस मुद्दे पर उनका दृष्टिकोण सुप्रसिद्ध समाजशास्त्री और बँगला साहित्य के मर्मी लेखक-आलोचक धुर्जटि प्रसाद मुखर्जी के नज़रिए के करीब है, जिन्होंने भक्ति आन्दोलन की विफलता के कारणों पर विस्तार से विचार करते हुए लिखा है कि संत काव्य में निहित विद्रोही चेतना और वैयक्तिकता जहाँ पुरोहितवाद का विरोध करती है, वहीं ईश्वर-प्रेम के बहाने व्यक्त मानुष-प्रेम भाग्यवाद का विरोधी है.

उनके अनुसार भक्तिकाव्य इस बात का रचनात्मक प्रमाण प्रस्तुत करता है कि एक बंद समाज में रहस्यवाद कैसे क्रांतिकारी भूमिका अदा करता है. लेकिन भक्ति काव्य की परिणति से यह जाहिर हो जाता है कि साहित्यिक परम्पराओं की अपेक्षा सामाजिक-सांस्कृतिक परम्पराएं किस हद तक ताकतवर होती हैं. भक्ति आन्दोलन को जन-जागरण पैदा करने वाले एक सांस्कृतिक आन्दोलन के रूप में चिह्नित करते हुए डी. पी. मुखर्जी कहते हैं कि उस जागरण की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि उसमें समाज की स्वीकृति के बावजूद सामाजिक हित के लिए किसी स्पष्ट विकल्प का अभाव है. वस्तुतः भक्तिकाव्य में आत्मा के अनुरोध और जन-जीवनगत यथार्थ के बीच दरार की वजह आध्यात्मिकता की भौतिक अंतर्वस्तु और धर्म के रूप के बीच अंतर्विरोध तथा राजनीतिक चेतना के अभाव में निहित है.
यह सही है कि सूर के वृन्दावन और रैदास के बेगमपुर में जातिभेद के लिए कोई जगह नहीं है. गेल आमवेट की ‘सीकिंग बेगमपुरा: द सोशल विज़न ऑफ़ एंटी कास्ट इंटेलेक्चुअल’ पुस्तक में रैदास के एक पद की जो नवोन्मेषशालिनी व्याख्या है,उसमें कवि रैदास के यूटोपिया या कलपना लोक की अद्भुत विश्लेषण है. किन्तु, जाहिर है कि तत्कालीन समाज में व्याप्त भेदभाव के मद्देनज़र भक्त कवियों का यूटोपिया कालांतर में इसे जड़मूल से उखाड़ फेंकने में नाकामयाब साबित हुआ. वजह यह कि केवल सदाचारवाद का प्रवचन और व्यक्तिगत स्तर पर उसे अमल में लाने से कोई समाज-व्यवस्था कभी नहीं बदलती. र्डॉ. रणसुभे कहते हैं कि इसी कारण दलित साहित्य एक सीमा तक ही संतों के कार्य को स्वीकार करता है.

गौरतलब है कि किसी भी रचनाधारा में फार्मूलाबद्ध लेखन कालान्तर में रचना के सत्त्व को हानि पहुँचाता है. यह बात अन्य रचनाओं के साथ-साथ दलित लेखन पर भी लागू होती है. यह सुखद है कि धीरे-धीरे दलित साहित्यकारों ने समाज के दूसरे तबकों पर दोषारोपण को स्थगित कर आत्मालोचन करते हुए अपने समुदाय की कमियों को भी रेखांकित करना आरंभ किया है. दलित कहानी का विश्लेषण करते हुए डॉ. रणसुभे एक सच्चे समालोचक की हैसियत से उन कहानियों की ओर पाठकों का ध्यान खींचते हैं जिनमें दलित समुदाय के भीतर मौजूद प्रतिक्रियावादी और स्वार्थी तत्त्वों को बेनकाब किया गया है. इतना ही नहीं, दलित कहानी में उन्हें स्त्री पात्रों का अभाव भी खटकता है. उनके अनुसार चूंकि दलित जीवन में रोजी-रोटी की समस्या ही महत्त्वपूर्ण होती है, इसलिए उनके जीवन को आधार बनाकर रचित कहानियों में स्त्री-पुरुष संबंधों का यथोचित वर्णन नहीं मिलता.

दलित आत्मकथा पर लिखने के दौरान डॉ. रणसुभे ने सुप्रसिद्ध संरचनावादी चिन्तक नार्थोप फाई का एक कथन उद्धृत करते हुए आत्मकथा की रचना-प्रक्रिया और उसके लेखन का औचित्य प्रतिपादित किया है. उनके शब्दों में

“आपबीती इस दृष्टि से रचनात्मक है कि कृतिकार को आपबीती में घटनाओं और अनुभवों की एक सुदीर्घ शृंखला का चयन करके एक विश्वस्त तंत्र निर्मित करना पड़ता है तथा यह प्रक्रिया कथात्मकता की प्रक्रिया के सदृश है.”

दलित लेखन के सन्दर्भ में ‘आत्मकथा’ के बजाय ‘दलित स्वकथन’ के इस्तेमाल की वकालत करते हुए डॉ. रणसुभे लिखते हैं कि

“दलित स्वकथन मुख्यत: एक सामाजिक दस्तावेज़ है…आत्मकथा स्वांत: सुखाय लिखी जाती है. परन्तु दलित स्वकथन भयानक पीड़ा के साथ लिखा जाता है.”

इस आलेख में हिन्दी पाठकों को मराठी की पन्द्रह महत्वपूर्ण दलित आत्मकथाओं से परिचित कराया गया है. वर्ण-व्यवस्था के तहत इक्कीसवीं सदी में भी भारतीय समाज में व्याप्त भेदभाव के प्रसंग में लेखक ने इस पुस्तक में एक स्थान पर एक कड़वा निजी अनुभव साझा किया है:

“महाराष्ट्र से दिल्ली की यात्रा में था. लम्बी यात्रा, अकेला मैं. शयनयान में बैठा था. सामने एक उत्तर भारतीय परिवार था. रेल हिन्दी भाषी प्रदेश से गुजर रही थी. दोपहर का समय था. सामने बैठे परिवार में से पुरुष ने मुझसे पूछा: ‘भाई साहब, आप किस बिरादरी से जुड़े हैं?’ मेरी हिन्दी से तो कोई पहचान नहीं पाता कि मैं अहिन्दी भाषी हूँ. मैंने जान-बूझकर कहा कि ‘मैं दलित हूँ.’

इस एक वाक्य से मानो धमाका हुआ. नीरव शांतता. थोड़ी देर बाद उस पुरुष ने पूरी नम्रता से कहा, ‘भाई साहब, क्या आप थोड़ी देर दरवाज़े के पास जाकर खड़े हो जाएंगे, हमें लंच लेना है. ’अत्यंत विनम्रता! भयंकर अपमान, परन्तु इस वाक्य में छिपे भयंकर अपमान के विष को क्या सभी लोग महसूस कर सकेंगे? मैं अगर यह कहता कि मैं ब्राह्मण हूँ, ठाकुर हूँ या लाला तो मुझे लंच में शरीक कर लिया जाता. मैंने कहा कि मैं दलित हूँ और मुझे वहाँ से उठाया गया. दलित की यातना क्षण भर के लिए अगर महसूस करनी हो तो अपनी मूल जाति छिपाकर कभी दलित बनकर देखी. तब पता चलेगा कि आखिर दलित होने का मतलब क्या है,ठीक इसी प्रकार एक यात्रा में जब मैंने अपना परिचय एक मुसलमान के रूप में दिया तो चर्चा के सारे सन्दर्भ बदल गए और कई आँखों में संदेह उभरकर आने लगा.”

रणसुभे जी द्वारा वर्णित इस प्रसंग से गुजरते हुए दिनकर की ‘रश्मिरथी’ में आए कर्ण के एक मार्मिक कथन के साथ ही भवभूति का स्मरण स्वाभाविक है:

‘हम उनका आदर्श कि जो निज व्यथा न खोल सकेंगे
पूछेगा जग किन्तु पिता का नाम न बोल सकेंगे.

‘उत्तररामचरितम’ में राम के व्यक्तित्व की करुणाजन्य व्यापकता और गहराई का चित्रण करते हुए भवभूति ने लिखा है कि जिस प्रकार औषधि को गड्ढे की आग में रखकर पकाने के लिए ‘पुटपाक’ कहे जानेवाले ऊपर-नीचे से बंद और मजबूत धातु के पात्र में रखी औषधि भीतर के ताप से पिघलकर द्रवीभूत तो हो जाती है, पर सुदृढ़ता के कारण ‘पुटपाक’ टूटता नहीं है, उसी प्रकार राम की व्यथा आवेग के ताप से मर्म को पिघलाती हुई भीतर ही भीतर उबलती-फैलती है, बाहर नहीं आती-

अनिर्भिन्नो गंभीरत्वादन्तर्गूढघनव्यथ: I
पुटपाकाप्रतीकाशो रामस्य करुणो रस:II

सामाजिक गतिकी की दृष्टि से यह अच्छी बात है कि हमारे समय में दलित समुदाय से आने वाले अनेकानेक रचनाकार साहित्य की तमाम विधाओं में अपनी व्यथा खोलकर रखते हुए न केवल समाज को आइना दिखा रहे हैं, बल्कि आत्म निरीक्षण भी कर रहे हैं. इसके साथ ही वे स्वाभिमान की रक्षा के लिए तत्पर हैं और अपने संवैधानिक अधिकारों के प्रति जागरूक भी. बावजूद इसके, उल्लेखनीय है कि दलित आत्मकथाओं में जो गिनी चुनी रचनाएँ कला की ऊँचाई का स्पर्श कर सकी हैं, उनमें रचनाकार की व्यथा तथाकथित सवर्णों के प्रति नफरत या गाली-गलौज के बजाय ऐसे लहजे में व्यक्त हुई है जिससे गुजरते हुए किसी भी समुदाय का सहृदय पाठक जातिवाद से घृणा करने लग जाता है. इस दृष्टि से डॉ. रणसुभे द्वारा हिन्दी में अनूदित और बहुविध विवेचित मराठी दलित आत्मकथा ‘यादों के पंछी’, आदिवासी आत्मकथा ‘अक्करमाशी’ और ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा ‘जूठन’ आधुनिक भारतीय साहित्य की अन्यतम कृतियाँ सिद्ध होती हैं.

अपने लेखन के शुरूवाती दौर में ‘कहानीकार कमलेश्वर : सन्दर्भ और प्रकृति’ तथा ‘देश विभाजन और हिन्दी कथा साहित्य’ जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रंथों के रचयिता डॉ. सूर्यनारायण रणसुभे ने अपने लेखक-मित्रों के साथ ‘हिन्दी साहित्य का अभिनव इतिहास’, ‘कहानीकार अज्ञेय: सन्दर्भ और प्रवृत्ति’ तथा ’साहित्य शास्त्र’ सरीखी अनेक किताबें लिखी हैं, पर दलित चिंतन और दलित साहित्य के अनुवाद के क्षेत्र में उनका योगदान अप्रतिम है. यादों के पंछी’, ’अक्करमाशी’, ’उठाईगीर’ जैसी प्रमुख दलित आत्मकथाओं के सफल अनुवादक, ‘अनुवाद का समाजशास्त्र’ जैसे ग्रन्थ के प्रणेता और अनुवाद-चिन्तक एवं ‘दलित साहित्य: स्वरूप और संवेदना’ पुस्तक के लेखक एवं आम्बेडकरवादी विचारक के रूप में हिन्दी-मराठी जगत में विख्यात डॉ. सूर्यनारायण रणसुभे की रचनावली ‘भावना प्रकाशन’, दिल्ली से प्रकाशित है, जिस पर हमारे समय के शब्द-चेतन समुदाय की दृष्टि जानी चाहिए. प्रसन्नता की बात है कि आज अठहत्तर वर्ष की आयु में भी वे रचना, आलोचना एवं अनुवाद के क्षेत्र में अपनी सतत सक्रियता से हिन्दी और मराठी साहित्य को समृद्ध करने के साथ ही बाबासाहेब आम्बेडकर के ‘वर्ण-जाति विहीन समाज’ के स्वप्न को साकार करने में जुटे हैं.
………………………………………………………………………………………………………………..
डॉ.रवि रंजन
प्रोफ़ेसर एवं पूर्व अध्यक्ष,
हिन्दी विभाग, हैदराबाद विश्वविद्यालय,हैदराबाद-500046
ई.मेल: raviranjan_hcu@yahoo.com मोबाइल: 9000606742

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Comments 21

  1. Garima Srivastava says:
    4 years ago

    बहुत ही नूतन सूचनाओं से लैस ज्ञानवर्धक लेख। सूर्य नारायण रणसुभे जैसे अनगिन साहित्यसेवी हमारे दृष्टि पटल से ओझल ही रह जाते हैं.ऐसे रचनाकार ,अनुवादक,आलोचकों को समालोचन पर ला कर भारतीय साहित्य की मुकम्मल तस्वीर से हिंदी भाषी पाठक को रूबरू करवाए जाने की आवश्यकता है।समृद्ध आलेख के लिए अरुण जी और रविरंजन सर को शुभाशंसाएं

    Reply
  2. सारंग उपाध्याय says:
    4 years ago

    अक्करमाशी पर क्या ही कहूं।ऐसी रचनाएं सामने लाने वाले अनुवादक बधाई के पात्र हैं। समालोचन उल्लेखनीय और महत्वपूर्ण कार्यों को संजोता है। अनुवादकों के कार्य और उनके जीवन संघर्षों पर भी श्रृंखला होनी चाहिए। लेख पढ़ता हूँ। समालोचन का आभार। 🙏

    Reply
  3. प्रवीण कुमार says:
    4 years ago

    नयेपन के साथ विचारणीय लेख ।

    Reply
  4. Anonymous says:
    4 years ago

    डॉ. सूर्यनारायण रणसुभे जी पर लिखा आपका लेख बहुत व्यापक और सार्थक है। रणसुभे जी के अवदान को आपने बहुत गहराई से रेखांकित किया है। हिंदी और मराठी दोनों भाषाओं में समान रूप से लेखन और परस्पर अनुवाद के माध्यम से उन्होंने
    दोनों भाषाओं की सेवा की है।
    आपके इस लेख से पाठक बहुत लाभान्वित होंगे। साधुवाद।

    Reply
  5. सत्यदेव त्रिपाठी says:
    4 years ago

    आदरणीय सूर्य नारायण रणसुभेजी पर भाई रवि रंजन का आलेख देखकर बहुत अच्छा लगा। यह कार्य बहुत जरूरी था। उनके कृतित्त्व की पड़ताल बड़े परिश्रम व सदाशयता की गई है। किंचित जीवन भी आया है – बहुत प्रासंगिक। रवि रंजनजी को बधाई और अरुणजी को साधुवाद…
    लेकिन उनके जीवन पर विस्तार से लिखा जाना भी बहुत प्रेरणास्पद होगा – खासकर आज के समय में…
    मुम्बई-पूना-गोवा रहते हुए पूरे महाराष्ट्र के आयोजनों में पचासों बार हमारा मिलना हुआ। दर्जनाधिक बार मैंने ही बुलाया होगा। इतने सहज कि जब भी बुलाइये, वे अवश्य आते थे – दायित्त्व की तरह। पूरी तैयारी के साथ आते थे..विषय के साथ हमेशा अधिकतम न्याय करते थे। और विषय जो भी दीजिए -कोई ना-नुकुर नहीं। खास यह कि जैसे भी बुलाइये आ जाते थे। मेरा बजट हमेशा कम रहता था। ऐसे में एक बार वे एस टी बस से आ गये – हम शर्मसार होने लगे, तो बोले – पैसे के लिए शिक्षा का काम कैसे रुक सकता है। सहज इतने कि एक बार दिल्ली या शिमला से चले आये। सपत्नीक थे। दादर उतरके लोकल गाड़ी पकड़ के चर्चगेट आ गये। रात के 12 बजे। चर्चगेट पर मेल गाड़ियां नहीं आतीं। कुली न थे। मैं भी अकेले था। सब करके हार गया। सामान मुझे नहीं लेने दिया। भले रास्ता 4 मिनट का ही था, पर कंधे पे लिये हुए क्लब हाउस तक गए। बमुश्किल भाभी का बैग छीन पाया मैं। उनके अपने अंचल में उन्हीं के बुलावे पर दो बार गया और पूरे पवस्त के शिक्षितों ही नहीं, आम जन और आबालवृद्ध … सब के बीच उनकी लोकप्रियता, मान-सम्मान अद्भुत था। मुझ जैसे दुनियावी को लगा कि वे वहां से चुनाव जीत सकते थे, पर उनकी वृत्ति न थी। कितने विधायक-नेता उनके शिष्य रहे – शायद कुछ काम करने-कराने की उन्हें जरूरत न थी। यह तो छोड़िए, जिस भी विवि में चाहते, जा सकते थे। लेकिन अपने अंचल के कॉलेज में रहे और सिर्फ शिक्षक – एक मुकम्मल शिक्षक। सारा समय आने पढ़ने-लिखने को अर्पित किया। ऐसे व्यक्तित्वों की पीढ़ी अब समाप्तप्राय है। अतः आने वाली पीढ़ियों के लिए इनके अवदानों -कार्यो को लिपिबद्ध होना ही चाहिए…

    Reply
  6. Rama Prakash Nawale - Bulbule says:
    4 years ago

    आदरणीय प्रो. रविरंजन जी के इस लेख के लिए बधाई एवं हार्दिक अभिनंदन। पर मैं अत्यंत विनम्रता के साथ यह कहना चाहती हूँ कि डॉ. सूर्यनारायण रणसुभे जी के बारे में बाहर के पाठक और हिंदी के अध्येता काफी कुछ जानते हैं, उनका लेखन पढ़ते रहते हैं । परंतु हमारे आसपास की नई पीढ़ी के हिंदी प्राध्यापक उनके लेखन के बारे में कुछ नहीं जानते। इसी कारण तो मैंने उनकी समीक्षा पर *”समीक्षा की समीक्षा (डॉ. सूर्यनारायण रणसुभे की समीक्षा के विशेष संदर्भ में)”* यह पुस्तक लिखी है । यश प्रकाशन, दिल्ली से यह पुस्तक 2020 में ही प्रकाशित हो चुकी है। आप लोगों की जानकारी के लिए मैं यह दे रही हूं। यहाँ के अध्येता उनका नाम एवं उनके वक्तृत्व से बहुत अच्छी तरह से परिचित है, पर शायद उनकी रचनाओं को कम पढ़ा होगा। यह खुशी का विषय है कि रविरंजन जी ने रणसुभे जी की जिन दो किताबों का उल्लेख किया है, उनमें से एक -“आधुनिक हिंदी साहित्य का इतिहास” – जो भारतभर में केरल से लेकर आसाम नागालँड तक के विश्वविद्यालयों में भी प्रिय रही है। तथा दूसरी – “अनुवाद का समाजशास्त्र” – उनकी मौलिक उपलब्धि है। हालाँकि इस किताब के अंत में रणसुभे जी की सभी रचनाओं का परिचय पाठकों के लिए उपलब्ध है।
    मुझे यह सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि यह लेख मूलतः समकालीन भारतीय साहित्य की पत्रिका में छप चुका है। आपको विदित ही होगा कि भारतीय साहित्य की यह पत्रिका साहित्य अकादमी दिल्ली द्वारा निकाली जाती है और साहित्य अकादमी राष्ट्रीय स्तर पर के लेखको, समीक्षकों पर ही लेख छापती हैं। इस क्रम में हमारे सर का आना हम सबके लिए , महाराष्ट्र के लिए अभिमान की बात है। मुझे यह भी सूचित करते हुए और अधिक प्रसन्नता हो रही है कि मेरा एक अन्य शोधालेख – *”महाराष्ट्र के हिंदी आलोचक डॉ. सूर्यनारायण रणसुभे”* – केंद्रीय हिंदी निदेशालय, दिल्ली से निकलनेवाली त्रैमासिक पत्रिका *’भाषा’* में करीब दस साल पहले प्रकाशित हो चुका है।
    उनके साहित्यिक योगदान पर प्रा. शेख माजिद द्वारा शोध कार्य भी किया जा चुका है।
    आदरणीय रणसुभे सर का अभिनंदन और विशेष कर प्रो. रविरंजन जी का विशेष अभिनंदन। जिनके लेख के कारण यह सब याद करने का अवसर मिला।
    रमा बुलबुले-नवले
    9890350325

    Reply
  7. शेख रज़िया शहेनाज़ शेख अब्दुल्ला says:
    4 years ago

    आदरणीय प्रो. रवि रंजन जी द्वारा लिखा लेख पढ़ा, पढ़कर बहुत हर्ष हुआ के आपने हमारे परम आदरणीय सभी के स्नेही महाराष्ट्र की गरिमा बढ़ानेवाले वरिष्ठ हिन्दी साहित्यकार डॉ. सूर्य नारायण रणसुभे सर पर गौरवशाली लेख लिखा जिसके लिए आपका हृदय से आभार और अभिनंदन। अपने इस लेख में सर के जीवन परिचय में उनका व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों पर प्रकाश डाला हैं, जो की सराहनिय है। क्योंकि आज की युवा पीढ़ी के लिए यह अत्यंत अवश्यक और उपयुक्त हैं। साथ ही साथ सर के व्यक्तित्व का भी प्रभाव पड़ेगा। यह आज की पीढ़ी तक पहुँचाने का अमूल्य कार्य आपने किया हैं। जहाँ आपने सर के व्यक्तित्व के माध्यम बताया के विपरित परिस्थितियों में भी व्यक्ति अगर ठाण ले तो अपने लक्ष्य या उद्देश को पा सकता हैं। यह डॉ. सूर्य नारायण रणसुभे सर से अच्छा और क्या उदाहरण हों सकता है। आपने सर के द्वारा लिखे पुस्तकों के बारें में संक्षिप्त परंतु महत्वपूर्ण और उपयुक्त जानकारी दी है, वह भी प्रशंसनीय है। सर एक महान साहित्यकार होते हुए भी उनकी सादगी से भरा जीवन सभी को प्रेरणा देता हैं और सभी को प्रिय है। सर का व्यक्तित्व ही ऐसा हैं कि जिसने भी उनको सुन लिया वह अपने आप उनकी ओर खिंचा चला जाता हैं, मैं भी उनमें से एक हूँ। सर का अपनापन हर एक के लिए समान है। सर की विशेषता है की इतने बड़े विद्वान होने के बावजूद हम जैसे साधारणजन को भी महत्व देते है। मैं भी अपने आपको ध्यन्य और भाग्यशाली मानती हूँ की मैं अद्वितीय सत्यनिष्ठा और अगाध विद्वत्ता से परिपूर्ण मराठी और हिन्दी समेत दुनिया की श्रेष्ठ कृतियों के गंभीर अध्येता डॉ. सूर्यनारायण रणसुभे जी के संपर्क में आई हूँ।
    सर जी के लिए कहे मेरे चंद शब्द ‘सूर्य को दिया दिखाने’ के बराबर है। सर जी आपके व्यक्तित्व और कृतित्व को मैं ‘सलाम’ करती हूँ और मेरी यह दो पक्तियाँ आपके लिए समर्पित है –
    “हिन्दी साहित्य जगत के जगमगाते सूर्य है आप,
    तो हम उसकी मात्रा एक किरण हैं।“
    शेख रज़िया शहेनाज़ शेख अब्दुल्ला
    9850602786 Email ID: drskraziya@gmail.com

    Reply
  8. Daya Shanker Sharan says:
    4 years ago

    साहित्य के संदर्भ में भाषाओ के बीच अंतर्संबंधों का एक सशक्त एवं मुख्य माध्यम अनुवाद है। इस दृष्टि से सूर्य नरायण जी का योगदान बहुमूल्य है।मराठी और हिन्दी के बीच वे एक महत्वपूर्ण संपर्क-सूत्र रहे हैं।यह आलेख उनके कृतित्व और व्यक्तित्व के कई अछूते पहलुओं पर प्रकाश डालता है। इस आलेख के बहाने दलित साहित्य के अनेक पक्षों पर भी अनेक विचारकों की गंभीर मीमांसा है। सभी को हार्दिक बधाई !

    Reply
  9. रवि रंजन says:
    4 years ago

    सभी मित्रों को धन्यवाद ।

    Reply
  10. Anonymous says:
    4 years ago

    प्रसिद्ध समीक्षक डॉ रवि रंजन जी द्वारा गुरुदेव रणसुभे जी पर लिखा हुआ अध्ययन पूर्ण लेख पढ़ने को मिला। रणसुभे जी के जीवन और लेखन कार्य पर रवि रंजन जी ने विस्तृत प्रकाश डाला है। रवि रंजन जी का धन्यवाद। देश के जाने-माने समीक्षक एवं अनुवादक डॉ सूर्यनारायण रणसुभे जी ने अपनी लेखनी के माध्यम से समाज व्यवस्था द्वारा नकारे हुए वर्ग को इंसाफ दिला कर उनमें आत्म सम्मान , एवं स्वाभिमान जगा कर उन्हें प्रस्थापित करने का प्रयास किया है। सूर्य जिस प्रकार अंधेरे को समाप्त कर धरती को प्रकाशमान बनाता है वैसे ही अपने नाम को सार्थक करते हुए साहित्य क्षेत्र के इस सूर्यनारायण ने अपने समीक्षात्मक, वैचारिक , सृजनात्मक लेखन एवं अनुवाद के माध्यम से मराठी हिंदी भाषी क्षेत्र के पद दलित ,शोषित एवं मेहनतकश वर्ग के दुख ,पीड़ा एवं यातना पर प्रकाश डाल कर उसे दुनिया के सामने रखा।
    ‌ ‌ रणसुभे जी ने पूरी निष्ठा ,प्रतिबद्धता एवं परिश्रम से मराठी साहित्य का हिंदी में अनुवाद किया। सही अर्थों में वह हिंदी मराठी भाषा के सेतु एवं सांस्कृतिक, साहित्यिक , वैचारिक दूत है। अपने व्यक्तिगत जीवन में जिन यातनाओं एवं पीड़ा को उन्होंने भोगा था उस बोझ से मुक्ति पाने के लिए वह अनुवाद की ओर मुड़े। बचपन से ही आर्थिक विषमता को स्वयंम भोगने और देखने के कारण स्वाभाविक रूप से इन पर मार्क्सवादी विचारों का प्रभाव पड़ा, लेकिन यह पोथीनिष्ट मार्क्सवादी नहीं है। इसी मार्क्सवादी जीवन दृष्टि के कारण इन्होंने मनुष्य को केंद्र बिंदु में रखकर अपना लेखन किया है। संवेदनशील मन के रणसुभे जी एक कठोर साधक है। हमारा सौभाग्य है कि हमें गुरुदेव रणसुभे जी‌ जैसा गुरु मिला।
    प्रा डॉ रणजीत जाधव, लातूर

    Reply
  11. KAILAS G says:
    4 years ago

    वर्ण-जाति विहीन समाज निर्माण के लिए प्रतिबद्ध रचनाकारों को प्रायः अनदेखा किया जाता रहा है। डॉ. रणसुभे जी का लेखन भी इसी धारा का है। आपका आलेख रणसुभे जी के जीवन के साथ ही उनके लेखन को सूक्ष्म रूप में विवेचित करता है। साथ ही यह आलेख मराठी-हिंदी साहित्य के सेतु बने सृजनकर्ता के साहित्य की ओर उन्मुख होने की आवश्यकता को चिन्हित करता है।

    यह आलेख अपने आप में बड़े साहस का काम है। आपके इस व्यापक एवं सार्थक आलेख के लिए आपका आभार सर 🙏

    Reply
  12. Anonymous says:
    4 years ago

    प्रो.रवी रजन जी द्वारा लिखे इस लेख में डा. सूर्यनारायण रणसुभे जी के व्यक्तित्व एवं रचनाधर्मिता पर बहुत विस्तारसे आपने प्रकाश डाला है । आदरणीय रणसुभे जी देश के जाने माने अनुवादको में से एक है।अनुवाद विधा को नया आयाम देने में उनकी महती भूमिका रही है। अवकाश ग्रहण करने बाद भी उनका लेखन कर्म रुका नहीं ,आज भी वे नुतन विषयों को लेकर अपनी कलम चलाते है । यह आज के युवाओं के लिए प्रेरणादाई है।
    आपके इस व्यापक और चिंतनशील आलेख के लिए आपको हार्दिक बधाई।

    Reply
  13. प्रोफेसर शशि मुदीराज says:
    3 years ago

    माफ कीजिएगा, लेख पढा़ मगर बता नहीं पाई, अभी दुबारा पढ़ा. बहुत परिश्रम और आत्मीयता से लिखा हुआ सर्जनात्मक लेख है. यह रणसुभे जी के कृतित्व के साथ न्याय तो करता ही है उससे अधिक हिन्दी साहित्य जगत की ओर से रृणशोधन का भी पुनीत प्रयास है. वाक़ ई रणसुभे जी का कर्तृत्व लोगोें के ध्यान में लाए जाने की ज़रूरत है जिसे आप का लेखन निभा रहा है. इस लेख में पूरी किताब बनने की संभावना है, आशा है आप इस दिशा में सोच रहे होंगे.. शुभमस्तु.
    प्रोफेसर शशि मुदीराज, हैदराबाद।

    Reply
  14. Vishwanath kishan Bhalerao says:
    3 years ago

    आदरणीय प्रोफेसर रवी रंजन जी का मेरे गुरूवर्य डॉ सूर्यनारायण रणसुभे जी पर लिखा गया यह लेख ज्ञानवर्धक जानकारी के साथ साथ हमारी साहित्यिक एवं सांस्कृतिक पहचान को रेखांकित भी करता है।
    आदरणीय प्रोफेसर रवी रंजन जी का हार्दिक हार्दिक आभार।

    Reply
  15. Anonymous says:
    3 years ago

    एक सूर्य का दर्शन रवि ने कराया। नये आलोक में आदरणीय रणसुभे जी को आपने उद्घाटित किया। आपका आभार
    प्रकाश कोपार्डे

    Reply
  16. प्रोफेसर बलिराम धापसे ,महाराष्ट्र says:
    2 years ago

    सबसे प्रथम अरुण देव और रविरंजन जी को मौलिक लेख के लिए बधाई ! मात्र दक्षिण ही नहीं उत्तर में भी अपनी लेखनी और वाणी से हिंदी साहित्य और समीक्षा को समृद्ध करनेवाले श्रेष्ठ लेखक एवं आलोचक रणसुभे जी एक उल्लेखनीय नाम हैं l उनके पूरे रचनाकर्म और व्यक्तित्त्व को इस आलेख के द्वारा पाठकों को परिचित होने का अवसर मिला l रणसुभे जी से मेरा व्यक्तिगत परिचय रहा हैं, कभी भी कोई अकादमिक समस्या आनेपर उनका सदैव मार्गदर्शन लेता रहा हूँ l मैंने उनको पढ़ा,सुना और साथ रहा इस बात के लिए मैं अपने आपको गौरवान्वित महसूस करता हूँ l
    हाल ही मेरे द्वारा अनूदित (प्रकाशनाधीन) एक कृति की भूमिका उन्हीं के कर कमलोंद्वारा लिखी हैं l
    लेख सर्जक और रणसुभे जी की दीर्घायु की कामना के साथ …………………………………..

    Reply
  17. Dr. Vishwanath kishan Bhalerao says:
    2 years ago

    आदरणीय गुरूवर्य डॉ सूर्यनारायण रणसुभे जी पर प्रकाशित लेख हमेशा के लिए साहित्य के क्षेत्र में सराहनीय रहेगा। डॉ रवि रंजन सर जी मैं लातूर जिले का निवासी और डॉ सूर्यनारायण रणसुभे जी का शोध छात्र होने के कारण आपका हार्दिक आभार व्यक्त करता हूं। अपने बहुत ही सटीक अभिव्यक्ति की है।

    Reply
  18. Dr. Nayan Bhadule-Rajmane says:
    2 years ago

    मौलिक आलेख💐💐

    गुरुदेव जी हार्दिक बधाई 💐💐

    Reply
  19. प्रोफेसर डॉ . प्रल्हाद जी . लुलेकर , औरंगाबाद , महाराष्ट्र says:
    2 years ago

    प्रोफेसला रवि रंजन जी का लेख पढकर बहुत खुशी हुयी l परम आदरणीय डॉ . सूर्यनारायण रणसुभे जी का व्यक्तित्व का ये सच्चा आलेख है l मेरी किताब गैर दलितों केभी है डॉ . बाबासाहेब अम्बेडकर उन्हो ने अनुवाद किया है l
    डॉ . सूर्यनारायण रणसुभे जी इहवादी /भौतिकवादी भूमिका के साथ जीवन जिते है और वही भूमिका के साथ लेखन करते है l जीवन जिना और लेखन इसमे कोई अंतर नही है l अनुवाद के समाजशास्त्र ये उनकी किताब अमूल्य है l उनका सब लेखन के साथ भूमिका मौलिक है l
    यह लेख पढकर आनंद हुआ ..

    Reply
  20. डॉ. प्रकाश शिंदे says:
    11 months ago

    आदरणीय प्रोफेसर सूर्यनारायण रणसुभे सर को जन्मदिवस की बधाई एवं शुभकामनाएं आज 7 अगस्त 2024 को यह लेख पढ़ने का मुझे अवसर मिला है। आज़ गुरु रणसुभे जी का जन्मदिन है। यह लेख पढ़ने के बाद रणसुभे सर के व्यक्तित्व से जितना मैं परिचित था उससे कई गुना अधिक इस लेख ने मुझे उनका परिचय दिया है। उनकी साहित्यिक कृतियों को लेकर पढ़ने का अवसर छात्र जीवन से ही मिला है किंतु आपके इस आलेख में उनके समग्र साहित्य का सार पढ़ने को मिला है। रवि रंजन सर आपका चिंतन एवं विश्लेषण बेहद स्तरीय है। पुनः गुरुदेव को जन्मदिवस की शुभकामनाएं।

    Reply
  21. अरविंद मिश्र says:
    1 week ago

    आदरणीय रणसुभे जी द्वारा मेरे कविता संग्रह-“महज आदमी के लिए” की समीक्षा लिखी गई है। इस तरह से मुझे उनका परोक्ष आशीर्वाद प्राप्त हुआ है। बहुत सुखद आश्चर्य मिश्रित अनुभूति तब हुई जब उन्होंने समीक्षा मेल करके 27 दिसंबर 22को मुझे व्हट्सएप पर लिखा था कि-“कृपया, अपना मेल देखें” यह खुशी की बात है कि इस तारत्मय में मेरा उनसे लगातार संवाद होता रहा है।

    Reply

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